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गीतगोविन्द सर्ग ५ आकाङ्क्ष-पुण्डरीकाक्ष
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श्रीजयदेवजीकृत गीतगोविन्द के सर्ग १ सामोद-दामोदर
और सर्ग २ अक्लेश केशव तथा सर्ग ३ मुग्ध मधुसूदन
व सर्ग ४ स्निग्ध मधुसूदन को
पिछले अंक में आपने पढ़ा । अब गीतगोविन्द सर्ग ५ जिसका नाम आकाङ्क्ष-पुण्डरीकाक्ष है।
श्रीगीतगोविन्द पाँचवां सर्ग आकांक्ष पुण्डरीकाक्ष
Shri Geet govinda sarga 5 Aakanksha pundarikaksha
इस सर्ग में
श्रीकृष्ण के मन में श्रीराधाजी से मिलने की तीव्र आकांक्षा उत्पन्न होती है,
इसी से इस सर्ग को सकांक्ष- पुण्डरीकाक्ष अथवा आकाङ्क्ष-पुण्डरीकाक्ष
नाम दिया गया है। चतुर्थ सर्ग के प्रबन्धों में श्रीराधा की विषम विरह-वेदना का
वर्णन हुआ है।
साथ ही अष्ट
पदि १० का वर्णन
किया गया है।
श्रीगीतगोविन्दम् पञ्चम सर्गः आकाङ्क्ष-पुण्डरीकाक्षः
गीतगोविन्द
सर्ग ५ आकाङ्क्ष-पुण्डरीकाक्ष
अथ पञ्चम सर्गः
आकाङ्क्ष-पुण्डरीकाक्षः
अहमिह निवसामि
याहि राधा-मनुनय मद्वचनेन चानयेथाः ।
इति मधु -
रिपुणा सखी नियुक्ता स्वयमिदमेत्य पुनर्जगाद राधाम् ॥१ ॥
अन्वय- अथ तदार्त्तिश्रवण-व्याकुलोऽपि स्वापराधचिन्तया
निरतिशय-भीतः तत्कोपशिथिलीकरणाय श्रीहरिः सखीमेव प्रेषितवानित्याह- अहम् इह (
अस्मिन् निर्जन प्रदेशे ) निवसामि( तिष्ठामि); त्वं याहि (गच्छ); मम वचनेन राधाम् अनुनय ( सान्त्वय) [ यदि त्वया
तन्मानोऽपनेतुं शक्यते तर्हि ] इह आनथाश्च [ सहसा मम गमनेन मानोऽतिगाढ़ो
भवेदित्यभिप्रायः ] इति (इत्थं) मधुरिपुणा (कृष्ण) नियुक्ता सखी स्वयम् एत्य
(आगत्य ) पुनः राधां जगाद ॥ १ ॥
अनुवाद - राधा- सखी की बात सुनकर श्रीकृष्ण बोले- मैं यहीं रहता हूँ,
तुम श्रीराधा के पास जाओ और मेरे वचनों के द्वारा उनको
अनुनय-विनय के साथ मनाकर यहाँ ले आओ। इस प्रकार मधुरिपु कृष्ण के द्वारा नियुक्त
होकर वह सखी स्वयं श्रीराधा के पास आकर इस प्रकार से कहने लगी।
पद्यानुवाद-
मैं बैठा हूँ
यहीं और सखि ! राधासे जा कहना -
कब तक निठुर!
और उत्पीड़न मुझको है यह सहना ?
बालबोधिनी - चतुर्थ सर्ग के प्रबन्धों में श्रीराधा की विषम विरह-वेदना
का वर्णन हुआ है। सखी से श्रीराधा की विषम आर्ति सुनकर अपनी आपराधिक भावना से बड़े
लज्जित और भयभीत हुए तथा अपनी नित्य-प्रेयसी श्रीराधा से मिलने के लिए अत्यन्त
उत्कण्ठित हुए, किन्तु स्वयं वहाँ नहीं गये, सखी से अपना दुःख व्यक्त कर अनुनय-विनय आदि के द्वारा
श्रीराधा के कोप को दूर करने के लिए उसे भेजा । सखी से कहा कि तुम मेरी ओर से
श्रीराधाजी से प्रार्थना करना और उसे जैसे-तैसे प्रसन्न करके यहाँ ले आना। जब तक
वे नहीं आती हैं, तब तक मैं यहीं प्रतीक्षा करूँगा- इसी यमुना तटपर रहता हूँ।
इस आदेश को प्राप्तकर सखी श्रीराधा से कहने लगी- कृष्ण के मन में अपनी नित्य
प्रेयसी श्रीराधाजी से मिलने की आकांक्षा उत्पन्न हुई है,
अतः इस सर्ग को सकांक्ष- पुण्डरीकाक्ष कहा गया है।
पुण्डरीकाक्ष
- यह पद श्रीकृष्ण के
मनोज्ञतम नेत्रों की ओर भी पाठकों का ध्यान आकृष्ट करता है। 'तस्य यथा पुण्डरीकमेवमेवाक्षिणी'
– उपनिषदों में श्रीकृष्ण के
नेत्रों को लाल कमल के समान माना है।
प्रस्तुत
श्लोक में पुष्पिताग्रा वृत्त है।
गीतगोविन्द सर्ग ५ अष्ट पदि १० - गरुडपद
अथ दशमः
सन्दर्भः
गीतम् ॥१०॥
देशीवराडीरागेण
रूपकतालेन गीयते ॥ प्रबन्धः ॥
अनुवाद - यह प्रबन्ध देशीवराड़ी राग से तथा रूपक ताल से गाया जाता
है।
बालबोधिनी - सुकेशी नायिका जब हाथों में कङ्कण,
कानों में देव पुष्प लगाये हुए हाथ में चँवर लिये वीजन करती
हुई निज दयित के साथ विनोदन करती है, तब देशीवराड़ी राग प्रस्तुत होता है।
वहति मलय-
समीरे मदनमुपनिधाय,
स्फुटति
कुसुमनिकरे विरहि-हृदय-दलनाय
सखि ! सीदति
तव विरहे वनमाली ॥ १ ॥ध्रुवम्
अन्वय - सखि, तव विरहे वनमाली [ त्वत्-कर- कल्पित- वनमालावलम्बनेन
जीवतीति वनमालि-शब्दोपन्यासः ] मदनम् उपनिधाय ( उप समीपे संस्थाप्य) मलय- समीरे
बहति [ सति], [ तथा ] कुसुमनिकरे कुसुम - समूहे) विरहि - हृदय - दलनाय (विरहिणांमर्मपीड़नाय )
स्फुटति (विकसति) [सति] सीदति (अवसादं गच्छति सन्तप्यते इत्यर्थः) ॥ १ ॥
अनुवाद - सखि ! राधे राधे! देखो, मदन-रस में सिक्त करने हेतु मलयानिल प्रवाहित हो रहा है,
विरही जनों के हृदय को विदीर्ण करने वाला विविध कुसुम समूह
प्रस्फुटित हो रहा है। ऐसे उस वसन्त समय में श्रीकृष्ण सकाम होकर तुम्हारे विरह से
दुःखी हो रहे हैं।
पद्यानुवाद-
विवश बनाती
मदन- लहरियाँ, मिलकर मलय समीरे
चलदल - सा चल जाता
जी जब, हँसती कलियाँ धीरे ॥
तव विरहे
वनमाली ! पल पल आकुल आली ।
बालबोधिनी - सखी श्रीराधा से कह रही है - हे सखि ! यह वसन्त की बेला है,
इसमें विरहीजनों को मार्मिक पीड़ा पहुँचाने वाला मलय समीरण
बह रहा है, काम के उद्दीपन के रूप में हृदयविदारक कुसुम - समुदाय विकसित हो रहा है।
तुम्हारे विरह में कृष्ण अतिशय विषण्ण हैं, तुम चलो और उनसे मिल लो।
वनमाली -
तुम्हारे हाथ की बनी हुई वनमाला धारण कर किसी प्रकार से जीवन धारण कर रहे हैं। इसी
अभिप्राय से श्रीकृष्ण को वनमाली कहा गया है।
दहति
शिशिरमयूखे मरणमनुकरोति ।
पतति मदन -
विशिखे विलपति विकलतरोऽति-
सखि ! सीदति
तव विरहे... ॥ २ ॥
अन्वय- शिशिरमयूखे (शीतरश्मौ चन्द्रे) दहति (दहनवत् किरणं वितरति
सति) मरणम् अनुकरोति (मृतवन्निश्चेष्टो भवति; मूर्च्छतीति भावः) [तथा] मदनविशिखे (कामबाणे) पतति [सति]
अतिविकलतरः [सन्] विलपति [कुसुमपतने हृदि विध्यत्कामबाणभ्रमात् आक्रोशतीत्यर्थः ] ॥ २
॥
अनुवाद - वे चन्द्र- किरणों से संदग्ध होकर मुमुर्षु प्रायः हो रहे
हैं। वृक्षों से मदन- शर के सदृश पुष्पों के गिरने से उनका हृदय विद्ध हो गया है।
ऐसी स्थिति में वे अति विकल होकर विलाप कर रहे हैं।
पद्यानुवाद-
प्राण जलाने
आती हैं नभसे चन्दाकी किरनें ।
मदन-शरोंसे
व्याकुल होकर लगते उठने-गिरने ॥
तव विरहे
वनमाली पल-पल आकुल आली!
बालबोधिनी - तुम्हारे विरह से सन्तप्त वनमाली को चन्द्रमा शीतल नहीं
करता,
अपितु उन्हें प्रदाह का अनुभव होता है। इस चन्द्र से ज्वाला
निकल रही है, जो उन्हें जलाये जा रही है, मानो मृत्यु ही साक्षात् उपस्थित हुई है। मृतप्राय व्यक्ति
जैसी चेष्टा करता है, उसी प्रकार वे भी चेष्टा करते हैं। वृक्षों के पत्ते तथा
फूलों के गिरने से उनको ऐसा लगता है कि मानो कामदेव उनके हृदय पर बाण मार रहा हो।
वे कुसुम शय्या पर ऐसे पड़ जाते हैं, मानो बाणों की शय्या हो और अधिक विकल होकर बिलखने लगते हैं।
ध्वनति
मधुप-समूहे श्रवणमपिदधाति ।
मनसि
कलित-विरहे निशि निशि रुजमुपयाति –
सखि ! सीदति
तव विरहे... ॥ २ ॥
अन्वय - मधुपसमूहे (भ्रमरचये) ध्वनति ( गुञ्जति सति) श्रवणम्
(कर्णम्) अपिदधाति (आच्छादयति; उद्दीपनत्वेन असह्यत्वादिति भावः);
[तथा] निशि निशि
(प्रतिरात्रं) वलितविरहे ( अत्युद्रिक्त-विरहे) मनसि रुजम् (पीड़ाम्) उपयाति
(अधिकमाप्नोति ) । [निशायाः तत्प्राप्तिकालत्वात् त्वदप्राप्त्या अलिध्वनिश्रवणात्
पीड़ामनुभवतीत्यर्थः ] ॥३ ॥
अनुवाद – मधुकरों की गुञ्जार को सुनकर वे अपने कानों को हाथों से ढक
लेते हैं। प्रत्येक रात्रि में तुमको पावेंगे सोचते हैं, किन्तु पाते नहीं; अतएव दिन-प्रतिदिन विरह व्यथा में विजातीय यन्त्रणा को सहन
करते हुए अधिकाधिक रुग्न होते जा रहे हैं।
पद्यानुवाद-
मधुपोंकी 'गुनगुन' से मूँदे हैं कानोंको रहते ।
रात रात भर
सुधि - पीड़ामें हैं आँखोंसे बहते ॥
तव विरहे
वनमाली ! पल-पल आकुल आली ॥
बालबोधिनी - यद्यपि चहुँदिशि भौंरों की झौर की झौर गुनगुना रही है,
परन्तु अलियों का गुञ्जन श्रीकृष्ण को प्रसन्न नहीं कर रहा,
अपितु कर्णकटु हो रहा है। अतएव हाथों से अपने कानों को बन्द
कर देते हैं। प्रत्येक रात्रि में ऐसा मानते हैं कि आप उनके पास हैं,
परन्तु आपको न पाने से उनकी विरह-वेदना और बढ़ गयी है। हृदय
विरह से सराबोर हो गया हैं, इसलिए वे करवटें बदलते रहते हैं,
छटपटाते रहते हैं। प्रस्तुत पद्य में सखी के द्वारा
विप्रलम्भ के उद्दीपन विभावों का वर्णन हुआ है।
वसति विपिन -
विताने त्यजति ललित-धाम ।
लुठति धरणि-
शयने बहु विलपति तव नाम-
सखि ! सीदति
तव विरहे... ॥४ ॥
अन्वय - विपिनविताने (वनगहने) वसति; ललितधाम( रुचिरमपि गृहं ) त्यजति [विरहवैकल्यात् एकत्र स्थित्यभावाद्
वितान- शब्दोपादानम् ] धरणिशयने (भूशय्यायां) लुठति; तव नाम बहु (बारं बार) विलपति (जपतिः तव नामधेयादन्यत्
तस्यमुखात् न निःसरतीत्यर्थः) ॥४ ॥
अनुवाद - वे अपने मनोहर शयन- मन्दिर का परित्याग करके अरण्य में
निवास करते हैं और भूमि शय्या पर लुण्ठित होते हुए बार- बार राधे ! राधे !
तुम्हारे ही नाम का उच्चारण करते हैं।
पद्यानुवाद-
कलित धाम
परित्याग बसे हैं, वनमें तप-सा साधे
दर्दीसे धरती
पर लेटे रटते राधे ! राधे !
तव विरहे
वनमाली, पल पल आकुल आली ।
बालबोधिनी - सखी कह रही है-राधे ! तुम्हारे वियोग में श्रीकृष्ण ने
अपने मनोहर धाम में रहना छोड़ दिया है। उन्हें जङ्गलों के वितान में रहना ही अच्छा
लगने लगा है। शय्या पर न सोकर वे तुम्हारे विरह की पीड़ा से भूमि पर ही सोते हुए
लोट-लोट कर निशा काल को व्यतीत करते हैं, बस तुम्हारा ही नाम करते हैं-राधे,
हा राधे !
भणति
कवि-जयदेव इति विरह-विलसितेन ।
मनसि रभस -
विभवे हरिरुदयतु सुकृतेन-
सखि ! सीदति
तव विरहे... ॥५ ॥
अन्वय - कवि जयदेवे इति ( एवं ) भणति ( गदति सति) विरहविलसितेन
(विच्छेदविलासेन हेतुना) सुकृतेन (पुण्येन हरिः रभसविभवे ( रभसस्य प्रेमोत्साहस्य
विभवो यत्र तस्मिन् ) [गायतां शृण्वताञ्च भक्तानां] मनसि (चित्ते) उदयतु [
हरिविरहविलसितेन हेतुना यदुत्पन्नं सुकृतं तेन गायतां
शृण्वताञ्च मनसि हरिरुदितो भवतु इति भावः ] ॥५॥
अनुवाद - श्रीजयदेव कवि द्वारा वर्णित श्रीकृष्ण की विरह व्यथा से
पूर्ण इस गान से जो सुकृति सञ्चित होती है, उस सुकृति के फलस्वरूप जिन पाठकों का मन विरह के विलास में
निरतिशय रूप से निमग्न हो गया है, उनके हृदय में श्रीकृष्ण सम्यक् रूप से उदित हों।
पद्यानुवाद-
कवि जयदेव लीन
हैं अतिशय हरिके विरह-विलासे ।
भाता है यह रस
जिसको अति उसमें ज्ञान प्रकाशे ॥
बालबोधिनी - कवि जयदेव कह रहे हैं कि उनके इस 'गरुडपदनाम' के दशम प्रबन्ध के पाठकों एवं श्रोताओं को बहुत-सी सुकृति प्राप्त होगी,
उन सुकृतियों का मन श्रीहरि के विरहविलास जन्य उत्साह से
सम्पन्न होगा। रसोत्कण्ठित उन हृदयों में श्रीभगवान्का आविर्भाव हो ।
इस प्रबन्ध को
केदार राग में गाया जाता है।
श्रीराधाने
जैसे ही निज प्राणकोटि निर्मञ्छनीय चरण प्राणनाथ श्रीकृष्ण के विरह-विलाप का श्रवण
किया,
वैसे ही मूर्च्छित होकर गिर पड़ी,
तब सखी ने बोलना बन्द कर दिया,
आगे कुछ कह ही न सकी। इसीलिए यह गीति मात्र पाँच पदों में
ही वर्णित है।
पूर्वं यत्र
समं त्वया रतिपतेरासादिताः सिद्ध्य-
स्तस्मिन्नेव
निकुञ्ज - मन्मथ - महातीर्थे पुनर्माधवः ।
ध्यायंस्त्वामनिशं
जपन्नपि तवैवालाप - मन्त्रावलीं
भूयस्त्वत्कुचकुम्भ-निर्भरपरीरम्भामृतं
वाञ्छति ॥१ ॥
अन्वय- पूर्वं यत्र त्वया समं (सह) रतिपतेः (मदनस्य) सिद्धयः
(त्वया सह आश्लेषादिकाः) आसादिताः (प्राप्ताः) [माधवेनेति शेषः ] तस्मिन्नेव
निकुञ्ज - मन्मथ महातीर्थे (निकुञ्जरूपे मन्मथ - केलिसिद्धिक्षेत्रे) [त्वमेव
तस्यैष्टदेवतेति त्वत्साक्षात्कार-लाभाय ] माधवः पुनः त्वाम् [प्राप्तकाम एव]
अनिशं ( निरन्तरं ) ध्यायन् [तथा] [मन्त्रजपस्तरेण इष्टदेवता नाचिरात्
प्रत्यक्षभूता भवतीति] तवैव आलापमन्त्रावलीं (आलापरूपां मन्त्रसमूहम् ) जपन् भूयः
(प्रचुरं यथा तथा ) त्वत्कुचकुम्भ निर्भरपरीरम्भामृतं (तव कुचकुम्भयोः
निर्भरालिङ्गनरूपममृतं) वाञ्छति ॥ १ ॥
अनुवाद - राधे ! माधव ने पहले निकुञ्ज रूपी महातीर्थ में तुम्हारे
आलिङ्गन आदि मनोरथों की सिद्धि के लिए मन्मथ की सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। उसी
महातीर्थ में कामदेव की सिद्धियों के लिए सदैव तुम्हारा ध्यान करते हैं। तुम्हारे
साथ किये गये वार्तालापवली – मन्त्र को जपते हुए तुम्हारे कुचकुम्भों के
गाढालिङ्गनरूपी अमृतमोक्ष की पुनः पुनः अभिलाषा कर रहे हैं।
बालबोधिनी - अतः पर सखी श्रीराधा की मूर्च्छा का निवारण करने के लिए
कृष्ण चरित्र का पुनः सिञ्चन करती हुई श्रीराधा का अभिसारिका नायिका के रूप में
वर्णन करने लगी । वह श्रीराधा को यह कहकर प्रसन्न करना चाहती है कि माधव का मन
उसमें ही अवस्थित है। राधे! माधव ने जिस निकुञ्ज रूपी मन्मथ महातीर्थ में तुम्हारे
साथ रहकर चुम्बन, आलिङ्गन आदि काम की महासिद्धियों को प्राप्त किया था,
वे फिर आज उसी परिरम्भ – अमृत की अभिलाषा कर रहे हैं।
तुम्हारे कुचकुम्भ का गाढालिङ्गन ही अमृत है, उस महातीर्थ का जल - अमृत है। वे उसी कामदेव के महातीर्थ में
रहकर तुम्हारे स्वरूप का ध्यान करते हुए तुम्हारे साथ हुए वार्तालापों का
मन्त्रावली के रूप में अहर्निश जप कर रहे हैं। देवता के सामने एकान्त ध्यान जप के
द्वारा ही सिद्धि प्राप्त होती है। अतः कृष्ण निकुञ्जरूपी कामतीर्थ में रतिपति
अर्थात् आपके सम्मुख आपको ही उपलक्षित करके आपकी प्रसन्नता रूपी कामसिद्धि को
प्राप्त करना चाहते हैं। इन्हीं निकुञ्जों में ही उन्हें काम की सिद्धि प्राप्त
हुई थी। काम की सिद्धि के लिए तुम्हारा वार्तालाप मन्त्र बन गया। तुम ही उस
निकुञ्ज की देवता हो । मन्त्रजप के द्वारा तुम्हारे कुम्भ के समान उन्नत उरोजों का
गाढ़ालिङ्गन रूपी अमृत को वे प्राप्त करना चाहते हैं।
प्रस्तुत
श्लोक में शार्दूलविक्रीडित छन्द है, काव्यलिङ्ग अलङ्कार है।
इति गीतगोविन्द
सर्ग ५ आकाङ्क्ष-पुण्डरीकाक्ष: दशमः सन्दर्भः ।
शेष जारी........ गीतगोविन्द सर्ग 5 एकादश सन्दर्भ
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