अग्निपुराण अध्याय २८
अग्निपुराण अध्याय २८ आचार्य के
अभिषेक का विधान का वर्णन है।
अग्निपुराणम् अध्यायः २८
Agni puran chapter 28
अग्निपुराण अट्ठाईसवाँ अध्याय
अग्नि पुराण अध्याय २८
अग्निपुराणम् अध्यायः २८ - अभिषेकविधानम्
नारद उवाच
अभिषेकं प्रवक्ष्यामि
यथाचार्य्यस्तु पुत्रकः।
सिद्धिबाक् साधको येन रोगी
रोगाद्विमुच्यते ।। १ ।।
राज्यं राजा सुतं स्त्रीञ्च
प्राप्नुयान्मलनाशनम्।
मूर्त्तिकुम्भान् सुरत्नाढ्यः
मध्यपूर्वादितो न्यसेत् ।। २ ।।
सहस्त्रावर्त्तितान् कुर्य्यादथवा
शतवर्त्तितान्।
मण्डपे मण्डले विष्णुं
प्राच्यैशान्याञ्च पीठके ।। ३ ।।
निवेश्य शकलीकृत्य पुत्रकं
शाधकादिकम्।
अभिषेकं समभ्यर्च्च्य कुर्य्याद्गीतादिपूर्वकम्
।। ४ ।।
दद्याच्च
योगपीठादींस्त्वनुग्राह्यास्त्वया नराः।
गुरुस्च समायान् ब्रूयाद्गुप्तः
शिष्योथ सर्वभाक् ।। ५ ।।
नारदजी कहते हैं—
महर्षियो! अब मैं आचार्य के अभिषेक का वर्णन करूँगा, जिसे पुत्र अथवा पुत्रोपम श्रद्धालु शिष्य सम्पादित कर सकता है। इस अभिषेक
से साधक सिद्धि का भागी होता है और रोगी रोग से मुक्त हो जाता है। राजा को राज्य
और स्त्री को पुत्र की प्राप्ति होती है। इससे अन्तःकरण के मल का नाश होता है।
मिट्टी के बहुत से घड़ों में उत्तम रत्न रखकर एक स्थान पर स्थापित करे। पहले एक
घड़ा बीच में रखे; फिर उसके चारों ओर घट स्थापित करे। इस तरह
एक सहस्र या एक सौ आवृत्ति में उन सबकी स्थापना करे। फिर मण्डप के भीतर कमलाकार मण्डल
में पूर्व और ईशानकोण के मध्यभाग में पीठ या सिंहासन पर भगवान् विष्णु को स्थापित
करके पुत्र एवं साधक आदि का सकलीकरण करे। तदनन्तर शिष्य या पुत्र भगवत्पूजनपूर्वक
गुरु की अर्चना करके उन कलशों के जल से उनका अभिषेक करे। उस समय गीत वाद्य का
उत्सव होता रहे। फिर योगपीठ आदि गुरु को अर्पित कर दे और प्रार्थना करे - 'गुरुदेव ! आप हम सब मनुष्यों को कृपापूर्वक अनुगृहीत करें।' गुरु भी उनको समय-दीक्षा के अनुकूल आचार का उपदेश दे। इससे गुरु और साधक
भी सम्पूर्ण मनोरथों के भागी होते हैं॥१-५॥
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये आचार्य्याभिषेको
नाम अष्टाविंशोऽध्यायः।
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'आचार्य के अभिषेक की विधि का वर्णन' नामक अट्ठाईसवाँ
अध्याय पूरा हुआ ॥ २८ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 29
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