अग्निपुराण अध्याय १९
अग्निपुराण अध्याय १९ कश्यप आदि के
वंश का वर्णन है।
अग्निपुराणम् अध्यायः १९
Agni puran chapter 19
अग्निपुराण उन्नीसवाँ अध्याय
अग्नि पुराण अध्याय १९
अग्निपुराणम् अध्यायः १९- कश्यपवंशवर्णनम्
अग्निरुवाच
कश्यपस्य वदे सर्गमदित्यादिषु हे
मुने।
चाक्षुषे तुषिता देवास्तेऽदेत्यां
कश्यपात्पुनः ।। १ ।।
आसन् विष्णुश्च शक्रश्च त्वष्टा
धाता तथार्य्थमा ।
पूषा विवस्वान् सविता मित्रोथ वरुणो
भगः ।। २ ।।
अंशुश्च द्वादशादित्या आसन्
वैवस्वतेन्तरे।
अरिष्टनेमिपत्नीनामपत्यानीह षोडश ।।
३ ।।
बहुपुत्रस्थ विदुषश्चतस्त्रो
विद्युतः सुताः ।
प्रत्यङ्गिरसजाः श्रेष्ठाः
कृशाश्वस्य सुरायुदाः ।। ४ ।।
अग्निदेव बोले- हे मुने! अब मैं
अदिति आदि दक्ष कन्याओं से उत्पन्न हुई कश्यपजी की सृष्टि का वर्णन करता
हूँ-चाक्षुष मन्वन्तर में जो तुषित नामक बारह देवता थे,
वे ही पुन: इस वैवस्वत मन्वन्तर में कश्यप के अंश से अदिति के गर्भ
में आये थे। वे विष्णु, शक्र (इन्द्र), त्वष्टा, धाता, अर्यमा,
पूषा, विवस्वान्, सविता,
मित्र, वरुण, भग और अंशु
नामक बारह आदित्य* हुए। अरिष्टनेमि की चार
पत्रियों से सोलह संतानें उत्पन्न हुईं। विद्वान् बहुपुत्र के [उनकी दो पत्नियों से
कपिला, लोहिता आदि के भेद से] चार प्रकार की विद्युत्स्वरूपा
कन्याएँ उत्पन्न हुई। अङ्गिरा मुनि से (उनकी दो पत्नियों द्वारा) श्रेष्ठ ऋचाएँ
हुई तथा कृशाश्व के भी [उनकी दो पत्नियों से] देवताओं के दिव्य आयुध* उत्पन्न हुए ॥ १-४ ॥
*१. यहाँ दी हुई आदित्यों
की नामावली हरिवंश हरिवंशपर्वगत तीसरे अध्याय में श्लोक संख्या ६०-६१ में कथित
नामावली से ठीक-ठीक मिलती है।
*२. प्रत्यङ्गिरसा
श्रेष्ठाः कृशाश्वस्य सुरायुधाः।' इस अर्धाली में पूरे एक श्लोक का भाव संनिविष्ट है। अतः
उस सम्पूर्ण श्लोक पर दृष्टि न रखी जाय तो अर्थ को समझने में भ्रम होता है। हरिवंश
के निम्नाङ्कित (हरि० ३।६५) श्लोक से उपर्युक्त पक्तियों का भाव पूर्णतः स्पष्ट
होता है-
प्रत्यङ्गिरसाः श्रेष्ठा
ऋचो ब्रह्मर्षिसत्कृताः।
कृशाश्वस्य तु
राजर्षेर्देवप्रहरणानि च ॥
सम्पूर्ण दिव्यास्त्र
कृशाश्व के पुत्र हैं, इस विषय
में वा० रामायण बाल०, सर्ग २१ के श्लोक १३-१४ तथा
मत्स्यपुराण ६।६ द्रष्टव्य हैं।
उदयास्तमने सूर्ये तद्वदेते युगे
युगे।
हिरण्यकशिपुर्द्दित्यां
हिरण्याक्षश्च कश्यपात् ।। ५ ।।
सिंहिका चाभवत् कन्या विप्रचित्तेः
परिग्रहः।
राहुप्रभृतयस्तस्यां सैंहिकेया इति
श्रुताः ।। ६ ।।
हिरण्यकशिपोः पुत्रास्चत्वारः
प्रथितौजसः।
अनुह्रादश्च ह्लादश्च
प्रह्रादश्चातिवैष्णवः ।। ७ ।।
संह्रादश्च चतुर्थोभूत् ह्रादपुत्रो
ह्रदस्तथा।
ह्रदस्य पुत्र आयुष्मान्
शिबिर्वास्कल एव च ।। ८ ।।
विरोजनस्तु प्राह्रादिर्बलिर्जज्ञे
विरोचनात्।
बलेः पुत्रशतं त्वासीद्बाणश्रेष्ठं
महामुने ।। ९ ।।
पुरा कल्पे हि वाणेन
प्रसाद्योमापतिं वरः ।
पार्श्वतो विहरिष्यामीत्येवं
प्राप्तश्च ईश्वरात् ।। १० ।।
हिरण्याक्षसुताः पञ्च सम्बरः
शकुनिस्त्विति ।
द्विमूर्द्धा शह्कुरार्यस्च शतमासन्
दनोः सुताः ।। ११ ।।
जैसे आकाश में सूर्य के उदय और
अस्तभाव बारंबार होते रहते हैं, उसी प्रकार
देवता लोग युग-युग में (कल्प-कल्प में) उत्पन्न [एवं विनष्ट] होते रहते हैं।* कश्यपजी से उनकी पत्नी दिति के गर्भ से
हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नामक पुत्र उत्पन्न हुए। फिर सिंहिका नामवाली एक कन्या
भी हुई, जो विप्रचित्ति नामक दानव की पत्नी हुई। उसके गर्भ
से राहु आदि की उत्पत्ति हुई, जो 'सैंहिकेय'
नाम से विख्यात हुए। हिरण्यकशिपु के चार पुत्र हुए, जो अपने बल पराक्रम के कारण विख्यात थे। इनमें पहला ह्लाद, दूसरा अनुह्लाद और तीसरे प्रह्लाद हुए, जो महान्
विष्णुभक्त थे और चौथा संह्लाद था। ह्लाद का पुत्र हृद हुआ। संह्लाद के पुत्र
आयुष्मान् शिवि और वाष्कल थे। प्रह्लाद का पुत्र विरोचन हुआ और विरोचन से बलि का
जन्म हुआ। हे महामुने! बलि के सौ पुत्र हुए, जिनमें बाणासुर
ज्येष्ठ था। पूर्वकल्प में इस बाणासुर ने भगवान् उमापति को [भक्तिभाव से] प्रसन्न
कर उन परमेश्वर से यह वरदान प्राप्त किया था कि 'मैं आपके
पास ही विचरता रहूंगा।' हिरण्याक्ष के पाँच पुत्र थे- शम्बर,
शकुनि, द्विमूर्धा, शङ्कु
और आर्य। कश्यपजी की दूसरी पत्नी दनु के गर्भ से सौ दानवपुत्र उत्पन्न हुए ॥ ५- ११
॥
* इस अर्धाली के भाव को
समझने के लिये भी हरिवंश के निम्राङ्कित श्लोक पर दृष्टिपात करना आवश्यक है-
एते युगसहस्रान्ते जायनो
पुनरेव हि । सर्वदेवगणास्तात त्रयविशतु कामजा ॥ (हरि०, हरि०
३।६६ )
- यही भाव मत्स्यपुराण ६।७
में भी आया है।
स्वर्भानोस्तु प्रभा कन्या
पुलोम्नस्तु शची स्मृता।
उपदानवी हयशिरा शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी ।। १२ ।।
पुलोमा कालका चैव वैश्वानरसुते उभे।
कश्यपस्प तु भार्ये द्वे तयोः
पुत्रास्च कोटयः ।। १३ ।।
प्रह्रादस्य चतुष्कोट्यो निवातकवचाः
कुले।
ताम्रायाः षट् सुताः स्युश्च काकी
श्वेनी च भास्यपि ।। १४ ।।
गृध्रिका श्रुचि सुग्रीवा ताभ्यः
काकादयोऽभवन्।
अश्वाश्चोष्ट्राश्च ताम्राया अरुणो
गरुडस्तथा ।। १५ ।।
विनतायाः सहस्त्रन्तु सर्पाश्च
सुरसाभवाः।
काद्रवेयाः सहस्त्रन्तु
शेषवासुकितक्षकाः ।। १६ ।।
दंष्ट्रिणः क्रोधवशजा
धरोत्याःपक्षिणो जले।
सुरभ्यां गोमहिष्यादि
हरोत्पन्नास्तृणादयः ।। १७ ।।
खसायां यक्षरक्षांसि
मुनेरप्सरसोभवत्।
अरिष्टायान्तु गन्धर्वाः कश्यपाद्धि
स्थिरञ्चरम् ।। १८ ।।
इनमें स्वर्भानु की कन्या सुप्रभा
थी और पुलोमा दानव की पुत्री थी शची। उपदानव की कन्या हयशिरा थी और वृषपर्वा की
पुत्री शर्मिष्ठा । पुलोमा और कालका- ये दो वैश्वानर की कन्याएँ थीं। ये दोनों
कश्यपजी की पत्नी हुई। इन दोनों के करोड़ों पुत्र थे। प्रह्लाद के वंश में चार
करोड़ 'निवातकवच' नामक दैत्य हुए। कश्यपजी की ताम्रा
नामवाली पत्नी से छः पुत्र हुए। इनके अतिरिक्त काकी, श्येनी,
भासी, गृधिका और शुचिग्रीवा आदि भी कश्यपजी की
भार्याएँ थीं, उनसे काक आदि पक्षी उत्पन्न हुए। ताम्रा के
पुत्र घोड़े और ऊँट थे। विनता के अरुण और गरुड़ नामक दो पुत्र हुए। सुरसा से
हजारों साँप उत्पन्न हुए और कद्रू के गर्भ से भी शेष वासुकि और तक्षक आदि सहस्रों
नाग हुए। क्रोधवशा के गर्भ से दशनशील दाँतवाले सर्प प्रकट हुए। धरा से जल- पक्षी
उत्पन्न हुए। सुरभि से गाय-भैंस आदि पशुओं की उत्पत्ति हुई। इरा के गर्भ से तृण
आदि उत्पन्न हुए। खसा से यक्ष-राक्षस और मुनि के गर्भ से अप्सराएँ प्रकट हुई। इसी
प्रकार अरिष्टा के गर्भ से गन्धर्व उत्पन्न हुए। इस तरह कश्यपजी से स्थावर जङ्गम
जगत्की उत्पत्ति हुई ॥ १२-१८ ॥
एषां पुत्रादयोऽसङ्ख्या देवैर्वै
दानवा जिताः ।
दितिर्विनष्टपुत्रा वै तोषयामास
कश्यपम् ।। १९ ।।
पुत्रमिन्द्रप्रहर्त्तारमिच्छती प्राप
कश्यपात्।
पादाप्रक्षालनात् सुप्ता तस्या
गर्भं जघान ह ।। २० ।।
छिद्रमन्विष्य चेन्द्रस्तु ते देवा
मरुतोऽभवन्।
शक्रस्यैकोनपञ्चाशत्सहाया
दीप्ततेजसः ।। २१ ।।
एतत् सर्वं हरिर्ब्रह्मा अभिषिच्य
पृथुं नृपम्।
ददौ क्रमेण राज्यानि अन्येषामधिपो
हरिः ।। २२ ।।
इन सबके असंख्य पुत्र हुए। देवताओं ने
दैत्यों को युद्ध में जीत लिया। अपने पुत्रों के मारे जाने पर दिति ने कश्यपजी को सेवा
से संतुष्ट किया। वह इन्द्र का संहार करनेवाले पुत्र को पाना चाहती थी;
उसने कश्यपजी से अपना वह अभिमत वर प्राप्त कर लिया। जब वह गर्भवती
और व्रतपालन में तत्पर थी, उस समय एक दिन भोजन के बाद बिना
पैर धोये ही सो गयी। तब इन्द्र ने यह छिद्र (त्रुटि या दोष) ढूँढ़कर उसके गर्भ में
प्रविष्ट हो उस गर्भ के टुकड़े-टुकड़े कर दिये; (किंतु व्रत के
प्रभाव से उनकी मृत्यु नहीं हुई।) वे सभी अत्यन्त तेजस्वी और इन्द्र के सहायक
उनचास मरुत् नामक देवता हुए। मुने! यह सारा वृत्तान्त मैंने सुना दिया। श्रीहरि
स्वरूप ब्रह्माजी ने पृथु को नरलोक के राजपद पर अभिषिक्त करके क्रमशः दूसरों को भी
राज्य दिये- उन्हें विभिन्न समूहों का राजा बनाया। अन्य सबके अधिपति (तथा परिगणित
अधिपतियों के भी अधिपति) साक्षात् श्रीहरि ही हैं ॥ १९-२२ ॥
द्विजौषधीनां चन्द्रश्च अपान्तु
वरुणो नृपः।
राज्ञां वैश्रवणो राजा सूर्याणां
विष्णुरीश्वरः ।। २३ ।।
वसूनां पावको राजा मरुतां वासवः
प्रभुः।
प्रजापतीनां दक्षोथ प्रह्लादो
दानवाधिपः ।। २४ ।।
पितॄणां च यमो राजा भूतादीनां हरः
प्रभुः।
हिमवांश्चैव शैलानां नदीनां सागरः
प्रभुः ।। २५ ।।
गन्धर्वाणां चित्ररथो नागानामथ
वासुकिः।
सर्पाणां तक्षको राजा गरुडः
पक्षिणामथ ।। २६ ।।
ऐरावतो गजेन्द्राणां गोवृषोथ
गवामपि।
मृगाणामथ शार्दूलः प्लक्षो
वनस्पतीश्वरः ।। २७ ।।
उच्चैः श्रवास्तथाश्वानां सुधन्वा
पूर्वपालकः।
दक्षिणस्यां शङ्खपदः केतुमान् पालको
जले ।।
हिरण्यरोमकः सौम्ये
प्रतिसर्गोयमीरितः ।। २८ ।।
ब्राह्मणों और ओषधियों के राजा
चन्द्रमा हुए। जल के स्वामी वरुण हुए। राजाओं के राजा कुबेर हुए। द्वादश सूर्यो
(आदित्यों) के अधीश्वर भगवान् विष्णु थे। वसुओं के राजा पावक और मरुद्गणों के
स्वामी इन्द्र हुए। प्रजापतियों के स्वामी दक्ष और दानवों के अधिपति प्रह्लाद हुए।
पितरों के यमराज और भूत आदि के स्वामी सर्वसमर्थ भगवान् शिव हुए तथा शैलों
(पर्वतों) के राजा हिमवान् हुए और नदियों का स्वामी सागर हुआ। गन्धर्वो के चित्ररथ,
नागों के वासुकि, सर्पों के तक्षक और पक्षियों
के गरुड राजा हुए। श्रेष्ठ हाथियों का स्वामी ऐरावत हुआ और गौओं का अधिपति साँड़ ।
वनचर जीवों का स्वामी शेर हुआ और वनस्पतियों का प्लक्ष ( पकड़ी)। घोड़ों का स्वामी
उच्चैःश्रवा हुआ। सुधन्वा पूर्व दिशा का रक्षक हुआ। दक्षिण दिशा में शङ्खपद और
पश्चिम में केतुमान् रक्षक नियुक्त हुए। इसी प्रकार उत्तर दिशा में हिरण्यरोमक
राजा हुआ। यह प्रतिसर्ग का वर्णन किया गया ।। २३-२८ ॥
इत्यदिमहापुराणे आग्नेये
प्रतिसर्गवर्णनं नाम ऊनविंशतितमोऽध्यायः ।
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'प्रतिसर्गविषयक कश्यपवंश का वर्णन' नामक उन्नीसवाँ
अध्याय पूरा हुआ ॥ १९ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 20
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