कालिका पुराण अध्याय ५८
कालिका पुराण
अध्याय ५८ में कामाख्या पूजा का विधान का वर्णन है ।
कालिका पुराण अध्याय ५८
Kalika puran chapter 58
कालिकापुराणम् अष्टपञ्चाशोऽध्यायः कामाख्यापूजाविधिः
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ५८
।।श्री
भगवानुवाच।।
देव्यास्तन्त्रं
विशेषेण शृणुतं साम्प्रतं युवाम् ।
येन चाराधिता
देवी नचिराद्वरदा भवेत ।। १ ।।
श्रीभगवान्
बोले- तुम दोनों इस समय विशेषरूप से देवी के तन्त्र को सुनो, जिससे पूजे जाने पर देवी, शीघ्र ही वरदायिनी हो जाती हैं ॥१॥
पूर्वतन्त्राद्विशेषण
तथा वै तन्त्रमुत्तरम् ।
विशेषेण च
सामान्यात् कथितं भवतोः पुरा ।। २ ।।
पूर्वतन्त्र
की अपेक्षा उत्तरतन्त्र विशेष महत्वपूर्ण है । जिसे मैंने सामान्य से विशेषरूप से
तुम दोनों से पहले ही कह दिया है ॥२॥
पुनर्देव्या
विशेषेण पूजायां भक्तिकर्मणि ।
यानि
तन्त्राणि शेषाणि तानि वक्ष्याम्यहं पुनः ।। ३ ।
अब पुनः
(कामाख्या) देवी के पूजन के विशेषभक्तिकर्म में जिन तन्त्रों का वर्णन शेष रहा है, उन्हें मैं पुन: (आगे) तुम दोनों से कहूँगा
॥३॥
यः कुर्यात्
तु महामायाभक्तिमेकाग्रमानसः ।
अङ्गिना
वाङ्गिमन्त्रेण तेन कार्यमिदं शुभम् ।। ४ ।।
जो महामाया की
भक्ति एकाग्र मन से करता है उसे अङ्गो से या अङ्गिमन्त्रों से इस शुभ कार्य को
करना चाहिये ॥४॥
फलं पुष्पं च
ताम्बूलमन्नपानादिकं च यत् ।
अदत्त्वा तु
महादेव्यै न भोक्तव्य कदाचन ।। ५ ।।
फल, पुष्प, ताम्बूल,
अन्न, पेयपदार्थ आदि जो भी उपभोग योग्य पदार्थ
हैं, उन्हें महादेवी को निवेदित किये बिना स्वयं कभी नहीं
भोगना चाहिये ॥ ५ ॥
पथि वा
पर्वताग्रे वा सभायामपि साधकः ।
यथा तथा
निवेद्यैव स्वमर्थमुपकल्पयेत् ।। ६ ।।
साधक को चाहे, वह मार्ग में, पर्वत-शिखर
पर या सभा में जहाँ कहीं हो, देवी को ज्यों का त्यों निवेदित
करके ही अपने उद्देश्य हेतु उपयोग में लाना चाहिये ॥६॥
दृष्ट्वैव
मदिराभाण्डं रक्तवर्णास्तथा स्त्रियः ।
सिंहं शवं
रक्तपद्मं व्याघ्रवाराणसङ्गमम् ।
गुरुं
राजानमथवा महामायां ततो नमेत् ।। ७ ।।
साधक
मदिरापात्र, रक्तवर्ण
की स्त्रियों (ऋतुमती स्त्रियों), सिंह, शव, लालकमल, शेर, हाथी, गुरु अथवा राजा को देखकर उन्हें महामायारूप
में नमस्कार करे ॥७॥
पतिव्रतायां
भार्यायां सदैव ऋतुसङ्गमः ।
क्रियते
चण्डिकां ध्यात्वा तदा कार्यो विभूतये ।। ८ ।।
उसे ऐश्वर्य प्राप्तिहेतु
ऋतुकाल आने पर चण्डिका का ध्यान करते हुए अपनी पतिव्रता पत्नी के साथ सङ्गमन करना
चाहिये ॥८ ॥
शान्तिकं
पौष्टिकं वापि तथेष्टापूर्त्तकर्मणी ।
यदा कुर्यात्
तदा नत्वा देवीयात्रां समाचरेत् ।। ९ ।।
जब साधक, शान्ति (कल्याण), पुष्टि
(वैभव) या इष्टापूर्तकर्म करें। तो उसे देवी को नमस्कार कर अपनी कर्मयात्रा करनी
चाहिये ॥ ९ ॥
तौर्य्यत्रिकं
यदा पश्येत् केवलं गीतमेव वा ।
तच्च देव्यै
निवेद्यैव कर्तव्यं स्वोपयोजनम् ।। १० ।।
जब कभी वह
नृत्य, गान और वाद्य की एकता या केवल गीतात्मक- कार्यक्रम
देखे तो उसे सर्वप्रथम देवी को ही निवेदित कर अपने कार्य में लाना चाहिये ॥ १०॥
यदेव भूषणं
वासो मलयोद्भवमेव वा ।
स्वकाये
परियुञ्जीत तत्र मन्त्रं धिया न्यसेत ।। ११ ।।
जो भी आभूषण, वस्त्र या चन्दन आदि वह स्वयं के शरीर पर
धारण करे । वहाँ बुद्धि में मन्त्रसहित धारण करे ॥ ११ ॥
व्यायामे च
विधाने च सभायां वा जले स्थले ।
यत्र यत्र
स्वयं गच्छेत् तत्र देवीं सदा स्मरेत् ।। १२ ।।
व्यायाम के या
कार्यविधान के समय, सभा में, जल या स्थल में जहाँ-जहाँ वह साधक जाय,
सदैव देवी का वहीं स्मरण करे ॥१२॥
यद् यत् कर्म
तु पूजाङ्गं तत्तन्मन्त्रेण चाचरेत् ।
मन्त्रहीनं
पूजनाङ्गं कर्म यत् तत्तु निष्फलम् ।। १३ ।।
वह जो भी पूजा
के अङ्गभूतकर्म करे, उसे तत्सम्बन्धीमन्त्र से ही करना चाहिये अन्यथा पूजनसम्बन्धी मन्त्ररहित
जो कर्म किया जाता है। वह निष्फल हो जाता है ।। १३ ।।
यस्मिन्
कर्मणि योद्दिष्टो मन्त्रर्पूजासु भैरव ।
नैवेद्यालोकमन्त्रेण
तत् तत् कर्म समाचरेत् ।। १४ ।।
हे भैरव !
पूजन सम्बन्धी जिस कर्म के लिए जो मन्त्र बताये गये हैं, उनमें उन्हीं का प्रयोग करे अन्यथा
नैवेद्यालोकमन्त्र से उन कर्मों का सम्भार करे ॥१४॥
देव्यास्तु
मण्डलन्यासमिष्टमन्त्रेण चाचरेत् ।
पूजान्ते
मण्डलं लिप्त्वा तिलकं तेन कारयेत् ।। १५ ।।
सर्ववश्येन
मन्त्रेण धर्मकामार्थदायिना ।। १६ ।।
देवीपूजा हेतु
इष्टमन्त्र से मण्डल करे, पूजा के अन्त में मण्डल को लीपकर (मिटाकर उसी से तिलक करे। ऐसा
धर्म-अर्थ-काम प्रदान करने वाले सर्ववश्य-मन्त्र से करना चाहिये ।। १५-१६ ।।
बलिदाने बलिं
छित्वा खड्गस्थै रुधिरैः स्वकैः ।
सर्ववश्येन
मन्त्रेण ललाटे तिलकं न्यसेत् ।। १७ ।।
बलिदानकर्म
में बलिपशु को काटकर अपने खड्ग में लगे हुए रक्त से साधक को सर्ववश्यमन्त्र पढ़ते
हुए अपने ललाट पर तिलक लगाना चाहिये ॥१७॥
जगद्वशे
भवेत् तस्य चतुर्थः कस्य वह्निना ।
षष्ठस्वरेण
संयुक्तः कलाबिन्दुसमन्वितः ।। १८ ।।
अथोपान्तस्थकारान्तः
सपरोऽपि तथा पुनः।
द्विर्मोहीति
हकारास्य तुर्यो द्विस्वरसंयुतः।।१९ ।।
तृतीयवर्गप्रान्तेन
तृतीयस्वरसंज्ञिना ।
पूरितान्तो
द्विधा वर्णस्तथा वादिचतुर्थकः।। २० ।।
स्वरो
द्वितीयश्च तथा क्षोभशब्दः पुरः सरः।
पुरेति सहितः
सोऽपि मित्रं शत्रुश्च राक्षसः।
दक्षप्रजा तथा
राजा सर्वशास्त्र इति श्रुतः।। २१ ।।
कला-बिन्दु
समन्वित षष्ठ स्वर तथा वह्नियुक्त क वर्ग का चौथा वर्ण, उपान्तस्थ थकारान्त, सपर
(ह) पुनः द्विर्मोहि हकारास्य और द्विस्वरयुक्त तुर्य (ध) तृतीय स्वर संज्ञी तृतीय
वर्ग च वर्ग के प्रान्त पूरितान्त वादि चतुर्थक द्विधा वर्ण के आगे क्षोभ शब्द के
प्रयोग से सर्ववश्य मन्त्र बनता है। जिसके प्रयोगपूर्वक पूर्वोक्त प्रयोगों के
करने से साधक, पुर, मित्र, यक्ष, राक्षस, राजा, प्रजा, सभी शास्त्रों (ज्ञानराशि ) के सहित सम्पूर्ण
जगत् को अपने वश में कर लेता है। ऐसा सुना है ।। १८-२१।।
विनापि पूजनं
कुर्याद् यो रहिस्तिलकं नरः।
मन्त्रेणानेन
सततं सर्वं तस्य वशे भवेत् ।। २२ ।।
बिना पूजन के
भी जो मनुष्य (साधक) गुप्त रुप से इस मन्त्र से तिलक करता है सब कुछ निरन्तर उसके
वश में हो जाता है ।। २२ ।।
राजा वा
राजुपत्रो वा स्त्रियो वा यक्षराक्षसाः।
सर्वे तस्य
वशं यान्ति भूतग्रामाश्चतुर्विधाः।। २३ ।।
राजा हो, राजकुमार हो, स्त्री
हो या यक्ष या राक्षस, चारों प्रकार के प्राणी-समूह, सभी उसके वशीभूत हो जाते हैं ॥२३॥
प्रवासे पथि
वा दुर्गे स्थानापाप्तौ जलेऽपि वा ।
कारागारे
निबद्धो वा प्रायोवेशगतोऽपि वा ।। २४ ।।
कुर्यात् तत्र
महामायापूजां वै मानसीं बुधः।। २५ ।।
प्रवास में, मार्ग में, दुर्गम
स्थान में, स्थान अप्राप्ति की अवस्था में, जल में, कारागार में, बन्धन
में या प्रायोपवेशन (मरणनिमित्तिक उपवास) की अवस्था में भी विद्वान् साधक को
महामाया, कामाख्या की मानसी पूजा करनी चाहिये ।। २४-२५॥
मनोभये
समुत्पन्ने सिंहव्याघ्रसमाकुले ।
परचक्रागमे
वापि कुर्यान्मानसपूजनम् ।। २६ ।।
मन में भय
उत्पन्न हो जाने पर, सिंहों और बाघों से घिर जाने पर या शत्रुओं के चक्र में फँस जाने पर भी
मानसपूजन करना चाहिये ॥२६॥
मनसा
हृदयस्यान्तर्ध्यात्वा योगाख्यपीठकम् ।
तत्रैव
पृथिवीमध्ये पूजां तत्र समाचरेत् ।। २७ ।।
मन में हृदय
(आकाश) के अन्तर्गत, योगपीठ का ध्यान कर वहीं पृथ्वी (बीजस्थान) के मध्य में उस पूजन को करना
चाहिये ॥२७॥
मैत्रं
प्रसाधनं स्नानं दन्तधावनकर्म वै ।
अन्यच्च सर्वं
मनसा कृत्वा कुर्याच्च पूजनम् ।। २८ ।।
मलोत्सर्ग, अलंकरण, स्नान,
दन्तधावन आदि सभी कर्म, उस समय मानसिकरूप से
करके महामाया का पूजन करना चाहिये ॥ २८ ॥
पश्चात्
पुष्पादिभिः पूजा बहिर्देशे विधीयते ।
तथा हृद्यपि
कर्तव्या सर्वाश्च प्रतिपत्तयः।। २९ ।।
मानसपूजन के
पश्चात् पुष्पादि से बाहरी पूजा करनी चाहिये तथा हृदय में समस्त अनुष्ठान करने
चाहिये॥२९॥
अष्टम्यां
सततं देवीयाजकः स्यात् सदा व्रती ।
नवम्यां तु
तथा पूजा कर्तव्या निजशोणितैः।। ३० ।।
देवी उपासक को
निरन्तर अष्टमी के दिन व्रतपूर्वक रहकर नवमी के दिन अपने रक्त से पूजन करना चाहिये
॥३०॥
लिङ्गस्थां
पूजयेद् देवीं पुस्तकस्थां तथैव च ।
स्थण्डिलस्थां
महामायां पादुकाप्रतिमासु च ।। ३१ ।।
चित्रे च
त्रिशिखे खड्गं जलस्थां वापि पूजयेत् ।
पञ्चाशदङ्गुलं
खड्गं त्रिशिखं च त्रिशूलकम् ।। ३२ ।।
शिलायां
पर्वतस्याग्रे तथा पर्वतगह्वरे ।
देवीं
सम्पूजयेन्नित्यं भक्तिश्रद्धासमन्वितः।। ३३ ।।
साधक को
महामाया देवी का पूजन, लिङ्ग में स्थित, पुस्तक में स्थित, वेदिका में स्थितरूप में या पादुकाओं, प्रतिमाओं,
चित्र में, त्रिशिख (त्रिशूल) में, खड्ग में या जल में स्थितरूप में करना चाहिये । पूजा हेतु उपयोग में
आनेवाला खड्ग, पचास अंगुल या एक हाथ लम्बा तथा त्रिशिख,
त्रिशूल होता है। साधक शिला पर, पर्वत के शिखर
पर, पर्वत की गुफा में जहाँ कहीं भी हो वहीं श्रद्धा और भक्ति
से युक्त होकर उसे नित्य देवी का पूजन करना चाहिये ।। ३१-३३ ।।
वाराणस्यां
सदा पूजा सम्पूर्णफलदायिनी ।
ततस्तद्द्विगुणा
प्रोक्ता पुरुषोत्तमसन्निधौ ।। ३४ ।।
वाराणसी में
की गई महामाया की पूजा सदैव सम्पूर्णफल देने वाली होती है। उससे दूना फल देनेवाली
पूजा, पुरुषोत्तम के समीप जगन्नाथपुरी में कही गई
है ॥३४॥
ततोऽपि
द्विगुणा प्रोक्ता द्वारावत्यां विशेषतः।
सर्वक्षेत्रेषु
तीर्थेषु पूजा द्वारावतीसमा ।। ३५ ।।
उससे भी दूना
फल देनेवाली पूजा, विशेषरूप से द्वारिकापुरी में की गई, बताई गयी है ।
सभी क्षेत्रों और तीर्थों में की गई पूजा, द्वारिका की पूजा
के समान ही फल देने वाली होती है ।। ३५ ।।
विन्ध्ये
शतगुणा प्रोक्ता गङ्गायामपि तत्समा ।
आर्यावर्ते
मध्यदेशे ब्रह्मावर्ते तथैव च ।। ३६ ।।
विन्ध्यक्षेत्र
की पूजा द्वारिका की पूजा से सौगुना फल देने वाली कही गई है । गङ्गातट पर की गई
पूजा, उसी के समान फल देने वाली होती देने वाली
होती है । आर्यावर्त, मध्यदेश तथा ब्रह्मावर्तक्षेत्र की
पूजा भी उसी के समान फल देने वाली होती है ॥ ३६ ॥
विन्ध्यवत्
फलदा पूजा प्रयागे पुष्करे तथा ।
ततश्चतुर्गुणा
प्रोक्ता करतोया नदीजले ।। ३७ ।।
प्रयाग तथा
पुष्कर में की गई पूजा, विन्ध्याचल के समान ही फल देने वाली होती है। उससे चारगुना फलदायिनी पूजा
करतोयानदी के जल में की गई होती है ।। ३७॥
तस्माच्चतुर्गुणफला
नन्दिकुण्डे च भैरव ।
ततश्चतुर्गुणा
प्रोक्ता जल्पिषेश्वरसन्निधौ ।। ३८ ।।
हे भैरव ! इससे
चारगुना फल देने वाली पूजा नन्दिकुण्ड पर उससे भी चार-गुना फल देने वाली पूजा, जल्पिषेश्वर के निकट की गई होती है ॥३८॥
तत्र
सिद्धेश्वरीयोनौ ततोऽपि द्विगुणा स्मृता ।
ततश्चतुर्गुणा
प्रोक्ता लौहित्यनदपाथसि ।
तत्समा
कामरूपे तु सर्वत्रैव जले स्थले ।। ३९ ।।
वहाँ
सिद्धेश्वरी के योनिमण्डल पर की गई पूजा, उससे भी दूना फल देने वाली कही गई है। उससे चार गुना फल देने
वाली पूजा, लौहित्यनद (ब्रह्मपुत्र) के जल में की गई पूजा
बतायी गई हैं। कामरूप के किसी भी जल-स्थल में की गई पूजा, उसी
के समान फल देने वाली होती है ॥ ३९ ॥
सर्वश्रेष्ठो
यता विष्णुर्लक्ष्मीः सर्वोत्तमा यथा ।। ४० ।।
देवीपूजा तथा
शस्ता कामरूपे सुरालये ।
देवीक्षेत्रं
कामरूपं विद्यतेऽन्यत्र ततत्समम् ।। ४१ ।।
विष्णु जिस
प्रकार सबसे श्रेष्ठ हैं तथा लक्ष्मी जिस प्रकार सबसे उत्तम हैं उसी प्रकार सभी
देवपीठों की अपेक्षा कामरूप की पूजा, श्रेष्ठ है। कामरूप के समान श्रेष्ठ अन्य कोई देवी का क्षेत्र
नहीं है ।। ४०-४१ ॥
अन्यत्र विरला
देवी कामरूपे गृहे गृहे ।
ततः शतगुणा
प्रोक्ता नीलकूटस्य मस्तके ।। ४२ ।।
अन्य स्थानों
में जो देवी दुर्लभ हैं, वे ही कामरूप के घर-घर में सुलभ हैं। उस लौहित्यनद के जल से भी सौ गुना फल
देने वाली पूजा, नीलकूटपर्वत के शिखर पर की गई बताई गई है
॥४२॥
ततोऽपि
द्विगुणा प्रोक्ता हेरुके शिवलिङ्गके ।
ततोऽपि
द्विगुणा प्रोक्ता शैलपुत्र्यादियोनिषु ।
ततः शतगुणा
प्रोक्ता कामाख्यायोनिमण्डले ।। ४३ ।।
उससे भी दूना फलदायिनी
पूजा हेरुक शिवलिङ्ग पर की गई होती है, उससे भी दूना फल देने वाली शैलपुत्री आदि योनियों पर की गई
पूजा होती है उससे सौ गुना फल कामाख्या योनिमण्डल पर बताया गया है ॥ ४३ ॥
कामाख्यायां
महामायापूजां यः कृतवान् सकृत् ।। ४४ ।।
स चेह लभते
कामान् परत्र शिवरूपताम् ।
न तस्य
सदृशोऽन्योऽस्ति कृत्यं तस्य न विद्यते ।। ४५ ।।
जिसने एक बार
भी कामाख्या में महामाया का पूजन कर लिया, वह इस लोक में अपने सभी कामनाओं की पूर्णता तथा परलोक में शिव
के स्वरूप को प्राप्त करता है। उसके समान कोई दूसरा नहीं होता और न उसके लिए कुछ करने
को ही शेष रहता है ।।४४-४५ ।।
वाञ्छितार्थमवाप्येह
चिरायुरभिजायते ।
वायोरिव
गतिस्तस्य भवेदन्यैरबाधिता ।
सङ्ग्रामे
शास्त्रवादे वा दुर्जयः स च जायते ।।४६ ।।
कामाख्या में
पूजन करने वाला साधक, इस लोक में अपने वाञ्छित प्रयोजन को प्राप्त कर चिरायु होता
है। उसकी गति अन्यों द्वारा न रोके जानेयोग्य तथा वायु के समान तीव्र होती है।
युद्ध और शास्त्रार्थ में वह दुर्जय हो जाता है ॥ ४६ ॥
वैष्णवीतन्त्रमन्त्रेण
कामाख्यायोनिमण्डले ।
सकृत् तु
पूजनं कृत्वा फलं शतगुणं लभेत् ।। ४७ ।।
वैष्णवीतन्त्र
के अन्तर्गत वर्णितमन्त्रों से कामाख्या के योनिमण्डल में एक बार भी पूजन करने से
उस पूजा का सौगुना फल प्राप्त होता है ॥४७॥
मूलमूर्तिर्महामाया
योगनिन्द्रा जगन्मयी ।
तस्यास्तु
वैष्णवीतन्त्रं मन्त्रं प्राक् प्रतिपादितम् ।। ४८ ।।
महामाया जगत्
की मूलमूर्तिस्वरूप (परा प्रकृति) हैं। वही योगनिद्रा हैं तथा वे जगत्मयी भी हैं।
पहले वैष्णवीतन्त्र में उसी के मन्त्र बताये गये हैं ॥४८॥
अन्या या
मूर्तयः प्रोक्ताः शैलपुत्र्यादयोऽपराः।
तस्या एव
विभागास्तास्तच्छरीरविनिर्गताः।। ४९ ।।
उसकी अन्य जो
दूसरी शैलपुत्री आदि मूर्तियाँ बताई गई हैं वे उसी के शरीर से निकली हुई हैं तथा
उसी का विभाग हैं ॥ ४९ ॥
निःसरन्ति यथा
नित्यं सूर्यबिम्बान्मरीचयः।
देव्यास्तथोग्रचण्डाद्या
महामायाशरीरतः ।। ५० ।।
जिस प्रकार
सूर्य के बिम्ब से किरणें, नित्य निकलती हैं, उसी प्रकार महामाया के शरीर से उग्रचण्डा आदि देवियाँ प्रकट
होती हैं ॥ ५० ॥
तासामेवाङ्गरूपाणि
वक्तव्यानि मया तव ।
एकैव तु
महामाया कार्यार्थं भिन्नतां गता ।।५१ ।।
उन्हीं
अङ्गरूपों के विषय में मैं तुम दोनों से कहूँगा । एक ही महामाया कार्य के निमित्त भिन्नता
को प्राप्त करती हैं॥५१॥
कामाख्या तु
महामाया मूलमूर्तिः प्रगीयते ।
पीठैर्भिन्नाह्वया
सा तु महामाया प्रगीयते ।। ५२ ।।
कामाख्या ही
अपने मूलरूप में महामाया के नाम से पुकारी जाती हैं। स्थानों की भिन्नता के कारण
ही उन्हें भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है ।। ५२ ।।
एक एव यथा
विष्णुर्नित्यत्वाद् हि सनातनः।
जनानामर्दनात्
सोऽपि जनार्दन इति श्रुतः।। ५३ ।।
तथैव सा
महामाया कामार्थं सङ्गता गिरौ ।
कामाख्येति
सदा देवैर्गद्यते सततं नरैः।। ५४ ।।
जिस प्रकार
विष्णु ही अकेले, नित्य होने से सनातन हैं, जनों (दुर्जनों) को पीड़ा पहुँचाने के कारण जनार्दन हैं,
ऐसा ख्यात है। उसी प्रकार महामाया भी काम के लिए उस नीलकूट
पर प्राप्त होने के कारण, निरन्तर देवताओं और मनुष्यों द्वारा कामाख्या नाम से पुकारी
जाती हैं ।।५३-५४॥
यथा हि पुरुषः
कोऽपि च्छत्रो च्छत्रग्रहाद् भवेत् ।
स्नापकः
स्नानकाले वै कामाख्यापि तथाह्वया ।। ५५ ।।
जैसे कोई
पुरुष जब छत्र धारण करता है तो उसे छत्री तथा जब वह स्नान कराता है तो उसे स्नापक
कहा जाता है, उसी प्रकार महामाया ही कार्यवश कामाख्या भी कही जाती हैं ॥ ५५ ॥
महामायाशरीरं
तु कामार्थं समुपस्थितम् ।
लोहितैः
कुङ्कुमैः पीतं कामार्थमुपयोजितैः।। ५६ ।।
खड्गं
त्यक्त्वा कामकाले सा गृह्णानि स्रजं स्वयम् ।
यदा तु
त्यक्तकामा सा तदा स्यादसिधारिणी ।। ५७ ।।
महामाया का
शरीर ही जब काम हेतु होता है तो वह लाल कुंकुमों से पीत-वर्णवाली हो जाती हैं। वे
कामोपभोग के अवसर पर खड्ग को त्याग कर स्वयं पुष्पमाला धारण कर लेती हैं तथा जब वे
काम से विरत हो जाती हैं तो फिर तलवार-धारण करने वाली हो जाती हैं ।।५६-५७॥
कामकाले
शिवप्रेते न्यस्तलोहितपङ्कजे ।
रमते
त्यक्ताकामा तु सितप्रेतोपरि स्थिता ।। ५८ ।।
कामोपभोग के
काल में वे, लाल कमल पर विराजमान, शिवरूपी प्रेत पर स्थित हो रमण करती हैं तो काम से विरत
होने पर श्वेत प्रेतासन पर स्थित रहती हैं ।। ५८ ।।
तथैवेतस्ततो
गत्या सिंहस्था कामदा भवेत् ।
कदाचित् सा
सितप्रेते कदाचिद्रक्तपङ्कजे ।। ५९ ।।
कदाचित्
केशरीपृष्ठे रमते कामरूपिणी ।
यदा
लोहितपद्मस्था तथाग्रे केशरी चरः।। ६० ।।
उसी प्रकार
भक्तों की कामना पूर्ति करने वाली होकर वे सिंह पर सवार हो,
इधर - ऊधर गमन करती हैं । कभी वे श्वेतप्रेतासन पर स्थित
रहती हैं तो कभी लालकमल पर। वे कभी इच्छानुसार रूपधारण कर सिंह के पीठ पर आरूढ़ हो
विचरण करती हैं। जब वे लालकमल पर विराजमान रहती हैं, उस समय सिंह उनके आगे सेवक के रूप में खड़ा रहता है
॥५९-६०।।
यदा प्रेतगता
देवी तदाग्रेऽन्यं निरीक्षते ।
महामायास्वरूपेण
यदा सा वरदा भवेत् ।। ६१ ।।
पूजाकाले तदा
प्रेतपद्मसिंहोपरि स्थिता ।
रक्तपद्मे यदा
ध्यायेत् तदाग्रे चिन्तयेद्धरिम् ।। ६२ ।।
जब वे प्रेत
पर स्थित रहती हैं। तो वे आगे की ओर अन्यों को देखती हैं । महामायास्वरूप में जब
वे वरदायिनी होती हैं, उस समय पूजा करते समय उनके प्रेत,
पद्म एवं सिंह पर सवाररूप का चिन्तन करना चाहिये और जब
रक्तकमल पर भगवती का ध्यान करना हो, उस समय सामने स्थित सिंह का ध्यान करना चाहिये ।।६१-६२।।
यदा
ध्यायेद्धरौ चान्यद्वयमग्रे विचिन्तयेत् ।
त्रिषु
ध्यातेषु युगपत् प्रेतपद्महरै क्रमात् ।। ६३ ।।
स्थितेषु
कामदा देवी तेषु ध्यायेन कामदाम् ।
एकैकस्मिन्नपि
तथा यथावच्चिन्तयेच्छिवाम् ।।६४।।
एकैकस्मिन्नपि
तथा जब साधक आगे सिंहारूढ़ देवी का ध्यान करे तो उसे अन्य,
प्रेत और पद्म का आगे की ओर ध्यान करना चाहिये। इन सिंह,
पद्म और प्रेत तीनों का एक साथ ध्यान करे। तो उसे क्रमशः
प्रेत,
पद्म और सिंह पर स्थित कामदा (कामाख्या) देवी का ध्यान करना
चाहिये। या एक-एक पर भी अलग-अलग स्थित उस देवी का निरन्तर चिन्तन करे ॥६३-६४।।
एका समस्ता
जगतां प्रकृतिः सा यतस्ततः।
विष्णुब्रह्मशिवैर्देवैर्ध्रियते
सा जगन्मयी ।। ६५ ।।
वे
जगत्स्वरूपिणी, अकेले ही समस्त जगत को उत्पन्न करने वाली है, इसीलिए वह विष्णु, ब्रह्मा और शिव द्वारा धारण की जाती हैं ।। ६५ ।।
सितप्रेतो महादेवो
ब्रह्मलोहितपङ्कजम् ।
हरिर्हरिस्तु
विज्ञेयो वाहनानि महौजसः।। ६६ ।।
उनके आसन में
जो श्वेतप्रेत है, वह स्वयं महादेव, लालकमल, ब्रह्मा तथा वाहन के रूप में महान् ओजस्वी,
भगवान् विष्णु स्वयं सिंहरूप हैं ।। ६६ ।।
स्वमूर्त्या
वाहनत्वं तु तेषां यस्मान्न युज्यते ।
तस्मान्मूर्त्यन्तरं
कृत्वा वाहनत्वं गतास्त्रयः।। ६७ ।।
अपने मूल
स्वरूप में उनका देवी का वाहन होना उपयुक्त नहीं लगता,
इसीलिए वे तीनों देवता, अन्य स्वरूप धारण कर, देवी के वाहनरूप को प्राप्त किये हैं ।। ६७॥
यस्मिन्
यस्मिन् महामाया प्रीणाति सततं शिवा ।
तेन तेनैव
रूपेम आसनान्यभवंस्त्रयः।। ६८ ।।
जिस-जिस रूप
में शिवा महामाया प्रसन्न होती हैं। उसी रूप में तीनों आसन रूप में उपस्थित होते
हैं ।। ६८ ।।
सिंहोपरि
स्थितं पद्मं रक्तं तस्योर्ध्वगः शिवः।
तस्योपरि
महामाया वरदाऽभयदायिनी ।। ६९ ।।
सिंह पर
लालकमल स्थित है तथा उस कमल के ऊपर शिव एवं उनके ऊपर वर और अभय प्रदान करने वाली
महामाया,
(वर और अभय मुद्रा सहित
)विराजमान हैं ।। ६९ ।।
एवं रूपेण यो
ध्यात्वा पूजयेत् सततं शिवाम् ।
ब्रह्मविष्णुशिवास्तेन
पूजिताः स्युरसंशयम् ।। ७० ।।
इस रूप में जो
सदैव निरन्तर महामाया का ध्यान करके पूजन करता है । उसके द्वारा ब्रह्मा,
विष्णु और महेश भी पूजित हो जाते हैं। इसमें कोई संशय नहीं
है ।। ७० ।।
एवं सदा
महामाया कामाख्या चैकरूपिणी ।
ध्यानतो रूपतो
भिन्ना तस्मात्तां तत्र पूजयेत् ।। ७१ ।।
इस प्रकार
महामाया और कामाख्या दोनों ही सदैव एक रूप होते हुये भी ध्यान और रूप से
भिन्न-भिन्न हैं। अतः उन महामाया का ही कामरूप में पूजन करना चाहिये ॥ ७१ ॥
एवं
विशेषतन्त्राणि दुर्गायाः कथितानि वाम् ।
अङ्गमन्त्राणि
तस्यास्तु श्रूयतां नरसत्तमौ ।। ७२ ।।
हे नरों में
श्रेष्ठ ! इस प्रकार मैंने तुम दोनों से दुर्गा की विशेष पूजाविधि का वर्णन किया
है। अब तुम दोनों उनके अङ्गमन्त्रों को भी सुनो ॥ ७२ ॥
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे कामाख्यापूजाविधिर्नाम अष्टपञ्चाशोऽध्यायः ॥ ५८॥
॥
श्रीकालिकापुराण में कामाख्यापूजाविधिनामक अठ्ठावनवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।। ५८
।।
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 59
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