अग्निपुराण अध्याय २७

अग्निपुराण अध्याय २७           

अग्निपुराण अध्याय २७ शिष्यों को दीक्षा देने की विधि का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय २७

अग्निपुराणम् अध्यायः २७           

Agni puran chapter 27

अग्निपुराण सत्ताईसवाँ अध्याय

अग्नि पुराण अध्याय २७           

अग्निपुराणम् अध्यायः २७ - दीक्षाविधिकथनम्

नारद उवाच

वक्ष्ये दीक्षां सर्वदाञ्च मण्डलेब्जे हरिं यजेत् ।

दशम्यामुपसंहृत्य यागद्रव्यं समस्तकं ॥२७.००१

विन्यस्य नारसिंहेन सम्मन्त्र्य शतवारकं ।

सर्षपांस्तु फडन्तेन रक्षोघ्नान् सर्वतः क्षिपेत् ॥२७.००२

शक्तिं सर्वात्मकां तत्र न्यसेत्प्रासादरूपिणीं ।

सर्वौषधिं समाहृत्य विकिरानभिमन्त्रयेत् ॥२७.००३

शतवारं शुभे पात्रे वासुदेवेन साधकः ।

संसाध्य पण्जगव्यन्तु पञ्चभिर्मूलमूर्तिभिः ॥२७.००४

नारायणान्तैः सम्प्रोक्ष्य कुशाग्रैस्तेन तां भुवं।

विकिरान्वासुदेवेन क्षिपेदुत्तानपाणिना ॥२७.००५

त्रिधा पूर्वमुखस्तिष्ठन् ध्यायेत्विष्णुं तथा हृदि ।

वर्धन्या सहिते कुम्भे साङ्गं विष्णुं प्रपूजयेत् ॥२७.००६

शतवारं मन्त्रयित्वा त्वस्त्रेणैव च वर्धनीं ।

अच्छिन्नधारया सिञ्चनीशानान्तं नयेच्च तं ॥२७.००७

कलसं पृष्ठतो नीत्वा स्थापयेद्विकिरोपरि ।

संहृत्य विकिरान् दर्भैः कुम्भेशं कर्करीं यजेत् ॥२७.००८

नारदजी कहते हैंमहर्षिगण ! अब मैं सब कुछ देनेवाली दीक्षा का वर्णन करूँगा। कमलाकार मण्डल में श्रीहरि का पूजन करे। दशमी तिथि को समस्त यज्ञ सम्बन्धी द्रव्य का संग्रह एवं संस्कार (शुद्धि) करके रख ले। नरसिंह - बीज-मन्त्र (क्षौं) - से सौ बार उसे अभिमन्त्रित करके, उस मन्त्र के अन्त में 'फट्' लगाकर बोले तथा राक्षसों का विनाश करने के उद्देश्य से सब ओर सरसों छींटे । फिर वहाँ सर्वस्वरूपा प्रासादरूपिणी शक्ति का न्यास करे। सर्वोषधियों का संग्रह करके बिखेरने के उपयोग में आनेवाली सरसों आदि वस्तुओं को शुभ पात्र में रखकर साधक वासुदेव मन्त्र से उनका सौ वार अभिमन्त्रण करे। तदनन्तर वासुदेव से लेकर नारायणपर्यन्त पूर्वोक्त पाँच मूर्तियों (वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध तथा नारायण ) - के मूल मन्त्रों द्वारा पञ्चगव्य तैयार करे और कुशाग्र से पञ्चगव्य छिड़ककर उस भूमि का प्रोक्षण करे। फिर वासुदेव-मन्त्र से उत्तान हाथ के द्वारा समस्त विकिर वस्तुओं को सब ओर बिखेरे। उस समय पूर्वाभिमुख खड़ा हो, मन-ही-मन भगवान् विष्णु का चिन्तन करते हुए तीन बार उन विकिर वस्तुओं को सब ओर छींटे । तत्पश्चात् वर्धनीसहित कलश पर स्थापित भगवान् विष्णु का अङ्ग सहित पूजन करे। अस्त्र-मन्त्र से वर्धनी को सौ बार अभिमन्त्रित करके अविच्छिन्न जलधारा से सींचते हुए उसे ईशानकोण की ओर ले जाय। कलश को पीछे ले जाकर विकिर पर स्थापित करे। विकिर-द्रव्यों को कुश द्वारा एकत्र करके कुम्भेश और कर्करी का यजन करे ॥ १-८ ॥

सवस्त्रं पञ्चरत्नाढ्यं खण्डिले पूजयेद्धरिं ।

अग्नावपि समभ्यर्च्य मन्त्रान् सञ्जप्य पूर्ववत् ॥२७.००९

प्रक्षाल्य पुण्डरीकेन विलिप्यान्तः सुगन्धिना ।

उखामाज्येन संपूर्य गोक्षीरेण तु साधकः ॥२७.०१०

आलोक्य वासुदेवेन ततः सङ्कर्षणेन च ।

तण्डुलानाज्यसंसृष्टान् क्षिपेत्क्षीरे सुसंस्कृते ॥२७.०११

प्रद्युम्नेन स्मालोड्य दर्व्या सङ्घट्टयेच्छनैः ।

पक्वमुत्तारयेत्पश्चादनिरुद्धेन देशिकः ॥२७.०१२

प्रक्षाल्यालिप्य तत्कुर्यादूर्ध्वपुण्ड्रं तु भस्मना ।

नारायणेन पार्श्वेषु चरुमेवं सुसंस्कृतं ॥२७.०१३

भागमेकं तु देवाय कलशाय द्वितीयकं ।

तृतीयेन तु भागेन प्रदद्यादाहुतित्रयं ॥२७.०१४

शिष्यैः सह चतुर्थं तु गुरुरद्याद्विशुद्धये ।

नारायणेन सम्मन्त्र्य सप्तधा क्षीरवृक्षजम् ॥२७.०१५

दन्तकाष्ठं भक्षयित्वा त्यक्त्वा ज्ञात्वास्वपातकं ।

ऐन्द्राग्न्युत्तरकेशानीमुखं पतितमुत्तमं ॥२७.०१६

शुभं सिंहशतं हुत्वा आचम्याथ प्रविश्य च ।

पूजागारं न्यसेन्मन्त्री प्राच्यां विष्णुं प्रदक्षिणं ॥२७.०१७

पञ्चरत्नयुक्त सवस्त्र वेदी पर श्रीहरि की पूजा करे। अग्नि में भी उनकी अर्चना करके पूर्ववत् मन्त्रों द्वारा उनका संतर्पण करे। तत्पश्चात् पुण्डरीक*- मन्त्र से उखा (पात्रविशेष) का प्रक्षालन करके उसके भीतर सुगन्धयुक्त घी पोत दे। इसके बाद साधक उसमें गाय का दूध भरकर वासुदेव-मन्त्र से उसका अवेक्षण करे और संकर्षण मन्त्र से सुसंस्कृत किये गये दूध में घृताक्त चावल छोड़ दे। इसके बाद प्रद्युम्न मन्त्र से करछुल द्वारा उस दूध और चावल का आलोडन करके धीरे-धीरे उसे उलाटे- पलाटे। जब खीर या चरु पक जाय, तब आचार्य अनिरुद्ध मन्त्र पढ़कर उसे आग से नीचे उतार दे। तदनन्तर उस पर जल छिड़के और घृतालेपन करके हाथ में भस्म लेकर उसके द्वारा नारायण- मन्त्र से ललाट एवं पार्श्व भागों में ऊर्ध्वपुण्ड्र करे। इस प्रकार सुन्दर संस्कारयुक्त चरु के चार भाग करके एक भाग इष्टदेव को अर्पित करे, दूसरा भाग कलश को चढ़ावे, तीसरे भाग से अग्नि में तीन बार आहुति दे और चौथे भाग को गुरु शिष्यों के साथ बैठकर खाय; इससे आत्मशुद्धि होती है। (दूसरे दिन एकादशी को) प्रातः काल ऐसे वृक्ष से दाँतन ले, जो दूधवाला हो। उस दाँतन को नारायण-मन्त्र से सात बार अभिमन्त्रित कर ले। उसका दन्तशुद्धि के लिये उपयोग करके फिर उसे त्याग दे। अपने पातक का स्मरण करके पूर्व, अग्निकोण, उत्तर अथवा ईशानकोण की ओर मुँह करके अच्छी तरह स्नान करे। फिर 'शुभ' एवं 'सिद्ध' की भावना करके, अर्थात् 'मैं निष्पाप एवं शुद्ध होकर शुभ सिद्धि की ओर अग्रसर हुआ हूँ' - ऐसा अनुभव करके आचमन-प्राणायाम के पश्चात् मन्त्रोपदेष्टा गुरु भगवान् विष्णु से प्रार्थना करके उनकी परिक्रमा के पश्चात् पूजागृह में प्रवेश करे ॥ ९ - १७ ॥

* पुण्डरीक-मन्त्र-

ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा।

यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ॥

संसारार्णवमग्नानां पशूनां पाशमुक्तये ।

त्वमेव शरणं देव सदा त्वं भक्तवत्सल ॥२७.०१८

देवदेवानुजानीहि प्राकृतैः पाशबन्धनैः ।

पाशितान्मोचयिष्यामि त्वत्प्रसादात्पशूनिमान् ॥२७.०१९

इति विज्ञाप्य देवेशं सम्प्रविश्य पशूंस्ततः ।

धारणाभिस्तु संशोध्य पूर्वज्ज्वलनादिना ॥२७.०२०

संस्कृत्य मूर्त्या संयोज्य नेत्रे बद्ध्वा प्रदर्शयेत् ।

पुष्पपूर्णाञ्जलींस्तत्र क्षिपेत्तन्नाम योजयेत् ॥२७.०२१

अमन्त्रमर्चनं तत्र पूर्ववत्कारयेत्क्रमात् ।

यस्यां मूर्तौ पतेत्पुष्पं तस्य तन्नाम निर्दिशेत् ॥२७.०२२

शिखान्तसम्मितं सूत्रं पादाङ्गुष्ठादि षड्गुणं ।

कन्यासु कर्तितं रक्तं पुनस्तत्त्रिगुणीकृतम् ॥२७.०२३

यस्यां संलीयते विश्वं यतो विश्वं प्रसूयते ।

प्रकृतिं प्रक्रियाभेदैः संस्थितां तत्र चिन्तयेत् ॥२७.०२४

तेन प्राकृतिकान् पाशान् ग्रथित्वा तत्त्वसङ्ख्यया ।

कृत्वा शरावे तत्सूत्रं कुण्डपार्श्वे निधाय तु ॥२७.०२५

ततस्तत्त्वानि सर्वाणि ध्यात्वा शिष्यतनौ न्यसेत् ।

सृष्टिक्रमात्प्रकृत्यादिपृथिव्यन्तानि देशिकः ॥२७.०२६

प्रार्थना इस प्रकार करे– 'देव! संसार सागर में मग्न पशुओं को पाश से छुटकारा दिलाने के लिये आप ही शरणदाता हैं। आप सदा अपने भक्तों पर वात्सल्यभाव रखते हैं। देवदेव! आज्ञा दीजिये, प्राकृत पाश बन्धनों से बँधे हुए इन पशुओं को आज आपकी कृपा से मैं मुक्त करूँगा।' देवेश्वर श्रीहरि से इस प्रकार प्रार्थना करके पूजागृह में प्रविष्ट हो, गुरु पूर्ववत् अग्नि आदि की धारणाओं द्वारा शिष्यभूत समस्त पशुओं का शोधन करके संस्कार करने के पश्चात्, उनका वासुदेवादि मूर्तियों से संयोग करे। शिष्यों के नेत्र बाँधकर उन्हें मूर्तियों की ओर देखने का आदेश दे शिष्य उन मूर्तियों की ओर पुष्पाञ्जलि फेंकें, तदनुसार गुरु उनका नाम- निर्देश करें। पूर्ववत् शिष्यों से क्रमशः मूर्तियों का मन्त्ररहित पूजन करावे। जिस शिष्य के हाथ का फूल जिस मूर्ति पर गिरे, गुरु उस शिष्य का वही नाम रखे। कुमारी कन्या के हाथ से काता हुआ लाल रंग का सूत लेकर उसे छः गुना करके बट दे। उस छः गुने सूत की लंबाई पैर के अँगूठे से लेकर शिखा तक की होनी चाहिये। फिर उसे भी मोड़कर तिगुना कर ले। उक्त त्रिगुणित सूत में प्रक्रिया भेद से स्थित उस प्रकृति देवी का चिन्तन करे, जिसमें सम्पूर्ण विश्व का लय होता है और जिससे ही समस्त जगत्का प्रादुर्भाव हुआ करता है। उस सूत्र में प्राकृतिक पाशों को तत्त्व की संख्या के अनुसार ग्रथित करे, अर्थात् २४ गाँठें लगाकर उनको प्राकृतिक पाशों के प्रतीक समझे। फिर उस ग्रन्थियुक्त सूत को प्याले में रखकर कुण्ड के पास स्थापित कर दे। तदनन्तर सभी तत्वों का चिन्तन करके गुरु उनका शिष्य के शरीर में न्यास करे। तत्त्वों का वह न्यास सृष्टि-क्रम के अनुसार प्रकृति से लेकर पृथिवीपर्यंन्त होना चाहिये ॥ १८-- २६ ॥

तत्रैकधा पण्चधा स्याद्दशद्वादशधापि वा ।

ज्ञातव्यः सर्वभेदेन ग्रथितस्तत्त्वचिन्तकैः ॥२७.०२७

अङ्गैः पञ्चभिरध्वानं निखिलं विकृतिक्रमात् ।

तन्मात्रात्मनि संहृत्य मायासूत्रे पशोस्तनौ ॥२७.०२८

प्रकृतिर्लिङ्गशक्तिश्च कर्ता बुद्धिस्तथा मनः ।

पञ्चतन्मात्रबुद्ध्याख्यं कर्माख्यं भूतपञ्चकं ॥२७.०२९

ध्यायेच्च द्वादशात्मानं सूत्रे देहे तथेच्छया ।

हुत्वा सम्पातविधिना सृष्टेः सृष्टिक्रमेण तु ॥२७.०३०

एकैकं शतहोमेन दत्त्वा पूर्णाहुतिं ततः ।

शरावे सम्पुटीकृत्य कुम्भेशाय निवेदयेत् ॥२७.०३१

अधिवास्य यथा न्यायं भक्तं शिष्यं तु दीक्षयेत् ।

करणीं कर्तरीं वापि रजांसि खटिकामपि ॥२७.०३२

अन्यदप्युपयोगि स्यात्सर्वं तद्वायुगोचरे ।

संस्थाप्य मूलमन्त्रेण परामृश्याधिवाधिवासयेत् ॥२७.०३३

नमो भूतेभ्यश्च बलिः कुशे शेते स्मरन् हरिं ।

मण्डपं भूषयित्वाथ वितानघटलड्डुकैः ॥२७.०३४

मण्डलेथ यजेद्विष्णुं ततः सन्तर्प्य पावकं ।

आहूय दीक्षयेच्छिष्यान् बद्धपद्मासनस्थितान् ॥२७.०३५

सम्मोक्ष्य विष्णुं हस्तेन मूर्धानं स्पृश्य वै क्रमात् ।

प्रकृत्यादिविकृत्यन्तां साधिभूताधिदैवतां ॥२७.०३६

सृष्टिमाध्यात्मिकीं कृत्वा हृदि तां संहरेत्क्रमात् ।

तीन, पाँच, दस अथवा बारह जितने भी सूत्र-भेद सम्भव हों, उन सब सूत्र – भेदों के द्वारा बटे हुए उस सूत्र को ग्रथित करके देना चाहिये । तत्त्वचिन्तक पुरुषों के लिये यही उचित है। हृदय से लेकर अस्त्रपर्यन्त पाँच अङ्ग सम्बन्धी मन्त्र पढ़कर सम्पूर्ण भूतों को प्रकृतिक्रम से (अर्थात् कार्य तत्त्व का कारण तत्त्व में लय के क्रम से) तन्मात्रास्वरूप में लीन करके उस मायामय सूत्र में और पशु (जीव ) - के शरीर में भी प्रकृति, लिङ्गशक्ति, कर्ता, बुद्धि तथा मन का उपसंहार करे। तदनन्तर पञ्चतन्मात्र, बुद्धि, कर्म और पञ्चमहाभूत- इन बारह रूपों में अभिव्यक्त द्वादशात्मा का सूत्र और शिष्य के शरीर में चिन्तन करे। तत्पश्चात् इच्छानुसार सृष्टि की सम्पात विधि से हवन करके सृष्टि- क्रम से एक एक के लिये सौ-सौ आहुतियाँ देकर पूर्णाहुति करे। प्याले में रखे हुए ग्रथित सूत्र को ऊपर से ढककर उसे कुम्भेश को अर्पित करे। फिर यथोचित रीति से अधिवासन करके भक्त शिष्य को दीक्षा दे। करनी, कैंची, धूल या बालू, खड़िया मिट्टी और अन्य उपयोगी वस्तुओं का भी संग्रह करके उन सबको उसके वामभाग में स्थापित कर दे। फिर मूल मन्त्र से उनका स्पर्श करके अधिवासित करे। तत्पश्चात् श्रीहरि के स्मरणपूर्वक कुशों पर भूतों के लिये बलि दे और कहे 'नमो भूतेभ्यः।' इसके बाद चंदोवों, कलशों और लड्डुओं से मण्डप को सुसज्जित करके मण्डल के भीतर भगवान् विष्णु का पूजन करे। फिर अग्नि को घी से तृप्त करके, शिष्यों को पास बुलाकर बद्धपद्मासन से बिठावे और दीक्षा दे। बारी-बारी से उन सबका प्रोक्षण करके विष्णुहस्त से उनके मस्तक का स्पर्श करे। प्रकृति से विकृतिपर्यन्त, अधिभूत और अधिदैवतसहित सम्पूर्ण सृष्टि को आध्यात्मिक करके अर्थात् सबको अपने आत्मा में स्थित मानकर, हृदय में ही क्रमशः उसका संहार करे ॥ २७ - ३६ ॥

तन्मात्रभूतां सकलां जीवेन समतां गतां ॥२७.०३७

ततः सम्प्रार्थ्य कम्भेशं सूत्रं संहृत्य देशिकः ।

अग्नेः समीपमागत्य पार्श्वे तं सन्निवेश्य तु ॥२७.०३८

मूलमन्त्रेण सृष्टीशमाहुतीनां शतेन तं ।

उदासीनमथासाद्य पूर्णाहुत्या च देशिकः ॥२७.०३९

शुक्लं रजः समादाय मूलेन शतमन्त्रितं ।

सन्ताड्य हृदयन्तेन हुंफट्कारान्तसंयुतैः ॥२७.०४०

वियोगपदसंयुक्तैर्वीजैः पदादिभिः क्रमात् ।

पृथिव्यादीनि तत्त्वानि विश्लिष्य जुहुयात्ततः ॥२७.०४१

वह्नावखिलतत्त्वानामालये व्याहृते हरौ ।

नीयमानं क्रमात्सर्वं तत्राध्वानं स्मरेद्बुधः ॥२७.०४२

ताडनेन वियोज्यैवं आदायापाद्य शाम्यतां ।

प्रकृत्याहृत्य जुहुयाद्यथोक्ते जातवेदसि ॥२७.०४३

गर्भाधानं जातकर्म भोगञ्चैव लयन्तथा ।

शुद्धं तत्त्वं समुद्धृत्य पूर्णाहुत्या तु देशिकः ।

सन्नयेद्द्विपरे तत्त्वे यावदव्याहृतं क्रमात् ॥२७.०४५

तत्परं ज्ञानयोगेन विलाप्य परमात्मनि ।

विमुक्तबन्धनं जीवं परस्मिन्नव्यये पदे ॥२७.०४६

निवृत्तं परमानन्दे शुद्धे बुद्धे स्मरेद्बुधः ।

दद्यात्पूर्णाहुतिं पश्चादेवं दीक्षा समाप्यते ॥२७.०४७

इससे तन्मात्रस्वरूप हुई सारी सृष्टि जीव के समान हो जाती है। इसके बाद कुम्भेश्वर से प्रार्थना करके गुरु पूर्वोक्त सूत्र का संस्कार करने के अनन्तर, अग्नि के समीप आ उसको अपने पास ही रख ले। फिर मूल मन्त्र से सृष्टीश के लिये सौ आहुतियाँ दे। इसके बाद उदासीनभाव से स्थित सृष्टीश को पूर्णाहुति अर्पित करके गुरु श्वेत रज (बालू) हाथ में लेकर उसे मूल मन्त्र से सौ बार अभिमन्त्रित करे। फिर उससे शिष्य के हृदय पर ताडन करे। उस समय वियोगवाची क्रियापद से युक्त बीज- मन्त्रों एवं क्रमशः पादादि इन्द्रियों से घटित वाक्य की योजना करके अन्त में 'हुं फट्' का उच्चारण करे*। इस प्रकार पृथिवी आदि तत्त्वों का वियोग कराकर आचार्य भावना द्वारा उन्हें अग्नि में होम दे। इस तरह कार्य तत्त्वों का कारण तत्त्वों में होम अथवा लय करते हुए क्रमशः अखिल तत्त्वों के आश्रयभूत श्रीहरि में सबका लय कर दे। विद्वान् पुरुष इसी क्रम से सब तत्त्वों को श्रीहरि तक पहुँचाकर, उन सम्पूर्ण तत्त्वों के अधिष्ठान का स्मरण करे। उक्त रीति से ताडन द्वारा भूतों और इन्द्रियों से वियोग कराकर शुद्ध हुए शिष्य को अपनावे और प्रकृति से उसकी समता का सम्पादन करके पूर्वोक्त अग्नि में उसके उस प्राकृतभाव का भी हवन कर दे। फिर गर्भाधान, जातकर्म, भोग और लय का अनुष्ठान करके उस उस कर्म के निमित्त वहाँ आठ-आठ बार शुद्धयर्थ होम करे। तदनन्तर आचार्य पूर्णाहुति द्वारा शुद्ध तत्त्व का उद्धार करके अव्याकृत प्रकृतिपर्यन्त सम्पूर्ण जगत्का क्रमानुसार परम तत्त्व में लय कर दे। उस परम तत्त्व को भी ज्ञानयोग से परमात्मा में विलीन करके बन्धनमुक्त हुए जीव को अविनाशी परमात्मपद में प्रतिष्ठित करे। तत्पश्चात् विद्वान् पुरुष यह अनुभव करे कि 'शिष्य शुद्ध, बुद्ध, परमानन्द- संदोह में निमग्न एवं कृतकृत्य हो चुका है।' ऐसा चिन्तन करने के पश्चात् गुरु पूर्णाहुति दे । इस प्रकार दीक्षा – कर्म की समाप्ति होती है ॥ ३७-४७॥

* यथा - ॐ रां (नमः) कर्मेन्द्रियाणि वियुड्क्ष्व हुं फट् ॐ यं (नमः) भूतानि वियुड्क्ष्व हुं फट्।' इत्यादि ।

प्रयोगमन्त्रान् वक्ष्यामि यैर्दीक्षा होमसंलयः ।

ओं यं भूतानि विशुद्धं हुं फट्

अनेन ताडनं कुर्याद्वियोजनमिह द्वयं ॥२७.०४८

ओं यं भूतान्यापातयेहं

आदानं कृत्वा चानेन प्रकृत्या योजनं शृणु ।

ओं यं भूतानि पुंश्चाहो

होममन्त्रं प्रवक्ष्यामि ततः पूर्णाहुतेर्मनुं ॥२७.०४९

ओं भूतानि संहर स्वाहा । ओं अं ओं नमो भगवते वासुदेवाय वौषट्

पूर्णाहुत्यनन्तरे तु तद्वै शिष्यन्तु साधयेत् ।

एवं तत्त्वानि सर्वाणि क्रमात्संशोधयेद्बुधः ॥२७.०५०

नमोन्तेन स्वबीजेन ताडनादिपुरःसरम् ।

अब मैं उन प्रयोग सम्बन्धी मन्त्रों का वर्णन करता हूँ, जिनसे दीक्षा, होम और लय सम्पादित होते हैं। 'ॐ यं भूतानि वियुड्क्ष्व हुं फट् ।' (अर्थात् भूतों को मुझसे अलग करो। ) - इस मन्त्र से ताडन करने का विधान है। इसके द्वारा भूतों से वियोजन (बिलगाव) होता है। यहाँ वियोजन के दो मन्त्र हैं। एक तो वही है, जिसका ऊपर वर्णन हुआ है और दूसरा इस प्रकार है- ॐ यं भूतान्यापातयेऽहम्।' (मैं भूतों को अपने से दूर गिराता हूँ)। इस मन्त्र से 'आपातन' (वियोजन) करके पुनः दिव्य प्रकृति से यों संयोजन किया जाता है। उसके लिये मन्त्र सुनो- 'ॐ यं भूतानि युड्क्ष्व।' अब होम- मन्त्र का वर्णन करता हूँ। उसके बाद पूर्णाहुति का मन्त्र बताऊँगा। 'ॐ भूतानि संहर स्वाहा।'- यह होम-मन्त्र है और 'ॐ अं ॐ नमो भगवते वासुदेवाय अं वौषट् ।'- यह पूर्णाहुति मन्त्र है। पूर्णाहुति के पश्चात् तत्त्व में शिष्य को संयुक्त करे। विद्वान् पुरुष इसी तरह समस्त तत्त्वों का क्रमशः शोधन करे। तत्त्वों के अपने-अपने बीज के अन्त में 'नमः' पद जोड़कर ताडनादिपूर्वक तत्त्व-शुद्धि का सम्पादन करे ।। ४८- ५० ॥

ओं वां वर्मेन्द्रियाणि । ओं दें बुद्धीन्द्रियाणि

यं बीजेन समानन्तु ताडनादिप्रयोगकम् ॥२७.०५१

ओं सुंगन्धतन्मात्रे वियुङ्क्ष्व हुं फट् ।

ओं सम्पाहिं हा ॥ ओं खं खं क्ष प्रकृत्या ।

ओं सुं हुं गन्धतन्मात्रे संहर स्वाहा

ततः पूर्णाहुतिश्चैवमुत्तरेषु प्रयुज्यते ।

ओं रां रसतन्मात्रे । ओं भें रूपतन्मात्रे ।

ओं रं स्पर्शतन्मात्रे । ओं एं शब्दतन्मात्रे ।

ओं भं नमः । ओं सों अहङ्कारः ।

ओं नं बुद्धे । ओं ओं प्रकृते

एकमूर्तावयं प्रोक्तो दीक्षायोगः समासतः ।

एवमेव प्रयोगस्तु नवव्यूहादिके स्मृतः ॥२७.०५२

दग्धापरस्मिन् सन्दध्यान्निर्वाणे प्रकृतिन्नरः ।

अविकारे समादध्यादीश्वरे प्रकृतिन्नरः ॥२७.०५३

शोधयित्वाथ भुतानि कर्माङ्गानि विशोधयेत् ।

ॐ रां (नमः) कर्मेन्द्रियाणि', 'ॐ दें (नमः) बुद्धीन्द्रियाणि । इन पदों के अन्त में 'वियुङ्क्ष्व हुं फट् ।' की संयोजना करे। पूर्वोक्त 'यं' बीज के समान ही इन उपर्युक्त बीजों से भी ताडन आदि का प्रयोग होता है। 'ॐ सुं गन्धतन्मात्रे बिम्बं युङ्क्ष्व हुं फट् ।', 'ॐ सं पाहि हां ॐ स्वं स्वं युङ्क्ष्व प्रकृत्या अं जं हुं गन्धतन्मात्रे संहर स्वाहा।'- ये क्रमशः संयोजन और होम के मन्त्र हैं। तदनन्तर पूर्णाहुति का विधान है। इसी प्रकार उत्तरवर्ती कर्मों में भी प्रयोग किया जाता है। ॐ रां रसतन्मात्रे । ॐ तें रूपतन्मात्रे । ॐ वं स्पर्शतन्मात्रे । ॐ यं शब्दतन्मात्रे । ॐ मं नमः । ॐ सों अहंकारे । ॐ नं बुद्धौ । ॐ ॐ प्रकृतौ।' यह दीक्षायोग एकव्यूहात्मक मूर्ति के लिये संक्षेप से बताया गया है। नवव्यूहादिक मूर्तियों के विषय में भी ऐसा ही प्रयोग है। मनुष्य प्रकृति को दग्ध करके उसे निर्वाणस्वरूप परमात्मा में लीन कर दे। फिर भूतों की शुद्धि करके कर्मेन्द्रियों का शोधन करे ।। ५१- ५३ ॥

बुद्ध्याख्यान्यथ तन्मात्रमनोज्ञानमहङ्कृतिं ॥२७.०५४

लिङ्गात्मानं विशोध्यान्ते प्रकृतिं शोधायेत्पुनः ।

पुरुषं प्राकृतं शुद्धमीश्वरे धाम्नि संस्थितं ॥२७.०५५

स्वगोचरीकृताशेषभोगमुक्तौ कृतास्पदं ।

ध्यायन् पूर्णाहुतिं दद्याद्दीक्षेयं त्वधिकारिणी ॥२७.०५६

अङ्गैराराध्य मन्त्रस्य नीत्वा तत्त्वगणं समं ।

क्रमादेवं विशोध्यान्ते सर्वसिद्धिसमन्वितं ॥२७.०५७

ध्यायन् पूर्णाहितिं दद्यात्दीक्षेयं साधके स्मृता ।

द्रव्यस्य वा न सम्पत्तिरशक्तिर्वात्मनो यदि ॥२७.०५८

इष्ट्वा देवं यथा पूर्वं सर्वोपकरणान्वितं ।

सद्योधिवास्य द्वादश्यां दीक्षयेद्देशिकोत्तमः ॥२७.०५९

भक्तो विनीतः शारीरैर्गुणैः सर्वैः समन्वितः ।

शिष्यो नातिधनी यस्तु स्थण्डिलेभ्यर्च्य दीक्षयेत् ॥२७.०६०

अध्वानं निखिलं दैवं भौतं वाध्यात्मिकी कृतं ।

सृष्टिक्रमेण शिष्यस्य देहे ध्यात्वा तु देशिकः ॥२७.०६१

अष्टाष्टाहुतिभिः पूर्वं क्रमात्सन्तर्प्य सृष्टिमान् ।

स्वमन्त्रैर्वासुदेवादीन् जननादीन् विसर्जयेत् ॥२७.०६२

होमेन शोधयेत्पश्चात्संहारक्रमयोगतः ।

तत्पश्चात् ज्ञानेन्द्रियों का, तन्मात्राओं का मन, बुद्धि एवं अहंकार का तथा लिङ्गात्मा का शोधन करके सबके अन्त में पुनः प्रकृति की शुद्धि करे। 'शुद्ध हुआ प्राकृत पुरुष ईश्वरीय धाम में प्रतिष्ठित है। उसने सम्पूर्ण भोगों का अनुभव कर लिया है और अब वह मुक्तिपद में स्थित है।' इस प्रकार ध्यान करे और पूर्णाहुति दे। यह अधिकार प्रदान करनेवाली दीक्षा है। पूर्वोक्त मन्त्र के अङ्ग द्वारा आराधना करके, तत्त्वसमूह को समभाव (प्रकृत्यवस्था) में पहुँचाकर, क्रमशः इसी रीति से शोधन करके, अन्त में साधक अपने को सम्पूर्ण सिद्धियों से युक्त परमात्मरूप से स्थित अनुभव करते हुए पूर्णाहुति दे यह साधकविषयक दीक्षा कही गयी है। यदि यज्ञोपयोगी द्रव्य का सम्पादन (संग्रह) न हो सके, अथवा अपने में असमर्थता हो तो समस्त उपकरणों सहित श्रेष्ठ गुरु पूर्ववत् इष्टदेव का पूजन करके, तत्काल उन्हें अधिवासित करके, द्वादशी तिथि में शिष्य को दीक्षा दे दे। जो गुरुभक्त, विनयशील एवं समस्त शारीरिक सद्गुणों से सम्पन्न हो, ऐसा शिष्य यदि अधिक धनवान् न हो तो वेदी पर इष्टदेव का पूजनमात्र करके दीक्षा ग्रहण करे। आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक, सम्पूर्ण अध्वा का सृष्टिक्रम से शिष्य के शरीर में चिन्तन करके, गुरु पहले बारी-बारी से आठ आहुतियों द्वारा एक- एक की तृप्ति करने के पश्चात् सृष्टिमान् हो, वासुदेव आदि विग्रहों का उनके निज-निज मन्त्रों द्वारा पूजन एवं हवन करे और हवन-पूजन के पश्चात् अग्नि आदि का विसर्जन कर दे। तत्पश्चात् पूर्वोक्त होम द्वारा संहारक्रम से तत्त्वों का शोधन करे॥५४-६२॥

योनिसूत्राणि बद्धानि मुक्त्वा कर्माणि देशिकः ॥२७.०६३

शिष्यदेहात्समाहृत्य क्रमात्तत्त्वानि शोधयेत् ।

अग्नौ प्राकृतिके विष्णौ लयं नीत्वाधिदैवके ॥२७.०६४

शुद्धं तत्त्वमशुद्धेन पूर्णाहुत्या तु साधयेत् ।

शिष्ये प्रकृतिमापन्ने दग्ध्वा प्राकृतिकान् गुणान् ॥२७.०६५

मौचयेदधिकारे वा नियुञ्ज्याद्देशिकः शिशून् ।

अथान्यान् शक्तिदीक्षां वा कुर्यात्भावे स्थितो गुरुः ॥२७.०६६

भक्त्या सम्प्रातिपन्नानां यतीनां निर्धनस्य च ।

सम्पूज्य स्थण्डिले विष्णुं पार्श्वस्थं स्थाप्य पुत्रकं ॥२७.०६७

देवताभिमुखः शिष्यस्तिर्यगास्यः स्वयं स्थितः ।

अध्वानं निखिलं ध्यात्वा पर्वभिः स्वैर्विकल्पितं ॥२७.०६८

शिष्यदेहे तथा देवमाधिदैविकयाचनं ।

ध्यानयोगेन सञ्चिन्त्य पूर्ववत्ताडनादिना ॥२७.०६९

क्रमात्तत्त्वानि सर्वाणि शोधयेत्स्थण्डिले हरौ ।

ताडनेन वियोज्याथ गृहीत्वात्मनि तत्परः ॥२७.०७०

देवे संयोज्य संशोध्य गृहीत्वा तत्स्वभावतः ।

आनीय शुद्धभावेन सन्धयित्वा क्रमेण तु ॥२७.०७१

शोधयेद्ध्यानयोगेन सर्वतो ज्ञानमुद्रया ।

दीक्षाकर्म में पहले जिन सूत्रों में गाँठें बाँधी गयी थीं, उनकी वे गाँठें खोल, गुरु उन्हें शिष्य के शरीर से लेकर, क्रमशः उन तत्त्वों का शोधन करे। प्राकृतिक अग्नि एवं आधिदैविक विष्णु में अशुद्ध- मिश्रित शुद्ध तत्त्व को लीन करके पूर्णाहुति द्वारा शिष्य को उस तत्त्व से संयुक्त करे। इस प्रकार शिष्य प्रकृतिभाव को प्राप्त होता है। तत्पश्चात् गुरु उसके प्राकृतिक गुणों को भावना द्वारा दग्ध करके उसे उनसे छुटकारा दिलावे। ऐसा करके वे शिशुस्वरूप उन शिष्यों को अधिकार में नियुक्त करें। तदनन्तर भाव में स्थित हुआ आचार्य भक्तिभाव से शरण में आये हुए यतियों तथा निर्धन शिष्य को 'शक्ति' नामवाली दूसरी दीक्षा दे। वेदी पर भगवान् विष्णु की पूजा करके पुत्र (शिष्यविशेष) - को अपने पास बिठा ले। फिर शिष्य देवता के सम्मुख हो तिर्यग्-दिशा की ओर मुँह करके स्वयं बैठे। गुरु शिष्य के शरीर में अपने ही पर्वों से कल्पित सम्पूर्ण अध्वा का ध्यान करके आधिदैविक यजन के लिये प्रेरित करनेवाले इष्टदेव का भी ध्यानयोग के द्वारा चिन्तन करे। फिर पूर्ववत् ताडन आदि के द्वारा क्रमशः सम्पूर्ण तत्त्वों का वेदीगत श्रीहरि में शोधन करे। ताडन द्वारा तत्त्वों का वियोजन करके उन्हें आत्मा में गृहीत करे और पुनः इष्टदेव के साथ उनका संयोजन एवं शोधन करके, स्वभावतः ग्रहण करने के अनन्तर ले आकर क्रमशः शुद्ध तत्त्व के साथ संयुक्त करे। सर्वत्र ध्यानयोग एवं उत्तान मुद्रा द्वारा शोधन करे ॥ ६३-७१ ॥

शुद्धेषु सर्वतत्त्वेषु प्रधाने चेश्वरे स्थिते ॥२७.०७२

दग्ध्वा निर्वापयेच्छिष्यान् पदे चैशे नियोजयेत् ।

निनयेत्सिद्धिमार्गे वा साधकं देशिकोत्तमः ॥२७.०७३

एवमेवाधिकारस्थो गृही कर्मण्यतन्द्रितः ।

आत्मानं शोधयंस्तिष्ठेद्यावद्रागक्षयो भवेत् ॥२७.०७४

क्षीणरागमथात्मानं ज्ञात्वा संशुद्धिकिल्विषः ।

आरोप्य पुत्रे शिष्ये वा ह्यधिकारन्तु संयमी ॥२७.०७५

दग्ध्वा मायामयं पाशं प्रव्रज्य स्वात्मनि स्थितः ।

शरीरपातमाकाङ्क्षन्नासीताव्यक्तलिङ्गवान् ॥२७.०७६

सम्पूर्ण तत्त्वों की शुद्धि हो जाने पर जब प्रधान (प्रकृति) तथा परमेश्वर स्थित रह जायें, तब पूर्वोक्त रीति से प्रकृति को दग्ध करके शुद्ध हुए शिष्यों को परमेश्वरपद में प्रतिष्ठित करे। श्रेष्ठ गुरु साधक को इस तरह सिद्धिमार्ग से ले चले। अधिकारारूढ़ गृहस्थ भी इसी प्रकार आलस्य छोड़कर समस्त कर्मों का अनुष्ठान करे। जबतक राग (आसक्ति) का सर्वथा नाश न हो जाय, तबतक आत्म शुद्धि का सम्पादन करता रहे। जब यह अनुभव हो जाय कि 'मेरे हृदय का राग सर्वथा क्षीण हो गया है, तब पाप से शुद्ध हुआ संयमशील पुरुष अपने पुत्र या शिष्य को अधिकार सौंपकर मायामय पाश को दग्ध करके संन्यास ले, आत्मनिष्ठ हो, देहपात की प्रतीक्षा करता रहे। अपनी सिद्धि सम्बन्धी किसी चिह्न को दूसरों पर व्यक्त न होने दे ॥ ७२- ७६ ॥

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये सर्वदीक्षाकथनं नाम सप्तविंशोध्यायः॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'सर्वदीक्षा-विधि-कथन' नामक सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २७ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 28 

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