यज्ञपुरुष स्तुति

यज्ञपुरुष स्तुति

श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध ५ के अध्याय ३ में वर्णित भगवान् यज्ञनारायण की इस यज्ञपुरुष स्तुति स्तोत्र का नियमपूर्वक एकाग्रचित से नियमित पाठ और आहुति देने अथवा ब्राह्मणों से संकल्पपूर्वक पाठ और आहुति दिलाने से निश्चित ही संतान की प्राप्ति होती है और सभी कामनाएँ पूर्ण होती है। 

यज्ञपुरुष स्तुति

यज्ञनारायण स्तुति स्तोत्र अथवा यज्ञपुरुष स्तुति

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन्! आग्नीध्र के पुत्र नाभि के कोई सन्तान न थी, इसलिये उन्होंने अपनी भार्या मेरुदेवी के सहित पुत्र की कामना से एकाग्रतापूर्वक भगवान् यज्ञपुरुष का यजन किया। यद्यपि सुन्दर अंगों वाले श्रीभगवान् द्रव्य, देश, काल, मन्त्र, ऋत्विज्, दक्षिणा और विधि- इन यज्ञ के साधनों से सहज में नहीं मिलते, तथापि वे भक्तों पर तो कृपा करते ही हैं। इसलिये जब महाराज नाभि ने श्रद्धापूर्वक विशुद्ध भाव से उनकी आराधना की, तब उनका चित्त अपने भक्त का अभीष्ट कार्य करने के लिये उत्सुक हो गया। यद्यपि उनका स्वरूप सर्वथा स्वतन्त्र है, तथापि उन्होंने प्रवर्ग्यकर्म का अनुष्ठान होते समय उसे मन और नयनों को आनन्द देने वाले अवयवों से युक्त अति सुन्दर हृदयाकर्षक मूर्ति में प्रकट किया।

अथ ह तमाविष्कृतभुजयुगलद्वयं हिरण्मयं पुरुषविशेषं

कपिशकौशेयाम्बरधरमुरसि विलसच्छ्रीवत्सललामं

दरवरवनरुहवनमालाच्छूर्यमृतमणिगदादिभिरुपलक्षितं

स्फुटकिरणप्रवरमुकुटकुण्डलकटककटिसूत्रहारकेयूर-

नूपुराद्यङ्गभूषणविभूषितमृत्विक्सदस्यगृहपतयोऽधना

इवोत्तमधनमुपलभ्य सबहुमानमर्हणेनावनतशीर्षाण

उपतस्थुः ॥ ३॥

शब्दार्थ= अथतत्पश्चात्; निश्चय ही; तम्उसको; आविष्कृत-भुज-युगल-द्वयम्जो चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए; हिरण्मयम्अत्यन्त चमकीला; पुरुष-विशेषम्समस्त जीवों में सर्वश्रेष्ठ, पुरुषोत्तम; कपिश-कौशेय-अम्बर-धरम्रेशमी पीताम्बर धारण किये; उरसिवक्षस्थल पर; विलसत्सुन्दर; श्रीवत्सश्रीवत्स नामक; ललामम्चिह्नयुक्त; दर-वरशंख से; वन-रुहकमल पुष्प; वन-मालावन पुष्पों की माला; अच्छूरिचक्र; अमृत-मणिकौस्तुभ मणि; गदा-आदिभि:गदा तथा अन्य चिह्नों से; उपलक्षितम्लक्षणों से युक्त होकर; स्फुट-किरणतेजस्वी, किरण-मण्डित; प्रवरश्रेष्ठ; मुकुटमुकुट, किरीट; कुण्डलकर्णाभूषण, बालियाँ; कटककंकण; कटि-सूत्रकरधनी; हारहार; केयूरबाजूबंद; नूपुरपाँवों में पहना जाने वाला आभूषण, पायल; आदिइत्यादि; अङ्गशरीर के; भूषणआभूषणों से; विभूषितम्अलंकृत; ऋत्विक्पुरोहितगण; सदस्यपार्षद; गृह-पतय:—(तथा) राजा नाभि; अधना:निर्धन व्यक्ति; इवसदृश; उत्तम-धनम्प्रचुर धनराशि; उपलभ्यपाकर; स-बहु-मानम्अत्यन्त सत्कार सहित; अर्हणेनपूजा सामग्री से; अवनतझुका कर; शीर्षाण:अपने शिर (मस्तकों); उपतस्थु:स्तुति की ।

अनुवाद= भगवान् विष्णु राजा नाभि के समक्ष चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए। वे अत्यन्त तेजोमय थे और समस्त महापुरुषों में सर्वोत्तम प्रतीत होते थे। वे अधोभाग में रेशमी पीताम्बर धारण किये हुए थे; उनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिह्न था, जो सदैव शोभा देता है। उनके चारों हाथों में शंख, कमल, चक्र तथा गदा थे उनके गले में वनपुष्पों की माला तथा कौस्तुभमणि थी। वे मुकुट, कुण्डल, कंकण, करधनी, मुक्ताहार, बाजूबंद, नूपुर तथा अन्य रत्नजटित आभूषणों से शोभित थे। भगवान् को अपने समक्ष देखकर राजा नाभि, उनके पुरोहित तथा पार्षद वैसा ही अनुभव कर रहे थे जिस प्रकार किसी निर्धन को सहसा अथाह धनराशि प्राप्त हुई हो जाए। उन्होंने भगवान् का स्वागत किया, आदरपूर्वक प्रणाम किया तथा स्तुति करके वस्तुएँ भेंट कीं।

तात्पर्य= यहाँ पर स्पष्ट बताया गया है कि भगवान् सामान्य मनुष्य की तरह नहीं प्रकट हुए। वे राजा नाभि तथा उनके पार्षदों के समक्ष सर्वश्रेष्ठ पुरुष (पुरुषोत्तम) के रूप में प्रकट हुए। जैसाकि वेदों में कहा गया हैनित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानाम्। भगवान् भी जीवित प्राणी हैं, किन्तु वे परम पुरुष हैं। भगवद्गीता (७.७) में भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैंमत्त: परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जयहे धनंजय, कोई भी सत्य मुझसे श्रेष्ठ नहीं।भगवान् श्रीकृष्ण से बढक़र आकर्षक या प्रामाणिक अन्य कोई नहीं। ईश्वर तथा सामान्य प्राणी में यही अन्तर है। भगवान् विष्णु की दिव्य देह के इस विवरण द्वारा भगवान् विष्णु में तथा अन्य प्राणियों से सरलता से विभेद किया जा सकता है। फलत: महाराज नाभि ने अपने पुरोहितों तथा पार्षदों समेत भगवान् को नमस्कार किया और अनेक सामग्रियों से उनकी पूजा की। जैसाकि भगवद्गीता (६.२२) में कहा गया हैयं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत:—“इसे प्राप्त करके मनुष्य सोचता है कि इससे बड़ा अन्य लाभ नहीं है।जब कोई भगवान् का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करता है, तो उसे यही लगता है कि उसने सर्वश्रेष्ठ वस्तु प्राप्त कर ली है। रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्ततेजब उच्चतर स्वाद मिलने लगता है, तो उसकी चेतना स्थिर हो जाती है। भगवान् का दर्शन कर लेने के बाद किसी भौतिक वस्तु के प्रति आकर्षण नहीं रह जाता। तब मनुष्य भगवान् की उपासना में स्थिर हो जाता है।

यज्ञपुरुष स्तुति

ऋत्विज ऊचुः

अर्हसि मुहुरर्हत्तमार्हणमस्माकमनुपथानां नमो नम

इत्येतावत्सदुपशिक्षितं कोऽर्हति पुमान् प्रकृतिगुण-

व्यतिकरमतिरनीश ईश्वरस्य परस्य प्रकृतिपुरुषयो-

रर्वाक्तनाभिर्नामरूपाकृतिभी रूपनिरूपणम् ॥ ४॥

सकलजननिकायवृजिननिरसनशिवतमप्रवर-

गुणगणैकदेशकथनादृते ॥ ५॥

शब्दार्थ= ऋत्विज: ऊचु:ऋत्विजों ने कहा; अर्हसि—(स्वीकार) करें; मुहु:पुन: पुन:; अर्हत्-तमहे श्रेष्ठ पूज्य पुरुष; अर्हणम्पूजा; अस्माकम्हम सब की; अनुपथानाम्जो आपके दास हैं; नम:नमस्कार है; नम:नमस्कार; इतिइस प्रकार; एतावत्यहाँ तक; सत्श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा; उपशिक्षितम्सिखाये गये; क:कौन; अर्हतिसमर्थ है; पुमान्मनुष्य; प्रकृतिभौतिक प्रकृति के; गुणगुणों के; व्यतिकररूपान्तरों में; मति:जिसका मन (मग्न है); अनीश:असमर्थ; ईश्वरस्यभगवान् के; परस्यपरम; प्रकृति-पुरुषयो:तीनों गुणों के अन्तर्गत; अर्वाक्तनाभि:जो वहाँ तक नहीं पहुँचते अथवा जो इसी संसार के हैं; नाम-रूप-आकृतिभि:नामों, रूपों तथा गुणों से; रूपआपकी प्रकृति या स्थिति का; निरूपणम्निश्चय करना; सकलसमस्त; जन-निकायमानव जाति का; वृजिनपाप कर्म; निरसनमिटाने वाले; शिवतमअत्यन्त मंगलमय; प्रवरश्रेष्ठतम; गुण-गणदिव्य गुणों का; एक-देशएक अंश; कथनात्कथन से; ऋतेकेवल ।

अनुवाद= ऋत्विजगण इस प्रकार ईश्वर की स्तुति करने लगेहे परम पूज्य, हम आपके दास मात्र हैं। यद्यपि आप पूर्ण हैं, किन्तु अहैतुकी कृपावश ही सही, हम दासों की यत्किंचित सेवा स्वीकार करें। हम आपके दिव्य रूप से परिचित नहीं हैं, किन्तु जैसा वेदों तथा प्रामाणिक आचार्यों ने हमें शिक्षा दी है, उसके अनुसार हम आपको बारम्बार नमस्कार करते हैं। जीवात्माएँ प्रकृति के गुणों के प्रति अत्यधिक आकर्षित होती हैं, अत: वे कभी भी पूर्ण नहीं हैं, किन्तु आप समस्त भौतिक अवधारणाओं से परे हैं। आपके नाम, रूप तथा गुण सभी दिव्य हैं और व्यावहारिक बुद्धि की कल्पना के परे हैं। भला आपकी कल्पना कौन कर सकता है? इस भौतिक जगत में हम केवल नाम तथा गुण देख पाते हैं। हम आपको अपना नमस्कार तथा स्तुति अर्पित करने के अतिरिक्त और कुछ भी करने में समर्थ नहीं हैं। आपके शुभ दिव्य गुणों के कीर्तन से समस्त मानव जाति के पाप धुल जाते हैं। यही हमारा परम कर्तव्य है और इस प्रकार हम आपकी अलौकिक स्थिति को अंशमात्र ही जान सकते हैं।

तात्पर्य= भगवान् को भौतिक अनुभूति से कुछ भी सरोकार नहीं। यहाँ तक कि अद्वैतवादी शंकराचार्य भी यही कहते हैंनारायण: परोऽव्यक्तात्—“भगवान्, नारायण, भौतिक अनुभूति से परे (अव्यक्त) हैं।हम भगवान् के रूप तथा लक्षणों को मन से गढ़ नहीं सकते। हमें वैदिक शास्त्रों में दिये गये उनके रूप तथा कर्म को मात्र स्वीकार कर लेना चाहिए। ब्रह्म-संहिता (५.२९) में कहा गया है

चिन्तामणि-प्रकर-सद्मसु कल्प-वृक्ष लक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम्।

लक्ष्मी-सहस्र-शत-सम्भ्रम-सेव्यमानं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥

मैं उन आदि पुरुष गोविन्द की उपासना करता हूँ जो गायों को पालने वाले हैं। ये गाएँ सभी कामनाओं को पूर्ण करनेवाली हैं, ये करोड़ों कल्पतरुओं से घिरी दिव्य मणियों से बने घरों में रहती हैं। उनकी सेवा सैकड़ों-हजारों लक्ष्मियाँ अत्यन्त आदर सहित करती हैं।हमें उनके स्वरूप एवं लक्षणों का कुछ-कुछ अनुभव वैदिक साहित्य में प्राय: उल्लेखों एवं ब्रह्मा, नारद, शुकदेव गोस्वामी जैसे सत्पुरुषों द्वारा दिये गये प्रामाणिक कथनों से प्राप्त होता है। श्रील रूप गोस्वामी कहते हैंअत: श्रीकृष्णनामादि न भवेद् ग्राह्यम् इन्द्रियै:—“हम अपनी भौतिक इन्द्रियों से श्रीकृष्ण के नाम, रूप तथा गुण के विषय में अनुमान नहीं कर पाते।इसीलिए ईश्वर के अन्य नाम भी हैंअधोक्षज तथा अप्राकृत, जिनसे सूचित होता है कि वे सभी भौतिक इन्द्रियों से परे हैं। भगवान् अपने भक्तों पर अहैतुकी कृपावश ही महाराज नाभि के समक्ष प्रकट हुए। इसी प्रकार जब हम भगवान् की भक्ति में रत रहते हैं, तो वे स्वयं दर्शन देते हैंसेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयम् एव स्फुरत्यद:। भगवान् को समझने की केवल यही विधि है। जैसाकि भगवद्गीता में इनकी पुष्टि हुई हैभक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत:—“भक्ति के द्वारा ही भगवान् को जाना जा सकता है।इसके लिए कोई अन्य उपाय नहीं है। हमें प्रामाणिक विद्वानों तथा शास्त्रों के वचनों को ही मानकर भगवान् के सम्बन्ध में चिन्तन करना चाहिए। हम ईश्वर के रूपों तथा लक्षणों की मनगढ़ंत कल्पना नहीं कर सकते।

परिजनानुरागविरचितशबलसंशब्दसलिलसित-

किसलयतुलसिकादूर्वाङ्कुरैरपि सम्भृतया सपर्यया

किल परम परितुष्यसि ॥ ६॥

शब्दार्थ= परिजनआपके सेवकों द्वारा; अनुरागअत्यन्त आह्लाद से; विरचितकी गई; शबलगद्गद् वाणी से; संशब्दस्तुति से; सलिलजल; सित-किसलयनव कोपलों से युक्त वृंत्त (पल्लव); तुलसिकातुलसीदल; दूर्वा-अङ्कुरै:—(तथा) नई उगी दूब से; अपिभी; सम्भृतयाकिया गया; सपर्ययापूजा द्वारा; किलनिस्सन्देह; परमहे परमेश्वर; परितुष्यसिसंतुष्ट हो जाते हो ।

अनुवाद= हे परमेश्वर, आप सभी प्रकार से पूर्ण हैं। जब आपके भक्त गद्गद् वाणी से आपकी स्तुति करते हैं तथा आह्लादवश तुलसीदल, जल, पल्लव तथा दूब के अंकुर चढ़ाते हैं, तो आप निश्चय ही परम सन्तुष्ट होते हैं।

तात्पर्य= भगवान् को प्रसन्न करने के लिए न तो प्रचुर धन की आवश्यकता है, न शिक्षा या ऐश्वर्य की। यदि कोई प्रेम तथा आह्लादपूर्वक उनमें पूर्णतया मग्न रहे तो केवल कुछ पुष्प तथा जल चढ़ाने की आवश्यकता पड़ती है। जैसाकि भगवद्गीता (९.२६) में कहा गया हैपत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति—“यदि कोई प्रेम तथा भक्तिवश मुझको पत्ती, फूल, फल या जल अर्पित करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ।

भगवान् को केवल भक्ति से प्रसन्न किया जा सकता है इसीलिए यहाँ यह कहा गया है कि ईश्वर केवल अनुराग (भक्ति) से प्रसन्न होते हैं। हरि भक्ति विलास में गौतमीय तंत्र का निम्नलिखित उद्धरण आया है

तुलसीदलमात्रेण जलस्य चुलुकेन वा।

विक्रीणीते स्वम् आत्मानं भक्तेभ्यो भक्तवत्सल: ॥

श्रीकृष्ण केवल तुलसीदल तथा अंजुली भर जल चढ़ाने वाले भक्त के हाथों बिक जाते हैं, क्योंकि वे अपने भक्तों के प्रति परम वत्सल हैं।भगवान् की अपने भक्तों पर अहैतुकी कृपा रहती है, अत: निर्धन से निर्धन व्यक्ति जो भक्तिवश थोड़ा सा जल तथा एक पुष्प भी उन पर चढ़ाता है उससे वे प्रसन्न हो जाते हैं। अपने भक्तों के प्रति उनकी वत्सलता के कारण ही ऐसा होता है।

अथानयापि न भवत इज्ययोरुभारभरया समुचित-

मर्थमिहोपलभामहे ॥ ७॥

शब्दार्थ=अथअन्यथा; अनयायह; अपिभी; नहीं; भवत:आपका; इज्ययायज्ञ द्वारा; उरुभार-भरयातमाम सामग्री के भार से बोझिल; समुचितम्वांछित, आवश्यक; अर्थम्उपयोग; इहयहाँ; उपलभामहेहम देखते हैं ।

अनुवाद= हमने आपकी पूजा में आपको अनेक वस्तुएँ अर्पित की हैं और आपके लिए अनेक यज्ञ किये हैं, किन्तु हम सोचते हैं कि आपको प्रसन्न करने के लिए इतने सारे आयोजनों की कोई आवश्यकता नहीं है।

तात्पर्य=श्रील रूप गोस्वामी का कहना है कि यदि बिना भूख के किसी के सामने ढेर सारा भोजन रख दिया जाये तो उसका कोई महत्त्व नहीं होता। बड़े-बड़े याज्ञिक अनुष्ठानों में भगवान् को तुष्ट करने के लिए अनेक वस्तुएँ एकत्र की जाती हैं, किन्तु यदि ईश्वर के प्रति लगाव या प्रेम नहीं है, तो यह सारा आयोजन निरर्थक है। ईश्वर स्वयं में पूर्ण हैं और उनको हमसे कुछ नहीं चाहिए किन्तु यदि हम उन्हें थोड़ा जल, एक फूल तथा एक तुलसीदल भेंट कर दें तो वे इन्हें स्वीकार कर लेंगे। भगवान् को प्रसन्न करने का एकमात्र साधन भक्ति है। बड़े-बड़े यज्ञों के आयोजन की कोई आवश्यकता नहीं होती। पुरोहितों को यह सोच कर विषाद हो रहा था कि वे भक्ति के पथ पर नहीं हैं और ईश्वर उनके यज्ञ से प्रसन्न नहीं हैं।

आत्मन एवानुसवनमञ्जसाव्यतिरेकेण बोभूयमा-

नाशेषपुरुषार्थस्वरूपस्य किन्तु नाथाशिष

आशासानानामेतदभिसंराधनमात्रं भवितुमर्हति ॥ ८॥

शब्दार्थ= आत्मन:अपने आप; एवनिश्चय ही; अनुसवनम्प्रत्येक क्षण; अञ्जसाप्रत्यक्ष; अव्यतिरेकेणबिना व्यवधान के; बोभूयमानवर्धमान; अशेषअसीम; पुरुष-अर्थजीवन-लक्ष्य; स्व-रूपस्यआपका वास्तविक रूप; किन्तुलेकिन; नाथहे ईश्वर; आशिष:भौतिक सुख हेतु आशीर्वाद; आशासानानाम्हम सबका जिन्हें सदैव कामना रहती है; एतत्यह; अभिसंराधनआपका अनुग्रह प्राप्त करने के लिए; मात्रम्केवल; भवितुम् अर्हतिहो सकता है ।

अनुवाद= आप में प्रतिक्षण प्रत्यक्षतया, स्वयमेव, निरन्तर एवं असीमत: जीवन के समस्त लक्ष्यों एवं ऐश्वर्यों की वृद्धि हो रही है। दरअसल, आप स्वयं ही असीम सुख तथा आनन्द से युक्त हैं। हे ईश्वर, हम तो सदा ही भौतिक सुखों के फेर में रहते हैं। आपको इन समस्त याज्ञिक आयोजनों की आवश्यकता नहीं है। ये तो हमारे लिए हैं जिससे हम आपका आशीर्वाद पा सकें। ये सारे यज्ञ हमारे अपने कर्म-फल के लिए किये जाते हैं और वास्तव में आपको इनकी कोई अवश्यकता ही नहीं है।

तात्पर्य= आत्म-निर्भर (सम्पूर्ण) होने के कारण परमेश्वर को बड़े-बड़े यज्ञों की आवश्यकता नहीं है। जो अपने स्वार्थ के लिए भौतिक ऐश्वर्य की कामना करते हैं उनके लिए सकाम कर्म की आवश्यकता है। यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्म-बन्धन:यदि हम परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए कर्म नहीं करते तो हम माया के कार्यों में लग जाते हैं। हम किसी विशाल मन्दिर का निर्माण करके हजारों डालर व्यय कर सकते हैं किन्तु ईश्वर को ऐसे मन्दिर की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर के पास अपने निवास के लिए ऐसे लाखों मन्दिर हैं, उन्हें हमारे प्रयास की कोई आवश्यकता नहीं है। उन्हें ऐश्वर्य के कार्य कदापि नहीं चाहिए। ऐसा कार्य तो हमारे आत्म-लाभ के लिए होता है। क्योंकि यदि हम अपने धन को विशाल मन्दिर-निर्माणकार्य में लगा देते हैं, तो हम अपने प्रयास के बन्धन से मुक्त रहते हैं। यह हमारे कल्याण के लिए है। साथ ही, यदि हम भगवान् के लिए कुछ अच्छा कार्य करते हैं, तो वे प्रसन्न होकर हमें आशीर्वाद देते हैं। निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि ऐसे विशाल आयोजन ईश्वर के लिए नहीं, अपितु हमारे अपने लिए होते हैं। यदि हम किसी प्रकार से ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त कर सकें, तो हमारा अन्त:करण पवित्र हो सकता है और हम भगवान् के धाम वापस जाने के भागी बन सकते हैं।

तद्यथा बालिशानां स्वयमात्मनः श्रेयः पर-मविदुषां

परम परमपुरुष प्रकर्षकरुणया स्वमहिमानं

चापवर्गाख्यमुपकल्पयिष्यन् स्वयं नापचित

एवेतरवदिहोपलक्षितः ॥ ९॥

शब्दार्थ= तत्वह; यथाजिस प्रकार; बालिशानाम्मूर्खों का; स्वयम्स्वयं; आत्मन:अपना; श्रेय:कल्याण; परम्परम; अविदुषाम्अज्ञानियों का; परम-परम-पुरुषहे ईश्वरों के भी ईश, इशाधीश; प्रकर्ष-करुणयाप्रभूत अहैतुक करुणावश; स्व-महिमानम्अपनी व्यक्तिगत महिमा; तथा; अपवर्ग-आख्यम्अपवर्ग (मुक्ति) कहलाने वाली; उपकल्पयिष्यन्देने की इच्छा से; स्वयम्स्वयं; न अपचित:समुचित रीति से पूजा न होने से; एवयद्यपि; इतर-वत्सामान्य पुरुष की भाँति; इहयहाँ; उपलक्षित:—(आप) हैं और (हमारे द्वारा) देखे जा रहे हैं ।

अनुवाद= हे ईशाधश, हम धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष से पूर्णतया अनजान हैं क्योंकि हमें जीवन लक्ष्य का ठीक से पता नहीं है। आप यहाँ हमारे समक्ष साक्षात् इस प्रकार प्रकट हुए हैं जिस प्रकार कोई व्यक्ति जानबूझ कर अपनी पूजा कराने के लिए आया हो। किन्तु ऐसा नहीं है, आप तो इसलिए प्रकट हुए हैं जिससे हम आपके दर्शन कर सकें। आप अपनी अगाध तथा अहैतुकी करुणावश हमारा उद्देश्य पूरा करने, हमारा हित करने तथा अपवर्ग का लाभ प्रदान करने हेतु प्रकट हुए हैं। हम अपनी अज्ञानता के कारण आपकी ठीक से उपासना भी नहीं कर पा रहे हैं, तो भी आप पधारे हैं।

तात्पर्य= भगवान् विष्णु स्वयं यज्ञ-स्थल पर उपस्थित हुए, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि उनका कोई निजी स्वार्थ था। इसी प्रकार मन्दिर में अर्चा-विग्रह रहता है। मात्र अपनी अहैतुकी करुणा से भगवान् उपस्थित होते हैं जिससे हम उनका दर्शन पा सकें। हम, दिव्य दृष्टि न होने के कारण ईश्वर के सत्-चित्-आनन्द विग्रह को नहीं देख सकते। हमें पत्थर तथा लकड़ी के समान स्थूल पदार्थ दिखाई पड़ते हैं इसीलिए वे मन्दिरों में पत्थर तथा लकड़ी का रूप धारण करके हमारी सेवा स्वीकारते हैं। यह ईश्वर की अहैतुकी कृपा का प्रदर्शन है। यद्यपि उनकी ऐसी वस्तुओं के प्रति कोई रुचि नहीं है, किन्तु हमारी प्रेमाभक्ति प्राप्त करने के लिए वे ऐसा करते हैं। वास्तव में हम भगवान् की पूजा के लिए उपयुक्त सामग्रियों की भेंट चढ़ा भी नहीं सकते क्योंकि हमें कोई ज्ञान नहीं है। मात्र अहैतुकी कृपावश ही महाराज नाभि के यज्ञ-स्थल में परमेश्वर प्रकट हुए।

अथायमेव वरो ह्यर्हत्तम यर्हि बर्हिषि राजर्षेर्वरदर्षभो

भवान् निजपुरुषेक्षणविषय आसीत् ॥ १०॥

शब्दार्थ= अथतब; अयम्यह; एवनिश्चय ही; वर:आशीर्वाद; हिनिस्सन्देह; अर्हत्-तमपूज्यतम; यर्हिक्योंकि; बर्हिषियज्ञ में; राज-ऋषे:राजा नाभि का; वरद-ऋषभ:वरदायकों में श्रेष्ठ; भवान्आप; निज-पुरुषअपने भक्तों के; ईक्षण-विषय:देखने योग्य वस्तु; आसीत्हो गई है ।

अनुवाद= हे पूज्यतम, आप समस्त वरदायकों में श्रेष्ठ हैं और राजर्षि नाभि की यज्ञशाला में आपका प्राकट्य हमें आशीर्वाद देने के लिए हुआ है। चूँकि हम आपको देख पाये हैं इसलिए आपने हमें सर्वाधिक मूल्यवान वर प्रदान किया है।

तात्पर्य=निज-पुरुष-ईक्षण-विषयभगवद्गीता (९.२९) में श्रीकृष्ण कहते हैं, समोऽहं सर्वभूतेषु—“मैं किसी से द्वेष नहीं करता और न किसी का पक्षपात करता हूँ; जीवमात्र में मेरा समभाव है। परन्तु जो प्राणी भक्तिभाव से मेरी सेवा करते हैं, वे मेरे प्रिय मित्र हैं औरमुझमें ही स्थित हैं और मैं भी उनका प्रिय हूँ, उनमें हूँ।

भगवान् सबके लिए समान हैं। इस अर्थ में न तो उनका कोई शत्रु है, न कोई मित्र। प्रत्येक प्राणी अपने कर्मों का फल भोगता है और ईश्वर सबों के हृदय में स्थित होकर सबों को देखते तथा उन्हें वांछित फल देते हैं। जिस प्रकार भक्तगण ईश्वर को सर्वभावेन संतुष्ट देखना चाहते हैं उसी प्रकार से ईश्वर अपने भक्तों के समक्ष अपने को उपस्थित करने के लिए इच्छुक रहते हैं। श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता (४.८) में कहा है

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥

भक्तजनों का उद्धार, दुष्टों का विनाश तथा धर्म की फिर से स्थापना के लिए मैं युग-युग में प्रकट होता हूँ।

इस प्रकार श्रीकृष्ण का आविर्भाव अपने भक्तों को भवबंधन से छुटकारा दिलाने तथा संतोष देने के लिए होता है। वे केवल दुष्टों को मारने के लिए अवतार नहीं लेते क्योंकि इस कार्य को तो उनके दूत भी कर सकते हैं। महाराज नाभि के यज्ञस्थल में भगवान् विष्णु का प्रकट होना राजा तथा उनके अनुचरों को प्रसन्न करने के अतिरिक्त और कुछ न था, अन्यथा वहाँ उनके उपस्थित होने का कोई प्रयोजन नहीं था।

असङ्गनिशितज्ञानानलविधूताशेषमलानां

भवत्स्वभावानामात्मारामाणां मुनीनामनवरत-

परिगुणितगुणगणपरममङ्गलायनगुणगण

कथनोऽसि ॥ ११॥

शब्दार्थ= असङ्गवैराग्य से; निशितदृढ़ किया है; ज्ञानज्ञान की; अनलअग्नि से; विधूतहटाया गया; अशेषअसीम; मलानाम्जिनकी मलिन वस्तुएँ; भवत्-स्वभावानाम्जिन्होंने आपके गुण प्राप्त कर लिए हैं; आत्म-आरामाणाम्जो आत्म-तुष्ट है, आत्माराम; मुनीनाम्मुनियों का; अनवरतलगातार, निरन्तर; परिगुणितस्मरण करते; गुण-गणजिसके सद्गुण समूह; परम-मङ्गलपरम-आनन्द; आयनउत्पन्न करता है; गुण-गण-कथन:जिसके लक्षणों का जप; असितुम हो ।

अनुवाद= हे ईश्वर, समस्त विचारवान मुनि तथा साधु पुरुष निरन्तर आपके दिव्य गुणों का गान करते रहते हैं। इन मुनियों ने अपनी ज्ञान-अग्नि से अपार मलराशि को पहले ही दग्ध कर दिया है और इस संसार से अपने वैराग्य को सुदृढ़ किया है। इस प्रकार वे आपके गुणों को ग्रहण कर आत्म- तुष्ट हैं। तो भी जिन्हें आपके गुणों के गान में परम-आनन्द आता है उनके लिए भी आपका दर्शन दुर्लभ है।

तात्पर्य=महाराज नाभि के यज्ञस्थल में समवेत पुरोहितों ने भगवान् विष्णु के द्वारा साक्षात् दर्शन दिये जाने की भूरि-भूरि प्रशंसा की और अपने को परम धन्य माना। ईश्वर का दर्शन उन महान् सन्तों के लिए भी, जिन्होंने भौतिक संसार से वैराग्य ले लिया है और जिनके हृदय ईश्वर की महिमा का निरन्तर जप करने के कारण विमल हैं, दुर्लभ है। ऐसे मनुष्य ईश्वर के दिव्य गुणों का जप करके संतुष्ट रहते हैं। उन्हें ईश्वर के प्राकट्य की आवश्यकता नहीं रहती। ऋषिगण यह इंगित करना चाहते हैं कि ईश्वर का साक्षात्कार महान् साधुओं के लिए भी दुर्लभ है, किन्तु वे उन पर इतने प्रसन्न हुए कि वे साक्षात् प्रकट हो गये। इसलिए समस्त याजक अत्यधिक कृतकृत्य हुए।

अथ कथञ्चित्स्खलनक्षुत्पतनजृम्भणदुरवस्थानादिषु

विवशानां नः स्मरणाय ज्वरमरणदशायामपि सकल-

कश्मलनिरसनानि तव गुणकृतनामधेयानि

वचनगोचराणि भवन्तु ॥ १२॥

शब्दार्थ=अथअब भी; कथञ्चित्किसी प्रकार से; स्खलनठोकर खाने; क्षुत्भूख; पतनगिरने; जृम्भणजम्हाई लेने; दुरवस्थानप्रतिकूल स्थिति में रहने के कारण; आदिषुइत्यादि; विवशानाम्असमर्थ; न:हम सबका; स्मरणाययाद रखने; ज्वर-मरण-दशायाम्मृत्यु के समय तेज ज्वर की दशा में; अपिभी; सकलसमस्त; कश्मलपाप; निरसनानिदूर करने वाले; तवतुम्हारे; गुणगुण; कृतकर्म; नामधेयानिनाम; वचन-गोचराणिउच्चरित हो सकने वाले; भवन्तुहो सकें ।

अनुवाद= हे ईश्वर, सम्भव है कि हम कँपकँपाने, भूखे रहने, गिरने, जम्हाई लेने या ज्वर के कारण मृत्यु के समय शोचनीय रुग्ण अवस्था में रहने के कारण आपके नाम का स्मरण न कर पाएँ। अत: हे ईश्वर, हम आपकी स्तुति करते हैं क्योंकि आप भक्तों पर वत्सल रहते हैं। आप हमें अपने पवित्र नाम, गुण तथा कर्म को स्मरण कराने में सहायक हों जिससे हमारे पापी जीवन के सभी पाप दूर हो जाँय।

तात्पर्य= जीवन की वास्तविक सफलता है अन्ते नारायण-स्मृति अर्थात् मृत्यु के समय ईश्वर के पवित्र, नाम, गुण तथा रूप का स्मरण। भले ही हम मन्दिरों में ईश्वर की पूजा में लगे रहें, किन्तु भौतिक परिस्थितियाँ इतनी कठिन तथा दुस्तर हैं कि मृत्यु के समय रुग्ण अवस्था या मानसिक विक्षिप्तता के कारण हम ईश्वर को स्मरण करना भूल सकते हैं। इसीलिए हमें ईश्वर से यही प्रार्थना करनी चाहिए कि हमें मृत्यु के समय अपने चरणकमल का स्मरण करने के योग्य अवश्य रखें, क्योंकि उस समय हमारी स्थिति दयनीय होगी। इस प्रसंग के लिए हमें श्रीमद्भागवत (६-२.९-१० तथा १४-१५) देखना चाहिए।

किञ्चायं राजर्षिरपत्यकामः प्रजां भवादृशीमाशासान

ईश्वरमाशिषां स्वर्गापवर्गयोरपि भवन्तमुपधावति

प्रजायामर्थप्रत्ययो धनदमिवाधनः फलीकरणम् ॥ १३॥

शब्दार्थ=किञ्चइसके अतिरिक्त; अयम्यह; राज-ऋषि:पवित्र राजा (नाभि); अपत्य-काम:सन्तान का इच्छुक; प्रजाम्एक पुत्र; भवादृशीम्आपके ही सदृश; आशासान:आशा युक्त; ईश्वरम्परम नियन्ता; आशिषाम्आशीर्वादों का; स्वर्ग- अपवर्गयो:स्वर्ग लोक तथा मुक्ति का; अपियद्यपि; भवन्तम्आपको; उपधावतिउपासना करता है; प्रजायाम्लडक़े-बच्चे, सन्तान; अर्थ-प्रत्यय:जीवन का परम लक्ष्य मानते हुए; धन-दम्दानी को; इवसदृश; अधन:निर्धन पुरुष; फलीकरणम्थोड़ी सी भूसी ।

अनुवाद= हे ईश्वर, आपके समक्ष ये महाराज नाभि, हैं जिनके जीवन का परम लक्ष्य आपके ही समान पुत्र प्राप्त करना है। हे भगवन्, उसकी स्थिति उस व्यक्ति जैसी है, जो एक अत्यन्त धनवान पुरुष के पास थोड़ा सा अन्न माँगने के लिए जाता है। पुत्रेच्छा से ही वे आपकी उपासना कर रहे हैं यद्यपि आप उन्हें कोई भी उच्चस्थ पद प्रदान कर सकने में समर्थ हैंचाहे वह स्वर्ग हो या भगवद्धाम का मुक्ति-लाभ।

तात्पर्य=पुरोहित कुछ-कुछ झेंपकरने लगे थे कि राजा नाभि ईश्वर से पुत्र का वर प्राप्त करने के लिए इतना बड़ा यज्ञ कर रहे हैं। ईश्वर उन्हें स्वर्ग या वैकुण्ठलोक भेज सकते थे। श्री चैतन्य महाप्रभु ने हमें शिक्षा दी है कि भगवान् तक कैसे पहुँचा जाये और कैसे श्रेष्ठ वर माँगा जाये। वे कहते हैंन धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये। वे भगवान् से कोई भौतिक वस्तु नहीं माँगना चाहते। भौतिक ऐश्वर्य का अर्थ है धन, उत्तम कुल, सुन्दर पत्नी तथा अनेक अनुचर, किन्तु बुद्धिमान-भक्त ईश्वर से ऐसी वस्तुओं की याचना नहीं करता। बस उसकी तो प्रार्थना हैमम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि। वे ईश्वर की प्रिय सेवा में निरन्तर लगे रहना चाहते हैं। वे न तो स्वर्ग चाहते हैं, न भवबन्धन से मुक्ति। यदि ऐसा होता, तो श्री चैतन्य महाप्रभु ने कदापि यह न कहा होतामम जन्मनि जन्मनि। जब तक कोई भक्त भक्त बना रहता है, उसके लिए इसका कोई महत्त्व नहीं रहता कि वह जन्म-जन्मांतर जन्म लेता रहेगा अथवा नहीं। शाश्वत स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ है भगवान् के धाम को वापस जाना। भक्त को भौतिक वस्तुओं से कोई सरोकार नहीं रहता। यद्यपि नाभि महाराज विष्णु जैसा पुत्र चाहते थे, किन्तु ईश्वर के समान पुत्रेच्छा भी इन्द्रिय-तृप्ति का एक रूप है। शुद्ध भक्त तो ईश्वर की प्रेमाभक्ति में लिप्त रहना चाहता है।

को वा इह तेऽपराजितोऽपराजितया मायया-

नवसितपदव्यानावृतमतिर्विषयविषरयानावृत-

प्रकृतिरनुपासितमहच्चरणः ॥ १४॥

शब्दार्थ= क: वाऐसा कौन पुरुष है; इहसंसार में; तेतुम्हारा (श्रीभगवान् का); अपराजित:न पराजित हो सकने वाला; अपराजितयाअपराजित द्वारा; माययामाया के द्वारा; अनवसित-पदव्यजिसका पथ निर्दिष्ट न किया जा सके; अनावृत- मति:जिसकी बुद्धि मोहग्रस्त नहीं है; विषय-विषविष तुल्य भौतिक सुख का; रयपथ से होकर; अनावृतखुला हुआ; प्रकृति:जिसका स्वभाव; अनुपासितविना उपासना किये; महत्-चरण:परम भक्तों के चरणकमल ।

अनुवाद= हे ईश्वर, जब तक मनुष्य परम भक्तों के चरणकमलों की उपासना नहीं करता, तब तक उसे माया परास्त करती रहेगी और उसकी बुद्धि मोहग्रस्त बनी रहेगी। दरअसल, ऐसा कौन है जो विष तुल्य भौतिक सुख की तरंगों में न बहा हो! आपकी माया दुर्जेय है। न तो इस माया के पथ को कोई देख सकता है, न इसकी कार्य-प्रणाली को ही कोई बता सकता है।

तात्पर्य=महाराज नाभि पुत्र-प्राप्ति के लिए महान् यज्ञ करने पर तुले थे। हो सकता है कि उनका पुत्र भगवान् के ही समान उत्तम हो, किन्तु ऐसी इच्छा चाहे छोटी हो या बड़ी, माया के प्रभाव से ही मन में आती है। भक्त कभी भी अपनी इन्द्रिय-तृप्ति के लिए किसी वस्तु की कामना नहीं करता। इसीलिए भक्ति को निष्काम (अन्याभिलाषिता-शून्य ) कहा गया है। प्रत्येक प्राणी माया से प्रभावित है और सभी प्रकार की भौतिक कामनाओं में उलझा हुआ है। महाराज नाभि भी इसके अपवाद न थे। माया के प्रभाव से बचने का एकमात्र उपाय है कि बड़े-बड़े भक्तों की सेवा की जाये (महच्चरण सेवा )। महान् भक्त के चरणकमलों की उपासना किये बिना माया के प्रभाव से मुक्त नहीं हुआ जा सकता। इसीलिए श्रील नरोत्तमदास ठाकुर कहते हैंछाडिया वैष्णव-सेवा निस्तार पायेछे केबा

ऐसा कौन है, जो वैष्णव के चरणकमलों की सेवा किये बिना माया के चंगुल से बच सका हो।माया अपराजित है और उसका प्रभाव भी अपराजित है। इसकी पुष्टि भगवद्गीता (७.१४) में भी हुई हैदैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यताया—“मेरी त्रिगुणमयी दैवी शक्ति अपराजेय है।माया के इतने बड़े प्रभाव को भक्त ही लाँघ सकता है। यह महाराज नाभि का दोष न था कि उन्होंने पुत्र की इच्छा व्यक्त की। वे ऐसा पुत्र चाहते थे, जो भगवान् के ही सदृश सर्वश्रेष्ठ हो। ईश्वर के भक्त की संगति से भौतिक ऐश्वर्य की इच्छा नहीं रह जाती। इसकी पुष्टि चैतन्य चरितामृत (मध्य २२.५४) में की गई है

साधु संग,’ ‘साधु संगसर्व-शास्त्रे कय।

लव-मात्र साधु-संगे सर्व-सिद्धि हय ॥

तथा (मध्य २२.५१)

महत्-कृपा बिना कोन कर्मे भक्तिनय।

कृष्ण-भक्ति दूरे रहु, संसार नहे क्षय ॥

यदि कोई माया के प्रभाव से बचना चाहता है और घर को लौटने अर्थात् भगवान् के धाम जाने का इच्छुक है, तो उसे साधु (भक्त) की संगति करनी चाहिए। सभी शास्त्रों का यही मत है। भक्त के रंचमात्र सत्संग से माया के चंगुल से छूटा जा सकता है। शुद्ध भक्त की कृपा के बिना कोई किसी भी प्रकार से माया से नहीं बच सकता। निश्चित ही, ईश्वर की प्रेमाभक्ति पाने के लिए शुद्ध भक्त की संगति आवश्यक है। साधु संग के बिना माया के चंगुल से छूटना कठिन है। श्रीमद्भागवत (७.५.३२) में प्रह्लाद महाराज कहते हैं

नैषां मतिस्तावदुरुक्रमाङ्घ्रिं स्पृशत्यनर्थापगमो यदर्थ:।

महीयसां पादरजोऽभिषेकं निष्किञ्चनानां न वृणीत यावत् ॥

जब तक कोई सिर पर महान् पुरुष (साधु) की धूलि को धारण नहीं करता, तब तक वह ईश्वर का भक्त नहीं बन सकता (पादरजोऽभिषेकं )। शुद्ध भक्त निष्किंचन होता हैअर्थात् उसे इस संसार के भोग की कोई इच्छा नहीं होती। मनुष्य को चाहिए कि ऐसे भक्त के गुणों को प्राप्त करने के लिए उसकी शरण में जाये। शुद्ध भक्त माया के चंगुल से तथा उसके प्रभाव से सदैव मुक्त रहने वाला है।

यदु ह वाव तव पुनरदभ्रकर्तरिह समाहूत-

स्तत्रार्थधियां मन्दानां नस्तद्यद्देवहेलनं देवदेवार्हसि

साम्येन सर्वान् प्रतिवोढुमविदुषाम् ॥ १५॥

शब्दार्थ=यत्क्योंकि; उ ह वावनिस्संदेह; तवतुम्हारा; पुन:फिर; अदभ्र-कर्त:हे ईश्वर, जो अनेक कर्म करता है; इहयहाँ, इस-स्थल में; समाहूत:आमंत्रित; तत्रअत:; अर्थ-धियाम्भौतिक कामनाओं को पूरा करने के लिए इच्छुक; मन्दानाम्कम बुद्धि वाले, मूढ़; न:हम सबका; तत्वह; यत्जो; देव-हेलनम्भगवान् की अवहेलना; देव-देवपरम देव; अर्हसिजो पसन्द आए; साम्येनसमभाव के कारण; सर्वान्सब कुछ; प्रतिवोढुम्सहने करते हैं; अविदुषाम्हम अल्प ज्ञानियों का ।

अनुवाद= हे ईश्वर, आप अनेक अद्भुत कार्य कर सकने में समर्थ हैं। इस यज्ञ के करने का हमारा एकमात्र लक्ष्य पुत्र प्राप्त करना था, अत: हमारी बुद्धि अधिक प्रखर नहीं है। हमें जीवन-लक्ष्य निर्धारित करने का कोई अनुभव नहीं है। निसन्देह भौतिक लक्ष्य की प्राप्ति हेतु किये गये इस तुच्छ यज्ञ में आपको आमंत्रित करके हमने आपके चरण कमलों में महान् पाप किया है। अत: हे सर्वेश, आप अपनी अहैतुकी कृपा तथा समदृष्टि के कारण हमें क्षमा करें।

तात्पर्य=ऋत्विजगण निश्चित रूप से अप्रसन्न थे क्योंकि उन्होंने एक तुच्छ कार्य के लिए परमेश्वर को वैकुण्ठ से बुलाया था। शुद्ध भक्त नहीं चाहता कि वृथा ही ईश्वर दर्शन दें। ईश्वर विविध कार्यों में संलग्न रहते हैं और शुद्ध भक्त यह कभी नहीं चाहता कि अपनी इन्द्रिय-तुष्टि के लिए ऐसे ही उनका दर्शन करे। वह तो केवल उनके अनुग्रह पर आश्रित रहता है और जब ईश्वर प्रसन्न होते हैं, तो भक्त उन्हें प्रत्यक्ष देख सकता है। वैसे परमेश्वर ब्रह्मा तथा शिव जैसे देवताओं द्वारा भी अलक्षित रहते हैं। भगवान् का आवाहन करके महाराज नाभि के ऋत्विजों ने अपने को अज्ञानी सिद्ध कर दिया था, तो भी परमेश्वर अपनी अहैतुकी कृपा से प्रकट हुए। इसीलिए सबों ने भगवान् से क्षमा-याचना की।

विद्वानों ने भौतिक लाभ के लिए भगवान् की उपासना की अनुमति नहीं दी है। भगवद्गीता (७.१६) में कहा गया है

चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥

हे अर्जुन! विपदाग्रस्त, धन की इच्छा करने वाले, जिज्ञासु तथा ज्ञानीये चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी भक्ति करते हैं।

भक्ति की दीक्षा उसी समय प्रारम्भ होती है जब कोई विपदाग्रस्त होता है, धन चाहता है अथवा परम सत्य को जानना चाहता है। किन्तु इस प्रकार ईश्वर के पास जाने वाले लोग वास्तविक भक्त नहीं हैं। उन्हें पवित्र (सुकृतिना) मान लिया जाता है क्योंकि वे परम सत्य के बारे में जिज्ञासा करते हैं। वे ईश्वर के विविध कार्यों को न जानते हुए, भौतिक लाभ के लिए उन्हें वृथा ही तंग करते हैं। किन्तु भगवान् इतने दयालु हैं कि तंग किये जाने पर भी ऐसे याचकों की मनोकामना पूर्ण करते हैं। शुद्ध भक्त तो अन्याभिलाषिता-शून्य होता है, उसकी उपासना के पीछे कोई उद्देश्य नहीं रहता। वह कर्म या ज्ञान के रूप में माया के प्रभाव द्वारा प्रेरित नहीं होता। शुद्ध भक्त अपनी परवाह किये बिना ईश्वर की आज्ञा पालन करने के लिए सन्नद्ध रहता है। ऋत्विजगण कर्म तथा भक्ति के अन्तर से पूर्णत: परिचित थे, अत: अपने को सकाम कर्माधीन मानकर उन्होंने ईश्वर से क्षमा-याचना की। उन्हें यह ज्ञात था कि अत्यन्त क्षुद्र कार्य के लिए परमेश्वर को बुलाया गया है।

यज्ञपुरुष स्तुति

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! वर्षाधिपति नाभि के पूज्य ऋत्विजों ने प्रभु के चरणों की वन्दना करके जब पूर्वोक्त स्तोत्र से स्तुति की, तब देव श्रेष्ठ श्रीहरि ने करुणावश इस प्रकार कहा।

श्रीभगवान् ने कहा ;- ऋषियों! बड़े असमंजस की बात है। आप सब सत्यवादी महात्मा हैं, आपने मुझसे यह बड़ा दुर्लभ वर माँगा है कि राजर्षि नाभि के मेरे समान पुत्र हो। मुनियों! मेरे समान तो मैं ही हूँ, क्योंकि मैं अद्वितीय हूँ। तो भी ब्राह्मणों का वचन मिथ्या नहीं होना चाहिये, द्विजकुल मेरा ही तो मुख है। इसलिये मैं स्वयं ही अपनी अंशकला से आग्नीध्रनन्दन नाभि के यहाँ अवतार लूँगा, क्योंकि अपने समान मुझे कोई और दिखायी नहीं देता।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- महारानी मेरुदेवी के सुनते हुए उसके पति से इस प्रकार कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये।

विष्णुदत्त परीक्षित! उस यज्ञ में महर्षियों द्वारा इस प्रकार प्रसन्न किये जाने पर श्रीभगवान् महाराज नाभि का प्रिय करने के लिये उनके रनिवास में महारानी मेरुदेवी के गर्भ से दिगम्बर संन्यासी और ऊर्ध्वरेता मुनियों का धर्म प्रकट करने के लिये शुद्धसत्त्वमय विग्रह से प्रकट हुए।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे नाभिचरिते ऋषभावतारो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥

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