श्राद्ध भाग 2

श्राद्ध भाग 2

श्राद्ध भाग 2 shraddha गतांश से आगे

श्राद्ध भाग 2

श्राद्ध के अधिकारी

मृते पितरि पुत्रेण क्रिया कार्या विधानतः ।

बहवः स्युर्यदा पुत्राः पितुरेकत्रवासिनः ॥

सर्वेषां तु मतं कृत्वा ज्येष्ठेनैव तु यत्कृतम् ।

द्रव्येण चाविभक्तेन सर्वैरेव कृतं भवेत् ॥ (वीरमित्रोदय श्रा० प्र० में मरीचिका वचन)

एकादशाद्याः क्रमशो ज्येष्ठस्य विधिवत् क्रियाः ।

कुर्युर्नैकैकशः श्राद्धमाब्दिकं तु पृथक् पृथक् ।। (वीरमित्रोदय श्रा० प्र० में प्रचेताका वचन)

पिता का श्राद्ध करने का अधिकार मुख्यरूप से पुत्र को ही है। कई पुत्र होने पर अन्त्येष्टि से लेकर एकादशाह तथा द्वादशाह तक की सभी क्रियाएँ ज्येष्ठ पुत्र को करनी चाहिये। विशेष परिस्थिति में बड़े भाई की आज्ञा से छोटा भाई भी कर सकता है। यदि सभी भाइयों का संयुक्त परिवार हो तो वार्षिक श्राद्ध भी ज्येष्ठ पुत्र के द्वारा एक ही जगह सम्पन्न हो सकता है। यदि पुत्र अलग-अलग हों तो उन्हें वार्षिक आदि श्राद्ध अलग-अलग करना चाहिये।

मूलपुरुषमारभ्य सप्तमपर्यन्तं सपिण्डाः,

अष्टममारभ्य चतुर्दशपुरुषपर्यन्तं सोदकाः,

पञ्चदशमारभ्य एकविंशतिपर्यन्तं सगोत्राः ।

पित्रादयस्त्रयश्चैव तथा तत्पूर्वजास्त्रयः ॥

सप्तमः स्यात्स्वयं चैव तत्सापिण्ड्यं बुधैः स्मृतम् ।

सापिण्ड्यं सोदकं चैव सगोत्रं तच्च वै क्रमात् ॥

एकैकं सप्तकं चैकं सापिण्ड्यकमुदाहृतम्॥ (लघ्वाश्वलायनस्मृति २०।८२ ८४)

यदि पुत्र न हो तो शास्त्रों में श्राद्धाधिकारी के लिये विभिन्न व्यवस्थाएँ प्राप्त हैं ।

स्मृतिसंग्रह तथा श्राद्धकल्पलता के अनुसार

पुत्रः पौत्रश्च तत्पुत्रः पुत्रिकापुत्र एव च ।

पत्नी भ्राता च तज्जश्च पिता माता स्नुषा तथा ॥

भगिनी भागिनेयश्च सपिण्डः सोदकस्तथा ।

असन्निधाने पूर्वेषामुत्तरे पिण्डदाः स्मृताः ॥ (स्मृतिसंग्रह, श्राद्ध० कल्प०)

श्राद्ध के अधिकारी पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, दौहित्र (पुत्री का पुत्र), पत्नी, भाई, भतीजा, पिता, माता, पुत्रवधू, बहन, भानजा, सपिण्ड(स्वयं से लेकर पूर्व की सात पीढ़ी तक का परिवार) तथा सोदक (आठवीं से लेकर चौदहवीं पीढ़ी तक के पूर्वज परिवार।) कहे गये हैं- इनमें पूर्व-पूर्व के न रहने पर क्रमशः बाद के लोगों का श्राद्ध करने का अधिकार है।

पुत्रः पौत्रः प्रपौत्रो वा भ्राता वा भ्रातृसन्ततिः ।

सपिण्डसन्ततिर्वापि क्रियार्हो नृप जायते ॥

तेषामभावे सर्वेषां समानोदकसन्ततिः ।

मातृपक्षसपिण्डेन सम्बद्धा ये जलेन वा ॥

कुलद्वयेऽपि चोच्छिन्ने स्त्रीभिः कार्याः क्रिया नृप ॥

सङ्घातान्तर्गतैर्वापि कार्याः प्रेतस्य च क्रियाः ।

उत्सन्नबन्धुरिक्थाद्वा कारयेदवनीपतिः ॥ (विष्णुपु० ३ । १३ । ३०-३३)

विष्णुपुराण के वचन के अनुसार पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, भाई, भतीजा अथवा अपनी सपिण्ड संतति में उत्पन्न हुआ पुरुष ही श्राद्धादि क्रिया करने का अधिकारी होता है। यदि इन सबका अभाव हो तो समानोदकक संतति अथवा मातृपक्ष के सपिण्ड अथवा समानोदक को इसका अधिकार है। मातृकुल और पितृकुल दोनों के नष्ट हो जाने पर स्त्री ही इस क्रिया को करे अथवा (यदि स्त्री भी न हो तो) साथियों में से ही कोई करे या बान्धवहीन मृतक के धन से राजा ही उसके सम्पूर्ण प्रेतकर्म कराये।

पितुः पुत्रेण कर्तव्या पिण्डदानोदकक्रिया ।

पुत्राभावे तु पत्नी स्यात् पल्यभावे तु सोदरः ॥ (हेमाद्रिमें शंखका वचन)

हेमाद्रि के अनुसार पिता की पिण्डदानादि सम्पूर्ण क्रिया पुत्र को ही करनी चाहिये। पुत्र के अभाव में पत्नी करे और पत्नी के अभाव में सहोदर भाई को करनी चाहिये।

सर्वाऽभावे तु नृपतिः कारयेत् तस्य रिक्थतः ।

तज्जातीयेन वै सम्यग् दाहाद्याः सकलाः क्रियाः ॥

सर्वेषामेव वर्णानां बान्धवो नृपतिर्यतः ॥ (मार्कण्डेयपुराण, श्राद्धकल्पलता )

मार्कण्डेयपुराण ने बताया है कि चूँकि राजा सभी वर्णों का बन्धु होता है। अतः सभी श्राद्धाधिकारी जनों के अभाव होने पर राजा उस मृत व्यक्ति के धन से उसके जाति के बान्धवों द्वारा भलीभाँति दाह आदि सभी और्ध्वदैहिक क्रिया कराये ।

श्राद्ध के भेद

शास्त्रों में श्राद्ध के अनेक भेद बताये गये हैं, किंतु यहाँ उन्हीं श्राद्धों का उल्लेख किया जाता है, जो अत्यन्त आवश्यक और अनुष्ठेय हैं।

मत्स्यपुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध बताये गये हैं-

नित्यं नैमित्तिकं काम्यं त्रिविधं श्राद्धमुच्यते ।

नित्य, नैमित्तिक और काम्य-भेद से श्राद्ध तीन प्रकार के होते हैं।

नित्यं नैमित्तिकं काम्यं वृद्धिश्राद्धमथापरम् ।

पार्वणं चेति विज्ञेयं श्राद्धं पञ्चविधं बुधैः ॥

अहन्यहनि यच्छ्राद्धं तन्नित्यमिति कीर्तितम् ।

वैश्वदेवविहीनं तदशकावुदकेन तु ॥ (भविष्यपुराण)

यमस्मृति में पाँच प्रकार के श्राद्धों का उल्लेख मिलता हैनित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण'- प्रतिदिन किये जानेवाले श्राद्ध को नित्यश्राद्ध कहते हैं। इसमें विश्वेदेव नहीं होते तथा अशक्तावस्था में केवल जलप्रदान से भी इस श्राद्ध की पूर्ति हो जाती है तथा एकोद्दिष्ट श्राद्ध को नैमित्तिकश्राद्ध कहते हैं, इसमें भी विश्वेदेव नहीं होते। किसी कामना की पूर्ति के निमित्त किये जानेवाले श्राद्ध को काम्यश्राद्ध कहते हैं। वृद्धिकाल में पुत्रजन्म तथा विवाहादि मांगलिक कार्य में जो श्राद्ध किया जाता है, उसे वृद्धिश्राद्ध (नान्दीश्राद्ध) कहते हैं। पितृपक्ष, अमावास्या अथवा पर्व की तिथि आदि पर जो सदैव (विश्वेदेवसहित) श्राद्ध किया जाता है, उसे पार्वणश्राद्ध कहते हैं।

नित्यं नैमित्तिकं काम्यं वृद्धिश्राद्धं सपिण्डनम् ।

पार्वणं चेति विज्ञेयं गोष्ठीं शुद्धयर्थमष्टमम् ॥

कर्माङ्गं नवमं प्रोक्तं दैविकं दशमं स्मृतम् ।

यात्रास्वेकादशं प्रोक्तं पुष्ट्यर्थं द्वादशं स्मृतम् ॥

विश्वामित्रस्मृति तथा भविष्यपुराण में नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि, पार्वण, सपिण्डन, गोष्ठी, शुद्ध्यर्थ, कर्मांग, दैविक, यात्रार्थ तथा पुष्ट्यर्थ-ये बारह प्रकार के श्राद्ध बताये गये हैं। प्रायः सभी श्राद्धों का अन्तर्भाव उपर्युक्त पाँच श्राद्धों में हो जाता है।

जिस श्राद्ध में प्रेतपिण्ड का पितृपिण्डों में सम्मेलन किया जाय, उसे सपिण्डनश्राद्ध कहते हैं। समूह में जो श्राद्ध किया जाता है, उसे गोष्ठीश्राद्ध कहते हैं । शुद्धि के निमित्त जिस श्राद्ध में ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है, उसे शुद्ध्यर्थ श्राद्ध कहते हैं। गर्भाधान, सीमन्तोन्नयन तथा पुंसवन आदि संस्कारों में जो श्राद्ध किया जाता है, उसे कर्मांगश्राद्ध कहते हैं। सप्तमी आदि तिथियों में विशिष्ट हविष्य के द्वारा देवताओं के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है, उसे दैविकश्राद्ध कहते हैं। तीर्थ के उद्देश्य से देशान्तर जाने के समय घृत द्वारा जो श्राद्ध किया जाता है, उसे यात्रार्थश्राद्ध कहते हैं। शारीरिक अथवा आर्थिक उन्नति के लिये जो श्राद्ध किया जाता है, वह पुष्ट्यर्थश्राद्ध कहलाता है।

उपर्युक्त सभी प्रकार के श्राद्ध श्रौत और स्मार्त-भेद से दो प्रकार के होते हैं। पिण्डपितृयाग(' अमावास्यायां पिण्डपितृयागः ' - इस वचन के अनुसार 'पिण्डपितृयाग' अमावास्या के दिन होता है। इस याग को करने का अधिकार केवल अग्निहोत्री को है, अन्य को नहीं।) को श्रौतश्राद्ध कहते हैं और एकोद्दिष्ट, पार्वण तथा तीर्थश्राद्ध से लेकर मरण तक के श्राद्ध को स्मार्तश्राद्ध कहते हैं।

अमायुगमनुक्रान्तिधृतिपातमहालयाः।

अष्टकाऽन्वष्टका पूर्वेद्युः श्राद्धैर्नवतिश्च षट् ॥ (धर्मसिन्धु)

श्राद्ध के ९६ अवसर हैं। बारह महीनों की बारह अमावास्याएँ, सत्ययुग, त्रेतादि युगों के प्रारम्भ की चार युगादि तिथियाँ, मनुओं के आरम्भ की चौदह मन्वादि तिथियाँ, बारह संक्रान्तियाँ, बारह वैधृति योग, बारह व्यतीपात योग, पंद्रह महालय श्राद्ध (पितृपक्ष), पाँच अष्टका, पाँच अन्वष्टका तथा पाँच पूर्वेद्युः - ये ९६ श्राद्ध के अवसर हैं।

मृत्युतिथि तथा पितृपक्ष में श्राद्ध करना आवश्यक

वर्तमान समय में अधिकांश मनुष्य श्राद्ध को व्यर्थ समझकर उसे नहीं करते। जो लोग श्राद्ध करते हैं उनमें कुछ तो यथाविधि नियमानुसार श्रद्धा के साथ श्राद्ध करते हैं । किंतु अधिकांश लोग तो रस्म-रिवाज की दृष्टि से श्राद्ध करते हैं। वस्तुतः श्रद्धा-भक्ति द्वारा शास्त्रोक्तविधि से किया हुआ श्राद्ध ही सर्वविध कल्याण प्रदान करता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति को श्रद्धापूर्वक शास्त्रोक्त समस्त श्राद्धों को यथासमय करते रहना चाहिये । जो लोग शास्त्रोक्त समस्त श्राद्धों को न कर सकें, उन्हें कम-से-कम क्षयाह- वार्षिक तिथि पर तथा आश्विनमास के पितृपक्ष में तो अवश्य ही अपने मृत पितृगण के मरणतिथि के दिन श्राद्ध करना चाहिये। पितृपक्ष के साथ पितरों का विशेष सम्बन्ध रहता है।

पित्र्ये रात्र्यहनी मासः प्रविभागस्तु पक्षयोः ।

कर्मचेष्टास्वहः कृष्णः शुक्लः स्वप्नाय शर्वरी ॥ (मनुस्मृति १ । ६६ )

भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से पितरों का दिन प्रारम्भ हो जाता है, जो अमावास्या तक रहता है। शुक्लपक्ष पितरों की रात्रि कही गयी है । इसलिये मनुस्मृति में कहा गया हैमनुष्यों के एक मास के बराबर पितरों का एक अहोरात्र (दिन-रात) होता है। मास में दो पक्ष होते हैं। मनुष्यों का कृष्णपक्ष पितरों के कर्म का दिन और शुक्लपक्ष पितरों के सोने के लिये रात होती है।

यही कारण है कि आश्विनमास के कृष्णपक्ष – पितृपक्ष में पितृश्राद्ध करने का विधान है। ऐसा करने से पितरों को प्रतिदिन भोजन मिल जाता है। इसीलिये शास्त्रों में पितृपक्ष में श्राद्ध करने की विशेष महिमा लिखी गयी है। महर्षि जाबालि कहते हैं-

पुत्रानायुस्तथाऽऽरोग्यमैश्वर्यमतुलं तथा ।

प्राप्नोति पञ्चेमान् कृत्वा श्राद्धं कामांश्च पुष्कलान् ॥

तात्पर्य यह है कि पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पुत्र, आयु, आरोग्य, अतुल ऐश्वर्य और अभिलषित वस्तुओं की प्राप्ति होती है।

श्राद्ध की संक्षिप्त विधि

सामान्य रूप में कम-से-कम वर्ष में दो बार श्राद्ध करना अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त अमावास्या, व्यतीपात, संक्रान्ति आदि पर्व की तिथियों में भी श्राद्ध करने की विधि है।

(१) क्षयतिथि - जिस दिन व्यक्ति की मृत्यु होती है, उस तिथि पर वार्षिक श्राद्ध करना चाहिये। शास्त्रों में क्षय-तिथि पर एकोद्दिष्टश्राद्ध करने का विधान है (कुछ प्रदेशों में पार्वणश्राद्ध भी करते हैं)। एकोद्दिष्ट का तात्पर्य है कि केवल मृत व्यक्ति के निमित्त एक पिण्ड का दान तथा कम-से-कम एक ब्राह्मण को भोजन कराया जाय और अधिक-से-अधिक तीन ब्राह्मणों को भोजन कराया जाय।

(२) पितृपक्ष पितृपक्ष में मृत व्यक्ति की जो तिथि आये, उस तिथि पर मुख्यरूप से पार्वणश्राद्ध करने का विधान है। यथासम्भव पिता की मृत्यु-तिथि पर इसे अवश्य करना चाहिये। पार्वणश्राद्ध में पिता, पितामह (दादा), प्रपितामह (परदादा) सपत्नीक अर्थात् माता, दादी और परदादी - इस प्रकार तीन चट में छः व्यक्तियों का श्राद्ध होता है। इसके साथ ही मातामह (नाना), प्रमातामह ( परनाना), वृद्ध प्रमातामह (वृद्ध परनाना) सपत्नीक अर्थात् नानी, परनानी तथा वृद्ध परनानी यहाँ भी तीन चट में छः लोगों का श्राद्ध सम्पन्न होगा। इसके अतिरिक्त एक चट और लगाया जाता है, जिस पर अपने निकटतम सम्बन्धियों के निमित्त पिण्डदान किया जाता है। इसके अतिरिक्त दो विश्वेदेव के चट लगते हैं। इस तरह नौ चट लगाकर पार्वणश्राद्ध सम्पन्न होता है। पार्वणश्राद्ध में नौ ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये । यदि कम कराना हो तो तीन ब्राह्मणों को ही भोजन कराया जा सकता है। यदि अच्छे ब्राह्मण उपलब्ध न हों तो कम-से-कम एक सन्ध्यावन्दन आदि करनेवाले सात्त्विक ब्राह्मण को भोजन अवश्य कराना चाहिये ।

वार्षिकतिथि पर तथा पितृपक्ष की तिथियों पर किया जानेवाला सांकल्पिकश्राद्ध

किसी कारणवश पिण्डदानात्मक एकोद्दिष्ट तथा पार्वणश्राद्ध कोई न कर सके तो कम-से-कम संकल्प करके केवल ब्राह्मण-भोजन करा देने से भी श्राद्ध हो जाता है। इसलिये कई जगह मृत व्यक्तियों की तिथियों पर केवल ब्राह्मण-भोजन कराने की परम्परा है। यहाँ ब्राह्मण-भोजन के निमित्त सांकल्पिक श्राद्ध की विधि संक्षेप में दी जा रही है-

वार्षिक तिथि (एकोद्दिष्ट) अथवा पितृपक्ष में पार्वणश्राद्ध की तिथि आने पर पिण्डदानात्मकश्राद्ध सम्भव न होने की स्थिति में अथवा पिण्डदान निषिद्ध होने की स्थिति में सांकल्पिकश्राद्ध करने की व्यवस्था शास्त्रों में दी गयी है। इन तिथियों पर जो पिण्डदानात्मक श्राद्ध न कर सकें उन्हें श्राद्ध का संकल्प कर निम्नलिखित प्रक्रिया से ब्राह्मण-भोजन करा देना चाहिये। किसी कारणवश ब्राह्मणभोजन न करा सकें तो केवल सोपस्कर आमान्न से भी श्राद्ध की पूर्णता हो सकती है।*

* सोपस्कर आमान्न द्वारा श्राद्ध करने की तीन प्रक्रियाएँ सम्भव हैं-

(क) पृथक्-पृथक् पितरों के उद्देश्य से पृथक्-पृथक् संकल्प कराकर विभिन्न ब्राह्मणों को आमान्न प्रदान करना। (ख) एकतन्त्रेण सभी पितरों के उद्देश्य से आमान्न का संकल्प करके पृथक्-पृथक् ब्राह्मणों में विभाजित कर देना। (ग) एकतन्त्रेण आमान्न का संकल्प करके एक ही ब्राह्मण को आमान्न देना ।

आमान्न-संकल्प की विधि भी आगे दी गयी है।

वार्षिकतिथि पर ब्राह्मणभोजनात्मक सांकल्पिकश्राद्ध पूर्वाभिमुख हो हाथ में त्रिकुश, तिल, जल लेकर इस प्रकार संकल्प करे-

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः नमः परमात्मने पुरुषोत्तमाय ॐ तत्सत् अद्यैतस्य विष्णोराज्ञया जगत्सृष्टिकर्मण प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्द्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे तत्प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे...... क्षेत्रे (यदि काशी हो तो अविमुक्तवाराणसीक्षेत्रे गौरीमुखे त्रिकण्टकविराजिते महाश्मशाने भगवत्या उत्तरवाहिन्या भागीरथ्या वामभागे) बौद्धावतारे...... संवत्सरे उत्तरायणे / दक्षिणायने...... ऋतौ....... मासे...... पक्षे...... तिथौ...... वासरे........ गोत्र: शर्मा*/वर्मा/गुप्तोऽहम्..... गोत्रस्य अस्मत्पितुः* क्षुधापिपासानिवृत्तिपूर्वकमक्षयतृप्तिसम्पादनार्थं ब्राह्मणभोजनात्मकसाङ्कल्पिकश्राद्धं पञ्चबलिकर्म च करिष्ये। 

संकल्प जल छोड़ दे।

* १. ब्राह्मण को अपने नाम के आगे 'शर्मा', क्षत्रिय को 'वर्मा' तथा वैश्य को 'गुप्त' जोड़ लेना चाहिये।

* २. पिता के अतिरिक्त अन्य लोगे कि श्राद्ध में अस्मत्पितुः के स्थान पर अस्मत्पितामहस्य, अस्मत्प्रपितामहस्य, अस्मन्मातुः, अस्मत्पितामह्याःतथा अस्मत्प्रपितामह्याः आदि जोड़ लेना चाहिये।

श्राद्ध प्रकरण में आगे पढ़ें...... पंचबलिविधि

Post a Comment

0 Comments