अग्निपुराण अध्याय १४५
अग्निपुराण अध्याय १४५ में मालिनी
आदि नाना प्रकार के मन्त्र और उनके षोढा-न्यास का वर्णन है।
अग्निपुराणम् पञ्चचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः
Agni puran chapter 145
अग्निपुराण एक सौ पैंतालीसवाँ अध्याय
अग्निपुराणम्/अध्यायः १४५
अग्निपुराणम् अध्यायः १४५– मालिनीनानामन्त्राः
अथ पञ्चचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः
ईश्वर उवाच
नानामन्त्रान् प्रवक्ष्यामि
षोढान्यासपुरःसरम् ।
न्यासस्त्रिधा तु षोढा स्युः
शाक्तशाम्भवयामलाः ॥१॥
शाम्भवे शब्दराशिः षट्षोडशग्रन्थिरूपवान्
।
त्रिविद्या तद्ग्रहो
न्यासस्त्रितत्त्वात्माभिधानकः ॥२॥
चतुर्थो वनमालायाः
श्लोकद्वादशरूपवान् ।
पञ्चमो रत्नपञ्चात्मा नवात्मा षष्ठ
ईरितः ॥३॥
भगवान् महेश्वर कहते हैं—
स्कन्द ! अब मैं छः प्रकार के न्यासपूर्वक नाना प्रकार के मन्त्रों का
वर्णन करूँगा। ये छहों प्रकार के न्यास 'शाम्भव', 'शाक्त' तथा 'यामल 'के भेद से तीन-तीन प्रकार के होते हैं। 'शाम्भव-न्यास' में षट्षोडश ग्रन्थिरूप शब्दराशि
प्रथम है, तीन विद्याएँ और उनका ग्रहण द्वितीय न्यास है,
त्रितत्त्वात्मक न्यास तीसरा है, वनमालान्यास
चौथा है, यह बारह श्लोकों का है। रत्नपञ्चक का न्यास पाँचवाँ
है और नवाक्षरमन्त्र का न्यास छठा कहा गया है ॥ १-३ ॥
शाक्ते पक्षे च
मालिन्यास्त्रिविद्यात्मा द्वितीयकः ।
अधोर्यष्टकरूपोऽन्यो
द्वादशाङ्गश्चतुर्थकः ॥४॥
पञ्चमस्तु षडङ्गः
स्याच्छक्तिश्चान्यास्त्रचण्डिका ।
क्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं क्रूं
फट्त्रयं स्यात्तुर्याख्यं सर्वसाधकं ॥५॥
शाक्तपक्ष में 'मालिनी'का न्यास प्रथम, 'त्रिविद्या'का न्यास द्वितीय, 'अघोर्यष्टक'का न्यास तृतीय, 'द्वादशाङ्गन्यास'
चतुर्थ, 'षडङ्गन्यास' पञ्चम
तथा 'अस्त्रचण्डिका' नामक शक्ति का
न्यास छठा है। क्लीं (क्रीं), ह्रीं क्लीं श्रीं, क्रूं, फट्-इन छः बीजमन्त्रों का जो छः प्रकार का
न्यास है, यही तीसरा अर्थात् 'यामल
न्यास' है। इन छहों में से चौथा 'श्रीं'
बीज का न्यास है, वह सम्पूर्ण मनोरथों को
सिद्ध करनेवाला है ॥ ४-५ ॥
मालिन्या नादिकान्तं स्यात्नादिनी च
शिखा स्मृता ।
अग्रसेनी शिरसि
स्यात्शिरोमालानिवृत्तिः शः ॥६॥
ट शान्तिश्च शिरो भूयाच्चामुण्डा च
त्रिनेत्रगा ।
ढ प्रियदृष्टिर्द्विनेत्रे च नासागा
गुह्यशक्तिनी ॥७॥
न नारायणी द्विकर्णे च दक्षकर्णे त
मोहनौ ।
ज प्रज्ञा वामकर्नस्था वक्त्रे च
वज्रिणी स्मृता ॥८॥
क कराली दक्षदंष्ट्रा वामांसा ख
कपालिनी ।
ग शिवा ऊर्ध्वदंष्ट्रा स्याद् घ
घोरा वामदंष्ट्रिका ॥९॥
उ शिखा दन्तविन्यासा ई माया जिह्वया
स्मृता ।
अ स्यान्नागेश्वरी वाचि व कण्ठे
शिखिवाहिनी ॥१०॥
'न' से लेकर
'फ' तक जो न्यास बताया जाता है,
वह सब मालिनी का ही न्यास है। 'न' से आरम्भ होनेवाली अथवा नाद करनेवाली शक्ति का न्यास शिखा में करना
चाहिये। 'अ' ग्रसनी शक्ति तथा 'श' शिरोमाला निवृत्ति शक्ति का स्थान सिर में है अतः
वहीं उनका न्यास करे। 'ट' शान्ति का
प्रतीक है, इसका न्यास भी सिर में ही होगा। 'च' चामुण्डा का प्रतीक है, इसका
न्यास नेत्रत्रय में करना चाहिये। 'ढ' प्रियदृष्टिस्वरूप
है, इसका न्यास नेत्रद्वय में होना चाहिये। गुह्यशक्ति का
प्रतीक है- 'नी', इसका न्यास
नासिकाद्वय में करे। 'न' नारायणीरूप है,
इसका स्थान दोनों कानों में है। 'त' मोहिनीरूप है, इसका स्थान केवल दाहिने कान में है। 'ज' प्रज्ञा का प्रतीक है, इसकी
स्थिति बायें कान में बतायी गयी है। वज्रिणी देवी का स्थान मुख में है। 'क' कराली शक्ति का प्रतीक है, इसकी
स्थिति दाहिनी दंष्ट्रा (दाढ़) - में है। 'ख' कपालिनीरूप है, 'व' बायें कंधे
पर स्थापित होने के योग्य है। 'ग' शिवा
का प्रतीक है, इसका स्थान ऊपरी दाढ़ों में है। 'घ' घोरा शक्ति का सूचक है, इसकी
स्थिति बांयी दाढ़ में मानी गयी है। 'उ' शिखा शक्ति का सूचक है, इसका स्थान दाँतों में है। 'ई' माया का प्रतीक है, जिसका
स्थान जिह्वा के अन्तर्गत माना गया है। 'अ' नागेश्वरीरूप है, इसका न्यास वाक् इन्द्रिय में होना
चाहिये। 'व' शिखिवाहिनी का बोधक है,
इसका स्थान कण्ठ में है ॥ ६-१० ॥
भ भीषणी दक्षस्कन्धे वायुवेगा म
वामके ।
डनामा दक्षबाहौ तु ढ वामे च विनायका
॥११॥
प पूर्णिमा द्विहस्ते तु
ओकाराद्यङ्गुलीयके ।
अं दर्शनी वामाङ्गुल्य अः
स्यात्सञ्जीवनी करे ॥१२॥
ट कपालिनी कपालं शूलदण्डे त दीपनी ।
त्रिशूले ज जयन्ती स्याद्वृद्धिर्यः
साधनी स्मृता ॥१३॥
'भ' के साथ
भीषणी शक्ति का न्यास दाहिने कंधे में करे । 'म' के साथ वायुवेग का न्यास बायें कंधे में करे। 'ड'
अक्षर और नामा शक्ति का दाहिनी भुजा में तथा 'ढ'
अक्षर एवं विनायका देवी का बायीं भुजा में न्यास करे । 'प' एवं पूर्णिमा का न्यास दोनों हाथों में करे।
प्रणवसहित ओंकारा शक्ति का दाहिने हाथ की अङ्गुलियों में तथा 'अं' सहित दर्शनी का बायें हाथ की अङ्गुलियों में
न्यास करे । 'अ' एवं संजीवनी-शक्ति का
हाथ में न्यास करे। 'ट' अक्षरसहित
कपालिनी शक्ति का स्थान कपाल है 'त' सहित
दीपनी की स्थिति शूलदण्ड में है। जयन्ती की स्थिति त्रिशूल में है। 'य' सहित साधनी देवी का स्थान ऋद्धि (वृद्धि) है ॥ ११
- १३ ॥
जीवे श परमाख्या स्याद् हः प्राणे
चाम्बिका स्मृता ।
दक्षस्तने छ शरीरा न वामे पूतना
स्तने ॥१४॥
अ स्तनक्षीरा आ मोटो लम्बोदर्युदरे
च थ ।
नाभौ संहारिका क्ष स्यान्महाकाली
नितम्बम् ॥१५॥
गुह्ये स कुसुममाला ष शुक्रे
शुक्रदेविका ।
उरुद्वये त तारास्यादज्ञाना
दक्षजानुनि ॥१६॥
वामे स्यादौ क्रियाशक्तिरो गायत्री च
जङ्घगा ।
ओ सावित्री वामजङ्घा दक्षे दो दोहनी
पदे ॥१७॥
'श' अक्षर के
साथ परमाख्या देवी की स्थिति जीव में है। 'ह' अक्षरसहित अम्बिका देवी का न्यास प्राण में करना चाहिये। 'छ' अक्षर के साथ शरीरा देवी का स्थान दाहिने स्तन में
है। 'न' सहित पूतना की स्थिति बायें स्तन
में बतायी गयी है। 'अ' सहित आमोटी का
स्तन दुग्ध में, 'थ' सहित लम्बोदरी का
उदर में, 'क्ष' सहित संहारिका का नाभि में
तथा 'म' सहित महाकाली का नितम्ब में
न्यास करे। 'स' अक्षरसहित कुसुममाला का
गुह्यदेश में, 'ष' सहित शुक्रदेविका का
शुक्र में, 'त' सहित तारा देवी का
दोनों ऊरुओं में तथा 'द' सहित
ज्ञानाशक्ति का दाहिने घुटने में न्यास करे । 'औ' सहित क्रियाशक्ति का बायें घुटने में, 'ओ' सहित गायत्री देवी का दाहिनी जङ्घा (पिण्डली)-में, 'ॐ'
सहित सावित्री का बांयी जङ्घा में तथा 'द'
सहित दोहिनी का दाहिने पैर में न्यास करे । 'फ'
सहित 'फेत्कारी' का
बायें पैर में न्यास करना चाहिये॥१४-१७॥
फ फेत्कारी वामपादे नवात्मा मालिनी
मनुः ।
अ श्रीकण्ठः शिखायां स्यादावक्त्रे
स्यादनन्तकः ॥१८॥
इ सूक्ष्मो दक्षनेत्रे स्यादी
त्रिमूर्तिस्तु वामके ।
उ दक्षकर्णेऽमरौश ऊ
कर्णेर्घांशकोऽपरे ॥१९॥
ऋ भावभूतिर्नासाग्रे वामनासा तिथीश
ऋ ।
ळ स्थाणुर्दक्षगण्डे स्याद्वामगण्डे
हरश्च ॡ ॥२०॥
कटीशो दन्तपङ्क्तावे
भूतीशश्चोर्ध्वदन्त ऐ ।
सद्योजात ओ अधरे
ऊर्ध्वौष्ठेऽनुग्रहीश औ ॥२१॥
अं क्रूरो घाटकायां स्यादः
महासेनजिह्वया ।
क क्रोधीशो दक्षस्कन्धे
खश्चण्डीशश्च बाहुषु ॥२२॥
पञ्चान्तकः कूर्परे गो घ शिखी
दक्षकङ्कणे ।
ङ एकपादश्चाङ्गुल्यो तामस्कन्धे च
कूर्मकः ॥२३॥
मालिनी मन्त्र नौ अक्षरों से युक्त
होता है। 'अ' सहित
श्रीकण्ठ का शिखा में, 'आ' सहित अनन्त का
मुख में, 'इ' सहित सूक्ष्म का दाहिने
नेत्र में 'ई' सहित त्रिमूर्ति का
बायें नेत्र में 'उ' सहित अमरीश का
दाहिने कान में तथा 'ऊ' सहित अशक का
बायें कान में न्यास करे। 'ऋ' सहित
भावभूति का दाहिने नासाग्र में 'ऋॄ' सहित
तिथीश का वामनासाग्र में 'लृ' सहित
स्थाणु का दाहिने गाल में तथा 'लॄ' सहित
हर का बायें गाल में न्यास करे । 'ए' अक्षरसहित
कटीश का नीचे की दन्तपंक्ति में, 'ऐ' सहित
भूतीश का ऊपर की दन्तपंक्ति में, 'ओ' सहित
सद्योजात का नीचे के ओष्ठ में तथा 'औ' सहित
अनुग्रहीश (या अनुग्रहेश) - का ऊपर के ओष्ठ में न्यास करे । 'अं' सहित क्रूर का गले की घाटी में, 'अ' सहित महासेन का जिह्वा में, 'क' सहित क्रोधीश का दाहिने कंधे में तथा 'ख' सहित चण्डी का बाहुओं में न्यास करे । 'ग' सहित पञ्चान्तक का कूर्पर में, 'घ' सहित शिखी का दाहिने कङ्कण में, 'ङ' सहित एकपाद का दांयी अङ्गुलियों में तथा 'च' सहित कूर्मक का बायें कंधे में न्यास करे ।। १८ -
२३ ॥
छ एकनेत्रो बाहौ स्याच्चतुर्वक्त्रो
ज कूर्परे ।
झ राजसः कङ्कणगः ञः
सर्वकामदोऽङ्गुली ॥२४॥
ट सोमेशो नितम्बे स्याद्दक्ष ऊरुर्ठ
लाङ्गली ।
ड दारुको दक्षजानौ जङ्घा
ढोऽर्धजलेश्वरः ॥२५॥
ण उमाकान्तकोऽङ्गुल्यस्त आषाढो
नितम्बके ।
थ दण्डी वाम ऊरौ स्याद्द भिदो वामजानुनि
॥२६॥
ध मीनो वामजङ्घायान्न
मेषश्चरणाङ्गुली ।
प लोहितो दक्षकुक्षौ फ शिखी
वामकुक्षिगः ॥२७॥
ब गलण्डः पृष्ठवंशे भो नाभौ च
द्विरण्डकः ।
म महाकालो हृदये य
वाणीशस्त्वविस्मृतः ॥२८॥
'छ' सहित
एकनेत्र का बाहु में, 'ज' सहित
चतुर्मुख का कूर्पर या कोहनी में, 'झ' सहित
राजस का वाम कङ्कण में तथा 'ञ' सहित
सर्वकामद का बायीं अङ्गुलियों में न्यास करे। 'ट' सहित सोमेश्वर का नितम्ब में, 'ठ' सहित लाङ्गली का दक्षिण ऊरु (दाहिनी जाँघ) में, 'ड'
सहित दारुक का दाहिने घुटने में तथा 'ढ'
सहित अर्द्धजलेश्वर का पिण्डली में न्यास करे । 'ण' सहित उमाकान्त का दाहिने पैर की अङ्गुलियों में,
'त' सहित आषाढ़ी का नितम्ब में, 'थ' सहित दण्डी का वाम ऊरु (बाय जाँघ) - में तथा 'द' सहित भिद का बायें घुटने में न्यास करे।'ध' सहित मीन का बायीं पिण्डली में, 'न' सहित मेष का बायें पैर की अङ्गुलियों में,
'प' सहित लोहित का दाहिनी कुक्षि में तथा 'फ' सहित शिखी का बांयी कुक्षि में न्यास करे । 'ब' सहित गलण्ड का पृष्ठवंश में, 'भ' सहित द्विरण्ड का नाभि में, 'म' सहित महाकाल का हृदय में तथा 'य' सहित वाणीश का त्वचा में न्यास बताया गया है । २४
- २८ ॥
र रक्ते स्याद्भुजङ्गेशो ल पिनाकी च
मांसके ।
व खड्गीशः स्वात्मनि
स्याद्बकश्चास्थिनि शः स्मृतः ॥२९॥
ष श्वेतश्चैव मज्जायां स भृगुः
शुक्रधातुके ।
प्राणे ह नकुलीशः स्यात्क्ष
संवर्तश्च कोषगः ॥३०॥
रुद्रशक्तीः प्रपूज्य ह्रीं
बीजेनाखिलमाप्नुयात् ॥३१॥
'र' सहित
भुजङ्गेश का रक्त में, 'ल' सहित पिनाकी
का मांस में, 'व' सहित खङ्गीश का अपने
आत्मा (शरीर) में तथा 'श' सहित वक का
हड्डी में न्यास करे। 'ष' सहित श्वेत का
मज्जा में, 'स' सहित भृगु का शुक्र एवं
धातु में, 'ह' सहित नकुलीश का प्राण में
तथा 'क्ष' सहित संवर्त का पञ्चकोशों में
न्यास करना चाहिये। 'ह्रीं' बीज से
रुद्रशक्तियों का पूजन करके उपासक सम्पूर्ण मनोरथों को प्राप्त कर लेता है ।। २९-३१
॥
इत्याग्नेये महापुराणे
मालिनीमन्त्रादिन्यासो नाम पञ्चचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'मालिनी मन्त्र आदि के न्यास का वर्णन' नामक एक सौ
पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १४५ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 146
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