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कर्मकाण्ड

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शिवमहिमा

शिवमहिमा 

कोई भी देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए उनके नाम जप,स्तुति,स्तवन,स्तोत्र,कवच या महिमा द्वारा बड़ी आसानी से किया जा सकता है,क्योंकि जब हम किसी देव विशेष के गुणों के महिमा का गान करते हैं। तो हमारे अन्दर वह तत्व समाहित होने लग जाता है और हम उसी के अन्दर ध्यान में खो जाते हैं। जिसके फलस्वरूप उस देव की हमें कृपा व शक्ति प्राप्त होती है। यहाँ भगवान शिव व भगवान उमामहेश्वर के माहात्म्यम् द्वारा शिव-शक्ति की महिमा व स्तुति दिया गया है।

शिवमहिमा एवं स्तुतिः -उमामहेश्वरमाहात्म्यम्

शिवमहिमा एवं स्तुतिः

एको हि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थुर्य इमाँल्लोकानीशत ईशनीभिः ।

जो अपनी स्वरूपभूत विविध शासन-शक्तियों द्वारा इन सब लोकों पर शासन करता है, वह रुद्र एक ही है, (इसीलिये विद्वान पुरुषों ने जगत के कारण का निश्चय करते समय दूसरे का आश्रय नहीं लिया, )

प्रत्यङ् जनांस्तिष्ठति संचुकोचान्तकाले

संसृज्य विश्वा भुवनानि गोपाः ॥

वह परमात्मा समस्त जीवों के भीतर स्थित हो रहा है । सम्पूर्ण लोकों की रचना करके उनको रक्षा करनेवाला परमेश्वर, प्रलयकाल में इन सबको समेट लेता है ।

यो देवानां प्रभवश्चोद्भवश्च

विश्वाधिपो रुद्रो महर्षिः ।

जो रुद्र इन्द्रादि देवताओं की उत्पत्ति का हेतु और वृद्धि का हेतु है तथा (जो) सबका अधिपति (और) महान ज्ञानी (सर्वज्ञ) है,

हिरण्यगर्भ जनयामास पूर्व

स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु ॥

(जिसने) पहले हिरण्यगर्भ को उत्पन्न किया था, वह परमदेव परमेश्वर हमलोगों को शुभ बुद्धि से संयुक्त करे ।

या ते रूद्र शिवा तनूरघोरापापकाशिनी ।

तया नस्तनुवा शन्तमया गिरिशन्ताभिचाकशीहि ॥

ततः परं ब्रह्मपरं बृहन्तं

हे रुद्रदेव! तेरी जो भयानकता से शून्य (सौम्य) पुण्य से प्रकाशित होनेवाली (तथा) कल्याणमयी मूर्ति है, हे पर्वत पर रहकर सुख का विस्तार करनेवाले शिव! उस परम शान्त मूर्ति से (तू कृपा करके) हम लोगों को देख ।

यथानिकायं सर्वभूतेषु गूढम् ।

विश्वस्यैकं परिवेष्टितारमीशं तं ज्ञात्वामृता भवन्ति ॥

पूर्वोक्त जीव-समुदाय रूप जगत के परे (और) हिरण्यगर्भरूप ब्रह्मा से भी श्रेष्ठ, समस्त प्राणियों में उनके शरीरों के अनुरूप होकर छिपे हुए (और) सम्पूर्ण विश्व को सब ओर से घेरे हुए उस महान् सर्वत्र व्यापक एकमात्र देव परमेश्वर को जानकर (ज्ञानीजन) अमर हो जाते हैं  ।

सर्वाननशिरोग्रीवः सर्वभूतगुहाशयः  ।

सर्वव्यापी स भगवांस्तस्मात् सर्वगतः शिवः ॥

वह भगवान सब ओर मुख, सिर और ग्रीवावाला है । समस्त प्राणियों के हृदयरूप गुफा में निवास करता है (और) सर्वव्यापी है, इसलिये वह कल्याणस्वरूप परमेश्वर सब जगह पहुँचा हुआ है ।

महान प्रभुर्वै पुरुषः सत्त्वस्यैष प्रवर्तकः ।

सुनिर्मलामिमां प्राप्तिमीशानो ज्योतिरव्ययः ॥

निश्चय ही यह महान समर्थ, सत्त्व पर शासन करनेवाला, अविनाशी (एवं) प्रकाशस्वरूप परमपुरुष पुरुषोत्तम अपनी प्राप्तिरूप इस अत्यन्त निर्मल लाभ को ओर अन्तःकरण को प्रेरित करनेवाला है ।

पुरुष एवेद्ँ सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम् ।

उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥

जो अब से पहले हो चुका है, जो भविष्य में होनेवाला है और जो खाद्य पदार्थों से इस समय बढ़ रहा है, यह समस्त जगत् परम पुरुष परमात्मा ही है और (वही) अमृतस्वरूप मोक्ष का स्वामी है ।

सर्वतः पाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।

सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥

वह परम पुरुष परमात्मा सब जगह हाथ-पैरवाला, सब जगह आँख, सिर और मुखवाला (तथा) सब जगह कानोंवाला है, (वही) ब्रह्माण्ड में सबको सब ओर से घेरकर स्थित है ।

सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।

सर्वस्य प्रभुमीशानं सर्वस्य शरणं बृहत् ॥

(जो परम पुरुष परमात्मा) समस्त इन्द्रियों से रहित होने पर भी समस्त इन्द्रियों के विषयों को जाननेवाला है (तथा) सबका स्वामी, सबका शासक (और) सबसे बड़ा आश्रय है ।

अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स श्रृणोत्यकर्णः  ।

स वेत्ति वेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्रयं पुरुषं महान्तम् ॥

वह परमात्मा हाथ-पैरों से रहित होकर भी समस्त वस्तुओं को ग्रहण करनेवाला (तथा) वेगपूर्वक सर्वत्र गमन करनेवाला है, आँखों के बिना ही वह सब कुछ देखता है (और) कानों के बिना ही सब कुछ सुनता है, वह जो कुछ भी जानने में आनेवाली वस्तुएँ हैं उन सबको जानता है परंतु उसको जाननेवाला (कोई) नहीं है, (ज्ञानी पुरुष) उसे महान आदि पुरुष कहते हैं ।

अणोरणीयान् महतो महीया-

नात्मा गुहायां निहितोऽस्य जन्तोः ।

तमक्रतुं पश्यति वीतशोको

धातुः प्रसादान्महिमानमीशम् ॥

(वह) सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म (तथा) बड़े से भी बहुत बड़ा परमात्मा इस जीव की हृदयरूप गुफा में छिपा हुआ है, सबकी रचना करनेवाले परमेश्वर को कृपा से (जो मनुष्य) उस संकल्परहित परमेश्वर को (और) उसकी महिमा को देख लेता है (वह) सब प्रकार के दुःखों से रहित (हो जाता है) ।

मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् ।

तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत् ॥

माया तो प्रकृति को समझना चाहिये और मायापति महेश्वर को समझना चाहिये, उसी के अंगभूत कारण-कार्य-समुदाय से यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त हो रहा है ।

यो योनिं योनिमधितिष्ठत्येको

यस्मिन्निदं सं च वि चैति सर्वम् ।

तमीशानं वरदं देवमीड्यं

निचाय्येमां शान्तिमत्यन्तमेति ॥

जो अकेला ही प्रत्येक योनि का अधिष्ठाता हो रहा है, जिसमें यह समस्त जगत् प्रलयकाल में विलीन हो जाता है और सृष्टिकाल में विविध रूपो में प्रकट भी हो जाता है, उस सर्वनियन्ता वरदायक स्तुति करने योग्य परमदेव परमेश्वर को तत्व से जानकर (मनुष्य) निरन्तर बनी रहनेवाली इस (मुक्तिरूप) परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है।

यो देवानां प्रभवश्चोद्भवश्च

विश्वाधिपो रुद्रो महर्षिः ।

हिरण्यगर्भं पश्यत जायमानं

स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु ॥

जो रुद्र इन्द्रादि देवताओं को उत्पन्न करनेवाला और बढ़ानेवाला है तथा (जो) सबका अधिपति (और) महान ज्ञानी (सर्वज्ञ) है (जिसने सबसे पहले) उत्पन्न हुए हिरण्यगर्भ को देखा था, वह परमदेव परमेश्वर हमलोगों को शुभ बुद्धि से संयुक्त करे ।

सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिलस्य मध्ये

विश्वस्य स्रष्टारमनेकरूपम् ।

विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं

ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति ॥

(जो) सूक्ष्म से भी अत्यन्त सूक्ष्म हृदयगुहारूप गुह्यस्थान के भीतर स्थित, अखिल विश्व को रचना करनेवाला, अनेक रूप धारण करनेवाला (तथा) समस्त जगत को सब ओर से घेर रखनेवाला है (उस) एक (अद्वितीय) कल्याणस्वरूप महेश्वर को जानकर (मनुष्य) सदा रहनेवाली शान्ति को प्राप्त होता है ।

घृतात् परं मण्डमिवातिसूक्ष्मं

ज्ञात्वा शिवं सर्वभूतेषु गृढम् ।

विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं

ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ॥

कल्याणस्वरूप एक (अद्वितीय) परमदेव को मक्खन के ऊपर रहनेवाले सारभाग की भाँति अत्यन्त सूक्ष्म (और) समस्त प्राणियों में छिपा हुआ जानकर (तथा) समस्त जगत को सब ओर से घेरकर स्थित हुआ जानकर (मनुष्य) समस्त बन्धनों से छूट जाता है ।

यदातमस्तन्न दिवा न रात्रि-

र्न सन्न चासञ्छिव एव केवलः ।

तदक्षरं तत्सवितुर्वरेण्यं

प्रज्ञा च तस्मात् प्रसृता पुराणी ॥

जब अज्ञानमय अन्धकार का सर्वथा अभाव हो जाता है, उस समय (अनुभव में आनेवाला तत्त्व) न दिन है न रात है, न सत् है और न असत् है, एकमात्र विशुद्ध कल्याणमय शिव ही है वह सर्वथा अविनाशी है, वह सूर्याभिमानी देवता का भी उपास्य है तथा उसी से (यह) पुराना ज्ञान फैला है ।

भावग्राह्ममनीडाख्यं भावाभावकरं शिवम् ।

कलासर्गकरं देवं ये विदुस्ते जहुस्तनुम् ॥

श्रद्धा और भक्ति के भाव से प्राप्त होनेयोग्य, आश्रयरहित कहे जानेवाले (तथा) जगत की उत्पत्ति और संहार करनेवाले, कल्याणस्वरूप (तथा) सोलह कलाओं की रचना करनेवाले परमदेव परमेश्वर को जो साधक जान लेते हैं, वे शरीर को (सदा के लिये) त्याग देते हैं-जन्म-मृत्यु के चक्करसे छूट जाते हैं ।


उमामहेश्वरमाहात्म्यम्


उमा भगवती येयं ब्रह्मविद्येति कीर्तिता ।

रुपयौवनसम्पन्ना वधूर्भूत्वात्र सा स्थिता ॥ १॥

नानाजातिवधूनां हि बिम्बभूता महेश्वरी ॥ २॥

यस्याः प्रसादतः सर्वः स्वर्गम् मोक्ष च गच्छति ।

इह लोके सुखं तद्वज्जन्तुर्देवादिकोऽपि वा ॥ ३॥

ब्रह्मा विष्णुस्तथा रुद्र शक्राद्याः सर्वदेवताः ।

कटाक्षपाततो यस्या भवन्ति न भवन्ति च ॥ ४॥

पीनान्नतस्तनी प्रौढजघना च कृशोदरी ।     

चन्द्रानना मीननेत्रा केशभ्रमरमण्डिता ॥ ५॥

सर्वाङ्गसुन्दरी देवी धैर्यपुञ्जविनाशिनी ।

काञ्चीगुणेन चित्रेण वलयाङ्गदनूपुरेः ॥ ६॥

हरिमुक्तादिसञ्जातैः कण्ठाद्याभरणैरपि ।

मुकुटेनापि चित्रेण कुण्डलाद्यैः सहस्रशः ॥ ७॥

विराजिता ह्यनोपम्यरूपा भूषणभूषणा ।

जननी सर्वजगतो द्व्यष्टवर्षा चिरन्तनी ॥ ८॥

तया समेतं पुरुषं तत्पतिं तद्गुणाधिकम् ।

ब्रह्मादीनां प्रभुं नानासर्वभूषणभूषितम् ॥ ९॥

द्वीपिचर्मावृतं शश्वदथवापि दिगम्बरम् ।

भस्मोद्धूलितसर्वाङ्गं ब्रह्ममूर्घौघमालिनम् ॥ १०॥

तथैव चन्द्रखण्डेन विराजितजटातटम् ।

गङ्गाधरं स्मेरमुखं गोक्षीरधवलोज्जवलम् ॥ ११॥

कन्दर्पकोटिसदृशं सूर्यकोटिसमप्रभम् ।

सृष्टिस्थित्यन्तकारणं सृष्टिस्थित्यन्तवर्जितम् ॥ १२॥

पूर्णेन्दुवेदेनाम्भोजं सूर्यसोमाग्निवर्चसम् ।

सर्वाङ्गसुन्दरं कम्बुग्रीवं चातिमनोहरम् ॥ १३॥

आजानुबाहुं पुरुषं नागयज्ञोपवीतिनम् ।

पद्मासनसमासीनं नासाग्रन्यस्तलोचनम् ॥ १४॥

वामदेवं महादेवं गुरूणां प्रथमं गुरुम् ।

स्वयञ्ज्योतिःस्वरूपं तमानन्दात्मानमद्वयम् ॥ १५॥

यतो हिरण्यगर्भोऽयं विराजो जनकः पुमान् ।

जातः समस्तदेवानामन्येषां च नियामकः ॥ १६॥

नीलकण्ठममुं देवं विश्वेशं पापनाशनम् ।

हृदि पद्मेऽथवा सूर्ये वह्नौ वा चन्द्रमण्डले ॥ १७॥

कैलासादिगिरौ वापि चिन्तयेद्योगमाश्रितः ।

एवं चिन्तयतस्तस्य योगिनो मानसं स्थिरम् ॥ १८॥

यदा जातं तदा सर्वप्रपञ्चरहितं शिवम् ।

प्रपञ्चकरणं देवमवाङ्मनसगोचरम् ॥ १९॥

प्रयाति स्वात्मना योगी पुरुषं दिव्यमद्भुतम् ।

तमसः स्वात्ममोहस्य परं तेन विवर्जितम् ॥ २०॥

साक्षिणं सर्वबुद्धीनां बुद्ध्यादिपरिवर्जितम् ।

उमासहायो भगवान्सगुणः परिकीर्तितः ॥ २१॥

निर्गुणश्च स एवायं न यतोऽन्योऽस्ति कश्चन् ।

ब्रह्मा विष्णुस्तथा रुद्रः शक्रो देवसमन्वितम् ॥ २२॥

अग्निः सूर्यस्तथाकाशः कालः सृष्टयादिकारणम् ।

एकादशेन्द्रियाण्यन्तःकरणं च चतुर्विधम् ॥ २३॥

प्राणाः पञ्च महाभूतपञ्चकेन समन्विताः ।

दिशश्च प्रदिशस्तद्वदुपरिष्टादधोऽपि च ॥ २४॥     

श्वेदजादीनि भूतानि ब्रह्माण्डं च विराड्वपुः ।

विराड् हिरण्यगर्भश्च जीव ईश्वर एव च ॥ २५॥

माया तत्कार्यमखिलं वर्तते सदसच्च यत् ।

यच्च भूतं यच्च भव्यं तत्सर्वं स महेश्वरः ॥ २६॥

॥ इति उमामहेश्वरमाहात्म्यं सम्पूर्णम् ॥

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