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कर्मकाण्ड

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चाणक्यनीति अध्याय ३

चाणक्यनीति अध्याय ३

चाणक्य नीति या चाणक्य नीतिशास्त्र (४ से ३ शताब्दी ई॰पु॰ मध्य) चाणक्य द्वारा रचित एक नीति ग्रन्थ है। इसमें सूत्रात्मक शैली में जीवन को सुखमय एवं सफल बनाने के लिए उपयोगी सुझाव दिये गये हैं।

चाणक्यनीति अध्याय ३

चाणक्यनीति तृतीयोऽध्यायः

Chanakya niti chapter 3

चाणक्यनीति तीसरा अध्याय

चाणक्यनीति अध्याय ३

तृतीयोऽध्यायः

कस्य दोषः कुलेनास्ति व्याधिना के न पीडितः ।

व्यसनं के न संप्राप्तं कस्य सौख्यं निरन्तरम् ।।१।।

दोहा-- केहि कुल दूषण नहीं, व्याधि न काहि सताय ।

कष्ट न भोग्यो कौन जन, सुखी सदा कोउ नाय ॥१॥

जिसके कुल में दोष नहीं है ? कितने ऎसे प्राणी हैं जो किसी प्रकार के रोगी नहीं है ? कौन ऎसा जीव है कि हमेशा जिसे सुख ही सुख मिल रहा है ? ॥१॥

आचारः कुलमाख्याति देशमाख्याति भाषणम् ।

सम्भ्रमः स्नेहमाख्यातिवपुराख्याति भोजनम् ।।२।।

दोहा-- महत कुलहिं आचार भल, भाषन देश बताय ।

आदर प्राप्ति जनावहि, भोजन देहु मुटाय ॥२॥

मनुष्य का आचरण उसके कुल को बता देता है, उसका भाषण देश का पता दे देता है, उसका आदर भाव प्रेम का परिचय दे देता है और शरीर भोजन का हाल कह देता है ॥२॥

सत्कुले योजयेत्कन्यां पुत्रं विद्यासु योजतेत् ।

व्यसने योजयेच्छत्रुं मित्रं धर्मे नियोजयेत् ।।३।।

दोहा-- कन्या ब्याहिय उच्च कुल, पुत्रहिं शास्त्र पढाय ।

शत्रुहिं दुख दीजै सदा, मित्रहिं धर्म सिखाय ॥३॥

मनुष्य का कर्तव्य है कि अपनी कन्या किसी अच्छे खानदान वाले को दे । पुत्र को विद्याभ्यास में लगा दे । शत्रु को विपत्ति में फँसा दे और मित्र को धर्मकार्य में लगा दे ॥३॥

दुर्जनस्य च सर्पस्य वरं सर्पो न दुर्जनः ।

सर्पो दंशति काले तु दुर्जनस्तु पदे पदे ।।४।।

दोहा-- खलहु सर्प इन सुहुन में, भलो सर्प खल नाहिं ।

सर्प दशत है काल में, खलजन पद पद माहिं ॥४॥

दुर्जन और साँप इन दोनों में, दुर्जन की अपेक्षा साँप कहीं अच्छा है । क्योंकि साँप समय पाकर एक ही बार काटता है और दुर्जन पद पद पर काटता रहता है ॥४॥

एदतर्थं कुलोनानां नृपाः कुर्वन्ति संग्रहम् ।

आदिमध्यावसानेषु न स्यजन्ति च ते नृपम् ।।५।।

दोहा-- भूप कुलीनन्ह को करै, संग्रह याही हेत ।

आदि मध्य और अन्त में, नृपहि न ते तजि देत ॥५॥

राजा लोग कुलीन पुरुषों को अपने पास इसलिए रखते हैं कि जो आदि मध्य और अन्त किसी समय भी राजा को नहीं छोडता ॥५॥

प्रलये भिन्नम र्यादा भवन्ति किल सागराः ।

सागरा भेदमिच्छान्ति प्रलयेऽपि न साधवः ।।६।।

दोहा-- मर्यादा सागर तजे, प्रलय होन के काल ।

उत साधू छोड नहीं, सदा आपनी चाल ॥६॥

समुद्र तो प्रलयकाल में अपनी मर्यादा भी भंग कर देते हैं (उमड़ कर सारे संसार को डुबो देते हैं) । पर सज्जन लोग प्रलयकाल में भी अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते हैं ॥६॥

मूर्खस्तु परिहर्त्तव्यः प्रत्यक्षो द्विपदः पशुः ।

भिद्यते वाक्यशूलेन अदृश्यं कण्टकं यथा ।।७।।

दोहा-- मूरख को तजि दीजिये, प्रगट द्विपद पशु जान ।

वचन शल्यते वेधहीं, अड्गहिं कांट समान ॥७॥

मूर्ख को दो पैरवाला पशु समझ कर उसे त्याग ही देना चाहिए । क्योंकि यह समय-समय पर अपने वाक्यरूपी शूल से उसी तरह बेधता है जैसे न दिखायी पड़ता हुआ कांटा चुभ जाता है ॥७॥

रूपयौवनसम्पन्ना विशालकुलसम्भवाः ।

विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इवकिशुकाः ।।८।।

दोहा-- संयुत जीवन रूपते, कहिये बडे कुलीन ।

विद्या बिन शोभत नहीं पुहुप गंध ते हीन ॥८॥

रूप और यौवन से युक्त, विशाल कुल में उत्पन्न होता हुआ भी विद्याविहीन मनुष्य उसी प्रकार अच्छा नहीं लगता, जैसे सुगंधि रहित पलास फूल ॥८॥

कोकिलानां स्वरो रूपं नारीरूपं पतिव्रतम् ।

विद्यारूपं कुरूपाणांक्षमा रूपं रपस्विनाम् ।।९।।

दोहा-- रूप कोकिला रव तियन, पतिव्रत रूप अनूप ।

विद्यारूप कुरूप को, क्षमा तपस्वी रूप ॥९॥

कोयल का सौन्दर्य है उसकी बोली, स्त्री का सौन्दर्य है उसका पातिव्रत । कुरूप का सौन्दर्य है उसकी विद्या और तपस्वियों का सौन्दर्य है उनकी क्षमाशक्ति ॥९॥

त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् ।

ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ।।१०।।

दोहा-- कुलहित त्यागिय एककूँ, गृहहु छाडि कुल ग्राम ।

जनपद हित ग्रामहिं तजिय, तनहित अवनि तमाम ॥१०॥

जहाँ एक के त्यागने से कुल की रक्षा हो सकती हो, वहाँ उस एक को त्याग दे । यदि कुल के त्यागने से गाँव की रक्षा होती हो तो उस कुल को त्याग दे । यदि उस गाँव के त्यागने से जिले की रक्षा हो तो गाँव को त्याग दे और यदि पृथ्वी के त्यागने से आत्मरक्षा सम्भव हो तो उस पृथ्वी को ही त्याग दे ॥१०॥

उद्योगे नास्ति दारिद्र्य जपतो नास्ति पातकम् ।

मौनेनकलहोनास्ति नास्ति जागरितो भयम् ।।११।।

दोहा-- नहिं दारिद उद्योग पर, जपते पातक नाहिं ।

कलह रहे ना मौन में, नहिं भय जागत माहिं ॥११॥

उद्योग करने पर दरिद्रता नहीं रह सकती । ईश्वर का बार बार स्मरण करते रहने पर पाप नहीं हो सकता । चुप रहने पर लड़ाई झगड़ा नहीं हो सकता और जागते हुए मनुष्य के पास भय नहीं टिक सकता ॥११॥

अतिरूपेण वै सीता अतिगर्वेणः रावणः ।

अतिदानाब्दलिर्बध्दो ह्यति सर्वत्र वर्जयेत् ।।१२।।

दोहा-- अति छबि ते सिय हरण भौ, नशि रावण अति गर्व ।

अतिहि दान ते बलि बँधे, अति तजिये थल सर्व ॥१२॥

अतिशय रूपवती होने के कारण सीता हरी गई । अतिशय गर्व से रावण का नाश हुआ । अतिशय दानी होने के कारण बलि को बँधना पड़ा । इसलिये लोगों को चाहिये कि किसी बात में 'अति' न करें ॥१२॥

कोऽतिभारः समर्थानां किं दूरं व्यवसायिनाम्।

को विदेशः सुविद्यानां कः परः प्रियवादिनाम् ।।१३।।

दोहा-- उद्योगिन कुछ दूर नहिं, बलिहि न भार विशेष ।

प्रियवादिन अप्रिय नहिं, बुधहि न कठिन विदेश ॥१३॥

समर्थ्यवाले पुरुष को कोई वस्तु भारी नहीं हो सकती । व्यवसायी मनुष्य के लिए कोई प्रदेश दूर नहीं कहा जा सकता और प्रियवादी मनुष्य किसी का पराया नहीं कहा जा सकता ॥१३॥

एकेनापि सुवृक्षेण दह्यमानेन गन्धिना ।

वासितं तद्वनं सर्वं कुपुत्रेण कुलं यथा ।।१४।।

दोहा-- एक सुगन्धित वृक्ष से, सब बन होत सुवास ।

जैसे कुल शोभित अहै, रहि सुपुत्र गुण रास ॥१४॥

(वन) के एक ही फूले हुए और सुगन्धित वृक्ष ने सारे वन को उसी तरह सुगन्धित कर दिया जैसे कोई सपूत अपने कुल की मर्यादा को उज्ज्वल कर देता है ॥१४॥

एकेन शुष्कवृक्षेण दह्यमानेन वन्हिना ।

दह्यते तद्वनं सर्व कुपुत्रेण कुलं यथा ।।१५।।

दोहा-- सूख जरत इक तरुहुते, जस लागत बन दाढ ।

कुलका दाहक होत है, तस कुपूत की बाढ ॥१५॥

उसी तरह वन के एक ही सूखे और अग्नि से जलते हुए वृक्ष के कारण सारा वन जल कर खाक हो जाता है । जैसे किसी कुपूत के कारण खानदान का खानदान बदनाम हो जाता है ॥१५।

एकेनापि सुपुत्रेण विद्यायुक्तेन साधुना ।

आल्हादितं कुलं सर्वं यथा चन्द्रेण शर्वरी ।।१६।।

सोरठा-- एकहु सुत जो होय, विद्यायुत अरु साधु चित ।

आनन्दित कुल सोय, यथा चन्द्रमा से निशा ॥१६॥

एक ही सज्जन और विद्वान पुत्र से सारा कुल आह्लादित हो उठता है, जैसे चन्द्रमा के प्रकाश से रात्रि जगमगा उठती है ।

किं जार्तैबहुभिः पुत्रैः शोकसन्तापकारकैः ।

वरमेकः कुलालम्बी यत्र विश्राम्यते कुलम्‍ ।।१७।।

दोहा-- करनहार सन्ताप सुत, जनमें कहा अनेक ।

देहि कुलहिं विश्राम जो, श्रेष्ठ होय वरु एक ॥१७॥

शोक और सन्ताप देनेवाले बहुत से पुत्रों के होने से क्या लाभ ? अपने कुल के अनुसार चलनेवाला एक ही पुत्र बहुत है कि जहाँ सारा कुल विश्राम कर सके ॥१७॥

लालयेत्पञ्चवर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत ।

प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत् ।।१८।।

दोहा-- पाँच वर्ष लौं लीलिए, दसलौं ताडन देइ ।

सुतहीं सोलह वर्ष में, मित्र सरिस गनि देइ ॥१८॥     

पाँच वर्ष तक बच्चे का दुलार करे । फिर दस वर्ष तक उसे ताड़ना दे, किन्तु सोलह वर्ष के हो जाने पर पुत्र को मित्र के समान समझे ॥१८॥

उपसर्गेऽन्यचक्रे च दुर्भिक्षे च भयावहे ।

असाधुजनसम्पर्के यः पलायति जीवति ।।१९।।

दोहा-- काल उपद्रव संग सठ, अन्य राज्य भय होय ।

तेहि थल ते जो भागिहै, जीवत बचिहै सोय ॥१९॥ 

दंगा वगैरह खड़ा हो जाने पर, किसी दूसरे राजा के आक्रमण करने पर, भयानक अकाल पड़ने पर और किसी दुष्ट का साथ हो जाने पर, जो मनुष्य भाग निकलता है, वही जीवित रहता है ॥१९॥

धर्मार्थकाममोक्षेषु यस्यैकोऽपि न विद्यते ।

जन्म्जन्मनि मर्त्येष मरणं तस्य केवलम् ।।२०।।

दोहा-- धरमादिक चहूँ बरन में, जो हिय एक न धार ।

जगत जननि तेहि नरन के, मरिये होत अबार ॥२०॥

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पदार्थों में से एक पदार्थ भी जिसको सिद्ध नहीं हो सका, ऎसे मनुष्य का मर्त्यलोक में बार-बार जन्म केवल मरने के लिए होता है और किसी काम के लिए नहीं ॥२०॥

मूर्खा यत्र न पुज्यन्ते धान्यं यत्र सुसञ्चितम् ।

दाम्पत्ये कलहो नास्ति तत्र श्रीः स्वयमागता ।।२१।।

दोहा-- जहाँ अन्न संचित रहे, मूर्ख न पूजा पाव ।

दंपति में जहँ कलह नहिं, संपत्ति आपुइ आव ॥२१॥    

जिस देश में मूर्खों की पूजा नहीं होती, जहाँ भरपूर अन्न का संचय रहता है और जहाँ स्त्री पुरुष में कलह नहीं होता, वहाँ बस यही समझ लो कि लक्ष्मी स्वयं आकर विराज रही हैं ॥२१॥

इति चाणक्ये तृतीयोऽध्यायः ॥३॥

आगे जारी............ चाणक्यनीति अध्याय 4

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