कालिका पुराण अध्याय २४
कालिका पुराण अध्याय २४ में सती का विभूति वर्णन, महामाया योगनिद्रा की अन्तर्मायास्तुति,प्रलय (संहार) कथन तथा सृष्टि रचना का वर्णन है।
कालिकापुराणम् चतुर्विंशोऽध्यायः संहारकथनम्
कालिका पुराण अध्याय
२४
Kalika puran chapter 24
कालिकापुराण चौबीसवाँ अध्याय- प्रलय (संहार) कथन
अथ कालिका
पुराण अध्याय २४
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
ततो हिमवतः
प्रस्थे गिरे: शिप्रसरस्तटे ।
उपविष्टो महादेवस्तत्सरोऽपश्यदन्तिके
।।१।।
मार्कण्डेय
बोले- तब हिमालय पर्वत के शिखर पर शिप्र सरोवर के किनारे बैठे हुए महादेव ने उस सरोवर
को निकट से देखा ।। १ ।
पुनः पुनः
प्रेष्यमाणो ब्रह्मणा हरिणा च सः ।
ध्यानं कर्तुं
तत्र मनः स्थिरं कृत्वा दृढात्मवान् ।।२।।
बार-बार
ब्रह्मा और विष्णु द्वारा प्रेरित किये जाने पर उन दृढ़ आत्मा वाले शिव ने वहीं
ध्यान करने के लिए अपना मन स्थिर किया ॥ २ ॥
आत्मानमात्मना
द्रष्टुमात्मन्येव विशेषतः ।
परमं
यत्नमकरोद् ध्यानेन स्मरशासनः ।।३।।
कामदेव को
दण्डित करने वाले भगवान शिव ने ध्यान-मार्ग द्वारा अपने में ही अपने द्वारा अपने
को विशेष रूप से देखने के लिए अत्यधिक प्रयत्न किया ।। ३ ।।
ध्याने
प्रविष्टचित्तन्तु तं दृष्ट्वा द्रुहिणादयः ।
हरे प्रविष्टां
मायाख्यां तुष्टुवुर्यतमानसाः ।।४।।
उनको ध्यान
में अपने चित्त को प्रविष्ट किये अर्थात् ध्यानस्थ देखकर, नियन्त्रित मन वाले ब्रह्मादि देवताओं ने
शिव में प्रविष्ट माया नामक शक्ति की स्तुति करना आरम्भ किया ॥ ४ ॥
मायया मोहितो
भर्गः सतीशोकाकुलो भृशम् ।
विलपत्येव तां
तस्मिन् मोहहेतुं जगत्प्रसूम् ॥५॥
स्तुत्वा
शम्भुशरीरात्तु निःसार्यैनां निराकुलम् ।
शम्भुचित्तं
करिष्यामो ध्यानासक्तं निरञ्जनम् ॥६॥
जिस माया से
मोहित होने ही के कारण शिव सती के शोक में बहुत अधिक व्याकुल हो विलाप कर रहे हैं।
उनमें स्थित, जगत् को
उत्पन्न करने वाले (शिव) के भी मोह के कारणभूत उस स्थिर माया की स्तुति कर उसे,
शिव के शरीर से निकाल कर, ध्यान में स्थित,
निरञ्जन शम्भु के चित्त को हम व्याकुलता से रहित करेंगे ।। ५-६ ।।
यावत् सती पुनर्देहं
गृहीत्वा हरभामिनी ।
भवित्री
तावदेवेष विशोको ध्यातु निष्कलम् ॥७॥
जब तक सती
पुनः शरीर धारण कर शिव की पत्नी होवेंगी तब तक ये शोकरहित हो इसी प्रकार अव्यक्त
तत्त्व का ध्यान करते रहें ।। ७ ।
इति संचित्य मनसा
ब्रह्माद्यास्त्रिदिवौकसः ।
योगनिद्रां महामायां
स्तोतुमेवं समारभन् ॥८ ॥
ब्रह्मा आदि
देवताओं ने मन में ऐसा सोचकर महामाया योगनिद्रा की इस प्रकार से स्तुति करना
प्रारम्भ किया ।। ८ ।।
कालिका पुराण
अध्याय २४
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श्लोक ९ से २७ में भगवती महामाया योगनिद्रा देवी का स्तवन को दिया गया है इसे पढ़ने
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कालिका पुराण
अध्याय २४
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
योगनिद्रा
महामाया संस्तुतेयं तदा सुरैः ।
हरस्य हृदयात्
क्षिप्रं निःससार तदाञ्जसा ।। २८ ।।
मार्कण्डेय
बोले- देवताओं द्वारा उस समय इस प्रकार स्तुति किये जाने पर महामाया योगनिद्रा तुरन्त
शिव के हृदय से तेजी से बाहर निकल गयीं ॥ २८ ॥
विनिःसृतायां
तु तस्यां विवेश मधुसूदनः ।
शम्भोरन्तः
स्वयं तस्य शान्त्यर्थं विश्वरूपधृक् ।। २९ ।।
उस योगमाया के
निकल जाने पर स्वयं विश्वरूपधारी, मधुसूदन, विष्णु ने उन (शिव) के अन्त:करण में,
उनकी शान्ति हेतु, स्वयं प्रवेश किया ।। २९ ।।
प्रविश्य
हृदयं तस्य कल्पे कल्पे यथाभवत् ।
सृष्टि:
स्थितिस्तथैवान्तस्तथादर्शयदच्युतः ।। ३० ।।
भगवान विष्णु
ने उनके हृदय में प्रवेश कर प्रत्येक कल्पों में जिस प्रकार सृष्टि-स्थिति एवं
विनाश का क्रम चला था उसे दिखाया ।। ३० ।।
यथा सती तस्य
जाया भूता सा या च यत्सुता ।
तत् सर्वं
दयामास मुक्तदेहा च सा यथा ।। ३१ ।।
जिस प्रकार
सती उनकी पत्नी बनीं थी, वे जो थीं, वे जिसकी पुत्री थीं, जैसे वे शरीर छोड़ी थीं वह सब उन्हें उन्होंने दिखा दिया ॥ ३१ ॥
वहिर्व्यक्तं तु
निःसारं प्रपञ्चं रजसं बहु ।
दर्शयित्वा परं
ज्योतिर्गतचित्तं तदाकरोत् ।।३२।।
इस प्रकार
बाहर दिखने वाले रजोगुण की अधिकता से फैले प्रपञ्च को निःसार दिखाकर उनके चित्त को
परमात्मा के दिव्यज्ञान से प्रकाशित कर दिया ।। ३२ ।।
ततो हरोऽपि
तान् सर्वान् प्रपञ्चान् वीक्ष्य चासकृत् ।
निःसारांश्च
तदा मत्वा सारे चित्तं न्यवेशयत् ।। ३३ ।।
तब शिव ने भी
उन सभी प्रपञ्चों को बारम्बार देखकर, उन्हें निःसार मानकर, अपने चित्त को
सारतत्त्व परमात्मा में लगाया ।। ३३ ।।
ब्रह्मादीनां तदा
माया देवानां तैः परिष्टुता ।
प्रतिश्रुत्य च
कर्तव्यं तत्रैवान्तर्दधे द्रुतम् ।।३४।।
तब माया भगवती
भी उन ब्रह्मादि देवताओं द्वारा स्तुति किये जाने के बाद उन्हें कर्त्तव्य का वचन
दे, शीघ्र ही वहीं अन्तर्धान हो गईं ।। ३४ ।
भगवानपि वैकुण्ठः
शम्भोश्चित्तं पदे पदे ।
संयम्य
निःसृतः कायाद्राजेव रविमण्डलात् ।। ३५ ।।
भगवान विष्णु
भी शिव के चित्त को पद-पद पर संयमित कर उनके शरीर से बाहर निकलकर, अपने मण्डल से बाहर निकले सूर्यदेव की
भाँति सुशोभित हुये ।। ३५ ।।
कृतकृत्यास्तदा
देवा ब्रह्मनारायणादयः ।
स्वं स्वं
स्थानं ययुः प्रीतियुतास्त्यक्त्वा हरं गिरौ ।। ३६ ।।
तब उस पर्वत
पर शिव को छोड़कर तथा स्वयं कृतकृत्य हो ब्रह्मा, विष्णु आदि देवता, प्रसन्नता पूर्वक
अपने-अपने स्थानों को चले गये ।। ३६ ।
ध्यानासक्तं
महादेवं प्रणम्येन्द्रादयः सुराः ।
विज्ञाप्य
मौनिनं देवं जग्मुः स्थानं स्वकं स्वकम् ।। ३७।।
ध्यान में
आसक्त महादेव शिव को मौनी जानकर इन्द्रादि देवगण भी उन्हें प्रणाम कर अपने-अपने
स्थानों को चले गये ॥ ३७ ॥
यातेषु तेषु
देवेषु कपर्दी वृषवाहनः ।
सहस्रं
दिव्यमानेन दध्यौ ज्योतिः परं समाः ।। ३८ ।।
उन देवताओं के
चले जाने पर कपर्दी, वृषवाहन, शिव, देवताओं के मान से
एक हजार (मानव मान से ३६००००) वर्षों तक परम ज्योति का ध्यान करते हुये तपस्यारत
रहे ॥ ३८ ॥
।। ऋषय ऊचुः
।।
कथं मधुरिपुः
शम्भोः प्रविश्य हृदयेऽञ्जसा ।
कल्पे कल्पे
स्थितिं सृष्टिं संयमञ्चाप्यदर्शयत् ।। ३९ ।।
(यह सुनकर )
ऋषिगण बोले- मधु नामक दैत्य के शत्रु विष्णु ने शीघ्रता से शिव के हृदय में कैसे
प्रवेश कर उन्हें भिन्न-भिन्न कल्पों में होने वाले सृष्टि-स्थिति और संयम (नाश)
के क्रम को दिखाया ? ।। ३९ ।।
यथा जगत्प्रपञ्चाय
रजसा जगतीं गताः ।
निःसारता कथं
तेषां दर्शिता कैटभारिणा ।। ४० ।।
जगत् के
प्रपञ्च हेतु पृथ्वी पर जो रजोगुण की गति है उसकी निःसारता को कैटभ नामक दैत्य के
शत्रु विष्णु ने कैसे दिखाया ? ।। ४० ।।
किन्नु सारतरं
गुह्यं परं ज्योतिः सनातनम् ।
दर्शितं तेन
तत् सत्यमाचक्ष्व द्विजसत्तम ।।४१।।
हे
द्विजश्रेष्ठ ! सार से सार, अत्यन्त सारतत्त्व रूप, गोपनीय, निरन्तर, परम ज्योति स्वरूप, किस
सत्य का उन विष्णु द्वारा दर्शन कराया गया? वह हमसे कहिये ।।
४१ ।।
श्रोतुमिच्छाम
इति ते मुनीन्द्राद्भुतमुत्तमम् ।
विस्तरादिदमाख्याहि
धर्मं निःश्रेयसं परम् ।।४२।।
मुनियों में
इन्द्र के समान श्रेष्ठ मुनिजन के लिए आश्चर्यजनक तथा उत्तम आप के द्वारा वर्णित
इस रहस्य को हम सुनना चाहते हैं कृपया इस परम निःश्रेय प्रदान करने वाले धर्म
(रहस्य) को विस्तारपूर्वक बताइये ॥ ४२ ॥
कालिका पुराण
अध्याय २४- सृष्टि रचना वर्णन
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
आदिसर्गमहं
वक्ष्ये वाराहं द्विजसत्तमाः ।
कल्पे कल्पे
यथा सृष्टिर्वाराहे यादृशी भवेत् ।। ४३ ।।
मार्कण्डेय
बोले- हे द्विजसत्तमों ! विभिन्न वाराह कल्पों में जिस प्रकार की सृष्टि हुई है, मैं उस वाराह नामक आदि सर्ग का वर्णन करता
हूँ ।। ४३ ।।
आदिसृष्टिं
दर्शयित्वा प्रतिसर्गं तथा हरिः ।
शम्भवे दर्शयामास
प्रलयादीन् निबोधत ।।४४ ।।
विष्णु भगवान
ने शिव को प्रतिसर्ग प्रलय दिखाकर आदि सृष्टि दिखाया था इसलिए आप भी पहले प्रलय
आदि को जानिये ।। ४४ ।
प्रलयं प्रथमं
वक्ष्ये सर्गमादिं ततः परम् ।
प्रतिसर्ग ततो
विप्रा वाराहं विनिबोधत ।। ४५ ।।
हे विप्रगण !
मैं पहले प्रलय की कथा सुनाता हूँ, उसके बाद आदि सर्ग की तत्पश्चात् प्रतिसर्ग की वाराह कल्प
सम्बन्धी कथा कहूँगा, आप सब उसे विशेष रूप जान लीजिये* ॥ ४५ ॥
* सांख्य शास्त्रानुसार गुणों की साम्यावस्था तथा
वेदान्तानुसार क्षेत्रज्ञ में क्षेत्र का अधिष्ठान ही प्रलय है। सृष्टि की इच्छा
से संक्षोभ होने पर यह स्थिति बदल जाती है।
कालिका पुराण
अध्याय २४- प्रलयकथन
निमेषो नाम कालांशो
नेत्रोन्मेषविलक्षितः ।
तैरष्टादशभिः काष्ठा
काष्ठानां त्रिंशता कला ।। ४६ ।।
नेत्र के
उन्मेष से आने-जाने वाले समय का भाग निमेष है। अठारह निमेषों की एक काष्ठा तथा तीस
काष्ठाओं की एक कला होती है ।। ४६ ।।
कलाभिस्तावतीभिस्तु
क्षणाख्यं परिकीर्तितः ।
क्षणैर्द्वादशभिः
प्रोक्तो मुहूर्तस्तैस्तु त्रिंशता ।।४७ ।।
मानुषः
स्यादहोरात्रः पक्षस्ते दश पञ्च च ।
पक्षाभ्यां
मानुषो मासः पितॄणां तदहर्निशम् ।।४८ ।।
उतनी ही (तीस)
कलाओं को 'क्षण'
कहा जाता है। बारह क्षणों को मुहूर्त से तथा उन्हीं तीस मुहूर्तों
से मनुष्यों का एक अहोरात्र ( रात-दिन अर्थात् दिन) होता है । इन दिनों की पन्द्रह
संख्या होने पर एक पक्ष होता है। मनुष्यों के दो पक्षों से एक मास होता है जो
पितरों का एक रात दिन होता है ।। ४७-४८ ।।
कृष्णपक्षः पितॄणां
तु कर्मार्थं दिवसो मतः ।
स्वप्नार्थ शुक्लपक्षस्तु
रजनी परिकीर्तिता ।। ४९ ।।
पितरों के
कर्म हेतु कृष्ण पक्ष दिन तथा सोने हेतु शुक्ल पक्ष रात्रि कही गयी है ।। ४९ ।।
मासैर्द्वादशभिर्वर्षो
देवानां तदहर्निशम् ।
देवानां तु
दिनं प्रोक्तं षण्मासा उत्तरायणम् ।
रात्रिः स्वप्नाय
देवानां षण्मासा दक्षिणायनम् ।। ५० ।।
मनुष्यों को
बारह मासों का एक वर्ष होता है। यह देवताओं एक अहोरात्र है, जिसके उत्तरायण के छः मास देवताओं के दिन
तथा दक्षिणायन के छः मास देवताओं के सोने हेतु रात्रि होते हैं ।। ५० ।।
द्वाभ्यां
द्वाभ्यान्तु मासाभ्यामर्कजाभ्यामृतुः स्मृतः ।
ऋतुभिश्चायनं प्रोक्तं
त्रिभिस्तन्मानुषं मतम् ।।५१।।
दो-दो सूर्य
सम्बन्धी सौरमासों की एक ऋतु बतायी गई है। मनुष्य के मान से इन तीन ऋतुओं का एक
अयन होता है ।। ५१ ॥
ऋतुभिर्वत्सरः
षड्भिस्तांश्च शृणु पृथक् पृथक् ।
चैत्रादि-मासयुगलैः
संज्ञाभेदाद् द्विजोत्तमाः ।। ५२ ।।
हे
द्विजोत्तमों ! उनके चैत्र आदि मासों के जोड़ों के अनुसार अलग-अलग नाम होते हैं।
इस नाम भेद से छ: ऋतुओं का एक वर्ष होता है। अब उनके विषय में आप लोग सुनें ।। ५२
।।
वसन्तश्चैत्र
वैशाखो ग्रीष्मो ज्येष्ठः शुचिस्तथा ।
प्रावृट्
नभोनभस्यौ तु शरत् स्यादिष-कार्तिके ।। ५३ ।।
सहः पौषौ च
हेमन्तः शिशिरो माघफाल्गुनौ ।
षडिमे ऋतवः
प्रोक्ता यज्ञादौ विहिताः पृथक् ।। ५४ ।।
चैत्र वैशाख -
बसन्त, ज्येष्ठ-शुचि (आषाढ़ ) ग्रीष्म, नभ नभस्य (श्रावण- भाद्रपद) प्रावृट् (वर्षा), ईष
(आश्विन) तथा कार्तिक से शरद ऋतु होती है। सह (अगहन) तथा पौष से हेमन्त, माघ - फाल्गुन से शिशिर ये अलग-अलग छ: ऋतुएँ यज्ञादि कार्यों के लिए
निर्धारित की गयी हैं ।। ५३-५४ ।।
नृणां मानेन
दशभिर्लक्षैः सप्तभिरुत्तरैः ।
अष्टाविंशतिसाहस्त्रैर्मानं
कृतयुगस्य तु ।। ५५ ।।
मनुष्यों के
मान से सात अधिक दश अर्थात् सत्रह लाख, अट्ठाईस हजार वर्ष मान का कृतयुग (सतयुग) होता है ।। ५५ ।
सन्ध्या
चतुःशतानीह वर्षाणामन्तरालतः ।
सन्ध्यांशस्तावता
प्रोक्तस्तदन्तर्गत ईप्सितः ।। ५६ ।।
अन्तराल में
चार सौ वर्षों की सन्ध्या तथा उतने ही वर्षमान का सन्ध्यांश भी उसी के अन्तर्गत
समाहित होता है ।। ५६ ।
त्रेता द्वादशभिर्लक्षैर्मानुषैर्वत्सरैर्भवेत्
!
षण्णवत्या सहस्त्रैश्च
सन्ध्या चास्य शतत्रयम् ।
शतत्रयं तु सन्ध्यांशस्तदन्तः
परिकीर्तितः ।। ५७ ।।
इसी प्रकार १२
लाख ९६ हजार वर्षों का त्रेता युग होता है। इसकी ३०० वर्षो की सन्ध्या तथा अन्त
में तीन सौ वर्षों का सन्ध्यांश कहा गया है ।। ५७ ।।
चतुःषष्टिसहस्राणि
लक्ष्याण्यष्टौ प्रमाणतः ।।५८।।
भवेद्युगं
द्वापराख्यं तेषु सन्ध्या शतद्वयम् ।
शतद्वयं तु
सन्ध्यांशस्तदन्तर्गत इष्यते ।। ५९ ।।
आठ लाख, चौंसठ हजार वर्ष के इसी मान से द्वापर नामक
युग और उसमें दो सौ वर्षों की सन्ध्या, अन्त में दो सौ
वर्षों का सन्ध्यांश भी अभीष्ट होता है ।। ५८-५९ ।।
द्वात्रिंशत्तु
सहस्राणि चतुर्लक्षाणि वै कलेः ।। ६० ।।
संवत्सरैर्भवेन्मानं
सन्ध्यैकं प्रोच्यते शतम् ।
वत्सराणामेकशतं
सन्ध्यांशश्च तदन्तरे ।। ६१ ।।
उसी मान से
चार लाख बत्तीस हजार वर्षों का कलियुग का मान होता है, जिसकी एक सौ वर्ष की सन्ध्या तथा अन्त में
एक सौ वर्ष का ही सन्ध्यांश होता है ।। ६०-६१ ॥
एवं कृतश्च
त्रेता च द्वापरश्च तथा कलिः ।
मानुषेण
प्रमाणेन भवेद् युगचतुष्टयम् ।।६२।।
इस प्रकार
मनुष्य के मान से कृत, त्रेता, द्वापर एवं कलियुग का एक चतुर्युग होता है
।। ६२ ।।
त्रिचत्वारिंशता
लक्षैर्मानञ्चातुर्युगं भवेत् ।
सहस्त्रैरपि विंशत्या
सन्ध्या संध्यांशसंयुतम् ।। ६३ ।।
सन्ध्या और
सन्ध्यांश के सहित तिरालीस लाख बीस हजार वर्षमान का एक चतुर्युग होता है ॥ ६३ ॥
दैवं दिनं
वत्सरेण मानुषेण सरात्रकम् ।
एवं क्रमं
गणित्वा तु मानुषीयैश्चतुर्युगैः ।
दैवं
द्वादशसाहस्रं वत्सराणां प्रकीर्तिम् ।।६४।।
रात के साथ
देवताओं का दिन, मनुष्यों
के एक वर्ष के समान होता है इसी क्रम से उपर्युक्त गणना मानवी मान के अनुसार एक
चतुर्युग की है जो बारह हजार दैव वर्ष के तुल्य होती है ।। ६४ ।
देवैर्द्वादशसाहस्त्रैर्वत्सरैदैविकं
युगम् ।
तद्वै
चतुर्युगं नृणां सन्ध्या सन्ध्यांशसंयुतम् ।।६५ ।।
देवताओं के
बारह हजार वर्षों का एक दैवी युग (देव युग) होता है वही सन्ध्या और सन्ध्यांश के
सहित मनुष्यों का एक चतुर्युग होता है ।। ६५ ।।
देवानां तु
कृते त्रेताद्वापरदिव्यवस्थया ।
न
युगव्यवहारोऽस्ति न च धर्मादिभिन्नता ।। ६६ ।।
देवताओं के
लिए न तो कृतयुग, त्रेता, द्वापर एवं कलि आदि की व्यवस्था से युग
व्यवस्था है और न तो धर्म सम्बन्धी भिन्नता ही है ।। ६६ ।।
किन्तु
चातुर्युगं नारं भवेद्दैवयुगं सदा ।
दैविकैरेकसप्तत्या
युगैर्मन्वन्तरं भवेत् ।। ६७।।
किन्तु मानवीय
चतुर्युग सदैव एक दैवयुग के बराबर होता है । एकहत्तर दैवयुगों का एक मन्वन्तर होता
है।।६७।।
दैवयुगसहस्त्रे
द्वे ब्रह्मण: स्यादहर्निशम् ।
चतुर्युगसहस्त्रे
द्वे नृणां मानेन तद्भवेत् ।। ६८ ।।
दो हजार दैवयुगों
से ब्रह्मा का एक रात-दिन होता है, वह मनुष्यों के मान से दो हजार चतुयुग का होता है ।। ६८ ।।
एकस्मिन्
ब्राह्मदिवसे मनवः स्युश्चतुर्दश ।
एवं ब्राह्मण
मानेन दिवसैस्तु त्रिभिः शतैः ।
स-
षष्टिभिर्वत्सरः स्याद् ब्राह्मो वर्षो नृणां यथा ।। ६९ ।।
ब्रह्मा के एक
दिन में चौदह मनु हैं। मनुष्यों की ही भाँति इस ब्राह्ममान के तीन सौ साठ दिनों का
ब्रह्मा का एक वर्ष होता है ।। ६९ ।
ब्राह्मैः
पञ्चशता वर्षैः परार्धः परिकीर्तितः ।
तदीश्वरस्य
दिवसस्तावती रात्रीरीड्यते ।।७० ।।
ब्रह्मा के
पचास वर्षों को एक परार्ध कहा जाता है। वही परार्ध शिव का एक दिन होता है तथा उतने
ही कालमान की उनकी रात्रि भी होती है ।। ७० ।।
शतेन ब्रह्मणो
वर्षो कालः स्याद्विपरार्धकः ।
परार्धद्वितयेऽतीते
ब्रह्मण: प्रलयोभवेत् ।
प्रलीने
ब्रह्मणि परे जगतां प्राकृतो लयः ।।७१ ।।
ब्रह्मा के सौ
वर्षों का समय द्विपरार्ध का होता है। दो परार्ध बीतने पर ब्रह्मा का प्रलय
अर्थात् अन्त हो जाता है। ब्रह्मा के परब्रह्म में लीन होने पर संसार का प्राकृत
लय होता है ।। ७१ ॥
समस्तजगदाधारमव्ययं
यत् परात्परम् ।
तस्य
ब्रह्मस्वरूपस्य दिवारात्रस्य यद् भवेत् ।
तत्परं नाम
तस्यार्थं परार्धमभिधीयते ।।७२।।
समस्त जगत् का
आधार, कभी नष्ट न होने वाला जो पर से परे अर्थात्
अत्यन्त श्रेष्ठ ब्रह्म स्वरूप है, उसका जो एक दिन रात होता
है, उसका नाम पर है, उसके आर्ध (आधे
भाग) को परार्ध कहते हैं ।। ७२ ।
जगत्स्वरूपी
भगवान् परमात्माक्षयोऽव्ययः ।
स्थूलात्
स्थूलतमः सूक्ष्माद् यस्तु सूक्ष्मतमो मतः ।। ७३ ।।
न तस्यास्ति
दिवारात्रिव्यवहारो न वत्सरः ।।७४ ।।
किन्तु
पौराणिकैः पूर्वैरस्माभिरपि तादृशैः ।
सृष्टिप्रलयबोधार्थं
कल्प्यते तदहर्निशम् ।। ७५ ।।
जगत् स्वरूप
जो भगवान है, वह परम
आत्मा, कभी कम न होने या नष्ट न होने वाला है, वह स्थूल से भी स्थूलतम तथा सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतम है । (यहाँ “अणोरणीयान् महतो महीयान् " वेदान्त वाक्य की प्रतिध्वनि भासित होती
है)। उस परमात्मा के लिए दिन- रात का कोई व्यवहार नहीं होता और न कोई वत्सर
अर्थात् वर्ष ही है। पूर्ववर्ती पौराणिकों द्वारा तथा उसी तरह के हमारे द्वारा भी
सृष्टि प्रलय का बोध कराने के लिए उस परमात्मा के भी दिन-रात की कल्पना की गयी है
।। ७३-७५ ॥
स एव रात्रि:
स दिवा स वर्ष: स वै क्षिति: सृष्टिकरो हरश्च ।
स विष्णुरूपी पुरुष:
पुराण-स्तस्मिन् समस्तञ्च विभाति तद्वत् ।।७६।।
वास्तव में
वही रात्रि, दिन,
वर्ष है। वही पृथ्वी है। वही सृष्टिकर्ता ब्रह्मा और वही
(संहारकर्ता) शिव है । वही विष्णु रूप में प्राचीन पुरुष है । उसी में तथा उसी की
भाँति यह सब कुछ भासित होता है ।। ७६ ।।
ततो ब्रह्मणि
लीने तु परमात्मनि शाश्वते ।
जगत् सर्वं
क्रमेणैव तद्रूपत्वाय गच्छति ।।७७।।
तब ब्रह्मा के
शाश्वत परमात्मा में लीन हो जाने पर समस्त संसार क्रमशः उसी परमात्मा के स्वरूप को
प्राप्त कर लेता है । ७७ ॥
ब्रह्मण: शतवर्षान्ते
रुद्ररूपी जनार्दनः ।
जगदन्तं स्वयं
कृत्वा परमे लीनमेति वै ।।७८।।
ब्रह्मा के सौ
वर्ष व्यतीत हो जाने पर रुद्ररूपधारी भगवान् जनार्दन (विष्णु) जगत् का अन्त करके
स्वयं परमतत्त्व में लीन हो जाते हैं ॥ ७८ ॥
प्रथमं सविता
सर्व स्थावरं जङ्गमं तथा ।
तीव्रैः करैः
शोषयित्वा जलं सर्वं ग्रहीष्यति ।।७९।।
उस समय
सर्वप्रथम सूर्य समस्त स्थावर एवं जङ्गम प्राणियों को अपनी तीव्र किरणों द्वारा
सोखकर समस्त जलतत्त्व का ग्रहण कर लेंगे ।। ७९ ।
शुष्का
वृक्षास्तृणगणाः प्राणिनः पर्वतास्तथा ।
चूर्णीकृत्वा
विशीर्णाः स्युर्दिव्यवर्षशतेन तु ।। ८० ।।
देवताओं के सौ
(मनुष्य के ३६००० वर्षों में सूखे हुए वृक्ष, तृण, समूह, प्राणी)
तथा पर्वत चूर्ण होकर छिन्न-भिन्न हो जायेंगे ।। ८० ।।
ततो
द्वादशसूर्यस्य रश्मयः प्रबला भृशम् ।
अभवन्
द्वादशादित्या जगद्भोग्योपबृंहिताः ।।८१।।
रश्मिद्वारेण
सकलास्सूर्यास्ते भुवनानि च ।
अदहन् पृथिवी
द्यौश्च मेदिनी चोष्णतां गता ।। ८२ ।।
तब जगत् को
भोगने वाली बारह सूर्यों की अत्यधिक बलशाली किरणों के बढ़ने से बारह सूर्य बन
जाएँगे और वे सभी सूर्य अपनी किरणों के द्वारा चौदहों भुवनों को जलायेंगे जिससे
पृथ्वी, आकाश एवं धरती उष्णता को प्राप्त होवेगी ।।
८१-८२ ।।
ततो विनष्टे सकले
स्थावरे जङ्गमे तथा ।
आदित्यरश्मितो
देवो रुद्ररूपी जनार्दनः ।।८३ ।।
निःसृत्य प्रथमं
यातः पातालतलमुन्नतः ।। ८४ ।।
तब समस्त
स्थावर तथा जङ्गम प्राणियों के नष्ट हो जाने पर रुद्रदेव का रूप धारण करने वाले
भगवान् विष्णु, सूर्य की
किरणों से निकल कर, ऊपर से नीचे ताल नामक पहले तल में गये ।।
८३-८४ ।।
सप्तपातालसंस्थांस्तु
नागगन्धर्वराक्षसान् ।
देवानृषीश्च शेषञ्च
जघान वरशूलधृक् ।। ८५ ।।
वहाँ जाकर
श्रेष्ठ शूल धारण करने वाले रुद्र देव ने सातों पातालों में रहने वाले नाग, गन्धर्व, राक्षस,
देवता, ऋषि तथा शेष को भी मार दिया ।। ८५ ।।
एवं स्वर्गे च
पाताले पृथिव्यां सागरेषु च ।
ये
प्राणिनस्तान् समस्तान् जघान स जनार्दनः ।। ८६ ।।
इस प्रकार उस
जनार्दन विष्णु ने स्वर्ग, पाताल, पृथ्वी और सागरों में जो भी प्राणी थे,
उन सभी को मार दिया ।। ८६ ।।
ततो
मुखान्महावायुं रुद्रश्च सृष्टवान् स्वयम् ।
सोऽव्याहतगतिर्गाढं
ससार भुवनत्रये ।।८७।।
तब रुद्रदेव
ने स्वयं अपने मुख से महान् वायु की सृष्टि की, वह महावायु निर्वाध गति तथा प्रचण्डता से तीनों लोकों में फैल
गया ।। ८७ ।।
यावद्वर्षशतं
वायुर्भ्रमन् भुवनगर्भगः ।
सर्वमुत्सारयामास
यत् किञ्चित्तूलराशिवत् ।।८।।
वह वायु सौ
(दिव्य) वर्षों तक भुवनों के बीच घूमता रहा तथा जो कुछ था, उसे उसने रूई के ढेर की भाँति उड़ा दिया ।।
८८ ।।
समस्तं तत्
समुत्सार्य जगद्वर्ति समन्ततः ।
विवेश द्वादशादित्यान्
स वायुर्जवनाधिकः ।। ८९ ।।
जगत् में सब
ओर जो कुछ भी था उस सबको उड़ाकर वह वायु अत्यधिक वेग से द्वादश आदित्यों में
प्रवेश कर गया ।। ८९ ।।
प्रविश्य
मण्डलं तेषां तेजोभिः सह मारुतः ।
महामेघान्
समारेभे रुद्रेण प्रतियोजितः ।। ९० ।।
तब वायु ने उन
बारह आदित्यों के मण्डल में प्रवेश कर उनके तेज के साथ रुद्र द्वारा जोड़े जाने पर
महान मेघों को आरम्भ (उत्पन्न) किया ।। ९० ।।
ततस्ते
प्रेरिता मेघास्तेन वातेन वेगिना ।
रुद्रेणाप्यतिरौद्रेण
पर्यावब्रुर्नभस्तलम् ।। ९१ ।।
तब उस वेगवान
तथा रुद्र से भी अधिक भयानक वायु से प्रेरित वे मेघ, आकाश में घूमने लगे ।। ९१ ।।
संवर्ताख्या महामेघा
भिन्नाञ्जनचयोपमाः ।
केचिद्धूम्राः
शोणवर्णाः शुक्लाश्चित्राश्च भीषणाः ।। ९२ ।
ये संवर्त
नामक बादल अञ्जन के समूह के टुकड़े की भाँति काले, कोई धूम्रवर्ण, कोई लाल, कोई सफेद, कोई रंग-बिरंगे और भयानक थे ।। ९२ ।।
केचिच्च
पर्वताकाराः केचिन्नागसमप्रभाः ।
प्रासादसदृशाः
केचित् क्रौञ्चवर्णा विभीषणाः ।। ९३ ।।
उनमें से कोई
पर्वत के आकर के थे, कोई हाथियों के समान थे, कोई महलों के समान थे तो
कोई क्रौञ्च पर्वत के रंग के समान भीषण थे ।। ९३ ।।
गर्जन्तस्ते
महामेघा वर्षाणामधिकं शतम् ।
ववृषुस्त्रीनथो
लोकान् प्लावयन्तो महास्वनाः ।। ९४ ।।
अथ
स्तम्भप्रमाणेन धारापातेन वै दृढम् ।
धारासारेण महता
पूरितं भुवनत्रयम् ।। ९५ ।।
उन महान ध्वनि
करने वाले महान मेघों ने सौ वर्षों से अधिक समय तक तीनों लोकों को डुबाते हुए, खम्भे के समान सुदृढ़ धाराओं के पतन से
गिरे हुए बहुत अधिक जल से तीनों लोकों को पूर्ण कर दिया ।। ९४-९५ ।।
आध्रुवस्थानमासाद्य
तोयराशौ स्थिते ततः ।
स मुखादसृजद्वायुं
रुद्ररूपी जनार्दनः ।। ९६ ।
ध्रुवस्थान तक
जलराशि के स्थित हो जाने पर उस रुद्र रूपी भगवान विष्णु ने मुख से वायु का सृजन
किया ।। ९६ ।।
तेनौघवायुनाक्षिप्ता
मेघाः संवत्सराञ्छतम् ।
अव्याहततेनाशु
विध्वस्ता अभवंस्ततः ।। ९७ ।।
तब उस
जलमिश्रित वायु के द्वारा प्रेरित मेघ, सौ वर्षों तक निर्बाध गति से संचरण करने के पश्चात् स्वयं
ध्वस्त हो गये ।। ९७ ।
नष्टेषु तेषु
मेघेषु जनलोकादिकं पुनः ।
रुद्रस्त्वाब्रह्मभुवनं
ध्वंसयामास निर्दयः ।। ९८ ।।
उन बादलों के
नष्ट हो जाने के बाद निर्दयी रुद्र ने जनलोक से ब्रह्मलोक तक के भुवनों को ध्वस्त
कर दिया।।९८।।
विध्वस्तेषु समस्तेषु
भुवनेषु विशेषतः ।
विनष्टे
ब्रह्मलोके च रुद्रोऽगाद् द्वादशारुणान् ।। ९९ ।।
सभी लोकों, विशेष कर ब्रह्मलोक के नष्ट हो जाने पर
रुद्र देव द्वादश आदित्यों की ओर गये ।। ९९ ।।
स गत्वा
द्वादशादित्यान् वेगेन महता हरिः ।
अग्रसच्चातिजज्वाल
तैर्गर्भस्थैदिवाकरैः ।। १०० ।।
उस रुद्र
रूपधारी विष्णु ने अतीव वेग से जाकर सूर्यों को ग्रस लिया और अपने गर्भ में स्थित
सूर्यों के द्वारा अत्यधिक प्रज्ज्वलित हो उठे ।। १०० ॥
ततो
ब्रह्माण्डमासाद्य रुद्रः कालान्तकोपमः ।
चूर्णीचकार सकलं
मुष्टिपेषं महाबलाः ।। १०१ ।।
तब महाबलशाली
यमराज समान रुद्र ने मुट्ठी में आये पदार्थ की भाँति सबको चूर्ण कर दिया ॥ १०१ ॥
चूर्णीकुर्वन्तु
ब्रह्माण्डं पृथिव्यपि विचूर्णिता ।
तोयानि च
समस्तानि स दध्रे योगतो हरिः ।। १०२ ।।
उन भगवान
विष्णु द्वारा ब्रह्माण्ड को चूर करते समय पृथ्वी भी चूर-चूर हो गयी तब समस्त जल
को स्वयं उन्होंने योग द्वारा धारण कर लिया ।। १०२ ॥
यद्
ब्रह्माण्डाद्वहिस्तोयं स्थितं पूर्वं समन्ततः ।
यद्वाभ्यन्तर्गतं
तोयं तत् सर्वञ्चैकतां गतम् ।। १०३ ।।
जो जल
ब्रह्माण्ड के चारों ओर पहले फैला हुआ था या जो ब्रह्माण्ड के अन्दर का जल था, वह सब एकरूपता को प्राप्त हो गया ।। १०३ ॥
एकीभूतेषु
तोयेषु सर्वव्यापिषु सर्वतः
।
ब्रह्माण्डखण्डपूर्णौघः
प्लवन्नासीत् स नौरिव ।। १०४ ।।
सब ओर से
सर्वव्यापी जल के एक हो जाने पर उस पूर्ण जलराशि पर ब्रह्माण्ड के वे टुकड़े नाव
की भाँति तैर रहे थे ।। १०४ ॥
ततः पृथिव्याः
सारन्तु गन्धं तन्मात्रकं क्रमात् ।
अम्भो जग्राह
सकलं विनष्टा पृथिवी ततः ।। १०५ ।।
तब पृथ्वी के
समस्त सारतत्त्व गन्ध नामक तन्मात्रा को क्रमशः जल ने ग्रहण कर लिया। इससे पृथ्वी
नष्ट हो गई।।१०५।।
पुनः स
रुद्रस्तेजांसि गर्भस्थानि स्वकायतः ।
निःसारयामास
पुन: पुंजीभूतानि भीषणः ।। १०६ ।।
तानि तेजांसि
सकलं जगृहुः सर्वतः स्थितम् ।
अन्तर्बहिश्च
ब्रह्माण्डात्तेजो यच्चान्यतो गतम् ।। १०७ ।।
उस भयानक
रुद्र ने पुनः अपने शरीर से अपने में निहित तेजराशि को बाहर निकाला। एकत्र हो उन
तेजों ने सब ओर स्थित तथा ब्रह्माण्ड के अन्दर और बाहर जो भी (अग्नि तत्त्व) था, या जो कुछ बाहर गया था, वह सब ग्रहण कर लिया ।। १०६-१०७॥
जगद्वतं सर्वतेजो
गृहीत्वा चैकतो ज्वलन् ।
रौद्रब्रह्माण्डखण्डानि
तेजोऽथ न्यदहज्जले ।। १०८।।
जगत् में
स्थित समस्त तेज एक साथ ग्रहण कर जलते हुए रौद्र तेज ने उस जलराशि में तैरते हुए
उन ब्रह्माण्डखण्डों को जला दिया ।। १०८ ।।
दग्ध्वा
ब्रह्माण्डचूर्णानि तेजांस्युज्ज्वलितानि च ।
जलेभ्यो रसतन्मात्रं
सारभूतं ततोऽग्रहीत् ।
गृहीतसारास्ता
आपः प्रनष्टास्तेजसा ततः ।। १०९ ।
तब तेज के
कारण उज्ज्वल हुये ब्रह्माण्ड खण्डों को जलाकर, जल से उसका सारतत्त्व, रस, तन्मात्रा ग्रहण कर लिया। सार, रस, तन्मात्रा के ग्रहण कर लिये जाने पर तेज (अग्नि) द्वारा जलतत्त्व नष्ट हो
गया ।। १०९ ।।
अप्सु नष्टासु
तत्तेजः प्रविश्याथ सदागतिः ।
एकीभूतो महाभागो
रूपं तन्मात्रमग्रहीत् ।। ११० ।।
जल तत्त्व के
नष्ट हो जाने पर वह तेज द्रव्य ही सदा गतिशील वायु तत्त्व में प्रवेश कर गया। तब
उस महाभाग ने रूप तन्मात्रा को ग्रहण कर लिया ।। ११० ॥
गृहीते
रूपतन्मात्रे तेजांसि सकलान्यथ ।
विनष्टानि ततो
वायुः प्रबलोऽभूदवारितः
।।१११।।
उसके बाद
रूपतन्मात्रा के ग्रहण कर लिये जाने के कारण सभी तेजतत्त्व जब नष्ट हो गये तब
निर्बाध वायु अत्यधिक प्रबल हो उठा ॥ १११ ॥
महास्वनं ततो
वायुमासाद्याग्निरिवज्वलन् ।
रुद्रः
संक्षोभयामास तदाकाशं स्वयं ततः ।। ११२ ।।
तब अत्यन्त
शब्द वाले वायु को प्राप्त हो अग्नि के समान जलते हुए रुद्रदेव ने स्वयं
आकाशतत्त्व को क्षुब्ध कर दिया ।। ११२ ।।
तेन
संक्षुब्धमाकाशमग्रहीन्मरुतस्ततः ।
तद्गतं स्पर्शतन्मात्रं
ततोनष्ट: प्रभञ्जनः ।। ११३ ।।
उनसे क्षुब्ध
आकाशतत्त्व को वायु ने ग्रहण कर लिया। पहले उस वायु में स्थित स्पर्शतन्मात्रा
नष्ट हुई तत्पश्चात् वायु स्वयं नष्ट हो गया ।। ११३ ॥
नष्टे वायौ
ततो रुद्र आकाशात् रासमग्रहीत् ।
शब्दतन्मात्रकं
तस्मिन् गृहीते विगतं वियत् ।। ११४ ।।
वायु के नष्ट
हो जाने पर रुद्र ने आकाशतत्त्व से उसका शब्दगुण छीन लिया। शब्दतन्मात्रा के ग्रहण
किये जाते ही आकाशतत्त्व भी नष्ट हो गया ।। ११४ ॥
नष्टे नभसि
रुद्रोऽसौ काये ब्राह्मे तदाविशत् ।
ब्राह्मं
तदाकुलं कायं निराधारं निराकुलम् ।
विवेश वैष्णवे
काये शङ्खचक्रगदाधरे ।। ११५ ।।
आकाशतत्त्व के
नष्ट हो जाने पर उन रुद्रदेव ने तब ब्रह्मा के शरीर में प्रवेश किया । उस समय
ब्रह्मा की वह व्याकुल काया शङ्ख, चक्र, गदा धारण करने वाले व्याकुलतारहित, आधारहीन भगवान विष्णु के शरीर में प्रवेश कर गई ।। ११५ ।।
ततः
शौरिर्महातेजाः कायं तत् पाञ्चभौतिकम् ।
शङ्खचक्रगदाशार्ङ्गवरासिधरमच्युतम्
।
स्वशक्त्या
संजाहाराशु सारमादाय सर्वतः ।। ११६ ।।
तब उस
महातेजस्वी विष्णु ने अपनी शक्ति द्वारा शंख, चक्र, गदा तथा तलवार धारण करने वाले उस
पाँच भूतों वाले अपने शरीर को शीघ्र ही नष्ट कर दिया ।। ११६ ।।
निराधारं निराकारं
निःसत्तं निरवग्रहम् ।
आनन्दमयमद्वैतं
द्वैतहीनाविशेषणम् ।। ११७।।
न स्थूलं न च
सूक्ष्मं यज्ज्ञानं नित्यं निरञ्जनम् ।
एकमासीत् परं
ब्रह्म स्वप्रकाशं समन्ततः ।। ११८।।
तब आधार-आकार, सत्ता और बाधा से रहित द्वैतहीन (अद्वैत)
सब प्रकार की भेदकारी विशेषताओं से रहित आनन्दमय, न स्थूल,
न सूक्ष्म सब ओर से स्वयं प्रकाशित यज्ञ से जानने योग्य, नित्य और मिथ्या तत्त्व से रहित, एकमात्र परब्रह्म
ही था ।। ११७-११८ ॥
नाहो न
रात्रिर्न वियन्न पृथ्वी नासीत्तमो ज्योतिरभून्नचान्यत् ।
श्रोत्रादिबुद्ध्याद्युपलभ्यमेकं
प्राधानिकं ब्रह्म पुमांस्तदासीत् ।। ११९ ।।
उस समय न दिन
था, न रात्रि थी, न आकाश
था, न पृथिवी थी, न अन्धकार था न
प्रकाश और न दूसरा ही कुछ श्रोत्रादि ज्ञानेन्द्रियों तथा बुद्धि आदि अन्तःकरणों द्वारा
उपलब्ध था। उस समय तो एकमात्र प्रधान से सम्बद्ध ब्रह्मरूप पुरुष ही था ।। ११९ ।।
एवं
यावत्स्थिता सृष्टिस्तावत् कालमसृष्टिकम् ।
आसीदेकं परं
तत्त्वं ततः सृष्टिः प्रवर्तते ।। १२० ।।
इस प्रकार की
स्थिति में जब तक सृष्टि थी तब तक का समय असृष्टि का अर्थात् प्रलय का था । उस समय
मात्र एक परमतत्त्व ही स्थित था, जिससे सृष्टि पुनः प्रवर्तित होती है ।। १२० ॥
प्रकृतौ संस्थितो
यस्मात् सर्वतन्मात्रसञ्चयः ।
अहङ्कारं
महत्तत्वं गतो यत् प्राकृतो लयः ।। १२१ । ।
जिस प्रकार
सभी तन्मात्राओं का प्रकृति में संचय हो जाता है, अहंकार का भी महत् तत्त्व में लय हो जाता है, इसीलिए इसे प्राकृत लय कहते हैं ।। १२१ ॥
प्रकृतौ संस्थितं
व्यक्तमतीयप्रलयन्तु तत् ।
तस्मात्
प्राकृतसंज्ञोऽयमुच्यते प्रतिसञ्चरः ।। १२२ ।।
व्यक्त, अतीतकालिकप्रलय तक प्रकृति में ही स्थिर रहता
है। इसीलिए इस प्रतिसर्ग के प्रलय का नाम प्राकृत प्रलय कहा गया है ।। १२२ ।।
अयं वः कथितो
विप्राः प्राकृताख्यो महालयः ।
आदिसृष्टिं
शृणुष्वेमां कथ्यमानां मया पुनः ।। १२३ ।।
हे विप्रों !
मेरे द्वारा आप लोगों से यह प्राकृत नामक महालय कहा गया। अब पुनः मेरे द्वारा कही
जाने वाली आदि सृष्टि का वर्णन आप लोग सुनें ।। १२३ ॥
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे संहारकथनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥
कालिका पुराण अध्याय २४- संक्षिप्त कथानक
मार्कण्डेय
महर्षि ने कहा- इसके उपरान्त हिमालय पर्वत के प्रस्थ पर शिप्र सरोवर के तट पर
उपविष्ट हुए महादेवजी समीप में उस सरोवर का अवलोकन कर रहे थे। बारम्बार ब्रह्मा और
हरि के द्वारा प्रेष्यमाण यह ध्यान करने के लिए मन को स्थिर करके दृढ़ आत्मा वाले
हुए थे। आत्मा के द्वारा आत्मा को आत्मा में ही विशेष रूप देखने के लिए कामदेव को
शमन करने वाले शिव ध्यान के द्वारा परम यत्न किया था । दुहिण प्रभृति ने ध्यान
प्रविष्ट चित्त वाले उनको देखकर यतमानस होते हुए हर में प्रवेश की हुई माया नाम
वाली का स्तवन किया था । माया मोहित हुए शिव बहुत ही अधिक सती के शोक से व्याकुल
हैं और वह उसी के लिए विलाप किया करते हैं उसमें मोह के हेतु जगत्प्रभु की स्तुति
करके शम्भु के शरीर से इस निराकुला को निकाल कर ध्यान में आशक्त निरंजन शम्भु के
चित्त में कर देंगे। जब तक सती पुनः शरीर का ग्रहण करके शिव की भामिनी होवे तब तक
यह विगत शोक वाले होकर निष्फल का ध्यान करें । ब्रह्मा आदि देवगण यही मन से चिन्तन
करके महामाया योगनिद्रा देवी की स्तुति करने का सभारम्भ उन्होंने कर दिया था ।
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा- महामाया योगनिद्रा यह उस समय में सुरों के द्वारा संस्तुता है वह
शीघ्र ही भगवान हर के हृदय से निकली थी । उसके विनिःसृत होने पर उसमें मधुसूदन ने
प्रवेश किया था । विश्व के रूप को धारण करने वाले भगवान ने स्वयं उन शम्भु की
शान्ति के लिए ही उनके अन्दर प्रवेश करके कल्प-कल्प में ऐसे हो गये थे और अच्युत
प्रभु ने सृष्टि, स्थिति और अन्त को वैसा ही दिखला दिया था जिस रीति से उनकी
सती जाया हुई और वह जो जिसकी पुत्री हुई थी तथा जैसे सती युक्त देह वाली हुई थी वह
सभी दिखला दिया था । बाहर व्यक्त हुआ प्रपञ्च और बहुत रजोगुण और पर ज्योति को
दिखलाकर फिर उस समय में उनको योग चित्त वाला कर दिया था । फिर भगवान शंकर ने भी
अनेक बार उन समस्त प्रपञ्चों का भक्षण करके उस समय में उन्हें निःसार मानकर सार
वस्तु में ही चित्त को निवेशित किया था । उस समय में ब्रह्मा आदि देवों की माया
उनके द्वारा परितुष्टित होकर और कर्त्तव्य की प्रतिज्ञा करके वहाँ पर ही शीघ्र
अन्तर्धान हो गई थी । बैकुण्ठ नाथ भगवान भी पद में भगवान शम्भु के चित्त को संयमित
करके रवि मण्डल से राजा की ही भाँति शरीर से निकल गये थे ।
उस समय
ब्रह्मा और नारायण प्रभृति समस्त देव कृतकृत्य अर्थात् सफल हो गये थे और प्रीति से
युक्त होकर गिरि पर हर को छोड़कर अपने-अपने स्थान को चले गये थे । ध्यान में
समासक्त महादेव जी को प्रणाम करके इन्द्र आदि सुरगण मौनधारी देव को विज्ञापन करके
अपने-अपने स्थान को चले गये थे। उन देवों के चले जाने पर वृषभ के वाहन वाले शम्भु
दिव्यमान से एक सहस्र वर्ष पर्यन्त परज्योति के ध्यान में संलग्न हो गये थे ।
ऋषियों ने
कहा- भगवान् मधुरिपु ने कैसे शम्भु के हृदय में शीघ्र प्रवेश करके कल्प-कल्प में
सृष्टि,
स्थिति और संयम को दिखलाया था। जिस तरह से रजोगुण के द्वारा
जगत् के प्रपंच के लिए जगतीतल में गये थे। फिर कैटभारी प्रभु ने उनकी निःसारता को
किस प्रकार से दिखलाया था ? हे द्विजश्रेष्ठ ! उन्होंने फिर सारतर,
गोपनीय, सनातन परज्योति को दिखलाया था ?
वह सत्य बतलाइए । यही हम सब श्रवण करने की इच्छा करते हैं ।
यह अतीव अद्भुत है उसे हम आप मुनीन्द्र के मुख से ही सुनने के इच्छुक हैं । आप
इसको विस्तारपूर्वक कहिए क्योंकि यह परम निःश्रेयम धर्म है ।
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा- हे द्विजश्रेष्ठों ! मैं आदि सर्ग वाराह का वर्णन करूँगा जिस तरह से
कल्प-कल्प में वाराह में जैसी सृष्टि हुई थी । भगवान् हरि ने प्रतिसर्ग में उसी
भाँति आदि सृष्टि को दिखलाकर भगवान् शम्भु के लिए प्रलय आदि को दिखलाया था,
इसे समझ लो ।
सबसे प्रथम
मैं प्रलय का प्रर्णन करूँगा । उसके पीछे आदि सर्ग को बतलाऊँगा । हे विप्रो! प्रति
सर्ग में फिर वाराह का ज्ञान प्राप्त कर लो । काल के एक अंश को निमेष कहा जाता है
जो नेत्रों के उन्मेष से विशेष लक्षित हुआ करता है । उन अठारह निमेषों से एक
काष्ठा होती है और तीस काष्ठाओं की एक कला है। उतनी ही अर्थात् बीस कलाओं से एक
क्षण नामक कहा गया है। बारह क्षणों से एक मुहूर्त कहा गया है तथा बीस मुहूर्तों से
मनुष्यों का अहोरात्र होता है और पन्द्रह अहोरात्र का एक पक्ष होता है। पक्षों में
मनुष्यों के वर्ष होते हैं जो कि पितृगणों का एक अहर्निश हुआ करता है । बारह मासों
का एक वर्ष होता है जो देवों का एक अहोरात्र ही है । पितृगणों के कर्म के लिए
कृष्ण पक्ष ही दिन माना गया है।
स्वप्न
अर्थात् शयन करने के लिए शुक्ल पक्ष होता है जो रजनी कही गई है । उत्तरायण सूर्य
के होने पर छः मास देवों का दिन कहा गया है । दक्षिणायन के छः मास देवों की रात्रि
शयन करने की हुआ करती है। सूर्य के समुत्पन्न दो-दो मासों से ऋतु कहा गया है। तीन
ऋतुओं का एक अयन होता है जो मनुष्यों का माना गया है । छः ऋतुओं का एक वत्सर
(वर्ष) होता है। और उनको आप पृथक-पृथक सुनिये । हे द्विजोत्तमो ! संज्ञा के भेद से
चैत्र आदि दो मासों से ऋतु को समझिए । चैत्र और वैशाख दो मास में बसन्त ऋतु होता
है । ज्येष्ठ और आषाढ़ दो मास में ग्रीष्म ऋतु हुआ करता है। श्रावण और भाद्रपद इन
दो मासों में वर्षा ऋतु हुआ करता है। आश्विन और कार्तिक मासों में शरद् हुआ करता
है । अगहन और पौष में हेमन्त ऋतु होता है तथा माघ और फाल्गुन मासों में शिशिर ऋतु
होता है । ये छै ऋतुये कही गई हैं जो यज्ञादि में पृथक विहित किये गये हैं।
मनुष्यों के मान से सत्रह क्षय है और अट्ठाईस सहस्त्र का मान कृतयुग का है ।
अन्तराल में अर्थात युगों के मध्य में चार सौ वर्षों का सन्ध्याकाल होता है ।
सन्ध्यांश उतने से ही कहा गया है जो अन्तर्गत ईक्षित होता है ।
त्रेता युग
मनुष्य के बारह लक्ष वर्षों का हुआ करता है और इस युग की सन्ध्या का समय छियानवे
हजार तीन सौ वर्षों का हुआ करता है। उसके अन्दर तीन सौ सन्ध्यांश कहा गया है ।
प्रमाण से चौंसठ हजार लक्ष और आठ वर्ष का द्वापर का नाम वाला युग होता है उनमें दो
सौ की सन्ध्या होती है। दो वर्ष का सन्ध्यांश अन्तर्गत ही अभीष्ट हुआ करता है ।
चार लाख बत्तीस हजार वर्ष कलियुग का समय होता है। वर्षों का मान होता है और एक सौ
वर्ष की सन्ध्या का काल होता है। इसके अनन्तर में एक-एक सौ वर्ष का सन्ध्यांश है ।
इस रीति से कृतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग मानुषमाण से चार युग हुआ करता हैं। ये
चारों युग सैंतालीस लाख वर्षों के मान से हुआ करता है । बीस सहस्र वर्षों की इन
सबकी सन्ध्या का अंश हुआ करता है जो कि उस सन्ध्यांश से संयुत है ।
रात्रियों के
सहित देवों का दिन मनुष्यों का एक वत्सर होता है । इस प्रकार से क्रम की गणना करके
मनुष्यों के चारों युगों से देवों के बारह सहस्त्र वर्ष कीर्त्तित किये गए हैं।
देवों के बारह सहस्त्र वर्षों का दैविक युग हुआ करता है । वह मनुष्यों के चार युग
हैं जिसमें सन्ध्या और सन्ध्यांश भी सम्मिलित होता है। देवों के कृतयुग में त्रेता,
द्वापर की व्यवस्था से युग व्यवहार नहीं है और धर्म आदि की
भिन्नता भी नहीं है । किन्तु मनुष्यों का चतुर्युग अर्थात् चारों युग सदा देवों का
युग होता है । इकहत्तर देवों के युगों से एक मन्वन्तर हुआ करता है । देवों के दो
सहस्त्र युगों का ब्रह्माजी का एक अहोरात्र हुआ करता है । मनुष्यों के मान से दो
सहस्त्र चारों युग होते हैं। एक ब्रह्माजी के दिन में चौदह मनु होते हैं । इस
प्रकार से ब्रह्मा के मान 'तीन सौ दिनों से आठों से वत्सर होता है जैसे मनुष्यों का है
वैसे ही ब्रह्मा का वर्ष होता है । ब्रह्मा अर्थात् ब्रह्मा के पाँच सौ वर्षों से
परार्ध कीर्त्तित किया गया है। वह ईश्वर का दिवस है और उतनी ही रात्रि कही जाती
है।
ब्रह्माजी के
एक शत वर्ष का काल दूसरा परार्धक होता है द्वितीय परार्ध के व्यतीत हो जाने पर जो
ब्रह्मा का है, प्रलय होता है । पर ब्रह्मा के लीन हो जाने पर जगतों का आधार,
अव्यय और पर से भी पर है । उस ब्रह्मा के स्वरूप के
दिवारात्र का जो होता है उससे हर नाम उसका आधा परार्ध कहा जाता है । जगत् के
स्वरूप वाले भगवान् परमात्मा का अक्षर और अव्यय होता है । जो स्थूल से स्थूलतम और
जो सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतम माना गया है उसका दिवारात्रि का व्यवहार नहीं होता है
और वत्सर ही है । किन्तु पूर्व पौराणिकों के द्वारा और उस प्रकार के हमारे भी द्वारा
सृष्टि और प्रलय का ज्ञान प्राप्त करने के लिए अहर्निश कल्पित किया जाया करता है ।
वह ही रात्रि है, वही वर्ष है और वह क्षिति है तथा सृष्टि के करने वाला हर है
। वह विष्णु के रूप वाले पुराण पुरुष हैं । उसी से यह समस्त उसी की भांति विभात
होता है । यह शाश्वत परमात्मा ब्रह्म के लीन होने पर यह सम्पूर्ण जगत् क्रम से ही
उसके रूपत्व के लिए गमन किया करता है अर्थात् उसी का स्वरूप बन जाया करता है ।
ब्रह्मा के सौ
वर्ष के अन्त में रुद्रदेव के स्वरूप वाले भगवान जनार्दन स्वयं इस जगत का अन्त
करके परमरूप में लीनता को प्राप्त हो जाते हैं । सबसे प्रथम तो सवित अपनी परम
तीक्षण किरणों से स्थावर और जंगम सम्पूर्ण जगत् के जल का शोषण करके स्वयं ग्रहण कर
लेंगे। शुष्क वृक्ष, तृण, गण, प्राणी तथा पर्वत चूर्ण होकर दिव्य सौ वर्ष में विकीर्ण हो
जायेंगे। फिर बारह सूर्यों की बहुत ही अधिक प्रबल किरणें हुई और जगत के भोग्य से
उपवृहित द्वादश आदित्य हुए थे। द्यौ और मेदिनी उष्णता को प्राप्त हो गये थे । इसके
उपरान्त सम्पूर्ण स्थावर और जंगम के विनष्ट जाने पर आदित्य की किरण से रुद्ररूपी
देव जनार्दन उन्नत हो पाताल नदी को प्राप्त हो गये थे ।
सात पाताल के संस्थानों
को नाग,
गन्धर्व और राक्षसों को, देवों को, ऋषियों को और शेष को नर शूल के धारण करने वाले ने हनन कर
दिया था । इसी प्रकार से स्वर्ग में, पाताल में, पृथ्वी में और सागरों में जो भी प्राणधारी जीव थे उन प्रभु
जनार्दन ने उन सबको मार दिया था। इसके पश्चात मुख से महावायु का रुद्रदेव ने स्वयं
सृजन किया था । वह अव्याहत गति वाला वायु दृढ़ता से संसार के तीनों भुवन के गर्भ
में गमन करने वाला सौ वर्ष तक भ्रमण करता हुआ जो भी कुछ था उस सबको तुला राशि के
ही समान उसको उत्साहित कर दिया था । सभी ओर जगत में रहने वाले सम्पूर्ण को
समुत्साहित करके वेग में अत्यधिक वह वायु बारह आदित्यों में प्रवेश कर गया था ।
उनके मण्डल में प्रवेश करके उनके तेज के साथ वायु गुरुदेव के द्वारा प्रतियोजित
होते हुए महान मेघों का उसने समारम्भ कर दिया था। फिर प्रेरित हुए वे मेघ जो उस
वेग वाले वायु के द्वारा ही प्रेरित किये गये थे अतिरौद्र के द्वारा मेघों ने स्थल
को घेर लिया था ।
सम्वर्त नाम
वाले महामेघ जो भिन्न अञ्जन के समूह के समान थे । उनमें कुछ धूम्र वर्ण वाले थे,
कुछ शुक्ल और कुछ चित्र विचित्र वर्ण वाले महाभीषण थे । कुछ
मेघ पर्वत के तुल्य आकार से युक्त थे,कुछ नाम के समान प्रजा के समन्वित थे,
कुछ बड़े विशाल प्रासाद के समान थे और कुछ क्रौंच के वर्ण
वाले महान भीषण थे । वे महामेघ गर्जन करते हुए सौ वर्ष से भी अधिक समय तक महान
शब्द करने वाले वे मेघ तीनों लोकों का प्लावन करते हुए वर्षा करते थे । इसके अनन्तर
स्तम्भ (खम्भा) के प्रमाण वाले धाराओं के पास से खूब दृढ़ धारासार से जो कि बहुत
ही महान थी तीनों भुवनों को पूरित कर दिया था । आधुवस्थान को प्राप्त करके जल समूह
के स्थित होने पर रुद्ररूपी प्रभु जनार्दन ने अपने मुख से वायु का सृजन किया था ।
उस वायु के ओघ से क्षित मेघ सौ वर्ष तक अव्याहत गति वाले वायु के द्वारा फिर
ध्वस्त हो गये थे । उन मेघों के विनिष्ट हो जाने पर फिर दया से सहित रुद्रदेव ने
ब्रह्मभुवन तक जनलोक आदि का विध्वंस कर दिया था । समस्त भुवनों के विध्वस्त हो
जाने पर और विशेष रूप से ब्रह्मलोक के विध्वस्त होने पर गुरुदेव द्वादश अरुणों के
समीप गये थे । वे हरि महान वेग के साथ द्वादश आदित्यों के समीप में पहुँचे थे और
उनको ग्रसित कर लिया था फिर उन गर्भ में स्थित दिवाकरों के द्वारा अत्यन्त
प्रज्वलित हो गए थे। इसके उपरान्त कालान्तक के समान महान बलवान रुद्रदेव ब्रह्माण्ड
में प्राप्त हुए थे और वह सबको मुष्टिपेष चूर्ण कर दिया था । ब्रह्माण्ड चूर्ण
करते हुए उन्होंने पृथिवी को भी चूर्णित कर दिया था। उन हरि ने योग के बल से समस्त
जलों को धारण कर लिया था। जो जल पूर्व में सब और ब्रह्माण्ड से बाहर स्थित था अथवा
जो अभ्यन्तर में रहने वाला जल था वह सब एक रूपता को प्राप्त हो गया था । सब ओर
सर्वव्यापी जनों के एकीभूत हो जाने पर ब्रह्माण्ड के खण्डों में पूर्णोध वह नौका
की ही भाँति प्लवन करते हुए थे। इसके अनन्तर पृथ्वी का सार गन्ध तन्मात्रक से क्रम
से जल ने ग्रहण कर लिया था और सम्पूर्ण पृथ्वी विनष्ट हो गई थी ।
फिर उन
रुद्रदेव ने गर्भ में स्थित तेजों को अपने शरीर से निकाल दिया था । पुनः भीषण रूप
से वे पुन्जीभूत हो गये थे । उन तेजों ने छोर तक स्थित सबको ग्रहण कर लिया था और
भीतर,
बाहर ब्रह्माण्ड से जो तेज था तथा अन्य से गया हुआ था उस सबको
ग्रहण किया था ! जगत में रहने वाले सम्पूर्ण तेज का ग्रहण करके एक ही स्थान के
जलते हुए ने रौद्र ब्रह्माण्ड के खण्डों को जल में त्रिर्दोष कर दिया था ।
ब्रह्माण्ड के चूर्णों का दाह करके वे तेज उज्ज्वलित हो गये थे फिर जलों से जो
उनकी रस तन्मात्रा थी जो कि सारभूत थी उसका ग्रहण कर लिया था। रूप तन्मात्रा के
ग्रहण किये जाने पर सम्पूर्ण तेज विनष्ट हो गये थे और अनादित वायु प्रबल हो गया
था। इसके अनन्तर वायु महान शब्द वाले को प्राप्त करके अग्नि की भाँति प्रज्वलित
होते हुए रुद्रदेव संक्षुब्ध हो गये थे और उस समय में आकाश को गया था ।
उससे
संक्षुब्ध आकाश की वायु ने ग्रहण कर लिया था । उसके अन्दररूप की तन्मात्रा को लेकर
फिर वायु भी नष्ट हो गया था । वायु के नष्ट हो जाने पर यह रुद्रदेव उस समय ब्रह्मा
के शरीर में प्रवेश कर गये थे। उस अवसर पर ब्रह्मशरीर आकुल,
निराधार और निराकुल हो गया था फिर शंख,
चक्र और गदा के धारण करने वाले भगवान विष्णु के शरीर में
उसने प्रवेश किया था। इसके उपरान्त महान् तेजस्वी भगवान कृष्ण ने अपना पञ्च भौतिक
शरीर जो अच्युत और शंख, चक्र तथा गदा धारण करने वाला था सबसे सार का आदान करके अपनी
शक्ति के द्वारा शीघ्र ही त्याग दिया था। जो बिना आधार वाला तथा आकार से रहित,
निःसत्त और निरवह था । जो आनन्द से परिपूर्ण,
अद्वैत, द्वैत से हीन और बिना विशेषण वाला था उसका त्याग कर दिया था
।
जो न तो स्थूल
और न सूक्ष्म ही है जिसका ज्ञान नित्य एवं निरञ्जन है । वह एक ही परब्रह्म है जो
सभी ओर से अपने द्वारा ही प्रकाश वाला है । जो न तो दिन है और न रात्रि ही है। न
आकाश है। और न पृथ्वी है । वह तप भी नहीं था और अन्य ज्योति भी नहीं था ।
श्रीत्रादि और बुद्धि आदि से उपलभ्य एक प्राधानिक ब्रह्म है । उस समय में पुमान्
था । इस प्रकार से जब तक यह सृष्टि स्थित थी तब तक ही सृष्टि का बलाबल था । एक ही
परतत्व था फिर उससे सृष्टि प्रवृत्त होती है । क्योंकि सभी तन्मात्राओं का संचय
प्रकृति में संस्थित था जो प्राकृत लय था उसके अहंकार और महत्तत्व गत हो गये थे ।
जो अतीत प्रलय वाला अव्यक्त था वह भी प्रकृति में संस्थित था इसी कारण से प्रत्येक
यह संज्ञा प्राकृत संज्ञा वाला है और ऐसा कहा जाया करता है । हे विप्रो ! यह
प्राकृत नाम वाला महान लय आपको बतला दिया है। मेरे द्वारा पुनः इस आदि सृष्टि का
आप लोग श्रवण कीजिए ।
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श्रीकालिकापुराण में संहारकथन नामक चौबीसवाँ अध्याय सम्पन्न हुआ ।।२४।।
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 25
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