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देवशयनी एकादशी
इससे पूर्व आपने एकादशी व्रत कथा
में आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष में योगिनी एकादशी व्रत कथा पढ़ा। अब पढेंगे की- आषाढ़
मास में शुक्ल पक्ष में आने वाली एकादशी को देवशयनी एकादशी व्रत कहते हैं। कहीं-कहीं
इस तिथि को 'पद्मनाभा' भी
कहते हैं। सूर्य के मिथुन राशि में आने पर ये एकादशी आती है। इसी दिन से चातुर्मास
का आरंभ माना जाता है। इस दिन से भगवान श्री हरि विष्णु क्षीरसागर में शयन करते
हैं और फिर लगभग चार माह बाद तुला राशि में सूर्य के जाने पर उन्हें उठाया जाता
है। उस दिन को देवोत्थानी एकादशी कहा जाता है। इस बीच के अंतराल को ही चातुर्मास
कहा गया है।
देवशयनी एकादशी व्रत कथा की महिमा
पुराणों में वर्णन आता है कि भगवान
विष्णु इस दिन से चार मासपर्यन्त (चातुर्मास) पाताल में राजा बलि के द्वार पर
निवास करके कार्तिक शुक्ल एकादशी को लौटते हैं। इसी प्रयोजन से इस दिन को 'देवशयनी' तथा कार्तिकशुक्ल एकादशी को प्रबोधिनीएकादशी कहते हैं। इस काल में यज्ञोपवीत संस्कार, विवाह,
दीक्षाग्रहण, यज्ञ, गृहप्रवेश,
गोदान, प्रतिष्ठा एवं जितने भी शुभ कर्म है,
वे सभी त्याज्य होते हैं। भविष्य पुराण, पद्म
पुराण तथा श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार हरिशयन को योगनिद्रा कहा गया है।
संस्कृत में धार्मिक साहित्यानुसार
हरि शब्द सूर्य, चन्द्रमा, वायु, विष्णु आदि अनेक अर्थो में प्रयुक्त है।
हरिशयन का तात्पर्य इन चार माह में बादल और वर्षा के कारण सूर्य-चन्द्रमा का तेज
क्षीण हो जाना उनके शयन का ही द्योतक होता है। इस समय में पित्त स्वरूप अग्नि की
गति शांत हो जाने के कारण शरीरगत शक्ति क्षीण या सो जाती है। आधुनिक युग में
वैज्ञानिकों ने भी खोजा है कि कि चातुर्मास्य में (मुख्यतः वर्षा ऋतु में) विविध
प्रकार के कीटाणु अर्थात सूक्ष्म रोग जंतु उत्पन्न हो जाते हैं, जल की बहुलता और सूर्य-तेज का भूमि पर अति अल्प प्राप्त होना ही इनका कारण
है।
धार्मिक शास्त्रों के अनुसार आषाढ़
शुक्ल पक्ष में एकादशी तिथि को शंखासुर दैत्य मारा गया। अत: उसी दिन से आरम्भ करके
भगवान चार मास तक क्षीर समुद्र में शयन करते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागते
हैं। पुराण के अनुसार यह भी कहा गया है कि भगवान हरि ने वामन रूप में दैत्य बलि के
यज्ञ में तीन पग दान के रूप में मांगे। भगवान ने पहले पग में संपूर्ण पृथ्वी,
आकाश और सभी दिशाओं को ढक लिया। अगले पग में सम्पूर्ण स्वर्ग लोक ले
लिया। तीसरे पग में बलि ने अपने आप को समर्पित करते हुए सिर पर पग रखने को कहा। इस
प्रकार के दान से भगवान ने प्रसन्न होकर पाताल लोक का अधिपति बना दिया और कहा वर
मांगो। बलि ने वर मांगते हुए कहा कि भगवान आप मेरे महल में नित्य रहें। बलि के
बंधन में बंधा देख उनकी भार्या लक्ष्मी ने बलि को भाई बना लिया और भगवान से बलि को
वचन से मुक्त करने का अनुरोध किया। तब इसी दिन से भगवान विष्णु जी द्वारा वर का
पालन करते हुए तीनों देवता ४-४ माह सुतल में निवास करते हैं। विष्णु देवशयनी
एकादशी से देवउठानी एकादशी तक, शिवजी महाशिवरात्रि तक और
ब्रह्मा जी शिवरात्रि से देवशयनी एकादशी तक निवास करते हैं।
देवशयनी एकादशी व्रतविधि एकादशी को
प्रातःकाल उठें। इसके बाद घर की साफ-सफाई तथा नित्य कर्म से निवृत्त हो जाएँ।
स्नान कर पवित्र जल का घर में छिड़काव करें। घर के पूजन स्थल अथवा किसी भी पवित्र
स्थल पर प्रभु श्री हरि विष्णु की सोने, चाँदी,
तांबे अथवा पीतल की मूर्ति की स्थापना करें। तत्पश्चात उसका
षोड्शोपचार सहित पूजन करें। इसके बाद भगवान विष्णु को पीतांबर आदि से विभूषित
करें। तत्पश्चात व्रत कथा सुननी चाहिए। इसके बाद आरती कर प्रसाद वितरण करें। अंत
में सफेद चादर से ढँके गद्दे-तकिए वाले पलंग पर श्री विष्णु को शयन कराना चाहिए।
व्यक्ति को इन चार महीनों के लिए अपनी रुचि अथवा अभीष्ट के अनुसार नित्य व्यवहार
के पदार्थों का त्याग और ग्रहण करें।
देह शुद्धि या सुंदरता के लिए परिमित
प्रमाण के पंचगव्य का। वंश वृद्धि के लिए नियमित दूध का। सर्वपापक्षयपूर्वक सकल
पुण्य फल प्राप्त होने के लिए एकमुक्त, नक्तव्रत,
अयाचित भोजन या सर्वथा उपवास करने का व्रत ग्रहण करें।
आज के दिन किसका त्याग करें- मधुर
स्वर के लिए गुड़ का। दीर्घायु अथवा पुत्र-पौत्रादि की प्राप्ति के लिए तेल का।
शत्रुनाशादि के लिए कड़वे तेल का। सौभाग्य के लिए मीठे तेल का। स्वर्ग प्राप्ति के
लिए पुष्पादि भोगों का। प्रभु शयन के दिनों में सभी प्रकार के मांगलिक कार्य जहाँ
तक हो सके न करें। पलंग पर सोना, भार्या का संग
करना, झूठ बोलना, मांस, शहद और दूसरे का दिया दही-भात आदि का भोजन करना, मूली,
पटोल एवं बैंगन आदि का भी त्याग कर देना चाहिए।
ब्रह्म वैवर्त पुराण में देवशयनी
एकादशी के विशेष माहात्म्य का वर्णन किया गया है। इस व्रत से प्राणी की समस्त
मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। व्रती के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। यदि व्रती
चातुर्मास का पालन विधिपूर्वक करे तो महाफल प्राप्त होता है।
देवशयनी एकादशी व्रत कथा
एक बार देवऋषि नारदजी ने ब्रह्माजी
से इस एकादशी के विषय में जानने की उत्सुकता प्रकट की,
तब ब्रह्माजी ने उन्हें बताया- सतयुग में मांधाता नामक एक चक्रवर्ती
सम्राट राज्य करते थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। किंतु भविष्य में क्या
हो जाए, यह कोई नहीं जानता। अतः वे भी इस बात से अनभिज्ञ थे
कि उनके राज्य में शीघ्र ही भयंकर अकाल पड़ने वाला है।
उनके राज्य में पूरे तीन वर्ष तक
वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल पड़ा। इस दुर्भिक्ष (अकाल) से चारों ओर
त्राहि-त्राहि मच गई। धर्म पक्ष के यज्ञ, हवन,
पिंडदान, कथा-व्रत आदि में कमी हो गई। जब
मुसीबत पड़ी हो तो धार्मिक कार्यों में प्राणी की रुचि कहाँ रह जाती है। प्रजा ने
राजा के पास जाकर अपनी वेदना की दुहाई दी।
राजा तो इस स्थिति को लेकर पहले से
ही दुःखी थे। वे सोचने लगे कि आखिर मैंने ऐसा कौन- सा पाप-कर्म किया है,
जिसका दंड मुझे इस रूप में मिल रहा है? फिर इस
कष्ट से मुक्ति पाने का कोई साधन करने के उद्देश्य से राजा सेना को लेकर जंगल की
ओर चल दिए। वहाँ विचरण करते-करते एक दिन वे ब्रह्माजी के पुत्र अंगिरा ऋषि के
आश्रम में पहुँचे और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। ऋषिवर ने आशीर्वचनोपरांत कुशल
क्षेम पूछा। फिर जंगल में विचरने व अपने आश्रम में आने का प्रयोजन जानना चाहा।
तब राजा ने हाथ जोड़कर कहा- 'महात्मन्! सभी प्रकार से धर्म का पालन करता हुआ भी मैं अपने राज्य में
दुर्भिक्ष का दृश्य देख रहा हूँ। आखिर किस कारण से ऐसा हो रहा है, कृपया इसका समाधान करें।' यह सुनकर महर्षि अंगिरा ने
कहा- 'हे राजन! सब युगों से उत्तम यह सतयुग है। इसमें छोटे
से पाप का भी बड़ा भयंकर दंड मिलता है।
इसमें धर्म अपने चारों चरणों में
व्याप्त रहता है। ब्राह्मण के अतिरिक्त किसी अन्य जाति को तप करने का अधिकार नहीं
है जबकि आपके राज्य में एक शूद्र तपस्या कर रहा है। यही कारण है कि आपके राज्य में
वर्षा नहीं हो रही है। जब तक वह काल को प्राप्त नहीं होगा,
तब तक यह दुर्भिक्ष शांत नहीं होगा। दुर्भिक्ष की शांति उसे मारने
से ही संभव है।'
किंतु राजा का हृदय एक नरपराधशूद्र
तपस्वी का शमन करने को तैयार नहीं हुआ। उन्होंने कहा- 'हे देव मैं उस निरपराध को मार दूँ, यह बात मेरा मन
स्वीकार नहीं कर रहा है। कृपा करके आप कोई और उपाय बताएँ।' महर्षि
अंगिरा ने बताया- 'आषाढ़ माह के शुक्लपक्ष की एकादशी का व्रत
करें। इस व्रत के प्रभाव से अवश्य ही वर्षा होगी।'
राजा अपने राज्य की राजधानी लौट आए
और चारों वर्णों सहित पद्मा एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया। व्रत के प्रभाव से
उनके राज्य में मूसलधार वर्षा हुई और पूरा राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया।
शेष जारी....आगे पढ़े- कामिका एकादशी व्रत कथा
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