कालिका पुराण अध्याय २३
कालिका पुराण अध्याय २३ में वशिष्ट अरुन्धति विवाह का वर्णन है ।
कालिकापुराणम् त्रयोविंशोऽध्यायः अरुन्धतीविवाहवर्णनम्
कालिका पुराण अध्याय
२३
Kalika puran chapter 23
कालिकापुराण तेईसवाँ अध्याय- अरुन्धती विवाह
अथ कालिका
पुराण अध्याय २३
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
अथ सा ववृधे देवी
तस्मिन् मुनिवराश्रमे ।
चन्द्रभागानदीतीरे
तापसारण्यसंज्ञके ।।१।।
मार्कण्डेय
बाले- वह देवी उस मुनिवर के चन्द्रभागा नदी के तट पर स्थित तापसारण्य नामक आश्रम
में बढ़ने लगी ॥१॥
यथा चन्द्रकला
शुक्लपक्षे नित्यं विवर्धते ।
यथा ज्योत्स्ना
तथा सापि प्राप वृद्धिमरुन्धती ।।२।।
जैसे चन्द्रमा
की कला शुक्ल पक्ष में नित्य बढ़ती है, जैसे उसकी ज्योत्स्ना बढ़ती है, वैसे ही
वह अरुन्धती भी वृद्धि को प्राप्त हुई ॥ २ ॥
सम्प्राप्ते
पञ्चमे वर्षे चन्द्रभागां तदा गुणैः ।
तापसारण्यमपि
सा पवित्रमकरोत् सती ।।३।।
तब उस सती ने
पाँच वर्ष की अवस्था प्राप्त होने पर चन्द्रभाग नदी तथा तापसारण्य को भी पवित्र
किया ।। ३ ।।
तत्र तीर्थं
महापुण्यं मेधातिथिनिषेवितम् ।
क्रीडास्थानमरुन्धत्याः
पूतं बाल्योचितं कृतम् ।।४।।
बाल्यावस्था
के उपयुक्त कार्यों से अरुन्धती की क्रीड़ास्थली बना वह मेधातिथि से निषेवित, महान् पुण्यशाली, तीर्थ
पवित्र हो गया ॥ ४ ॥
अद्यापि
तापसारण्ये चन्द्रभागानदीजले ।
अरुन्धतीतीर्थतोये
स्नात्वा याति हरिं नरः ।।५।।
आज भी
तापसारण्य में चन्द्रभागा नदी के जल, अरुन्धती तीर्थ के जल में स्नान कर, मनुष्य
विष्णुलोक को जाता है ।।५।।
कार्तिकं सकलं
मासं चन्द्रभागानदीजले ।
स्रात्वा
विष्णुगृहं गत्वा ह्यन्ते मोक्षमवाप्नुयात् ॥६॥
क्योंकि
सम्पूर्ण कार्त्तिक मास भर चन्द्रभागा नदी में स्नान करके मनुष्य विष्णुधाम को
जाता है तथा अन्त में मोक्ष को प्राप्त करता है ॥ ६ ॥
माघे मासि
पौर्णमास्याममायां वा तथैव च ।
चन्द्रभागाजले
स्नानं यस्तु कुर्यात् सकृत् सकृत् ।।७।।
तस्य वंशे
राजयक्ष्मा न कदाचिद् भविष्यति ।
देहान्ते
चन्द्रभवनं गत्वा हरेर्गृहम् ।।८।।
माघ मास की
अमावस्या या पूर्णिमा को चन्द्रभागा नदी के जल में जो एक- एक बार भी स्नान करेगा
उसके वंश में कभी राजयक्ष्मा का रोग नहीं होगा तथा देहान्त के पश्चात् वह
चन्द्रलोक को जाकर विष्णुलोक को जाता है ।। ७-८ ।।
पुण्यक्षयादिहागत्य
वेदज्ञो ब्राह्मणो भवेत् ।
चन्द्रभागाजलं
पीत्वा चन्द्रलोकमवाप्नुयात् ।।९।।
सकृत्
स्नात्वा तु विधिवद्वाजिमेधायुतं लभेत् ।। १० ।।
चन्द्रभागा का
जल पीकर मनुष्य चन्द्रलोक को प्राप्त करता है तथा पुण्यक्षय होने पर इस लोक में
पुनः वेद को जानने वाला ब्राह्मण होता है और उसमें एक बार विधिपूर्वक स्नान से दस
हजार अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त करता है ।।९-१०॥
चन्द्रभागाजले
स्नात्वा क्रीडन्ती बाल्यलीलया ।
पितुः समीपे
तत्तीरे कदाचित्तामरुन्धतीम् ।
गच्छन्नाकाशमार्गेण
ददर्श कमलासनः ।। ११ ।।
चन्द्रभागा
नदी के जल में स्नान कर, उसी के तट पर पिता के समीप बाललीला के माध्यम से क्रीड़ा करती हुई
अरुन्धती को कभी आकाश मार्ग से जाते हुए, ब्रह्माजी ने देखा II
११ ॥
अथावतीर्य
भगवान् ब्रह्मा लोकपितामहः ।
अरुन्धत्यास्तदा
कालमुपदेशे ददर्श ह ।।१२।।
इसके बाद लोक
के पितामह भगवान ब्रह्मा उस समय उतरे तथा अरुन्धती को उपदेश की दृष्टि से देखा ।।
१२ ।।
अथोवाच तदा
ब्रह्मा मुनिभिः परिपूजितः ।
मेधातिथिप्रभृतिभिरुचितं
तं महामुनिम् ।।१३।।
तब ब्रह्मा
मेधातिथि आदि मुनियों द्वारा उचित रूप से पूजित हो उस महामुनि से बोले - ॥ १३ ॥
।। ब्रह्मोवाच
।।
उपदेशस्य कालोऽयमरुन्धत्या
महामुने ।
तस्मादेनां
सतीनान्तु स्त्रीणां त्वं कुरु सन्निधिम् ।।१४।।
ब्रह्मा बोले-
हे महामुनि ! यह अरुन्धती के उपदेश का समय है । अत: इसे तुम सती स्त्रियों के
सम्पर्क मे ले जाओ ।।१४।।
स्त्रिभिस्त्रियश्चोपदेश्याः
काचिदन्यत्र विद्यते ।
बहुलायाश्च
सावित्र्याः पुत्रीं त्वं स्थापयान्तिके ।। १५ ।।
स्त्रियाँ
किन्हीं अन्य स्त्रियों द्वारा ही उपदेश्य होती हैं। इसलिए तुम अपनी इस पुत्री को
बहुला और सावित्री के समीप ले जाओ ।। १५ ।।
तयोः
संसर्गमासाद्य पुत्री तव महामुने ।
महागुणैश्वर्ययुता
माचिरात् तु भविष्यति ।। १६ ।।
हे महामुनि !
उन दोनों का संसर्ग प्राप्त कर तुम्हारी पुत्री शीघ्र ही महान गुणों और ऐश्वर्य से
युक्त होगी ।। १६ ।।
मेधातिथिर्वचः
श्रुत्वा ब्रह्मण: परमात्मनः ।
एवमेषेति प्रोवाच
तं तदा मुनिसत्तमः ।।१७।।
तब परमात्मा
ब्रह्मा के वचन को सुनकर मुनिश्रेष्ठ मेधातिथि ने उनसे कहा कि ऐसा ही होगा ।। १७
।।
ततो गते सुरश्रेष्ठे
पुत्रीं मेधातिथिर्मुनिः ।
समादाय ययौ
सूर्यभवनं प्रति तत्क्षणात् ।। १८ ।।
तब सुरश्रेष्ठ ब्रह्मा के चले जाने के पश्चात् तत्काल मेधातिथि मुनि पुत्री अरुन्धती को साथ ले, सूर्य के भवन को गये।।१८॥
ददर्श तत्र
सावित्रीं सूर्यमण्डलमध्यगाम् ।
पद्मासनगतां देवीमक्षमालाधरां
सिताम् ।।१९।।
वहाँ उन्होंने
सूर्यमण्डल के मध्य में विराजमान श्वेतवर्णों वाली, पद्मासन पर बैठी हुई, रुद्राक्ष की माला
धारण की हुई, सावित्री देवी को देखा ।। १९ ।।
दृष्टा सा तेन
मुनिना निःसृत्य रविमण्डलात् ।
बहुलां सा गता
तूर्णं प्रस्थं मानसभूभृत: ।।२०।।
देखी गयी वह
सावित्री, उन मुनि के साथ सूर्यमण्डल से निकलकर मानस
पर्वत के शिखर पर तेजी से बहुला के पास गयी ।। २० ।।
प्रत्यहं तत्र
सावित्री गायत्री बहुला तथा ।
सरस्वती च
द्रुपदा पञ्चैता मानसाचले ।। २१ ।।
धर्माख्यानैस्तथा
साध्वीः कथाः कृत्वा परस्परम् ।
स्वं स्वं
स्थानं पुनर्यान्ति लोकानां हितकाम्यया ।। २२ ।।
वहाँ मानस
पर्वत पर प्रतिदिन सावित्री, गायत्री, बहुला, सरस्वती तथा
द्रुपदा ये पाँच देवियाँ संसार के कल्याण की कामना से आपस में धर्म सम्बन्धी
आख्यान तथा साध्वी स्त्रियों का चरित्र कथन करके, अपने-अपने
स्थानों पर पुनः लौट जाती हैं ।। २१-२२ ।।
मेधातिथिस्तु
ताः सर्वा दृष्ट्वैकत्र तपोधनः ।
मातृः सर्वस्य
लोकस्य प्रणनाम पृथक् पृथक् ।। २३ ।।
उवाच च स ताः
सर्वा ऋषिः श्लक्ष्णं तपोधनः ।
ससाध्वसो
विस्मितश्च तासामेकत्र दर्शनात् ।। २४ ।।
तपस्वी
मेधातिथि ने उन सभी, सब लोकों की माताओं को इकट्ठा देखकर उन्हें अलग-अलग प्रणाम किया और उन
सबको एक जगह देखकर भयभीत और आश्चर्यचकित हो, तपस्वी, श्लक्षण, मेधातिथि ऋषि ने उन सबसे कहा- ॥ २३-२४ ॥
।।
मेधातिथिरुवाच ।।
मातः सावित्रि
बहुले मत्पुत्रीयं महायशाः ।
कालोऽयमुपदेशेऽस्यास्तदर्थमहमागतः।।
२५ ।।
मेधातिथि बोले-
हे माता सावित्री एवं माता बहुला ! यह मेरी महायशस्विनी कन्या है । यह इसके उपदेश
का समय है, इसीलिए
मैं आप लोगों के पास आया हुआ हूँ ।। २५ ।।
जगत्स्रष्ट्रा
समादिष्टा प्रयातु तव शिष्यताम् ।
एषा तेन
भवत्पार्श्वमानीता पुत्रिका मम ।। २६ ।।
जगत के
सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने आदेश दिया, यह तुम्हारी शिष्यता को प्राप्त करे । यह मेरी पुत्री,
इसी निमित्त तुम दोनो के समीप लाई गयी है ।। २६ ।।
सौचारित्र्यं
यथास्याः स्यात्तथैनां बालिकां मम ।
युवां विनयतं
देव्यौ मातर्मातर्नमोऽस्तु वाम् ।।२७।।
हे माताओं !
आप दोनों ऐसा निर्देश दीजिए जिससे मेरी इस लड़की में सुचरित्रता होवे । हे माताओं
आप दोनों को नमस्कार है ।। २७ ।।
अथोवाच तदा
देवी सावित्री मुनिसत्तमम् ।
स्मितपूर्वं
बहुलया सहिता ताञ्च बालिकाम् ।।२८।।
तब देवी
सावित्री ने बहुला के सहित मुस्कुराते हुए, मुनिश्रेष्ठ मेधातिथि तथा उस बालिका अरुन्धती से कहा- ।। २८
।।
।। ते ऊचतुः
।।
ब्रह्मन् विष्णोः
प्रसादेन सुचरित्रा भवत्सुता ।
पूर्वमेव मुने
भूता तदुद्देशेन किं पुनः ।। २९ ।।
वे सावित्री
एवं बहुला बोलीं- हे ब्रह्मन् ! हे मुनि ! भगवान विष्णु की कृपा से उत्पन्न हुई
आपकी पुत्री पहले ही सुचरित्रवती है। अब उसे पुनः उपदेश देने का क्या (प्रयोजन)? ॥ २९ ॥
किं त्वहं
ब्रह्मवाक्येण बहुला च महासती ।
विनेष्यावस्तव
सुतां धीरा स्यान्नचिराद् यथा ।। ३० ।।
किन्तु
ब्रह्मा के कथनानुसार मैं एवं महासती बहुला उसे शीघ्र ही उपदेश प्रदान करेंगी, जिससे तुम्हारी पुत्री धैर्यशालिनी होवे ।।
३० ।।
ब्रह्मण: पूर्वदुहिता
भवतस्तु तपोवलात् ।
तथा विष्णोः
प्रसादेन सुता तेऽभूदरुन्धती ।। ३१ ।।
ब्रह्मा की
पहले की पुत्री सन्ध्या ही आपकी तपस्या बल से तथा विष्णु की कृपा से अरुन्धती नाम
की आपकी कन्या हुई है ।। ३१ ।।
कुलं पुनाति
भवतः सत्यसौ वर्धयिष्यति ।
लोकानामथ
देवानां शिवमेषा करिष्यति ।।३२।।
यह सती आपके
कुल को पवित्र करेगी, आगे बढ़ाएगी तथा यह देवताओं तथा लोकों का भी कल्याण करेगी ॥ ३२ ॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
अथ ताभिर्विसृष्टः
स मुनिर्मेधातिथिः सुताम् ।
आश्वास्यारुन्धतीं
नत्वा ताः स्वस्थानं जगाम ह ।।३३।।
मार्कण्डेय
बोले- उन देवियों द्वारा विदा किये जाने पर वे मेधातिथि मुनि अपनी पुत्री अरुन्धती
को आश्वस्त कर तथा उन सब देवियों को प्रणाम कर अपने स्थान पर चले गये ॥ ३३ ॥
गते तस्मिन्
मुनिवरे सह ताभ्यामरुन्धती ।
मातृभ्यामिव निर्भीता
पालिता मोदमाप सा ।। ३४ ।।
उन
मुनिश्रेष्ठ के चले जाने पर उन दोनों माताओं के साथ, माताओं की ही भाँति निर्भय बनाई एवं पाली हुई उस अरुन्धती ने
आनन्द को प्राप्त किया ॥ ३४ ॥
कदाचित् सह
सावित्र्या रात्रौ याति रवेर्गृहम् ।
तथा बहुलया
याति शक्रगेहं कदाचन ।।३५।।
वह कभी
सावित्री के साथ रात्रि में सूर्य के घर जाती तो कभी बहुला के साथ इन्द्र के घर
जाती ।। ३५ ।।
एवं ताभ्यां
समं देवी विहरन्ती सुरालये ।
निनाय
दिव्यमानेन सा सप्त परिवत्सरान् ।। ३६ ।।
इस प्रकार उन
दोनों के साथ देवलोक में विहार करती उस देवी ने देवताओं के मान से सात परिवत्सर
(मानव मान से २५२० वर्ष) व्यतीत किया ॥ ३६ ॥
ताभ्यां
तथोपविष्टा सा स्त्रीधर्ममचिरात् सती ।
सर्वं
ज्ञातवती भूता सावित्री- बहुलाधिका ।। ३७।।
उन दोनो के
द्वारा स्त्री धर्म का उपदेश दी गई वह सती शीघ्र ही सावित्री और बहुला दोनों प्रमविष्णु
से भी अधिक सब कुछ जानने वाली हो गयी ।। ३७ ।।
अथ तस्यास्तदा
काले सम्प्राप्ते उचितेऽभवत् ।
शोभनो
यौवनोद्भेदः पद्मिनीनां रुचिर्यथा ।। ३८ ।।
इसके बाद उचित समय प्राप्त होने पर पद्मिनी* स्त्रियों की रुचि के अनुरूप उसमें सुन्दर यौवन का प्रकटीकरण हुआ॥३८॥
* पद्मिनी काम- शास्त्रीय दृष्टि से एक नायिका भेद
।
उद्भूत-यौवना
सा तु वसिष्ठं मानसाचले ।
विहरन्ती
ददशैँकं चारुतेजस्विनं मुनिम् ।।३९।।
यौवन जिसमें
उत्पन्न हो गया था ऐसी उस अरुन्धती ने मानस पर्वत पर विहार करते हुए एक सुन्दर, तेजस्वी, वसिष्ठ नामक
मुनि को देखा ।। ३९ ।।
दृष्ट्वा
तमिच्छयाञ्चक्रे कामभावेन सा सती ।
बालसूर्यप्रभं
चारुरूपं ब्रह्मश्रिया युतम् ।। ४०।।
उस बाल-सूर्य
की प्रभा वाले, सुन्दर
रूपधारी, ब्रह्मशोभा से युक्त मुनि को देखकर उस सती ने काम
भावना से उनके प्रति इच्छा किया ।। ४० ।।
अथ सोऽपि महातेजा
वसिष्ठो वरवर्णिनीम् ।
दृष्टैवोद्भूतमदनो
वीक्षाञ्चके त्वरुन्धतीम् ।।४१।।
इसके बाद वह
महातेजस्वी वसिष्ठ भी उस उत्तम और सुन्दर रंग-रूप वाली अरुन्धती को देखकर मदन के
उत्पन्न हो जाने के कारण उसे चाहने लगे ॥ ४१ ॥
तयोः परस्परं
दृष्ट्वा ववृधे हृच्छयो महान् ।
अमर्यादं
द्विजश्रेष्ठाः प्राकृते मदनो यथा ।।४२।
हे
द्विजश्रेष्ठों ! उन दोनों में आपस में एक दूसरे को देखकर वैसे ही महान् हृच्छय
(हार्दिक राग) बढ़ने लगा जैसे प्राकृत (सामान्य) लोगों में काम का वेग बढ़ता है ॥
४२ ॥
अथ धैर्यं
समालम्व्य तथा मेधातिथेः सुता ।
आत्मानं
धारयामास मनश्च मदनेरितम् ।।४३।।
इसके बाद
मेधातिथि की पुत्री अरुन्धती ने धैर्य का आलम्बन ले उस प्रकार से काम प्रेरित हुए
अपने मन को धारण किया (नियंत्रित किया) ।। ४३ ।।
वसिष्ठोऽपि
महातेजा धैर्यमालम्ब्य चात्मनः ।
मनः
संस्तम्भयामास मदनोन्मथितं ततः ।। ४४ ।।
तब महा
तेजस्वी वसिष्ठ ने भी मदन से विशेष प्रकार मथे गए अपने मन को धैर्य का अवलम्बन
लेकर भलीभाँति स्तम्भित किया, रोका ॥ ४४ ॥
अरुन्धती ततो
देवी विहाय मुनिसन्निधिम् ।
जगाम यत्र
सावित्री निन्दन्ती स्वं मनोरथम् ।। ४५ ।।
तब देवी
अरुन्धती मुनि वसिष्ठ का सानिध्य छोड़कर अपने मनोभावों की निन्दा करती हुई जहाँ
सावित्री थीं, वहाँ
पहुँची ।। ४५ ।।
बाध्यमानातिदुःखेन
मानसेन महासती ।
सतीभावः
परित्यक्तश्चिन्तयन्ती मयेति वै ।। ४६ ।।
वह महासती, मन से यह सोचकर बहुत दुःखी थी कि उसके
द्वारा सतीभाव का परित्याग कर दिया गया ।।४६।।
तस्या
मनोजदुःखेन विवर्णमभवन्मुखम् ।
शरीरं सकलं
म्लानं गतिश्च वलिताभवत् ।। ४७ ।।
मन में दुःख
के कारण उसका मुँह रंगहीन हो गया था, सारा शरीर मलीन हो गया था और गति भी घुमावदार (अव्यवस्थित) हो
गयी थी ।। ४७ ।।
इदं विममृषे
सा च गर्हयन्ती स्वकं मनः ।
मृणालतन्तुवत्
सूक्ष्मा छिन्ना च तत्क्षणादपि ।।४८ ।।
स्थिति:
सतीनामल्पेन चापल्येनैव नश्यति ।
इति
स्त्रीधर्ममध्याप्य मामाह चरितव्रता ।
सावित्री
सारमेतद् हि सतीधर्मस्य चोद्धृतम् ।।४९।।
उसने अपने मन
की निन्दा करते हुए यह सोचा, चरितव्रता सावित्री ने स्त्री धर्म की शिक्षा देते हुए, सती धर्म का सारतत्त्व बताया था कि सतियों की स्थिति कमलनाल के तन्तु के
समान सूक्ष्म होती है जो थोड़ी सी चंचलता से छिन्न-भिन्न हो जाती है ।। ४८-४९ ॥
तदद्य नाशितं
पुंसि परकीये मनोरथम् ।
वर्द्धयन्त्या
तदा किं मे परत्रेह भविष्यति ।।५०।।
उस बढ़ती हुई
सतीत्व की स्थिति को आज मैंने पराये पुरुष की कामना से नष्ट कर दिया तब ऐसी स्थिति
में मेरे इस लोक और परलोक का क्या होगा ? ॥ ५० ॥
इति
सञ्चिन्तयन्ती सा पुत्री मेधातिथेस्तदा ।
दुःखार्ता
बहुलां देवी सावित्रीं चाससाद ह ।। ५१ ।।
तब मेधातिथि
ऋषि की वह पुत्री अरुन्धती, ऐसा सोचकर दुःख से पीड़ित हो, देवी बहुला एवं
सावित्री के समीप पहुँच गई ॥ ५१ ॥
तथाविधान्तु
तां दृष्ट्वा विवर्णवदनां सतीम् ।
ध्यानचिन्तापरा
भूत्वा सावित्री विममर्ष ह ।। ५२ ।।
उस सती को उस
प्रकार रंगहीन उदास मुख देखकर सावित्री ने ध्यान परायण होकर विचार किया ।। ५२ ॥
विमृष्य
दिव्यज्ञानेन सर्वं ज्ञातवती सती ।
वसिष्ठेन त्वरुन्धत्या
यथाभुद्दर्शनं तथा ।। ५३ ।।
यथा तयोः
सम्प्रवृद्धो मनोजश्चातिदुःसहः ।
मुखवैवर्ण्यहेतुश्च
सावित्री दिव्यदर्शिनी ।। ५४ ।।
विचार करके
दिव्य दर्शन करने वाली सावित्री ने वसिष्ठ और अरुन्धती का जिस प्रकार परस्पर दर्शन
हुआ था तथा उन दोनों में जिस प्रकार दु:सह कामभाव की वृद्धि हुई थी, जिस कारण से अरुन्धती के मुख का रंग उड़ा
था, वह सब अपने दिव्य ज्ञान से जान लिया ।। ५३-५४ ॥
अथ मेधातिथेः
पुत्र्या मूर्ध्नि हस्तं निवेश्य सा ।
इदमाह महादेवी
सावित्री चरितव्रता ।। ५५ ।।
इसके बाद उस
चरितव्रता महादेवी सावित्री ने मेधातिथि मुनि की पुत्री, अरुन्धती के मस्तक पर हाथ रखकर यह कहा - ।।
५५ ।।
वत्से तव मुखं
कस्माद्भिन्नवर्णमभूदिदम् ।
छिन्ननालं यथापद्मं
सूर्यांशुपरितापितम् ।।५६।।
बेटी !
तुम्हारा यह मुख सूर्य की किरणों से तप्त तथा अपने नाल से बिछुड़े हुए कमल की
भाँति भिन्नवर्ण (रङ्गहीन) क्यों हो गया है ? ।। ५६ ।।
कथं शरीरमभवत्
म्लानं ते गुणवत्तमे ।
यथा निशापतेर्विम्बं
तनुकृष्णाभ्रसंवृतम् ।।५७।।
हे गुणवतियों
में श्रेष्ठ ! तुम्हारा शरीर भी काले बादलों से ढंके हुए चन्द्रमा की भाँति मलीन
क्यों हो गया है ? ।। ५७ ।।
अन्तर्मनश्च
ते भद्रे सचिन्तमिव लक्ष्यते ।
तन्मे कथय ते
गुह्यं नैतच्चेद्दुः खकारणम् ।।५८।।
हे भद्रे !
किस कारण से तुम्हारा अन्तर्मन चिन्ताग्रस्त दिखाई दे रहा है ? यदि तुम्हारे दुःख कारण गोपनीय न हो तो वह
मुझे बताओ ।। ५८ ।।
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
अथ साधोमुखी
भूत्वा किञ्चिन्नोवाच लज्जया ।
सावित्रीं मातरं
गुर्वीं तथा पृष्टाप्यरुन्धती ।। ५९ ।।
मार्कण्डेय
बोले- गुरुतुल्य माता सावित्री द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर भी उस अरुन्धती ने
लज्जावश कुछ भी नहीं कहा। वह केवल नीचे मुँह किये रही ।। ५९ ।।
यदा नोक्तवती
किञ्चित्तदा मेधातिथेः सुता ।
स्वयं प्रकाशन
सावित्री तामुवाच तपस्विनी ।।६०॥
जब मेधातिथि
की पुत्री ने अपने द्वारा प्रकाशित करने योग्य कुछ नहीं कहा तब तपस्विनी सावित्री
ने उससे कहा- ॥६०॥
वत्से योऽसौ त्वया
दृष्टो मुनिर्भास्करसन्निभः ।
स वसिष्ठो
ब्रह्मसुतस्तव स्वामी भविष्यति ।
तव तस्य च
दाम्पत्यं पुरा धात्रैव निर्मितम् ।।६१ ।।
सावित्री
बोली- बेटी! तुमने जिस सूर्य के समान तेजस्वी मुनि को देखा है, वही ब्रह्मा के पुत्र वसिष्ठ तुम्हारे पति
होंगे। पहले ही विधाता ने तुम्हारा तथा उनका दाम्पत्य जीवन निर्मित कर दिया है ।।
६१ ॥
अतस्तव
सतीभावो न हीनस्तस्य दर्शनात् ।
यद्वा
तवाभूद्धृदयं सकामं तस्य दर्शनात् ।
न तद्दोषकरं पुत्रि
मनोदुःखं ततस्त्यज ।।६२।।
अतः हे पुत्री
! यदि उन्हें देखते ही तुम्हारा हृदय सकाम हो गया तो भी तुम्हारा सतीभाव नष्ट नहीं
हुआ। वह दोषकर नहीं है। इसलिए तुम मानसिक दुःख छोड़ दो ॥ ६२ ॥
त्वया परं तपः
कृत्वा पूर्वजन्मनि शोभने ।
वृतः स एव
दयितः सकामस्तेन स त्वयि ।। ६३ ।।
हे सुन्दरि !
तुमने पूर्व जन्म में परम तपस्या करके उन्हें ही पति के रूप में वरण किया था ।
इसीलिए वे तुम्हारे सकाम पति हुए ।। ६३ ।।
शृणु पूर्वं
त्वया वत्से वसिष्ठोऽयं वृतः पतिः ।
यथा तपः कृतं
तत्र येन भावेन सन्ततम् ।।६४।।
हे वत्से !
पूर्व जन्म में तुमने वहाँ जिस भाव से निरन्तर तपस्या करके इन वसिष्ठ मुनि का पति
रूप में वरण किया था, उसे सुनो ॥ ६४ ॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इत्युक्त्वा
सा च सावित्री यथा सन्ध्याभवत् पुरा ।
कृतं तपो
यदर्थन्तु चन्द्रभागाह्वये गिरौ ।।६५ ।।
वसिष्ठेन तथा
पूर्वं वर्णिरूपेण वेधसः ।
वचनादुपदिष्टा
सा तपश्चर्यां दुरत्ययाम् ।।६६ ।।
यथा प्रसन्नो
भगवान् विष्णुः प्रत्यक्षतां गतः ।
वरं यथा ददौ
तस्यै मर्यादा स्थापिता यथा ।। ६७ ।।
यथा वा
वाञ्छितः स्वामी वसिष्ठः स तया मुनिः ।
मेधातिथेर्यथा
यज्ञे वह्नौ त्यक्तं तया वपुः ।। ६८ ।।
यथा तत्तनया
जाता तस्यैतद्विस्तरात् तदा ।
सावित्री
कथयामास क्रमाद् बहुलया सह ।। ६९ ।।
मार्कण्डेय
बोले- ऐसा कहकर सावित्री ने जिस प्रकार वह अरुन्धती पहले सन्ध्या हुई थी। जिसलिए
उसने चन्द्र भाग नामक पर्वत पर तपस्या किया था । जिस प्रकार ब्रह्मा के वचनानुसार
ब्रह्मचारी रूपधारी वसिष्ठ द्वारा उपदिष्ट हो, उसने कठिन तपस्या की थी। जैसे भगवान विष्णु प्रसन्न हो प्रत्यक्ष
हुए तथा उसे वर दिये थे। जिस प्रकार उनके द्वारा मर्यादा स्थापित की गई थी । या
जिस प्रकार वे वसिष्ठ मुनि उसके द्वारा स्वामी के रूप में वांछित हुए थे तथा जिस
प्रकार उसने मेधातिथि के यज्ञ में अग्नि में अपने शरीर का त्याग किया था । जिस
प्रकार वह उनकी कन्या हुई, तब उसका यह वृत्तान्त क्रमशः
विस्तार से बहुला के साथ सावित्री ने कह दिया।।६५-६९।।
अथ तस्याः वचः
श्रुत्वा यदभूत् पूर्वजन्मनि ।।७० ।।
तच्छ्रुत्वा
वै तदा ज्ञातं मम सर्वं मनोगतम् ।।७१ ।।
इत्यतीवत्रपां
प्राप्य सातीवाभूदधोमुखी ।
सावित्रीवचनाद्भूता
पूर्वजन्मस्मरा च सा ।।७२।।
इसके बाद अपने
पूर्वजन्म में जो हुआ था, उनके वचनों द्वारा सुनकर तथा इन्होंने मेरे मन की बात जान ली है, इससे उसने अत्यन्त लज्जा का अनुभव किया और वह बहुत अधिक नीचे मुखवाली हो
गयी और वह सावित्री के वचनों के अनुसार पूर्व जन्म का स्मरण करने वाली हो गई ।।
७०-७२ ।।
तथैवाधोमुखी भूत्वा
यद्वृत्तं पूर्वजन्मनि ।
तस्य सर्वस्य
सस्मार दिव्यज्ञारुन्धती तदा ।।७३।
तब उसी प्रकार
नीचे मुख किए हुए दिव्य ज्ञानवाली अरुन्धती ने पूर्व जन्म में जो वृत्तान्त हुआ
उसे भलीभाँति स्मरण किया ।। ७३ ।।
पूर्वं
विष्णुप्रसादेन सा भूत्वा दिव्यदर्शिनी ।
अधुना
बाल्यभावेन प्रच्छन्ना दिव्यदर्शना ।।७४ ।।
वह पहले ही
विष्णु की कृपा से दिव्य-दर्शन वाली हो गई थी किन्तु बाल्य भाव से इस समय उसके
दिव्य दर्शन की शक्ति प्रच्छन्न हो गयी थी ।। ७४ ।।
सावित्रीवचनान्श्रुत्वा
वृत्तान्तं पूर्वजन्मनः ।
प्रत्यक्षमिव
तत् सर्वं पूर्वज्ञानमवाप सा ।।७५।।
सावित्री के
मुख से पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुनकर वह समस्त पूर्वज्ञान उसे प्रत्यक्ष की भाँति
प्राप्त हुआ ।। ७५ ।।
अवाप्य पूर्वं
ज्ञानं तद्यद्दत्तं विष्णुना पुरा ।
वसिष्ठोऽयं
वृतः स्वामी मया वै पूर्वजन्मनि ।। ७६ ।।
प्राचीनकाल
में विष्णु ने जो उसे पूर्व ज्ञान दिया था, उसे प्राप्त कर उसने यह जान लिया कि उसने पहले ही वसिष्ठ को
पूर्वजन्म में ही अपने स्वामी के रूप में वरण कर लिया था ।। ७६ ।।
इति ज्ञातवती
देवी सामोदारुन्धती स्वयम् ।
वसिष्ठदर्शनोद्भूते
पूर्वं तस्यास्तु हृच्छये ।।७७।।
यह जान लेने
के बाद देवी अरुन्धती ने पूर्व में वसिष्ठ दर्शन के कारण अपने मन में उत्पन्न हुए
भावों के लिए आनन्द का अनुभव किया ।। ७७ ।।
यथातंकः
समुत्पन्नः सतीत्वस्य निवारणे ।
तञ्च स्वयं सा
तत्याज तदा मेधातिथेः सुता ।।७८।।
तब मेधातिथि
की उस पुत्री ने उसके मन में सतीत्व के निवारण का जो भय पहले समा गया था उसे स्वयं
ही छोड़ दिया ।। ७८ ।।
त्यक्तचिन्तां
ततस्तान्तु विज्ञायारुंधती सतीम् ।
सावित्री
सूर्यभवनं तया सार्धं जगाम ह ।। ७९ ।।
तब सती
अरुन्धती को चिन्ता मुक्त हुई जानकर, उसे साथ ले सावित्री, सूर्य के निवास
स्थान को चली गईं।।७९।।
अरुन्धतीं
निवेश्याथ सावित्रीं सूर्यमन्दिरे ।
जगाम ब्रह्मभवनं
सर्वज्ञा सासतीवरा ।।८० ॥
तब सब कुछ
जानने वाली, श्रेष्ठ
सती सावित्री, अरुन्धती को सूर्य मन्दिर के निवास स्थान पर
पहुँचाकर स्वयं ब्रह्मलोक को चली गई ।। ८० ।।
अथ प्रणम्य
ब्रह्माणं पृष्टा तेनैव तत्क्षणात् ।
इदं जगाद
सावित्री ब्रह्माणममितौजसम् ।।८१।।
इसके बाद
ब्रह्मा को प्रणाम कर, उनके द्वारा पूछे जाने पर तत्काल सावित्री ने अमित तेजस्वी ब्रह्मा से यह
कहा - ॥८१॥
।।
सावित्र्युवाच ।।
भगवन् जगतां
नाथ वसिष्ठं भवतः सुतम् ।
मानसस्य गिरेः
सानौ ददर्शारुन्धती सती ।।८२।।
सावित्री
बोली- हे भगवन्! हे संसार के स्वामी ! मानस पर्वत के शिखर पर सती अरुन्धती ने आपके
पुत्र वसिष्ठ को देखा ॥ ८२ ॥
तयोर्दर्शनमात्रेण
ववृधे हृच्छयो महान् ।
परस्परं तौ
स्पृहयाञ्चक्रतुश्च प्रजापते ॥८३॥
हे प्रजापति !
उन दोनों में एक दूसरे को देखने मात्र से ही महान काम वेग (राग) बढ़ने लगा । तथा
उन दोनों ने आपस में एक दूसरे की अभिलाषा की ।। ८३ ॥
ततो
धैर्यात्तु संस्तभ्य मनोजं तौ सुदुःखितौ ।
विमनस्कौ गतौ
स्थानं लज्जितौ तौ स्वकं स्वकम् ॥८४ ।।
तब उन दोनों
ने धैर्यपूर्वक अपने कामभाव को नियंत्रित किया तथा दुःखी, लज्जित एवं अनमनस्क होकर अपने-अपने स्थानों
को चले गये ॥ ८४ ॥
एवम्प्रवृत्ते
ययोग्यं तदा त्वेतद्विधीयताम् ।
आयत्याञ्च
सुरश्रेष्ठ लोकानां हितकाम्यया ।। ८५ ।।
हे देवश्रेष्ठ
! ऐसा होने पर संसार के हित और आश्रय हेतु जो उचित हो, आप वही कीजिए ।। ८५ ।।
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इति श्रुत्वा वचस्तस्याः
ब्रह्मा सर्वजगद्गुरुः ।
ददर्श
दिव्यज्ञानेन प्रवृत्तिं भाविकर्मणः ॥८६ ।।
मार्कण्डेय बोले- समस्त संसार के गुरु ब्रह्मा ने सावित्री के वचन को सुनकर अपने दिव्य ज्ञान से भविष्य में होने वाले कार्यों को देख लिया ।। ८६ ॥
इदञ्च स्वागतं
प्रोचे तदा लोकपितामहः ।
तयोर्दाम्पत्यभावस्य
कालोऽयं समुपस्थितः ।
अतो लोकहितार्थाय
यास्येऽहं तत्प्रवृत्तये ।।८७।।
तब लोक के
पितामह ब्रह्मा ने अपने मन में ही कहा कि दोनों के दाम्पत्य भाव का यह समय आ गया
है। अतः लोक-कल्याण के लिए मैं उसके प्रवृत्ति हेतु जाऊँगा ।। ८७ ।।
इति निश्चत्य
मनसा सावित्रीसहितो विधिः ।
जगाम मानसप्रस्थं
यत्राभूद्दर्शनं तयोः ।।८८।।
ऐसा मन में
निश्चय करके ब्रह्मा, सावित्री के सहित उस मानस शिखर पर गये जहाँ उन दोनों का आपस में दर्शन
(देखा-देखी) हुआ था ।। ८८ ।।
पितामहे तत्र
याते शर्वः सुरगणैर्युतः ।
नन्दिभृंगिप्रभृतिभिः
समायातो वृषध्वजः ।। ८९ ॥
पितामह के वहाँ जाते ही देवताओं तथा नन्दि-भृंगी आदि गणों के सहित वृषभध्वज शर्व (शिव) स्वयं वहाँ आ पहुँचे॥८९॥
भगवान्
वासुदेवोऽपि ब्रह्मणा परिचिन्तितः ।
भक्त्या सोऽपि
जगन्नाथः शङ्खचक्रगदाधरः ।
स्थितौ
ब्रह्माहरौ यत्र तत्रैव स्वयमागतः ।। ९० ।।
ब्रह्मा के
द्वारा भक्तिपूर्वक स्मरण किये जाने पर जगत् के स्वामी भगवान वासुदेव भी शंख, चक्र, गदा धारण किये
हुए वहाँ स्वयं आ गये जहाँ ब्रह्मा और शिव पहले से ही उपस्थित थे ।। ९० ।।
अथ ते जगतां
नाथाः ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।
नारदं
प्रेषयामासुर्दूतं मेधातिथिं प्रति ।।९१।।
इसके बाद उन
संसार के स्वामियों ब्रह्मा, विष्ण, महेश ने नारद मुनि को अपना दूत बनाकर
मेधातिथि मुनि के पास भेजा ॥ ९१ ॥
याहि द्रुतं
नारद त्वं चन्द्रभागाह्वयं गिरिम् ।
मुनिस्तस्योपत्यकायामास्ते
मेधातिथि: परः ।।९२।।
हे नारद! तुम
शीघ्र ही चन्द्रभाग नामक पर्वत पर जाओ । वहाँ मेधातिथि नामक एक श्रेष्ठ मुनि, उसकी घाटी में निवास करते हैं ।। ९२ ।।
तमानय
यथाकाममस्माकं वचनात् स्वयम् ।
मेधातिथिं समादाय
भवानागच्छतु द्रुतम् ।।९३।।
आप उन
मेधातिथि मुनि को हमारी कामना तथा अपने वचन के अनुसार लेकर शीघ्र यहाँ आओ ।। ९३ ॥
ब्रह्मादीनां
वचः श्रुत्वा नारदोऽपि द्रुतं ययौ ।
मेधातिथिं समानेतुं
महाकार्यस्य सिद्धये ।।९४।।
ब्रह्मादि के
वचनों को सुनकर, उस महान
कार्य की सिद्धि के लिए तथा मेधातिथि मुनि को लाने हेतु, नारद
भी शीघ्रता से गये ।। ९४ ।।
मेधातिथिं
समादाय ययौ मानसपर्वतम् ।। ९५ ।।
तब वे देवताओं
के कथन को मेधातिथि को सुनाकर, उन्हें साथ लेकर मानस पर्वत पर चले गये ।। ९५ ।।
सेन्द्रा
देवगणाः सर्वे मुनयश्च तपोधनाः ।
साध्या विद्याधरा
यक्षा गन्धर्वाश्च समागताः ।। ९६ ।।
इन्द्र के
सहित देवगण, सभी
तपस्वी मुनिगण, साध्य, विद्याधर,
यक्ष और गन्धर्व वहाँ आ गये ।। ९६ ॥
देवाश्च सर्वे
देव्यश्च ये देवानुचरास्तथा ।
ते सर्वे
मानसप्रस्थं याताश्चान्ये च जन्तवः ।। ९७ ।।
सभी देवता, देवियाँ तथा उनके जो अनुचर थे वे सब और
अन्य प्राणी भी मानस पर्वत के शिखर पर पहुँचे ।। ९७ ।।
अथ भूते समाजे
तु देवानां कमलासनः ।
मेधातिथिं मुनिं
वाक्यमिदमाहातिदेशयन् ।। ९८ ।।
इस प्रकार के
देव सम्मेलन के बाद, कमलासन ब्रह्मा ने आदेश - सा देते हुए मेधातिथि मुनि से यह वचन कहा- ।। ९८
।।
।। ब्रह्मोवाच
।।
मेधातिथे
वसिष्ठाय पुत्रीं ते चरितव्रताम् ।
देहि
ब्राह्मेण विधिना समाजे त्रिदिवौकसाम् ।।९९ ।।
ब्रह्मा बोले-
हे मेधातिथि ! तुम अपनी चरितव्रता पुत्री को महर्षि वसिष्ठ के लिए देवताओं के इस
समाज में ही ब्रह्म-विवाह विधि से प्रदान करो ।। ९९ ।।
बधूवरत्वमनयोः
पूर्वं सृष्टं मयैव हि ।
हरिणा
चाप्यनुज्ञातं कर्म चैतत् समञ्जसम् ।। १०० ।।
इनके वर-वधू
होने का विधान मैंने पहले से ही कर दिया था। इस समञ्जन कर्म हेतु विष्णु की भी
आज्ञा ले ली गई है॥१००॥
एवं कृते तव
कुले भविष्यति महद्यशः ।
हितं च
सर्वभूतानां देहि त्वं मा चिरं कृथाः ।। १०१ ।।
ऐसा करने से
तुम्हारे कुल में महान कीर्ति होगी तथा सभी प्राणियों का कल्याण होगा । इसलिए तुम
शीघ्र ही अपनी कन्या का दान करो। विलम्ब मत करो ॥ १०१ ॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
ततो ब्रह्मवचः
श्रुत्वा ह्यतिप्रमोदितो मुनिः ।
एवमस्त्विति
चोवाच नत्वा तान् सुरपुङ्गवान् ।। १०२ ।।
मार्कण्डेय
बोले- तब ब्रह्मा के कथन को सुनकर मेधातिथि मुनि अत्यन्त प्रमुदित हुए तथा उन
देवगणों को प्रणाम कर उन्होंने ऐसा ही होवे, ऐसा कहा ॥ १०२ ॥
एषां तु
वचनात् पुत्रीमादायारुन्धतीं मुनिः ।
ध्यानस्थस्य
वसिष्ठस्य देवैः सह जगाम ह ।। १०३ ।।
उन देवताओं के
वचनों के अनुसार वे अपनी पुत्री अरुन्धती को लेकर जहाँ वसिष्ठ मुनि ध्यानस्थ थे, देवताओं के साथ वहाँ गये ॥ १०३ ॥
गत्वा
वसिष्ठनिकटं देवैः परिवृतो मुनिः ।
ब्राह्मश्रिया
दीप्यमानं ज्वलन्तमिव पावकम् ।। १०४ ।।
धर्मार्थकाममोक्षेषु
धृतबुद्धिं पृथक् पृथक् ।
ददर्श मुनिमासीनं
मानसाचलकन्दरे ।
वसिष्ठमोजस्विवरं
बालसूर्यमिवोदितम् ।। १०५ ।।
देवताओं से
घिरे हुए मुनिवर मेधातिथि ने वसिष्ठ मुनि के निकट जाकर ब्रह्मश्री से चमकते, अग्नि के समान प्रज्ज्वलित, अलग-अलग धर्म-अर्थ-काम- मोक्ष चारों पुरुषार्थों में बुद्धि रखने वाले उन
मुनि को मानस पर्वत की कन्दरा में बैठे हुए देखा ।। १०४ - १०५ ॥
अथ
पुत्रीमग्रगतां कृत्वा मेधातिथिर्मुनिः ।
वसिष्ठं नियतात्मानमुवाचारुन्धतीपिता
।। १०६ ।।
इसके बाद
पुत्री को आगे कर अरुन्धती के पिता मेधातिथि मुनि ने ओजस्वियों में श्रेष्ठ, बालसूर्य के समान उदीयमान नियतात्मा वसिष्ठ
मुनि से कहा- ।। १०६ ॥
।। ऋषिरुवाच
।।
भगवन् ब्रह्मणः
पुत्र पुत्रीं मे चरितव्रताम् ।
दत्तां
प्रतिगृहाणैनां मया ब्राह्मेण धर्मतः ।। १०७ ।।
ऋषि
(मेधातिथि) बोले- हे ब्रह्मा के पुत्र ! मेरे द्वारा ब्राह्मविधि से प्रदान की
जाती हुई, मेरी इस पुत्री को स्वीकार कीजिये ॥ १०७ ॥
यत्र
यत्राश्रमे ब्रह्मन् स्वेच्छया निवसिष्यसि ।
त्वद्भक्त्येषा
भवित्री च च्छायेवानुगता तव ।। १०८ ।।
हे ब्रह्मन् !
आप स्वेच्छा से जहाँ-जहाँ आश्रम बनाकर निवास करेंगे यह पुत्री आपकी भक्ति के कारण
छाया के समान आपका अनुगमन करनेवाली होगी ।। १०८ ।।
तत्र तत्रैव
मे पुत्री समानव्रतधारिणी ।
पतिव्रता
वरारोहा शुश्रूषां ते करिष्यति ।। १०९ ।।
वहीं वहीं
आपके समान नियमों को पालन करने वाली, पतिव्रताओं में श्रेष्ठ, मेरी यह पुत्री
आपकी सेवा करेगी ॥१०९ ॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इति श्रुत्वा
वसिष्ठस्तु मुनेर्मेधातिथेर्वचः ।
दृष्ट्वा
समागतान् देवान् ब्रह्मविष्णुशिवादिकान् ।
अवश्यमेतद्भावीति
निश्चित्य दिव्यचक्षुषा ।। ११० ।।
मार्कण्डेय
बोले- मेधातिथि के वचन को सुनकर तथा ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवताओं को आया हुआ
देखकर, वसिष्ठ ने दिव्य दृष्टि से यह निश्चय किया कि यह
अवश्यम्भावी ही है ।। ११० ॥
ब्रह्मणः
सम्मते पुत्रीं तदा मेधातिथेर्मुनेः ।
वसिष्ठः प्रतिजग्राह
वाढमित्युक्तवांश्च ह ।।१११।।
तब वसिष्ठ ने
ठीक है ऐसा कहकर, ब्रह्मा की सम्मति से मेधातिथि मुनि की पुत्री का प्रतिग्रह कर लिया ॥१११॥
गृहीतपाणिः सा
देवी वसिष्ठेन महात्मना ।
पत्युः पादयुगे
चक्षुर्युगं न्यस्तवती सती ।। ११२ ।।
उस सती देवी
अरुन्धती ने महात्मा वसिष्ठ द्वारा अपना पाणिग्रहण किये जाने के बाद पति के दोनों
चरणों में ही अपने नेत्रों को लगा दिया ।। ११२ ॥
ततो ब्रह्मा च
विष्णुश्च रुद्रश्चान्ये तथामराः।
विवाहविधिना तौ
तु मोदयाञ्चक्रुरुत्सवैः ।। ११३ ।।
तब ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा अन्य देवगण, उन दोनों के विधिवत विवाह पर प्रसन्नता के कारण उत्सव मनाने लगे॥११३॥
सावित्री प्रमुखा
देव्यो देवाश्चेन्द्रादयस्तथा ।
दक्षाद्याः कश्यपाद्यास्तु
मुनयोऽतितपोधनाः ।। ११४।।
उन्मुच्य ब्रह्मवचनाद्वल्कलञ्चाजिनं
जटाः ।
मन्दाकिनीजलेनाशु
स्नापयित्वा सुतं विधेः ।। ११५ ।।
जाम्बुनदैस्तथा
दिव्यैर्भूषणैश्च मनोहरैः ।
वसिष्ठं भूषयांचक्रुस्तथैवारुन्धतीं
सतीम् ।।११६।।
तब सावित्री
आदि प्रमुख देवियों, इन्द्रादि देवगण, दक्षादि तथा कश्यपादि अत्यधिक
तपस्वी मुनिगणों ने ब्रह्मा के कथनानुसार ब्रह्मा के पुत्र महर्षि वसिष्ठ के वल्कल,
मृगचर्म तथा जटाओं को खोलकर शीघ्र ही उन्हें मन्दाकिनी के जल से
स्नान कराया और जम्बुनद के स्वर्ण निर्मित दिव्य और सुन्दर आभूषणों से वसिष्ठ को
विभूषित किया। उसी प्रकार सती अरुन्धती के साथ भी किया गया ।। ११४- ११६ ।।
भूषयित्वाथ तौ
तत्र समाप्य मुनिभिर्विधिम् ।
विवाहावभृथंचक्रुस्तयोर्विधि
हरीश्वराः ।। ११७ ।।
इसके बाद उन
दोनों को सजाने के पश्चात् मुनियों द्वारा विवाह की विधि सम्पन्न की गई तथा
ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश ने विवाह में उनका अवभृथ
स्नान कराया ।। ११७ ।।
निधाय सर्वतीर्थानां
तोयं जाम्बुनदे घटे ।
आशीर्वादकरैर्मन्त्रैर्गायत्र्या
द्रुपदादिभिः ।।११८।।
स्वयं तौ
स्नापयाञ्चक्रुर्ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।
ततो
महर्षयश्चान्ये तथा देवर्षयश्च ये ।। ११९ ।।
इस हेतु
सर्वप्रथम ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव ने जम्बुनद से बने घट में रखे सभी तीर्थों के जल से,
गायत्री-द्रुपदादि छन्दों के मन्त्रों का पाठ करते हुए
आशीर्वादयुक्त हाथों से उन दोनों को स्वयं स्नान कराया। तब जो अन्य देवता या
महर्षि वहाँ उपस्थित थे उन लोगों ने भी स्नान कराया ॥ ११८-११९ ।।
ते सर्वे
ऋग्यजुः सामवेदभागैर्महास्वरैः ।
गङ्गादि
सरितां तोयैश्चक्रुः शान्तिं तयोर्मुहुः ।।१२० ।।
पुनः उन सबने
ऋग्, यजुः तथा सामवेद के अंशों के उच्च स्वर से
किये गये पाठ द्वारा तथा गङ्गादि नदियों के जल से उनका शान्तिपूजन किया ।। १२० ॥
भुवनत्रयसञ्चारि
विमानं सूर्यवर्चसम् ।
अव्याहतगतिं ब्रह्मा
सतोयञ्च कमण्डलुम् ।।१२१ ।।
ब्रह्मा ने उन
दोनों को तीनों लोकों में निर्वाध रूप से संचरण करने वाला, सूर्य के समान तेजस्वी एक विमान तथा दिव्य
जल से युक्त एक कमण्डल प्रदान किया ।। १२१ ॥
ताभ्यां दायं
ददौ विष्णुर्दुप्रापं स्थानमुत्तमम् ।
यदूर्ध्व
सर्वदेवानां मरीच्यादेः समीपतः ।
सप्तकल्पान्तजीवित्वं
रुद्रः प्रादात्तयोर्वरम् ।। १२२ ।।
उन दोनों के
लिए विष्णु ने दहेज रूप में सभी देवों के ऊपर मरीचि आदि ऋषियों के समीप स्थित, कठिनाई से प्राप्त होने वाला, उत्तम स्थान, सप्तर्षिलोक प्रदान किया तथा रुद्र ने
उन दोनों को सात कल्पों (३०२४००००००० मानव वर्षों तक) जीवित होने का वर दिया ।।
१२२ ।।
अदितिः
कुण्डलयुगं ब्रह्मणा निर्मितं स्वकम् ।
ददौ स्वकर्णादाकृष्य
पुत्र्यै मेधातिथेस्तदा ।। १२३।।
उस समय अदिति
ने ब्रह्मा द्वारा बनाये हुए दोनों कुण्डलों को अपने कानों से उतारकर स्वयं
मेधातिथि की पुत्री अरुन्धती को दिया ।। १२३ ।।
पतिव्रतात्वं
सावित्री बहुला बहुपुत्रताम् ।
देवेन्द्रो बहुरनानि
धनेशेन समं ददौ ।। १२४ ।।
सावित्री ने पातिव्रत्य, बहुला ने बहुत से पुत्र प्राप्ति की क्षमता, देवराज इन्द्र कुबेर के समान बहुत से रत्न प्रदान किया॥१२४॥
एवं देवाश्च
मुनयो देव्यश्चान्ये च ये स्थिताः ।
ददुस्तत्र
यथायोग्यं दायं ताभ्यां पृथक् पृथक् ।। १२५ ।।
इसी प्रकार
वहाँ उपस्थित देवताओं, देवियों, मुनियों तथा अन्यों ने भी उन दोनों को
अलग-अलग यथा योग्य दहेज दिये ।। १२५ ।।
एवं विवाह्य
विधिवत् सौवर्णे मानसाचले ।
अरुन्धतीं वसिष्ठस्तु
मोदमाप तया सह ।। १२६ ।।
इस प्रकार उस
स्वर्णिम मानस पर्वत पर अरुन्धती से विधिपूर्वक विवाह कर वसिष्ठ ने उसके साथ आनन्द
प्राप्त किया ।। १२६ ।।
तत्र यत्
पतितं तोयं मानसाचलकन्दरे ।
विवाहावभृथार्थाय
शान्तये च सुराहृतम् ।। १२७ ।।
ब्रह्मविष्णुमहादेवपाणिभिः
समुदीरितम् ।
तत्तोयं
सप्तधा भूत्वा पतितं मानसाचलात् ।
हिमाद्रेः
कन्दरे सानौ सरस्याञ्च पृथक् पृथक् ।।१२८।।
वहाँ विवाह के
अवभृथ स्नान तथा शान्ति हेतु देवताओं द्वारा लाया गया और ब्रह्मा, विष्णु एवं महादेव के हाथों से छोड़ा हुआ
जो जल, मानस पर्वत की कन्दरा में गिरा, वह सात भागों में बँटकर, मानस पर्वत से नीचे की ओर
हिमालय की कन्दरा, चोटियों पर तथा सरोवरों में अलग-अलग बहा
।। १२७-१२८ ।।
तत्तोयं पतितं
शिप्रे देवभोग्ये सरोवरे ।
तेन
शिप्रानदीजाता विष्णुना प्रेरिता क्षितौ ।। १२९ ।।
वही जल
देवताओं के भोगयोग्य शिप्र सरोवर में गिरा तो उससे विष्णु की प्रेरणावश पृथ्वी पर
शिप्रा नदी उत्पन्न हो गयी ।। १२९ ।।
महाकौषी
प्रपाते तु यद्वारि पतितं तु वै ।
कौषिकी नाम सा
जाता विश्वामित्रावतारिता ।। १३० ।।
विश्वामित्र
ऋषि द्वारा अवतरण कराने से जो जल महाकौषी प्रपात पर गिरा उससे कौषिकी नाम्नी नदी
उत्पन्न हो गयी ॥ १३० ॥
उमा क्षेत्रे
यत् पतितं तोयं तेन महानदी ।।१३१।
कावेरी नाम सा
जाता महाकालसरः सृता ।
महाकाले सरः
श्रेष्ठे पतितं तज्जलं गिरेः ।। १३२ ।।
उमा क्षेत्र
में जो जल गिरा उससे महाकाल सरोवर से निकली हुई कावेरी नामक महानदी उत्पन्न हुई।
यह उस पर्वत पर स्थित महाकाल नाम के श्रेष्ठ सरोवर के गिरे जल से निकली हुई थी ।। १३१-१३२
।
हिमाद्रेः
पार्श्वभागे तु दक्षिणे शंभुसन्निधौ ।
गोमती नाम
तैर्जाता नदी गोमदुदीरिता ।। १३३ ।।
हिमालय पर्वत
के दाहिने बगल में शिव के समीप जो जल गोमद ऋषि की प्रेरणा से गिरा उसी से गोमती
नदी का प्रादुर्भाव हुआ ।। १३३ ।।
मैनाको नाम यः
पुत्रः शैलराजस्य तत्समः ।
तस्मिन् सानौ
समुत्पन्नो मेनकोदरतः पुरा ।। १३४ ।।
यत्तत्र पतितं
तोयं तेन जाता महानदी ।
देविकाख्या महादेवप्रेरितो
सागरं प्रति ।। १३५ ।।
प्राचीन काल
में मेनका के गर्भ से जो शैलराज हिमालय का उन्हीं के समान श्रेष्ठ मैनाक नामक
पुत्र उत्पन्न हुआ था, उसकी चोटी पर जो जल गिरा वही देविका नामक महानदी होकर महादेव की प्रेरणा
से समुद्र की ओर बह चला ।। १३४-१३५ ।।
यत्तोयं सङ्गतं
दर्यां हंसावतारसन्निधौ ।
तेनाभूत्
सरयूर्नाम्ना नदी पुण्यतमा स्मृता ।।१३६ ॥
जो जल
हंसावतार के पास कन्दरा में गिरा उससे सरयू नाम से स्मरण की जाने वाली पवित्र नदी
उत्पन्न हुई ।। १३६ ।।
यान्यम्भांसि
महापार्श्वे खाण्डवारण्यसन्निधौ ।
हिमवत्कन्दरे याम्ये
इराया हृदमध्यतः ।
इरावती नाम
नदी तैर्जाता च सरिद्वरा ।।१३७ ।।
जो जल राशि
खाण्डववन के निकट हिमालय के दक्षिणी विशाल भाग में स्थित इरा नामक विशाल सरोवर में
गिरी उससे इरावती नामक श्रेष्ठ नदी उत्पन्न हुई ।। १३७ ॥
एता: सर्वाः
स्नानपान सेवनैर्जाह्नवी यथा ।
फलं ददति
मर्त्यानां दक्षिणोदधिगाः सदा ।।१३८ ।।
ये सभी नदियाँ
प्राणियों को नहाने, पीने और सेवन करने पर गंगा के समान फल देती हैं तथा सदैव दक्षिण सागर में
गिरती हैं ।। १३८ ॥
धर्मार्थकाममोक्षाणां
बीजभूताः सनातनाः ।
महानद्यस्तु सप्तैताः
सर्वदा देवभोगदाः ।। १३९ ।।
ये सात
महानदियाँ, धर्म,
अर्थ, काम एवं मोक्ष इन चार पुरुषार्थों को
निरन्तर उत्पन्न करने वाली तथा सदैव देव तुल्य भोग प्रदान करने वाली हैं ।। १३९ ।।
एवं नद्यः
सप्तजाताः सदापुण्यतमोदकाः ।
अरुन्धत्या वसिष्ठस्य
विवाहे देवसन्निधौ ।। १४० ।।
इस प्रकार
देवताओं के सानिध्य में हुये अरुन्धती और वसिष्ठ के विवाह के अवसर पर सदैव पवित्र
जल वाली सात नदियाँ उत्पन्न हुईं ॥ १४० ॥
एवं विवाह्य स
तदा वसिष्ठस्तामरुन्धतीम् ।
देवैर्दत्तं
तदा स्थानं विमानेन जगाम ह ।। १४१ ।।
तब वसिष्ठ
मुनि इस प्रकार अरुन्धती के साथ विवाह कर, विमान से देवताओं द्वारा प्रदत्त स्थान को चले गये ।। १४१ ॥
ब्रह्म विष्णु
महेशानां वचनान्मुनिसत्तमः ।
हिताय सर्वजगतां
त्रिषु लोकेषु सर्वदा ।।१४२ ।।
यस्मिन्
यस्मिन् युगे यादृक् स्त्रीणां भवति तादृशम् ।। १४३ ।।
वेशं भावं
शरीरं च कृत्वा धर्मे नियोजनम् ।
विचरत्येष लोकांस्त्रीनप्रमत्तः
प्रसन्नधीः ।। १४४ ।।
ब्रह्मा, विष्णु और शिव के वचनों के अनुसार वे मुनि
श्रेष्ठ सदैव तीनों लोकों में प्राणियों के कल्याण के लिए जिस-जिस युग में
स्त्रियों को धर्म में नियोजन हेतु जिस प्रकार के वेश, भाव
या शरीर की आवश्यकता होती है वैसा ही धारण कर अप्रमत्त (सावधान) तथा प्रसन्न
बुद्धि वसिष्ठ मुनि तीनों लोकों में विचरते हैं ।। १४२ - १४४ ॥
एवं पुरा वसिष्ठेन
परिणीतात्वरुन्धती ।। १४५ ।।
सा हितार्थाय
जगतां देवानां वचनात् पुरा ।। १४६ ।।
इस प्रकार
प्राचीन काल में देवताओं द्वारा पूर्व में निर्दिष्ट वचनों के आधार पर संसार के
कल्याण के लिए वह अरुन्धती, वसिष्ठ से व्याही गयी ।। १४५-१४६ ।।
य इदं
शृणुयान्नित्यमाख्यानं धर्मसाधनम् ।
सर्वकल्याणसंयुक्तं
चिरायुर्वित्तवान् भवेत् ।।१४७।।
जो इस धर्म के
साधन रूप आख्यान को नित्य सुनेगा वह सब प्रकार के कल्याण से युक्त, चिरायु एवं धनवान होगा ।। १४७ ।।
या स्त्री
शृणोति सततमरुन्धत्याः कथामिमाम् ।
पतिव्रता सा
भूत्वेह परत्र स्वर्गमाप्नुयात् ।। १४८ ।।
जो स्त्री अरुन्धती
की इस कथा को निरन्तर सुनेगी, वह इस लोक में पतिव्रता होगी तथा परलोक में स्वर्ग प्राप्त करेगी ।। १४८
।।
इदं परं
स्वस्त्ययनमिदं धर्मप्रदं परम् ।
आख्यानं सर्वदा
कीर्तिर्यशः पुण्यविवर्धनम् ।। १४९ ।।
यह आख्यान परम
कल्याणकारक, परम धर्म
को देने वाला, कीर्ति, यश तथा पुण्य को
बढ़ाने वाला है ।। १४९ ।।
विवाहे पुंसि
यात्रायां यः श्राद्धे श्रावयेत्तथा ।
स्थैर्यं
पुंसवनं सिद्धिः पितृप्रीतिश्च जायते ।। १५० ।।
जो विवाह, पुंसवन, यात्रा तथा
श्राद्ध में इसे सुनायेगा तो क्रमशः स्थायित्व, पुंसवन
(पुत्रत्व), सिद्धि तथा पितरों की प्रसन्नता (विवाह में
स्थायित्व, पुंसवन में संतान का पुरुषत्व, यात्रा में सिद्धि सफलता, श्राद्ध में पितरों की
प्रसन्नता) प्राप्त होगी ।। १५० ।।
इति वः कथितं
सर्वं वसिष्ठस्य महात्मनः ।
अरुन्धती
यथाभूता भार्या वापि पतिव्रता ।। १५१ ।।
यस्य वा तनया
जाता यथोत्पन्ना च यत्र च ।
यथा
ब्रह्महरीशानां वचनात् स वृतः पतिः ।।१५२।।
इस प्रकार
महात्मा वसिष्ठ एवं देवी अरुन्धती के विषय में, जिसकी वे पुत्री हुईं, जिस प्रकार और
जहाँ वे उत्पन्न हुईं तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव के
वचनानुसार वसिष्ठ उनके पति के रूप में चुने गये, वह सब मैंने
आप लोगों से कह दिया है ।। १५१-१५२ ।।
एतत् वः
सर्वमाख्यातं गुह्यतरं परम् ।
पुण्यदं पापहरणमायुरारोग्यवर्धनम्
।। १५३ ।।
यह सब आप
लोगों से कहा गया जो अत्यधिक गुप्त से गुप्त, पुण्यदायक, पाप हरने वाला, आयु और आरोग्य बढ़ाने वाला है ।। १५३ ।।
इति विपुलवृषौघ
क्षेमकारीतिहासं सदसि सकृदपीह श्रावयेद्यो द्विजानाम् ।
स भवति कलुषौद्यैर्हीन
देहः समेतो मुनिवरसहचर्यां प्रेत्य गीर्वाण एव ।। १५४ ।।
इस विपुल
पुण्य के समूह तथा कल्याणकारी इतिहास को सभा में एक बार भी जो द्विजों को सुनायेगा
वह पाप से हीन हो इस लोक में मुनिवरों का साहचर्य प्राप्त करेगा तथा परलोक में
स्वर्ग को ही प्राप्त करेगा ।। १५४ ।।
।। इति
श्रीकालिकापुराणे वसिष्ठारुन्धतीविवाहो नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३॥
कालिका पुराण अध्याय २३- संक्षिप्त कथानक
मार्कण्डेय
महर्षि ने कहा- इसके अनन्तर वह देवी उन मुनिवर के आश्रम में बड़ी हो गई थी जो कि
चन्द्रभागा नदी के तट पर तापसारण्य नाम वाला था। जिस प्रकार से चन्द्रमा की कला
शुक्लपक्ष में नित्य ही प्रवर्द्धित हुआ करती है जैसे ज्योत्सना बढ़ा करती है उसी
भाँति वह अरुन्धती भी वृद्धि को प्राप्त हुई थी। उस समय में पाँचवा वर्ष के
सम्प्राप्त होने पर गुण गणों के द्वारा उस सती चन्द्रभागा ने भी उस ताप सारण्य को
भी परम पवित्र कर दिया था । वहाँ पर मेधातिथि द्वारा निषेचित महापुण्य वाला तीर्थ
था जो अरुन्धती की क्रीड़ा का स्थान था और उन अरुन्धती ने बाल्योचित कृत्य से पूत
किया था । आज भी तापसारण्य में चन्द्रभागा नदी के जल में मनुष्य अरुन्धती तीर्थ के
जल में स्नान करके अन्त में हरि की प्राप्ति किया करता है । कार्तिक के पूरे मास
में चन्द्रभागा नदी के जल में स्नान करके विष्णु भगवान के लोक प्राप्त होकर अन्त
में मोक्ष की प्राप्ति किया करता है। माघ मास में पूर्णमासी अथवा अमावस्या में उसी
भाँति चन्द्रभागा के जल में जो स्नान करता है और एक-एक बार ही किया करता है ।
उस पुरुष के
वंश में महारोग कभी भी नहीं होगा। देह के अन्त में वह पुरुष चन्द्र भवन को जाकर
फिर वह भगवान हरि के लोक में चला जाया करता हैं । जब पुण्य का क्षय हो जाया करता
है तभी यहाँ संसार में आकर अर्थात् पुनः जन्म ग्रहण करके वेदों का ज्ञाता ब्राह्मण
होता है । चन्द्रभागा नदी का जल पीकर वह मनुष्य चन्द्रलोक को प्राप्त किया करता है
। विधि के साथ एक बार स्नान करके अयुत ( दस हजार) वाजपेय यज्ञ के पुण्य को प्राप्त
किया करता है । चन्द्रभागा के जल में स्नान करके बाल्य लीला से क्रीड़ा करती हुई
पिता के समीप में उसके तट पर किसी समय में उस अरुन्धती को आकाश मार्ग से जाते हुए
ब्रह्माजी ने अरुन्धती को उस काल में उपदेश में देखा । इसके उपरान्त उस समय में मुनियों
के द्वारा परिपूजित जो कि मेधातिथि आदि थे ब्रह्माजी ने उस महामुनि से समुचित कहा
था ।
ब्रह्माजी ने
कहा- हे महामुनि! यह अरुन्धती के उपदेश का काल है । इस कारण इसको सती स्त्रियों के
मध्य में सन्निधि वाली करो । बहुला और सावित्री के समीप में आप पुत्री को स्थापित
करिये । हे महामुने! आपकी पुत्री उन दोनों का संसर्ग प्राप्त करके महान् गुण गण और
ऐश्वर्य से संयुत शीघ्र ही हो जायेगी । परमात्मा ब्रह्माजी के वचन का श्रवण करके मेधातिथि से उस समय में ऐसा
ही होगा,
यह मुनिश्रेष्ठ ने कहा था । इसके अनन्तर सुर श्रेष्ठ के चले
जाने पर मेधातिथि मुनि अपनी पुत्री को लेकर उसी क्षण में सूर्य भवन के प्रति गमन
किया था। वहाँ पर सूर्य मण्डल के मध्य में विराजमान सावित्री को देखा था । जो कि
पद्म के आसन पर संस्थित थी और वह देवी अक्षों की माला को धारण करने वाली एवं
सितवर्ण वाली थी। रवि के मण्डल से निकलकर उस मुनि के द्वारा वह देखी गई थी। वह
बहुला शीघ्र ही मानस पर्वत के प्रस्थ पर चली गयी थी । वहाँ पर प्रतिदिन सावित्री,
गायत्री तथा बहुला, सरस्वती और द्रुपदा के पाँचों मानस अनल पर थी।
वहाँ पर लोकों
की हितकामना से परस्पर में धर्माख्याओं के द्वारा साध्वी कथाओं को कहकर फिर
अपने-अपने स्थान को चली जाया करती थी । तप ही जिसका धन था । हे माता! आप तो समस्त
लोकों की माता है मैं आपको पृथक-पृथक प्रणाम समर्पित करता हूँ । उस तपोधन ऋषि ने
उन सबसे परम मधुर वचन कहा था और वह उन सबको एक ही स्थान में सम्मिलित हुई का दर्शन
करके बहुत ही भयभीत और विस्मित हुआ था ।
मेधातिथि ने
कहा- हे माता सावित्री ! हे माता बहुले ! यह मेरी महान् यज्ञ वाली पुत्री है। अब
इसके उपदेश करने का समय आ गया है। उसी के लिए मैं यहाँ पर समागत हुआ हूँ। यह जगत्
के सृजन करने वाले के द्वारा आज्ञा प्राप्त करने वाली हुई है कि यह आपकी शिष्यता
को प्राप्त करे अर्थात् आपकी शिष्य हो जावे । इस कारण से यह मेरी पुत्री आपके समीप
में लाई गई है । जिस प्रकार से इसकी सुचरित्रता होवे उसी प्रकार से इस मेरी बालिका
को आप दोनों देवी बना देवें । हे माताओं! आप दोनों के लिए प्रणाम अर्पित है । इसके
उपरान्त उस समय में देवी सावित्री मन्द मुस्कराहट के साथ बहुला के सहित उस मुनियों
में श्रेष्ठ से कहा था और उस बालिका से भी कहा था ।
उन दोनों
देवियों ने कहा- हे ब्राह्मण ! भगवान विष्णु के प्रसाद से आपकी पुत्री बहुत ही
चरित्र वाली है । हे मुने! यह तो पहले ही ऐसी सुयोग्य हुई है फिर इसको उपदेश देने
से क्या लाभ है। तात्पर्य यही है कि जो यह आपकी पुत्री पहले ही से परम योग्य है तो
फिर इसको उपदेश देने की कोई भी आवश्यकता नहीं है । किन्तु मैं और महासती बहुला
ब्रह्मवाक्य के होने से आपकी धैर्य वाली सुता को विनीत बनायेंगी अर्थात् सदुपदेशों
के द्वारा परम विनीत ऐसे ढंग से कर देंगी कि उसमें विशेष विलम्ब नहीं होगा। यह
पहले ब्रह्माजी की पुत्री थी आपके तपोबल के कारण से तथा भगवान विष्णु के प्रसाद से
अरुन्धती आपकी सुता हुई है। यह सती आपके कुल को पवित्र करती है और उसकी वृद्धि भी
करेगी। यह लोकों को और देवों का कल्याण ही करेगी।
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा- इसके अनन्तर यह मेधातिथि मुनि के द्वारा विदा होकर उसने अपनी पुत्री
अरुन्धती को आश्वासन दिया था और फिर उनको प्रणाम करके वह अपने आश्रम को चले गये थे
। उस मुनिवर के चले जाने पर अरुन्धती उन दोनों के साथ माताओं की ही भाँति निडर
पाली हुई थीं और उसने भी आनन्द प्राप्त किया था । किसी समय में रात्रि में
सावित्री के साथ वह रतिदेव के गृह को जाया करती थी और किसी समय में बाहुल्य के साथ
इन्द्रदेव के घर में जाती थी । इसी रीति से वह देव उन दोनों के साथ सुरों आलय में
अर्थात् स्वर्गलोक में विहार करती उसने दिव्यमान से अर्थात् वेदों की गणना के
हिसाब से सात परिवत्सर व्यतीत कर दिये थे । उन दोनों के साथ ये बैठी हुई उस सती ने
शीघ्र ही स्त्री धर्म को सम्पूर्णता से जान गयी थी अर्थात् स्त्रियों का पूरा धर्म
का ज्ञान उसने प्राप्त कर लिया था और वह सावित्री तथा बहुला से भी अधिक ज्ञानवती
हो गयी थी। इसके अनन्तर उसको उस समय समुचित काल के सम्प्राप्त होने पर यौवन का
उद्भेद हो गया था अर्थात् यौवनावस्था के चिह्न प्रकट हो गये थे जिस प्रकार से
पद्मिनीयों की रुचि हुआ करती है । उद्भूत यौवन वाली उसे मानस अचल में विहार करती
हुई अकेली ही ने सुन्दर तेज वाले वशिष्ठ मुनि को देखा था । उस सती ने उस समय में
उस मुनि का अवलोकन करके कामवासना की भावना से बालसूर्य के तुल्य प्रभा वाले
सुन्दरतम रूप ब्राह्मण की श्री से समन्वित इसकी इच्छा की थी अर्थात् उसे प्राप्त
करने की लालसा उसको हो गयी थी। इसके उपरान्त महान तेज वाले उन वशिष्ठ मुनि ने भी
उस परवर्णिनी का अवलोकन करके अद्भुत काम वाला होते हुए उस अरुन्धती को देखा था ।
हे द्विज श्रेष्ठों! इस रीति से परस्पर में एक दूसरे का अवलोकन करके महान काम की
वृद्धि हो गई थी। जिस तरह से किसी प्राकृत अर्थात् साधारण व्यक्ति को बिना ही
मर्यादा के कामदेव समुत्पन्न हो जाया करता है । तात्पर्य यह है कि सामान्य की ही
भाँति कामवासना उद्भूत हो गई थी ।
इसके अनन्तर
उस प्रकार उस मेधातिथि की पुत्री ने धीरज का आलम्बन किया था और अपनी आत्मा को तथा
मदन (कामदेव) से प्रेरित मन को धारण किया था अर्थात् अपने आपको मन को संयत रखा था
। महान् तेजस्वी वशिष्ठ मुनि ने भी अपनी आत्मा में धैर्य रखकर कामवासना से उन्मथित
मन को स्तम्भित किया था । इसके अनन्तर देवी अरुन्धती ने मुनि की सन्निधि का त्याग
करके अपने मनोरथ की बुराई करती हुई जहाँ पर सावित्री थी वहाँ पर ही वह चली गई थी।
वह महासती मानस दुःख की अधिकता से बाध्यमाना होती हुई मैंने सती का भाव परित्याग
कर दिया है, यही वह चिन्तन कर रही थी । उसका कामवासना के द्वारा समुत्पन्न दुःख से मुख
कान्तिहीन हो गया था उसका सम्पूर्ण शरीर भी म्लान हो गया था और गति भी मलिन हो गयी
थी और उसने यह विचार किया था और अपने मन की गर्हणा (बुराई ) करती थी कि यह मन की
वृत्ति मृणाल के तन्तु के ही समान परम सूक्ष्म है और उस क्षण में छिन्न हो जाया
करती है । सतियों की स्थिति अत्यन्त अल्प चलपता से ही विनष्ट हो जाया करती है ।
यही सती के धर्म को पढ़ाकर मुझे चरित्र व्रत वाली सावित्री ने कहा था ।
सावित्री देवी
ने धर्म को यह सार उद्धृत किया था अर्थात् मुझे बतलाया था यह आज परकीय पुरुष में
मनोरथ से नष्ट कर दिया है । तात्पर्य यह है कि दूसरे पुरुष में रम जाने ही से वह
नष्ट हो गया है। उस समय उस मेधातिथि की पुत्री अरुन्धती क्या वहाँ पर पराये में
मेरा मन होगा इसी विचार को बढ़ाते हुए यही वह चिन्तन कर रही थी । दुःख से आर्त्त
वह बहुला और सावित्री देवी के समीप पहुँच गयी थी । उस प्रकार से परम चिन्तित होती
हुई,
कान्तिहीन मुख वाली उस सती को देखकर ध्यान के चिन्तन में
परायण होकर सावित्री ने विचार किया था और दिव्य ज्ञान के द्वारा विचार करती हुई उस
सती को पूरा ज्ञान हो गया। जिस प्रकार से वशिष्ठ मुनि ने साथ अरुन्धती का अवलोकन
हुआ था और जैसा उन दोनों में अत्यन्त दुःसह कामवासना प्रवृद्ध हुई थी । दिव्य
दर्शन करने वाली सावित्री ने अरुन्धती के मुख की कान्ति की हीनता का हेतु भी जान
लिया था। इसके अनन्तर उस सावित्री के मेधतिथि की पुत्री के मस्तक पर हाथ रखकर उस
महादेवजी ने जो चरित्र व्रत वाली सावित्री थी यही कहा था- हे बेटी! किस कारण से
तुम्हारा मुख भिन्न वर्ण वाला हो गया है ?
गुणोत्तमे !
जिस प्रकार से नाल से छिन्न होने वाला पद्म जो सूर्य के ताप से तापित हुआ होता है
उसी भाँति तेरा शरीर कैसे म्लान हो गया है । जिस तरह से चन्द्र का बिम्ब छोटे से
काले बादल के द्वारा सवृत होकर मलिन हो जाया करता है वैसे ही तुम्हारा मुख हो गया
है । भद्रे ! तुम्हारे मन का आन्तरिक भाव की चिन्ता से युक्त जैसा लक्षित हो रहा
है । इसलिए तुम मुझे जो भी गोपनीय रहस्य की बात हो और जो भी इस दुःख का कारण हो
उसे बतला दो ।
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा - इसके अनन्तर वह नीचे की ओर मुख वाली होकर लज्जा से कुछ भी नहीं बोली
थी जबकि बड़ी माता सावित्री के द्वारा वह पूछी भी गई थी तब भी बस लज्जा से कुछ भी
नहीं बोली थी । जब मेधातिथि की पुत्री अरुन्धती ने उस समय में कुछ भी नहीं कहा था
तो मनस्विनी सावित्री ने स्वयं प्रकाश करके उससे कहा था । हे वत्से ! जो तुमने
सूर्य के समान प्रभा से समन्वित मुनि को देखा था वह ब्रह्माजी के पुत्र वशिष्ठ
मुनि हैं जो कि तेरा स्वामी होगा और उसका दाम्पत्य भाव को होना तो पहले ही विधाता
ने निर्मित कर दिया है। इसलिए आपका जो सतीभाव है वह उस मुनि दर्शन से हीन नहीं हुआ
है अथवा जो उसके दर्शन से आपका हृदय कामवासना से संयुत हो गया है इससे भी सतीभाव
का निवास नहीं हुआ है। अतएव जो तुम्हारे मन दुःख है उसका परित्याग कर दो। हे शोभने
! तुमने पूर्व जन्म में परम दारुण तप करके ही उस मुनि को अपना पति बनाना तय किया
था। इसी कारण से वह भी तुम्हारे लिए सकाम हो गये थे । हे वत्से! तुम श्रवण करो कि
अपने ही इस वशिष्ठ मुनि को अपने पति के स्थान में वरण किया था जैसा कि वहाँ पर जिस
भाव से निरन्तर आपने तप किया था ।
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा- उस सावित्री ने यह कहकर जैसे पहले सन्ध्या हुई थी और अपने चन्द्रभागा
के तट पर पर्वत में जिसके लिए तप किया था जिस तरह से ब्रह्मचारी के रूप में वशिष्ठ
मुनि ने बोधा के वचन से उपदेश की हुई तपस्या की थी और जैसे भगवान् विष्णु प्रसन्न
होकर प्रत्यक्ष रूप में प्रकट हुए थे। जिस प्रकार से उसके लिए वर दिया था और जैसे
भार्या ही की स्थापना की थी अथवा जिस प्रकार से उसके द्वारा वशिष्ठ मुनि को अपना
पति होना चाहा था । जिस प्रकार से मेधातिथि ने यज्ञ किया था और जैसे तुमने अपने
शरीर का त्याग किया था और जिस रीति से उसकी पुत्री ने जन्म ग्रहण किया था उस समय
में उसको यह विस्तारपूर्वक क्रम से बहुला के साथ सावित्री से कहा था ।
इसके अनन्तर
इसके वचन का श्रवण करके जो भी पूर्व जन्म में हुआ था । उस समय में यह सुन करके
मेरे मन में जो था वह मैंने जान लिया था । इस रीति से वह अत्यधिक लज्जा को प्राप्त
कर नीचे की ओर मुख वाली हो गई थी और सावित्री के वचन से वह पूर्व जन्म के स्मरण
वाली हो गई थी। उसी भाँति अधोमुखी होकर पूर्व जन्म में जो भी हुआ था उस समय में उस
दिव्य ज्ञान वाली अरुन्धती ने सब घटनाओं का स्मरण किया था । पहले भगवान् विष्णु के
प्रसाद से वह दिव्य दर्शन होकर इस समय में वह दिव्य दर्शन वाली बाल्यभाव के द्वारा
प्रच्छन्न हो गई थी। सावित्री के वचन का श्रवण करके पूर्व जन्म में वृतान्त को
सबको प्रत्यक्ष की ही भाँति वह सम्पूर्ण पूर्व ज्ञान को प्राप्त करने वाली हो गयी
थी। पूर्व ज्ञान की प्राप्ति करके जो पहले भगवान विष्णु ने दिया था कि मैंने पूर्ण
जन्म में इन्हीं वशिष्ठ मुनि का अपने स्वामी के स्थान में वरण किया था। इस ज्ञान
के रखने वाली वह देवी अरुन्धती स्वयं ही परम आमोद से समन्वित हो गयी थी और वशिष्ठ
मुनि ने दर्शन से पूर्व में उसकी कामवासना के अद्भुत होने का भी पूर्ण ज्ञान हो
गया था ।
जिस प्रकार से
उसके मन में सतीत्व के निवारण करने में आतंक समुत्पन्न हो गया था उस समय में उस
मेधातिथि की पुत्री ने उस समय में उस आतंक को स्वयं ही त्याग दिया था । इसके
उपरान्त चिन्ता को त्याग देने वाली उस अरुन्धती सती को समझकर तब सावित्री सूर्यदेव
के भवन को चली गई थी। इसके अनन्तर सावित्री अरुन्धती को उस सूर्यदेव के मन्दिर में
बिठाकर वह सर्वज्ञा और श्रेष्ठ सती सावित्री ब्रह्माजी के भवन को चली गई थी वहाँ
पर ब्रह्माजी को प्रणाम किया था और ब्रह्माजी के द्वारा पूछी गई उस सावित्री से
अमित ओज वाले ब्रह्माजी ने कहा था- हे भगवान्! आप तो समस्त जगतों के स्वामी हैं ।
आपके पुत्र वशिष्ठ मुनि को मानस पर्वत के शिखर पर उस सती अरुन्धती ने देखा था। फिर
उसके केवल अवलोकन करते ही कामदेव की वासना अधिक बढ़ गई थी । हे प्रजापते! वे दोनों
ही परस्पर स्पृह करने वाले हुये थे । दोनों ही ने बड़े धीरज से बहुत ही दुःखित
होकर काम की वासना का स्तम्भन किया था। वे दोनों ही अन्य मनस्क होकर अथवा उदास
होते हुए परम लज्जित होकर अपने-अपने स्थान को चले गये थे ।
हे
सुरश्रेष्ठ! ऐसा हो जाने पर जो भी कुछ समुचित होवे उस समय में यही आप कीजिए ।
भविष्य काल की भलाई में लोकों की हितकामना से वही आप करें जो उचित हो । समस्त
जगतों के गुरु ब्रह्माजी ने यह उसके वचनों को श्रवण करके आगे होने वाले कर्म की
प्रवृत्ति का दिव्य ज्ञान के द्वारा दर्शन किया था अर्थात् समझ लिया था कि भविष्य
में क्या होने वाला है। उस अवसर पर लोक पितामह ने इसका स्वागत ही किया था क्योंकि
उन दोनों के दाम्पत्य भाव का समय यह उपस्थित हो गया था । इसीलिए लोकों के हित के
लिए उसकी प्रवृत्ति के लिए अवश्य ही जाऊँगा । ऐसा मन के द्वारा निश्चय करके
सावित्री के साथ ब्रह्माजी ने गमन किया था और वे मानव गिरि के प्रस्थ पर गये थे
जहाँ पर कि उन दोनों का दर्शन हो जावे । पितामह के वहाँ चले जाने पर शिव समस्त
सुरगुणों सहित नन्दी प्रभृति गणों के साथ वृषभध्वज वहाँ पर आ गये थे। भगवान
वासुदेव भी ब्रह्माजी के द्वारा परिचिन्तित होकर वहाँ पर आ गये थे जो कि जगत् के
साथ वह भी भक्ति की भावना से शंख, चक्र, गदा के धारण करने वाले थे । जहाँ पर ब्रह्मा और शिव स्थित
थे वे भी वहाँ पर स्वयं ही आ गये थे। इसके अनन्तर जगतों के स्वामी ब्रह्मा,
विष्णु, महेश्वर इन तीनों ने मेधातिथि के समीप में देवर्षि नारदजी
को दूत बनाकर भेजा था ।
उन्होंने
नारदजी ने कहा- हे नारद! आप शीघ्र ही चन्द्रभागा नामक पर्वत पर चले जाइए। वहाँ पर
उस पर्वत की उपत्यका में परम श्रेष्ठ मुनि मेधातिथि विराजमान हैं। आप उनको हमारे
वचन से यथाकाम स्वयं ही हमारे पास ले आइए। आप स्वयं ही मेधातिथि को साथ में लाकर
शीघ्र ही यहाँ पर आ जाइए। ब्रह्मा आदि के वचन का श्रवण करके नारदजी शीघ्र ही चले
गये थे और सब कार्य की सिद्धि के लिए वे मेधातिथि को वहाँ पर लाने के लिए प्रस्थान
कर गए थे। उन देवर्षि ने मेधातिथि से सम्भाषण करके देवों के वचनों से मेधातिथि को
अपने साथ लाकर मानस पर्वत पर चले गये थे । वहाँ मानस पर्वत पर समस्त देवगण इन्द्र
के सहित और सब तपोधन, मुनिगण, साध्य, विद्याधर, दक्ष और गन्धर्व भी वहाँ पर समागत हो गये थे । सब देव और
समस्त देवियों और जो देवों के अनुचर थे तथा जो अन्य जन्तुगण थे वे सभी मानस के
प्रस्थ को समायात हो गये थे । इसके पश्चात् देवों के समाज के सम्पन्न हो जाने पर
कमलासन ने मेधातिथि मुनि से अतिदेश करते हुए यह वचन कहा था ।
ब्रह्माजी ने
कहा- हे मेधातिथे ! आप अपनी सुचारित व्रत वाली पुत्री अरुन्धती को इस देवों के
समाज में ब्रह्मविधि से दे दीजिए। मैंने इन दोनों का वर वधू होना पहले ही सृजित कर
दिया है । भगवान हरि ने भी इस परम समुचित कर्म के विषय में आज्ञा प्रदान कर दी थी
। ऐसा समाचरण करने पर आपके कुल में बड़ा भारी यश होगा और इससे समस्त प्राणियों की
भलाई भी होगी । अतएव शीघ्र ही दे दीजिए और इस कार्य में विलम्ब नहीं कीजिए। फिर
ब्रह्माजी ने इस वचन का श्रवण करके वह मुनि बहुत ही अधिक प्रसन्न हुए थे और
उन्होंने कहा था-'ऐसा ही होगा' फिर उसने समस्त देवों को प्रणाम किया था। उस मुनि के वचन का
श्रवण करके वह अपनी पुत्री अरुन्धती को ले आये थे । ध्यान में स्थित वशिष्ठ मुनि
के समीप में देवों के साथ चले गये थे । देवों के द्वारा परिव्रत मुनि ने वशिष्ठ जी
के समीप में पहुँचकर जो मुनि ब्रह्मश्री से देदीप्यमान थे और प्रज्जवलित अग्नि के
ही समान कान्ति वाले थे। उनके पृथक-पृथक उस मानस पर्वत की कन्दरा में धर्म,
अर्थ, काम और मोक्ष में वृद्धि को धारणा किये हुए समासीन मुनि का
दर्शन किया था । वहाँ पर अरुन्धती के पिता के ओजस्वियों में परमश्रेष्ठ,
उदितवान सूर्य के समान, नियत आत्मा वाले वशिष्ठ मुनि से अपनी पुत्री अरुन्धती को
आगे करके मेधातिथि ने कहा था।
मेधातिथि ऋषि
ने कहा- हे भगवान! हे ब्रह्मा जी के पुत्र! मेरी चरित व्रत वाली पुत्री को ज्ञान
मेरे द्वारा दी गई है इसका ब्रह्म धर्म से आप ग्रहण कीजिए। जहां जहां पर भी हे
ब्राह्मण! आप अपनी इच्छा से निवास करेंगे वहीं पर ही यह अपनी परम भक्ति से संयुत
होने वाली होती हुई आपके अनुगत छाया के ही समान रहेगी। वहां वहां पर ही समान
व्रतों को धारण करने वाली यह मेरी पुत्री जो वरारोहा है और परम पतिव्रता है आपकी
सेवा किया करेगी।
मार्कंडेय
मुनि ने कहा- वशिष्ठ मुनि ने इस मेधातिथि के वचन का श्रवण करके और ब्रह्मा विष्णु
शिव आदि देवों का वहां पर आए हुए देखकर दिव्य चक्षु से यह अवश्य ही होने वाला है
यह निश्चय करके ब्रह्मा जी के द्वारा सम्मत होने पर वशिष्ठ मुनि ने उस समय में
मेधातिथि मुनि की पुत्री का वाढम अर्थात् बहुत अच्छा है यह कह कर प्रति ग्रहण कर
लिया था । महात्मा वशिष्ठ के द्वारा पाणिग्रहण की हुई ब्रह्मा देवी सती ने अपने
पति वशिष्ठ जी के चरणों में अपनी दोनों आंखों की न्यस्त कर दिया था अर्थात् अपने
दोनों लोचनों को पतिदेव के चरणों में लगा दिया था। इसके अनन्तर ब्रह्मा- भगवान
विष्णु तथा रुद्र और अन्य देवगण ने विवाह की तिथि के द्वारा उन दोनों को उत्सवों
से परम मोदित (हर्षित) किया था। सावित्री जिसमें प्रधान थी ऐसी देवियों ने और
चंद्र प्रभृति देवों ने दक्ष आदि और कश्यप आदि अति तप के धन वाले मुनियों ने
ब्रह्मा जी के कथन से वल्कल वस्त्र तथा मृग चर्म एवं जटा जूटों का उन्मोचन करके
विधाता के पुत्र (वशिष्ठ मुनि) को शीघ्र ही मंदाकिनी के पावन जल से स्नपन कराकर
स्वर्ण विरचित परम दिव्य एवं मनोहर आभूषणों से वशिष्ठ मुनि को विभूषित किया था और
उसी भांति सती अरुंधति को भी समलंकृत कर दिया था। मुनियों के द्वारा उन दोनों
वर-वधू को भूषित करके वहां पर विधि को सुसंपन्न करके उन दोनों का विधाता हरि भगवान
और ईश्वर ने विवाह के अवभृत को किया था। स्वर्ण रचित घट में समस्त तीर्थों के जल
को रखकर आशीर्वाद करने वाले मंत्रों से गायत्री से और द्रुपद आदि मंत्रों से
ब्रह्मा विष्णु और महेश्वर ने स्वयं ही उन दोनों का स्नपन किया था। इसके अनन्तर
अन्य महर्षियों ने और देवर्षियों ने शांति की थी।
उन सबने महान
स्वर समन्वित ऋक्, यजु और साम वेदों के मन्त्र भागों द्वारा गंगा आदि सरिताओं
के जलों से उन दोनों को फिर शान्ति की थी। तीनों भुवनों में सञ्चरण करनेवाला सूर्य
के समान वर्चस् वाला विमान जो अव्याहत गति से समन्वित था और जल के सहित कमण्डलु उन
दोनों के लिए ब्रह्माजी ने हाथ में दिया था । भगवान् विष्णु ने दुष्प्राप्य उत्तम
स्थान दिया था जो मरीचि आदि के समीप में सब देवों का ऊर्ध्व था । भगवान् रुद्रदेव
ने उन दोनों के लिए सात कल्पों के अन्त पर्यन्त जीवित बने रहने का वर दिया था ।
अदिति ने कुण्डलों का जोड़ा दिया था जो ब्रह्माजी के द्वारा अपने ही द्वारा
निर्माण किये गए थे । उस समय में मेधातिथि ने कुण्डल अपने कानों से निकालकर पुत्री
के लिए दिये थे । सावित्री ने पतिव्रता होना ओर बहुला ने बहुत पुत्रों वाली होना
ये आशीर्वाद दिया था । देवेन्द्र ने बहुत से रत्नों का समूह कुबेर के ही समान दिया
था । इस रीति से देवगण, मुनियों, देवियों और जो भी अन्य जन वहाँ पर उपस्थित थे सबने यथायोग्य
दान उन दोनों के लिए पृथक-पृथक दिया था । इस प्रकार से विधिपूर्वक विवाह करके
सुवर्ण के मानस पर्वत पर वशिष्ठ और अरुन्धती रहे थे और वशिष्ठ जी ने उस अरुन्धती
के साथ परम हर्ष प्राप्त किया था ।
विवाह के
अवभृथ के लिए और शान्ति के लिए जो सुरों के द्वारा लाया हुआ जल था वहाँ पर वह जल
मानस पर्वत की कन्दरा में गिरा था । ब्रह्मा, विष्णु और महादेव के हाथों में समुदीरित वही जल सात भागों
में विभक्त होकर मानस पर्वत से गिरा था । उससे शिप्रा नदी समुत्पन्न हुई थी जो
भगवान विष्णु के द्वारा भूमण्डल में प्रेरित की गई थी। महाकौषी के प्रपात में जो
पतित हुआ था उससे कौषकी नाम वाली नदी उत्पन्न हुई थी और जो विश्वामित्र ऋषि के
द्वारा अवतारित थी । उमा के क्षेत्र में जो जल गिरा था उससे महानदी समुत्पन्न हुई
थी जो महाकाल नामक सर से निकली है। सरों में श्रेष्ठ महाकाल में गिरि वह जल पतित
हुआ था । हिमवान पर्वत के पार्श्वभाग में भगवान शम्भु की सन्निधि में जो जल गिरा
था उससे गोमती नाम वाली नदी समुत्पन्न हुई जो गोमद से उदीरित है ।
मैनाक नाम
वाला जो पुत्र मौलराज के ही समान था पहले वह उसी शिखर में मेनका के उदर से
समुत्पन्न हुआ । यह जल वहाँ गिरा था उसका शुभनाम दविका था जो महादेव के द्वारा
सागर की ओर प्रेरित की गई थी। जो जल हंसावतार की सन्निधि में संगत हुआ था उससे
सरयू नाम वाली नदी उत्पन्न हुई थी जो परम पुण्यतम कही गई है । जो जल खाण्डव वन की
सन्निधि में महापार्श्व के गिरे थे जो कि हिमवान की कंदरा में याम्य में पतित हुये
थे वहाँ इरा के गुद के मध्य से इरावती नाम वाली नदी के जन्म धारण किया था जो
सरिताओं में परम श्रेष्ठ है । सभी सरितायें स्नान पान और सेवन से जाह्नवी गंगा के
तुल्य है। ये सब सदा दक्षिण सागर में गमन करने वाले मनुष्यों को फल दिया करती हैं
। ये नदियाँ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सनातन बीज भर्ता हैं अर्थात् पुरुषार्थ
चतुष्टय की प्राप्ति के लिए कारण स्वरूप ही हैं । ये सात महानदियाँ सर्वदा देवों
के भोगों को प्रदान करने वाली हैं । इस रीति से सात नदियाँ समुत्पन्न हुईं थी जो
सदा ही पुण्य जल वाली थीं।
देवों की
सन्निधि में अरुन्धती और वशिष्ठ मुनि का विवाह हो जाने पर इस प्रकार से उस
अरुन्धती के साथ विवाह करके उस अवसर पर वे वशिष्ठ मुनि उस अरुन्धती को लेकर देवों के
द्वारा दिये हुए स्थान में ही उसी समय से वशिष्ठ मुनि श्रेष्ठ ब्रह्मा,
विष्णु और महेश के वचन से ही उस पूर्वोक्त स्थान पर चले गये
थे । वे समस्त जगतों के हित के सम्पादन करने के लिए तीनों भुवनों में सर्वदा
जिस-जिस में स्त्रियों को जैसे भी है वैसे ही हो जाते हैं । वेशभाव और शरीर को
धर्म से नियोजन करके यह परम प्रसन्न बुद्धिवाले, प्रमाद से रहित होते हुए तीनों लोकों में विचरण किया करते
हैं । इसी रीति से मुनि वशिष्ठ ने पहले अरुन्धती के साथ परिणय की गई थी। जो पुरुष
इस धर्म के साधन स्वरूप आख्यान को नित्य ही श्रवण किया करता है वह सब प्रकार के
कल्याणों से युक्त होकर चिरायु और धनवान हुआ करता है ।
जो कोई स्त्री
निरन्तर अरुन्धती की इस कथा को सुना करती है। वह इस लोक में पतिव्रता हो परलोक में
स्वर्ग की प्राप्ति किया करती है । यह आख्यान परम कल्याण का गृह है और यह परम धर्म
के प्रदान करने वाला है । यह आख्यान सर्वदा कीर्ति, यश, पुण्य का विशेष बढ़ाने वाला है । पुरुष के विवाह में,
यात्रा में और श्राद्ध में जो श्रवण करता है उनकी स्थिरता,
पुंसवन, सिद्धि और पितृगण प्रीति हो जाया करती है । यह सम्पूर्ण
महात्मा वशिष्ठ का आख्यान आपको कह दिया है जिस प्रकार अरुन्धती उनकी भार्या और परम
पतिव्रता हुई थी । वह जिसकी पुत्री होकर उत्पन्न हुई और जिस तरह से उसने अपना जन्म
ग्रहण किया था तथा जिस स्थान में उसका समुद्भव हुआ था और जिस प्रकार से उसने
ब्रह्मा,
विष्णु और महेश्वर के वचन से अपने पति का वरण किया था,
यह सभी कुछ गुह्य से भी अत्यधिक गुह्य को मैंने आपको वर्णन
करके समझा दिया है। यह आख्यान पुण्य का दाता पापों का हरण करने वाला और वायु तथा
आरोग्य के बढ़ाने वाला है । यह बहुत वर्षों के पापों को क्षय करने वाला इतिहास है
। इसको सभा में द्विजों को कोई एक बार भी श्रवण करा देता है वह मनुष्य कलुषों के
समूह से हीन देह वाला हो जाता है और साथ में रहकर मुनिवरों की सहचर्या को प्राप्त
कर लेता है और मृत होने पर वह देवता ही हो जाता है।
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श्रीकालिकापुराण में वसिष्ठअरुन्धतीविवाह नामक तेईसवाँ अध्याय सम्पन्न हुआ ।। २३
।।
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 24
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