शिवमहापुराण – विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 08
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विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 07 पढ़ा, अब शिवमहापुराण –विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 08 आठवाँ
अध्याय भगवान् शंकर द्वारा ब्रह्मा और केतकी पुष्प को शाप देना और पुनः अनुग्रह
प्रदान करना।
शिवमहापुराण –विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 08
शिवपुराणम्- विद्येश्वरसंहिता - अध्यायः
०८
शिवपुराणम् | संहिता
१ (विश्वेश्वरसंहिता)
नंदिकेश्वर उवाच
ससर्जाथ महादेवः पुरुषं
कंचिदद्भुतम्
भैरवाख्यं
भ्रुवोर्मध्याद्ब्रह्मदर्पजिघांसया ॥ १
स वै तदा तत्र पतिं प्रणम्य शिवमंगणे
किं कार्यं करवाण्यत्र
शीघ्रमाज्ञापय प्रभो ॥ २
नन्दिकेश्वर बोले —
तदुपरान्त महादेव शिवजी ने ब्रह्मा के गर्व को मिटाने की इच्छा से
अपनी भृकुटी के मध्य से भैरव नामक एक अद्भुत पुरुष को उत्पन्न किया । उस भैरव ने
रणभूमि में अपने स्वामी शिवजी को प्रणाम करके पूछा कि — हे
प्रभो ! आप शीघ्र आज्ञा दें, मैं आपका कौनसा कार्य करूँ ?
॥ १-२ ॥
वत्सयोऽयं विधिः
साक्षाज्जगतामाद्यदैवतम्
नूनमर्चय खड्गेन तिग्मेन जवसा परम् ॥
३
शिवजी बोले —
हे वत्स ! ये जो ब्रह्मा हैं, वे इस सृष्टि के
आदि देवता हैं, तुम वेगपूर्वक तीक्ष्ण तलवार से इनकी पूजा
करो अर्थात् इनका वध कर दो ॥ ३ ॥
स वै गृहीत्वैककरेण केशं तत्पंचमं
दृप्तमसत्यभाषणम्
छित्त्वा शिरांस्यस्य निहंतुमुद्यतः
प्रकंपयन्खड्गमतिस्फुटं करैः ॥ ४
तब भैरव एक हाथ से [ब्रह्मा के] केश
पकड़कर असत्य भाषण करनेवाले उनके उद्धत पाँचवें सिर को काटकर हाथों में तलवार
भाँजते हुए उन्हें मार डालने के लिये उद्यत हुए ॥ ४ ॥
पिता
तवोत्सृष्टविभूषणांबरस्रगुत्तरीयामलकेशसंहतिः
प्रवातरंभेव लतेव चंचलः पपात वै
भैरवपादपंकजे ॥ ५
तावद्विधिं तात दिदृक्षुरच्युतः
कृपालुरस्मत्पतिपादपल्लवम्
निषिच्य बाष्पैरवदत्कृतांजलिर्यथा
शिशुः स्वं पितरं कलाक्षरम् ॥ ६
[हे सनत्कुमार !] तब आपके पिता अपने आभूषण, वस्त्र,
माला, उत्तरीय एवं निर्मल बालों के बिखर जाने
से आँधी में झकझोरे हुए केले के पेड़ और लता-गुल्मों के समान कम्पित होकर भैरव के
चरणकमलों पर गिर पड़े । हे तात ! तब ब्रह्मा की रक्षा करने की इच्छा से कृपालु
विष्णु ने मेरे स्वामी भगवान् शंकर के चरणकमलों को अपने अश्रु-जल से भिगोते हुए
हाथ जोड़कर इस प्रकार प्रार्थना की, जैसे एक छोटा बालक अपने
पिता के प्रति टूटी-फूटी वाणी में करता है ॥ ५-६ ॥
अच्युत उवाच
त्वया प्रयत्नेन पुरा हि दत्तं
यदस्य पंचाननमीशचिह्नम्
तस्मात्क्षमस्वाद्यमनुग्रहार्हं
कुरु प्रसादं विधये ह्यमुष्मै ॥ ७
अच्युत बोले —
[हे ईश !] आपने ही पहले कृपापूर्वक इन ब्रह्मा को पंचानन-रूप प्रदान
किया था । इसलिये ये आपके अनुग्रह करने योग्य हैं, इनका
अपराध क्षमा करें और इनपर प्रसन्न हों ॥ ७ ॥
इत्यर्थितोऽच्युतेनेशस्तुष्टः
सुरगणांगणे
निवर्तयामास तदा भैरवं ब्रह्मदंडतः ॥
८
अथाह देवः कितवं विधिं विगतकंधरम्
ब्रह्मंस्त्वमर्हणाकांक्षी
शठमीशत्वमास्थितः ॥ ९
नातस्ते सत्कृतिर्लोके
भूयात्स्थानोत्सवादिकम्
भगवान् अच्युत के द्वारा इस प्रकार
प्रार्थना किये जाने पर शिवजी ने प्रसन्न होकर देवताओं के सामने ही ब्रह्मा को
दण्डित करने से भैरव को रोक दिया । शिवजी ने एक सिर से विहीन कपटी ब्रह्मा से कहा —
हे ब्रह्मन् ! तुम श्रेष्ठता पाने के चक्कर में शठेशत्व को प्राप्त हो
गये हो । इसलिये संसार में तुम्हारा सत्कार नहीं होगा और तुम्हारे मन्दिर तथा
पूजनोत्सव आदि नहीं होंगे ॥ ८-९१/२ ॥
ब्रह्मोवच
स्वामिन्प्रसीदाद्य महाविभूते मन्ये
वरं वरद मे शिरसः प्रमोक्षम् ॥ १०
नमस्तुभ्यं भगवते बंधवे विश्वयोनये
सहिष्णवे सर्वदोषाणां शंभवे
शैलधन्वने ॥ ११
ब्रह्माजी बोले —
हे महाविभूतिसम्पन्न स्वामिन् ! आप मुझपर प्रसन्न होइये; मैं [आपकी कृपा से] अपने सिर के कटने को भी आज श्रेष्ठ समझता हूँ । विश्व
के कारण, विश्वबन्धु, दोषों को सह
लेनेवाले और पर्वत के समान कठोर धनुष धारण करनेवाले आप भगवान् शिव को नमस्कार है ॥
१०-११ ॥
ईश्वर उवाच
अराजभयमेतद्वै जगत्सर्वं न शिष्यति
ततस्त्वं जहि दंडार्हं वह लोकधुरं
शिशो ॥ १२
वरं ददामि ते तत्र गृहाण दुर्लभं
परम्
वैतानिकेषु गृह्येषु यज्ञे च भवान्
गुरुः ॥ १३
निष्फलस्त्वदृते यज्ञः सांगश्च
सहदक्षिणः
ईश्वर बोले —
हे वत्स ! अनुशासन का भय नहीं रहने से यह सारा संसार नष्ट हो जायगा
। अतः तुम दण्डनीय को दण्ड दो और इस संसार की व्यवस्था चलाओ । तुम्हें एक परम
दुर्लभ वर भी देता हूँ, जिसे ग्रहण करो । अग्निहोत्र आदि
वैतानिक और गृह्य यज्ञों में आप ही श्रेष्ठ रहेंगे । सर्वांगपूर्ण और पुष्कल
दक्षिणावाला यज्ञ भी आपके बिना निष्फल होगा ॥ १२-१३१/२ ॥
अथाह देवः कितवं केतकं कूटसाक्षिणम्
॥ १४
रे रे केतक दुष्टस्त्वं शठ दूरमितो
व्रज
ममापि प्रेम ते पुष्पे मा
भूत्पूजास्वितः परम् ॥ १५
इत्युक्ते तत्र देवेन केतकं
देवजातयः
सर्वानि
वारयामासुस्तत्पार्श्वादन्यतस्तदा ॥ १६
तब भगवान् शिव ने झूठी गवाही
देनेवाले कपटी केतक पुष्प से कहा — अरे
शठ केतक ! तुम दुष्ट हो; यहाँ से दूर चले जाओ । मेरी पूजा
में उपस्थित तुम्हारा फूल मुझे प्रिय नहीं होगा । शिवजी द्वारा इस प्रकार कहते ही
सभी देवताओं ने केतकी को उनके पास से हटाकर अन्यत्र भेज दिया ॥ १४-१६ ॥
केतक उवाच
नमस्ते नाथ मे जन्मनिष्फलं
भवदाज्ञया
सफलं क्रियतां तात क्षम्यतां मम
किल्बिषम् ॥ १७
ज्ञानाज्ञानकृतं पापं नाशयत्येव ते
स्मृतिः
तादृशे त्वयि दृष्टे मे मिथ्यादोषः
कुतो भवेत् ॥ १८
केतक बोला —
हे नाथ ! आपको नमस्कार है । आपकी आज्ञा के कारण मेरा तो जन्म ही
निष्फल हो गया है । हे तात ! मेरा अपराध क्षमा करें और मेरा जन्म सफल कर दें ।
जाने-अनजाने में हुए पाप आपके स्मरणमात्र से नष्ट हो जाते हैं, फिर ऐसे प्रभावशाली आपके साक्षात् दर्शन करने पर भी मेरे झूठ बोलने का दोष
कैसे रह सकता है ? ॥ १७-१८ ॥
तथा स्तुतस्तु भगवान्केतकेन सभातले
न मे त्वद्धारणं योग्यं
सत्यवागहमीश्वरः ॥ १९
मदीयास्त्वां धरिष्यंति जन्म ते
सफलं ततः
त्वं वै वितानव्याजेन ममोपरि
भविष्यसि ॥ २०
उस सभास्थल में केतक पुष्प के इस
प्रकार स्तुति करने पर भगवान् सदाशिव ने कहा — मैं
सत्य बोलनेवाला हूँ, अतः मेरे द्वारा तुझे धारण किया जाना
उचित नहीं है, किंतु मेरे ही अपने (विष्णु आदि देवगण)
तुम्हें धारण करेंगे और तुम्हारा जन्म सफल होगा और मण्डप आदि के बहाने तुम मेरे
ऊपर भी उपस्थित रहोगे ॥ १९-२० ॥
इत्यनुगृह्य भगवान्केतकं विधिमाधवौ
विरराज सभामध्ये सर्वदेवैरभिष्टुतः ॥
२१
इति श्रीशिवमहापुराणे
विद्येश्वरसंहितायामष्टमोऽध्यायः ८॥
इस प्रकार भगवान् शंकर ब्रह्मा,
विष्णु और केतकी पुष्प पर अनुग्रह करके सभी देवताओं से स्तुत होकर
सभा में सुशोभित हुए ॥ २१ ॥
॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के
अन्तर्गत प्रथम विद्येश्वरसंहिता में शिव की कृपा का वर्णन नामक आठवाँ अध्याय
पूर्ण हुआ ॥ ८ ॥
शेष जारी .............. शिवपुराणम् विश्वेश्वरसंहिता-अध्यायः ०९
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