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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
योगनिद्रा स्तुति
सती के वियोग में शोक-संतप्त शिव के शोक को दूर करने के लिए ब्रह्मा आदि देवगणों ने महामाया योगनिद्रा देवी की इस प्रकार स्तुति किया था इसे अन्तर्मायास्तुति के नाम से जाना जाता है।
योगनिद्रा स्तुति:
Yoganidra stuti
अन्तर्मायास्तुतिः
Antarmaya stuti
अन्तर्माया स्तुति
॥ देवाऊचुः ॥
श्रीशक्तिं
पावनी तान्तु पुष्टिं परमनिष्कलाम् ।
वयं स्तुमो
महाभक्त्या महदव्यक्तरूपिणीम् ॥ ९ ॥
देवों ने कहा-
उस श्री शक्ति पावनी पुष्टि और परम निष्कला का जो महान् अव्यक्त रूप वाली है हम
लोग महतीभक्ति की भावना से स्तुति करते हैं ।
शिवां शिवकरीं
शुद्धां स्थूलसूक्ष्माम्परावराम् ।
अन्तर्व्विद्यामविद्याख्यां
प्रीतिमेकाग्रयोगिनीम् ॥ १० ॥
वह परम शिवा
है,
शिव अर्थात् कल्याण के करने वाली हैं शुद्धा,
स्थूला, सूक्ष्मा, परावरा, अन्तर्विद्या, अविद्या नाम वाली, प्रीति और एकाग्र योगिनी हैं।
त्वं मेधा
त्वं धृतिस्त्वं ह्रींस्त्वमेका सर्व्वगोचरा ।
त्वं दीधिति
सूर्य्यगता सुप्रपञ्चप्रकाशिनी ॥ ११ ॥
आप ही मेधा
हैं,
आप ही धृति हैं, ह्रीं हैं और आप एक सबके गोचरा हैं,
आप ही दीधिति हैं, सूर्य में गति हैं और सुप्रपञ्च के प्रकार करने वाली हैं।
या तु
ब्रह्माण्डसंस्थानञ्जगद्विजेषु या जगत् ।
आप्याययतिं
ब्रह्मादींस्तम्बान्ता या त्वमापगा ॥१२॥
जो ब्रह्मांड
संस्थान है, जो जगत् के बीजों में जगत् है जो ब्रह्मा से आदि लेकर स्तम्ब के अन्त पर्यन्त
आप्यायित किया करती हैं ।
य एकः
सर्व्वजगतां प्राणभूतः सदागतिः ।
देवानाञ्च य
आधारः स नभस्वाँस्तवांशकः ॥ १३ ॥
जो समस्त
जगतों का प्राणभूत सदागति और देवों का आधार है वह नभ भी आपका ही एक अंशभूत हैं ।
एकव्विँसारि
यत्तेजः सर्व्वत्रैव समिध्यते ।
तत्तेरूप
जगद्वीजं बहुधा यश्चदृश्यते ॥१४॥
इस प्रकार से
विसारी जो तेज है वह सर्वत्र ही भली भाँति जायेगा वह आपका रूप जगत् के बीच है और
जो प्रायः दिखाई दिया करता है ।
या
ब्रह्मलोकपातालसान्तरालगता सदा ।
सा
त्वब्वियन्मध्य बहिर्ब्रह्माण्डस्य च सर्वतः ॥ १५॥
जो ब्रह्मलोक
पाताल और सदा अन्तरात्मगता है वह आप वियत् (आकाश) के मध्य में और बाहिर और
ब्रह्माण्ड के सभी ओर है ।
अचलाचलचक्रेण
यन्त्रिता या प्रपञ्चसू: ।
जगदात्रि
लोकमाता सा च त्वं माधवी क्षितिः ॥ १६ ॥
जो अचल चल
चक्र से यांत्रित प्रपंच को उत्पन्न करने वाली है । आप इस जगत् की धात्री,
लोकमाता हैं और आप माधवी क्षिति हैं ।
त्वं
बुद्धिस्त्वं तद्विषयास्त्वं माता छन्दसा गतिः ।
गायत्री त्वं
वेदमाता त्वं सावित्री सरस्वती ॥१७॥
आप बुद्धि हैं
और आप ही उसके विषय हैं, आप माता हैं और छन्दों की गति हैं आप गायत्री,
वेदमाता और आप सावित्री तथा सरस्वती हैं ।
त्वं वार्ता
सर्वजगतां त्वं त्रयीकामरूपिणी ।
त्वं हि
निद्रास्वरूपेण प्राणिनो निर्जरादयः ॥ १८ ॥
आप ही जब जगती
की वार्ता हैं और आप कामरूपिणीत्रयी हैं । आप निद्रा के स्वरूप के द्वारा प्राणी
हैं तथा निर्जर आदि हैं।
ये
स्वर्गाद्योकसः सर्वान् सुखयन्ती प्रमोहसी ।
त्वं लक्ष्मीः
पुण्यकर्त्रीणां पापिनां त्वं हि यातनाः ॥ १९ ॥
निर्जर देवों
का नाम है जो स्वर्ग आदि के स्थान वाले हैं उन सबको आप सुख देती हुई प्रकट रूप से
मोहयुक्त किया करती हैं। आप पुण्य कार्य करने वालों के लिए लक्ष्मी हैं और जो पाप
कर्म किया करते हैं, उनके लिए साक्षात् यातना हैं ।
तथा नीतिभृतां
श्रीश्च सुखदानैशिकी धृतिः ।
त्वं शान्तिः
सर्व्वजता त्वं कान्तिश्चन्द्रगोचरा ॥ २० ॥
उसी भाँति जो
नीति के धारण करने वाले पुरुष हैं उनके लिए श्री हैं और नैतिकी धृति सुख देने वाली
हैं। आप सब जगतों की शान्ति हैं और आप चन्द्र में गोचर होने वाली कान्ति हैं ।
त्वं धात्री
सर्व्वभूताना लक्ष्मीस्त्वं विष्णुमोहिनी ।
त्वं
तत्त्वरूपा भूतानां पञ्चानामपि सारकृत् ॥२१॥
आप समस्त
प्राणियों की धात्री हैं और आप विष्णु का मोहन करने वाली लक्ष्मी हैं । आप भूतों
के तत्त्व रूप वाली हैं और आप पाँचों भूतों की सार करने वाली हैं ।
त्वं त्रिलोकी
महामाया त्वं नीतिर्मोहकारिणी ।
संसारचक्रेष्वारोप्य
सर्व्वभूतं महेश्वरः॥
भ्रामयन्नस्ति
च यथा सा त्वं माया महेश्वरि ॥२२॥
आप त्रिलोकी
की महामाया हैं । आप मोह करनेवाली नीति हैं । भगवान महेश्वर सर्वभूत को संसार
चक्रों में समारोपित करके जैसे भ्रमण कराते हुए हैं, हे महेश्वरि ! वह माया आप ही हैं।
जयन्ती
जययुक्तानां ह्रीं र्विद्या नीतिरुत्तमा ।
गीतिस्त्वं
सामवेदस्य ग्रन्थिस्त्वं यजुषांहुतिः ॥ २३ ॥
आप जय से
युक्तों की जयन्ती, ह्रीं, विद्या, उत्तमा नीति हैं, आप सामदेव की गीतिका हैं, आप चतुर्वेदों की ग्रन्थि और हुति हैं ।
समस्तगीर्व्वाणगणस्य
शक्तिस्तमोमयी सत्वगुणैकदृश्या ।
रजः
प्रपञ्चानुभवैककारिणी या न स्तुता भव्यकरीह सास्तु ॥२४॥
आप समस्त
देवों के समुदाय की तपोमयी शक्ति हैं जो सत्वगुण की एक दृश्या हैं,
आप रजोगुण के प्रपंच को एक ही करने वाली हैं। जो स्तुति
नहीं हुई वह आप यहाँ भव्य के करने वाली होंवें ।
संसारसागर
कराल तरङ्गदुःख निस्तार कारितरणिश्चितिरीतिहीना ।
याष्टाङ्गरूप
परपावनकेनिपात विक्षेपकारिणि गिरौ प्रणनाम तां वै ॥ २५ ॥
इस संसाररूपी
महासागर की महान् कराल तरंगों के दुःखों से विस्तार करने वाली तरणि हैं?
जो स्थिति की रीति से हीन हैं । जो अष्टांग रूप परम पावन
केलिगीत के विक्षेप करने वाली हैं उसको निश्चय ही हम प्रणाम करते हैं।
नासाक्षिवक्रभूजवक्षसि
मानसे च धृत्वा सुखानि विदधाति सदैव जन्तोः ।
निद्रेति
यातिसुभगा जगती भवानांसानः प्रसीदतु धृतिस्मृतिवृत्तिरूपा ॥ २६ ॥
आप नासिका,
नेत्र, मुख, भुजा और वक्षःस्थल में और मानस में सुखों को धारण करके सदा
ही जन्तु का पालन किया करती हैं, जो संसार में होने वालों सुभगा निद्रा हैं,
ऐसे जानी जाया करती हैं यही आप हमारे ऊपर धृति,
स्मृति और वृत्ति रूप वाली प्रसन्न होवें ।
सृष्टिस्थित्यन्तरूपा
या सृष्टिस्थित्यन्तकारिणी ।
सृष्टिस्थित्यन्त
शक्तिर्य्या सा माया नःप्रसीदतु ॥२७॥
जो सृष्टि
स्थिति और अन्त में रूप वाली अथवा सृजन, पालन और संहार करने वाली हैं, जो सृष्टि, स्थिति और अन्न की शक्ति हैं वह माया हम पर प्रसन्न होवें ।
॥ इति श्रीकालिकापुराणे चतुर्विंशतितमोऽध्यायान्तर्गत योगनिद्रा स्तुति: अथवा अन्तर्मायास्तुतिःसम्पूर्ण: ॥
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