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अग्निपुराणम् अध्यायः १५- पाण्डवचरितवर्णनम्
अग्निरुवाच
युधिष्ठिरे तु राज्यस्थे
आश्रमादाश्रमान्तरम्।
धृतराष्ट्रो वनमगाद् गान्धारी च
पृथा द्विच ।। १ ।।
विदुरस्त्वग्निना दग्धो वनजेन
दिवङ्गतः।
एवं विष्णुर्भुवो
भारमहरद्दानवादिकम् ।। २ ।।
धर्म्मायाधर्म्मनाशाय निमित्तीकृत्य
पाण्डवान्।
स विप्रशापव्याजेन मुषलेनाहरत्
कुलम् ।। ३ ।।
यादवानां भारकरं वज्रं
राज्येभ्यषेचयत्।
देवादेशात् प्रभासे स देहं
त्यक्त्वा स्वयं हरिः ।। ४ ।।
अग्निदेव कहते हैं—
ब्रह्मन् ! जब युधिष्ठिर राजसिंहासन पर विराजमान हो गये, तब धृतराष्ट्र गृहस्थ आश्रम से वानप्रस्थ आश्रम में प्रविष्ट हो वन में
चले गये। [अथवा ऋषियों के एक आश्रम से दूसरे आश्रमों में होते हुए वे वन को गये।]
उनके साथ देवी गान्धारी और पृथा (कुन्ती) भी थीं। विदुरजी दावानल से दग्ध हो
स्वर्ग सिधारे। इस प्रकार भगवान् विष्णु ने पृथ्वी का भार उतारा और धर्म की
स्थापना तथा अधर्म का नाश करने के लिये पाण्डवों को निमित्त बनाकर दानव-दैत्य आदि का
संहार किया। तत्पश्चात् भूमि का भार बढ़ानेवाले यादवकुल का भी ब्राह्मणों के शाप के
बहाने मूसल के द्वारा संहार कर डाला। अनिरुद्ध के पुत्र वज्र को राजा के पद पर
अभिषिक्त किया। तदनन्तर देवताओं के अनुरोध से प्रभासक्षेत्र में श्रीहरि स्वयं ही
स्थूल शरीर की लीला का संवरण करके अपने धाम को पधारे ॥ १-४ ॥
इन्द्रलोके ब्रह्मलोके पूज्यते
स्वर्गवासिभिः।
बलभद्रोनन्तमूर्त्तिः
पातालस्वर्गमीयिवान् ।। ५ ।।
अविनाशी हरिर्देवो ध्यानिभिद्धर्येय
एव सः।
विना तं द्वारकास्थानं प्लावयामास
सागरः ।। ६ ।।
संस्कृत्य यादवान् पार्थो
दत्तोदकधनादिकः।
स्त्रियोष्टावक्रशापेन भार्य्या
विष्णोश्च याः स्थिताः ।। ७ ।।
पुनस्तच्छापतो नीता
गोपालैर्लगुडायुधैः।
अर्जुनं हि तिरस्कृत्य पार्थः
शोकञ्चकार ह ।। ८ ।।
व्यासेनाश्वासितो मेने बलं मे
कृष्णासन्निधौ।
हस्तिनापुरमागत्य पार्थः सर्वं
न्यवेदयत् ।। ९ ।।
युधिष्ठिराय स भ्रात्रे पालकाय
नृणान्तदा।
तद्धनुस्तानि चास्त्राणिस रथस्ते च
वाजिनः ।। १० ।।
विना कृष्णेन तन्नष्टं
दानञ्चाश्रोत्रिये यथा।
तच्छ्रुत्वा धर्म्मराजस्तु राज्ये
स्थाप्य परीक्षितम् ।। ११ ।।
वे इन्द्रलोक और ब्रह्मलोक में
स्वर्गवासी देवताओं द्वारा पूजित होते हैं। बलभद्रजी शेषनाग के स्वरूप थे;
अतः उन्होंने पातालरूपी स्वर्ग का आश्रय लिया। अविनाशी भगवान्
श्रीहरि ध्यानी पुरुषों के ध्येय हैं। उनके अन्तर्धान हो जाने पर समुद्र ने उनके
निजी निवासस्थान को छोड़कर शेष द्वारकापुरी को अपने जल में डुबा दिया । अर्जुन ने
मरे हुए यादवों का दाह-संस्कार करके उनके लिये जलाञ्जलि दी और धन आदि का दान किया।
भगवान् श्रीकृष्ण की रानियों को, जो पहले अप्सराएँ थीं और
अष्टावक्र के शाप से मानवीरूप में प्रकट हुई थीं, लेकर
हस्तिनापुर को चले। मार्ग में डंडे लिये हुए ग्वालों ने अर्जुन का तिरस्कार करके उन
सबको छीन लिया। यह भी अष्टावक्र के शाप से ही सम्भव हुआ था। इससे अर्जुन के मन में
बड़ा शोक हुआ। फिर महर्षि व्यास के सान्त्वना देने पर उन्हें यह निश्चय हुआ कि 'भगवान् श्रीकृष्ण के समीप रहने से ही मुझमें बल था।' हस्तिनापुर में आकर उन्होंने भाइयोंसहित राजा युधिष्ठिर से, जो उस समय प्रजावर्ग का पालन करते थे, यह सब समाचार
निवेदन किया। वे बोले- 'भैया! वही धनुष है, वे ही बाण हैं, वही रथ है और वे ही घोड़े हैं;
किंतु भगवान् श्रीकृष्ण के बिना सब कुछ उसी प्रकार नष्ट हो गया,
जैसे अश्रोत्रिय को दिया हुआ दान।' यह सुनकर
धर्मराज युधिष्ठिर ने राज्य पर परीक्षित्को स्थापित कर दिया । ५ - ११ ॥
प्रस्थानं प्रस्थितो धीमान्
द्रौपद्या भ्रातृभिः सह।
संसारनित्यतां ज्ञात्वा जपन्नष्टशतं
हरेः ।। १२ ।।
महापथे तु पतिता द्रौपदी सहदेवकः।
नकुलः फाल्गुनो भीमो राजा शोकपरायणः
।। १३ ।।
इन्द्रानीतरयारूढः सानुजः
स्वर्गमाप्तवान्।
दृष्ट्वा दुर्योधनादींश्च वासुदेवं
च हर्षितः ।।
एतत्ते भारतं प्रोक्तं यः पठेत्स
दिवं व्रजेत् ।। १४ ।।
इसके बाद बुद्धिमान् राजा संसार की
अनित्यता का विचार करके द्रौपदी तथा भाइयों को साथ ले महाप्रस्थान के पथ पर अग्रसर
हुए। मार्ग में वे श्रीहरि के अष्टोत्तरशत नामों का जप करते हुए यात्रा करते थे।
उस महापथ में क्रमशः द्रौपदी, सहदेव,
नकुल, अर्जुन और भीमसेन एक-एक करके गिर पड़े।
इससे राजा शोकमग्न हो गये। तदनन्तर वे इन्द्र के द्वारा लाये हुए रथ पर आरूढ़ हो
[दिव्यरूपधारी ] भाइयोंसहित स्वर्ग को चले गये। वहाँ उन्होंने दुर्योधन आदि सभी
धृतराष्ट्रपुत्रों को देखा। तदनन्तर [उन पर कृपा करने के लिये अपने धाम से पधारे
हुए] भगवान् वासुदेव का भी दर्शन किया। इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। यह मैंने
तुम्हें महाभारत का प्रसङ्ग सुनाया है जो इसका पाठ करेगा, वह
स्वर्गलोक में सम्मानित होगा ॥ १२-१४ ॥
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये महाभारताख्यानं
नाम पञ्चदशोऽध्यायः ।
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'आश्रमवासिक पर्व से लेकर स्वर्गारोहण पर्यन्त महाभारत-कथा का संक्षिप्त
वर्णन' नामक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १५ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 16
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