recent

Slide show

[people][slideshow]

Ad Code

Responsive Advertisement

JSON Variables

Total Pageviews

Blog Archive

Search This Blog

Fashion

3/Fashion/grid-small

Text Widget

Bonjour & Welcome

Tags

Contact Form






Contact Form

Name

Email *

Message *

Followers

Ticker

6/recent/ticker-posts

Slider

5/random/slider

Labels Cloud

Translate

Lorem Ipsum is simply dummy text of the printing and typesetting industry. Lorem Ipsum has been the industry's.

Pages

कर्मकाण्ड

Popular Posts

शिवमहापुराण –विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 14

शिवमहापुराण विद्येश्वरसंहिता अध्याय 14  

इससे पूर्व आपने शिवमहापुराण विद्येश्वरसंहिता अध्याय 13 पढ़ा, अब शिवमहापुराण विद्येश्वरसंहिता अध्याय 14 चौदहवाँ अध्याय अग्नियज्ञ, देवयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ आदि का वर्णन, भगवान् शिव के द्वारा सातों वारों का निर्माण तथा उनमें देवाराधन से विभिन्न प्रकार के फलों की प्राप्ति का कथन।

शिवमहापुराण –विद्येश्वरसंहिता – अध्याय 14

शिवपुराणम्/ विद्येश्वरसंहिता/अध्यायः १४

शिवपुराणम् | संहिता १ (विश्वेश्वरसंहिता)

शिवमहापुराण विद्येश्वरसंहिता अध्याय 14

ऋषय ऊचुः

अग्नियज्ञं देवयज्क्तं ब्रह्मयज्क्तं तथैव च

गुरुपूजां ब्रह्मतृप्तिं क्रमेण ब्रूहि नः प्रभो ॥१

ऋषिगण बोले हे प्रभो ! अग्नियज्ञ, देवयज्ञ, ब्रह्मयज्ञ, गुरुपूजा तथा ब्रह्मतृप्ति का क्रमशः हमारे समक्ष वर्णन कीजिये ॥ १ ॥

सूत उवाच

अग्नौ जुहोति यद्द्रव्यमग्नियज्ञः स उच्यते

ब्रह्मचर्याश्रमस्थानां समिदाधानमेव हि ॥२

समिदग्रौ व्रताद्यं च विशेषयजनादिकम्

प्रथमाश्रमिणामेवं यावदौपासनं द्विजाः ॥३

आत्मन्यारोपिताग्नीनां वनिनां यतिनां द्विजाः

हितं च मितमेध्यान्नं स्वकाले भोजनं हुतिः ॥४

सूतजी बोले हे महर्षियो ! गृहस्थ पुरुष अग्नि में सायंकाल और प्रातःकाल जो चावल आदि द्रव्य की आहुति देता है, उसी को अग्नियज्ञ कहते हैं । जो ब्रह्मचर्य आश्रम में स्थित हैं, उन ब्रह्मचारियों के लिये समिधा का आधान ही अग्नियज्ञ है । वे समिधा का ही अग्नि में हवन करें । हे ब्राह्मणो ! ब्रह्मचर्य आश्रम में निवास करनेवाले द्विजों का जबतक विवाह न हो जाय और वे औपासनाग्नि की प्रतिष्ठा न कर लें, तबतक उनके लिये अग्नि में समिधा की आहुति, व्रत आदि का पालन तथा विशेष यजन आदि ही कर्तव्य है (यही उनके लिये अग्नियज्ञ है)। हे द्विजो ! जिन्होंने बाह्य अग्नि को विसर्जित करके अपनी आत्मा में ही अग्नि का आरोप कर लिया है, ऐसे वानप्रस्थियों और संन्यासियों के लिये यही हवन या अग्नियज्ञ है कि वे विहित समय पर हितकर, परिमित और पवित्र अन्न का भोजन कर लें ॥ २-४ ॥

औपासनाग्निसंधानं समारभ्य सुरक्षितम्

कुंडे वाप्यथ भांडे वा तदजस्रं समीरितम् ॥५

अग्निमात्मन्यरण्यां वा राजदैववशाद्ध्रुवम्

अग्नित्यागभयादुक्तं समारोपितमुच्यते ॥६

औपासनाग्नि को ग्रहण करके जब कुण्ड अथवा भाण्ड में सुरक्षित कर लिया जाय, तब उसे अजस्रकहा जाता है । राजविप्लव या दुर्दैव से अग्नित्याग का भय उपस्थित हो जाने पर जब अग्नि को स्वयं आत्मा में अथवा अरणी में स्थापित कर लिया जाता है, तब उसे समारोपितकहते हैं ॥ ५-६ ॥

संपत्करी तथा ज्ञेया सायमग्न्याहुतिर्द्विजाः

आयुष्करीति विज्ञेया प्रातः सूर्याहुतिस्तथा ॥७

हे ब्राह्मणो ! सायंकाल अग्नि के लिये दी हुई आहुति सम्पत्ति प्रदान करनेवाली होती है, ऐसा जानना चाहिये और प्रातःकाल सूर्यदेव को दी हुई आहुति आयु की वृद्धि करनेवाली होती है, यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये । दिन में अग्निदेव सूर्य में ही प्रविष्ट हो जाते हैं । अतः प्रातःकाल सूर्य को दी हुई आहुति भी अग्नियज्ञ ही है ॥ ७ ॥

अग्नियज्ञो ह्ययं प्रोक्तो दिवा सूर्यनिवेशनात्

इंद्रा दीन्सकलान्देवानुद्दिश्याग्नौ जुहोतियत् ॥८

देवयज्ञं हि तं विद्यात्स्थालीपाकादिकान्क्रतून्

चौलादिकं तथा ज्ञेयं लौकिकाग्नौ प्रतिष्ठितम् ॥९

ब्रह्मयज्ञं द्विजः कुर्याद्देवानां तृप्तये सकृत्

ब्रह्मयज्ञ इति प्रोक्तो वेदस्याऽध्ययनं भवेत् ॥१०

नित्यानंतरमासोयं ततस्तु न विधीयते॥११क       

इन्द्र आदि समस्त देवताओं के उद्देश्य से अग्नि में जो आहुति दी जाती है, उसे देवयज्ञ समझना चाहिये । स्थालीपाक आदि यज्ञों को देवयज्ञ ही मानना चाहिये । लौकिक अग्नि में प्रतिष्ठित जो चूडाकरण आदि संस्कारनिमित्तक हवन-कर्म हैं, उन्हें भी देवयज्ञ के ही अन्तर्गत जानना चाहिये । [अब ब्रह्मयज्ञ का वर्णन सुनिये।] द्विज को चाहिये कि वह देवताओं की तृप्ति के लिये निरन्तर ब्रह्मयज्ञ करे । वेदों का जो नित्य अध्ययन होता है, उसी को ब्रह्मयज्ञ कहा गया है । प्रातः नित्यकर्म के अनन्तर सायंकाल तक ब्रह्मयज्ञ किया जा सकता है । उसके बाद रात में इसका विधान नहीं है ॥ ८-११क ॥

अनग्नौ देवयजनं शृणुत श्रद्धयादरात् ॥११

आदिसृष्टौ महादेवः सर्वज्ञः करुणाकरः

सर्वलोकोपकारार्थं वारान्कल्पितवान्प्रभुः ॥१२

संसारवैद्यः सर्वज्ञः सर्वभेषजभेषजम्

आदावारोग्यदं वारं स्ववारं कृतवान्प्रभुः ॥१३

संपत्कारं स्वमायाया वरं च कृतवांस्ततः

जनने दुर्गतिक्रांते कुमारस्य ततः परम् ॥१४

आलस्यदुरितक्रांत्यै वारं कल्पितवान्प्रभुः

रक्षकस्य तथा विष्णोर्लोकानां हितकाम्यया ॥१५

पुष्ट्यर्थं चैव रक्षार्थं वारं कल्पितवान्प्रभुः

आयुष्करं ततो वारमायुषां कर्तुरेव हि ॥१६

त्रैलोक्यसृष्टिकर्त्तुर्हि ब्रह्मणः परमेष्ठिनः

जगदायुष्यसिद्ध्यर्थं वारं कल्पितवान्प्रभुः ॥१७

आदौ त्रैलोक्यवृद्ध्यर्थं पुण्यपापे प्रकल्पिते

तयोः कर्त्रोस्ततो वारमिंद्र स्य च यमस्य च ॥१८

भोगप्रदं मृत्युहरं लोकानां च प्रकल्पितम्॥१९क

अग्नि के बिना देवयज्ञ कैसे सम्पन्न होता है, इसे आपलोग श्रद्धा से और आदरपूर्वक सुनिये । सृष्टि के आरम्भ में सर्वज्ञ, दयालु और सर्वसमर्थ महादेवजी ने समस्त लोकों के उपकार के लिये वारों की कल्पना की । वे भगवान् शिव संसाररूपी रोग को दूर करने के लिये वैद्य हैं । सबके ज्ञाता तथा समस्त औषधों के भी औषध हैं । उन भगवान् ने पहले अपने वार की कल्पना की, जो आरोग्य प्रदान करनेवाला है । तत्पश्चात् उन्होंने अपनी मायाशक्ति का वार बनाया, जो सम्पत्ति प्रदान करनेवाला है । जन्मकाल में दुर्गतिग्रस्त बालक की रक्षा के लिये उन्होंने कुमार के वार की कल्पना की । तत्पश्चात् सर्वसमर्थ महादेवजी ने आलस्य और पाप की निवृत्ति तथा समस्त लोकों का हित करने की इच्छा से लोकरक्षक भगवान् विष्णु का वार बनाया । इसके बाद सबके स्वामी भगवान् शिव ने पुष्टि और रक्षा के लिये आयुःकर्ता तथा त्रिलोकस्रष्टा परमेष्ठी ब्रह्मा का आयुष्कारक वार बनाया, जिससे सम्पूर्ण जगत् के आयुष्य की सिद्धि हो सके । इसके बाद तीनों लोकों की वृद्धि के लिये पहले पुण्य-पाप की रचना की; तत्पश्चात् उनके करनेवाले लोगों को शुभाशुभ फल देने के लिये भगवान् शिव ने इन्द्र और यम के वारों का निर्माण किया । ये दोनों वार क्रमशः भोग देनेवाले तथा लोगों के मृत्युभय को दूर करनेवाले हैं ॥ ११-१९क ॥

आदित्यादीन्स्वस्वरूपान्सुखदुःखस्य सूचकान् ॥१९

वारेशान्कल्पयित्वादौ ज्योतिश्चक्रेप्रतिष्ठितान्

स्वस्ववारे तु तेषां तु पूजा स्वस्वफलप्रदा ॥२०

इसके बाद सूर्य आदि सात ग्रहों को, जो अपने ही स्वरूपभूत तथा प्राणियों के लिये सुख-दुःख के सूचक हैं; भगवान् शिव ने उपर्युक्त सात वारों का स्वामी निश्चित किया । वे सब-के-सब ग्रह नक्षत्रों के ज्योतिर्मय मण्डल में प्रतिष्ठित हैं । [शिव के वार या दिन के स्वामी सूर्य हैं । शक्तिसम्बन्धी वार के स्वामी सोम हैं । कुमारसम्बन्धी दिन के अधिपति मंगल हैं । विष्णुवार के स्वामी बुध हैं । ब्रह्माजी के वार के अधिपति बृहस्पति हैं । इन्द्रवार के स्वामी शुक्र और यमवार के स्वामी शनैश्चर हैं।] अपने-अपने वार में की हुई उन देवताओं की पूजा उनके अपने-अपने फल को देनेवाली होती है ॥ १९-२० ॥

आरोग्यं संपदश्चैव व्याधीनां शांतिरेव च

पुष्टिरायुस्तथा भोगो मृतेर्हानिर्यथाक्रमम् ॥२१

वारक्रमफलं प्राहुर्देवप्रीतिपुरःसरम्

अन्येषामपि देवानां पूजायाः फलदः शिवः ॥२२

देवानां प्रीतये पूजापंचधैव प्रकल्पिता

तत्तन्मंत्रजपो होमो दानं चैव तपस्तथा ॥२३

स्थंडिले प्रतिमायां च ह्यग्नौ ब्राह्मणविग्रहे

समाराधनमित्येवं षोडशैरुपचारकैः ॥२४

सूर्य आरोग्य के और चन्द्रमा सम्पत्ति के दाता हैं । मंगल व्याधियों का निवारण करते हैं, बुध पुष्टि देते हैं, बृहस्पति आयु की वृद्धि करते हैं, शुक्र भोग देते हैं और शनैश्चर मृत्यु का निवारण करते हैं । ये सात वारों के क्रमशः फल बताये गये हैं, जो उन-उन देवताओं की प्रीति से प्राप्त होते हैं । अन्य देवताओं की भी पूजा का फल देनेवाले भगवान् शिव ही हैं । देवताओं की प्रसन्नता के लिये पूजा की पाँच प्रकार की ही पद्धति बनायी गयी । उन-उन देवताओं के मन्त्रों का जप यह पहला प्रकार है । उनके लिये होम करना दूसरा, दान करना तीसरा तथा तप करना चौथा प्रकार है । किसी वेदी पर, प्रतिमा में, अग्नि में अथवा ब्राह्मण के शरीर में आराध्य देवता की भावना करके सोलह उपचारों से उनकी पूजा या आराधना करना पाँचवाँ प्रकार है ॥ २१-२४ ॥

उत्तरोत्तरवैशिष्ट्यात्पूर्वाभावे तथोत्तरम्

नेत्रयोः शिरसो रोगे तथा कुष्ठस्य शांतये ॥२५

आदित्यं पूजयित्वा तु ब्राह्मणान्भोजयेत्ततः

दिनं मासं तथा वर्षं वर्षत्रयमथवापि वा ॥२६

प्रारब्धं प्रबलं चेत्स्यान्नश्येद्रो गजरादिकम्

जपाद्यमिष्टदेवस्य वारादीनां फलं विदुः ॥२७

इनमें पूजा के उत्तरोत्तर आधार श्रेष्ठ हैं । पूर्व पूर्व के अभाव में उत्तरोत्तर आधार का अवलम्बन करना चाहिये । दोनों नेत्रों तथा मस्तक के रोग और कुष्ठ रोग की शान्ति के लिये भगवान् सूर्य की पूजा करके ब्राह्मणों को भोजन कराये । तदनन्तर एक दिन, एक मास, एक वर्ष अथवा तीन वर्ष तक लगातार ऐसा साधन करना चाहिये । इससे यदि प्रबल प्रारब्ध का निर्माण हो जाय तो रोग एवं जरा आदि का नाश हो जाता है । इष्टदेव के नाममन्त्रों का जप आदि साधन वार आदि के अनुसार फल देते हैं ॥ २५-२७ ॥

पापशांतिर्विशेषेण ह्यादिवारे निवेदयेत्

आदित्यस्यैव देवानां ब्राह्मणानां विशिष्टदम् ॥२८

रविवार को सूर्यदेव के लिये, अन्य देवताओं के लिये तथा ब्राह्मणों के लिये विशिष्ट वस्तू अर्पित करे । यह साधन विशिष्ट फल देनेवाला होता है तथा इसके द्वारा विशेषरूप से पापों की शान्ति होती है ॥ २८ ॥

सोमवारे च लक्ष्म्यादीन्संपदर्थं यजेद्बुधः

आज्यान्नेन तथा विप्रान्सपत्नीकांश्च भोजयेत् ॥२९

काल्यादीन्भौम वारे तु यजेद्रो गप्रशांतये

माषमुद्गाढकान्नेन ब्रह्मणांश्चैव भोजयेत् ॥३०

विद्वान् पुरुष सोमवार को सम्पत्ति की प्राप्ति के लिये लक्ष्मी आदि की पूजा करे तथा सपत्नीक ब्राह्मणों को घृतपक्व अन्न का भोजन कराये । मंगलवार को रोगों की शान्ति के लिये काली आदि की पूजा करे तथा उड़द, मूंग एवं अरहर की दाल आदि से युक्त अन्न ब्राह्मणों को भोजन कराये ॥ २९-३० ॥

सौम्यवारे तथा विष्णुं दध्यन्नेन यजेद्बुधः

पुत्रमित्रकलत्रादिपुष्टिर्भवति सर्वदा ॥३१

आयुष्कामो गुरोर्वारे देवानां पुष्टिसिद्धये

उपवीतेन वस्त्रेण क्षीराज्येन यजेद्बुधः ॥३२

विद्वान् पुरुष बुधवार को दधियुक्त अन्न से भगवान् विष्णु का पूजन करे ऐसा करने से सदा पुत्र, मित्र और स्त्री आदि की पुष्टि होती है । जो दीर्घायु होने की इच्छा रखता हो, वह गुरुवार को देवताओं की पुष्टि के लिये वस्त्र, यज्ञोपवीत तथा घृतमिश्रित खीर से यजन-पूजन करे ॥ ३१-३२ ॥

भोगार्थं भृगवारे तु यजेद्देवान्समाहितः

षड्रसोपेतमन्नं च दद्याद्ब्राह्मणतृप्तये ॥३३

स्त्रीणां च तृप्तये तद्वद्देयं वस्त्रादिकं शुभम्

अपमृत्युहरे मंदे रुद्रा द्री श्चं! यजेद्बुधः ॥३४

तिलहोमेन दानेन तिलान्नेन च भोजयेत्

इत्थं यजेच्च विबुधानारोग्यादिफलं लभेत् ॥३५

भोगों की प्राप्ति के लिये शुक्रवार को एकाग्रचित्त होकर देवताओं का पूजन करे और ब्राह्मणों की तृप्ति के लिये षड्रसयुक्त अन्न का दान करे । इसी प्रकार स्त्रियों की प्रसन्नता के लिये सुन्दर वस्त्र आदि का दान करे । शनैश्चर अपमृत्यु का निवारण करनेवाला है, उस दिन बुद्धिमान् पुरुष रुद्र आदि की पूजा करे । तिल के होम से, दान से देवताओं को सन्तुष्ट करके ब्राह्मणों को तिलमिश्रित अन्न भोजन कराये । जो इस तरह देवताओं की पूजा करेगा, वह आरोग्य आदि फल का भागी होगा ॥ ३३-३५ ॥

देवानां नित्ययजने विशेषयजनेपि च

स्नाने दाने जपे होमे ब्राह्मणानां च तर्पणे ॥३६

तिथिनक्षत्रयोगे च तत्तद्देवप्रपूजने

आदिवारादिवारेषु सर्वज्ञो जगदीश्वरः ॥३७

तत्तद्रू पेण सर्वेषामारोग्यादिफलप्रदः

देशकालानुसारेण तथा पात्रानुसारतः ॥३८

द्र व्यश्रद्धानुसारेण तथा लोकानुसारतः

तारतम्यक्रमाद्देवस्त्वारोग्यादीन्प्रयच्छति ॥३९

देवताओं के नित्य-पूजन, विशेष-पूजन, स्नान, दान, जप, होम तथा ब्राह्मण-तर्पण आदि में एवं रवि आदि वारों में विशेष तिथि और नक्षत्रों का योग प्राप्त होने पर विभिन्न देवताओं के पूजन में सर्वज्ञ जगदीश्वर भगवान् शिव ही उन-उन देवताओं के रूप में पूजित होकर सब लोगों को आरोग्य आदि फल प्रदान करते हैं । देश, काल, पात्र, द्रव्य, श्रद्धा एवं लोक के अनुसार उनके तारतम्य क्रम का ध्यान रखते हुए महादेवजी आराधना करनेवाले लोगों को आरोग्य आदि फल देते हैं ॥ ३६-३९ ॥

शुभादावशुभांते च जन्मर्क्षेषु गृहे गृही

आरोग्यादिसमृद्ध्यर्थमादित्यादीन्ग्रहान्यजेत् ॥४०

तस्माद्वै देवयजनं सर्वाभीष्टफलप्रदम्

समंत्रकं ब्राह्मणानामन्येषां चैव तांत्रिकम् ॥४१

यथाशक्त्यानुरूपेण कर्तव्यं सर्वदा नरैः

सप्तस्वपि च वारेषु नरैः शुभफलेप्सुभिः ॥४२

शुभ (मांगलिक कर्म)-के आरम्भ में और अशुभ (अन्त्येष्टि आदि कर्म)-के अन्त में तथा जन्म-नक्षत्रों के आने पर गृहस्थ पुरुष अपने घर में आरोग्य आदि की समृद्धि के लिये सूर्य आदि ग्रहों का पूजन करे । इससे सिद्ध है कि देवताओं का यजन सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला है । ब्राह्मणों का देवयजन कर्म वैदिक मन्त्र के साथ होना चाहिये [यहाँ ब्राह्मण शब्द क्षत्रिय और वैश्य का भी उपलक्षण है]। शूद्र आदि दूसरों का देवयज्ञ तान्त्रिक विधि से होना चाहिये । शुभ फल की इच्छा रखनेवाले मनुष्यों को सातों ही दिन अपनी शक्ति के अनुसार सदा देवपूजन करना चाहिये ॥ ४०-४२ ॥

दरिद्र स्तपसा देवान्यजेदाढ्यो धनेन हि

पुनश्चैवंविधं धर्मं कुरुते श्रद्धया सह ॥४३

पुनश्च भोगान्विविधान्भुक्त्वा भूमौ प्रजायते

छायां जलाशयं ब्रह्मप्रतिष्ठां धर्मसंचयम् ॥४४

सर्वं च वित्तवान्कुर्यात्सदा भोगप्रसिद्धये

कालाच्च पुण्यपाकेन ज्ञानसिद्धिः प्रजायते ॥४५

य इमं शृणुतेऽध्यायं पठते वा नरो द्विजाः

श्रवणस्योपकर्त्ता च देवयज्ञफलं लभेत् ॥४६

इति श्रीशिवमहापुराणे विद्येश्वरसंहितायां चतुर्दशोऽध्यायः १४॥

निर्धन मनुष्य तपस्या (व्रत आदिके कष्ट-सहन) द्वारा और धनी धन के द्वारा देवताओं की आराधना करे । वह बार-बार श्रद्धापूर्वक इस तरह के धर्म का अनुष्ठान करता है और बारम्बार पुण्यलोकों में नाना प्रकार के फल भोगकर पुनः इस पृथ्वी पर जन्म ग्रहण करता है । धनवान् पुरुष सदा भोगसिद्धि के लिये मार्ग में वृक्ष आदि लगाकर लोगों के लिये छाया की व्यवस्था करे, जलाशय (कुआँ, बावली और पोखरे) बनवाये, वेद-शास्त्रों की प्रतिष्ठा के लिये पाठशाला का निर्माण करे तथा अन्यान्य प्रकार से भी धर्म का संग्रह करता रहे । समयानुसार पुण्यकर्मों के परिपाक से [अन्तःकरण शुद्ध होनेपर] ज्ञान की सिद्धि हो जाती है । द्विजो ! जो इस अध्याय को सुनता, पढ़ता, अथवा दूसरों को सुनाता है, उसे देवयज्ञ का फल प्राप्त होता है ॥ ४३-४६ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत प्रथम विद्येश्वरसंहिता में अग्नियज्ञ आदि का वर्णन नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १४ ॥ 

शेष जारी .............. शिवपुराणम् विश्वेश्वरसंहिता-अध्यायः १५  

No comments:

vehicles

[cars][stack]

business

[business][grids]

health

[health][btop]