Slide show
Ad Code
JSON Variables
Total Pageviews
Blog Archive
-
▼
2023
(355)
-
▼
October
(23)
- बान्दा
- ब्रह्मदण्डी
- हनुमद् बीसा
- कालिका पुराण अध्याय ६२
- हवनात्मक दुर्गासप्तशती
- मरणासन्न अवस्था में करनेयोग्य कार्य
- कालिका पुराण अध्याय ६१
- भूकदम्व
- भृङ्गराज
- मण्डूकब्राह्मी कल्प
- गीतगोविन्द पाँचवाँ सर्ग साकांक्ष पुण्डरीकाक्ष
- अष्ट पदि ११
- श्राद्ध में महत्वपूर्णतथ्य
- श्राद्ध में निषिद्ध
- कालिका पुराण अध्याय ६०
- मयूरशिखा कल्प
- गीतगोविन्द सर्ग ५ आकाङ्क्ष-पुण्डरीकाक्ष
- कालिका पुराण अध्याय ५९
- श्राद्ध में प्रयोजनीय एवं प्रशस्त
- कालिका पुराण अध्याय ५८
- कालिका पुराण अध्याय ५७
- गया तथा ब्रह्मकपाली में श्राद्ध
- अशौच विचार
-
▼
October
(23)
Search This Blog
Fashion
Menu Footer Widget
Text Widget
Bonjour & Welcome
About Me
Labels
- Astrology
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड
- Hymn collection
- Worship Method
- अष्टक
- उपनिषद
- कथायें
- कवच
- कीलक
- गणेश
- गायत्री
- गीतगोविन्द
- गीता
- चालीसा
- ज्योतिष
- ज्योतिषशास्त्र
- तंत्र
- दशकम
- दसमहाविद्या
- देवी
- नामस्तोत्र
- नीतिशास्त्र
- पञ्चकम
- पञ्जर
- पूजन विधि
- पूजन सामाग्री
- मनुस्मृति
- मन्त्रमहोदधि
- मुहूर्त
- रघुवंश
- रहस्यम्
- रामायण
- रुद्रयामल तंत्र
- लक्ष्मी
- वनस्पतिशास्त्र
- वास्तुशास्त्र
- विष्णु
- वेद-पुराण
- व्याकरण
- व्रत
- शाबर मंत्र
- शिव
- श्राद्ध-प्रकरण
- श्रीकृष्ण
- श्रीराधा
- श्रीराम
- सप्तशती
- साधना
- सूक्त
- सूत्रम्
- स्तवन
- स्तोत्र संग्रह
- स्तोत्र संग्रह
- हृदयस्तोत्र
Tags
Contact Form
Contact Form
Followers
Ticker
Slider
Labels Cloud
Translate
Pages
Popular Posts
-
मूल शांति पूजन विधि कहा गया है कि यदि भोजन बिगड़ गया तो शरीर बिगड़ गया और यदि संस्कार बिगड़ गया तो जीवन बिगड़ गया । प्राचीन काल से परंपरा रही कि...
-
रघुवंशम् द्वितीय सर्ग Raghuvansham dvitiya sarg महाकवि कालिदास जी की महाकाव्य रघुवंशम् प्रथम सर्ग में आपने पढ़ा कि-महाराज दिलीप व उनकी प...
-
रूद्र सूक्त Rudra suktam ' रुद्र ' शब्द की निरुक्ति के अनुसार भगवान् रुद्र दुःखनाशक , पापनाशक एवं ज्ञानदाता हैं। रुद्र सूक्त में भ...
Popular Posts
मूल शांति पूजन विधि
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
श्राद्ध में प्रयोजनीय एवं प्रशस्त
श्राद्ध में प्रयोजनीय एवं प्रशस्त
आवश्यक बातों का यहाँ वर्णन किया जाता है-
श्राद्ध में आठ दुर्लभ प्रयोजनीय
श्राद्ध में कुछ बातें अत्यन्त
महत्त्व की हैं, जैसे कुतप वेला-दिन का आठवाँ
मुहूर्त (दिन में ११ बजकर ३६ मिनट से १२ बजकर २४ मिनट तक का समय) श्राद्ध के लिये
यह काल मुख्यरूप से प्रशस्त है। इसे ही ‘कुतप वेला' कहते हैं।
‘कुत्सित' अर्थात् पाप को संतप्त करने के कारण इसे
कुतप कहा गया है। मध्याह्नकाल, खड्गपात्र (गैंड़े के सींग से
बना पात्र), नेपालकम्बल, चाँदी,
कुश, तिल, गौ और दौहित्र
(कन्या का पुत्र) – ये आठों भी कुतप के समान ही फलदायी होने के
कारण कुतप कहलाते हैं। श्राद्ध के लिये ये बड़े ही दुर्लभ प्रयोजनीय हैं।
मध्याह्नः खड्गपात्रं च तथा
नेपालकम्बलः ।
रूप्यं दर्भास्तिला गावो
दौहित्रश्चाष्टमः स्मृतः ॥
पापं कुत्सितमित्याहुस्तस्य
संतापकारिणः ।
अष्टावेते यतस्तस्मात् कुतपा इति
विश्रुताः ॥ (मत्स्यपुराण २२ । ८६-८७)
इन आठ वस्तुओं में कहीं-कहीं गौ के
स्थान पर शाक की गणना है। (वाचस्पत्यकोश)
श्राद्ध में कुश तथा कृष्ण तिल की
महिमा
कुश तथा काला तिल—ये दोनों भगवान् विष्णु के शरीर से प्रादुर्भूत हुए हैं। अतः ये श्राद्ध की
रक्षा करने में सर्वसमर्थ हैं - ऐसा देवगण कहते हैं।
विष्णोर्देहसमुद्भूताः कुशाः
कृष्णास्तिलास्तथा ।
श्राद्धस्य रक्षणायालमेतत्
प्राहुर्दिवौकसः ॥ (मत्स्यपुराण २२८९)
समूलाग्र हरित (जड़ से अन्त तक हरे)
तथा गोकर्णमात्र परिमाण के कुश श्राद्ध में उत्तम कहे गये हैं।
श्राद्ध में रजत (चाँदी)-की महिमा
श्राद्ध में पितरों के निमित्त
पात्र के रूप में पलाश तथा महुआ आदि के वृक्षों के पत्तों के दोने तथा काष्ठ एवं
हाथ से बनाये मिट्टी
हस्तघटितं स्थाल्यादि दैविकं भवेत्।
(पारस्करगृ० गदाधरभाष्य)
आदि के पात्रों का प्रयोग किया जा
सकता है। परंतु इसके साथ ही सुवर्णमय एवं रजतमय पात्रों के प्रयोग की विधि है।
मुख्यरूप से श्राद्ध में रजत (चाँदी) का विशेष महत्त्व कहा गया है। पितरों के
निमित्त यदि चाँदी से बने हुए या चाँदी से मढ़े हुए पात्रों द्वारा श्रद्धापूर्वक
जलमात्र भी प्रदान कर दिया जाय तो वह अक्षय तृप्तिकारक होता है। इसी प्रकार पितरों
के लिये अर्घ, पिण्ड और भोजन के पात्र भी
चाँदी के ही प्रशस्त माने गये हैं। चूँकि चाँदी शिवजी के नेत्र से उद्भूत हुई है,
इसलिये यह पितरों को परम प्रिय है। यहाँ तक लिखा है कि यदि चाँदी का
पात्र देने की सामर्थ्य न हो तो चाँदी के विषय में कथोपकथन (चर्चा), दर्शन अथवा दान से कार्य सम्पन्न हो सकता है।
(क) पात्रं वनस्पतिमयं तथा
पर्णमयं पुनः ॥
सौवर्ण राजतं वापि पितॄणां पात्रमुच्यते
॥
रजतस्य कथा वापि दर्शनं दानमेव वा ।
राजतैर्भाजनैरेषामथवा रजतान्वितैः ॥
वार्यपि श्रद्धया
दत्तमक्षयायोपकल्पते ।
तथार्घ्यपिण्डभोज्यादौ पितॄणां
राजतं मतम् ॥
शिवनेत्रोद्भवं यस्मात् तस्मात्
पितृवल्लभम् । (मत्स्यपुराण १७।१९-२३)
(ख) पितरों के निमित्त चाँदी का
अथवा चाँदी मिश्रित अन्य धातु का भी पात्र आदि 'स्वधा' का उच्चारण करके ब्राह्मण को दान कर दिया जाय
तो वह सर्वदा पितरों को प्रसन्न करता है-
सर्वेषां राजतं
पात्रमथवारजतान्वितम् ।
दत्तं स्वधा पुरोधाय पितॄन्
प्रीणाति सर्वदा ॥ (मत्स्यपुराण १५ । ३१)
श्राद्ध में अत्यन्त पवित्र
प्रयोजनीय
दौहित्र (कन्या का पुत्र),
कुतप (दिन का आठवाँ मुहूर्त) और तिल - ये तीन तथा चाँदी का दान और
भगवत्स्मरण – ये सब श्राद्ध में अत्यन्त पवित्र माने गये
हैं।
त्रीणि श्राद्धे पवित्राणि दौहित्रः
कुतपस्तिलाः ।
रजतस्य तथा दानं कथासंकीर्तनादिकम्
॥ (विष्णुपु० ३ । १५ ।५२)
श्राद्ध में महत्त्व के सात प्रयोजनीय
दूध, गंगाजल, मधु, तसर का कपड़ा,
दौहित्र, कुतप और तिल - ये सात श्राद्ध में
बड़े महत्त्व के प्रयोजनीय हैं।
उच्छिष्टं शिवनिर्माल्यं वान्तं च
मृतकर्पटम् ।
श्राद्धे सप्त पवित्राणि दौहित्रः
कुतपस्तिलाः ॥ ( हेमाद्रि,
श्राद्धकल्प ० )
उच्छिष्टम्-पयः,
शिवनिर्माल्यम्- गङ्गोदकम्, वान्तम्- मधु,
मृतकर्पटम्-तसरीतन्तुनिर्मितं वासः ।
श्राद्ध में तुलसी की महिमा
तुलसी की गन्ध से पितृगण प्रसन्न
होकर गरुड़ पर आरूढ़ हो विष्णुलोक को चले जाते हैं । तुलसी से पिण्डार्चन किये
जाने पर पितर लोग प्रलय पर्यन्त तृप्त रहते हैं ।
(क) तुलसीगन्धमाघ्राय पितरस्तुष्टमानसाः ।
प्रयान्ति गरुडारूढास्तत्पदं चक्रपाणिनः॥
( प्रयोगपारिजात; श्रा०क०)
(ख) पितृपिण्डार्चनं श्राद्धे यैः कृतं तुलसीदलैः ॥
प्रीणिताः पितरस्तेन यावच्चन्द्रार्कमेदिनी ॥ (श्राद्धकल्पलता
में मार्कण्डेय का वचन)
श्राद्ध में तीन गुणों की आवश्यकता
पवित्रता,
अक्रोध, अचापल्य (जल्दबाजी न करना) – ये तीन प्रशंसनीय गुण हैं ।
त्रीणि चात्र प्रशंसन्ति
शौचमक्रोधमत्वराम् ॥ (मनु० ३ । २३५)
अतः श्राद्धकर्ता में होने आवश्यक
हैं।
श्राद्ध में ग्राह्य पुष्प
श्राद्ध में मुख्यरूप से सफेद पुष्प
ग्राह्य हैं। सफेद में सुगन्धित पुष्प की विशेष महिमा है। मालती,
जूही, चम्पा - प्रायः सभी सुगन्धित श्वेत
पुष्प, कमल तथा तुलसी और भृंगराज आदि पुष्प प्रशस्त हैं।
शुक्लाः सुमनसः श्रेष्ठास्तथा
पद्मोत्पलानि च ।
गन्धरूपोपपन्नानि यानि चान्यानि
कृत्स्नशः ॥
स्मृतिसार के अनुसार अगस्त्यपुष्प,
भृंगराज, तुलसी, शतपत्रिका,
चम्पा, तिलपुष्प – ये छः
पितरों को प्रिय होते हैं ।
आगस्त्यं भृङ्गराजं च तुलसी
शतपत्रिका ।
चम्पकं तिलपुष्पं च षडेते
पितृवल्लभाः ॥ (निर्णयसिन्धु में स्मृतिसार का
वचन)
श्राद्धदेश
गया, पुष्कर, प्रयाग, कुशावर्त
(हरिद्वार) आदि तीर्थों में श्राद्ध की विशेष महिमा है । सामान्यतः घर में, गोशाला में, देवालय, गंगा,
यमुना, नर्मदा आदि पवित्र नदियों के तट पर
श्राद्ध करने का अत्यधिक महत्त्व है। श्राद्ध-स्थान को गोबर-मिट्टी से लेपनकर
शुद्ध कर लेना चाहिये। दक्षिण दिशा की ओर ढालवाली श्राद्धभूमि प्रशस्त मानी गयी
है।
(क) श्राद्धस्य पूजितो देशो गया
गङ्गा सरस्वती ।
कुरुक्षेत्रं प्रयागश्च नैमिषं
पुष्कराणि च ॥
नदीतटेषु तीर्थेषु शैलेषु पुलिनेषु
च ।
विविक्तेष्वेव तुष्यन्ति दत्तेनेह
पितामहाः ॥ (वीरमित्रोदय श्रा० प्र० में देवल का
वचन)
(ख) दक्षिणाप्रवणे देशे तीर्थादौ वा
गृहेऽथवा ।
भूसंस्कारादिसंयुक्ते श्राद्धं
कुर्यात् प्रयत्नतः ॥
गोमयेनोपलिप्तेषु विविक्तेषु गृहेषु
च ।
कुर्याच्छ्राद्धमथैतेषु नित्यमेव
यथाविधिः ॥ (वीरमित्रोदय- श्राद्धप्रकाश में विष्णुधर्मोत्तर
का वचन)
श्राद्ध में प्रशस्त अन्न फलादि
ब्रह्माजी ने पशुओं की सृष्टि करते
समय सबसे पहले गौओं को रचा है; अतः श्राद्ध में
उन्हीं का दूध, दही और घी काम में लेना चाहिये।
पशून्विसृजता तेन पूर्वं गावो
विनिर्मिताः ।
तेन तासां पयः शस्तं श्राद्धे सर्पिर्विशेषतः
॥ (स्कन्दपुराण, नागर० २२१ । ४९)
जौ, धान, तिल, गेहूँ, मूँग, साँवाँ, सरसों का तेल,
तिन्नी का चावल, कँगनी आदि से पितरों को तृप्त
करना चाहिये। आम, अमड़ा, बेल, अनार, बिजौरा, पुराना आँवला,
खीर, नारियल, फालसा,
नारंगी, खजूर, अंगूर,
नीलकैथ, परवल, चिरौंजी,
बेर, जंगली बेर, इन्द्रजौ
और भतुआ - इनको श्राद्ध में यत्नपूर्वक लेना चाहिये।
यवैव्रीहितिलैमषैर्गोधूमैश्चणकैस्तथा
।
सन्तर्पयेत्पितॄन्मुद्गैः श्यामाकैः
सर्वपद्रवैः ॥
आम्रमाम्रातकं बिल्वं दाडिमं
बीजपूरकम् ।
प्राचीनामलकं क्षीरं नारिकेलं परूषकम्
॥
नारङ्गं च सखर्जूरं
द्राक्षानीलकपित्थकम् ।
पटोलं च प्रियालं च कर्कन्धूबदराणि
च ॥
विकङ्कतं वत्सकं च कस्त्वारु (र्कारु)-र्वारिकानपि
।
एतानि फलजातानि श्राद्धे देयानि
यत्नतः ॥ (ब्रह्मपुराण २२० । १५४,
१५६ - १५८)
जौ, कँगनी, मूँग, गेहूँ, धान, तिल, मटर, कचनार और सरसों- इनका श्राद्ध में होना अच्छा है।"
(क) यवाः प्रियङ्गवो मुद्गा गोधूमा
व्रीहयस्तिलाः ।
निष्पावा: कोविदाराश्च
सर्षपाश्चात्र शोभनाः ॥ (विष्णुपुराण ३ ।
१६ । ६ )
(ख) 'यवव्रीहिसगोधूमतिला मुद्गाः ससर्षपाः ।
प्रियङ्गवः कोविदारा
निष्पावाश्चातिशोभनाः ॥ (मार्कण्डेयपुराण
३२ । १०)
श्राद्ध में प्रशस्त ब्राह्मण
श्राद्ध में जिस किसी को भोजन कराने
की विधि नहीं है। शील, शौच एवं प्रज्ञा से
युक्त सदाचारी तथा सन्ध्या- वन्दन एवं गायत्री-मन्त्र का जप करनेवाले श्रोत्रिय
ब्राह्मण को श्राद्ध में निमन्त्रण देना चाहिये।
गायत्रीजाप्यनिरतं हव्यकव्येषु
योजयेत् । (वीरमित्रोदय-श्राद्धप्रकाश)
तप, धर्म, दया, दान, सत्य, ज्ञान, वेदज्ञान,
कारुण्य, विद्या, विनय
तथा अस्तेय (अचौर्य) आदि गुणों से युक्त ब्राह्मण इसका अधिकारी है।
तपो धर्मो दया दानं सत्यं ज्ञानं
श्रुतिर्घृणा ।
विद्याविनयमस्तेयमेतद्
ब्राह्मणलक्षणम् ॥ (वीरमित्रोदय- श्राद्धप्र०
में यम,
शातातपका वचन)
प्रशस्त आसन
रेशमी,
नेपाली कम्बल, ऊन, काष्ठ,
तृण, पर्ण, कुश आदि के
आसन श्रेष्ठ हैं। काष्ठासनों में भी शमी, काश्मरी, शल्ल, कदम्ब, जामुन, आम, मौलसिरी एवं वरुण के आसन श्रेष्ठ हैं। इनमें भी
लोहे की कील नहीं होनी चाहिये।
क्षौमं दुकूलं नेपालमाविकं दारुजं
तथा ।
तार्णं पार्णं वृसी चैव विष्टरादि
प्रविन्यसेत् ॥
शमी च काश्मरी शल्लः कदम्बो
वरुणस्तथा ।
पञ्चासनानि शस्तानि श्राद्धे
देवार्चने तथा ॥
अयः शङ्कुमयं पीठं प्रदेयं नोपवेशनम्
। (श्राद्धकल्पलता)
श्राद्ध में भोजन के समय मौन आवश्यक
श्राद्ध में भोजन के समय मौन रहना
चाहिये। माँगने या प्रतिषेध करने का संकेत हाथ से ही करना चाहिये।
याचनं प्रतिषेधो वा कर्तव्यो
हस्तसंज्ञया ।
न वदेन्न च हुंकुर्याद्तृप्तौ
विरमेन्न च ॥ (श्राद्धदीपिका,
श्रा०क०)
भोजन करते समय ब्राह्मण से अन्न
कैसा है,
यह नहीं पूछना चाहिये तथा भोजनकर्ता को भी श्राद्धान्न की प्रशंसा
या निन्दा नहीं करनी चाहिये।
पिण्ड की अष्टांगता
अन्न, तिल, जल, दूध, घी, मधु, धूप और दीप-ये पिण्ड के
आठ अंग हैं।
पिण्ड का प्रमाण
एकोद्दिष्ट तथा सपिण्डन में कैथ
(कपित्थ)- के फल के बराबर, मासिक तथा वार्षिक
श्राद्ध में नारियल के बराबर, तीर्थ में तथा दर्शश्राद्ध में
मुर्गी के अण्डे के बराबर तथा गया एवं पितृपक्ष में आँवले के बराबर पिण्ड देना
चाहिये।
एकोद्दिष्टे सपिण्डे च कपित्थं तु
विधीयते ।
नारिकेलप्रमाणं तु प्रत्यब्दे
मासिके तथा ॥
तीर्थे दर्शे च सम्प्राप्ते
कुक्कुटाण्डप्रमाणतः ।
महालये गयाश्राद्धे
कुर्यादामलकोपमम् ॥ (श्राद्धसंग्रह)
श्राद्ध में पात्र
सोने, चाँदी, काँसे और ताँबे के पात्र पूर्व-पूर्व
उत्तमोत्तम हैं। इनके अभाव में पलाश आदि अन्य वृक्ष के पत्तल से काम लेना चाहिये,
पर केले के पत्ते में श्राद्ध-भोजन सर्वथा निषिद्ध है। साथ ही
श्राद्ध में पितरों के भोजन के लिये मिट्टी के पात्र का भी निषेध है।
(क) कदलीपत्रं नैव ग्राह्यं यतो हि-
असुराणां कुम्भा पूर्वपरिग्रहे ।
तस्या दर्शनमात्रेण निराशाः पितरो
गताः ॥ (श्राद्धचन्द्रिका,
श्राद्धकल्पलता)
(ख) पात्रे तु मृण्मये यो वै
श्राद्धे भोजयते पितॄन् ।
स याति नरकं घोरं भोक्ता चैव
पुरोधसः ॥ (कूर्मपुराण उ०वि० २२।६३)
श्राद्ध में पाद-प्रक्षालन-विधि
श्राद्ध में ब्राह्मणों को बैठाकर
पैर धोना चाहिये । खड़े होकर पैर धोने पर पितर निराश होकर चले जाते हैं। पत्नी को
दाहिनी ओर खड़ा करना चाहिये । उसे बाँयें रहकर जल नहीं गिराना चाहिये। अन्यथा वह
श्राद्ध आसुरी हो जाता है और पितरों को प्राप्त नहीं होता ।
पादप्रक्षालनं प्रोक्तमुपवेश्यासने
द्विजान् ।
तिष्ठतां क्षालनं कुर्यान्निराशाः
पितरो गताः ॥
श्राद्धकाले यदा पत्नी वामे नीरं
प्रदापयेत् ।
आसुरं तद् भवेच्छ्राद्धं पितॄणां
नोपतिष्ठते ॥ (स्मृत्यन्तर,
श्रा०क०)
श्राद्ध प्रकरण में आगे पढ़ें...... श्राद्ध में वर्ज्य- -निषिद्ध
Related posts
vehicles
business
health
Featured Posts
Labels
- Astrology (7)
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड (10)
- Hymn collection (38)
- Worship Method (32)
- अष्टक (54)
- उपनिषद (30)
- कथायें (127)
- कवच (61)
- कीलक (1)
- गणेश (25)
- गायत्री (1)
- गीतगोविन्द (27)
- गीता (34)
- चालीसा (7)
- ज्योतिष (32)
- ज्योतिषशास्त्र (86)
- तंत्र (182)
- दशकम (3)
- दसमहाविद्या (51)
- देवी (190)
- नामस्तोत्र (55)
- नीतिशास्त्र (21)
- पञ्चकम (10)
- पञ्जर (7)
- पूजन विधि (80)
- पूजन सामाग्री (12)
- मनुस्मृति (17)
- मन्त्रमहोदधि (26)
- मुहूर्त (6)
- रघुवंश (11)
- रहस्यम् (120)
- रामायण (48)
- रुद्रयामल तंत्र (117)
- लक्ष्मी (10)
- वनस्पतिशास्त्र (19)
- वास्तुशास्त्र (24)
- विष्णु (41)
- वेद-पुराण (691)
- व्याकरण (6)
- व्रत (23)
- शाबर मंत्र (1)
- शिव (54)
- श्राद्ध-प्रकरण (14)
- श्रीकृष्ण (22)
- श्रीराधा (2)
- श्रीराम (71)
- सप्तशती (22)
- साधना (10)
- सूक्त (30)
- सूत्रम् (4)
- स्तवन (109)
- स्तोत्र संग्रह (711)
- स्तोत्र संग्रह (6)
- हृदयस्तोत्र (10)
No comments: