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कर्मकाण्ड

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कालिका पुराण अध्याय २२

कालिका पुराण अध्याय २२

कालिका पुराण अध्याय २२ में वशिष्टजी द्वारा सन्ध्या को दीक्षा देना, श्रीहरि विष्णु के स्वरूप का वर्णन करना और सन्ध्याद्वारा हरिस्तोत्र और अरुन्धती के जन्म का वृतांत कहा गया है    कालिका पुराण अध्याय २२

कालिकापुराणम् द्वाविंशोऽध्यायः अरुन्धतीजन्मकथनम्

कालिका पुराण अध्याय २२     

Kalika puran chapter 22

कालिकापुराण बाईसवाँ अध्याय – अरुन्धती जन्म वृतांत

अथ कालिका पुराण अध्याय २२

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

यत्र देवसभा भूता सानौ तस्य महागिरेः ।

तत्र जाता देवनदी सीताख्या वचनाद्विधेः ॥ १॥

मार्कण्डेय बोले- उस महान पर्वत की जिस चोटी पर देव सभा हुई थी वहीं ब्रह्मा के कथनानुसार सीता नाम की देव नदी उत्पन्न हुई ।। १ ।।

स्नापयित्वा यदा चन्द्रं सीतातोयैर्मनोहरैः ।

चन्द्रं पपुर्ब्रह्मवाक्यात् सर्वे ते त्रिदिवौकसः ।।२।।

ब्रह्मा के कथनानुसार जब सभी देवताओं ने चन्द्रमा को सीता नदी के सुन्दर जल में स्नान कराकर चन्द्रमा का पोषण किया ॥ २ ॥

तदा सीताजलं चन्द्रस्नानयोगाच्च सामृतम् ।

भूत्वा निपतितं तस्मिन् बृहल्लोहितसंज्ञके ।।३।।

तब वह सीता का जल चन्द्रमा के स्नान के कारण अमृत रूप होकर उस बृहल्लोहित नामक सरोवर में गिरा ॥३॥

तद्विवृद्धं तदा तोयं तस्मिन् सरसि नो ममौ ।

तद्ददर्श स्वयं ब्रह्मा विवृद्धं सामृतं जलम् ॥४॥

उस समय तब वह बढ़ा हुआ जल उस सरोवर में समा नहीं सका। स्वयं ब्रह्मा ने उस बढ़े हुए अमृतयुक्त जल को देखा॥४॥

तद्दर्शनाज्जलात् तस्मादुत्थिता कन्यकोत्तमा ।

चन्द्रभागेति तन्नाम विधिश्चक्रे स्वयं ततः ।।५।।

भार्यार्थ सागरस्तां तु जग्राह ब्रह्मसन्मते ॥६॥

तब उनके देखने से उस जल से एक उत्तम कन्या प्रकट हुई तथा स्वयं ब्रह्मा ने उसका चन्द्रभागा नामकरण किया और ब्रह्मा की सम्मति से सागर ने पत्नी के रूप में उसे ग्रहण कर लिया। ।।५-६ ।।

तयैवाधिष्ठितं तोयं गदाग्रेण निशापतिः ।

निर्भिद्य पश्चिमे पार्श्वे गिरिं तं समवाहयत् ।।७।।

उस प्रकार से भरे हुए जल को अपने गदा के अग्र भाग से चन्द्रमा ने तोड़कर पर्वत के पश्चिमी किनारे से प्रवाहित किया७ ॥

तस्यामृतजलं भित्त्वा बृहल्लोहितनामकम् ।

कासारं सागरं याता चन्द्रभागा नदी तु सा ॥८॥

उस अमृतमय जल से बृहल्लोहित नामक सरोवर के तोड़े जाने पर वह चन्द्रभागा नदी समुद्र में चली गयी ॥ ८ ॥

सागरोऽपि तदा भार्यां चन्द्रभागां महानदीम् ।

तेन तोयप्रवाहेण निनाय भवनं स्वकम् ।।९।।

तब सागर भी चन्द्रभागा नाम की उस महानदी रूपी भार्या को उसके जल के तीव्र प्रवाह के माध्यम से अपने घर को ले गया ।। ९ ।।

एवं तस्मिन् समुत्पन्ना चन्द्रभागाह्वया नदी ।

चन्द्रभागे महाशैले गुणैर्गंगासमा सदा ।।१०।।

इस प्रकार उस चन्द्रभाग नामक महापर्वत पर सदैव गंगा के समान गुणवाली चन्द्रभागा नामक नदी उत्पन्न हुई ॥ १० ॥

नद्यश्च पर्वताः सर्वे द्विरूपाश्च स्वभावतः ।

तोयं नदीनां रूपन्तु शरीरमपरं तथा ।।११।।

स्थावरः पर्वतानां तु रूपं कायः तथापरः ।

शुक्तीनामथ कम्बूनां यथैवान्तर्गता तनुः ।।१२।।

सभी नदियाँ और पर्वत स्वभावतः दो रूपों वाले होते हैं। नदियों का एक जलरूप होता है तथा दूसरा शरीरवान्। इसी प्रकार पर्वतों का भी एक स्थावर जड़ रूप होता है दूसरा शरीरधारी । जैसे सीपी और शंख के बाह्य रूप के भीतर छिपा हुआ एक अन्य शरीर होता है, उनका यह शरीरी रूप वैसे ही अपने जल एवं पर्वतरूप बाह्य रूप के अन्तर्गत छिपा रहता है ।। ११-१२॥

बहिरस्ति स्वरूपन्तु सर्वदैव प्रवर्तते ।

एवं जलं स्थावरस्तु नदीपर्वतयोस्तदा ।। १३ ।।

अन्तर्वसति कायस्तु सततं नोपपद्यते ।।१४।।

इनका जल एवं पर्वत रूप बाह्य स्वरूप ही सर्वदा नदी एवं पर्वत के रूप में दिखाई देता है । इनका अन्तवर्ति शरीर सदैव नहीं दिखाई देता ।। १३-१४ ॥

आप्याय्यते स्थावरेण शरीरं पर्वतस्य तु ।

तथा नदीनां कायस्तु तोयेनाप्याय्यते सदा ।।१५।।

सदा पर्वतों का शरीर पहाड़ के रूप में एवं नदियों का शरीर उनके जल के बढ़ने से बढ़ता है ।। १५ ।।

नदीनां कामरूपित्वं पर्वतानां तथैव च ।

जगत्स्थित्यै पुरा विष्णुः कल्पयामास यत्नतः ।। १६ ॥

प्राचीनकाल में भगवान् विष्णु ने संसार के पालन की दृष्टि से नदियों एवं पर्वतों के इच्छानुसार रूप धारण करने की यत्नपूर्वक योजना की ।। १६ ।।

तोयहानौ नदीदुःखं जायते सततं सुराः ।

विशीर्णे स्थावरे दुःखं जायते गिरिकायजम् ।।१७।।

हे देवताओं ! जल की हानि से नदियों को तथा पहाड़ के नष्ट होने से पर्वतों को सदैव दुःख होता है' ॥ १७ ॥

तस्मिन् गिरौ चन्द्रभागे बृहल्लोहिततीरगाम् ।

सन्ध्यां दृष्टाथ पप्रच्छ वसिष्ठः सादरं तदा ।। १८ ।।

तब वसिष्ठ मुनि ने उस चन्द्रभाग पर्वत पर बृहल्लोहित नामक सरोवर के तट पर सन्ध्या को देखकर उससे आदरपूर्वक पूछा- ॥ १८ ॥

।। वसिष्ठ उवाच ॥

किमर्थमागता भद्रे निर्जनं तु महीधरम् ।

कस्य वा तनया गौरि किं वा तव चिकीर्षितम् ।।१९।।

वसिष्ठ बोले- हे भद्रे ! तुम किसलिए इस निर्जन पर्वत पर आई हो? हे गौरवदना ! तुम किसकी पुत्री हो ? या तुम क्या करना चाहती हो? ।। १९ ।।

एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं यदि गुह्यं न ते भवेत् ।

वदनं पूर्णचन्द्राभं निःश्रीकं वा कथं तव ।।२०।।

तुम्हारा यह पूर्ण चन्द्रमा के समान सुन्दर मुख शोभारहित क्यों हो रहा है? यदि तुम इसे गुप्त न रखना चाहो तो यह सब मैं सुनना चाहता हूँ ।। २० ।।

एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य वसिष्ठस्य महात्मनः ।

दृष्ट्वा च तं महात्मानं ज्वलन्तमिव पावकम् ।।२१।।

शरीरधृग्ब्रह्मचर्य - सदृशं तं जटाधरम् ।

सादरं प्रणिपत्याथ सन्ध्योवाच तपोधनम् ।।२२।।

महात्मा वशिष्ठ के इस प्रकार के वचनों को सुनकर तथा अग्नि के समान प्रज्ज्वलित (तेज सम्पन्न), स्वयं शरीरधारी ब्रह्मचर्य के समान तपस्वी, जटाधारी, उस मुनि को देखकर आदरसहित उन्हें प्रणाम कर, सन्ध्या ने कहा- ॥२१-२२ ॥

सन्ध्योवाच ॥

यदर्थमागता शैलं सिद्धं तन्मे द्विजोत्तम ।

तव दर्शनमात्रेण तन्मे सेत्स्यति वा विभो ॥२३॥

सन्ध्या बोली - हे विभु ! हे द्विजोत्तम ! जिसलिये मैं इस पर्वत पर आई हूँ वह सिद्ध हो गया या तुम्हारे दर्शनमात्र से ही वह सिद्ध हो जायेगा ।। २३ ।।

तपः कर्तुमहं ब्रह्मन्निर्जनं शैलमागता ।

ब्रह्मणोऽहं मनोजाता सन्ध्या नाम्ना च विश्रुता ।। २४ ।।

हे ब्रह्मन् ! मैं ब्रह्मा के मन से उत्पन्न हुई हूँ, सन्ध्या नाम से पुकारी जाती हूँ तथा इस निर्जन पर्वत पर तपस्या करने आई हुई हूँ ॥ २४ ॥

नोपदेशमहं जाने तपसो मुनिसत्तम ।

यदि ते युज्यते गुह्यं मां त्वं समुपदेशय ।

एतच्चिकीर्षितं गुह्यं नान्यत्किञ्चन विद्यते ।।२५।।

हे मुनिसत्तम ! तपस्या सम्बन्धी कोई उपदेश मैं नहीं जानती । यदि यह आप को उचित लगता है तो आप मुझे इस रहस्य का उपदेश करें। यही मेरा इच्छित कार्य है और कहीं कोई दूसरी गुप्त बात नहीं है ।। २५ ।।

अज्ञात्वा तपसो भावं तपोवनमुपाश्रिता ।

चिन्तया परिशुष्येऽहं वेपते च मनः सदा ।। २६ ।।

बिना तपस्या के भाव (विधि) के जाने मैं इस तपोवन में आ गई हूँ । अतः सदैव मैं सूख रही हूँ तथा मेरा मन काँपता रहता है ॥ २६ ॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

आकर्ण्य तस्याः वचनं वसिष्ठो ब्रह्मणः सुतः ।

स्वयं स सर्वतत्त्वज्ञो नान्यत्किञ्चन पृष्टवान् ।। २७ ।।

मार्कण्डेय बोले- ब्रह्मा के पुत्र वसिष्ठ ने उसकी बातें सुनीं और कुछ नहीं पूछा। वे स्वयं सभी तत्त्वों को जानने वाले थे ॥ २७ ॥

अथ तां नियतात्मानं तपसेऽतिधृतोद्यमाम् ।

वसिष्ठो मन्त्रयाञ्चके गुरुवच्छिष्यवत्तदा ।। २८ ।।

तब जिस प्रकार गुरु शिष्य को मन्त्र देता है, उसी प्रकार वसिष्ठ मुनि ने तपस्या के लिए उद्यत, नियत आत्मा वाली उस सन्ध्या को मन्त्र दिया ।। २८ ।।

कालिका पुराण अध्याय २२

अब इससे आगे श्लोक २९ से ३४ में श्रीहरि विष्णु के स्तवन को दिया गया है इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें-

वशिष्ठकृत श्रीहरि विष्णु स्तवन

अब इससे आगे

कालिका पुराण अध्याय २२

।। विष्णु उपासना मन्त्र ।।

ओं नमो वासुदेवाय ओमित्यन्तेन सन्ततम् ।

तपस्यामारभेन्मौनीं तत्रैतान्नियमान् शृणु ।।३५।।

'ॐ नमो वासुदेवाय ॐ" इस मन्त्र से निरन्तर मौन रहकर स्मरण करना चाहिए। इस सम्बन्ध में इन नियमों को सुनो ।। ३५ ।।

स्नानं मौनेन कर्तव्यं मौनेनैव तु पूजनम् ।

द्वयोः पर्णजलाहारं प्रथमं षष्ठकालयोः ।

तृतीये षष्ठकाले तु उपवासपरो भवेत् ।।३६।।

मौन रहकर ही स्नान करना चाहिए, मौन रहकर ही पूजा करना चाहिये। पहले और दूसरे षट्काल (छः दिन के काल-खण्ड) पत्ते और जल खाकर तीसरे षट्काल से उपवास का आचरण करे ।। ३६ ।।

एवं तपः समाप्तौ तु षष्ठे काले क्रिया भवेत् ।

वृक्षवल्कलवासाश्च काले भूमिशयस्तथा ।

एवं मौनी तपस्याख्या व्रतचर्या फलप्रदा ।। ३७।।

इस प्रकार छः अवधि तपस्या के व्यतीत करने के बाद (३६ दिन उपावास जलाहारविहीन उपवास से) क्रिया पूर्ण होती है। उस अवधि में वृक्षों की छाल वस्त्र के रूप में धारण करे, भूमि पर सोये । इस प्रकार मौन रहकर तपस्या व्रत का आचरण फलदायक होता है ।। ३७ ॥

एवं तपः समुद्दिश्य कामं चिन्तय माधवम् ।

सते प्रसन्न इष्टार्थं नचिरादेव दास्यति ।। ३८ ।।

इस प्रकार तपस्या करते हुए अभीष्ट, माधव (विष्णु) का चिन्तन करो। वे शीघ्र ही प्रसन्न होकर तुम्हें इच्छित वर प्रदान करेंगे ॥ ३८ ॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

उपदिश्य वसिष्ठोऽथ सन्ध्यायै तपसः क्रियाम् ।

तामाभाष्य यथान्यायं तत्रैवान्तर्दधे मुनिः ।। ३९ ।।

मार्कण्डेय बोले- इस प्रकार सन्ध्या के लिए तपस्या की पद्धति का उसे उपदेश दे, उससे यथोचित वार्ता कर वसिष्ठ मुनि वहीं अन्तर्धान हो गये ।। ३९ ।।

सन्ध्यापि तपसो भावं ज्ञात्वा मोदमवाप्य च ।

तपः कर्तुं समारेभे बृहल्लोहिततीरगा ।।४०।।

तब तपस्या के भाव (विधि) जानकर एवं प्रसन्न हो सन्ध्या भी बृहल्लोहित सरोवर के किनारे जाकर तपस्या करना प्रारम्भ की ।। ४० ।।

यथोक्तन्तु वसिष्ठेन मन्त्रं तपसि साधनम् ।

व्रतेन तेन गोविन्दं पूजयामास भक्तित: ।।४१।।

वसिष्ठ द्वारा जैसा मन्त्र कहा गया था, वैसा ही तप साधन करते हुए उसी व्रत के आचरण से उसने भक्तिपूर्वक गोविन्द का पूजन किया ।। ४१ ।।

एकान्तमनसस्तस्या कुर्वन्त्याः सुमहत्तपः ।

विष्णौ विन्यस्तमनसो गतमेकं चतुर्युगम् ।।४२।।

एकान्त (एकाग्र) मन से विष्णु में मन लगाकर महान तप करते हुए उसके एक चतुर्युग (४३२०००० मानव वर्ष) व्यतीत हो गये । ४२ ॥

न कोऽपि विस्मयं नाप तस्या दृष्ट्वा तपोऽद्भुतम् ।

न तादृशी तपश्चर्या भविष्यति च कस्यचित् ।।४३।।

उसके उस अद्भुत तपस्या को देखकर किसी को आश्चर्य नहीं हुआ और न किसी की भी वैसी तपस्या भविष्य में होगी ॥ ४३ ॥

मानुषेणाथ मानेन गते त्वेकचतुर्युगे ।

अन्तर्बहिस्तथाकाशे दर्शयित्वा निजं वपुः ।। ४४ ।।

प्रसन्नस्तेन रूपेण यद्रूपं चिन्तितं तया ।

पुरः प्रत्यक्षतां यातस्तस्या विष्णुर्जगत्पतिः ।। ४५ ।।

इस प्रकार मनुष्य के मान से एक चतुर्युग बीत जाने पर उस अन्तः आकाश (हृदय) की ही भाँति बाह्य आकाश में सामने, जिस रूप का वह चिन्तन कर रही थी उसी रूप को दिखाते हुए जगत् के स्वामी भगवान विष्णु, उसके सामने प्रत्यक्ष रूप में प्रकट हो गये ।। ४४-४५ ।।

अथ सा पुरतो दृष्ट्वा मनसा चिन्तितं हरिम् ।

शङ्खचक्रगदापद्मधारिणं पद्मलोचनम् ।।४६ ॥

केयूरकुण्डलधरं किरीटमुकुटोज्ज्वलम् ।

तार्क्ष्यर्स्थं पुण्डरीकाक्षं नीलोत्पलदलच्छविम् ।।४७।।

जो शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये थे, जिनके नेत्र कमल के समान थे, और जो केयूर, कुण्डल धारण किये थे, जिनका मुकुट किरीट से उज्ज्वल था, जो पुण्डरीकाक्ष गरुड़ की पीठ पर बैठे हुए थे, जिनकी कांति नीले कमल की भाँति थी ।। ४६-४७ ।।

ससाध्वसमहं वक्ष्ये किं कथं स्तौमि वा हरिम् ।

इति चिन्तापरा भूत्वा न्यमीलयत चक्षुषी ।। ४८ ।।

भय मिश्रित अस्त-व्यस्तता वश वह, मैं भगवान विष्णु से क्या कहूँ ? या इनकी स्तुति कैसे करूँ इसी चिन्ता में पड़ गई और उसने अपनी आँखे मूँद ली ॥ ४८ ॥

निमीलिताक्ष्यास्तस्यास्तु प्रविश्य हृदयं हरिः ।

दिव्यं ज्ञानं ददौ तस्यै वाचं दिव्ये च चक्षुषी ।। ४९ ।।

उसके आँखें मूँद लेने पर भगवान विष्णु ने स्वयं उसके हृदय में प्रवेश कर उसे दिव्य ज्ञान, दिव्य वाणी तथा दिव्य दृष्टि प्रदान की ।। ४९ ।।

दिव्यं ज्ञानं दिव्यचक्षुर्दिव्यां वाचमवाप सा ।

प्रत्यक्षं वीक्ष्य गोविन्दं तुष्टाव जगतां पतिम् ।। ५० ।।

उसने हरि प्रदत्त दिव्य ज्ञान, दिव्य दृष्टि तथा दिव्य वाणी प्राप्त कर पहले संसार के स्वामी गोविन्द का प्रत्यक्ष दर्शन किया तत्पश्चात् स्तुति करना प्रारम्भ किया ॥ ५० ॥

कालिका पुराण अध्याय २२

अब इससे आगे श्लोक ५१ से ६८ में श्रीहरि के स्तवन को दिया गया है इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें-

सन्ध्याकृत हरि स्तोत्र

अब इससे आगे

कालिका पुराण अध्याय २२

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

अथ तस्याः शरीरन्तु वल्कलाजिनसंवृतम् ।

परिक्षीणं जटाव्रातैः पवित्रैमूर्घ्नि राजितम् ।। ६९ ।।

हिमानी तर्जिताम्भोजसदृशवदनं तथा ।

निरीक्ष्य कृपयाविष्टो हरिः प्रोवाच तामिदम् ॥७०॥

मार्कण्डेय बोले- इसके बाद वल्कल, मृग चर्मादि से ढके हुए, विशेष दुर्बल, जिसका सिर पवित्र जटाओं के समूह से सुशोभित था, ऐसे उसके शरीर तथा बर्फ के समूह से पीड़ित कमल के सदृश मुख को देखकर कृपा से पूर्ण भगवान विष्णु ने सन्ध्या से यह कहा - ।। ६९-७० ।।

।। श्रीभगवानुवाच ।।

प्रीतोऽस्मि तपसा भद्रे भवत्याः परमेण वै ।

स्तवेन च शुभप्रज्ञे वरं वरय साम्प्रतम् ।।७१।।

भगवान् (विष्णु) बोले- हे भद्रे ! तुम्हारी परम श्रेष्ठ तपस्या तथा स्तुति मैं प्रसन्न हूँ। हे शुभ बुद्धिवाली ! अब तुम वर माँगों ॥ ७१ ॥

येन ते विद्यते कार्यं वरेणास्ति मनोगतम् ।

तत् करिष्यामि भद्रन्ते प्रसन्नोऽहं तव व्रतैः ।।७२।।

जिस वर से तुम्हारा मनोवांछित कार्य पूर्ण हो, तुम्हारा वह वर मैं पूरा करूंगा; क्योंकि मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ ।। ७१ ।।

सन्ध्योवाच ।।

यदि देव प्रसन्नोऽसि तपसा मम साम्प्रतम् ।

वृतस्तदायं प्रथमो वरो मम विधीयताम् ।। ७३ ।।

उत्पन्नमात्रा देवेश प्राणिनोऽस्मिन्नभस्तले ।

न भवन्तु क्रमेणैव सकामाः सम्भवन्तु वै ।। ७४ ।।

सन्ध्या बोली- हे देव ! इस समय आप मेरी तपस्या से प्रसन्न हैं तो मेरे द्वारा 'माँगे गये इस पहले वर का विधान कीजिये किहे देवेश ! इस आकाश के नीचे प्राणी उत्पन्न होते ही कामभावना से ग्रस्त न हों, वे क्रमशः ही सकाम होंवे ।। ७३-७४ ।।

पतिव्रताहं लोकेषु त्रिष्वपि प्रथिता यथा ।

भविष्यामि तथा नान्या वर एको वृतो मम ।। ७५ ।।

मेरे द्वारा माँगा एक यह भी वर दीजिए कि मैं जैसी विख्यात पतिव्रता होऊँ वैसी तीन लाकों में दूसरी कोई न हो।।७५।।

सकामा मम दृष्टिस्तु कुत्रचिन्न पतिष्यति ।

ऋते पतिं जगन्नाथ सोऽपि मेऽति सुकृत्तरः ।।७६ ।।

हे जगन्नाथ ! मेरी कामयुक्त दृष्टि पति के अतिरिक्त कहीं भी न पड़े, यह भी मेरे हित में पुण्यमय कार्य होगा ॥ ७६ ॥

यो द्रक्ष्यति सकामो मां पुरुषस्तस्य पौरुषम् ।

नाशं गमिष्यति तदा स तु क्लीवो भविष्यति ।।७७।।

जो भी पुरुष मुझे सकाम भाव से देखेगा उसका पौरुष नष्ट हो जायगा और वह नपुंसक हो जायगा ॥ ७७ ॥

।। श्रीभगवानुवाच ।।

प्रथमः शैशवो भावः कौमाराख्यो द्वितीयकः ।

तृतीयो यौवनो भावश्चतुर्थो वार्द्धकस्तथा ।।७८ ।।

तृतीये त्वथ सम्प्राप्ते वयोभागे शरीरिणः ।

सकामाः स्युर्द्वितीयान्ते भविष्यन्ति क्वचित् क्वचित् ।।७९।।

भगवान् बोले- पहला शैशव भाव (बचपन), दूसरा कौमार भाव (कुमारावस्था), तीसरा यौवन (युवावस्था), चौथा वार्द्धक्य (वृद्धावस्था) होगा। अब तृतीय अवस्था युवावस्था भाग प्राप्त होन पर ही शरीरधारी कामभाव युक्त हुआ करेंगे । किन्तु कहीं-कहीं द्वितीय अवस्था कौमारावस्था के अन्त में भी यह हो सकेगा ।। ७८-७९ ।।

तपसा तव मर्यादा जगति स्थापिता मया ।

उत्पन्नमात्रा न यथा सकामाः स्युः शरीरिणः ।। ८० ।।

तुम्हारी तपस्या से सन्तुष्ट हो ही मैंने संसार में यह मर्यादा स्थापित की है। जिससे प्राणी उत्पन्न होते ही कामासक्त न होवें ॥ ८० ॥

त्वञ्च लोके सतीभावं तादृशं समवाप्स्यसि ।

त्रिषु लोकेषु नान्यास्या यादृशं सम्भविष्यति ।। ८१ ॥

तथा तुम संसार में इस प्रकार के सती भाव प्राप्त करोगी जैसा तीनों लोकों में किसी दूसरी का नहीं होगा ॥८१॥

यः पश्यति सकामस्त्वां पाणिग्रहमृते तव ।

स सद्यः क्लीवतां प्राप्य दुर्बलत्वं गमिष्यति ।। ८२ ।।

जो बिना तुम्हारा पाणिग्रहण किये तुम्हें कामभाव से देखेगा वह तत्काल ही नपुंसकता को प्राप्त कर दुर्बल हो जायगा ।। ८२ ।।

पतिस्तव महाभागस्तपोरूपसमन्वितः ।

सप्तकल्पान्तजीवी च भविष्यति सह त्वया ।।८३ ।।

तुम्हारा पति महान भाग्यशाली, तपस्या एवं रूप से युक्त, सात कल्पों (३०२४००००००० मानव वर्षों) तक तुम्हारे साथ जीने वाला होगा ।। ८३ ।।

इति ये ते वरा मत्तः प्रार्थितास्ते कृता मया ।

अन्यच्च ते वदिष्यामि पूर्वं यन्मनसि स्थितम् ।।८४ ।।

अग्नौ शरीरत्यागस्ते पूर्वमेव प्रतिश्रुतः ।।८५।।

यह तो मैंने तुम्हें वे वर दिये हैं जो तुमने मुझसे माँगा था। अब मैं अन्य बातें करूँगा जो पहले से तुम्हारे मन में थी । तुमने पहले ही वचन दिया था कि अग्नि में अपने शरीर का त्याग कर दोगी ।। ८४-८५॥

स च मेधातिथेर्यज्ञे मुनेर्द्वादशवार्षिके ।

हुतप्रज्वलिते वह्नौ न चिरात् क्रियतां त्वया ।। ८६ ।।

यह कार्य मेधा तिथि मुनि के बारह वर्षीय यज्ञ की प्रज्ज्वलित अग्नि में अपनी आहुति देकर करो। इसमें तुम्हारे द्वारा देरी नहीं हो ।। ८६ ।।

एतच्छैलोपत्यकायां चन्द्रभागानदीतटे ।

मेधातिथिर्महायज्ञं कुरुते तापसाश्रमे ।। ८७ ।।

इस पर्वत की घाटी में चन्द्रभागा नदी के तट पर तपस्वियों के आश्रम में मेधातिथि एक महान् यज्ञ कर रहे हैं ।। ८७ ।।

तत्र गत्वा स्वयं छन्ना मुनिभिर्नोपलक्षिता ।

मत्प्रसादाद्वह्निजाता तस्य पुत्री भविष्यसि ॥८८॥

स्वयं छिपकर मुनियों द्वारा न देखी जाती हुई, वहाँ गुप्त रूप से जाकर, तुम अग्नि से उत्पन्न उनकी पुत्री होगी ।। ८८ ।।

यस्त्वया वाञ्छनीयोऽस्ति स्वामी मनसि कश्चन ।

तं निधाय निजस्वान्ते त्यज वह्नौ वपुः स्वकम् ।।८९।।

जो भी कोई तुम्हारा मनोवांछित पति हो, उसको अपने हृदय में धारण कर तुम अपने शरीर को अग्नि में छोड़ दो।।८९।।

यदा त्वं दारुणे सन्ध्ये तपश्चरसि पर्वते ।

यावच्चतुर्युगं तस्य व्यतीते तु कृते युगे ।। ९० ।।

त्रेतायाः प्रथमे भागे जाता दक्षस्य कन्यकाः ।

स ददौ कन्यका सप्तविंशतिञ्च सुधांशवे ।। ११ ।।

सन्ध्या ! जब तुम चन्द्रभाग पर्वत पर चतुर्युग पर्यन्त तपस्या कर रही थी तो उसके कृत अर्थात् सत्ययुग के बीतने पर त्रेता के प्रथम भाग में दक्ष प्रजापति की बहुत-सी कन्यायें उत्पन्न हुई। उन्होंने सत्ताईस कन्याएँ सुधांशु चन्द्रमा को दे दीं ।। ९०-९१ ।।

तासां हेतोर्यदा शप्तश्चन्द्रो दक्षेण कोपिना ।

तदा भवत्या निकटे सर्वे देवाः समागताः ।। ९२ ।।

क्रुद्ध दक्ष ने उन कन्याओं के कल्याण के लिए जब चन्द्रमा को शाप दिया तब सभी देवता मिलकर तुम्हारे पास आये।।९२॥

न दृष्टाश्च तया सन्ध्ये देवाश्च ब्रह्मणा सह ।

मयि विन्यस्तमनसा त्वञ्च दृष्टा न तैः पुनः ।। ९३ ।।

हे सन्ध्या ! तुम्हारा मन मेरे में लग चुका था इसीलिए ब्रह्मा के सहित वे देवगण तुम्हारे द्वारा नहीं देखे गये और न उनके द्वारा तुम्हीं देखी गयी ।। ९३ ॥

चन्द्रस्य शापमोक्षार्थं चन्द्रभागा नदी यथा ।

सृष्टा धात्रा तदैवात्र मेधातिथिरुपस्थितः ।। ९४ ।।

तपसा तत्समो नास्ति न भूतो न भविष्यति ।। ९५ ।।

चन्द्र के शाप मुक्ति के लिए जब ब्रह्मा ने चन्द्रभागा नदी की सृष्टि की तभी यहाँ मेधा तिथि ऋषि पधारे। तपस्या में उनके समान न कोई है और न कोई भविष्य में ही होगा ।। ९४-९५ ।।

तेन यज्ञः समारब्धो ज्योतिष्टोमो महाविधिः ।

तत्र प्रज्वलितो वह्निस्तस्मिंस्त्यज वपुः स्वकम् ।।९६ ।।

उन्होंने महान विधि से सम्पन्न होने वाला ज्योतिष्टोम यज्ञ प्रारम्भ किया है। वहाँ अग्नि प्रज्वलित हो रही है। तुम उसीमें अपने शरीर का त्याग करो ।। ९६ ।।

एतन्मया स्थापितं ते कार्यार्थ भोस्तपस्विनि ।

तत् कुरुष्व महाभागे याहि यज्ञं महामुनेः ।। ९७ ।।

ओ तपस्विनी ! यह मैंने तुम्हारे कार्य हेतु स्थापित (निर्धारित) किया है। हे महाभागे ! तुम महामुनि मेधा तिथि के यज्ञ में जाओ और इसे सम्पन्न करो ।। ९७ ।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

नारायणः स्वयं सन्ध्यां पस्पर्शाथाग्रपाणिना ।

ततः पुरोडाशमयं तच्छरीरमभूत् क्षणात् ।।९८ ।

मार्कण्डेय बोले- नारायण ने स्वयं हाथ के अग्रभाग से सन्ध्या का स्पर्श किया तब क्षण भर में ही उसका शरीर पुरोडाश से युक्त हो गया ।। ९८ ।।

महामुनेर्महायज्ञे तस्मिन् विश्वोपकारिणि ।

नाग्निः कव्यादतां याति त्वेतदर्थं तथा कृतम् ।।९९ ।।

महामुनि के विश्व उपकार हेतु आयोजित उस महायज्ञ में अग्नि कव्य बिना खाये न रहें इसीलिए ऐसा किया गया था ।। ९९ ।।

एवं कृत्वा जगन्नाथस्तत्रैवान्तरधीयत ।

सन्ध्याप्यगच्छत्तत्सत्रे यत्र मेधातिथिर्मुनिः ।। १०० ।।

ऐसा करके जगन्नाथ विष्णु वहीं अन्तर्धान हो गये। सन्ध्या भी वहीं चली गई जहाँ मेधातिथि मुनि यज्ञ कर रहे थे ।। १०० ।।

अथ विष्णोः प्रसादेन केनाप्यनुपलक्षिता ।

प्रविवेश यदा यज्ञं सन्ध्या मेधातिथेर्मुनेः ।। १०१ ।।

इसके बाद सन्ध्या ने जब मेधा तिथि के यज्ञ में प्रवेश किया तो उस समय विष्णु भगवान् की कृपा से उसे किसी ने भी नहीं देखा ।। १०१ ।।

वसिष्ठेन पुरा सा तु वर्णीभूत्वा तपस्विनी ।

उपदिष्टातपश्चर्तुं वचनात् परमेष्ठिनः ।। १०२ ।।

परमेष्ठी ब्रह्मा के वचन से वह तपस्विनी पहले ब्रह्मचारी बन कर वसिष्ठ द्वारा तपस्या हेतु उपदेशित हुई थी ॥ १०२ ॥

तमेव कृत्वा मनसि तपश्चर्योपदेशकम् ।

पतित्वेन तदा सन्ध्या ब्राह्मणं ब्रह्मचारिणम् ।। १०३ ।।

समिद्धेऽनौ महायज्ञे मुनिभिर्नोपलक्षिता ।

तदा विष्णोः प्रसादेन साविवेश विधेः सुता ।।१०४ ।।

तब उसी तपस्या का उपदेश देने वाले ब्रह्मचारी ब्राह्मण को पति के रूप में मन में धारण कर वह ब्रह्मा की पुत्री सन्ध्या, विष्णु की कृपा से मुनियों द्वारा न देखी जाती हुई ही उस महायज्ञ की प्रज्ज्वलित अग्नि में प्रवेश कर गई ।।१०३-१०४।।

तस्याः पुरोडाशमयं शरीरं तत्क्षणात्ततः ।

दग्धं पुरोडाशगन्धं व्यस्तारयदलक्षितम् ।। १०५।।

तब उसका न दिखने वाला पुरोडाशयुक्त शरीर जल कर उसी समय पुरोडाश की गन्ध फैलाने लगा ।। १०५ ।।

वह्निस्तस्याः शरीरन्तु दग्ध्वा सूर्यस्य मण्डले ।

शुद्धं प्रवेशयामास विष्णोरेवाज्ञया पुनः ।। १०६ ।

अग्निदेव ने विष्णु की ही आज्ञा से उसके शरीर को जलाकर शुद्ध होने पर सूर्य के मण्डल में प्रवेश कराया।।१०६।।

सूर्यो द्विधा विभज्याथ तच्छरीरं तदा रथे ।

स्वके संस्थापयामास प्रीतये पितृदेवयोः ।। १०७ ।।

सूर्य ने भी उस शरीर को दो भागों में बाँटकर और देवताओं और पितरों की प्रसन्नता के लिए अपने रथ पर स्थापित किया ।। १०७ ॥

यदूर्धभागस्तस्यास्तु शरीरस्य द्विजोत्तमाः ।

प्रातः सन्ध्याभवत् सा तु अहोरात्रादिमध्यगा ।। १०८ ।।

हे द्विजोत्तमों ! जो उसके शरीर का ऊपरी भाग था वह रात्रि और दिन के प्रारम्भिक मध्य भाग में स्थित प्रातः सन्ध्या हुआ ।। १०८ ।।

यच्छेष भागस्तस्यास्तु अहोरात्रान्तमध्यगा ।

सा सायमभवत् सन्ध्या पितृप्रीतिप्रदा सदा ।। १०९ ।।

उसके शरीर का जो शेष भाग रात्रि और दिन के अन्तिम मध्य भाग में स्थित पितरों को प्रसन्नता देने वाली सायं सन्ध्या हुआ ।। १०९ ।।

सूर्योदयात्तु प्रथमं यदा स्यादरुणोदयः ।

प्रातः सन्ध्या तदोदेति देवानां प्रीतिकारिणी ।। ११० ।।

सूर्योदय से पहले जब अरुणोदय होता है तब देवताओं को प्रसन्नता देने वाली प्रातः सन्ध्या उदित होती है ।। ११० ।।

अस्तं गते ततः सूर्ये शोणपद्मनिभा सदा ।

उदेति सायंसन्ध्यापि पितॄणां मोदकारिणी ।। १११ । ।

सूर्य के अस्त होने पर लाल कमल की आभावली, सदैव पितरों को आनन्द देने वाली सायं सन्ध्या भी उदित होती है ।। १११ ॥

तस्याः प्राणास्तु मनसा विष्णुना प्रभविष्णुना ।

दिव्येन तु शरीरेण चक्रिरेऽथ शरीरिणः ।। ११२ ।।

उसके प्राणों को भगवान् विष्णु द्वारा मानसिक रूप से दिव्य शरीर वाली शरीरधारिणी बना दिया गया।।११२।।

मुनेर्यज्ञावसाने तु सम्प्राप्ते मुनिना तु सा ।

प्राप्ता पुत्री वह्निमध्ये तप्तकाञ्चन सप्रभा ।।११३ ॥

मुनि के यज्ञ की समाप्ति के बाद वह उन्हें तपे हुए सोने की आभावाली पुत्री के रूप में अग्नि के बीच से प्राप्त हुई ।।११३॥

तां जग्राह तदा पुत्रीं मुनिरामोदसंयुतः ।

यज्ञार्थतोयैः संस्नाप्य निजक्रोडे कृपायुतः ।। ११४ ।।

तब मुनि ने उस पुत्री को यज्ञ हेतु एकत्रित जल से कृपापूर्वक स्नान कराकर बड़ी प्रसन्नता से अपनी गोद में धारण किया ।। ११४ ।।

अरुन्धतीति तस्यास्तु नाम चक्रे महामुनिः ।

शिष्यैः परिवृतस्तत्र महामोदमवाप च ।। ११५ ।।

वहाँ शिष्यों से घिरे हुए उस महामुनि ने उसका अरुन्धती यह नाम रखा तथा महान आनन्द का अनुभव किया ।।११५।।

न रुणद्धि यतो धर्मं सा केनापि च कारणात् ।

अतस्त्रिलोकविदितं नाम सा प्राप सान्वयम् ।।११६ । ।

किसी भी कारण से उसके द्वारा धर्म नहीं रोका जाता इसीलिए उसने तीनों लोकों में ख्यान अपने गुण के अनुरूप अरुन्धती नाम प्राप्त किया II ११६ ॥

यज्ञं समाप्य स सुनिः कृतकृत्यभाव-मासाद्य सम्मदयुतस्तनयाप्रलम्भात् ।

तस्मिन् निजाश्रमपदे सहशिष्यवर्गैस्तामेव सन्ततमसौ दयते महर्षिः ।। ११७।।

यज्ञ को सम्पन्न कर वह महामुनि तनया को प्राप्त करने के कारण प्रसन्नता से युक्त हो कृतकृत्य भाव को प्राप्त हुए तथा महर्षि उस अपने आश्रम में वहाँ उसी की रक्षा करते हुए शिष्य वर्गों के सहित रहने लगे ।। ११७ ।।

॥ इति श्रीकालिकापुराणे अरुन्धती - जन्मकथनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२॥

कालिका पुराण अध्याय २२- संक्षिप्त कथानक

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- जहाँ पर सब महागिरि के शिखर पर देवों की सभा हुई थी वहाँ पर विधाता के वचन से सीता नाम वाली देव नदी समुत्पन्न हुई थी। जिस समय मनोहर सीता के जल से स्तवन कराकर उन सब देवगणों ने ब्रह्मा के वाक्य से चन्द्र का पान कर गये थे उस समय में सीता नदी का जल चन्द्रमा के स्नान के योग से वह अमृत होकर उस वृहल्लोहित संज्ञा वाले में निपातित हो गया था । उस समय में उसका जल बढ़ गया था और उस सरोवर में वह नहीं समाया था । उसको ब्रह्माजी ने स्वयं ही देखा था कि वह विशेष बढ़ा हुआ जल अमृत था । उसके देखने से उस जल से एक अत्युत्तम कन्या समुत्थित हुई थी । उस कन्या का नाम चन्द्रभागा था जिसको कि विधाता ने स्वयं ही रखा था। ब्रह्माजी की सहमति से सागर ने उसको अपनी भार्या बनाने के लिए ग्रहण कर लिया था । उसी के द्वारा अधिष्ठित जल को निशावर्ति ने गदा के अग्रभाग से भेदन करके पश्चिम पार्श्व में उस गिरि के प्रति समवाहित कर दिया था ।

उसके अमृत जल का भेदन करके वृहल्लोहित नाम वाला सरोवर कर दिया था और वह चन्द्रभाग नदी तो सागर को गमन करने वाली थी । उस समय सागर ने भी महानदी चन्द्रभाग भार्या को उस जल के प्रवाह से उसको अपने भवन में ले गया था । इसी रीति से उसमें चन्द्रभागा नाम वाली नदी समुत्पन्न हुई थी । वह चन्द्रभागा महान शैल में अपने गुणों के द्वारा सदा गंगा के ही समान थी। नदियां और सब पर्वत स्वभाव से ही दो रूपों वाले सदा हुआ करते हैं। नदियों का रूप तो उनका जल ही होता है तथा शरीर दूसरा ही हुआ करता है । पर्वतों का रूप तो स्थावर ही होता है और उनका शरीर दूसरा होता है । जैसे शुक्तियों और कम्बुओं का अंतर्गत तनु होता है।स्वरूप तो बाहर होता है और वह सदा ही प्रवृत्त हुआ करता है।  इसी प्रकार से जल तथा उस समय में नदी और पर्वत का स्थावर होता है। उनका काम तो अन्तर में वास किया करता है और निरन्तर उत्पन्न नहीं होता है ।

पर्वत का शरीर तो स्थावर के द्वारा ही आप्यायित होता है । उसी भाँति नदियों का शरीर जल के द्वारा ही सदा आप्यापित हुआ करता है। नदियों का तथा पर्वतों का रूप कामरूपी होता है। भगवान् विष्णु ने यत्नपूर्वक पहले जगत् की स्थिति के लिए ही कल्पित किया था । हे सुरगणों! जल की हानि होने पर निरन्तर ही नदियों को महान् दुःख हुआ करता है और विकीर्ण हो जाने पर स्थावर गिरि के शरीर में उत्पन्न होता है । उस पर्वत पर जो कि चन्द्रभाग नाम वाला था बृहल्लोहित के तट पर गमन करने वाली सन्ध्या का अवलोकन किया था और वशिष्ठ मुनि ने उस समय में बड़े ही आदरपूर्वक उससे पूछा था ।

वशिष्ठ जी ने कहा- हे भद्रे ! आप इस निर्जन महान् गिरि पर किस प्रयोजन के लिए आयी हैं । हे गौरि ! आप किसकी पुत्री हैं ? और आपका क्या चिकीर्षित है अर्थात् क्या करने की इच्छा रखती हैं। यदि आपकी कोई भी गोपनीय बात न हो तो मैं यही सुनना चाहता हूँ । आपका मुख तो चन्द्रमा के समान परमाधिक सुन्दर है किन्तु इस समय में वह निःश्री सा क्यों हो रहा है ? उन महात्मा वशिष्ठ मुनि के इस वचन का श्रवण करके उन महात्मा का अवलोकन किया था जो प्रज्वलित अग्नि के ही समान थे। वे उस समय ऐसे ही प्रतीत हो रहे थे मानो शरीरधारी ब्रह्मचर्य के ही सदृश हों। उन जटाधारी को बहुत ही आदर के साथ प्रणिपात करके इसके पश्चात् उस संध्या ने उन तपोधन से कहा था ।

सन्ध्या बोली- जिस प्रयोजन की सिद्धि के लिए मैं इस शैल पर समागत हुई थी वह मेरा कार्य सिद्ध गया है । हे द्विजोत्तम् ! हे विभो ! आपके दर्शन मात्र से ही वह कार्य पूर्ण हो जायेगा । हे ब्रह्मन् ! मैं तपश्चर्या करने के लिए ही इस निर्जन पर्वत पर आई थी। मैं ब्रह्माजी के मन से समुत्पन्न हुई हूँ और मैं लोक में सन्ध्या इस नाम से प्रसिद्ध हूँ। यदि आपको कुछ गोपनीययुक्त होता हो तो आप मुझको उपदेश दीजिए । यही मेरा परम गुह्य चिकीर्षित है और दूसरा कुछ भी नहीं है । तपस्या के भाव का ज्ञान न प्राप्त करके ही मैंने इस तपोवन का उपाश्रय ग्रहण किया है । मैं चिन्ता से परिशुष्क हो रही हूँ और मेरा मन सदा ही काँपता रहता है ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- ब्रह्माजी के पुत्र वशिष्ठ जी ने उस संध्या के वचन को सुनकर उन स्वयं ही सम्पूर्ण तत्त्व के ज्ञाता मुनि ने उससे अन्य कुछ भी नहीं पूछा था । इसके अनन्तर उस समय वशिष्ठ मुनि ने उस नियत आत्मा वाली और तप के लिए अत्यन्त उद्यम धारण करने वाली उसको शिष्य-गुरु के ही समान वशिष्ठ ने मन्त्र दीक्षा दी थी ।

अब इससे आगे विष्णु स्तवन को दिया गया है 

ॐ नमो वासुदेवाय ओमित्यन्तेन सन्ततम् ॥

मौनीतपस्यामारभ्यतान्मे निगदतः शृणु ॥ 

वह मन्त्र 'ॐ नमो वासुदेवाय ॐ' यह है । इसी मन्त्र के जाप के द्वारा निरन्तर मौनी होकर तपश्चर्या का समारम्भ करो।

उसमें कुछ नियम हैं उनका अब श्रवण करो ।

नित्य स्नान मौन होकर करना चाहिए और मौन व्रत के साथ ही पूजन करें। प्रथम तो छठवें दोनों कालों में पूर्ण और फलों का आहार करें और तीसरे षष्ठ काल में उपवास परायण ही होना चाहिए । इस प्रकार से तप की समाप्ति में षष्ठ काल की क्रिया होती है । वृक्षों के छालों के वस्त्र धारण करें और उस समय पर भूमि में ही शयन करें । इसी रीति से मौनी रहें और तपस्या नाम वाली व्रतचर्या फल के प्रदान करने वाली होती है । इस तरह के तप का उपदेश करके इच्छापूर्वक माधव भगवान का चिन्तन करो। वे प्रसन्न होकर आपके अभीष्ट को शीघ्र ही प्रदान कर देंगे ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- इसके अनन्तर वशिष्ठ जी ने उस संध्या के लिए तप करने की क्रिया का उपदेश देकर और उससे न्याय के अनुसार सम्भाषण करके मुनि वहीं पर अन्तर्धान हो गये थे । उसने तपस्या के भाव का ज्ञान प्राप्त करके और परम आनन्द प्राप्त करके उसने वृहल्लोहित के तीर पर स्थित होकर तपश्चर्या करना आरम्भ कर दिया था । उसने वशिष्ठ मुनि ने जैसा कहा था उस मन्त्र को तथा तप के साधन को करके उसी व्रत से भक्तिभाव के द्वारा गोविन्द का पूजन किया था । परम एकान्त मन वाली को चारों युगों (सत्य, त्रेता, द्वापर, कलियुग ) का समय व्यतीत हो गया था ।

उसके इस अद्भुत तप को देखकर कोई भी विस्मय को प्राप्त हुए बिना नहीं रहा था कि उस तरह की तपश्चर्या अन्य किसी की भी नहीं होगी । इसके अनन्तर मनुष्यों के मान से चारों युगों की एक चौकड़ी व्यतीत हो गई थी। फिर अन्दर-बाहर और आकाश में अपना वपु दिखला कर उस रूप से परम प्रसन्न हुए जिस रूप को उसने चिन्तन किया था वहीं उसके सामने प्रत्यक्षता को प्राप्त हो गये थे जो भगवान विष्णु इस जगत् के स्वामी थे। इसके अनन्तर अपने सामने अपने मन के द्वारा चिन्तन किए गए हरि को देखकर बहुत ही प्रसन्न हुई थी । उनका स्वरूप-

शङ्खचक्रगदापद्मधारिणम्पद्म लोचनम् ॥ 

केयूरकुण्डलधरङ्किरीट मुकुटोज्ज्वलम् ॥

तार्क्ष्यस्थम्पुण्डरीकाक्ष न्नीलोत्पलदलच्छविम् ॥ 

शंख, चक्र, गदा और पद्म के धारण करने वाला था तथा वे किरीट और मुकुट से परम समुज्वल थे। पुण्डरीक के समान उनके नेत्र थे और वे गरुड़ पर विराजमान थे । उनकी छवि नीलकमल के समान थी ।

मैं भय के साथ क्या कहूँगी अथवा किस प्रकार से हरि भगवान का स्तवन करूँ इसी चिन्ता में परायण होकर उसने अपने नेत्रों को मूँद लिया था । मूँदे हुए लोचनों वाली के हृदय में भगवान ने प्रवेश किया था और उसमें उस संध्या को परम दिव्य ज्ञान को प्रदान किया था और उसकी दिव्य वाणी बोलने की शक्ति दी थी तथा दिव्य चक्षु भी प्रदान किए थे। वह फिर परम दिव्य ज्ञान, दिव्य लोचन और दिव्य वाणी को प्राप्त करने वाली हो गई थी। उसने प्रत्यक्ष में हरि को दर्शन कर उसका स्तवन किया था ।

अब इससे आगे श्रीहरि स्तवन को दिया गया है 

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- इसके अनन्तर उसका शरीर वल्कल और अजिन (मृगचर्म) से संवृत था तथा बहुत ही क्षीण और मस्तक पर पवित्र जटाजूटों में राजित था अर्थात् परम शोभित था । मादिनी में सर्जित कमल के सदृश मुख को देखकर भगवान हरि कृपा से समावष्टि होकर उस सन्ध्या से यह बोले ।

श्री भगवान ने कहा- हे भद्रे ! आपकी इस परम दारुण तपश्चर्या से मैं अधिक प्रसन्न हो गया हूँ। हे शुभ प्रज्ञा वाली! मुझे आपकी स्तुति से अधिक प्रसन्नता हुई है । अब आप मुझसे वरदान जो भी अभीष्ट उसे प्राप्त कर लो। जिस वर से उनका मनोगत कार्य हो मैं उसको कर दूँगा, तुम्हारा कल्याण होवे, मैं तुम्हारे इन व्रतों में परम हर्षित हो गया हूँ ।

सन्ध्या ने कहा- हे देव! यदि आप मुझ पर परम प्रसन्न हैं और मेरी इस तपश्चर्या से आपको आह्लाद हुआ है तो अब मैंने प्रथम वर वृत किया है उसी को आप करने की कृपा कीजिए। हे देवेश्वर ! उत्पन्न मात्र ही प्राणी इस नभस्तल में क्रम से ही सकाम न होवें, वे सम्भव होवें । मैं तीनों लोकों में परम पतिव्रता प्रथित हो जाऊँगी जैसे कोई दूसरी न होवे। मैंने यह एक बार व्रत किया है। काम वासना से संयुत मेरी दृष्टि कहीं पर भी न गिरेगी । हे जगत् के स्वामिन्! पति को छोड़ कर कहीं पर मेरी सकाम दृष्टि नहीं होवे । यह भी मेरा परम सुकृत होगा। जो कोई भी पुरुष कामवासना से युक्त होकर मुझे देखे उसका पुरुषत्व विनाश को प्राप्त हो जावेगा और वह क्लीव अर्थात् नपुंसक हो जावेगा ।

श्री भगवान् ने कहा- प्रथम तो शैशव भाव हुआ करता है और दूसरा कौमार नाम वाला भाव होता है, तीसरा यौवन का भाव है और चतुर्थ वार्द्धक भाव होता है। तीसरे भाव अर्थात् यौवन के भाव को सम्प्राप्त हो जाने पर जो एक शरीरधारी अवस्था का भाग है मनुष्य उसमें ही कामवासना से समन्वित हुआ करते हैं । कहीं-कहीं पर द्वितीय भाव के अन्त में भी हो जाते हैं। मैंने आपके तप से जगत् में मर्यादा स्थापित कर दी है कि उत्पन्न होते ही शरीर धारी सकाम नहीं होंगे और आप तो लोक में उस प्रकार का भाव प्राप्त करेंगी कि तीनों लोकों में अन्य किसी का भी ऐसा भाव नहीं होगा। जो भी कोई बिना आपके पाणिग्रहण करने के किए हुए कामवासना से युक्त होकर आपको देखेगा वह तुरंत ही क्लीवता अर्थात नपुंसकता को प्राप्त करके अतीव दुर्बलता को पा लेगा । आपका पति तो बहुत बड़े भाग्य वाला होगा जो सुन्दर रूप लावण्य से और तप से समन्वित होगा । वह आपके ही साथ रहकर सात कल्पों के अन्त पर्यन्त जीवन के धारण करने वाला होगा । ये जो भी वरदान आपने मुझसे प्रार्थित किए थे वह सब मैंने पूर्ण कर दिये हैं और अन्य भी मैं आपको बतलाऊँगा जो कि पूर्व में आपके मन में स्थित था ।

आपने पूर्व में ही अग्नि में अपने शरीर के परित्याग करने की प्रतिज्ञा की थी वह प्रतिज्ञा बारह वर्ष तक होने वाले मुनिवर मेधातिथि के यज्ञ में की थी । हुत से प्रज्जवलित अग्नि में शीघ्र ही आप गमन करें । उस पर्वत की उपत्यका में चन्द्रभागा नदी के तट पर तापसों के आश्रम में मेधातिथि महायज्ञ कर रहे हैं वहाँ पर जाकर स्वयं छत्र होती हुई जिसको मुनियों ने भी नहीं देखा है, मेरे प्रसाद से वह्नि से जलकर आप उसकी पुत्री होंगी। जो भी अपने मन के द्वारा अपने पति होने की थी वह जो भी कोई हो उसको अपने मन में धारण करके अपने शरीर का त्याग वह्नि में कर दो। हे सन्ध्ये! जब आप इस परम दारुण पर्वत में तपश्चर्या कर रही हो उस तप को करते हुए चारों युग व्यतीत हो गयें हैं तथा कृतयुग के व्यतीत होने पर त्रेता के प्रथम भाग में दक्ष की कन्या उत्पन्न हुई थी । उस प्रजापति दक्ष ने सत्ताईस अपनी कन्याओं को चन्द्रदेव के लिए दे दिया था ।

उन कन्याओं के लिए जिस समय में क्रोधयुक्त दक्ष के द्वारा चन्द्रदेव को शाप दिया गया था उस समय में आपके समीप में सभी देवगण समागत हुए थे । हे सन्ध्ये ! उसके द्वारा ब्रह्मा के साथ देवगण नहीं देखे गये थे क्योंकि आपने मुझमें ही अपना मन लगा रखा था । अतः आप भी उनके द्वारा नहीं देखी गई थीं । चन्द्रदेव को दिए हुए शाप को छुटकारे के लिए जिस प्रकार से विधाता ने चन्द्रभाग नदी की रचना की थी उसी समय में यहाँ पर मेधातिथि उपस्थित हो गया था । तप से उसके समान कोई भी अन्य नहीं है और न अब तक कोई हुआ ही है तथा भविष्य में ही कोई ऐसा तपस्वी नहीं होगा । उस मेधातिथि महान् विधि वाला ज्योतिष्टोम नामक यज्ञ का आरम्भ किया था । वहाँ पर जो वह्नि प्रज्वलित है उसी में अपने शरीर का त्याग करो । हे तपस्विनी ! यह मैंने तुम्हारे की कार्य के सम्पादन करने के लिए स्थापित किया है । हे महाभागे ! आप वह करिए और उस महामुनि के यज्ञ में गमन करिए ।

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- भगवान् नारायण ने स्वयं ही अपने कर के अग्रभाग से इसके अनन्तर सन्ध्या का स्पर्श किया था। इसके पश्चात् एक ही क्षण में उसका शरीर पुरोडाश से परिपूर्ण हो गया था । इस प्रकार से करके जगत् के स्वामी वहाँ पर अन्तर्धान हो गये थे और वह सन्ध्या उस सत्र में गई थी जहाँ पर मेधातिथि मुनिवर विद्यमान थे । उसके अनन्तर भगवान विष्णु के प्रसाद से किसी के भी द्वारा उपलक्षित होती होई सन्ध्या देवी ने मेधातिथि मुनि के लिए उपदेश दिया था । उसी तपश्चर्या के उपदेश को मन में करने उस समय सन्ध्या ने पतित्व के रूप से ब्रह्मचारी ब्राह्मण का वरण रखा था। उस महायज्ञ में समिद्ध अग्नि में मुनियों के द्वारा उपलक्षित न होती हुई उस समय में भगवान विष्णु ने प्रसाद से विधाता की पुत्री ने प्रवेश किया । फिर उसी क्षण में उसका शरीर पुरोडाश से परिपूर्ण हो गया था । दग्ध हुई पुरोडाश की गन्ध लक्षित होती हुई ही विस्तार को प्राप्त हो गई थी ।

वह्नि ने उसके शरीर का दाह करके पुनः भगवान् विष्णु की ही आज्ञा से शुद्ध को सूर्य मण्डल में प्रवृष्टि कर दिया था । सूर्य का दो भागों में विभाग करके उसके शरीर की उस समय में रथ में जो अपना था, पितृगण और देवों की प्रीति के लिए संस्थापित कर दिया था । उसका अर्धभाग हे द्विजोत्तमो! अर्थात् उसके शरीर का आधा हिस्सा प्रातः सन्ध्या हो गई थी जो अहोरात्र आदि के मध्य में रहने वाली थी । उसका शेष भाग था जो अहोरात्रान्त के मध्य में रहने वाली वही वह सायं सन्ध्या हो गयी थी। जो सदा ही पितृगणों की प्रीति को प्रदान करने वाली थीं। सूर्योदय से प्रथम जो अरुण का उदय जिस समय में होना है प्रातः सन्ध्या उसी समय में उदित हुआ करती है जो देवगणों की प्रीति को करने वाली हैं ।

सूर्यदेव के अस्ताचलगामी होने पर शोण (रक्त) पद्म के सदृश होती है वह सायं सन्ध्या भी समुदित हुआ करती है जो पितृगणों के मोद के करने वाली हुआ करती है । उनके प्राणों को प्रभु भगवान के द्वारा शरीरों के दिव्य शरीर से ही किये थे ।

महामुनि के यज्ञ के अवसान के अवसर प्राप्त करके हो जाने पर मुनि के द्वारा तपे हुए सुवर्ण की प्रभा के तुल्य पुत्री वह्नि के मध्य में प्राप्त हुई थी। उस समय में उस पुत्री को मुनि ने आमोद से समन्वित होकर ग्रहण कर लिया था। उस पुत्री को यथार्थ जल में संस्पनन कराकर कृपा से युत होते हुए अपनी गोद में रखा था और उनका नाम अरुन्धती, यह महामुनि ने रखा था। वे शिष्यों में परिवृत होते हुए वहाँ पर महान मोद को प्राप्त हुए थे ।

वह जिस किसी भी कारण से धर्म का विरोध नहीं करती थी अतएव त्रिलोकी में विदित नाम उसने प्राप्त किया था अर्थात् वह जैसा करती थी वैसा ही नाम की प्राप्ति उसने की थी। उन मुनि ने यज्ञ को समाप्त करके कृतकृत्य भाव को प्राप्त किया था और तनया के प्रलम्भ से वे सम्मदयुत हुए थे। उस अपने आश्रम के स्थान में अपने शिष्य वर्गों के सहित महर्षि उसी अपनी तनया को प्यार किया करते थे और निरन्तर उसी को प्रिय बना लिया था ।

॥ श्रीकालिका पुराण में अरुन्धतीजन्मकथन नामक बाईसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २२ ॥

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 2

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