देवीरहस्य पटल ३१
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्यम् उत्तरार्द्ध
के पटल ३१ में सूर्यपञ्चाङ्ग निरूपण के विषय में बतलाया गया है।
रुद्रयामलतन्त्रोक्तं देवीरहस्यम् एकत्रिंशः सूर्यपटलम्
Shri Devi Rahasya Patal 31
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्य ईकतीसवाँ पटल
रुद्रयामल तन्त्रोक्त देवीरहस्यम् एकत्रिंश
पटल
देवीरहस्य पटल ३१ सूर्यपञ्चाङ्ग निरूपण
अथैकत्रिंशः पटल:
अथ सूर्यपञ्चाङ्गम्
सूर्यपञ्चाङ्गावतारः
श्रीभैरव उवाच
कैलासशिखरासीनं भैरवीपतिमीश्वरम् ।
भैरवं चन्द्रमुकुटं
गणगन्धर्वसेवितम् ॥ १ ॥
पन्नगाभरणोपेतं जटामुकुटमण्डितम् ।
भस्माङ्गरागधवलं सर्पगोनसकङ्कणम् ॥
२ ॥
सिंहचर्मपरीधानं गजचर्मोत्तरीयकम् ।
कपालखट्वाङ्गधरं घण्टाडमरुधारिणम् ॥
३॥
त्रिशूलबाणासिकरं वराभयकरं शिवम् ।
मुण्डमालाधरं कामकालान्धक भयङ्करम्
॥४॥
ब्रह्मोपेन्द्रेन्द्रनमितं
चन्द्रकोटिसुशीतलम् ।
यक्षेशकिन्नरोपेतं सुरासुरनमस्कृतम्
॥५॥
रक्षोमारीमहाप्रेत-भूतवेतालसंकुलम् ।
साध्यसिद्धपिशाचौघ- भैरवप्रणतं
प्रभुम् ॥६॥
ब्रह्मर्षिसेवितं देवं पार्वतीसहितं
विभुम् ।
गङ्गाधरं प्रसन्नास्यं
हसिताननपङ्कजम् ॥७॥
नन्दिरुद्रार्चितं शम्भुं दृष्ट्वा
प्रोवाच भैरवी ।
सूर्यपञ्चाङ्ग-अवतार –
श्री भैरव ने कहा – भैरवीपति ईश्वर
श्रीशैलशिखर पर विराजमान है। उन भैरव के शिर पर चन्द्रमुकुट है। गन्धर्वगण उनकी
सेवा में रत हैं। उनके आभरण नागों के हैं। जटा का मुकुट है। भस्म के अङ्गराग से
उनका शरीर श्वेत वर्ण का है। सर्पों और गोनस के कङ्गन हैं। परीधान सिंहचर्म का है।
हाथी के चमड़े का गमछा है। हाथों में कपाल, खट्वाङ्ग,
घण्टा, डमरू, त्रिशूल,
बाण, वर और अभय मुद्रा धारण किए हुए हैं। गले
में मुण्डों की माला है। कामदेव के काल और अन्धकासुर के लिये भयङ्कर हैं। ब्रह्मा
एवं विष्णु से नमस्कृत हैं। करोड़ चन्द्रमा के समान शीतल हैं। यक्ष और किन्नरों से
घिरे हैं। देव-दैत्य से नमस्कृत हैं। राक्षस, महामारी,
पिशाचसमूह भैरव प्रभु के पास नतशिर है। देवी पार्वती के साथ विभु
देव की सेवा में ब्रह्मर्षि लगे हुए हैं। उनके शिर पर गङ्गा है। मुख प्रसन्न है,
मुख कमल विहसित है। नन्दी और रुद्र से पूजित हैं। ऐसे शम्भु को
देखकर भैरवी ने कहा ।। १-७।।
श्रीदेव्युवाच
भगवन् देवदेवेश भक्तानामभयप्रद ।
त्वं शिवः परमेशानस्त्वं
विष्णुस्त्वं प्रजापतिः ॥८ ॥
सत्त्वाश्रितो रजोरूपस्तामसो लोकनाशनः
।
निर्गुणो भैरवाध्यक्षः कारणानां च
कारणम् ॥ ९ ॥
वेदमूलो वेदगम्यो जगत्त्राता
जगत्पतिः ।
त्वं मे प्राणाधिको देव क्रीतास्मि
तव किङ्करी ॥१० ॥
पुरा पृष्टोऽसि भगवन् मया त्वं
भक्तिपूर्वकम् ।
अद्य तद्वद तत्त्वं मे यद्यहं व
वल्लभा ॥ ११ ॥
देवी बोलीं- भगवन् देवदेवेश! भक्तों
के अभयदाता ! आप शिव हैं। परम ईशान हैं। आप विष्णु हैं। आप ब्रह्मा हैं।
सत्वाश्रित होकर आप पालन करते हैं। रजोरूप से सृष्टि करते हैं। तामस रूप से लोकों
का विनाश करते हैं। आप निर्गुण भैरवाध्यक्ष हैं। कारणों के कारण है। वेदमूल और
वेदगम्य हैं। आप संसार के रक्षक और संसार के स्वामी हैं। आप मुझे प्राणों से भी
अधिक प्रिय हैं। मैं आपकी क्रीतदासी हूँ। यदि मैं आपकी प्रिया हूँ तो मैंने पहले
जो भक्तिपूर्वक आपसे पूछा था, आज उस तत्त्व
का वर्णन कीजिये ।।८-११।।
श्रीभैरव उवाच
किं वक्ष्यामि शिवे तत्त्वं यत्
तवास्ति सुदुर्लभम् ।
विस्मृतं वद में शीघ्रं वक्ष्ये
प्राणाधिकासि मे ॥ १२ ॥
श्री भैरव ने कहा कि हे शिवे ! मैं
किस तत्त्व का वर्णन करूँ। वे दुर्लभ तत्त्व विस्मृत हो गये हैं। तुम मुझे प्राणों
से भी अधिक प्रिय हो उन तत्त्वों के बारे में मुझसे फिर पूछो ।। १२ ।।
श्रीदेव्युवाच
देवदेव महादेव दैत्यनायकपूजित ।
सकलागमसारज्ञ कौलिकानां हितेच्छया
।। १३ ।।
वद शीघ्रं दयासिन्धो पञ्चाङ्गं
पूर्वसूचितम् ।
देवदेवस्य सूर्यस्य
सर्वतत्त्वोत्तमोत्तमम् ।।१४।।
श्री देवी ने कहा कि हे देव-देव
महादेव! आप दैत्यनायक पूजित हैं। सभी आगमों के सार का ज्ञान आपको है। कौलिकों के
हित की इच्छा से हे दयासिन्धो! पूर्वसूचित सर्वतत्त्वोत्तम देवदेव सूर्य के
पञ्चाङ्ग का शीघ्र वर्णन कीजिये । । १३-१४।।
श्रीभैरव उवाच
एतद् गुह्यतमं देवि पञ्चाङ्गं
द्वादशात्मनः ।
सर्वागमरहस्यं ते वक्ष्ये स्नेहेन पार्वति
।। १५ ।।
पटलं नित्यपूजायाः पद्धतिं कवचं परम्
।
मन्त्रनामसहस्रं च स्तोत्रं
मूलात्मकं प्रिये ।। १६ ।।
पञ्चाङ्गमिदमीशानि देवदेवस्य भास्वतः
।
सर्वसारमयं दिव्यं रहस्यं मम
दुर्लभम् ।। १७ ।।
श्री भैरव ने कहा कि हे देवि! सूर्य
का पञ्चाङ्ग गुह्यतम है तुम्हारे स्नेहवश सभी आगमों के रहस्यरूप सूर्य पञ्चाङ्ग का
मैं वर्णन करता हूँ। पटल, नित्य पूजापद्धति,
श्रेष्ठ कवच, मन्त्रात्मक सहस्रनाम, मूलमन्त्रात्मक स्तोत्र - देवदेव भास्कर के साधन के ये पाँच अङ्ग हैं। ये
सर्वोत्तम हैं। यह रहस्य दिव्य और दुर्लभ है।।१५-१७।।
देवीरहस्य पटल ३१- सूर्यपटलम्
अदातव्यमभक्तेभ्यो भक्तेभ्यो
भोगदायकम् ।
अथाहं पटलं वक्ष्ये मूलमन्त्रमयं
प्रिये ॥ १८ ॥
यस्य श्रवणमात्रेण सर्वरोगैः
प्रमुच्यते ।
यो देवदेवो भगवान् भास्करस्तेजसां
निधिः ॥ १९ ॥
प्रत्यक्षदेवो वेदानां कर्ता साक्षी
च कर्मणाम् ।
सवितेति च वेदेषु परमात्मा जगत्पतिः
॥ २० ॥
गायत्रीवल्लभः सूर्यः
सृष्टिस्थितिलयेश्वरः ।
कालात्मा च परं धाम परं ब्रह्मेति
गीयते ॥ २१ ॥
तस्यादिदेवदेवस्य सूर्यस्य सवितुः
शिवे ।
मन्त्रोद्धारं परं वक्ष्ये
सर्वसिद्धिमयं कलौ ॥ २२ ॥
सूर्य-पटल - यह सूर्यपञ्चाङ्ग अभक्तों
को बतलाने के योग्य नहीं है। भक्तों को भोगदायक है। अब मैं मूलमन्त्रमय सूर्य पटल
का वर्णन करता हूँ, जिसको सुनने से ही श्रोता
सभी रोगों से मुक्त हो जाता है। देवदेव भगवान् भास्कर के तेजों का यह निधि है।
देवों में ये प्रत्यक्ष देव हैं। वेदों के कर्ता हैं। कर्मों के साक्षी है। वेदों
में इन्हें सविता कहा गया है। ये परमात्मा जगत्पति हैं। सूर्य गायत्रीवल्लभ हैं।
सृष्टि, स्थिति और लय करने वाले ईश्वर हैं। ये कला की आत्मा
है, परम धाम हैं। इन्हें ब्रह्म कहा जाता है। देवों के
आदिदेव सूर्य सविता के मन्त्र के उद्धार का अब मैं वर्णन करता हूँ, जो कलियुग में सर्व- सिद्धिप्रदायक है।। १८-२२।।
देवीरहस्य पटल ३१- सूर्यमन्त्रोद्धारः
तारं डिम्बं भूतिशक्ती च सूर्य
ङेऽन्तं मध्ये विश्वमन्ते भवानि ।
मन्त्रोद्धारः सवितुर्वर्णितस्ते
दुर्गाक्षरो भोगमोक्षैकहेतुः ॥ २३ ॥
नास्य विघ्नो न वा दोषो न
साध्यारिभयं शिवे ।
न शौचनियमो वापि विपर्ययभयं न हि ॥
२४ ॥
अष्टसिद्धिप्रदो मन्त्रः सर्वरोगहर
परः ।
सर्वार्थसाधको देवि न देयो यस्य
कस्यचित् ॥ २५ ॥
सूर्यमन्त्रोद्धार-तार = ॐ,
डिम्ब= ह्रां, भूति= ह्रीं, शक्ति= सः, सूर्याय के बाद नमः लगाने से सूर्य का
यह मन्त्र बनता है। मन्त्र है - ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः ।
हे भवानि ! यह मन्त्र नवाक्षर है,
जिसका वर्णन मैंने तुमसे किया है। यह भोग- मोक्ष दोनों का प्रदायक
है। इसकी साधना में न कोई विघ्न है, न कोई दोष है, न साध्य या शत्रु होने का भय है। इसमें कोई शौच नियम नहीं है। विपर्यय का
भय भी नहीं है। यह मन्त्र अष्ट सिद्धिप्रदायक है। सभी रोगों के विनाश के लिये
श्रेष्ठ औषधस्वरूप है। इससे सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। यह जिस किसी को देय नहीं है
।। २३-२५।।
वर्णलक्षं जपेन्मन्त्रं साधकः साङ्गमीश्वरि
।
किं किं न लभते मन्त्री वाञ्छितं
सूर्यमुद्रणात् ॥ २६ ॥
लक्षमेकं जपेन्मन्त्रं दशांशं साधको
हुनेत् ।
तर्पयेत् तद्दशांशेन मार्जयेत्
तद्दशांशतः ॥ २७ ॥
भोजयेत् तद्दशांशेन मन्त्रः
कल्पद्रुमो भवेत् ।
वर्णलक्ष के हिसाब से अंगों सहित
इसका जप नव लाख करने से साधक क्या- क्या नहीं प्राप्त कर सकता है?
सूर्यमुद्रण से साधक की सभी इच्छाएँ पूरी होती हैं। इस मन्त्र का जप
एक लाख करके दस हजार हवन करना चाहिये। एक हजार तर्पण, एक सौ
मार्जन और दश ब्राह्मणों को भोजन कराये। इस प्रकार के पुरश्चरण से यह मन्त्र साधक
के लिये कल्पवृक्ष के समान हो जाता है।। २६-२७।।
वटेऽरण्ये श्मशाने च शून्यागारे
चतुष्पथे ॥ २८ ॥
अर्धरात्रेऽथ मध्याह्ने
पुरश्चरणमाचरेत् ।
सूर्योपरागसमये ग्रासावधि
विमुक्तितः ॥ २९ ॥
यज्जपेत् तद्भवेत् सिद्धं
भोगमोक्षैककारणम् ।
जङ्गल में,
वटवृक्ष के नीचे, श्मशान में, शून्य गृह में, चौराहे पर आधी रात में या मध्य दिवस
में इसका पुरश्चरण करना चाहिये। सूर्यग्रहण के समय ग्रास के प्रारम्भ से मोक्ष तक
जो इसका निरन्तर जप करता है, वह सिद्ध हो जाता है। उसे भोग
और मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है।। २८-२९ ।।
देवीरहस्य पटल ३१- ऋष्यादिनिरूपणम्
मन्त्रस्यास्य महादेवि ऋषिर्ब्रह्मा
समीरितः ॥३०॥
गायत्र्यं छन्द इत्युक्तं सविता
देवता स्मृतः ।
व्योषं बीजं परा शक्तिस्तारं
कीलकमीश्वरि ।। ३१ ।।
धर्मार्थकाममोक्षार्थे विनियोग इति
स्मृतः ।
विनियोग - हे महादेवि! इस
सूर्यमन्त्र के ऋषि ब्रह्मा कहे गये हैं। गायत्री इसका छन्द कहा गया है एवं देवता
सविता कहे गये हैं। व्योष= ह्रां बीज, परा=
ह्रीं शक्ति एवं तार= ॐ इसका कीलक कहा गया है। हे ईश्वरि! धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष की प्राप्ति हेतु इसका विनियोग
किया जाता है ।। ३०-३१॥
मायाबीजेन षड्दीर्घभागिना न्यासमाचरेत्
॥ ३२ ॥
करन्यासषडङ्गानि यथावदनुपूर्वशः ।
न्यास
- षड् दीर्घ स्वरयुक्त ह्रीं से करन्यास और षडङ्गन्यास करे।
करन्यास— ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः। ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः। ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः। ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः। ह्रौं कनिष्ठाभ्यां नमः । ह्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः
।
षडङ्ग न्यास
–
ह्रां हृदयाय नमः। ह्रीं
शिरसे स्वाहा । ह्रूं शिखायै वषट्। ह्रैं कवचाय हुँ । ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् । ह्रः
अस्त्राय फट् ।। ३२ ।।
देवीरहस्य पटल ३१- उत्कीलनादिमन्त्राः
कोलत्रयं पठेद् देवि जपादौ
साधकोत्तमः ॥ ३३ ॥
उत्कीलनं भवेद् देवि मन्त्रराजस्य
पार्वति ।
उत्कीलन
- हे देवी पार्वति! जप के पहले साधक द्वारा कोलत्रय = हूं हूं हूं कहने से इस
मन्त्रराज का उत्कीलन होता है ।। ३३ ।।
शरत्त्रयं पठेन्मध्ये मूलमन्त्रस्य साधकः
॥ ३४ ॥
सञ्जीवनमनुः प्रोक्तो मन्त्रस्यास्य
महेश्वरि ।
सञ्जीवन
—
मन्त्रराज के मध्य में सौः सौः सौः कहने से मन्त्र सज्जीवन होता है।
मन्त्र का रूप होगा - ॐ ह्रां ह्रीं सः सौः सौः सौः सूर्याय नमः ।। ३४ ।।
मातृकाशोधितं मन्त्रं कृत्वा
पार्वति साधकः ॥ ३५ ॥
निस्तौटिल्यो भवेन्मन्त्रः
सर्वसिद्धिप्रदायकः ।
वेदादिडिम्बकान्त्यच्छं
शक्तिर्मध्ये पठेच्छिवे ॥ ३६ ॥
शिवशापं मोचय द्विः पुनर्जाया
विभावसोः ।
इयं शापहरी विद्या जप्या
साधकसत्तमैः ॥ ३७॥
दशधां सवितुर्देवि येन मन्त्री शिवं
भजेत् ।
मातृकाशोधन-
साधक मन्त्र का जप मातृकाओं से सम्पुटित करके करे। इससे मन्त्र निष्तुटित होता है
और सर्व सिद्धिप्रदायक होता है। शाप विमोचन का मन्त्र है-
ॐ ह्रां ह्रं ह्सौः सौः शिवशापं
मोचय मोचय जं रं।
इस शापहरी विद्या के साथ साधकसत्तम
सविता मन्त्र का जप दश बार करे। इससे साधक का कल्याण होता है।। ३४-३७।।
सिद्धं मन्त्रं जपेद् देवि
यथाशक्त्याक्षमालया ॥ ३८ ॥
सर्वरोगैर्विमुक्तो हि भोगमोक्षफलं
लभेत् ।
जगदन्ते पठेद् देवि शरद्वारं च
कौलिकः ॥३९॥
संपुटाख्योऽस्त्ययं मन्त्रो
मन्त्ररक्षामणिः परः ।
गुरूपदेशतो ज्ञेयः
सूर्यास्त्रमनुरुत्तमः ॥ ४० ॥
यं जप्त्वा सवितुर्मन्त्रो भवेत्
कल्पद्रुमोऽचिरात् ।
इस सिद्ध मन्त्र का जप साधक
यथाशक्ति अक्षमाला पर करे। इससे साधक सभी रोगों से मुक्त होकर भोग और मोक्षफल
प्राप्त करता है। नमः सौः क्लीं से सविता मन्त्र को सम्पुटित करके जप करने
से यह मन्त्र परम रक्षामणि बन जाता है। गुरु के उपदेश से उत्तम सूर्यास्त्र मन्त्र
प्राप्त करे। जो इस सविता मन्त्र का जप करता है, वह कुछ ही समय में कल्पद्रुम के समान हो जाता है।। ३८-४० ।।
तारं व्योषं च सूर्याय विद्महे
तदनन्तरम् ॥४१॥
मायां शक्तिं समुच्चार्य
ज्योतीरूपाय धीमहि ।
तन्नः शिवश्च शक्तिश्च परमात्मा
प्रचोदयात् ॥४२॥
वर्णिता सूर्यगायत्री सर्वतन्त्रेषु
गोपिता ।
दशधा साधकैर्जण्या सन्ध्यास्वर्चासु
तर्पणे ॥४३॥
सूर्यगायत्री
- ॐ ह्रां सूर्याय विद्महे ह्रीं सः ज्योतिरूपाय धीमहि तन्नः ह्रां सः परमात्मा
प्रचोदयात्।
सभी तन्त्रों में गोपित इस
सूर्यगायत्री को साधक सन्ध्या-अर्चन में एवं तर्पण में दश-दश बार जप करे।।४१-४३।।
देवीरहस्य पटल ३१- सूर्यध्यानम्
ध्यानमस्य प्रवक्ष्यामि
सर्वदेवरहस्यकम् ।
सर्वरोगापहं देवि भोगमोक्षफलप्रदम्
॥४४॥
कल्पान्तानलकोटिभास्वरमुखं
सिन्दूरधूलीजपा-
वर्ण रत्नकिरीटिनं द्विनयनं
श्वेताब्जमध्यासनम् ।
नानाभूषणभूषितं स्मितमुखं
रक्ताम्बरं चिन्मयं
सूर्य स्वर्णसरोजरत्नकलशौ दोर्भ्यां
दधानं भजे ॥४५ ॥
सूर्य ध्यान-
हे देवि ! सभी देवों का रहस्यभूत, सर्व
रोगनिवारक एवं भोग-मोक्ष फलप्रदायक सूर्य के ध्यान का अब मैं वर्णन करता हूँ।
सूर्य भगवान् का मुख करोड़ अग्निप्रकाश के समान प्रकाशमान है। सिन्दूरचूर्ण और
अड़हुल-फूल के समान वर्ण उनका है। दो आँखें हैं। श्वेत कमल के मध्य में विराजमान
हैं। विविध भूषणों से सुशोभित हैं। मुस्कानयुक्त मुखमण्डल है। लाल वस्त्र हैं।
सूर्य चिन्मय हैं। एक हाथ में स्वर्णकमल है और दूसरे हाथ में रत्नकलश है। इस
प्रकार के सुशोभित भगवान् सूर्य का हम ध्यान करते हैं ।।४४-४५ ।।
देवीरहस्य पटल ३१- सूर्ययन्त्रोद्धारः
यत्रोद्धारं प्रवक्ष्यामि सर्वाशापरिपूरकम्
।
सर्वसंमोहनं दिव्यं सर्वसिद्धिमयं
शिवे ॥ ४६ ॥
बिन्दुत्रिकोणवसुकोण सुवृत्तरूपं
दिव्याष्टपत्रविलसद्दहनारणाढ्यम् ।
रेखात्रयाञ्चितधरासदनं च देवि
श्रीचक्रमेतदुदितं सवितुर्वरेण्यम् ॥४७॥
यन्त्रोद्धार - हे शिवे! सभी आशाओं
का परिपूरक, सर्वसम्मोहन, सर्वसिद्धिप्रद सूर्य के दिव्य यन्त्र के उद्धार का वर्णन करता हूँ।
बिन्दु, त्रिकोण, अष्टकोण, सुन्दर वृत्त पर अष्टदल, वृत्तत्रय और तीन रेखाओं से
युक्त भूपुर के रूप में वरेण्य सविता का श्रीचक्र उदित होकर सुशोभित होता
है।।४६-४७।।
सूर्ययन्त्र
देवीरहस्य पटल ३१- सूर्यलयाङ्गम्
लयाङ्गमस्य यन्त्रस्य वक्ष्ये
पार्वति साधरम् ।
यस्य श्रवणमात्रेण कोटिपूजाफलं
लभेत् ॥४८॥
शक्राग्नियममासाद- वरुणानिलवित्तदाः
सेशाः पूज्या बहिद्वरि यन्त्रराजस्य
साधकैः ॥४९॥
गणेशश्चण्डवेतालो लोलाक्षो विकरालकः
।
अन्तर्द्धास्थाः शिवे पूज्या
वामावर्तेन साधकैः ॥५०॥
दिव्यसिद्धमनुष्याख्यं
गुरुपङ्क्तित्रयं शिवे ।
वृत्तत्रयेऽर्चयेन्मन्त्री
गन्धपुष्पाक्षतादिभिः ॥ ५१ ॥
सूर्यलयाङ्ग-पूजन –
हे पार्वति! अब इस यन्त्र के लयाङ्ग-पूजन का वर्णन करता हूँ,
जिसके सुनने से ही करोड़ पूजा का फल प्राप्त होता है। भूपुर की
बाहरी दो रेखाओं के अन्तराल में पूर्वादि क्रम से पूज्य हैं-इन्द्र, अग्नि, यम, निर्ऋति, वरुण, वायु, कुबेर एवं ईशान
भूपुर की भीतरी दो रेखाओं के अन्तराल में द्वारों पर पूर्वादि वामावर्त क्रम से
गणेश, चण्डवेताल, लोलाक्ष और विकराल
पूज्य हैं। प्रथम वृत्त में दिव्यौघ गुरुओं का, द्वितीय वृत
में सिद्धौध गुरुओं का और तृतीय वृत्त में मानवौध गुरुओं का पूजन करते हुये उन्हें
गन्धाक्षतपुष्प अर्पित करे ।।४८-५१ ।।
चन्द्रं भौमं बुधं जीवं शुक्रं सौरं
तमस्तथा ।
केतुं वसुदले देवि
वामावृत्त्यार्चयेत् सुधीः ॥५२॥
दीप्तां सूक्ष्मां जयां भद्रां
विमलां निर्मलां ततः ।
विद्युतां सर्वतोवक्त्रां
ग्रहैर्वसुदलेऽर्चयेत् ॥५३॥
सूर्यं दिवाकरं भानुं भास्करं
रविमीश्वरि ।
त्वष्टारं तपनं धर्मं वसुकोणे
समर्चयेत् ॥५४॥
हंसं गृहपतिं देवि त्रिकोणे च
त्रयीतनुम् ।
श्रीबिन्दुमण्डले देवि सवितारं
समर्चयेत् ॥५५॥
अष्टदल में चन्द्र,
भौम, बुध, गुरु, शुक्र, शनि राहु और केतु की पूजा वामावर्तक्रम से
करे। अष्टदल के अग्रभाग में दीप्ता, सूक्ष्मा, जया, भद्रा, विमला, निर्मला, विद्युता, सर्वतोवक्त्रा
का पूजन करे। अष्टकोण में सूर्य, दिवाकर, भानु, भास्कर, रवि, त्वष्टा, तपन और धर्म का अर्चन करे। त्रिकोण के
कोनों में हंस, गृहपति, त्रयी तनु का
पूजन करे। बिन्दुमण्डल में ही सविता का अर्चन करे ।। ५२-५५ ।।
कला : समर्चयेद् देवि वसुकोणे
त्रिकोणके ।
तपिनीं तापिनी चैव बोधिनीं चैव
रोधिनीम् ॥५६ ॥
केलिनीं शोषिणीं चैव
वरेण्याकर्षिणीयुताम् ।
एताः संपूज्य वस्वश्रे कौलिकः
कुलसिद्धये ॥ ५७ ॥
मायां विश्वावतीं हेमप्रभां
त्र्यश्रे समर्चयेत् ।
विस्फुरां सवितारं च बिन्दुबिम्बे
समर्चयेत् ॥५८॥
कमलैः केवलं देवं पूजयेदायुधानि च ।
सुवर्णपद्मं संपूज्य रत्नाढ्यकलशं
शिवे ।। ५९ ।।
मूलेन विधिवद् देवं नमेत्
कैवल्यसिद्धये ।
लयाङ्गमेतदाख्यातं सर्वतन्त्रेषु गोपितम्
॥६०॥
अष्टकोण के कोनों में तपिनी,
तापिनी, बोधिनी, रोधिनी,
केलिनी, शोषिणी, वरेण्या, आकर्षिणी- इन आठ कलाओं का अर्चन करे। अष्टकोण में इनका पूजन करके
कुलसिद्धि के लिये कौलिक त्रिकोण में ही माया, विश्वावती और
हेमप्रभा का अर्चन करे। विस्फुरा और सविता का पूजन बिन्दुबिम्ब में करे। सविता का
पूजन केवल कमल से करे। इसके बाद उनके आयुध का पूजन करे। सुवर्णपद्म की पूजा करके
रत्नाढ्य की पूजा करे। कैवल्य-सिद्धि के लिये सविता के मूल मन्त्र से उन्हें
विधिवत् नमस्कार करे। सभी तन्त्रों में गोपित इस पूजन का नाम लयाङ्ग पूजन है।।
५६-६०।।
देवीरहस्य पटल ३१- पद्ममुद्रानिर्णयः
मुद्रां पद्माभिधां देवि
दर्शयेदर्चनाविधौ ।
अङ्गुष्ठौ विमुखौ मध्ये संयोज्य
तर्जनीद्वयम् ।। ६९ ।।
कनिष्ठिके च संयोज्य मध्यमानामिकाः
पृथक् ।
पद्ममुद्रेयमाख्याता बिम्बमुद्रां
शृणु प्रिये ॥ ६२ ॥
पद्ममुद्रा - अर्चन - विधि में इस
मुद्रा को प्रदर्शित करे। अँगूठों को विमुख करके उनके बीच में तर्जनियों को जोड़े।
दोनों कनिष्ठिकाओं को जोड़े। मध्यमाओं और अनामिकाओं को पृथक्-पृथक् रखे। यही
पद्ममुद्रा कही गई है। हे प्रिये! अब बिम्बमुद्रा को सुनो।। ६१-६२ ।।
देवीरहस्य पटल ३१- बिम्बमुद्रानिर्णयः
अङ्गुष्ठौ सम्मुखौ कृत्वा
सम्मुखीरङ्गुलीश्चरेत् ।
ऊर्ध्वं करयुगं कृत्वा
बिम्बमुद्रेयमीरिता ॥ ६३ ॥
बिम्बमुद्रा —
अंगूठों को सम्मुख करके अँगुलियों को सम्मुख करे। दोनों हाथों को ऊपर
की ओर करे। इसी को बिम्बमुद्रा कहते हैं ।। ६३ ।।
देवीरहस्य पटल ३१- भास्करीमुद्रानिर्णयः
अधोमेरुर्वाममध्या तदूर्ध्वं
सव्यमध्यमा ।
तथैव कौलिकः कुर्याद्वामतः
सव्यतोऽङ्गुलीः ॥६४॥
इयं तु भास्करीमुद्रा
त्रैलोक्यवशकारिणी ।
सर्वरोगापहा ख्याता
दर्शनीयार्चनाविधौ ॥६५॥
अङ्गुष्ठयोश्च चन्द्रारौ
ज्ञेज्यावनामयोस्तथा ।
सितासितौ च तर्जन्योः राहुकेतू
प्रलम्बयोः ॥६६॥
मध्ये तु भास्करं देवं ध्यात्वा
मुद्रां प्रदर्शयेत् ।
आवाहने च गन्धादौ नैवेद्ये च
विसर्जने ॥ ६७ ॥
भास्करी मुद्रा —बाँयें हाथ की अंगुलियों को सीधी रखकर अञ्जलि को अधोमुख करे। उस पर दाँयें
हाथ को रखकर अँगुलियों को पकड़े। ऐसा करने से त्रैलोक्य-वश-कारिणी सर्व रोगविनाशक
मुद्रा बनती है। पूजा के समय इसे प्रदर्शित किया जाता है। अँगूठे को राहु और
तर्जनी को केतु माना जाता है। इन दोनों के बीच में भास्कर का ध्यान करते हुये यह
भास्करी मुद्रा प्रदर्शित की जाती है। आवाहन गन्धादि नैवेद्य समर्पण तथा विसर्जन
में भी इसे प्रदर्शित किया जाता है।।६४-६७।।
देवीरहस्य पटल ३१- खशोल्कामुद्रानिर्णयः
धूपदीपादिनैवेद्यं देयं सर्वं
खशोल्कया ।
खशोल्काख्या महामुद्रा (सर्वरोगापहारिणी
॥ ६८ ॥
सर्वार्थसाधनकरी
दुःखदारिद्र्यनाशिनी ।
बद्ध्वा मुष्टियुगं देवि पर्व
पर्वणि योजयेत् ॥ ६९ ।।
अङ्गुष्ठयोनिं बद्ध्वोर्ध्वे
सर्वयोन्युत्तमोत्तमाम् ।
खशोल्काख्या महामुद्रा)
शत्रुवर्गविमर्दिनी ॥७०॥
रविं दृष्ट्वा प्रणम्यादौ दर्शनीया
महेश्वरि ।
महामुद्रा महागोप्या
महामार्तण्डवल्लभा ॥७१ ।।
इमां यो भानवीं मुद्रां दर्शयेत्
पूजने सुधीः ।
शतवर्षसहस्राणां
पूजाफलमवाप्नुयात् ॥ ७२ ॥
खशोल्का मुद्रा - सविता पूजन में
धूप दीप नैवेद्य का अर्पण खशोल्का मुद्रा से करे। यह सर्व रोगापहारिणी मुद्रा है।
यह सर्वार्थ सिद्ध करने वाली एवं दुःख दारिद्र्य का विनाश करने वाली है। दोनों
हाथों की मुट्ठी बाँधकर पर्वो को पर्वों से जोड़े। अँगूठों को योनिबद्ध करे। यह
सभी योनियों में उत्तम है। खशोल्का मुद्रा शत्रुवर्ग को विनष्ट करने वाली है।
सूर्य को देखकर पहले प्रणाम करे। इसके बाद मुद्रा दिखावे। यह महामुद्रा महागोप्य
एवं सूर्यप्रिया है। इन भानवी मुद्राओं को जो साधक पूजन के समय प्रदर्शित करता है,
वह सौ हजार वर्षों के पूजाफल को प्राप्त करता है। । ६८-७२ ।।
देवीरहस्य पटल ३१- अष्टौ प्रयोगाः
प्रयोगानष्ट वक्ष्येऽहं शृणु
पार्वति सादरम् ।
येषां साधनमात्रेण मन्त्रः
सिद्धिप्रदो भवेत् ॥७३॥
स्तम्भनं मोहनं चैव मारणाकर्षणौ ततः
।
वशीकरणविद्वेषौ शान्तिकी पौष्टिकी
क्रिया ॥ ७४ ॥
एतेषां साधनं वक्ष्ये साधकानां
हितेच्छया ।
अप्रकाश्यमदातव्यं कलौ रोगापहं शिवे
॥ ७५ ॥
आठ प्रयोग
—
हे पार्वति ! आदरपूर्वक सुनो अब मैं सूर्यमन्त्र के आठ प्रयोगों का
वर्णन करता हूँ, जिनके साधन से मन्त्र सिद्धप्रद होते हैं।
साधकों के कल्याण की इच्छा से इनकी साधना का वर्णन करता हूँ। ये आठ साधन स्तम्भन,
मोहन, मारण, आकर्षण,
वशीकरण, विद्वेषण, शान्ति
और पुष्टि की क्रिया हैं। ये सभी अप्रकाश्य एवं अदातव्य हैं। हे शिवे ! ये सभी
कलियुग में रोगविनाशक हैं।। ७३-७५ ।।
देवीरहस्य पटल ३१- स्तम्भनप्रयोगः
रवौ प्रभाते शयनादुत्थायावश्यकं
चरेत् ।
स्नात्वा जपेन्महादेवि सूर्याग्रे
साधकोऽयुतम् ॥ ७६ ॥
हुनेद् दशांशतो देवि
पद्मपद्माक्षशर्कराः ।
सर्पिषा स्तम्भनं सद्यो
वादितस्करपाथसाम् ॥७७॥
स्तम्भन –
रविवार के दिन प्रातः काल शय्या का त्याग कर नित्य कृत्य करके स्नान
करे। हे महादेवि! तब सूर्य की ओर मुख करके साधक दश हजार मन्त्र जप करे। कमल, कमलगट्टा, शक्कर और गोघृत से एक हजार हवन करे। इससे
अग्नि और तस्करों का स्तम्भन तुरन्त होता है। । ७६-७७।।
देवीरहस्य पटल ३१- सम्मोहनप्रयोगः
रवौ मध्याह्नवेलायां जपेदयुतसंख्यया
।
हुनेद् दशांशमीशानि घृतपद्माक्षनागरान्
॥ ७८ ॥
तर्पयेत् पयसा सद्यो मोहनं द्युसदामपि
।
मोहन-रविवार में दोपहर के समय दश
हजार मन्त्र जप करे। एक हजार हवन घी, कमलबीज
और नागरमोथा से करे। दूध से एक हजार तर्पण करे। इससे दुष्टों का भी मोहन तुरन्त
होता है ।। ७८ ।।
देवीरहस्य पटल ३१- मारण प्रयोगः
रवौ सायं जपेन्मूलं नदीतीरस्थितो
रहः ॥७९॥
अयुतं तद्दशांशेन हुनेत्
पद्माक्षपर्पटान् ।
घृतेन दध्ना सन्तर्प्य मारणं द्विषतां
भवेत् ॥८०॥
मारण— रविवार की सन्ध्या में नदी तट पर स्थित होकर दश हजार मन्त्र जप करे।
कमलबीज, पर्पट, घी मिलाकर एक हजार हवन
करें। दही से एक सौ तर्पण करे। इससे शत्रुओं का मारण होता है।। ७९-८० ।।
देवीरहस्य पटल ३१- आकर्षणप्रयोगः
रवौ निशीथे संजप्य मूलमन्त्रायुतं
शिवे ।
हुनेद् दशांशमम्भोजशटीघृतकुलत्थकैः
॥८१॥
आकर्षणं भवेत् सद्यो देवि
नाकस्त्रियामपि ।
आकर्षण - रविवार की आधी रात में दश
हजार मन्त्र जप करके कमल, आमा हल्दी, घी और कुलथी मिलाकर एक हजार हवन करे इससे स्वर्ग की स्त्रियों का भी
आकर्षण तुरन्त होता है ।। ८१ ।।
देवीरहस्य पटल ३१- वशीकरणप्रयोगः
रवौं ब्राह्मे मुहूर्ते तु स्नात्वा
तत्र जपेज्जले ॥८२॥
अयुतं मूलविद्याया दशांशं जुहुयात्
सुधीः ।
घृतमत्स्यण्डकर्पूर-पद्मपद्माक्षकेसरान्
॥८३॥
इन्द्रोऽपि वशतां याति किं पुनः
क्षुद्रभूमिपः ।
वशीकरण - रविवार को ब्राह्म मुहूर्त
में नदी या तालाब में स्नान करके जल में खड़े रहकर मूल विद्या का दश हजार जप करे
तब साधक घी, मत्स्यण्ड, कपूर, कमल, कमलबीज, केसर से एक हजार हवन करे। इससे इन्द्र भी वश में होते हैं, तब क्षुद्र भूपालों के बारे में क्या सोचना है ।। ८२-८४ ।।
देवीरहस्य पटल ३१- विद्वेषणप्रयोगः
सूर्योदये जपेद्विद्यां
साधकोऽयुतसंख्यया ॥८४॥
जुहुयात् सर्पिरम्भोज-
मुस्तापर्पटशर्कराः ।
विषेण तर्पयेद् देवं भवेद्विद्वेषणं
द्विषाम् ॥८५॥
विद्वेषण- सूर्योदय के समय साधक दश
हजार मन्त्र जप करे। गोघृत, कमल, मुस्ता, पर्पट, शक्कर के
मिश्रण से एक हजार हवन करे। एक सौ तर्पण विष से करे। इससे शत्रु का विद्वेषण होता
है ।। ८४-८५ ।।
देवीरहस्य पटल ३१- शान्तिप्रयोगः
वावर्धोदिते देवि कूपभूमौ
जपेन्मनुम् ।
अयुतं तद्दशांशेन हुनेद् घृतयवाकणाः
॥ ८६ ॥
अम्भोजकेसरं शुण्ठीं शान्तिर्भवति
तत्क्षणात् ।
अतिवृष्टेरनावृष्टेः राजभीतेर्महेश्वरि
॥८७॥
शान्ति-सूर्य के आधा उदय होने पर
कूप के निकट भूमि पर बैठकर दस हजार मन्त्र जप करे। घी,
यवचूर्ण, कमल, केसर,
सोंठ के मिश्रण से एक हजार हवन करे। हे महेश्वरि ! इससे अतिवृष्टि,
अनावृष्टि, राजभीति की सद्यः शान्ति होती
है।।८६-८७।।
देवीरहस्य पटल ३१- पुष्टिप्रयोगः
रवावस्तङ्गतेऽप्यर्धे जपेद्वानीरमूलके
।
मन्त्रायुतं महादेवि जुहुयाद्
घृतगोपयः ॥८८॥
पद्मपद्माक्षकिञ्जल्क
मत्स्यण्डार्कदलानि च।
दशांशं तर्पयेद् दध्ना क्षीरेण
सितया सुधीः ॥ ८९ ॥
महापुष्टिर्भवेल्लोके देवानामपि
दुर्लभा ।
पुष्टि-सूर्य के आधा अस्त होने पर
पाकड़ वृक्ष के मूल में बैठकर दश हजार मन्त्र- जप करे। गाय के दूध,
घी, कमल, कमलबीज-चूर्ण,
शक्कर एवं अकवन पत्ता के मिश्रण से एक हजार हवन करे। एक सौ तर्पण
दही-दूध-चीनी से करे। इससे देवताओं को भी दुर्लभ महापुष्टि संसार में होती है।।
८८-८९ ।।
देवीरहस्य पटल ३१- पटलोपसंहारः
इत्येष पटलो गुह्यः
सवितुश्चातिवल्लभः ।
सर्वमन्त्रमयो दिव्यो गोपनीयो
मुमुक्षुभिः ॥९०॥
सूर्य को अतिप्रिय यह गुह्य पटल
सर्वमन्त्रमय, दिव्य और गोपनीय है। मुमुक्षुओं
को भी इसे नहीं बतलाना चाहिये।।९०।।
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे
श्रीदेवीरहस्ये सूर्यपटल-निरूपणमेकत्रिंश: पटलः ॥ ३१ ॥
इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त
श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में सूर्यपटल- निरूपण नामक एकत्रिंश पटल पूर्ण हुआ।
आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पटल 32
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