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कालिका पुराण अध्याय
२५
Kalika puran chapter 25
कालिकापुराण पच्चीसवाँ अध्याय- आदि वाराह सर्ग
अथ कालिका
पुराण अध्याय २५
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
कालो नाम
स्वयं देवः सृष्टिस्थित्यन्तकारकः ।
अविच्छिन्नः स
प्रलयस्तेन भागेन केनचित् ।। १ ।।
मार्कण्डेय
बोले- काल नामक देव, परमात्मा, जगत की सृष्टि-स्थिति और अन्त का करने
वाला है । वह (उपर्युक्त) प्राकृत प्रलय भी उसी के किसी भाग से सम्बद्ध है ॥ १ ॥
लयभागे व्यतीते
तु सिसृक्षा समजायत ।
ज्ञानरूपस्य च
तदा परमब्रह्मणो विभोः ॥ २ ॥
तब लय भाग
व्यतीत हो जाने पर कालरूप एवं ज्ञानरूप तथा व्यापक परब्रह्म में सृष्टि इच्छा
उत्पन्न हुई ॥ २ ॥
ततोऽस्य
प्रकृतिस्तेन सम्यक्संक्षोभिता धिया ।
संक्षुब्धा
सर्वकार्यार्थमभूत् सा त्रिगुणात्मिका ।। ३।।
उसकी प्रकृति
उसके बुद्धि के माध्यम से भलीभाँति संक्षोभित की गई तब वह संक्षुब्ध होकर सब
कार्यों में सक्षम हो, तीनों गुणों से युक्त हो गयी ।। ३ ।।
यथा
सन्निधिमात्रेण गन्धः क्षोभाय जायते ।
मनसो
लोककर्तृत्वात्तथासौ परमेश्वरः ॥४॥
जिस प्रकार
गन्ध की निकटता मात्र से ही मन में क्षोभ उत्पन्न होता है, उसी प्रकार यह परमेश्वर भी लोक का कर्ता
होने के कारण प्रकृति में क्षोभ उत्पन्न करता है ॥ ४ ॥
स एव क्षोभको
ब्रह्मन् क्षोभ्यश्च परमेश्वरः ।
स
सङ्कोचविकाशाभ्यां प्रधानत्वेऽपि च स्थितः ॥५॥
हे ब्राह्मणों
! वह ही क्षोभ पैदा करने वाला है तथा वही क्षुब्ध होने योग्य है । वही अपनी संकोच
(लय) तथा विकास (सृष्टि) प्रक्रिया द्वारा प्रधानता से या प्रधान के रूप में भी
स्थित है ॥ ५ ॥
इच्छामात्रेण पुरुषः
शृष्ट्यर्थं परमेश्वरः ।
ततः संक्षोभयामास
पुनरेव जगत्पतिः ॥६॥
इच्छामात्र से
ही वह परमेश्वर पुरुष सृष्टि में प्रवृत्त हुआ तब उस जगत के स्वामी ने पुनः (पहले
ही की भाँति संक्षुब्ध किया ।। ६ ।।
गुणसाम्यात्ततस्तस्मात्
क्षेत्रज्ञाधिष्ठितात् ततः ।
गुणव्यञ्जनसंभूतिः
सर्गकाले वभूव ह ।।७।।
तब
(प्रलयकालिक) गुणों की साम्यावस्था, क्षेत्रज्ञ में क्षेत्र के अधिष्ठान की अवस्था से सृष्टि के
समय गुणों के भिन्नता की अनुभूति हुई ।। ७ ।।
प्रधानतत्त्वादुद्भूतमीश्वरेच्छासमीरितात्
।
महत्तत्वं
प्रथमतस्तत् प्रधान समावृणोत् ।।८।।
तब पहले ईश्वर
की इच्छा से भलीभाँति प्रेरित हुये प्रधान तत्त्व से महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ ।
उत्पन्न होते ही उसे प्रधान ने भलीभाँति ढँक लिया ॥ ८ ॥
प्रधानेनावृतात्तस्मादहङ्कारो
व्यजायत ।
वैकारिकस्तैजसश्च
भूतादिश्चैव तामसः ॥९॥
प्रधान से
घिरे हुए उस महत् तत्त्व से वैकारिक, तैजस, तामस तीन प्रकार का अहंकार
उत्पन्न हुआ जो स्वयं ही भूत, इन्द्रिय आदि को उत्पन्न करने
वाला है ।। ९ ।।
त्रिविधोऽयमहङ्कारो
यो जातो महतोऽग्रतः ।
भूतानामिन्द्रियाणाञ्च
स वै हेतुः सनातनः ।। १० ।।
यह तीन प्रकार
का अहंकार ही जो सबसे पहले महत्तत्त्व से उत्पन्न हुआ। यही पञ्चमहाभूत तथा एकादश
इन्द्रियों की उत्पत्ति का शाश्वत कारण है ।। १० ॥
स
महांस्तमहङ्कारं जातमात्रं समावृणोत् ।
तन्मात्राणि
ततः पञ्च जज्ञिरेऽस्मात् समावृतात् ।। ११ ॥
ज्योंही
अहंकार पैदा हुआ त्योंही उस महत्तत्त्व ने अहंकार को भलीभाँति ढँक लिया। तब उस
आवरणग्रस्त अहंकार से शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, नामक पाँच तन्मात्राएँ उत्पन्न हुईं ॥ ११ ॥
प्रथमं
शब्दतन्मात्रं स्पर्शतन्मात्रमन्तरम् ।
तृतीयं
रूपतन्मात्रं रसतन्मात्रमेव च ।। १२ ।।
पञ्चमं गन्धतन्मात्रमेतानि
क्रमशोऽभवन् ।
प्रत्येकं सर्वतन्मात्रमहङ्कारः
समावृणोत् ।।१३।।
पहला
शब्दतन्मात्र, उसके बाद
स्पर्शतन्मात्र, तीसरा रूपतन्मात्र, चौथा
रसतन्मात्र, पाँचवा गन्धतन्त्रमात्र ये पाँच तन्मात्र क्रमशः
उत्पन्न हुए। उनमें से एक-एक कर सबको अहङ्कार ने आवृत कर लिया ।। १२-१३ ॥
ससर्ज शब्दतन्मात्रादाकाशं
शब्दलक्षणम् ।
शब्दमात्रं
तथाकाशं भूतादिः स समावृणोत् ।। १४ ।।
उस परमात्मा
ने शब्दतन्मात्र से शब्दलक्षण से युक्त आकाशतत्त्व (महाभूत) की सृष्टि की। उस भूतों
के आदि अहंकार ने शब्दतन्मात्र और आकाशतत्त्व को भलीभाँति ढक लिया ।। १४ ।।
शब्दतन्मात्रसहितात्
स्पर्शतन्मात्रतन्ततः ।
वायुः समभवत्
स्पर्शगुणः शब्दसमन्वितः ।। १५ ।।
शब्दतन्त्रमात्र
युक्त आकाश महाभूत से स्पर्शतन्मात्र, तत्पश्चात् उस स्पर्शतन्मात्र से स्पर्शगुण से युक्त वायु
महाभूत उत्पन्न हुआ ।। १५ ।।
आकाशवायुसंयुक्ताद्रूपतन्मात्रतस्ततः
।
तेजः समभवद्दीप्तं
सर्वतस्तदवर्धत ।। १६ ।।
आकाश और वायु
के सम्मिलित रूप से रूप तन्मात्र और उससे प्रकाशमान तेज (अग्नि) नामक तत्त्व
उत्पन्न हुआ तथा वह सब ओर से बढ़ गया ।। १६ ।।
तच्छब्दवत्
स्पर्शवच्च रूपवच्च व्यजायत ।
ततो वियद्वायुतेजोयुक्तात्तोयं
ससर्ज ह ।
रसतन्मात्रतः
सम्यक् तेन व्याप्तं समन्ततः ।। १७ ।।
उसने आकाश, वायु, तेज, से शब्द, स्पर्श, रूपतन्मात्र
की ही भाँति रस तन्मात्र को प्रकट किया तथा उससे जल तत्त्व की सृष्टि की और उससे
सब ओर व्याप्त हो गया ।। १७ ॥
तोयान्याधारशक्तिर्या
विष्णोरमिततेजसः ।
सा दध्रेऽथ
निराधाराण्यनिलान्दोलितानि वै ।। १८ ।।
अमित तेजस्वी
विष्णु की पृथ्वी रूप जो शक्ति है, उसी ने उस निराधार, वायु से आन्दोलित
जलराशि का आधार बनकर उसे धारण किया ।। १८ ।।
तेषु बीजं
प्रथमतः ससर्ज परमेश्वरः ।
तदण्डमभवद्हैमं
सहस्रांशुसमप्रभम् ।। १९।।
परमेश्वर ने
पहले उनमें बीज की सृष्टि की, वह बीज सूर्य के समान प्रभा से युक्त स्वर्णिम अण्ड हो गया ।। १९ ।।
महदादिविशेषान्तैरारव्यं
सर्वतो वृतम् ।
वारिवह्न्यनिलाकाशैस्तमोभूतादिना
बहिः ।
वृतं
दशगुणैरण्डं भूतादिर्महता तथा ।।२०।।
महत् आदि से
आरम्भ हो विशेष अर्थात् ब्रह्माण्ड तक अपने पूर्ववर्ती जल, अग्नि, वायु एवं आकाश,
तामस अहंकारादि तथा महत्तत्त्वादि दश बन्धनों से वह ब्रह्माण्ड बाहर
से घिरा हुआ था ।। २० ।।
बीजं यथा
बाह्यदलैर्व्याप्तमण्डं तथा पुनः ।
तोयादिभिस्तथा
व्याप्त ब्रह्माण्डमतुलं द्विजाः ।। २१ ।।
हे द्विजों !
जिस प्रकार बीज बाह्य दलों से व्याप्त होता है उसी प्रकार वह अतुलनीय ब्रह्माण्ड
भी जल आदि महाभूतों से व्याप्त था ॥ २१ ॥
तदण्डमध्ये
स्वयमेव विष्णु- र्ब्रह्मस्वरूपं विनिधाय कायम् ।
दिव्येन मानेन
स वर्षमेकं स्थितोऽग्रहीद्वीजगणं स्वबुद्ध्या ।। २२।।
ध्यानेन चाण्ड
स्वयमेव कृत्वा द्विधा स तस्थौ क्षणमात्रमस्मिन् ।
तदैव तन्मात्रगणैः
समस्तै-गन्धोत्तरैर्भूव सृष्टा ।। २३ ।।
उस ब्रह्माण्ड
के भीतर भगवान विष्णु स्वयं ही ब्रह्मा के रूप में शरीर धारण कर देवताओं के मान से
एक (मानव मान से ३६०) वर्ष तक स्थित होकर अपनी बुद्धि से उन तत्त्वों के बीज को
धारण किये रहे और अपने ध्यान बल से क्षण मात्र में ही उस अण्डे को दो भागों में बाँटकर
स्वयम् ही उसमें स्थित हो गये। तभी गन्ध और उससे उत्तरवर्ती, रस, रूप, स्पर्श और शब्द आदि सभी तन्मात्रों द्वारा इस पृथ्वी की सृष्टि किया ।।
२२-२३ ।।
स्पर्शस्य
शब्दस्य समस्तरूप-गुणस्य गन्धस्य रसस्य चैषा ।
आधारभूता
सकलैः कृता यत्तन्मात्रवर्गैरखिला धरित्री ।। २४ ।।
यह पृथ्वी
समस्त स्पर्श, शब्द,
रूप, रस, गन्ध आदि गुणों
के आधार रूप में सभी तन्मात्रों द्वारा क्षण भर में ही बनाई गई ।। २४ ।।
जातस्तदुत्थैः
कनकाचलोऽसौ जरायुभिः पर्वतसंचयोऽभूत् ।
गर्भोदकैः सप्तपयोधयस्तु
स्कन्धद्वयेन त्रिदशालयोऽभूत् ।। २५ ।।
उसके पैदा
होते हुए उसके उठे हुए जरायु द्वारा पर्वतों के समूह रूप में यह कनकाचल सुमेरु
पर्वत उत्पन्न हुआ तथा उस हिरण्यमय अण्ड के गर्भगत जलादि से सप्त सागरों की
उत्पत्ति हुई। दो शाखाओं से देवलोक उत्पन्न हुआ ॥ २५ ॥
स्कन्धद्वयेनापरदेशजेन
सप्ताभवन्नागगृहाणि तानि ।
पातालसंज्ञानि
महासुखानि यत्र स्वयं स्यात् परतो महेशः ।। २६ ।।
स्कन्धद्वयात्मक
भुवन वृक्ष के निचले भाग से पाताल नामक अत्यन्त सुख देने वाले नागों के सात निवास
स्थान हुए जहाँ ऊपर की ओर स्वयं भगवान शिव निवास करते हैं ।
तेजोगणात्तस्य
बभूव लोको योऽसौ महर्लोक इति श्रुतोऽभूत् ।
जनाह्वयोऽभून्मरुतोऽथ
गर्भाद् ध्यानात्तपोलोकवरो बभूव ।। २७।।
उसके मज्जा
रूप भाग से जिस लोक का निर्माण हुआ उसे महर्लोक नाम से सुना जाता है । 'जन' नामक लोक उस
गर्भगत वायु से उत्पन्न हुआ तथा 'तप' नामक
श्रेष्ठ लोक ध्यान से उत्पन्न हुआ ।। २७ ।।
अण्डोर्धगत्यामभवत्तु
सत्यं ब्रह्माण्डखण्डोपरि विष्णुरच्युतः ।
परं पदं यन्निगदन्ति
धीरा यज्ज्ञानगम्यं परिनिष्ठरूपम् ।। २८ ।।
अण्ड के आधे
भाग की गति के कारण सत्यलोक उत्पन्न हुआ जो, ब्रह्माण्ड का ऊपरी भाग, विष्णु का
अच्युत स्थान है। जिसे धीर पुरुष ज्ञान से प्राप्त होनेवाला, सुनिश्चित रूप, परमपद के नाम से पुकारते हैं ॥ २८ ॥
एवं विधाय
प्रथमं बभूव विष्णुस्वरूपी स्थितये स एव ।
स्वयं
समुद्भूततनुर्यतोऽयं स्वयंभूरिति ख्यातिरवाप विष्णुः ।। २९ ।।
इस प्रकार से
पहले निर्माण कर वे स्वयं संसार की स्थिति के लिए विष्णुरूप धारण किये । उनका यह
शरीर स्वयं उत्पन्न हुआ इसीलिए विष्णु ने स्वयम्भू इस ख्याति को प्राप्त किया ।।
२९ ।।
ततोऽभवत् यज्ञवराहरूपी
विष्णुर्भुव: प्रोद्धरणाय पीनः ।
निमज्जमानां पृथिवीं
स मध्ये भित्वा गतो धर्तुमधोतिऽ वेगात् ।। ३० ।।
तब भगवान
विष्णु ने भूमि के उद्धार हेतु बलशाली यज्ञवराह रूप धारण किया तथा डूबती हुइ
पृथ्वी को धारण करने के लिए अत्यन्त वेग से मध्य में छेदकर वे उसके निचले भाग में
गये ॥ ३० ॥
दंष्ट्राग्रदेशे
विनिधाय पृथिवीं स उद्गतः सर्वमतीत्य तोयम् ।
ततोऽभवत् सप्तफणान्वितोऽय-मनन्तमूर्तिः
पृथ्वीं विधर्तुम् ।। ३१ ।।
जब इस पृथ्वी
को अपनी दाँतों के अगले भाग पर धारण कर सम्पूर्ण जलराशि से ऊपर उठकर वे बाहर आये
तब पृथ्वी को धारण करने के लिए वे सात फणों से युक्त अनन्त रूपधारी हुए ।। ३१ ।।
प्रसार्य
शेषोऽपि फणाः स वैष मध्ये निधायैकफणां धरित्रीम् ।
दधार तोयोपरि तोयसंस्थित-
स्ततोऽत्यजद् यज्ञवराह उर्व्वीम् ।। ३२ ।।
उन्होंने शेष
रूप से भी अपने फणों को फैलाकर उनमें से बीच के फण पर पृथ्वी को रखा, तब यज्ञवराह ने स्वयं जल पर स्थित होकर उस
पृथ्वी को जल पर ही छोड़ दिया ।। ३२ ।
प्रसारिताः
फणाः सर्वास्तासामेका तु पूर्वतः ।
अपरा पश्चिमायां
तु दक्षिणोत्तरयोः परे ।। ३३ ।।
एका गता
फणैशान्यामाग्नेय्यामपरा दिशि ।
पृथ्वीमध्ये
स्थिता चैका नैर्ऋत्यां तस्य वै तनुः ।
शून्या
दिग्वायवी तत्र ततो नम्रा स्थिता क्षितिः ।। ३४ ।।
जब अनन्त
रूपधारी शेष ने अपने सभी फणों को फैलाया तो उनमें से एक पूर्व की ओर दूसरा पश्चिम
की ओर, अन्य दक्षिण और उत्तर की ओर फैले। एक ईशान
कोण में तथा दूसरा अग्निकोण में, एक फन पृथ्वी के मध्य भाग
में रहा तथा उनका शरीर नैर्ऋत्य कोण में स्थित हुआ । वायव्य कोण की दिशा शून्य रह
गई। अतः उस ओर पृथ्वी झुक गयी ।। ३३-३४ ।।
स तु
दीर्घतनुस्तोये यदानन्तो न चाशकत् ।
कूर्मरूपी तदा
भूत्वानन्तं कायमधाद्धरिः ।।३५।।
जब अनन्त अपने
दीर्घ शरीर को जल में धारण न कर सके तो विष्णु ने स्वयं कच्छप स्वरूप हो अनन्त के
विशाल शरीर को धारण किया ।। ३५ ।।
अधो
ब्रह्माण्डखण्डं स पद्धिराक्रम्य कच्छपः ।
ग्रीवान्वितस्य
वायव्यां पृष्ठेऽनन्तमधारयत् ।। ३६ ।।
उस कच्छप
भगवान ने निचले ब्रह्माण्डखण्ड को अपने पैरों से दबाकर, वायव्य दिशा में अपनी गर्दन फैलाकर पीठ पर
अनन्त को धारण किया ।। ३६ ।।
अनन्तः कूर्मपृष्ठे
तु नवभिर्वेष्टनैस्तनुम् ।
निधाय पृथिवीं
दधे सुखेनैव महातनुः ।।३७।।
विशाल शरीर
वाले अनन्त ने नव फेरे में अपने शरीर को मोड़कर कूर्म भगवान के पीठ पर स्थित हो
पृथ्वी को सुखपूर्वक धारण किया ।। ३७ ।।
ततः
फणास्वनन्तस्य चलन्ती पृथिवी स्थिता ।
वराहः कर्तुमचलामचलामकरोदृढाम्
।। ३८।।
मेरुं खुरप्रहारेण
प्रहृत्य पृथिवीतलम् ।
न्यखनत् स
विवेशाथ पृथ्वीं भित्वान्तरं ततः ।। ३९ ।।
अनन्त के फणों
पर स्थित चंचल पृथ्वी को अचल और दृढ़ करने के लिए सुमेरु पर खुर से प्रहार कर वराह
भगवान ने धरती को खोदा । तब वह मेरु पर्वत पृथ्वी को भेदकर भीतर प्रवेश कर गया ।।
३८-३९ ।।
योजनानां सहस्राणि
षोडशैव रसातलम् ।
प्रविवेश महाशैलो
वराहांघ्रिप्रहारतः ॥४०॥
वह मेरु नामक
विशाल पर्वत वराह के चरणों के प्रहार से सोलह हजार योजन तक रसातल में प्रवेश कर
गया ॥ ४० ॥
द्वात्रिंशत्तु
सहस्राणि योजनानां तु विस्तृणम् ।
मेरो:
शिरोऽभवत्तेन प्रहारेण दिजोत्तमाः ।।४१।।
हे
द्विजोत्तमों ! उसी प्रहार से मेरु पर्वत का शीर्षभाग तीस हजार योजन चौड़ा हो गया
।। ४१ ।।
मर्यादा
शैलनाथस्य पार्श्वे पोत्री तदाकरोत् ।
यदा चलति
नैवैष पर्वतः पृथिवीधरः ।। ४२ ।।
हिमवत्प्रभृतीनांच
भागं भागं सपंचकम् ।
पदा क्षित्यन्तरं
चक्रे तदुच्छ्रायप्रमाणतः ।। ४३ ।।
वराह प्रभु ने
उसके आस-पास पर्वतराज हिमालय आदि के द्वारा उसकी ऐसी मर्यादा निर्धारित कर दी ।
जिससे वह पृथ्वी को धारण करने वाला मेरु पर्वत आज भी विचलित नहीं होता (उन्होंने
अलग-अलग पाँच स्थानों पर हिमालय आदि को उनकी ऊँचाई के बराबर धरती में स्थापित कर
दिया ।) ।। ४२-४३ ॥
कालिका पुराण
अध्याय २५-रुद्र और ब्रह्मा का नाम विभाजन
ततो ब्रह्मा
वराहाय नमस्कृत्य महौजसे ।
अर्धनारीश्वरं
कायाद् देवदेवं व्यजायत ।। ४४ ।।
तब ब्रह्मा ने
महान् ओजस्वी वराह को नमस्कार करके अपने शरीर से अर्धनारीश्वर शरीर में देवाधिदेव
महादेव को प्रकट किया ।। ४४ ।।
प्रथमं जातमात्र:
स प्ररुरोद महास्वनः ।
किं रोदिषीति
तं ब्रह्मा रुदन्तं प्रत्युवाच ह ।। ४५ ।।
वह सर्वप्रथम
पैदा होते ही बहुत तेज आवाज में रोने लगा । तब ब्रह्मा ने उस रोते हुए महादेव से
पूछा, क्यों रो रहे हो ? ।।
४५ ।।
कालिका पुराण
अध्याय २५-रुद्र के सात नाम
नाम देहीति तं
सोऽथ प्रत्युवाच महेश्वरः ।
रुद्रनामा
रोदनात्तं मा रोदीत्वं महाशय ।।४६ ।।
एवमुक्तः पुनः
सोऽथ सप्तवारान् रुरोद सः ।
ततोऽपराणि
नामानि सप्त ब्रह्माकरोत् पुनः ।।४७ ।।
शर्व भवं च
भीमञ्च महादेवं चतुर्थकम् ।
पञ्चमं
चोग्रमीशानं षष्ठं पशुपतिं परम् ।।४८।।
महेश्वर ने तब
कहा - मेरा नाम बताइये ।" हे महान आशय वाले तुम मत रोओ, रोने के कारण ही तुम्हारा नाम रुद्र होगा
।" ब्रह्मा द्वारा ऐसा कहे जाने पर वह रुद्र बार-बार सात बार रोया । तब
ब्रह्मा ने उनके सात अन्य नाम शर्व, भव, भीम, चौथा महादेव, पाँचवाँ
उग्र, छठां ईशान तथा अन्तिम पशुपति भी पुनः निर्धारित किया
।। ४६-४८ ॥
मया यथा
विभक्तस्त्वं तथात्मा स्वो विभज्यताम् ।
त्वयापि
भूरिसृष्ट्यर्थं भवांश्चापि प्रजापतिः ।। ४९ ।।
तब उन रुद्र
ने कहा- हे प्रजापति ! जिस प्रकार से आपने मुझे बाँट दिया है उसी प्रकार सृष्टि की
अधिकता के लिए आप भी अपने ही को विभाजित कीजिये क्योंकि आप भी प्रजापति हैं ।। ४९
।।
ततो ब्रह्मा
द्विधा भूत्वा पुरुषोऽर्धेन सोऽभवत् ।
अर्धेन नारी
तस्यां तु विराजमसृजत् प्रभुः ।। ५० ।।
तब प्रभु
ब्रह्मा दो भागों में विभक्त हो आधे भाग से विराट् नामक पुरुष हुए तथा आधे भाग से
उसकी पत्नी की सृष्टि किए ॥ ५० ॥
तमाह भगवान्
ब्रह्मा कुरु सृष्टिं प्रजापते ।
तपस्तप्त्वा
विराट् सोऽपि मनुं स्वायम्भुवं ततः ।। ५१ ।।
ससर्ज सोऽपि
तपसा ब्रह्माणं पर्यंतोषयत् ।
तोषितस्तेन
मनसा दक्षं सृष्ट्यै ससर्ज सः ।। ५२ ।।
उस विराट
पुरुष से ब्रह्मा ने कहा कि हे प्रजापति ! तुम सृष्टि करो। तब तपस्या करके उस
विराट पुरुष ने स्वायम्भुव मनु की सृष्टि की। उसने भी तपस्या द्वारा ब्रह्मा को
सन्तुष्ट किया। तब सन्तुष्ट हुए उन ब्रह्मा ने सृष्टि हेतु मन से दक्ष प्रजापति की
सृष्टि की ।। ५१-५२ ।।
सृष्टे
दक्षेऽथ दशधा प्रणतो मनुना विधिः ।
पुनरेव
सुतानन्यान् ससर्ज दश मानसान् ।।५३।।
मरीचिरत्र्यंगिरसौ
पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम् ।
प्रचेतसं वसिष्ठञ्च
भृगुं नारदमेव च ।।५४।।
दक्ष की
सृष्टि करने के बाद मनु द्वारा दश बार विशेष निवेदन किये जाने पर ब्रह्मा ने पुनः
मरीचि', अत्रि, अंगिरस्,
पुलस्त्य, पुलह" क्रतु, प्रचेतस, वसिष्ठ', भृगु तथा
नारद इन दश मानस पुत्रों की सृष्टि की ।। ५३-५४ ॥
एतानुत्पाद्य
मनसा मनुं स्वायम्भुवं पुनः ।
यूयं
सृजध्वमित्युक्त्वा लोकेशोऽन्तर्दधे पुनः ।। ५५ ।।
इनको मन से
उत्पन्न कर उनसे तथा स्वायम्भुव मनु से "तुम सब भी सृष्टि करो" ऐसा कहकर
लोकेश (ब्रह्मा) अन्तर्धान हो गये ।। ५५ ।।
वराहोऽप्यथ
पोत्रेण खनित्वा सप्तसागरान् ।
पृथिव्यां वलयाकारान्
ससर्ज परमेश्वरः ॥५६ ॥
इसके बाद
परमेश्वर वराह ने भी अपनी थूथन से खोदकर पृथ्वी पर वलयाकार सात समुद्रों की रचना
की।।५६।।
सप्तधा
भ्रमणेनासौ सृष्ट्वा सप्ताथ सागरान् ।
सप्तद्वीपानवच्छिद्य
पृथिव्यन्तं ततो गतः ।।५७।।
सप्त सागरों
की सृष्टि करने के बाद पृथ्वी के अन्त तक सात बार भ्रमण करके, उसे बाँटकर सात द्वीपों की सृष्टि किया ॥
५७ ॥
लोकालोकाह्वयं
शैलं कृत्वा पृथ्व्यास्तु वेष्ठनम् ।
लक्षद्वयोच्छ्रितं
मानाद् योजनानां समन्ततः ।
सुदृढं
स्थापयामास भित्तिप्रान्ते यथा गृहम् ।।५८।।
जिस प्रकार घर
के चारों ओर दीवार की स्थापना की जाती है, उसी प्रकार उन्होंने पृथ्वी के चारों ओर, सभी ओर दो लाख योजन ऊँचे लोकालोक नामक सुदृढ़ पर्वत को स्थापित किया ।। ५८
।।
आदिसृष्टिरियं
विप्राः कथिता भवतां मया ।
प्रतिसर्गमहं वक्ष्ये
तच्छृण्वन्तु महर्षयः ।। ५९ ।।
हे विप्रों !
मेरे द्वारा आप लोगों से यह आदिसृष्टि कही गयी । अब मैं प्रतिसर्ग, (अन्य गौण सृष्टि) का वर्णन करता हूँ। हे
महर्षि गण ! आप सब सुनें ।। ५९ ।।
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे वाराहसर्ग नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥
कालिका पुराण अध्याय २५- संक्षिप्त कथानक
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा– यह काल नाम वाला स्वयं देव ही है जो सृजन, पालन और संहार करने वाला है । उसके किसी भाग से सृजन और
प्रलय अविच्छिन्न है । लय भाग के व्यतीत हो जाने पर सृजन करने की इच्छा समुत्पन्न
हुई थी और ज्ञान के स्वरूप वाले उस समय परब्रह्म विभु को ही सृजन की इच्छा उत्पन्न
हुई थी। इसके अनन्तर उसके द्वारा प्रकृति स्वयं ही भली भाँति धृति के द्वारा
सँक्षोभित हुई थी । वह संक्षुब्ध होकर त्रिगुण के स्वरूप वाली (सत्व,
रज, तम ये तीन गुण हैं) वह प्रकृति सभी कार्य करने के लिए हुई
थी। जिस प्रकार से सन्निधि मात्र से ही गन्ध क्षोभ के लिए हुआ करती है उसी भाँति
लोकों के कर्ता होने से यह परमेश्वर मन का होता है। हे ब्रह्मण वह भी क्षोभ के
करने वाला है और वही क्षोभ करने के योग्य होता है। वह संकोच और विकास के प्रधान
होने पर भी स्थित है। परमेश्वर प्रभु को पुराण पुरुष अपनी केवल इच्छा के करने ही
से सृष्टि की रचना करने के लिए कारण हुआ करता है। इसके अनन्तर उन जगतों के स्वामी
ने फिर भी संक्षोभ किया था। फिर गुणों के अर्थात् सत्व,
रज और तम इन गुणों के सामान्य होने से जो कि क्षेत्र के
ज्ञाता में अधिष्ठित थे उस स्वर्ग अर्थात् सृजन के काल में गुणों के व्यञ्जन की
उत्पत्ति हो गई थी ।
ईश्वर की
इच्छा से समीचीन प्रधान तत्व से प्रथम ही अद्भुत महतत्व प्रधान को समावृत किया था।
प्रधान के द्वारा आवृत्त उस महत्व से अहंकार उत्पन्न हुआ था । यह अहंकार वैकारिक,
तैजस और तामस भूतादि था। सबसे आगे अर्थात् पहले तो अहंकार
समुत्पन्न हुआ था। वह तीन प्रकार का था वह सनातन भूतादि का और इन्द्रियों का हेतु
था । उस महत् ने अर्थात महतत्व ने उत्पन्न होते ही अहंकार को समावृत्त कर लिया था
। उस समावृत अहंकार से पाँच तन्मात्राएँ समुत्पन्न हुई थीं। सबसे पहले शब्द
तन्मात्रा और फिर रसतन्मात्रा एवं पाँचवीं गन्ध तन्मात्रा क्रम से ही समुत्पन्न
हुई थीं। उन सभी तन्मात्राओं में प्रत्येक तन्मात्रा को अहंकार ने समावृत्त कर
लिया था । फिर उन परमेश्वर प्रभु ने शब्द के लक्षण वाले आकाश को शब्द की तन्मात्रा
से सृजित किया था । उस प्रकार से शब्द मात्रा को उस भूतादि ने समावृत्त कर लिया था
।
शब्द
तन्मात्रा के सहित स्पर्श तन्मात्रा से शब्द से समन्वित स्पर्श गुण वाला वायु
समुत्पन्न हुआ । आकाश और वायु से संयुत रूप तन्मात्रा से देदीप्यमान तेज हुआ था जो
सभी ओर से समन्वित हुआ था इसके उपरान्त वायु तेज से युक्त विपत से जल की उत्पत्ति
हुई । वह रस तन्मात्रा से भली-भाँति सभी ओर से उसके द्वारा व्याप्त हो गया था । जल
को भी जो अपरमिति वाले भगवान विष्णु की आधार शक्ति है । उसने निराधार और अनिल के
द्वारा आन्दोलितों को धारण किया था । सबसे प्रथम परमेश्वर प्रभु ने उनमें बीज का
सृजन किया था। यह बीज अंड हो गया था जिस अण्ड की प्रभा सहस्त्रांशु के ही समान थी
। महत्तत्व के आदि लेकर विशेष के अन्त पर्यन्त सबसे समावृत होकर आरम्भ किया था। जल,
अग्नि, अनिल, आकाश, तम और भूतादि से समावृत्त जिस तरह से महान से भूतादि होते
हैं वह अण्ड दश गुणों से समावृत्त था । जिस रीति से वाह्य दलों में बीज व्याप्त
होता है ठीक उसी भाँति से ही हे द्विजो! यह तोय आदि से अतुल ब्रह्माण्ड व्याप्त था
।
उस अण्ड के
मध्य भगवान विष्णु स्वयं ही ब्रह्मा के स्वरूप वाले शरीर को रखकर दिव्यमान से वह
एक वर्ष पर्यन्त स्थित होकर उन्होंने अपनी बुद्धि से बीजगण को ग्रहण किया था ।
ध्यान के द्वारा उस अण्ड को स्वयं ही दो भागों में करके वह एक क्षणभर उसमें
संस्थित रहे थे। उसी समय इसी के द्वारा सृष्टि गन्धोत्तर समस्त तन्मात्राओं के
समूह हुए थे और यह स्पर्श, शब्द, समस्त का रूप गन्ध और रस की आधारभूत थी और समस्त उन
तन्मात्राओं के समुदाय से सम्पूर्ण पृथ्वी आधार की गयी थी । उनके उत्थित हुओं से
यह कनकाचल समुत्पन्न हुआ था और जटायुओं से पर्वतों का संचय हुआ था । गन्धोदकों से
सात सागर हुए और दो स्कन्धों से त्रिदशालय अर्थात देवों के निवास का स्थान हुआ था।
दूसरे देश में उत्पन्न दो स्कन्धों से वे सात नागों को गृह हुए थे। जिनकी संज्ञा
पाताल है और जो महान सुखप्रद है जहाँ पर महेश स्वयं रहते हैं । उसके तेज समूहों से
यह लोक उत्पन्न हुआ था जो कि महर्लोक इस नाम से श्रुत हुआ था । गर्भ से मरुत्
जनलोक नाम वाला हुआ था और ध्यान से परम श्रेष्ठ तपोलोक उत्पन्न हुआ था । उस अण्ड
की ऊर्ध्वगति में सत्यलोक समुत्पन्न हुआ था । उस ब्रह्माण्ड के खण्ड के भगवान
अच्चुत विष्णु हैं जिनको धीर पुरुष परमपद कहते हैं और जो ज्ञान के ही द्वारा जानने
के योग्य वीर परिनिष्ठित रूप से समन्वित है ।
इसी रीति से
सबसे प्रथम विष्णु स्वरूप वाले हुए थे और वे ही स्थिति अर्थात् पालन के लिए हुए ।
क्योंकि ये स्वयं ही समुत्पन्न शरीर वाले थे अर्थात् इनकी उत्पत्ति स्वयं अपनी
इच्छा से ही हुई थी और इनको किसी ने उत्पन्न नहीं किया था। अतएव उन भगवान विष्णु
ने ‘स्वयम्भू‘ यह प्रसिद्धि प्राप्त की थी। इसके अनन्तर भगवान विष्णु यज्ञ
वाराह के रूपधारी हुए थे जो भूमि के समुद्धरण करने के लिए परमाधिक पीन थे । उन
वराह के रूपधारी प्रभु ने मध्य में निमग्न होती हुई इस पृथ्वी का भेदन करके
अत्यधिक वेग से अन्दर चले गये थे । अपनी दाड़ के अग्र भाग में पृथ्वी को रखकर
सम्पूर्ण जल का अतिक्रमण करके ऊपर आगत हो गये थे । इसके अनन्तर यह सात फनों से
सयंत अनन्त की मूर्ति होकर इस पृथ्वी को धारण करने के लिए प्रकट हो गये थे। शेषनाग
ने भी अपने फन को फैलाकर और उसने एक फन पर धरित्री धारण करके जल में संस्थित होते
हुए जल के ऊपर उसको रख दिया था और यज्ञ वाराह ने भी पृथ्वी को त्याग दिया था । उन
शेष ने भी फनों को फैला दिया था। उनमें से एक फन तो पूर्व दिशा की ओर था तथा दूसरा
फन पश्चिम में था और अन्य फन दक्षिण और उत्तर दिशा की ओर थे । उनका एक फन ऐशानी
दिशा में और दूसरा फन आग्नेय दिशा में था। एक फन पृथ्वी के मध्य में था और उसका
तनु नैर्ऋत्य दिशा में था । वहाँ पर वायव्य दिशा शून्य थी । फिर नम्र भूमि स्थित
थी । वह दीर्घ तनु जल में था जिसको अनन्त न धारण कर सके थे । उस समय हरि कर्म के
रूप वाले हो गये थे और अनन्त के काम को उन्होंने धारण किया था ।
उस कच्छप ने
अपने चरणों से नीचे ब्रह्माण्ड का आक्रमण करके वायव्य दिशा में ग्रीवान्वित के
पृष्ठ में अनन्तर को धारण किया था । विशाल शरीरधारी भगवान अनन्त देव ने कूर्म के
पृष्ठ पर नौ वेष्टनों (लपेटों) से अपने शरीर को देखकर सुख से ही पृथ्वी को धारण
किया । उसके अनन्तर अनन्त देव के फन पर चलती हुई पृथ्वी स्थित हुई थी । वराह भगवान
ने इस पृथ्वी को अचल बनाने का प्रयत्न किया था और उसको अति सुदृढ़ अचलायमान कर
दिया था । मेरु पर्वत को अपने सुरों के द्वारा प्रहत करके पृथ्वीतल में गाड़ लिया
था फिर उसका भेदन करके वह पृथ्वी के अन्दर प्रवेश कर गये थे । वराह भगवान के चरणों
के प्रहारों से वह महान पर्वत सोलह सहस्त्र योजन तक रसातल में प्रवेश कर गया था ।
हे द्विजोत्तमो ! मेरु पर्वत का शिर उससे बत्तीस हजार यौजन के विस्तार वाला हो गया
था ।
इसके उपरान्त
ब्रह्माजी ने महान् ओज वाले वराह भगवान को प्रणाम किया था और देवों के देव
अर्धनारीश्वर को शरीर से समुत्पन्न किया था। पहले ही उत्पन्न होने के साथ वह महान
ध्वनि वाले वे रूदन करने लगे थे । ब्रह्माजी ने उनसे कहा था कि तुम क्यों रो रहे
हो । उन महेश्वर ने उत्तर दिया था कि उनका नाम रखो । रुदन करने से वे रुद्र नाम
वाले हुए थे ।
उन ब्रह्माजी
ने कहा- हे महाशय ! आप रूदन मत करो। इस प्रकार से कहे हुए वे रुद्र सात बार रोये
थे अर्थात् सात बार उन्होंने रुदन किया था। फिर ब्रह्माजी ने इसके उपरान्त सात
दूसरे नाम किये थे। शर्व, भव, भीम और चौथा नाम महादेव किया था । पाँचवाँ नाम उग्र,
छठवाँ नाम ईशान और परम पशुपति ये नाम किए।
ब्रह्माजी ने
कहा- मेरे द्वारा जिस प्रकार से आपका विभाग किया गया है वैसे ही आप अपने आपको
विभक्त करिए। आप भी बहुत सृष्टि के ही लिए हैं और आप भी प्रजापति हैं ।
इसके अनन्तर
ब्रह्माजी दो भागों में विभक्त हो गये थे । वे अपने आधे भाग में पुरुष हुए थे और
आधे भाग में नारी हो गए थे और उसमें प्रभु ने विराट का सृजन किया था । उसको भगवान
ब्रह्माजी ने कहा था – हे प्रजापते! सृष्टि की रचना करो। उस विराट् ने भी
तपश्चर्या का तपन करके उसने स्वायम्भुव मनु का सृजन किया था । उस स्वायम्भु मनु ने
भी तप करके ब्रह्माजी को परितुष्ट कर दिया था। उसके द्वारा तुष्ट हुए ब्रह्माजी ने
सृष्टि की रचना करने के लिए अपने मन से दक्ष का सृजन किया था अर्थात् दक्ष को मन
से ही उत्पन्न कर दिया था । दक्ष के सृष्ट हो जाने पर मनु के द्वारा दशावतार
ब्रह्मा प्रणत हुए थे और फिर भी और मानस पुत्रों की सृष्टि की थी। उन पुत्रों के
नाम ये हैं – मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह,
क्रतु, प्रचेता, वशिष्ठ, भृगु और नारद । इन सबका उत्पादन करके जो कि मन के ही द्वारा
हुआ था फिर स्वायम्भू मनु से उन्होंने कहा था कि आप सृजन करो,
यही कहकर लोकों के ईश ब्रह्माजी अन्तर्धान हो गये थे ।
वाराह भगवान
ने इसके अनन्तर पौत्र से द्वारा सात सागरों को खोदकर परमेश्वर ने पृथिवी को उनको
वलय के आधार वाले बनाकर सृजन किया था । इसके उपरान्त इन्होंने सात बार भ्रमण करने
के द्वारा सात सागरों की रचना करके सात द्वीपों को अवछिन्न करके वे फिर पृथ्वी के
अन्दर चले गये थे । लोकालोक पर्वत को इस पृथ्वी का वेष्टना बना करके स्थित कर दिया
था । उसको सुदृढ़ रूप से भित्ति प्रान्त में गृह की ही भाँति स्थापित कर दिया था ।
हे विप्रगणो! मैंने आप लोगों के समक्ष में यह आदि सृष्टि का वर्णन कर दिया है। हे
महर्षियों! प्रतिसर्ग में मैं इसको बतलाऊँगा उसे आप श्रवण करिए ।
॥ श्रीकालिकापुराण का वाराहसर्ग नामक पच्चीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।। २५ ।
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 26
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