अग्निपुराण अध्याय ३०

अग्निपुराण अध्याय ३०             

अग्निपुराण अध्याय ३० भद्रमण्डल आदि की पूजन विधि का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय ३०

अग्निपुराणम् अध्यायः ३०             

Agni puran chapter 30

अग्निपुराण तीसवाँ अध्याय

अग्नि पुराण अध्याय ३०             

अग्निपुराणम् अध्यायः ३०- मण्डलविधिः

नारद उवाच

मध्ये पद्मे यदेद्‌ब्रह्म साङ्गं पूर्वेब्जनाभकम्।

आग्नेयेब्जे च प्रकृतिं याम्येब्जे पुरुषं यजेत् ।। १ ।।

पुरुषाद्दशिणे वह्निं नैर्ऋते वारुणेनिलम्।

आदित्यमैन्दवे पद्मे ऋग्‌यजुश्चैशपद्मके ।। २ ।।

इन्द्रादींश्च द्वितीयायां पद्मे षोडशके तथा।

सामाथर्वाणमाकाशं वायु तेजस्तता जलम् ।। ३ ।।

पृथिवीञ्च मनश्चैव श्रोत्रं त्वक् चक्षुरर्च्चयेत्।

रसनाञ्च तथा घ्राणं भूर्भुवश्चैव षोडशम् ।। ४ ।।

नारदजी कहते हैं- मुनिवरो ! पूर्वोक्त भद्रमण्डल के मध्यवर्ती कमल में अङ्गसहित ब्रह्म का पूजन करना चाहिये। पूर्ववर्ती कमल में भगवान् पद्मनाभ का, अग्निकोणवाले कमल में प्रकृतिदेवी का तथा दक्षिण दिशा के कमल में पुरुष की पूजा करनी चाहिये। पुरुष के दक्षिण भाग में अग्निदेवता की, नैर्ऋत्यकोण में निर्ऋति की, पश्चिम दिशावाले कमल में वरुण की, वायव्यकोण में वायु की, उत्तर दिशा के कमल में आदित्य की तथा ईशानकोणवाले कमल में ऋग्वेद एवं यजुर्वेद का पूजन करे। द्वितीय आवरण में इन्द्र आदि दिक्पालों का और षोडशदलवाले कमल में क्रमशः सामवेद, अथर्ववेद, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथिवी, मन, श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना,घ्राणेन्द्रिय, भूर्लोक, भुवर्लोक तथा सोलहवें में स्वर्लोक का पूजन करना चाहिये ॥ १-४ ॥

महर्जनस्तपः सत्यं तथाग्निष्टोममेव च।

अत्यग्निष्टोमकं चौक्‌थं षोडशीं वाजपेयकम् ।। ५ ।।

अतिरात्रञ्च सम्पूज्य तथाप्तोर्याममर्च्चयेत्।

मनो बुद्धिमहङ्कारं शब्दं स्पर्शञ्च रूपकम् ।। ६ ।।

रसं गन्धञ्च पद्मे षु चतुर्विंशतिषु क्रमात्।

जीवं मनोधिपञ्चाहं प्रकृतिं शब्दमात्रकम् ।। ७ ।।

वासुदेवादिमूर्त्तिंश्च तथा चैव दशात्मकम्।

मनः श्रोत्रं त्वचं प्रार्च्च्य चक्षुश्च रसनं तथा ।। ८ ।।

घ्राणं वाक्‌पाणिपादञ्च द्वात्रिंशद्वारिजेष्विमान्।

चतुर्थावरणे पूज्याः साङ्गाः सपरिवारकाः ।। ९ ।।

तदनन्तर तृतीय आवरण में चौबीस दलवाले कमल में क्रमशः महर्लोक, जनलोक, तपोलोक, सत्यलोक,अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र, आप्तोर्याम, व्यष्टि मन, व्यष्टि बुद्धि, व्यष्टि अहंकार, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, जीव, समष्टि मन, समष्टि बुद्धि (महत्तत्त्व), समष्टि अहंकार तथा प्रकृति- इन चौबीस की अर्चना करे। इन सबका स्वरूप शब्दमात्र है-अर्थात् केवल इनका नाम लेकर इनके प्रति मस्तक झुका लेना चाहिये।इनकी पूजा में इनके स्वरूप का चिन्तन अनावश्यक है। पचीसवें अध्याय में कथित वासुदेवादि नौ मूर्ति, दशविध प्राण, मन, बुद्धि, अहंकार, पायु और उपस्थ, श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना, प्राण, वाक् पाणि और पाद - इन बत्तीस वस्तुओं की बत्तीस दलवाले कमल में अर्चना करनी चाहिये। ये चौथे आवरण के देवता हैं। उक्त आवरण में इनका साङ्ग एवं सपरिवार पूजन होना चाहिये ॥ ५-९ ॥

पायूपस्थौ च सम्पूज्य मासानां द्वादशाधिपान्।

पुरुषोत्तमादिषड्‌विशानं बाह्यावरणकेयजेत् ।। १० ।।

चक्राब्जे तेषु सम्पूज्या मासानां पतयः क्रमात्।

अष्टौ प्रकृतयः षड् वा पञ्चाथ चतुरोऽपरे ।। ११ ।।

रजः पातं ततः कुर्य्याल्लिखिते मण्डले श्रृणु।

तदनन्तर बाह्य आवरण में पायु और उपस्थ की पूजा करके बारह मासों के बारह अधिपतियों का तथा पुरुषोत्तम आदि छब्बीस तत्त्वों का यजन करे। उनमें से जो मासाधिपति हैं, उनका चक्राब्ज में क्रमशः पूजन करना चाहिये। आठ, छः, पाँच या चार प्रकृतियों का भी पूजन वहीं करना चाहिये। तदनन्तर लिखित मण्डल में विभिन्न रंगों के चूर्ण डालने का विधान है। कहाँ, किस रंग के चूर्ण का उपयोग है, यह सुनो।

कर्णिका पीतवर्णा स्याद्रेशाः सर्वाः सिताः समाः ।। १२ ।।

द्विहस्तेऽङ्गुष्ठमात्राः स्युर्हस्ते चार्द्धसमाः सिताः।

पद्मं शुक्लेनसन्धींस्तु कृष्णेन श्यामतोथवा ।। १३ ।।

केशरा रक्तपीताः स्युः कोणान् रक्तेन पूरयेत्।

भूषयेद्‌योगपीठन्तु यथेष्टं सार्ववर्णिकैः ।। १४ ।।

लतावितानपत्राद्यैर्वींथिकामुपशोभयेत।

पीठद्वारे तु शुक्लेन शोभारक्तेन पीततः ।। १५ ।।

उपसोभाञ्च नीलेन कोणशंशाँस्च वै सितान्।

भद्रके पूरणं प्रोक्तमेवमन्येषु पूरणम् ।। १७ ।।

कमल की कर्णिका पीले रंग की होनी चाहिये। समस्त रेखाएँ बराबर और श्वेत रंग की रहें। दो हाथ के मण्डल में रेखाएँ अँगूठे के बराबर मोटी होनी चाहिये। एक हाथ के मण्डल में उनकी मोटाई आधे अँगूठे के समान रखनी चाहिये। रेखाएँ श्वेत बनायी जायें। कमल को श्वेत रंग से और संधियों को काले या श्याम (नीले) रंग से रँगना चाहिये। केसर लाल-पीले रंग के हों। कोणगत कोष्ठों को लाल रंग के चूर्ण से भरना चाहिये। इस प्रकार योगपीठ को सभी तरह के रंगों से यथेष्ट विभूषित करना चाहिये । लता वल्लरियों और पत्तों आदि से वीथी की शोभा बढ़ावे। पीठ के द्वार को श्वेत रंग से सजावे और शोभास्थानों को लाल रंग के चूर्ण से भरे । उपशोभाओं को नीले रंग से विभूषित करे। कोणों के शङ्खों को श्वेत चित्रित करे। यह भद्र-मण्डल में रंग भरने की बात बतायी गयी है। अन्य मण्डलों में भी इसी तरह विविध रंगों के चूर्ण भरने चाहिये। त्रिकोण मण्डल को श्वेत, रक्त और कृष्ण रंग से अलंकृत करे। द्विकोण को लाल और पीले से रँगे। चक्राब्ज में जो नाभिस्थान है, उसे कृष्ण रंग के चूर्ण से विभूषित करे ॥ १० १७ ॥

त्रिकोणं सिंतरक्तेन कृष्णेन च विभूषयेत्।

द्विकोणं रक्तपीताभ्यां नाभिं कृष्णेन चक्के ।। १७ ।।

अरकान् पीतरक्ताभिः श्यामान् नेमिन्तुरक्ततः।

सितश्यामारुणाः सृष्णाः पीता रेखास्तु बाह्यतः ।। १८ ।।

शालिपिष्टादि शुक्लं स्याद्रक्तं कौसुम्भकादिकम्।

हरिद्रया च हारिद्रं कृष्णं स्याद्दग्धधान्यतः ।। १९ ।।

शमीपत्रादिकैः श्यामं वीजानां लक्षजाप्यतः।

चतुर्लक्षैम्तु मन्त्राणां विद्यानां लक्षसाधनम् ।। २० ।।

अयुतं बुद्धविद्यानां स्तोत्राणाञ्च सहस्त्कम्।

पूर्ब्वमेवाथ लक्षेण मन्त्रसुद्धिस्तथात्मनः ।। २१ ।।

तथापरेण लक्षेण मन्त्रः क्षेत्रीकृतो भवेत्।

कूर्वमेवासमो होमो वीजानां सम्प्रकीर्तितः ।। २२ ।।

पूर्वसेवा दशांशेन मन्त्रादीनां प्रकीर्त्तिता।

पुरश्चर्य्ये तु भन्त्रे तु मासिकं व्रतमाचरेत् ।। २३ ।।

भुवि न्यसेद्वामपादं न गृह्णीयात् प्रतिग्रहम्।

एवं द्वित्रिगुणेनैव मध्यमोत्तमसिद्धयः ।। २४ ।।

मन्त्रध्यानं प्रवक्ष्यामि येन स्यान्मन्त्रजं फलम्।

स्थूलं शब्दमयं रूपं विग्रहं बाह्यमिष्यते ।। २५ ।।

सूक्ष्मं ज्योतिर्म्मयं रूपं हार्द्दं चिन्तामयं भवेत्।

चिन्तया रहितं यत्तु तत् परं परिकीर्त्तितम् ।। २६ ।।

वराहसिंहशक्तीनां स्थूलरूपं प्रधानतः।

चिन्तया रहितं रूपं वासुदेवस्य कीर्त्तितम् ।। २७ ।।

चक्राब्ज के अरों को पीले और लाल रंगों से रँगे । नेमि को नीले तथा लाल रंग से सजावे और बाहर की रेखाओं को श्वेत, श्याम, अरुण, काले एवं पीले रंगों से रँगे। अगहनी चावल का पीसा हुआ चूर्ण आदि श्वेत रंग का काम करता है। कुसुम्भ आदि का चूर्ण लाल रंग की पूर्ति करता है। पीला रंग हल्दी के चूर्ण से तैयार होता है। जले हुए चावल के चूर्ण से काले रंग की आवश्यकता पूर्ण होती है। शमी पत्र आदि से श्याम रंग का काम लिया जाता है। बीज मन्त्रों का एक लाख जप करने से, अन्य मन्त्रों का उनके अक्षरों के बराबर लाख बार जप करने से, विद्याओं को एक लक्ष जपने से, बुद्ध – विद्याओं को दस हजार बार जपने से, स्तोत्रों का एक सहस्र बार पाठ करने से अथवा सभी मन्त्रों को पहली बार एक लाख जप करने से उन मन्त्रों की तथा अपनी भी शुद्धि होती है। दूसरी बार एक लाख जपने से मन्त्र क्षेत्रीकृत होता है। बीज मन्त्रों का पहले जितना जप किया गया हो, उतना ही उनके लिये होम का भी विधान है। अन्य मन्त्रादि के होम की संख्या पूर्वजप के दशांश के तुल्य बतायी गयी है। मन्त्र से पुरश्चरण करना हो तो एक-एक मास का व्रत ले। पृथ्वी पर पहले -बायाँ पैर रखे। किसी से दान न ले। इस प्रकार दुगुना और तिगुना जप करने से ही मध्यम और उत्तम श्रेणी की सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। अब मैं मन्त्र का ध्यान बताता हूँ, जिससे मन्त्र जपजनित फल की प्राप्ति होती है। मन्त्र का स्थूलरूप शब्दमय है; इसे उसका बाह्य विग्रह माना गया है। मन्त्र का सूक्ष्मरूप ज्योतिर्मय है। यही उसका आन्तरिक रूप है। यह केवल चिन्तनमय है। जो चिन्तन से भी रहित है, उसे 'पर' कहा गया है। वाराह, नरसिंह तथा शक्ति के स्थूल रूप की ही प्रधानता है। वासुदेव का रूप चिन्तनरहित (अचिन्त्य ) कहा गया है ॥ १८ - २७ ॥

इतरेषां स्मृतं रूपं हार्द्दं चिन्तामयं सदा।

स्थूलं वैराजमाख्यातं सूक्ष्मं वै लिङ्गितं भवेत् ।। २८ ।।

चिन्तया रहितं रूपमैश्वरं परिकीर्त्तितम्।

हृत्पुण्डरीकनिलयञ्चैतन्यं ज्योतिरव्ययम् ।। २९ ।।

वीजं वीजात्कमं ध्यायेत् कदम्बकुसुमाकृतिम्।

कुम्भान्तरगतो दीपो निरुद्धप्रसवो यथा ।। ३० ।।

संहतः केवलस्तिष्ठेदेवं मन्त्रेश्वरो हृदि।

अनेकशुषिरे कुम्भे तावन्मात्रा गभस्तयः ।। ३१ ।।

प्रसरन्ति वहिस्तद्वन्नाडीभिर्वीजरश्मयः।

अथावभासतो दैवीमात्मीकृत्य तनुं स्थिताः ।। ३२ ।।

हृदयात् प्रस्थिता नाड्यो दर्शनेन्द्रियगोचराः।

अग्नीषोमात्मके तासां नाड्यौ नासाग्रसंस्थिते ।। ३३ ।।

सम्यग्गुह्येन योगेन जित्वा देहसमीरणम्।

जपध्यानरतो मन्त्री मन्त्रलक्षणमस्नुते ।। ३४ ।।

संशुद्ध भूततन्मात्रः सकामो योगमभ्यसन्।

अणिमादिमवाप्नोति विरक्तः प्रबिलङ्‌ध्य च ।। ३५ ।।

देवात्मके भूतमात्रान्मुच्यते चेन्द्रियग्रहात् ।। ३६ ।।

अन्य देवताओं का चिन्तामय आन्तरिक रूप ही सदा 'मुख्य' माना गया है। 'वैराज' अर्थात् विराट् का स्वरूप 'स्थूल' कहा गया है। लिङ्गमय स्वरूप को 'सूक्ष्म' जानना चाहिये। ईश्वर का जो स्वरूप बताया गया है, वह चिन्तारहित है। बीज-मन्त्र हृदयकमल में निवास करनेवाला, अविनाशी, चिन्मय, ज्योतिःस्वरूप और जीवात्मक है। उसकी आकृति कदम्ब-पुष्प के समान हैइस तरह ध्यान करना चाहिये। जैसे घड़े के भीतर रखे हुए दीपक की प्रभा का प्रसार अवरुद्ध हो जाता है; वह संहतभाव से अकेला ही स्थित रहता है; उसी प्रकार मन्त्रेश्वर हृदय में विराजमान हैं। जैसे अनेक छिद्रवाले कलश में जितने छेद होते हैं, उतनी ही दीपक की प्रभा की किरणें बाहर की ओर फैलती हैं, उसी तरह नाडियों द्वारा ज्योतिर्मय बीजमन्त्र की रश्मियाँ आँतों को प्रकाशित करती हुई दैव-देह को अपनाकर स्थित हैं। नाडियाँ हृदय से प्रस्थित हो नेत्रेन्द्रियों तक चली गयी हैं। उनमें से दो नाडियाँ अग्नीषोमात्मक हैं, जो नासिकाओं के अग्रभाग में स्थित हैं। मन्त्र का साधक सम्यक् उद्धात योग से शरीरव्यापी प्राणवायु को जीतकर जप और ध्यान में तत्पर रहे तो वह मन्त्रजनित फल का भागी होता है।पञ्चभूततन्मात्राओं- की शुद्धि करके योगाभ्यास करनेवाला साधक यदि सकाम हो तो अणिमा आदि सिद्धियों को पाता है और यदि विरक्त हो तो उन सिद्धियों को 'लाँघकर, चिन्मय स्वरूप से स्थित हो, भूतमात्र से तथा इन्द्रियरूपी ग्रह से सर्वथा मुक्त हो जाता है । २८ - ३६ ॥

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये मण्डलादिवर्णनं नाम त्रिंशोऽध्यायः।

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'भद्र मण्डलादिविधि-कथन' नामक तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ३० ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 31 

अग्निपुराण के पूर्व के अंक पढ़ें-

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अध्याय 16              अध्याय 17         अध्याय 18         अध्याय 19     अध्याय 20 

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