अग्निपुराण अध्याय १४२

अग्निपुराण अध्याय १४२        

अग्निपुराण अध्याय १४२ में चोर और जातक का निर्णय, शनि दृष्टि, दिन-राहु, फणि-राहु, तिथि-राहु तथा विष्टि-राहु के फल और अपराजिता-मन्त्र एवं ओषधि का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय १४२

अग्निपुराणम् चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 142           

अग्निपुराण एक सौ बयालीसवाँ अध्याय

अग्निपुराणम्/अध्यायः १४२

अग्निपुराणम् अध्यायः १४२– मन्त्रौषधादिः

अथ चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः

ईश्वर उवाच

मन्त्रौषधानि चक्राणि वक्ष्ये सर्वप्रदानि च ।

चौरनाम्नो वर्णगुणो द्विघ्नो मात्राश्चतुर्गुणाः ॥१॥

नाम्ना हृते भवेच्छेषः चौरोऽथ जातकं वदे ।

भगवान् महेश्वर कहते हैंस्कन्द ! अब मैं मन्त्र- चक्र तथा औषध चक्रों का वर्णन करूँगा, जो सम्पूर्ण मनोरथों को देनेवाले हैं। जिन-जिन व्यक्तियों के ऊपर चोरी करने का संदेह हो, उनके लिये किसी वस्तु (वृक्ष, फूल या देवता आदि ) - का नाम बोले। उस वस्तु के नाम के अक्षरों की संख्या को दुगुनी करके एक स्थान पर रखे तथा उस नाम की मात्राओं की संख्या में चार से गुणा करके गुणनफल को दूसरे स्थान पर रखे। पहली संख्या से दूसरी संख्या में भाग दे। यदि कुछ शेष बचे तो वह व्यक्ति चोर है। यदि भाजक से भाज्य पूरा-पूरा कट जाय तो यह समझना चाहिये कि वह व्यक्ति चोर नहीं है ॥ १अ ॥

प्रश्ने ये विषमा वर्णास्ते गर्भे पुत्रजन्मदाः ॥२॥

नामवर्णैः समैः काणो वामेऽक्ष्णि विषमैः पुनः ।

दक्षिणाक्षि भवेत्काणं स्त्रीपुन्नामाक्षरस्य च ॥३॥

मात्रावर्णाश्चतुर्निघ्ना वर्णपिण्डे गुणे कृते ।

समे स्त्री विषमे ना स्याद्विशेषे च मृतिः स्त्रियाः ॥४॥

प्रथमं रूपशून्येऽथ प्रथमं म्रियते पुमान् ।

प्रश्नं सूक्ष्माक्षरैर्गृह्य द्रव्यैर्भागेऽखिले मतम् ॥५॥

अब यह बता रहा हूँ कि गर्भ में जो बालक है, वह पुत्र है या कन्या, इसका निश्चय किस प्रकार किया जाय ? प्रश्न करनेवाले व्यक्ति के प्रश्न- वाक्य में जो-जो अक्षर उच्चारित होते हैं, वे सब मिलकर यदि विषम संख्यावाले हैं तो गर्भ में पुत्र की उत्पत्ति सूचित करते हैं। (इसके विपरीत सम संख्या होने पर उस गर्भ से कन्या की उत्पत्ति होने की सूचना मिलती है।) प्रश्न करनेवाले से किसी वस्तु का नाम लेने के लिये कहना चाहिये । वह जिस वस्तु के नाम का उल्लेख करे, वह नाम यदि स्त्रीलिंग है तो उसके अक्षरों के सम होने पर पूछे गये गर्भ से उत्पन्न होनेवाला बालक बायीं आँख का काना होता है। यदि वह नाम पुल्लिंग है और उसके अक्षर विषम हैं तो पैदा होनेवाला बालक दाहिनी आँख का काना होता है। इसके विपरीत होने पर उक्त दोष नहीं होते हैं। स्त्री और पुरुष के नामों की मात्राओं तथा उनके अक्षरों की संख्या में पृथक्-पृथक् चार से गुणा करके गुणनफल को अलग-अलग रखे। पहली संख्या 'मात्रा - पिण्ड' है और दूसरी संख्या 'वर्ण पिण्ड'। वर्ण पिण्ड में तीन से भाग दे। यदि सम शेष हो तो कन्या की उत्पत्ति होती है, विषम शेष हो तो पुत्र की उत्पत्ति होती है। यदि शून्य शेष हो तो पति से पहले स्त्री की मृत्यु होती है और यदि प्रथम 'मात्रा- पिण्ड' में तीन से भाग देने पर शून्य शेष रहे तो स्त्री से पहले पुरुष की मृत्यु होती है। समस्त भाग में सूक्ष्म अक्षरवाले द्रव्यों द्वारा प्रश्न को ग्रहण करके विचार करने से अभीष्ट फल का ज्ञान होता है॥ २-५ ॥

शनिचक्रं प्रवक्ष्यामि तस्य दृष्टिं परित्यजेत् ।

राशिस्थः सप्तमे दृष्टिश्चतुर्दशशतेर्धिका ॥६॥

एकद्व्यष्टद्वादशमः पाददृष्टिश्च तं त्यजेत् ।

दिनाधिपः प्रहरभाक्शेषा यामार्धभागिनः ॥७॥

शनिभागन्त्यजेद्युद्धे दिनराहुं वदामि ते ।

अब मैं शनि-चक्र का वर्णन करूंगा। जहाँ शनि की दृष्टि हो, उस लग्न का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिये। जिस राशि में शनि स्थित होते हैं, उससे सातवीं राशि पर उनकी पूर्ण दृष्टि रहती है, चौथी और दसवीं पर आधी दृष्टि रहती है तथा पहली, दूसरी, आठवीं और बारहवीं राशि पर चौथाई दृष्टि रहती है। शुभकर्म में इन सबका त्याग करना चाहिये। जिस दिन का जो ग्रह अधिपति हो, उस दिन का प्रथम पहर उसी ग्रह का होता है और शेष ग्रह उस दिन के आधे-आधे पहर के अधिकारी होते हैं। दिन में जो समय शनि के भाग में पड़ता है, उसे युद्ध में त्याग दे ॥ ६-७अ ॥

रवौ पूर्वेऽनिले मन्दे गुरौ याम्येऽनले भृगौ ॥८॥

अग्नौ कुजे भवेत्सोम्ये स्थिते राहुर्बुधे सदा ।

फणिराहुस्तु प्रहरमैशे वह्नौ च राक्षसे ॥९॥

वायौ संवेष्टयित्वा च शत्रुं हन्तीशसन्मुखं ।

अब मैं तुम्हें दिन में राहु की स्थिति का विषय बता रहा हूँ। राहु रविवार को पूर्व में, शनिवार को वायव्यकोण में, गुरुवार को दक्षिण में, शुक्रवार को अग्निकोण में, मङ्गलवार को भी अग्निकोण में तथा बुधवार को सदा उत्तर दिशा में स्थित रहते हैं। फणि-राहु ईशान, अग्नि, नैर्ऋत्य एवं वायव्य-कोण में एक-एक पहर रहते हैं और युद्ध में अपने सामने खड़े हुए शत्रु को आवेष्टित करके मार डालते हैं ॥ ८-९अ ॥

तिथिराहुं प्रवक्ष्यामि पूर्णिमाग्नेयगोचरे ॥१०॥

अमावास्या वायवे च राहुः सम्मुखशत्रुहा ।

काद्या जान्ताः सम्मुखे स्युः साद्या दान्ताश्च दक्षिणे ॥११॥

अक्ले त्यजेत्कुजगणान् धाद्या मान्ताश्च पूर्वतः ।

याद्या हान्ता उत्तरे स्युस्तिथिदृष्टिं विवर्जयेत् ॥१२॥

पूर्वाश्च दक्षिणास्तिस्रो रेखा वै मूलभेदके ।

सूर्यराश्यादि संलिख्य दृष्टौ हानिर्जयोऽन्यथा ॥१३॥

अब मैं तिथि-राहु का वर्णन करूंगा। पूर्णिमा को अग्निकोण में राहु की स्थिति होती है और अमावास्या को वायव्यकोण में सम्मुख राहु शत्रु का नाश करनेवाले हैं। पश्चिम से पूर्व की ओर तीन खड़ी रेखाएँ खींचे और फिर इन मूलभूत रेखाओं का भेदन करते हुए दक्षिण से उत्तर की ओर तीन पड़ी रेखाएँ खींचे। इस तरह प्रत्येक दिशा में तीन-तीन रेखाग्र होंगे। सूर्य जिस राशि पर स्थित हों, उसे सामनेवाली दिशा में लिखकर क्रमश: बारहों राशियों को प्रदक्षिण- क्रम से उन रेखाग्रों पर लिखे। तत्पश्चात् '' से लेकर '' तक के अक्षरों को सामने की दिशा में लिखे। '' से लेकर '' तक के अक्षर दक्षिण दिशा में स्थित रहें, '' से लेकर '' तक के अक्षर पूर्व दिशा में लिखे जायँ और '' से लेकर '' तक के अक्षर उत्तर दिशा में अङ्कित हों। ये राहु के गुण या चिह्न बताये गये हैं। शुक्लपक्ष में इनका त्याग करे तथा तिथि-राहु की सम्मुख दृष्टि का भी त्याग करे। राहु की दृष्टि सामने हो तो हानि होती है; अन्यथा विजय प्राप्त होती है ॥ १०-१३ ॥

विष्टिराहुं प्रवक्ष्यामि अष्टौ रेखास्तु पातयेत् ।

शिवाद्यमं यमाद्वायुं वायोरिन्द्रं ततोऽम्बुपं ॥१४॥

नैर्ऋताच्च नयेच्चन्द्रं चन्द्रादग्निं ततो जले ।

जलादीशे चरेद्राहुर्विष्ट्या सह महाबलः ॥१५॥

ऐशान्यां च तृतीयादौ सप्तम्यादौ च याम्यके ।

एवं कृष्णे सिते पक्षे वायौ राहुश्च हन्त्यरीन् ॥१६॥

इन्द्रादीन् भैरवादींश्च ब्रह्माण्यादीन् ग्रहादिकान् ।

अष्टाष्टकञ्च पूर्वादौ याम्यादौ वातयोगिनीं ॥१७॥

यान्दिशं वहते वायुस्तत्रस्थो घातयेदरीन् ।

अब 'विष्टि राहु' का वर्णन करता हूँ। निम्नाङ्कित रूप से आठ रेखाएँ खींचे-ईशानकोण से दक्षिण दिशातक, दक्षिण दिशा से वायव्यकोणतक, वायव्यकोण से पूर्व दिशातक, वहाँ से नैर्ऋत्यकोणतक, नैर्ऋत्यकोण से उत्तर दिशातक, उत्तर दिशा से अग्निकोणतक, अग्निकोण से पश्चिम दिशातक तथा पश्चिम दिशा से ईशानकोणतक। इन रेखाओं पर विष्टि (भद्रा) के साथ महाबली राहु विचरण करते हैं। कृष्णपक्ष की तृतीयादि तिथियों में विष्टि- राहु की स्थिति ईशानकोण में होती है और सप्तमी आदि तिथियों में दक्षिण दिशा में (इसी प्रकार शुक्लपक्ष की अष्टमी आदि में उनकी स्थिति नैर्ऋत्यकोण में होती है और चतुर्थी आदि में उत्तर दिशा में)। इस तरह कृष्ण एवं शुक्लपक्ष में वायु के आश्रित रहनेवाले सम्मुख राहु शत्रुओं का नाश करते हैं।* विष्टि-राहुचक्र की पूर्व आदि दिशाओं में इन्द्र आदि आठ दिक्पालों, महाभैरव आदि आठ महाभैरवों*, ब्रह्माणी आदि आठ* शक्तियों तथा सूर्य आदि आठ ग्रहों को स्थापित करे। पूर्व आदि प्रत्येक दिशा में ब्रह्माणी आदि आठ शक्तियों के आठ अष्टकों की भी स्थापना करे। दक्षिण आदि दिशाओं में वातयोगिनी का उल्लेख करे। वायु जिस दिशा में बहती है, उसी दिशा में इन सबके साथ रहकर राहु शत्रुओं का संहार करता है ॥ १४- १७अ ॥

*१. 'मन्त्र - महोदधि '१ । ५४ में आठ भैरवों के नाम इस प्रकार आये हैं-असिताङ्गभैरव, रुरुभैरव, चण्डभैरव (या कालभैरव),क्रोधभैरव उन्मत्तभैरव, कपालिभैरव, भीषणभैरव तथा संहारभैरव।

*२. अध्याय १४३ के छठे श्लोक में ब्रह्माणी आदि आठ शक्तियों के नाम इस प्रकार आये हैं-ब्रह्माणी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, माहेन्द्री, चामुण्डा तथा चण्डिका अध्याय १४४ के ३१वें श्लोक में 'चण्डिका 'की जगह 'महालक्ष्मी का उल्लेख हुआ है।

*विष्टि-राहुचक्र इस प्रकार समझना चाहिये-

अग्निपुराण अध्याय १४२-विष्टि-राहुचक्र

दृढीकरणमाख्यास्ये कण्ठे बाह्वादिधारिता ॥१८॥

पुष्योद्धृता काण्डलक्ष्यं वारयेत्शरपुङ्खिका ।

तथा ऽपराजिता पाठा द्वाभ्यां खड्गं निवारयेत् ॥१९॥

अब मैं अङ्गों को सुदृढ़ करने का उपाय बता रहा हूँ। पुष्यनक्षत्र में उखाड़ी हुई तथा निम्नाङ्कित अपराजिता मन्त्र का जप करके कण्ठ अथवा भुजा आदि में धारण की हुई शरपुंखिका ('सरफोंका' नामक ओषधि) विपक्षी के बाणों का लक्ष्य बनने से बचाती है। इसी प्रकार पुष्य में उखाड़ी 'अपराजिता ' एवं 'पाठा' नामक ओषधि को भी यदि मन्त्रपाठपूर्वक कण्ठ और भुजाओं में धारण किया जाय तो उन दोनों के प्रभाव से मनुष्य तलवार के वार को बचा सकता है ॥ १८-१९ ॥

ओं नमो भगवति वज्रशृङ्खले हन २ ओं भक्ष २ ओं खाद ओं अरे रक्तं पिब कपालेन रक्ताक्षि रक्तपटे भस्माङ्गि भस्मलिप्तशरीरे वज्रायुधे वज्राकारनिचिते पूर्वां दिशं बन्ध २ ओं दक्षिणां दिशम्बन्ध २ ओं पश्चिमां दिशम्बन्ध २ उत्तरां दिशम्बन्ध २ नागान् बन्ध २ नागपत्नीर्बन्ध २ ओं असुरान् बन्ध २ ओं यक्षराक्षसपिशाचान् बन्ध २ ओं प्रेतभूतगन्धर्वादयो ये केचिदुपद्रवास्तेभ्यो रक्ष २ ओं ऊर्धवं रक्ष २ अधा रक्ष २ ओं क्षुरिक बन्ध २ ओं ज्वल महाबले घटि २ ओं मोटि २ सटावलिवज्जाग्निवज्रप्राकारे हुं फठ्रीं ह्रूं श्रीं फठ्रीं हः फूं फें फः सर्वग्रहेभ्यः सर्वव्याधिभ्यः सर्वदुष्टोपद्रवेभ्यो ह्रीं अशेषेभ्यो रक्ष २ ॥२०॥

(अपराजिता - मन्त्र इस प्रकार है- ) ॐ नमो भगवति वज्रशृङ्खले हन हन, ॐ भक्ष भक्ष, ॐ खाद, ॐ अरे रक्तं पिब कपालेन रक्ताक्षि रक्तपटे भस्माङ्गि भस्मलिप्तशरीरे वज्रायुधे वज्रप्राकारनिचिते पूर्वां दिशं बन्ध बन्ध, ॐ दक्षिणां दिशं बन्ध बन्ध, ॐ पश्चिमां दिशं बन्ध बन्ध, ॐ उत्तरां दिशं बन्ध बन्ध, नागान् बन्ध बन्ध, नागपत्नीर्बन्ध बन्ध, ॐ असुरान् बन्ध बन्ध, ॐ यक्षराक्षसपिशाचान् बन्ध बन्ध, ॐ प्रेतभूतगन्धर्वादयो ये केचिदुपद्रवास्तेभ्यो रक्ष रक्ष, ॐ ऊर्ध्वं रक्ष रक्ष, ॐ अधो रक्ष रक्ष, ॐ क्षुरिकं बन्ध बन्ध, ॐ ज्वल महाबले। घटि घटि, ॐ मोटि मोटि सटावलिवज्राग्नि वज्रप्राकारे हुं फट्, ह्रीं ह्रूं श्रीं फट् ह्रीं हः फूं फें फः सर्वग्रहेभ्यः सर्वव्याधिभ्यः सर्वदुष्टोपद्रवेभ्यो ह्रीं अशेषेभ्यो रक्ष रक्ष ॥ २० ॥

ग्रहज्वरादिभूतेषु सर्वकर्मसु योजयेत् ॥२१॥

ग्रहपीड़ा, ज्वर आदि की पीड़ा तथा भूतबाधा आदि के निवारण - इन सभी कर्मों में इस मन्त्र का उपयोग करना चाहिये ॥ २१ ॥

इत्याग्नेये महापुराणे युद्धजयार्णवे मन्त्रौषधादिर्नाम हि चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'मन्त्रौषधि आदि का वर्णन' नामक एक सौ बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१४२॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 143 

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