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कालिकापुराणम्
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अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ५९
।।श्री
भगवानुवाच।।
अङ्गमन्त्राण्यहं
वक्ष्ये चण्डिकाया विशेषतः।
यैः समाराधिता
देवी चतुर्वर्गप्रदा भवेत् ।। १ ।।
श्रीभगवान्
बोले- अब मैं उन अङ्गभूतमन्त्रों को जो चण्डिका देवी से विशेष करके सम्बद्ध हैं,
कहूँगा। जिनके द्वारा भलीभाँति आराधना किये जाने परदेवी,
अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष, चारों पुरुषार्थों को देने वाली हो जाती हैं ॥ १ ॥
तालव्यान्तो
युतः षष्ठस्वरबिन्द्विन्दुवह्निभिः ।
तथोपान्तः
स्वरस्त्वेते बाह्यं वाग्भवमेव च ।। २ ।।
नेत्रबीजं
चण्डिकायास्त्रयमेतत् प्रकीर्तितम् ।
वामललाटदाक्षिण्यनेत्रेषु
त्रितयं क्रमात् ।। ३ ।।
अन्तिम तालव्य
श,
चतुर्थ स्वर (ई), बिन्दु-इन्दु (चन्द्रबिन्दु) तथा वह्नि र से युक्त हो
(श्री),
उसके पहले उसी प्रकार इन्हीं स्वरादि के साथ उपान्त ह
(ह्रीं) और इनके पहले वाग्भव बीज ऐं आकर ऐं ह्रीं श्रीं ये चण्डिका के
नेत्र - बीज कहे गये हैं। जो क्रमशः वामनेत्र, ललाट स्थित नेत्र तथा दक्षिण नेत्र के सूचक हैं ।। २-३॥
धर्मार्थकाममोक्षाणां
सर्वदा कारणं परम् ।
मन्त्रमेतन्महगुह्यं
दुर्गाबीजमिति स्मृतम् ।। ४ ।।
यह धर्म,
अर्थ, काम और मोक्ष का सदैव सर्वश्रेष्ठ कारण मन्त्र,
अत्यन्त गुप्त है तथा दुर्गाबीज नाम से जाना जाता है॥४॥
यदा
कात्यायानमुनेराश्रमेषु दिवौकसाम् ।
तेजोभिर्धृतकायाभूद्
देवी देवौघसंस्तुता ।। ५ ।।
तदा
नेत्रत्रयाद् देव्या मूलमूर्तिर्विनिः सृता ।
तेजोमयी
जगद्धात्री महिषासुरघातिनी ।। ६ ।।
जब कात्यायन मुनि
के आश्रम में देवसमूह द्वारा स्तुति किये जाने पर देवी महामाया ने देवताओं के तेज
से शरीर धारण किया, तब देवी के तीनों नेत्रों से देवी की तेजोमयी,
शक्तिस्वरूपिणी मूलमूर्ति, प्रकट हुई, जो जगत् का पालन एवं महिषासुर का घात (वध) करने वाली थी
।।५-६ ॥
तेजोभिः
सर्वदेवानां सा धृत्वा वपुरुत्तमम् ।
अस्त्राण्यनेकान्यादाय
देवैर्दत्तानि भागशः।। ७ ।।
सगणं
सानुवन्धं च सामात्यबलवाहनम् ।
ब्रह्माद्यैः
संस्तुता देवी जघान महिषासुरम् ।। ८ ।।
सभी देवताओं
के तेज से उत्तम शरीर और देवताओं द्वारा अलग-अलग दिये गये अनेक अस्त्रों को धारण
करके,
ब्रह्मादि देवताओं द्वारा स्तुति की जाती हुई,
उस देवी ने अपने गणों, सेवकों, सहयोगियों, मन्त्रियों, सेना तथा वाहन सहित, महिषासुर का वध कर दिया ।। ७-८ ।।
हते तु महिषे
देवी पूजिता त्रिदशैस्ततः।
अनेनैव तु
मन्त्रेण लोके ख्यातिं च सा गता ।। ९ ।।
महिषासुर के
मारे जाने पर देवताओं ने उनकी पूजा, इसी मन्त्र से की एवं वे संसार में प्रसिद्धि को प्राप्त
हुई ॥९॥
ततः प्रभृति
सा मूर्तिः सर्वैः सर्वत्र पूज्यते ।
मूलमूर्त्तिः
सुगुप्ताभूत् स्वमूर्त्या ख्यातिमागता ।। १0 ।।
तभी से सभी के
द्वारा,
सर्वत्र, उसी मूर्ति की पूजा की जाती है। जब महिषमर्दिनीरूप से
महामाया प्रसिद्ध हो गईं तो उनकी मूल, तेजोमयीमूर्ति, गुप्त हो गई ॥ १० ॥
देवानां
वरदानेन ब्रह्माद्यैरुपयोजनात् ।
यन्मूर्तिः
पूज्यते सर्वैस्तां मूर्तिं शृणु भैरव ।। ११ ।।
हे भैरव !
देवताओं के वरदान से तथा ब्रह्मा आदि की रूपयोजना के फलस्वरूप जो मूर्ति सबके
द्वारा पूजी जाती है। उसके विषय में सुनो ॥ ११ ॥
कालिका पुराण अध्याय ५९- महिषमर्दिनी का रुप वर्णन
जटाजूटसमायुक्ता
अर्द्धेन्दुकृतशेखराम् ।
लोचनत्रयसंयुक्तां
पूर्णेन्दुसदृशाननाम् ।। १२ ।।
वे देवी
जटाजूट धारण किये हुए हैं तथा उनके मस्तक पर अर्धचन्द्र,
विराजमान हैं। वे तीन नेत्रों से युक्त हैं। उनका मुख,
पूर्णचन्द्रमा के समान प्रसन्न है॥ १२ ॥
तप्तकाञ्चनवर्णाभां
सुप्रतिष्ठां सुलोचनाम् ।
नवयौवनसम्पन्नां
सर्वाभरणभूषिताम् ।। १३ ।।
वे तपे हुए
सोने के रङ्ग की आभावाली, सुन्दर ढंग से प्रतिष्ठित, सुन्दरनेत्रों- वाली, नयी युवावस्था से युक्त, सभी प्रकार के आभूषणों से सुशोभित हैं ।। १३ ।।
सुचारुदर्शनां
तीक्ष्णां पीनोन्नतपयोधराम् ।
त्रिभङ्गस्थानसंस्थानां
महिषासुरमर्दिनीम् ।। १४ ।।
वे सुन्दर
किन्तु तेज दाँतों, पुष्ट और उठे हुए स्तनों से सुशोभित हैं । वे महिषासुर का
मर्दन करने वाली देवी, तीन स्थानों (पैर, कटि, ग्रीवा) से झुकी हुई, स्थित हैं ॥१४॥
मृणालायतसंस्पर्शदशबाहुसमन्विताम्
।
त्रिशूलं
दक्षिणे देयं खड्गं चक्रं क्रमादधः।। १५ ।।
तीक्ष्णबाणं
तथा शक्तिं बाहुसङ्गेषु सङ्गताम् ।
खेटकं
पूर्णचापं च पाशं चाङ्कुशमूर्धतः।। १६ ।।
घण्टां च
परशुं चापि वामेऽधः प्रतियोजयेत् ।
अधस्तान्महिषं
तद्वद्विशिरस्कं प्रदर्शयेत् ।। १७ ।।
उन्होंने
कमलनाल के समान कोमल स्पर्शवाली, अपनी दश विशाल भुजाओं में क्रमशः दक्षिण ओर नीचे के क्रम
में त्रिशूल, खड्ग,
चक्र, तेज बाण, शक्ति धारण कर रखा है । बायीं ओर ऊपर से नीचे की ओर क्रमशः
खेटक (ढाल), तना हुआ धनुष, पाश, अङ्कुश, घण्टा और परशु भी धारण किया है। उन देवी के निचले भाग में
शिर विहीन महिषासुर को दिखाना चाहिये ।। १५-१७॥
शिरश्छेदोद्भवं
तद्वद्दानवं खड्गपाणिनम् ।
हृदि शूलेन
निर्भिन्नं निर्यदन्त्रविभूषितम् ।। १८ ।।
रक्तरक्तीकृताङ्गं
च रक्तविस्फुरितेक्षणम् ।
वेष्टितं
नागपाशेन भ्रुकुटीकुटिलाननम् ।। १९ ।।
सपाशवामहस्तेन
धृतकेशं च दुर्गया ।
वमद्रुधिरवक्त्रं
च देव्याः सिंहं प्रदर्शयेत् ।। २0 ।।
देव्यास्तु
दक्षिणं पादं समं सिंहोपरि स्थितम् ।
किञ्चिदूर्ध्वं
तथा वाममङ्गुष्ठं महिषोपरि ।। २१ ।।
उसे महिष के
शिर कटे हुए शरीर से उत्पन्न, हाथ में खड्ग लिए हुए एक दानव की भाँति दिखाना चाहिये जिसका
हृदय,
देवी के त्रिशूल से बिंधा हो और जो बाहर आती हुई आन्तों से
युक्त हो। जिसका शरीर अपने ही शरीर से निकले हुए रक्त से लाल हो तथा जिसके लाल-लाल
नेत्र फैले हुए हों, जिसकी भौंहे तथा मुख टेढ़े हों और जो नागपाश से बँधा हुआ
हो। भगवती दुर्गा द्वारा अपने पाशयुक्त वामहस्त से जिसके केश पकड़े गये हों। जो
खून उगल रहा हो, ऐसा महिषासुर एवं देवी का वाहन भी दिखाना चाहिये। उस समय देवी का दाहिना पैर,
सिंह पर स्थिररुप से स्थित हो तथा कुछ उठा हुआ उनका बायाँ
अँगूठा महिष पर हो।। १८-२१ ॥
उग्रचण्डा
प्रचण्डा च चण्डोग्रा चण्डनायिका ।
चण्डा चण्डवती
चैव चामुण्डा चण्डिका तथा ।। २२ ।।
आभिः
शक्तिभिरष्टाभिः सततं परिवेष्टिताम् ।
चिन्तयेत्
सततं देवीं धर्मकामार्थमोक्षदाम् ।। २३ ।।
जो उग्रचण्डा,
प्रचण्डा, चण्डोग्रा, चण्डनायिका, चण्डा, चण्डवती, चामुण्डा और चण्डिका नाम वाली इन आठों शक्तियों से निरन्तर
घिरी हुई हों । इस(१२-२३ श्लोकों तक वर्णित) रूप में धर्म,
अर्थ, काम और मोक्ष दायिनी देवी का चिन्तन (ध्यान) करना चाहिये ।।
२२-२३॥
एतस्याश्चाङ्गमन्त्रं
तु दुर्गातन्त्रमिति श्रुतम् ।
शृणुष्वैकमना
भूत्वा धर्मकामार्थसाधनम् ।। २४ ।।
अब इसके
धर्म-अर्थ-काम-साधक अङ्गमन्त्रों को एकाग्रचित्त हो सुनो। जिन्हें दुर्गातन्त्र के
नाम से जाना जाता है।।२४।।
कालिका पुराण अध्याय ५९- दुर्गामन्त्र
वह्निभार्या
स्वरैः तुर्ये ढान्तः प्रान्तोऽग्रिरेव च ।
दुर्गेद्विरिति
सोङ्कारं दुर्गामन्त्रमिति श्रुतम् ।।२५।।
ॐ कार सहित दो
बार दुर्गे शब्द, चतुर्थ स्वर ई सहित ढान्त (ढ) के बाद आने वाले व्यंजन (ण)
और प्रान्त (अन्तिम) व्यञ्जन (क्ष) तथा इनके पहले अग्निबीज र से बने रक्षिणी एवं
अन्त में स्वाहा शब्द के योग से बना ॐ दुर्गे दुर्गे रक्षिणी स्वाहा मन्त्र
बनता है जो जयदुर्गामन्त्र के रूप में प्रसिद्ध है ।। २५ ।।
रवौ
मकरराशिस्थे या भवेत् सितपञ्चमी ।
तस्यामनेन
मन्त्रेण सम्पूज्य विधिवच्छिवाम् ।। २६ ।।
शुक्लाष्टम्यां
पुनर्देवीं पूजयित्वा यथाविधि ।
नवम्यां
बलिदानानि प्रभूतानि समाचरेत् ।
सन्ध्यायां च
बलिं कुर्याग्निजगात्रासृगुक्षितम् ।। २७ ।।
सूर्य के मकरराशि
में स्थित होने पर (माघ मास में) जब शुक्लपक्ष की पञ्चमी तिथि (बसन्तपञ्चमी) हो,
उस दिन इस मन्त्र से विधिवत् शिवा देवी का पूजन करे तथा
शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि को पुनः देवी का विधिपूर्वक पूजन करे । नवमी को अधिक मात्रा
में बलिदान आदि का आचरण करे एवं सन्ध्या के समय अपने शरीर से निकाले गये रक्त से
उन्हें बलि प्रदान करे ।। २६-२७॥
एवं कृते तु
कल्याणैर्युक्तो नित्यं प्रमोदते ।। २८ ।।
पुत्रपौत्रसमृद्धस्तु
धनधान्यसमृद्धिभिः।
दीर्घायुः
सर्वसुभगो लोकेऽस्मिन् स च जायते ।। २९ ।।
ऐसा करने से
साधक,
नित्य कल्याण से युक्त हो पुत्र,
पौत्र से सम्पन्न और धन-धान्य से समृद्ध हो,
आनन्द प्राप्त करता है। वह इस लोक में सब प्रकार से सुन्दर
एवं दीर्घायु होता है ।। २८-२९ ॥
सिताष्टम्यां
तु चैत्रस्य पुष्पैस्तत्कालसम्भवैः।
अशोकैरपि यः
कुर्यान्मत्रेणानेन पूजनम् ।
न तस्य जायते
शोको रोगो वाप्यथ दुर्गतिः।। ३0 ।।
चैत्र के
शुक्लपक्ष की अष्टमी के दिन जो साधक, उस समय उपलब्ध- पुष्पों और अशोक के पुष्पों से उपर्युक्त मन्त्र
के साथ देवी का पूजन करता है, उसे न तो कोई रोग या शोक होता है और न तो किसी प्रकार की
उसकी दुर्गति ही होती है ॥ ३० ॥
ज्यैष्ठे तु
शुक्लपक्षस्य अष्टाभ्यां समुपोषितः।
नवम्यां
सतिलैरन्नैर्यावकैरथ मोदकैः।। ३१ ।।
क्षीरैराज्यैस्तथा
क्षौद्रैः शर्कराभिः सपिष्टकैः।
नानापशूनां
रुधिरैर्मांसैरपि च पूजयेत् ।। ३२ ।।
ज्येष्ठ के
शुक्लपक्ष की अष्टमी को साधक, व्रत रख कर नवमी के दिन तिल, यावक (जौ से बने भोज्य पदार्थ),
अन्न से तथा मोदकों, दूध, घी, मधु, चीनी तथा आटे से एवं अनेक प्रकार से बलि के उपयुक्त पशुओं
के रक्त और माँस से भी देवी का पूजन करे ।। ३१-३२ ।।
ततो दशम्यां
शुक्लायामद्भिस्तु तिलमिश्रितैः ।
दुर्गातन्त्रेण
मन्त्रेण दातव्यमञ्जलित्रयम् ।।३३।।
तत्पश्चात्
ज्येष्ठशुक्ल-दशमी (गङ्गादशहरा) को तिल मिले हुये जल से दुर्गातन्त्र में वर्णित,
मन्त्रों को पढ़कर तीन अञ्जलि जल प्रदान करे ॥३३॥
एवं कृते
दशम्यां तु यत्पापं दशजन्मभिः ।
कृतं
तत्प्रलयं याति दीर्घायुरपि जायते ।। ३४ ।।
दशमी को ऐसा
करने से दश जन्मों के किये हुए भी जो पाप होते हैं, वे तत्काल प्रलय (नाश) को प्राप्त होते हैं तथा साधक
दीर्घायु होता है ॥३४॥
आषाढे
शुक्लपक्षस्य याष्टमी श्रावणस्य च ।
पवित्रारोपणं
कुर्याद् देवीप्रीतिकरं परम् ।। ३५ ।।
हे भैरव !
आषाढ़ और श्रावण मास के शुक्लपक्ष की जो अष्टमी तिथि होती है । उस दिन देवी को
अत्यधिक प्रसन्न करने वाला पवित्रारोपण (सूत्रधारण) कर्म करे ॥ ३५ ॥
दुर्गातन्त्रेण
मन्त्रेण दुर्गाबीजेन भैरव ।
वैष्णवीतन्त्रमन्त्रेण
दुर्गाबीजेन भैरव ।। ३६ ।।
वैष्णवीतन्त्रमन्त्रेण
पवित्रारोपणं चरेत् ।
विशेषाच्छ्रावणं
प्राप्य देव्याः कुर्यात् पवित्रकम् ।। ३७ ।।
हे भैरव !
दुर्गातन्त्र में उल्लिखित मन्त्र, दुर्गाबीज, वैष्णवीतन्त्र के मन्त्र से यह पवित्रारोपणकर्म करना
चाहिये। विशेषरूप से श्रावण मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी- तिथि आने पर देवी के
निमित्त पवित्रारोपणकर्म करना चाहिये ॥३५-३७।।
सर्वेषामेव
देवानां पवित्रारोपणं चरेत् ।
आषाढे श्रावणे
वापि संवत्सरफलप्रदम् ।। ३८ ।।
आषाढ़ या
श्रावण के महीने में सभी देवताओं के लिए पवित्रारोपणकर्म, वर्षभर तक फलदायक होता है ॥ ३८ ॥
प्रतिपद्धनदस्योक्ता
पवित्रारोपणे तिथिः।
द्वितीया तु
श्रियो देव्यास्तिथीनामुत्तमा स्मृता ।।३९ ।।
तृतीया
भवभाविन्याश्चतुर्थी तत्सुतस्य च ।
पञ्चमी
सोमराजस्य षष्ठी प्रोक्ता गुहस्य च ।। ४0 ।।
सप्तमी
भास्करस्योक्ता दुर्गायाश्च तथाष्टमी ।
मातृणां नवमी
प्रोक्ता वासुकेर्दशमी मता ।। ४१ ।।
एकादशो ऋषीणां
च द्वादशी चक्रपाणिनः।
त्रयोदशी
त्वनङ्गस्य मम चैव चतुर्दशी ।
ब्रह्मणो
दिक्पतीनां च पौर्णमासी तिथिर्मता ।। ४२ ।।
प्रतिपद् तिथि
धनद (कुबेर) हेतु पवित्रारोपण की तिथि तथा तिथियों में उत्तम द्वितीया तिथि
लक्ष्मी,
तृतीया भव- भाविनी (जगत् को उत्पन्न करने वाली) जगदम्बा
पार्वती की, चतुर्थी उनके पुत्र गणेश, पञ्चमी सोमराज (चन्द्रमा), षष्ठी गुह (कार्तिकेय), सप्तमी सूर्य, अष्टमी दुर्गा, नवमी मातृकाओं, दशमी वासुकी, एकादशी ऋषियों, द्वादशी विष्णु, त्रयोदशी अनङ्ग (कामदेव), चतुर्दशी ब्रह्मा, तथा पूर्णिमा दिकपालों के लिए पवित्रारोपण की उत्तम तिथियाँ
कही गई हैं ।। ३९-४२॥
पवित्रारोपणं
यो वै देवानां न समाचरेत् ।
तस्य
सांवत्सरीपूजाफलं हरति केशवः।। ४३ ।।
तस्माद्
यत्नेन कर्तव्यं पवित्रारोपणं परम् ।
कृते
बहुफलप्राप्तिस्तत्पूजा सफला भवेत् ।। ४४ ।।
जो साधक देवताओं
का पवित्रारोपण नहीं करता है उसके द्वारा वर्षभर की गई पूजा के फल को भगवान्
विष्णु हर लेते हैं । अतः साधक को इस श्रेष्ठ पवित्रारोपणकर्म को यत्नपूर्वक करना
चाहिये । इसके करने से साधक को बहुत फल प्राप्त होता है तथा उसकी पूजा सफल होती है
॥। ४३-४४ ।।
पवित्रं येन
सूत्रेण यथा कार्यं विजानता ।
तच्छ्रणुष्व
प्रमाणं तु वचनान्मम भैरव ।। ४५ ।।
हे भैरव ! यह
पवित्रा किस प्रकार के सूत्र से, किस प्रमाण में और किस विधि से ज्ञानपूर्वक बनानी चाहिये ।
उसे तुम मेरे वचनों से सुनो ॥४५॥
प्रथमं
दर्भसूत्रं च पद्मसूत्रं ततः परम् ।। ४६ ।।
ततः क्षौमं
सुपुण्यं स्यात् कार्पासकमतः परम् ।
पट्टसूत्रं
तथान्येन पवित्राणिन कारयेत् ।। ४७ ।।
सर्वप्रथम कुश
के तन्तु,
उसके बाद पद्मतन्तु (कमलनाल के रेशे),
उसके बाद क्षौम (सन के बने) तन्तु,
तब रूई के बने और अन्त में रेशम के तन्तुओं से निर्मित ही
पवित्रा बनाये । इस हेतु अन्य किसी तन्तु का उपयोग न करे ।।४६-४७॥
विचित्राणि
पवित्राणि कर्तव्यानि तु यत्नतः।
गन्धमाल्यैः
सुरभिभिः रचितानि यथोदितम् ।। ४८ ।।
इस हेतु विविध
प्रकार की ऊपर बतायी, पवित्रों को प्रयत्नपूर्वक, गन्ध, माला, सुगन्धि आदि से युक्त करना चाहिये॥४८॥
कन्या च
कर्तयेत् सूत्रं प्रमदा च पतिव्रता ।
विधवा
साधुशीला वा दुःखशीला न कर्तयेत् ।। ४९ ।।
इस निमित्त
कन्या,
पतिव्रता स्त्री या साधु आचरणवाली विधवा स्त्री सूत काते ।
किसी दुराचारिणी को न कातने दे ॥ ४९ ॥
यत्सूचिभिन्नं
दग्धं च भस्मधूमाभिगुण्ठितम् ।
तद्वर्जनीयं
यत्नेन सूत्रमस्मिन् पवित्रके ।। ५0 ।।
इस पवित्रा निर्माणकर्म
में जो तन्तु सूई से बिंधा हुआ, जला हुआ, भस्म, धुएँ आदि में लिपटा हुआ हो, उसे प्रयत्नपूर्वक हटा देना चाहिये ॥ ५० ॥
उपयुक्तं
चाखुजग्धं मद्यरक्तादिदूषितम् ।
मलिनं
नीलरक्तं च प्रयत्नेन विवर्जयेत् ।। ५१ ।।
सूत्रैः
पवित्रं कुर्वीत कनिष्ठोत्तममध्यमम् ।
कनिष्ठं यत्
पवित्रं तु सप्तविंशतितन्तुभिः।। ५२ ।।
ऊपर वर्णित,
चूहे द्वारा कुतरे गये, मद्य-रक्त आदि से दूषित, मैले (काले), लाल आदि रङ्गों के तन्तुओं का इस कार्य हेतु प्रयत्नपूर्वक
निषेध करना चाहिये । उचित सूत्रों से कनिष्ठ, मध्यम, उत्तम तीन प्रकार की पवित्रा बनानी चाहिये। सत्ताईस तन्तुओं
से बनने वाली जो पवित्रा है वह कनिष्ठ होती है। यह मर्त्यलोक में यश- कीर्ति,
सुख-सौभाग्य बढ़ाने वाली होती है॥५२॥
मर्त्यलोके
यशः कीर्तिः सुखसौभाग्यवर्धनम् ।
चतुःपञ्चाशता
प्रोक्तं तन्तूनां मध्यमं परम् ।। ५३ ।।
चौवन तन्तुओं
से बनी पवित्रा श्रेष्ठ होते हुए भी मध्यम श्रेणी की है। यह दिव्य भोगप्रदायक,
पवित्र, स्वर्ग और मोक्षप्रदान करने वाली है ॥ ५३ ॥
दिव्यभोगावहं
पुण्यं स्वर्गमोक्ष प्रदायकम् ।
उत्तमं चैव
तन्तूनामष्टोत्तरशतेन वै ।
तद्दत्वा तु
महादेव्यै शिवासयुज्यमाप्नुयात् ।। ५४ ।।
उत्तम पवित्रा,
एक सौ आठ तन्तुओं से बनी होती है। उसे महादेवी को अर्पण कर
साधक,
शिव सायुज्य प्राप्त कर लेता है ।।५४ ॥
उत्तमं
वासुदेवाय दद्याद् यदि पवित्रकम् ।
तदा याति
हरेर्लोकं साधको नात्र संशयः।। ५५ ।।
यदि कोई साधक
उत्तम पवित्रा, वासुदेव को अर्पित करता है, तो वह विष्णु- लोक को प्राप्त करता है। इसमें कोई संशय नहीं
है ॥ ५५ ॥
अष्टोत्तरसहस्रं
तु रत्नमालेति गीयते ।
पवित्रं सु महादेव्या
भुक्तिमुक्तिप्रदायकम् ।। ५६ ।।
एक हजार आठ
तन्तुओं से बनी पवित्रा को रत्नमाला कहते हैं। देवी को अर्पित किये जाने पर वह,
भोग और मोक्ष दोनों ही प्रदान करने वाली होती है ॥ ५६ ॥
रत्नमाल्यां
तु यो यच्छेन्महादेव्यै पवित्रकम् ।
कल्पकोटिसहस्राणि
स्वर्गे स्थित्वा शिवो भवेत् ।। ५७ ।।
रत्नमाला नामक
पवित्रा को जो महादेवी को प्रदान करता है। वह स्वर्ग में करोड़ों सहस्र- कल्पों तक
स्थित हो,
शिवस्वरूप हो जाता है ॥५७॥
एतत् तु
नागहाराख्यं शङ्करस्य पवित्रकम् ।। ५८ ।।
अष्टोत्तरसहस्रेण
तन्तुना सुमनोहरम् ।
यः प्रयच्छति
मह्यं तु स यावांस्तन्तुसञ्चयः।
तावत्कल्पसहस्राणि
मम लोके प्रमोदते ।। ५९ ।।
यही एकहजार आठ
तन्तुओं से बनी सुन्दर पवित्रा, जब मुझ, शङ्कर को समर्पित की जाती है। तो नागहार नामक हो जाती है।
जो इसे मुझे प्रदान करता है । इस पवित्रा में जितने तन्तुओं का समूह होता है,
उतने हजार कल्पों तक वह मेरे लोक में आनन्द प्राप्त करता है
।। ५८-५९ ।।
अष्टोत्तरसहस्रेण
वनमाला हरेः स्मृता ।
तन्तूनां तस्य
दानेन विष्णुसायुज्यमाप्नुयात् ।। ६0 ।।
यही एक हजार
आठ तन्तुओं की पवित्रा, विष्णु के लिए वनमाला कही गई है। उसके दान से साधक विष्णु
के सायुज्य को प्राप्त करता है ॥ ६० ॥
यत् कनिष्ठं
पवित्रं तु नाभिमात्रं भवेत् तु तत् ।
द्वादशग्रन्थिसंयुक्तमात्ममाने
न योजयेत् ।। ६१ ।।
जो कनिष्ठ पवित्रा
होती है वह नाभिमात्र तक की होती है और अपने मान से उसे बारह गाँठों का बनाना
चाहिये॥६१॥
ऊरुप्रमाणं
मध्यं स्याद् ग्रन्थीनां तत्र योजयेत् ।
चतुर्विंशतिमप्यस्य
मानमात्मन एव च ।। ६२ ।।
मध्यम पवित्रा
जंघे तक होनी चाहिये और अपने अनुपात से उसमें चौबीस गाँठे होती हैं ।। ६२ ।।
वपित्रमुत्तमं
प्रोक्तं जानुमात्रं च भैरव ।
षट्त्रिंशत्तन्तुग्रन्थीनां
योजयेदात्ममानतः।। ६३ ।।
हे भैरव !
उत्तम पवित्रा, घुटने तक की कही गई है जो साधक को अपने मान से छत्तीस गाँठों की बनानी चाहिये
॥६३॥
शतमष्टोत्तरं
कार्यं ग्रन्थीनां सुविधानतः।
नागहाराह्वयं
तद्वदन्येषु च विधानतः।। ६४ ।।
जिस विधान से
अन्य पवित्रा में गाँठे बनाई जायें। उसी प्रकार से नागहार नामक पवित्रा में भी
सुविधानुसार एक सौ आठ गाँठे बनानी चाहिये ॥६४॥
वपित्रं
क्रियते येन सूत्रेण ग्रन्थयः पुनः।
तदन्यवर्णसूत्रेण
कर्तव्या लक्षणान्विता ।। ६५ ।।
पवित्रा जिस
वर्ण के सूत्र से बनाई गई हो, उससे भिन्न वर्ण के सूत्र से उसकी सुन्दर ग्रंथियाँ बनानी
चाहिये॥६५॥
ग्रन्थिं तु
सप्तभिः कुर्याद् वेष्टनैस्तु कनिष्ठके ।
द्विगुणैर्मध्यमे
कुर्यात्त्रिगुणरुत्तमे तथा ।। ६६ ।।
अधिवास्य
पवित्राणि पूर्वस्मिन् दिवसे ततः।। ६७ ।।
कनिष्ठ पवित्रा
में सात आवृत्तियों की गाँठे बनानी चाहिये। उससे दुगुनी चौदह आवृत्तियों की मध्यम
में तथा तीन गुनी, इक्कीस आवृत्तियों की उत्तम में,
गाँठे बनानी चाहिये तत्पश्चात् पहले दिन पवित्राओं का
अधिवासन करे।।६६-६७।।
मन्त्रन्यासं
पवित्रे तु कुर्यात् तत्रापरेऽहनि ।
दुर्गाबीजेन
मन्त्रेण मन्त्रन्यासं द्विजश्चरेत् ।। ६८ ।।
अगले दिन
उनमें द्विज साधक को दुर्गा बीजमन्त्र से मन्त्र न्यास करना चाहिये ।।६८।।
वैष्णवीतन्त्रमन्त्रेण
कुर्युरन्ये च भैरव ।
प्रतिग्रन्थि
स्वयं कुर्यान्मन्त्रन्यासं विचक्षणः।। ६९ ।।
हे भैरव !
अन्य साधक वैष्णवीतन्त्र में वर्णित मन्त्र से न्यास करें । बुद्धिमान् साधक को
स्वयं प्रत्येक ग्रन्थियों में मन्त्र न्यास करना चाहिये ॥६९ ॥
अङ्गुष्ठाग्रण
जपनं मालायामिह भैरव ।
यावन्तो
ग्रन्थयश्चात्र तावन्त्येव च सन्न्यसेत् ।। ७0 ।।
हे भैरव !
अँगूठे के अगले भाग को ग्रन्थियों पर रखकर साधक को माला से मन्त्र जप करना चाहिये।
पवित्रा में जितनी गाँठे हों, उतनी ही संख्या में जपपूर्वक मन्त्रन्यास करे ॥७०॥
मन्त्राणि
तस्य तेन स्यादेवाङ्गोपनियोजनम् ।
दुर्गातन्त्रेण
मन्त्रेण तत्त्वन्यासं तु कारयेत् ।। ७१ ।।
इस प्रकार से
मन्त्रों का उसके अङ्गो से समायोजन हो जाता है। तत्पश्चात् दुर्गातन्त्र के
मन्त्रों से साधक तत्त्व न्यास करे ॥७१॥
एकत्र न्यस्य
सकलं यज्ञपात्रे पवित्रकम् ।
तस्मिन् निधाय
गन्धादि पुष्पाणि च सुशोभनम् ।। ७२ ।।
तत्त्वन्यासं
ततः कुर्यादङ्गुल्यग्रेण भैरव ।
विष्णोस्तु
मूलमन्त्रेण तत्त्वन्यासं तु कारयेत् ।। ७३ ।।
हे भैरव ! सभी
पवित्राओं को एक ही स्थान पर यज्ञपात्र में रखकर, उसमें सुन्दर गन्ध, पुष्प आदि चढ़ाकर अंगुलि के अगले भाग से तत्त्वन्यास करना
चाहिये । तत्त्वन्यास, विष्णु के मूलमन्त्र से करे ।। ७२-७३॥
इदं
विष्णुरिति प्रोक्तं मन्त्रन्यासं द्विजस्य हि ।
शूद्राणां मन्त्रविन्यासे
मन्त्रो वै द्वादशाक्षरः।। ७४ ।।
इदं विष्णु-यह वैदिक मन्त्र, द्विज-वर्णों के मन्त्रन्यास के लिए है तथा शूद्रों के
मन्त्रन्यास हेतु द्वादशाक्षरमन्त्र (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) बताया गया है
॥७४॥
प्रासादेन तु
मन्त्रेण तत्त्वन्यासो मम स्मृतः।
अनेन मन्त्रन्यासं
च दानं चानेन कारयेत् ।। ७५ ।।
प्रासादमन्त्र
से मेरा तत्त्वन्यास बताया गया है। इसी से मन्त्र- न्यास और दान,
दोनों ही करना चाहिये ॥ ७५ ॥
कुड्कुमोशीरकर्पूरै
श्चन्दनादिविलेपनैः।
पवित्राणि
विलिप्याथ तत्त्वन्यासं तु योजयेत् ।। ७६ ।।
साधक कुङ्कुम,
खश, कपूर और चन्दन के लेपन से पवित्राओं का लेपन (अर्चन) कर तत्त्वन्यास करे ॥ ७६ ॥
सम्पूज्य
मण्डले देवीं विधिवत् प्रयतो नरः।
वैष्णवीतन्त्रमन्त्रेण
दुर्गातन्त्रेण भैरव ।
दुर्गाबीजेन
दद्यात् तु देव्या मूर्ध्नि पवित्रकम् ।। ७७ ।।
हे भैरव !
साधक मनुष्य को मण्डल में वैष्णवीतन्त्र या दुर्गातन्त्र के मन्त्र से विनम्रता से
विधिपूर्वक देवी का पूजन करना चाहिये तथा दुर्गामन्त्र से देवी के मस्तक पर उस
पूजित पवित्रा को चढ़ाना चाहिए ॥७७॥
यस्य देवस्य
यः प्रोक्तस्तस्य तेनैव मण्डलम् ।
यस्य यस्य तु
यो मन्त्रो यथा ध्यानादिपूजनम् ।। ७८ ।।
तत् तत् तेनैव
मन्त्रेण पूजयित्वा प्रयत्नतः।
तस्यैव
बीजमन्त्राभ्यां मूर्ध्नि दद्यात् पवित्रकम् । । ७९ ।।
जिस देवता का
जिस प्रकार का मण्डल कहा गया है, उसी प्रकार के मण्डल से जो-जो मन्त्र ध्यान-पूजन आदि के
बताये गये हैं, उन्हीं के अनुसार उनका पूजन प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये और उन्हीं के
बीजमन्त्रों से देवता के मस्तक पर पवित्रारोपण भी करना चाहिये ।।७८-७९ ।।
पवित्रं मम यो
दद्याद् देवेभ्यश्च पवित्रकम् ।
सर्वेषामेव
देवानां सम्पूर्णार्थश्च भैरव ।। ८0 ।।
अग्निर्ब्रह्मा
भवानी च गजवक्त्रो महोरगः।
स्कन्दो
भानुर्मातृगणो दिक्पालाश्च नबग्रहाः।। ८१ ।।
एतान् घटेषु
प्रत्येकं पूजयित्वा यथाविधि ।
पवित्रं
मूर्ध्नि चैकैकं दद्यादेभ्यः समाहितः।। ८२ ।।
हे भैरव ! इस
प्रकार जो मुझे या देवताओं को पवित्रारोपण करता है। उसकी सभी देवों की साधना का
मनोरथ,
पूर्ण हो जाता है। अग्नि, ब्रह्मा, भवानी, गणेश, नाग, स्कन्द, सूर्य, मातृगण, दिक्पाल, नवग्रह इनमें से प्रत्येक का अलग-अलग घटों पर विधिपूर्वक
पूजन कर,
एक-एक पवित्रा को एक-एक देवता के मस्तक पर चढ़ाये॥८०-८२॥
पञ्चगव्यचरुं
कृत्वा देव्यै दत्त्वाहुतित्रयम् ।
तेनैव विष्णवे
दत्त्वा शम्भवे च यथाविधि ।। ८३ ।।
आज्यैरष्टोत्तरशतं
तिलैराज्यैस्तथैव च ।
अष्टोत्तरशतं
दद्यान्महादेव्यै च साधकः।। ८४ ।।
साधक पञ्चगव्य
में चरु बनाकर देवी को तीन आहुतियाँ प्रदान करे। उसी से विष्णु एवं शिव को भी
विधिपूर्वक आहुति देवे । तत्पश्चात् साधक केवल घी से एक सौ आठ आहुतियाँ तथा तिल
एवं घी दोनों से १०८ आहुतियाँ महादेवी को प्रदान करे ।।८३-८४ ॥
एवमेव विधानेन
निष्ण्वादीनां च साधकः ।
पवित्रारोपणं
कुर्याद् धर्मकामार्थसिद्धये ।। ८५ ।।
धर्म,
काम और अर्थ की सिद्धि के लिए साधक को इसी प्रकार विष्णु
आदि देवताओं के लिए भी पवित्रारोपण करना चाहिये ॥ ८५ ॥
नैवेद्यैर्विविधैः
पेयैर्वटपिष्टकमोदकैः।
कूष्माण्डैर्नारिकेलैश्च
खर्ज्जूरैः पनसैस्तथा ।। ८६ ।।
आम्रदाडिमकर्कारुद्राक्षादिविविधैः
फलैः।
भक्ष्यभोज्यादिभिः
सर्वैर्मत्स्यैर्मांसेस्तथौदनैः।। ८७ ।।
गन्धैः
पुष्पैस्तथा धूपैर्दीपैश्च सुमनोहरैः।
वासोभिर्भूषणैश्चैव
भवानीसाधको यजेत् ।। ८८ ।।
देवी साधक को
पेय पदार्थ, वट (बड़ा), पिष्ट (चूर्ण) और मोदक आदि अनेक प्रकार के नैवेद्य,
कूष्माण्ड, नारीयल, खजूर, कटहल, आम, अनार, कर्कारु (कुम्हड़ा), अंगूर आदि विविध फलों, भक्ष्य, भोज्य आदि, सभी प्रकार की मछलियों, मांसों एवं ओदन (भात) से तथा सब प्रकार के धूपदीप,
वस्त्राभूषण आदि से पूजन करना चाहिये ।।८६-८८।।
नटनर्तकसङ्घैश्च
वेश्याभिश्चैव भैरव ।। ८९ ।।
नृत्यगीतः
समुदितो जागरं कारयेन्निशि ।
भोजयेद्
ब्राह्मणांश्चापि ज्ञातीनपि द्विजातिभिः।। ९0 ।।
हे भैरव !
उक्त पवित्रारोपण के अवसर पर नट-नर्तकों के समूह तथा वेश्या आदि द्वारा
प्रसन्नतापूर्वक, रात्रिपर्यन्त, नृत्यगीत आदि के माध्यम से जागरण कराये । ब्राह्मणों,
जाति-भाइयों एवं द्विजातियों को भी भोजन कराये।।८९-९०।।
पवित्रारोपणे
वृत्ते दक्षिणामुपदापयेत् ।
हिरण्यं गां
तिलघृतं वासो वा शाकमेव वा ।। ९१ ।।
पवित्रारोपण
का कार्य सम्पन्न हो जाने पर दक्षिणादान करे। इस निमित्त साधक,
स्वर्ण, गौ, तिल, घृत, वस्त्र, शाक जो कुछ हो सके, श्रद्धापूर्वक प्रदान करे ।। ९१ ॥
इमं मन्त्रं
ततः पश्चात् साधकः समुदीरयेत् ।
मणिविद्रुममालाभिर्मन्दारकुसुमादिभिः।
इयं सांवत्सरी
पूजा तवास्तु परमेश्वरि ।। ९२ ।।
मन्त्रार्थ -
हे परमेश्वरि ! तब साधक मणि परमेश्वरि इस मंत्र को पढ़े- मणि,
मूँगा आदि रत्नों तथा मन्दार आदि फूलों की इन मालाओं से की
गई,
यह पवित्रारोपण की वार्षिक पूजा,
आपको स्वीकार हो ॥ ९२ ॥
ततो
विसर्जयेद् देवीं पूजाभिः प्रतिपत्तिभिः।। ९३ ।।
एवं कृते
पवित्राणां दाने देव्या यथाविधि ।
संवत्सरस्य या
पूजा सम्पूर्णा वत्सराद् भवेत् ।। ९४ ।।
तब पूजा आदि
कर्मकाण्डों से देवी का विसर्जन करे । इस प्रकार विधिपूर्वक देवी के निमित्त,
पवित्रा-दान करने पर, संवत्सर की वार्षिकी पूजा, वर्षभर के लिए परिपूर्ण हो जाती है ।। ९३-९४।।
कल्पकोटिशतं
यावद् देवीगेहे वसेन्नरः।
तत्रापि
सुखसौभाग्यसमृद्धिरतुला भवेत् ।। ९५ ।।
ऐसा करने वाला
सौ करोड़ कल्पों तक देवी के धाम में निवास करता है । तथा वहाँ भी उसे अतुलनीय सुख
और समृद्धि की प्राप्ति होती हैं ।। ९५ ।।
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे पवित्रारोपणोनाम एकोनषष्टितमोऽध्यायः ॥ ५९ ॥
॥
श्रीकालिकापुराण में पवित्रारोपण नामक उन्सठवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।। ५९ ।।
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 60
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