कालिका पुराण अध्याय २०

कालिका पुराण अध्याय २०

कालिका पुराण अध्याय २० में पत्नियों के साथ भेद-भाव करने के कारण चन्द्र का शापग्रस्त होने का वर्णन है

कालिका पुराण अध्याय २०

कालिकापुराणम् विंशोऽध्यायः चन्द्रशापवर्णनम्

कालिका पुराण अध्याय २०     

Kalika puran chapter 20

कालिकापुराण बीसवाँ अध्याय – चन्द्रशापवर्णन

अथ कालिका पुराण अध्याय २०

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

अथ तत्र गतां दृष्ट्वा सन्ध्यां गिरिवरं प्रति ।

तपसे नियतात्मानं ब्रह्मा प्राह स्वकं सुतम् ।।१।।

वसिष्ठं संशितात्मानं सर्वज्ञं ज्ञानियोगिनम् ।

समीपे सुसमासीनं वेदवेदाङ्गपारगम् ।।२॥

मार्कण्डेय बोले- सन्ध्या को तपस्या हेतु वहाँ चन्द्रभाग पर्वत पर गया देखकर ब्रह्मा ने नियतात्मा संशितात्मा, सब कुछ जानने वाले, ज्ञानी, योगी, वेद वेदाङ्ग के पारङ्गत, अपने समीप सुखपूर्वक बैठे हुए, अपने पुत्र वशिष्ठ से कहा-॥१-२॥

।। ब्रह्मोवाच ।।

वसिष्ठ गच्छ यत्रैषा सन्ध्या याता मनस्विनी ।

तपसे धृतकामा सा दीक्षस्वैनां यथाविधि ॥३॥

ब्रह्मा बोले- हे वसिष्ठ ! जहाँ यह मनस्विनी सन्ध्या तपस्या हेतु गई हुई है, वह कामग्रस्त है। अतः उसे विधिपूर्वक दीक्षा प्रदान करो ॥ ३ ॥

मन्दाक्षमभवत् तस्याः पुरा दृष्ट्वेह कामुकान् ।

युष्मान् माञ्च तथात्मानं सकामान् मुनिसत्तम ।।४।।

हे मुनिसत्तम ! प्राचीनकाल में मुझे, अपने को तथा तुम लोगों को कामनावश यहाँ कामुक देखकर उसकी दृष्टि मन्द हो गई है (विचार बदल गये हैं) ।। ४ ।।

अयुक्तरूपं तत्कर्म पूर्ववृत्तं विमृश्य सा ।

अस्माकमात्मनश्चापि प्राणान् सन्त्यक्तुमिच्छति ॥५॥

वह कार्य अनुचित था । इस प्रकार अपने तथा हमारे पूर्व आचरण का विचार कर वह प्राणों का त्याग करने की इच्छा करती है ॥ ५ ॥

अमर्यादेषु मर्यादां तपसा स्थापयिष्यति ।

तपः कर्तुं गता साध्वी चन्द्रभागाय साम्प्रतम् ॥६॥

वह अपनी तपस्या से अमर्यादाओं में भी मर्यादा स्थापित करेगी । इस निश्चय से वह साध्वी सन्ध्या इस समय तपस्या करने के लिए चन्द्रभाग पर्वत पर गई हुई है ॥ ६ ॥

न भावं तपसस्तात सा तु जानाति कञ्चन ।

तस्माद्यथोपदेशं सा प्राप्नोति त्वं तथा कुरु ॥७।।

हे तात! वह तपस्या का कोई भाव नहीं जानती। अतः जिस प्रकार वह उसके लिए उपदेश प्राप्त करे ऐसा ही तुम उपाय करो ।। ७ ।।

इदं रूपं परित्यज्य रूपान्तरं परं भवान् ।

परिगृह्णान्तिके तस्यास्तपश्चर्यान्निदेशतु ॥८॥

तुम अपने इस रूप को छोड़कर दूसरा रूप धारण करके उसके समीप जाकर उसे तपश्चर्या का निर्देश करो ॥ ८ ॥

इदं स्वरूपं भवतो दृष्ट्वा पूर्वं यथा त्रपाम् ।

तथा प्राप्य न किञ्चित् सा त्वदग्रे व्याहरिष्यति ।।९।।

तुम्हारे इस रूप को देखकर पहले की भाँति ही वह लज्जा को प्राप्त कर तुम्हारे सामने कुछ भी नहीं कहेगी ।

परित्यज्य स्वकं रूपं रूपान्तरधरो भवान् ।

तस्मात् सन्ध्यां महाभागामुपदेष्टुं प्रगच्छतु ।।१०।।

इसलिए तुम अपने इस रूप को छोड़कर दूसरा रूप धारण कर महाभाग सन्ध्या को उपदेश देने जाओ ॥ १० ॥

।। मार्कण्डेय उवाच ॥

तथेत्युक्त्वा वसिष्ठोऽपि वर्णी भूत्वा जटाधरः ।

तरुणश्चन्द्रभागाय ययौ सन्ध्यान्तिकं मुनिः ।।११।।

मार्कण्डेय बोले- ऐसा ही करूँगा कहकर वसिष्ठ मुनि भी जटाधारी तरुण ब्रह्मचारी का वेश धारण कर सन्ध्या के समीप चन्द्रभाग पर्वत पर गये ॥ ११ ॥

तत्र देवसर: पूर्ण गुणैर्मानससम्मितम् ।

ददर्श स वसिष्ठोऽथ सन्ध्यां तत्तीरगामिनीम् ।।१२।।

वहाँ उन वसिष्ठ मुनि ने गुणों से मानसरोवर के समान परिपूर्ण देवसर तथा उसके किनारे स्थित सन्ध्या को देखा ।।१२।।

तीरस्थया तया रेजे तत्सरः कमलोज्ज्वलम् ।

उद्यदिन्दुसनक्षत्रं प्रदोषे गगनं यथा ।।१३।।

तीर पर स्थित सन्ध्या सहित कमलों से उज्ज्वल हुआ वह सरोवर प्रदोषकाल में तारों के सहित उगते हुए चन्द्रमा से सुशोभित आकाश की भाँति शोभायमान हो रहा था ।। १३ ।।

तां तत्र दृष्ट्वाथ मुनिः समाभाष्य सकौतुकः ।

वीक्षाञ्चक्रे सरस्तत्र वृहल्लोहितसंज्ञकम् ।।१४।।

मुनि ने उसको वहाँ देख, उत्सुकता वश वार्तालाप कर,उस बृहत् लोहित नामक सरोवर को देखने की अभिलाषा की॥१४॥

चन्द्रभागा नदी तस्मात् कासाराद्दक्षिणाम्बुधिम् ।

यान्तीं निर्भिद्य ददृशे तेन सानुगिरेर्महत् ।। १५ ।।

उनके द्वारा चन्द्रभागा नदी को उस सरोवर से महान पर्वत की चोटियों को भेदकर, दक्षिण सागर को जाती हुई देखा गया ।। १५ ।।

निर्भिद्य पश्चिमं सानुं चन्द्रभागस्य सा नदी ।

यथा हिमवतो गङ्गा तथा गच्छति सागरम् ।।१६।।

वह नदी चन्द्रभाग पर्वत की पश्चिमी चोटी को भेदकर उसी प्रकार सागर की ओर जा रही थी जैसे गंगा हिमालय से सागर की ओर जाती हैं ॥ १६ ॥

।। ऋषय ऊचुः ।।

चन्द्रभागा कथं सिन्धुस्तत्रोत्पन्ना महागिरौ ।

कीदृक् सरस्तद्विप्रेन्द्र वृहल्लोहितसंज्ञकम् ।।१७।।

ऋषिगण बोले- उस महान पर्वत से चन्द्रभागा नदी कैसे उत्पन्न हुई ? हे विप्रेन्द्र ! वह बृहत्लोहित नामक सरोवर किस प्रकार का है? ॥ १७ ॥

कथं स पर्वतश्रेष्ठश्चन्द्रभागाह्वयोऽभवत् ।

चन्द्रभागाह्वया कस्मान्नदी जाता वृषोदका ।।१८।।

उस श्रेष्ठ पर्वत का नाम चन्द्रभाग कैसे हुआ? वह वृषोदका (पुण्य कर्मोपयोगी जल वाली) नदी चन्द्रभागा नाम वाली कैसे हुई ? ॥ १८ ॥

एतन्नः श्रोष्यमाणानां जायते कौतुकं महत् ।

माहात्म्यं चन्द्रभागायाः कासारस्य गिरेस्तथा ।।१९।।

यह तथा चन्द्रभागा नदी, चन्द्रभाग पर्वत एवं बृहत् लोहित सरोवर का माहात्म्य जानने की हम श्रोताओं में बड़ी उत्सुकता है ? ।। १९ ।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

श्रूयताञ्चन्द्रभागायाः उत्पत्तिर्मुनिसत्तमाः ।

युष्माभिश्चन्द्रभागस्य माहात्म्यं नामकारणम् ।।२० ॥

मार्कण्डेय बोले- हे मुनि सत्तमों ! आप लोग चन्द्रभागा नदी की उत्पत्ति, चन्द्रभाग पर्वत के माहात्म्य और नामकरण के विषय में सुनिये ॥ २० ॥

हिमवगिरिसंसक्तः शतयोजनविस्तृतः ।

योजनत्रिंशदायामः कुन्देन्दुधवलो गिरिः ।।२१।।

हिमालय पर्वत से लगा हुआ सौ योजन चौड़ा एवं तीन सौ योजन लम्बा यह पर्वत कुन्द और चन्द्रमा के समान उज्ज्वल है ॥ २१ ॥

तस्मिन् गिरौ पुरा वेधाश्चन्द्रं शुद्धं सुधानिधिम् ।

विभज्य कल्पयामास देवान्नं स पितामहः ।। २२ ।।

पित्रर्थञ्च तथा तस्य तिथिवृद्धिक्षयात्मकम् ।

कल्पयामास जगतां हिताय कमलासनः ।। २३ ।।

प्राचीन काल में पितामह ब्रह्मा ने संसार के कल्याण के लिए उसी पर्वत पर सुधानिधि चन्द्रमा को शुद्ध किया एवं वहाँ देवान्न तथा पितरों के हितार्थ तिथि के अनुसार वृद्धि एवं क्षय की व्यवस्था के अनुरूप उनका विभाग किया था ।। २२-२३॥

विभक्तश्चन्द्रमास्तस्मिन् जीमूते द्विजसत्तमाः ।

अतो देवाश्चन्द्रभागं नाम्ना चक्रुः पुरा गिरिम् ॥२४॥

हे द्विजसत्तम ! उस जीमूत पर्वत पर प्राचीनकाल में चन्द्रमा बाँटे गये थे; इसीलिए देवताओं ने इस पर्वत का चन्द्रभाग नामकरण किया ।। २४ ।।

।। ऋषय ऊचुः ।।

यज्ञभागेषु तिष्ठत्सु तथा क्षीरोदजेऽमृते ।

किमर्थमकरोच्चन्द्रं देवान्नं कमलासनः ।।२५।।

ऋषिगण बोले- कमलासन ब्रह्मा ने क्षीर सागर से उत्पन्न अमृत तथा चन्द्रमा को यज्ञभाग हेतु बैठे हुए देवताओं के लिए अन्न हव्य क्यों बनाया? ।। २५ ।।

तथा कंव्ये स्थिते कस्मात् पित्र्यर्थं समकल्पयत् ।

तिथिक्षये तथा वृद्धौ कथमिन्दुरभूद्गुरो ।। २६ ।।

कव्य के इच्छुक पितरों के लिए उसे क्यों कव्य के रूप में निर्धारित किया? तिथि क्षय में विभाजन वश हानि तथा तिथि वृद्ध के साथ ब्रह्मा गुरु (वृद्धि को प्राप्त) क्यों होता है ? ॥२६ ॥

एतन्नः संशयं ब्रह्मञ्छिन्धि सूर्यो यथा तमः ।

नान्योऽस्ति संशयस्यास्य छेत्ता त्वत्तो द्विजोत्तम ।।२७।।

हे ब्रह्मन् ! सूर्य जैसे अन्धकार को दूर कर देता है उसी प्रकार आप हमारे इस संशय को दूर कीजिए; क्योंकि हे द्विजोत्तम इस संशय को दूर करनेवाला आपके अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं है ॥। २७ ॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

पुरा दक्षः स्वतनयाः अश्विन्याद्याः मनोरमाः ।

षड्विशतिं तथैकाञ्च सोमायादात् प्रजापतिः ।। २८ ।।

मार्कण्डेय बोले- दक्ष प्रजापति ने प्राचीनकाल में अश्विनि आदि नक्षत्रनामा अपनी सत्ताईस सुन्दरी कन्यायें चन्द्रमा को प्रदान कीं ॥ २८ ॥

समस्तास्तास्ततः सोम उपयेमे यथाविधि ।

निनाय च स्वकं स्थानं दक्षस्यानुमते तदा ।। २९ ।।

तब चन्द्रमा ने उन सबसे विधिपूर्वक विवाह किया तथा दक्ष प्रजापति की अनुमति से उन्हें अपने निवास स्थान पर ले गये ॥ २९ ॥

अथ चन्द्रः समस्तासु तासु कन्यासु रागतः ।

रोहिण्या सार्धमवसद्रतोत्सवकलादिभिः ॥३०॥

इसके बाद चन्द्रमा उन सभी के साथ प्रेमपूर्वक किन्तु रतोत्सव कलाओं से रोहिणी के साथ निवास करता था ॥ ३० ॥

रोहिणीमेव भजते रोहिण्या सह मोदते ।

विनेन्दू रोहिणीं शान्तिं न काचिल्लभते पुरा ।। ३१ ।।

वह केवल रोहिणी के साथ रहता तथा उसी के साथ आनन्द करता था । चन्द्रमा रोहिणी के बिना कुछ भी शान्ति का अनुभव नहीं करता था ॥ ३१ ॥

रोहिणी तत्परं चन्द्रं वीक्ष्य ताः सर्वकन्यकाः ।

उपचारैर्बहुविधैर्भेजुश्चन्द्रमसं प्रति ।।३२।।

चन्द्रमा को उस रोहिणी के प्रति आसक्त देखकर उन सभी कन्याओं ने बहुत उपायों द्वारा चन्द्रमा की सेवा की ॥३२ ॥

निषेव्यमाणोऽनुदिनं यदा नैवाकरोद्विधुः ।

तासु भावं तदा सर्वा अमर्षवशमागताः ।। ३३ ।।

लगातार सेवा करने पर भी जब चन्द्रमा ने उनके प्रति उचित भाव नहीं किया तो सभी क्रोधित हो गईं ॥ ३३ ॥

अथोत्तराफाल्गुनीति नाम्ना या भरणी तथा ।

कृत्तिकार्द्रा मघा चैव विशाखोत्तरभाद्रपत् ।।३४।।

तथा ज्येष्ठोत्तराषाढे नवैताः कुपिताः भृशम् ।

हिमांशुमुपसंगम्य परिवव्रुः समन्ततः ।। ३५ ।।

इसके बाद उत्तराफाल्गुनी, भरणी, कृत्तिका, आर्द्रा, मघा, विशाखा, उत्तर- भाद्रप्रदा, ज्येष्ठा तथा उत्तराषाढा नाम की ये नौ पत्नियाँ बहुत अधिक कुपित हो गईं तथा एक साथ चन्द्रमा के समीप जाकर बोलीं ॥ ३४-३५॥

परिवार्य निशानाथं ददृशू रोहिणीं ततः ।

वामांकस्थां तस्य तेन रममाणां स्वमण्डले ।। ३६ ।।

तब चन्द्रमा को घेरकर उन्होंने रोहिणी को देखा । वह उनकी बायीं गोद में बैठकर अपने मण्डल में रमण की जा रही थीं ।। ३६ ।।

तां वीक्ष्य तादृशीं सर्वा रोहिणीं वरवर्णिनीम् ।

जज्वलुश्चातिकोपेन हविषेव हुताशनः ।। ३७।।

सब उस सुन्दरी रोहिणी को उस अवस्था में देखकर जैसे आहुति पाकर अग्नि जल उठता है वैसे ही वे क्रोध से जल उठीं ॥ ३७ ॥

ततो मधात्रिपूर्वाश्च भरणी कृत्तिका तथा ।

चन्द्रांकस्थां महाभागां रोहिणीं जगृहुर्हठात् ।। ३८।।

तब मघा एवं तीन पूर्वाओं को छोड़ उत्तराफाल्गुनि, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपदा तथा भरणी, कृतिका ने चन्द्रमा की गोद में बैठी हुई रोहिणी को बलपूर्वक पकड़ लिया ।। ३८ ॥

ऊचुश्चातीव कुपिताः परुषं रोहिणीं प्रति ।

जीवन्त्यां त्वयि दुष्प्राज्ञे नास्मानिन्दुस्तु भावभाक् ।।३९।।

समुपैष्यति कस्मिंश्चित्सम सुरतोत्सुकः ।

वह्नीनां क्षेमवृद्ध्यर्थं तां हनिष्याम दुर्मतिम् ॥४०॥

हे मूर्खे ! तुम्हारे जीवित रहते किसी भी समय सुरति हेतु उत्सुक चन्द्रमा भावपूर्वक हमलोगों के पास नहीं आयेंगे अतः बहुतों के कल्याण हेतु हम इसी दुर्बुद्धि को मार डालेंगी ।। ३९-४० ॥

न त्वां हत्वा भवेत् पापमस्माकमपि किञ्चन ।

प्रजनघ्नीं बहुस्त्रीणामनृतौ पापकारिणीम् ।।४१ ।।

तुम्हारे जैसी बहुतों की प्रजनन क्षमता नष्ट करने वाली पापिनी, झूठी को मारकर कुछ भी पाप नहीं लगेगा ।। ४१ ।।

यस्मिन्नर्थे पुरा ब्रह्मा व्याजहार सुतं प्रति ।

नीतिशास्त्रोपदेशाय तन्नः संश्रुतमस्ति वै ।। ४२ ।।

प्राचीन काल में ब्रह्माजी ने अपने पुत्र से नीतिशास्त्र का उपदेश करते हुए जो कहा था उसे हमलोगों ने सुन रखा है ।। ४२ ।।

एकस्य यत्र निधने प्रवृत्ते दुष्टकारिणः ।

बहूनां भवति क्षेमं तस्य पुण्यप्रदो वधः ।।४३।।

एक दुष्ट कर्म करने वाले की मृत्यु से यदि बहुतों का कल्याण होता है तो उसका वध पुण्यदायक है ॥ ४३ ॥

रुक्मस्तेयी सुरापश्च ब्रह्महा गुरुतल्पगः ।

आत्मानं घातयेद्यस्तु तस्य पुण्यप्रदो वधः ।।४४।।

सोना चुराने वाला, मदिरा पीने वाला, ब्रह्म हत्यारा, गुरुपत्नीगामी, अपने को जो मारे, ऐसों का वध पुण्यदायक होता है ॥ ४४ ॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

तासां तादृगभिप्रायं बुद्ध्वा दृष्ट्वा च कर्म च ।

भीतां च रोहिणीं दृष्ट्वा प्रियामतिमनोरमाम् ।।४५ ।।

आत्मानश्चापराधं च तदसम्भोगजं मुहुः ।

विचिन्त्य रोहिणीं भीतां तासां हस्तादमोचयत् ।। ४६ ।।

मार्कण्डेय बोले- उनके उस प्रकार के अभिप्राय को जानकर तथा उनके कर्म को देख एवं अति मनोरम रोहिणी नामक प्रिय पत्नी को भयभीत देखकर चन्द्रमा ने उसके साथ सम्भोग सम्बन्धी अपने अपराध का विचार कर भयभीत हुई रोहिणी को उनके हाथों से छुड़ा लिया ।। ४५-४६ ।।

मोचयित्वा च बाहुभ्यां सम्परिष्वज्य रोहिणीम् ।

वारयामास ताः सर्वाः कृत्तिकाद्याः स भामिनीः ।। ४७ ।।

रोहिणी को छुड़ाकर और भुजाओं में बाँध लिया । और सब कृतिका आदि सबको पत्नी रोहिणी सहित चन्द्रमा ने रोका ॥ ४७ ॥

तदेन्दुं वारयन्त्यस्ताः कृत्तिकाद्या मघान्तकाः ।

साम्यमूचुर्मनस्विन्यस्तां वीक्ष्यन्त्योऽथ रोहिणीम् ।।४८।।

तब रोकी जाती हुई उन कृतिका से मघा तक मनस्विनी पत्नियों ने रोहिणी को देखते हुए समझौते की बातें कहीं ॥४८॥

न ते त्रपा वा भीतिर्वा पापतोऽस्मान्निरस्यतः ।

संजायते निशानाथ प्राकृतस्येव वर्ततः ।। ४९ ।।

हे निशापति चन्द्रमा ! न तो तुम्हें पाप से लज्जा है, न भय । हमको इससे हटाकर आपने प्राकृत (सामान्य) मनुष्य-सा ही व्यवहार किया है ।। ४९ ।।

कथमस्मान्निराकृत्य चारित्रव्रतधारिणीः ।

सदा भक्तिमतीरेकां मूढवत्त्वं निषेवसे ।। ५० ।।

हमको तो आपने छोड़ दिया किन्तु अब आप इस चरित्र - व्रतधारिणी, भक्तिमान, एकमात्र रोहिणी का मूढ़ पुरुषों की भाँति क्यों सेवन कर रहे हो? ॥ ५० ॥

किं ते नावगतो धर्मो वेदमूलः श्रुतः पुरा ।

यद्धर्महीनं कुरुषे कर्म सद्भिर्विगर्हितम् ।। ५१ ।।

क्या आपको वेद का मूल, पहले का सुना हुआ, यह धर्म ज्ञात नहीं है कि सत्पुरुष धर्मविहीन किये गये कर्म की निन्दा करते हैं ।। ५१ ॥

धर्मशास्त्रार्थगं कर्म चरन्तीनां यथोचितम् ।

कथमुद्वाहितानां त्वं मुखमात्र न वीक्षसे ।। ५२ ।।

आप यथोचित रूप से धर्मशास्त्रानुरूप आचरण करती हुई, हम विवाहित, पत्नियों का मुख क्यों नहीं देखते हो ? ॥ ५२ ॥

गदतो यच्छुतं पूर्वं नारदाय पितुर्मुखात् ।

दक्षस्य धर्मशास्त्रार्थं तच्छृणुष्व निशापते ।।५३॥

हे निशापति ! हमने जो दक्ष प्रजापति के धर्म सम्बन्धी शास्त्रार्थ में पिता ब्रह्मा द्वारा प्राचीन काल में नारद के प्रति कहा हुआ सुना है, उसे आप भी सुनो ॥ ५३ ॥

बहुदारः पुमान् यस्तु रागादेकां भजेत् स्त्रियम् ।

स पापभाक्स्त्रीजितश्च तस्याशौचं सनातनम् ।।५४।।

जो पुरुष बहुत-सी पत्नियों का स्वामी होकर भी किसी एक स्त्री का विशेष प्रेमपूर्वक उपभोग करता है, वह पाप का भागी और स्त्रैण होता है तथा उसको सनातन अशौच होता है ।। ५४ ॥

यद्दुःखं जायते स्त्रीणां स्वाम्यसम्भोगजं विधो ।

न तस्य सदृशं दुःखं किञ्चिदन्यत्र विद्यते ।।५५।।

हे पिधो ! स्वामी के असंयोजन के कारण स्त्रियों को जो दुःख होता है, उसके समान अन्य कोई दुःख नहीं होता है ।।५५।।

सतीमृतुमतीं जायां यो नेयात्पुरुषाधमः ।

ऋतुधस्त्रेषु शुद्धेषु भ्रूणहा स च जायते ।।५६॥

जो नीच पुरुष ऋतुमती स्त्री का चौथे दिन शुद्ध होने पर भी उपभोग नहीं करता वह भ्रूणघाती कहा जाता है ।। ५६ ।।

भार्या स्याद्यावदात्रेयी तावत्कालं विबोधनम् ।

तस्यास्तु सङ्गमे किञ्चिद्विहितञ्चापि नाचरेत् ।।५७ ।।

जब तक स्त्री (आत्रेर्या ऋतुमती) हो तब तक विशेष सावधानी रखनी चाहिए, उसके संगम में इच्छित होने पर भी आचरण नहीं करना चाहिये ।। ५७ ।।

बहुभार्यस्य भार्याणामृतुमैथुननाशनम् ।

न किञ्चिद्विद्यते कर्म शास्त्रेणापि यदीरितम् ।।५८।।

शास्त्र में बहुतपत्नी वालों की पत्नियों के लिए ऋतुकाल जैसा मैथुन नाशक कोई कर्म भी नहीं है ऐसा बताया गया है ।। ५८ ।।

तोषयेत् सततं भार्याविधिवत्पाणिपीडिताः ।

तासां तुष्ट्या तु कल्याणमकल्याणमतोऽन्यथा ।। ५९ ।।

विधिपूर्वक पाणिगृहीता भार्याओं को निरन्तर सन्तुष्ट करना चाहिये । उनके सन्तुष्ट होने से कल्याण होता है अन्यथा अकल्याण ही होता है ।। ५९ ।।

सन्तुष्टो भार्यया भर्ता भर्त्रा भार्या तथैव च ।

यस्मिन्नेतत्कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम् ।।६० ।।

जिस कुल में पत्नी से पति तथा पति से पत्नी सन्तुष्ट रहती है, निश्चय ही वहाँ नित्य कल्याण ही होता है ॥ ६० ॥

यया विरुध्यते स्वामी सौभाग्यमददृप्तया ।

सपत्नीसङ्गमं कर्तुं सा स्याद्वेश्या भवान्तरे ।। ६१ ।।

जिस सौभाग्यवती द्वारा सौतों के सेवन से पति का विरोध किया जाता है, वह अगले जन्म में वेश्या होती है ।। ६१ ॥

इहापि लोके वाच्यत्वमधर्मञ्चापि विन्दति ।

न पितुश्च कुलं स्वामिकुलं तस्याः प्रमोदते ।। ६२ ।।

इस लोक में भी आलोचना तथा अधर्म को प्राप्त करती है। न उसके पिता का कुल आनन्दित होता है न पति का ।। ६२ ।।

विरुध्यमाने पत्यौ यत्सपत्न्या वा प्रवर्तते ।

अतीव दुःखं भवति तदकल्याणकृत्तयोः ।।६३।।

सपत्नी के द्वारा पति के विरुद्ध हो जाने पर जो अत्यधिक दुःख होता है वह उन दोनों के लिए अकल्याणकारी होता है ।। ६३ ॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

इत्येवं भाषमाणासु तासु चातीव निष्ठुरम् ।

चुकोप चन्द्रमा दृष्ट्वा मलिनं रोहिणीमुखम् ।।६४।।

मार्कण्डेय बोले- रोहिणी का मलिन मुख देखकर अत्यन्त निष्ठुर चन्द्रमा, इस प्रकार कहती हुई उन स्त्रियों पर अत्यधिक कुपित हो गया ।। ६४ ।।

रोहिणी च तदा तासामवलोक्योग्रतां मुहुः ।

न किञ्चित् सापि प्रोवाच भयशोकत्रपाकुला ।। ६५ ।।

तब उनकी उग्रता को देखकर भय, शोक एवं लज्जा से व्याकुल होकर प्रत्युत्तर में रोहिणी कुछ भी न बोली ॥६५॥

अथापि कुपितश्चन्द्रस्ताः शशाप तदा स्त्रियः ।

यस्मान्मम पुरश्चोप्रास्तीक्ष्णा वाचः समीरिताः ।।६६।।

भवतीभिश्च तिसृभिर्लोकेऽस्मिन् कृत्तिकादिभिः ।

ऊप्रास्तीक्ष्णा इति ख्यातिः प्राप्तव्या त्रिदशेष्वपि ।।६७।।

तब चन्द्रमा ने भी क्रुद्ध हो उन स्त्रियों को शाप दिया - जिन कृतिकादि के द्वारा आप तीनों ने मेरे सम्मुख उग्र एवं तीखे वचन कहे हैं, वे इस लोक में तथा स्वर्ग में भी उग्र और तीक्ष्ण संज्ञा को प्राप्त करेंगी ।।६६-६७ ।।

तस्मादेवंविधानेन नवैताः कृत्तिकादयः ।

यात्रायां नोपयुक्ता हि भविष्यध्वं दिने दिने ।। ६८ ।।

इसी विधान से ये कृत्तिकादि नौ (नक्षत्र) यात्रा में अनुदिन उपयोगी नहीं होवेंगी ।। ६८ ॥

युष्मान् पश्यन्ति देवाद्या मनुष्याद्या च ये क्षितौ ।

यात्रायां तेन दोषेण तेषां यात्रा न चेष्टदा ।। ६९ ।।

तुम लोगों के देखते हुए पृथ्वी पर जो भी मनुष्य या देवता यात्रा करेंगे। उसी (उपर्युक्त) दोष से उनकी यात्रा अभीष्टदायी नहीं होगी ।। ६९ ।।

अथ सर्वास्तदा शापं तस्य श्रुत्वातिदारुणम् ।

चन्द्रस्य हृदयं ज्ञात्वा शापाच्चातीव निष्ठुरम् ।।७० ।।

जग्मुः सर्वास्तदा दक्षभवनं प्रत्यमर्षिताः ।

ऊचुश्च दक्षं पितरमश्विन्याद्याः सगद्गदम् ।।७१ ।।

तब उनके अत्यन्त दारुण शाप को सुनकर तथा चन्द्रमा के अत्यन्त निष्ठुर हृदय को जानकर वे सभी क्रोध से भरकर, अपने पिता दक्ष के भवन में चली गईं और अश्विनी आदि ने दुःख से विचलित वाणी से पिता दक्ष से ये वचन कहे-- ।। ७०-७१ ।।

सोमो वसति नास्मासु रोहिणीं भजते सदा ।

सेवमाना न भजते सोऽस्मान् परबधूरिव ।।७२ ।।

चन्द्रमा हमारे साथ नहीं रहते। वे सदा रोहिणी का ही उपभोग करते हैं। हमारे द्वारा सेवा किये जाने पर भी ये हमारा साथ नहीं देते, मानो हम उनके लिए दूसरे की स्त्रियाँ हों ।। ७२ ।।

नावस्थाने नावसाने भोजने श्रवणे तथा ।

विनेन्दू रोहिणीं शान्तिं लभते नहि काञ्चन ।।७३।

न खड़े रहने में, न विश्राम में, न सुनने में रोहिणी के बिना इन्हें किसी प्रकार की शान्ति प्राप्त नहीं होती है अर्थात् कहीं भी नहीं प्राप्त होती ।। ७३ ।।

रोहिण्या वसतस्तस्य समीपं वीक्ष्य ते सुताः ।

यान्तीः सोऽन्यत्र नयनमाधाय नहि वीक्षते ॥७४।।

रोहिणी के समीप रहने पर आपकी लड़कियों को आती हुई देखकर वे अपने नेत्र दूसरी ओर घुमाकर, उन्हें नहीं देखते ॥ ७४ ॥

मास्त्वन्यः स्वामिसद्भावो मुखमात्रं न वीक्षते ।

अस्मिन् वस्तुनि यत्कार्यं तदस्माभिर्निगद्यताम् ।।७५।।

स्वामी सम्बन्धी उनका अन्य सद्भाव भले ही न हो किन्तु वे हमारा मुख मात्र भी नहीं देखते। इस सम्बन्ध में हमें जो करना उचित हो, वह बताइये॥७५ ॥

अस्माभिरेतत्समयेऽनुरुद्धश्च चन्द्रमाः ।

स तत्कृते ततश्चास्मच्छापं तीव्रं तदाकरोत् ।। ७६ ।।

इस सम्बन्ध में हम लोगों द्वारा जब चन्द्रमा से अनुरोध किया गया तब वैसा करने के कारण उन्होंने हमें तीव्र शाप दिया ।। ७६ ।।

दोरुणाश्चातितीक्ष्णाश्च लोके वाच्यत्वमाप्य च ।

अयात्रिका भविष्यध्वं यूयमित्युक्तवान् विधुः ।। ७७ ।।

चन्द्रमा ने कहा कि तुम लोग संसार में दारुण और तीक्ष्ण नाम को प्राप्त होओ तथा यात्रा के अनुपयुक्त हो जाओ ।। ७७ ।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

श्रुत्वा वाक्यं स पुत्रीणां ताभिः सार्धं प्रजापतिः ।

जगाम यत्र सोमोऽभूद्रोहिण्या सहितस्तदा ।।७८ ।।

मार्कण्डेय बोले- तब पुत्रियों की बात सुन कर दक्ष प्रजापति उनके साथ वहाँ गये जहाँ चन्द्रमा रोहिणी के साथ स्थित थे ।। ७८ ।।

दूरादेव विधुर्दृष्टवा दक्षमायान्तमासनात् ।

उत्तस्थावन्तिके प्राप्य ववन्दे च महामुनिम् ।।७९।।

चन्द्रमा दूर से ही दक्ष को आता हुआ देखकर अपने आसन से उठकर उन महामुनि के पास पहुँचे एवं उनकी वन्दना की ।। ७९ ।।

अथ दक्षस्तदोवाच कृतासनपरिग्रहः ।

सामपूर्वं चन्द्रमसं कृत- संवन्दनं तथा ॥८०॥

तब दक्ष प्रजापति ने आसन ग्रहण करने के बाद वन्दना करते हुए चन्द्रमा को समझाते हुए कहा ॥ ८० ॥

।। दक्ष उवाच ।

समं वर्तस्व भार्यासु वैषम्यं त्वं परित्यज़ ।

वैषम्ये बहवो दोषा ब्रह्मणा परिकीर्तिताः ।। ८१ ।।

दक्ष बोले- तुम अपनी पत्नियों के प्रति विषमता छोड़कर समानता का व्यवहार करो; क्योंकि ब्रह्मा ने विषमता में बहुत से दोष बताये हैं ।। ८१ ॥

रतिपुत्रफला दारास्तासु कामानुबन्धनात् ।

कामानुबन्धः संसर्गात् संसर्गः सङ्गमाद्भवेत् ।।८२।।

पत्नियाँ रति सम्बन्धों से पुत्ररूपी फल देने वाली होती हैं। उनसे काम-सम्बन्धी अनुबन्ध होता है । यह काम सम्बन्धी अनुबन्ध संसर्ग से तथा संसर्ग, संगम (संयोग) से होता है ॥ ८२ ॥

सङ्गमश्चाप्यभिध्यानाद्वीक्षणादभिजायते ।

तस्माद् भार्यास्वभिध्यानं कुरु त्वं वीक्षणादिकम् ।।८३।।

संयोग परस्पर ध्यानपूर्वक देखने से होता है।इसलिए तुम अपनी पत्नियों में दृष्टि आदि के द्वारा ध्यान केन्द्रित करो।।८३।।

यद्येवं नैव कुरुषे मद्वचो धर्मयन्त्रितम् ।

तदा लोकवचोदुष्टः पापवांस्त्वं भविष्यसि ॥८४॥

यदि इस प्रकार के मेरे धर्मयुक्त वचनों का पालन नहीं करोगे तो तुम लोक में वाणी से दुष्ट और पापवान् होओगे ।।८४।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य दक्षस्य सुमहात्मनः ।

एवमस्त्विति चन्द्रोऽपि न्यगदद्दक्षशङ्कया ।।८५ ।।

महात्मा दक्ष की इस प्रकार की बातें सुनकर दक्ष के डर से चन्द्रमा ने भी ऐसा ही होगा, यह कहा ।। ८५ ।।

अथानुमन्त्र्य तनयाश्चन्द्रं जामातरं तथा ।

ययौ दक्षो निजं स्थानं कृतकृत्यस्तदा मुनिः ॥८६ ।।

इसके बाद मुनिवर दक्ष प्रजापति अपनी कन्याओं तथा दामाद चन्द्रमा के प्रति विचार-विमर्श के बाद कृत-कृत्य हो अपने स्थान को चले गये ॥ ८६ ॥

गते दक्षे ततश्चन्द्रस्तां समासाद्य रोहिणीम् ।

जग्राह पूर्ववद्भावं तासु तस्यां च रागतः ।।८७ ।।

तब दक्ष प्रजापति के चले जाने पर चन्द्रमा पूर्ववत् रोहिणी के पास जाकर उसके प्रति प्रेम का तथा अन्यों के प्रति उपेक्षा का भाव रखने लगा ।। ८७ ।।

तत्रैव रोहिणीं प्राप्य न काश्चिदपि वीक्षते ।

रोहिण्यामेव वसते ततस्ताः कुपिताः पुनः ।। ८८ ।।

गत्वा ता: पितरं प्राहुदौर्भाग्योद्वग्नमानसाः ।

सोमो वसति नास्मासु रोहिणीं भजते सदा ।।८९।।

तवापि नाकरोद्वाक्यं तस्मान्न: शरणं भव ।। ९० ।।

वहाँ ही रोहिणी को पाकर वह किन्हीं की ओर भी नहीं देखता था। रोहिणी के यहाँ ही रहता था । इसलिये वे सब पुनः क्रुद्ध होकर दुःखी मन से पिता के यहाँ जाकर उनसे अपना दुर्भाग्य कहीं कि चन्द्रमा हमारे साथ नहीं रहते वे सैदव रोहिणी का ही उपभोग करते हैं। वे आपके भी वाक्यों को नहीं मानते अतः आप मेरे आश्रयदाता होइये ।। ८८- ९० ।।

उद्वेगकोपसंयुक्त उत्तस्थौ तत्क्षणान्मुनिः ।

जगाम मनसा ध्यायन् कर्तव्यं निकटं विधोः ।। ९९ ।।

उसी समय मुनिवर दक्ष प्रजापति व्यग्रता एवं क्रोध से युक्त हो उठ खड़े हुए तथा अपने कर्त्तव्य का ध्यान करते हुए चन्द्रमा के समीप गये ।। ९१ ।।

उपगम्य तदा प्राह वचश्चन्द्रं प्रजापतिः ।

समं वर्तस्व भार्यासु वैषम्यं त्वं परित्यज ।।९२।।

तब प्रजापति दक्ष ने चन्द्रमा के समीप जाकर यह वचन कहा- तुम विषमता छोड़ कर पत्नियों के साथ समता का व्यवहार करो ।। ९२ ।।

न चेदिदं वचोऽस्माकं मौर्ख्यात् त्वं मावबुध्यसे ।

धर्मशास्त्रातिगायाहं शप्स्ये तुभ्यं निशापते ।।९३।।

हे निशापति ! यदि मूर्खतावश तुम मेरे इस वचन का पालन नहीं करोगे तब, धर्मशास्त्र के अतिक्रमणकर्ता तुझे मैं शाप दूँगा ।। ९३ ।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

ततो दक्षभयाच्चन्द्रस्तत्कर्तुं प्रति तत्पुरः ।

अङ्गीचकारातिभयात् कार्यमेव मुहुस्त्विति ।। ९४ ।।

मार्कण्डेय बोले- तब चन्द्रमा ने दक्ष के भय से बहुत डरकर उनके सामने वैसा करना पुनः स्वीकार कर लिया ।। ९४ ।।

समं प्रवर्तनं कर्तुं भार्यास्वङ्गीकृते ततः ।

विधुना प्रययौ दक्षः स्वस्थानं चन्द्रसम्मतः ।। ९५ ।।

तब चन्द्रमा द्वारा अपनी पत्नियों के साथ समान व्यवहार करने की बात पुनः स्वीकार कर लिये जाने पर उनसे सम्मति ले, दक्ष पुनः अपने स्थान को लौट गये ।। ९५ ।।

गते दक्षे निशानाथो रोहिण्यासहितो भृशम् ।

रममाणो विसस्मार दक्षस्य वचनन्तु सः ।।९६।।

सेवमानाश्च ताः सर्वा अश्विन्याद्या मनोरमाः ।

नाभजच्चन्द्रमास्तासु अवज्ञामेव चाकरोत् ।।९७।।

तब दक्ष प्रजापति के वापस चले जाने पर चन्द्रमा पुनः उनके वचनों को भुलाकर रोहिणी के साथ अत्यधिक रमण करने लगा तथा सेवा में लगी हुई अश्विनी आदि उन सभी सुन्दरियों का वह साथ नहीं देता था अपितु अवज्ञा ही करता था ।। ९६-९७ ॥

अवज्ञातास्तु ताः सर्वाश्चन्द्रेण पितुरन्तिकम् ।

गत्वैवार्तस्वराश्चार्ता रुदन्त्यश्चेदमब्रुवन् ।। ९८ ।।

तब चन्द्रमा से उपेक्षित होकर उन सबों ने पिता के समीप पुनः जाकर आर्त स्वर से रोते हुए ये वचन कहे - ॥ ९८ ॥

नाकरोद्वचनं सोमस्तवापि मुनिसत्तम ।

अवज्ञां कुरुतेऽस्मासु पूर्वतोऽप्यधिकं स च ।। ९९ ।।

तस्मात् सोमेन नः कार्यं न किञ्चिदपि विद्यते ।

तपस्विन्यो भविष्यामस्तपश्चर्यां निदेशय ।।१०० ॥

हे मुनि सत्तम! चन्द्रमा अब भी आपके वचन को न मानते हुए और पहले से भी अधिक हमारी अवज्ञा करते हैं। इसलिए अब उनसे हमें कुछ नहीं करना है, हम अब तपस्विनी बन जाएँगी, आप हमें तपस्या करने का निर्देश दीजिए।।९९-१००॥

तपसा शोधितात्मानः परित्यक्ष्याम जीवितम् ।

किमस्माकं जीवितेन दुर्भगानां द्विजोत्तम ।। १०१ ।।

हे द्विजोत्तम ! हम तपस्या से अपनी आत्मा का शोधन कर अपना जीवन छोड़ देंगी। हम भाग्य हीनों के जीवन से क्या लाभ है ? ।। १०१ ।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

इत्युक्त्वा तास्ततः सर्वा दक्षजाः कृत्तिकादयः ।

कपोलमालम्व्य करैरुरुदुर्विविशुः क्षितौ ।। १०२ ।।

मार्कण्डेय बोले- तब ऐसा (उपर्युक्त) वचन कहकर वे सभी कृत्तिकादि दक्ष की कन्याएँ अपने-अपने गालों को हाथ से पकड़कर रोती हुई धरती पर बैठ गयीं ॥ १०२ ॥

तास्तु दृष्ट्वा तथाभूता दुःखव्याकुलितेन्द्रियाः ।

अतिदीनमुखो दक्षः कोपाज्जज्वाल वह्निवत् ||१०३ ।।

उनको इस प्रकार दुःख से व्याकुल इन्द्रिय तथा अत्यन्त दीन मुखवाली देखकर दक्ष क्रोधवश अग्नि की भाँति जल उठे ।। १०३ ॥

कालिका पुराण अध्याय २०- यक्ष्मा उत्पत्ति

अथ कोपपरीतस्य दक्षस्य सुमहात्मनः ।

निश्चक्राम तदा यक्ष्मा नासिकाग्राद्विभीषणः ।। १०४ ।।

तब कोपाविष्ट, सुन्दर, महात्मा दक्ष की नासिका के अग्रभाग से अत्यन्त भयानक यक्ष्मा नामक रोग निकला ।। १०४ ।।

कालिका पुराण अध्याय २०- यक्ष्मा रूप वर्णन

दंष्ट्राकरालवदनः कृष्णांगारसमप्रभः ।

अतिदीर्घः स्वल्पकेशः कृशो धमनिसन्ततः ।। १०५ ।।

अधोमुखो दण्डहस्तः कासं विश्रम्य सन्ततम् ।

कुर्वाणो निम्ननेत्रश्च योषासम्भोगलोलुपः ।। १०६।।

वह दाँतों के कारण भयंकर मुँह वाला, कोयले के समान काला, अत्यधिक लम्बा, कम बालों वाला, धमनियों से युक्त दुर्बल, नीचे मुँह किये, हाथ में दण्ड लिए हुए, स्वास को निरन्तर विश्राम देता हुआ, नीचे नेत्र किये हुए, स्त्रियों के संभोग हेतु लालायित दिखाई दे रहा था ।। १०५-१०६ ॥

स चोवाच तदा दक्षं कस्मिंस्थास्याम्यहं मुने ।

किं वा चाहं करिष्यामि तन्मे वद महामते ।। १०७ ।।

तब उसने दक्ष से कहा- हे मुनि! मैं कहाँ निवास करूँ? अथवा मैं क्या करूँ? आप मुझे बतायें क्योंकि आप महान बुद्धिशाली हैं ।। १०७ ।।

ततो दक्षस्तु तं प्राह सोमं यातु द्रुतं भवान् ।

सोममत्तु भवान्नित्यं सोमे त्वं तिष्ठ स्वेच्छया ।। १०८ ।।

तब दक्ष ने उससे कहा- तुम शीघ्र चन्द्रमा के समीप जाओ। तुम अपनी इच्छानुसार चन्द्रमा में निवास करो तथा नित्य चन्द्रमा का भक्षण करने वाले होओ ॥ १०८ ॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

इति श्रुत्वा वचस्तस्य दक्षस्याथ महामुनेः ।

शनैः शनैस्ततः सोममाससाद गदः स च ।। १०९ ।।

मार्कण्डेय बोले- वह यक्ष्मा नामक रोग तब उन महामुनि दक्ष के वचनों को सुनकर धीरे-धीरे सोम के पास पहुँच गया ।। १०९ ।।

आसाद्य स तदा सोमं वल्मीकं पन्नगो यथा ।

प्रविवेशेन्दुहृदयं छिद्रं प्राप्य महागदः । । ११० ।।

तब वह महान रोग, जैसे साँप वाल्मीकी में घुसता है, वैसे ही चन्द्रमा के पास पहुँच कर तथा उनमें छिद्र अर्थात् दोष पाकर, उनके हृदय में प्रवेश कर गया ॥ ११० ॥

तस्मिन् प्रविष्टे हृदये दारुणे राजयक्ष्मणि ।

मुमोह चन्द्रस्तन्द्रांच विषमां प्राप्तवांश्च सः ।। १११ ।।

उस भयानक राजयक्ष्मा के हृदय में प्रविष्ट हो जाने पर चन्द्रमा मूर्छित हो गया तथा उसने असह्य तन्द्रा को प्राप्त किया ।। १११ ॥

उत्पद्य प्रथमं यस्माल्लीनो राजन्यसौ गदः ।

राजयक्ष्मेति लोकेऽस्मिन्तस्य ख्यातिरभूद्विजाः ।। ११२ ।।

हे द्विजों ! उत्पन्न होते ही उस रोग ने सर्वप्रथम द्विजराज चन्द्रमा में प्रवेश कर लिया। इसीलिए लोक में उसकी राजयक्ष्मा नाम से प्रसिद्धि हुई ।। ११२ ।।

ततस्तेनाभिभूतः स यक्ष्मणा रोहिणीपतिः ।

क्षयं जगामानुदिनं ग्रीष्मे क्षुद्रा नदी यथा ।। ११३ ।।

तब जिस प्रकार गर्मी में छोटी नदी क्षय को प्राप्त होती है, उसी प्रकार रोहिणीपति चन्द्रमा भी उस यक्ष्मा रोग से ग्रस्त हो, दिनोंदिन क्षय को प्राप्त होने लगे ।। ११३ ॥

अथ चन्द्रे क्षीयमाणे सर्वौषध्यो गताः क्षयम् ।

क्षयं यातास्वौषधिषु न यज्ञः समवर्तत ।। ११४ ।।

इसके बाद चन्द्रमा के क्षय होने पर सभी औषधियाँ नष्ट हो गईं। औषधियों के नष्ट हो जाने से यज्ञ नहीं हो सकते थे ।। ११४ ॥

यज्ञाभावात्तु देवानामन्नं सर्वं क्षयं गतम् ।

पर्जन्याश्च ततो नष्टास्ततो वृष्टिर्नचाभवत् ।। ११५ ।।

यज्ञ के अभाव से देवताओं का अन्न (हविष्य) पूर्णतः नष्ट हो गया, जिससे मेघ नष्ट हुए और उससे वर्षा नहीं हुई।।११५।।

वृष्ट्यभावे तु लोकानामाहाराः क्षीणतां गताः ।

दुर्भिक्षव्यसनोपेते सर्वलोके द्विजोत्तमाः ।। ११६ ।।

हे द्विजोत्तमों ! वृष्टि के अभाव में प्राणियों का भोजन नष्ट हो गया तथा समस्त लोक अकाल की विपत्ति में पड़ गये ।। ११६ ॥

दानधर्मादिकं किञ्चिन्न लोकस्य प्रवर्तते ।

सत्त्वहीनाः प्रजा: सर्वा लोभेनोपहतेन्द्रियाः ।

पापमेव तदा चक्रुः कुकर्मरतयश्च ताः ।। ११७।।

दुर्भिक्ष की विपत्तिवश प्राणियों के दान धर्मादि कुछ भी नहीं होते थे। तब सारी प्रजा सत्व से हीन हो लोभग्रस्त चित्तवाली हो गई। वे कुकर्मरत हो पाप मात्र ही करने लगे ॥ ११७ ॥

एतान् दृष्ट्वा तदा भावान् दिक्पालाः सपुरन्दराः ।

जग्मुः क्षोभं परं देवाः सागराश्च ग्रहास्तथा ।। ११८ ।।

तब इन भावों को देखकर इन्द्र के सहित दसों दिक्पाल, अन्य देवगण, सागर, और ग्रह सभी, अत्यधिक क्षुब्ध हो उठे ॥ ११८ ॥

ततो दृष्टवा जगत्सर्वं व्याकुलं दस्युपीडितम् ।

ब्रह्माणमगमन् देवाः सर्वे शक्रपुरोगमाः ।।११९।।

तब सम्पूर्ण जगत को दस्युओं से पीड़ित देखकर, इन्द्र को आगे कर सभी देवता ब्रह्मा के समीप गये ।। ११९ ॥

उपसङ्गम्य देवेशं स्रष्टारं जगतां पतिम् ।

प्रणम्याथ यथायोग्यमुपविष्टास्तदा सुराः ।।१२० ॥

तब देवगण देवाधिदेव, लोकपति, स्रष्टा, ब्रह्मा के निकट पहुँचकर उन्हें यथायोग्य प्रणाम कर बैठ गये ।। १२० ।।

तान् म्लानवदनान् सर्वान्वीक्ष्य लोकपितामहः ।

अभिभूतान् परेणेव हृतस्वविषयानिव ।

पप्रच्छ सम्मुखीकृत्य गुरुमिन्द्रं हुताशनम् ।।१२१ ।।

अपने राज्य का शत्रुओं द्वारा हरण कर लिये जाने से पराजित हुए की भाँति मलिन मुख (उदास) उन सब देवों को देखकर लोक पितामह ब्रह्मा ने गुरु (वृहस्पति), इन्द्र और अग्निदेव को सम्मुख लक्ष्य को सम्बोधित कर पूछा- ॥ १२१ ॥

।। ब्रह्मोवाच ।।

स्वागतं भो सुरगणाः किमर्थं यूयमागताः ।

दुःखोपहतदेहांश्च युष्मान् म्लानांश्च लक्षये ।। १२२ ।।

ब्रह्मा बोले- हे देवगण! तुम सबका स्वागत है। तुम सब किस हेतु पधारे हो? मैं तुम्हें दुःख से पीड़ित और मलीन देख रहा हूँ ।। १२२ ।

निराबाधान्निरातंकान् युष्मान् सर्वांश्च कामगान् ।

कृत्वा स्वविषये न्यस्तान् कथं पश्यामि दुःखितान् ।। १२३ ।।

तुम सब बिना किसी बाधा और भय के सर्वत्र इच्छानुसार गमन करने वाले हो। तुम्हें अपने-अपने क्षेत्र में नियोजित करने के बाद भी मैं आज क्यों दुःखी देख रहा हूँ? ॥१२३ ॥

यद्वोऽभवद्दुः खबीजं युष्मान् वा यस्तु बाधते ।

तत्कथ्यतामशेषेण सिद्धञ्चाप्यवधार्यताम् ।।१२४।।

जो भी तुम्हारे दुःख का बीज उत्पन्न हुआ हो या जो भी बाधा पहुँचा रहा हो वह सब विस्तार से बताओ तथा उसका समाधान भी सुनो ॥ १२४ ॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

ततो वृद्धश्रवा जीवः कृष्णवर्त्मा च लोकभृत् ।

उवाचात्मभुवे तस्मै सुराणां दुःखकारणम् ।। १२५ ।।

मार्कण्डेय बोले- तब वृद्धश्रवा इन्द्र, देव गुरु तथा लोकपाल अग्नि ने उन आत्मभू ब्रह्मा से देवताओं के दुःख का कारण कहा- ॥ १२५ ॥

।। देवा ऊचुः ।।

शृणु सर्वं जगत्कर्तस्त्वां येन वयमागताः ।

यद्वास्माकं दुःखबीजं यतो म्लानश्रियो वयम् ।। १२६ ।।

देवगण बोले-हे जगत्कर्ता ! जिस हेतु हम सब आपके यहाँ आये हैं या हमारे दुःख का जो बीज है जिससे हम मलिन शोभा वाले हो रहे हैं, वह सब सुनिये ।। १२६ ।।

न क्वचित् सम्प्रवर्तन्ते यज्ञा लोके पितामह ।

निराधारा निरातंकाः प्रजाः सर्वां क्षयं गताः ।। १२७ ।।

हे पितामह ! अब संसार में कहीं यज्ञ नहीं होते । निर्भय रहने वाली प्रजा भी आधारहीन हो, क्षय को प्राप्त हो गई है ।। १२७ ।।

न च दानादिधर्माश्च न तपांसि क्षितौ क्वचित् ।

नैव वर्षति पर्जन्यः क्षीणतोयाभवत् क्षितिः ।। १२८ ।।

पृथ्वी पर कहीं न तो दान धर्मादि होता है और न तपस्या ही होती है। बादल वर्षा नहीं करते हैं, जिससे पृथ्वी जलहीन हो गई है ।। १२८ ॥

क्षीणाः सर्वास्तथैौषध्यः शस्या लोकाः समाकुलाः ।

दस्युभिः पीडिता विप्रा वेदवादं न कुर्वते ।। १२९ ।।

सभी औषधियों एवं वनस्पतियों के नष्ट हो जाने पर संसार व्याकुल और दस्युपीड़ित हो गया है। अब विप्रगण वेदवाद भी नहीं करते ।। १२९ ।।

अन्नवैकल्यमासाद्य म्रियन्ते बहव: प्रजाः ।

क्षीणेषु यज्ञभागेषु भोग्यहीनास्तथा वयम् ।।१३० ।।

दुर्बलास्तु श्रियाहीना नैव शान्तिं लभामहे ।।१३१।।

अन्न के अभाव से बहुत-सी प्रजा मर गयी है तथा यज्ञभाग (हविष्य) न प्राप्त होने से हम लोग भी क्षीण, दुर्बल, शोभारहित हो, शान्ति नहीं प्राप्त कर पा रहे हैं ।। १३०-१३१ ॥

रोहिण्या मन्दिरे चन्द्रो वक्रगत्या चिरं स्थितः ।

वृषराशौ स च क्षीणो ज्योत्स्नाहीनश्च वर्तते ।। १३२ ।।

वक्रगति (दुराचरण) से चन्द्रमा सदैव रोहिणी के भवन में निवास कर रहा है। वह वृषराशि में उच्च का होते हुए भी क्षीण एवं चाँदनी से रहित हो गया है ।। १३२ ।।

यदैवान्विष्यते देवैश्चन्द्रो नैषां पुरःसरः ।

कदाचिदपि देवानां समाजे वा भवद्विधे ।। १३३ ।।

हे विधि ! जब देवताओं द्वारा खोजा जाता है तो कभी भी चन्द्रमा सामने देवताओं के समाज में नहीं आता ।। १३३ ।।

कदाचिद्रोहिणी त्यक्त्वा नैव क्वचन गच्छति ।

यद्यन्यः कोऽपि न भवेत्तदा चन्द्रो बहिर्भवेत् ।। १३४।।

वह रोहिणी को छोड़कर कभी भी, कहीं भी नहीं जाता। जब दूसरा कोई नहीं होता तभी चन्द्रमा बाहर निकलता है ।। १३४ ॥

दृश्यते स कलाहीनः कलामात्रावशेषकः ।

इति सर्वत्र लोकेश वृत्तः कर्मविपर्ययः ।। १३५।।

हे लोकेश ! वह अपनी कलाओं से हीन हो कलामात्र ही अवशिष्ट रह गया है। हे लोकेश ! इससे सर्वत्र ही कर्मों का उलटा परिणाम दिखाई दे रहा है ।। १३५ ॥

तं दृष्ट्वा कान्दिशीकास्तु वयं त्वां शरणं गताः ।

पातालाद्यावदुत्थाय कालकञ्जादयोऽसुराः ।

नास्मान् लोकेश बाधन्ते तावन्नस्त्राहि साध्वसात् ।। १३६ ।।

अयं प्रवर्तते कस्माज्जगतां वा व्यतिक्रमः ।

न जानीमस्तु तत्सर्वं विप्लवे वापि काणम् ।।१३७।।

उसे ही दख कर हम सब कान्तिशीक् (दिशाहीन) हो आपकी शरण में आये हैं। कालकन्जादि असुर जब तक पाताल से उठकर हमलोगों को बाधा न पहुँचायें तब तक आप विपत्ति से हमारी रक्षा कीजिये । संसार में ऐसा व्यतिक्रम क्यों हुआ? या इस विप्लव का क्या कारण है? वह सब हम नहीं जानते ।। १३६-१३७ ।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

एतत् सुराणां वचनं दिव्यदर्शी पितामहः ।

श्रुत्वा क्षणमभिध्यायन् निजगाद सुरोत्तमान् ।। १३८।।

मार्कण्डेय बोले- दिव्यदर्शी पितामह ब्रह्मा देवताओं के इन वचनों को सुनकर क्षण भर ध्यान किये तत्पश्चात् देवश्रेष्ठों से बोले - ॥ १३८ ।।

।। ब्रह्मोवाच ।।

शृण्वन्तु देवताः सर्वा यदर्थं लोकविप्लवः ।

प्रवर्ततेऽधुना येन शान्तिस्तस्य भविष्यति ।।१३९ ।।

ब्रह्मा बोले- जिसलिए इस समय लोक में विप्लव हो रहा है और जिस उपाय से इसकी शान्ति होगी, उसे सभी देवता सुनें ।। १३९ ।।

सोमो दाक्षायणीः कन्याः सप्तविंशतिसङ्ख्यकाः ।

अश्विन्याद्या वरबधूर्भार्यार्थे परिणीतवान् ।। १४० ।।

सोम (चन्द्रमा) ने दक्ष की प्रजापति की अश्विनी आदि सत्ताइस कन्याओं से वर-वधू सम्बन्ध से पत्नी के रूप में परिणय किया ।। १४०॥

परिणीय स ताः सर्वा रोहिण्यां सततं विधुः ।

प्रावर्ततानुरागेण न समस्तासु वर्तते ।। १४१ ।।

उन सबसे विवाह करके भी निरन्तर वह चन्द्रमा रोहिणी के ही साथ अनुराग से प्रवर्तन करता है, सबके साथ नहीं करता ।। १४१ ।।

अश्विन्याद्यास्तु ताः सर्वा दौर्भाग्यज्वरपीडिताः ।

षड्विंशतिर्वरारोहाः पितरं प्रस्थिताः स्वकम् ।।१४२।।

प्रवर्तते निशानाथो रोहिण्यां रागतो यथा ।

तथा न तासु भजते तद्दक्षाय न्यवेदयन् ।। १४३।।

उस समय अश्विनी आदि छब्बीस सुन्दरियाँ, दुर्भाग्य के ज्वर से पीड़ित हो अपने पिता दक्ष के पास पहुँची। उनसे निवेदन किया कि चन्द्रमा रोहिणी ही के साथ रागपूर्ण व्यवहार करते हैं, उनका उपभोग नहीं करते ।। १४२-१४३ ।।

ततो दक्षो महाबुद्धिः साम्ना संस्तूय विट्पतिम् ।

बहुसुनृतमाभाष्य पुत्र्यर्थे चान्वरोधत ।। १४४ ।।

तब महाबुद्धिमान् दक्ष प्रजापति ने सामनीति द्वारा अपने दामाद चन्द्रमा की स्तुति करते हुए बहुत-सी उपयुक्त बातें करके अपनी कन्याओं के लिए उनसे अनुरोध किया ।। १४४ ।।

अनुरुद्धो यथाकामं दक्षेण सुमहात्मना ।

समं प्रवर्तितुं तासु समयं कृतवान् विधुः ।। १४५ ।।

चन्द्रमा ने महात्मा दक्ष द्वारा उन कन्याओं के साथ समान व्यवहार करने के लिए यथेच्छ अनुरोध किये जाने पर, वैसा करने का वचन दिया ।। १४५ ॥

सममङ्गीकृते भावं तासु कर्तुं हिमांशुना ।

स्वं जगाम ततः स्थानं दक्षोऽपि मुनिसत्तमः ।। १४६।।

तब मुनियों में श्रेष्ठ दक्ष भी चन्द्रमा द्वारा उन कन्याओं के प्रति उचित व्यवहार स्वीकार कर लेने पर अपने स्थान को चले गये ।। १४६ ।।

गते दक्षे मुनिश्रेष्ठे वैषम्यं तासु चन्द्रमाः ।

जहौ न भावं ताः शश्वत् कुपिताः पितरं गताः ।। १४७ ।।

मुनि श्रेष्ठ दक्ष के चले जाने पर चन्द्रमा ने उन पत्नियों के प्रति विषमता का भाव नहीं छोड़ा। तब वे सदा के लिए क्रोधित होकर पिता के पास चली गयीं ।।१४७ ॥

ततो दक्षः पुनश्चन्द्रमनुरुध्य सुतान्तरे ।

समां वृत्तिं प्रतिश्राव्य वचनं चेदमब्रवीत् ।। १४८।।

तब दक्ष ने कन्याओं के प्रति समान व्यवहार की आशा में चन्द्रमा से पुनः अनुरोध करते हुए ध्यान देने योग्य ये वचन कहे - ॥ १४८ ॥

न समं वर्तते चन्द्र सर्वास्वासु भवान् यदि ।

तदा शप्स्ये त्वहं तुभ्यं तस्मात् कुरु समंजसम् ।।१४९ ।।

हे चन्द्र ! यदि आप सबों के प्रति समान व्यवहार नहीं करोगे, तब मैं तुम्हें शाप दूँगा । इसलिए तुम समानता का व्यवहार करो ।। १४९ ।।

ततो गते पुनर्दक्षे न समं वर्तते यदा ।

तासु चन्द्रस्तदा दक्षं पुनर्गत्वाश्रुवन् रुषा ।। १५० ।।

दक्ष के चले जाने के बाद जब चन्द्रमा ने पुनः उनके प्रति समान व्यवहार नहीं किया तब उन्होंने क्रोधपूर्वक दक्ष से पुनः कहा- ॥ १५० ॥

न ते वचः सत्कुरुते नैवास्मासु प्रवर्तते ।

वयं तपश्चरिष्यामः स्थास्यामश्च तवान्तिके ।। १५१ ।।

न वे आपके वचनों का सम्मान करते हैं न हमारे साथ प्रवृत्त होते हैं। इसलिए हम सब आपके ही पास रहकर तपस्या करेंगी ।। १५१ ।।

तासामिति वचः श्रुत्वा कुपितः स महामुनिः ।

क्षयाय चन्द्रस्य पुनः शापायोत्सुकतां गतः ।। १५२ ।।

उन कन्याओं के इस वचन को सुनकर वे महामुनि दक्ष क्रोधित हो, चन्द्रमा को क्षय हेतु शाप देने को उद्यत हो गये ।। १५२ ॥

शापायोद्युक्तमनसः कुपितस्य महामुने ।

क्षयो नाम महारोगो नासिकाग्राद्विनिर्गतः ।। १५३ ।।

शाप के लिए उद्यत मन वाले क्रोधित उस महामुनि की नासिका से उस समय क्षय नामक महान रोग निकला ।। १५३ ।।

प्रेषितः स च चन्द्राय दक्षेण मुनिना ततः ।

प्रविष्टश्च ततो देहे क्षयितस्तेन चन्द्रमाः ।। १५४ ।।

तब मुनिवर दक्ष द्वारा वह चन्द्रमा के लिए भेज दिया गया और उसके शरीर में प्रविष्ट हो जाने पर उसके कारण चन्द्रमा क्षय को प्राप्त हुए ।। १५४ ॥

क्षीणे चन्द्रे क्षयं याता ज्योत्स्नास्तस्य महात्मनः ।

क्षीणासु सर्वज्योत्स्नासु सर्वौषध्यः क्षयं गताः ।। १५५ ।।

चन्द्रमा के क्षीण होने पर उस महात्मा की चाँदनी भी क्षय को प्राप्त हुई । सम्पूर्ण ज्योत्स्ना के क्षीण हो जाने पर सभी औषधियाँ (वनस्पतियाँ) भी क्षय को प्राप्त हुई ।। १५५ ।।

औषध्यभावाल्लोकेऽस्मिन् न यज्ञः सम्प्रवर्तते ।

यज्ञाभावादनावृष्टिस्ततः सर्वप्रजाक्षयः ।। १५६ ।।

औषधि के अभाव में इस लोक में यज्ञ नहीं हो रहा है। यज्ञ के अभाव से अनावृष्टि हो गई है । जिससे सारी प्रजा का नाश हो गया ।। १५६ ।।

यज्ञभागोपभोगेन हीनानां भवतां तथा ।

दुर्बलत्वं समुत्पन्नं विकारश्च स्वगोचरे ।। १५७।।

यज्ञभाग (हविष्य) के उपभोग की हीनता से आपलोगों में दुर्बलता तथा इन्द्रिय विकार उत्पन्न हुए ।। १५७ ॥

इति वः कथितं सर्वं यथाभूल्लोकविप्लवः ।

येनोपायेन तच्छान्तिस्तच्छृण्वन्तु सुरोत्तमाः ।। १५८।।

जिस प्रकार लोक में उलटफेर हुआ था, वह सब मैंने आप लोगों से कहा । हे देव श्रेष्ठों ! जिस उपाय से उसकी शान्ति होगी, उसे सुनो ॥ १५८ ॥

।। इति श्रीकालिकापुराणे चन्द्रस्यशापवर्णनन्नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥

कालिका पुराण अध्याय २० - संक्षिप्त कथानक

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- इसके अनन्तर उस श्रेष्ठ पर्वत की ओर गमन की गयी संध्या को देखकर जो कि तपश्चर्या करने के लिए नियत आत्मावाली थी, ब्रह्माजी ने अपने सुत से कहा था । वह पुत्र वशिष्ठ मुनि थे । वशिष्ठ संशित आत्मावाले, सब कुछ ज्ञान रखने वाले, ज्ञानयोगी, समीप में ही सुसमासीन और वेदों तथा वेदों के अंग शास्त्रों में पारगामी थे ।

ब्रह्माजी ने कहा- हे वशिष्ठ! आप जाइए जहाँ पर मनस्विनी सन्ध्या ने गमन किया है। वह संध्या तपस्या करने के लिए इच्छा रखने वाली हैं। आप जाकर इसको विधि के अनुसार दीक्षा दीजिए । पहले यहाँ पर कामुकों को देखकर उसको लज्जा हो गयी थी । हे मुनिश्रेष्ठ! उसने आपको, मुझको और अपने आपको सकाम ही देखा था अर्थात् सभी के अन्दर कामवासना का अवलोकन किया था । पूर्व में होने वाले आयुक्त रूप ने संयुत कर्म को विचार करके वह हमारे और अपने भी प्राणों का भली-भाँति परित्याग करने की इच्छा करती है । इस प्रकार से जो मर्यादा से रहित पुरुष हैं उनमें वह तपश्चर्या के द्वारा ही मर्यादा की स्थापना करेगी। वह साध्वी तपस्या करने के लिए ही इस समय चन्द्रभाग पर्वत पर गई है । हे तात! वह तपस्या के किसी भी भाव को नहीं जानती है इस कारण से वह जिस प्रकार से उपदेश को प्राप्त कर लेवे आप वैसा ही करिए ।

आप भी अपने इस वर्तमान रूप का परित्याग करके अन्य रूप धारण करके उसके समीप में तपश्चर्या का निर्देश कीजिए। आपके इस स्वरूप को देखकर पूर्व में जैसे वह लज्जा को प्राप्त हुई थी उसी भाँति अब लज्जा को पाकर आपके आगे वह कुछ भी नहीं कहेगी। आप अपने रूप का त्याग करके ही अन्य रूप वाले बन जावें । फिर उस महाभाग वाली सन्ध्या के लिए उपदेश देने को गमन करें।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा-' - 'ऐसा ही होगा', यह कहकर वशिष्ठ भी जटाधारी ब्रह्मचारी बन गये जो एकदम तरुण था । मुनि वशिष्ठ चन्द्रभाग पर्वत पर उस संध्या के समीप में गये थे वहाँ पर देवसर ऐसे परिपूर्ण था जैसे गुण में मानसरोवर ही होवे । इसके उपरान्त उस वशिष्ठ मुनि ने इस सरोवर के तट पर गमन करती हुई उस सन्ध्या को देखा था । वह कमलों से समुज्जवल सरोवर तट पर समवस्थित उसके द्वारा उसी भाँति शोभयमान हो रहा था जैसे प्रदोष के समय उगे हुए चन्द्रमा और नक्षत्रों से युक्त आकाश शोभित होता है । वहां पर उसको देखकर कौतुक के सहित मुनि ने सम्भाषण किया था । वहाँ पर मुनि ने वृहल्लोहित नाम वाला सरोवर भी देखा था ।

उस सरोवर से चन्द्रभागा नदी दक्षिण सागर को जाती हुई थी जो उस पर्वत के महान शिखर का भेदन करके ही जा रही थी। वह नदी चन्द्रभागा पश्चिम शिखर का भेदन करके ही वहन कर रही थी जैसे हिमवान् पर्वत से गंगा सागर को गमन करती है।

ऋषियों ने कहा- हे विपेन्द्र! चन्द्रभागा उस महागिरि में कैसे समुत्पन्न हुई थी । वह सर भी कैसा था जिसका नाम वृहल्लोहित है । वह चन्द्रभाग नाम वाला पर्वत पर्वतों में श्रेष्ठ कैसे हुआ था और चन्द्रभागा नाम वाली वृषोदका नदी किससे उत्पन्न हुई थी? इस सबके श्रवण करने की इच्छा होते हुए हमारे हृदय में बड़ा भारी कौतुक है । हम चन्द्रभागा का महात्म्य तथा गिरि केसार का महत्व भी सुनना चाहते हैं ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- हे मुनिसत्तमों ! अब आप लोग चन्द्रभागा की उत्पत्ति और चन्द्रभागा का महात्म्य तथा नामकरण भी श्रवण कीजिए। हिमवान् पर्वत से संयुक्त अर्थात् लगा हुआ, सौ योजन के विस्तार वाला और तीस योजन आयाम अर्थात् चौड़ाई वाला एक कुन्द तथा इन्दु के समान धवल श्वेत गिरि है ।

उस पर्वत का पहले विधाता ने शुद्ध सुधा के निधि चन्द्रमा को विभाग करके उसे पितामह देवान्न कल्पित किया था । कमल के आसन वाले ब्रह्माजी ने उसी भाँति पितृगण के लिए तिथियों की क्षीणता व वृद्धि के स्वरूप वाला जगत के हित सम्पादन के लिए कल्पित किया था । हे द्विज श्रेष्ठो ! उस जीमूत में चन्द्रमा विभक्त किया गया था । इसीलिए देवों ने पहले समय में उस गिरि को नाम से चन्द्रभाग किया था ।

ऋषियों ने कहा-यज्ञों के भागों में स्थित रहने पर तथा क्षीरसागर से समुत्पन्न अमृत के रहने पर कमलासन (ब्रह्मा) ने किसलिए चन्द्र का देवान्न किया था ? उसी भाँति क्रम के रहते हुए किस कारण से पितृगण के लिए उसे कल्पित किया गया था ? हे ब्रह्मन् ! यह हमको बड़ा संशय हो रहा है । उसको आप हमको सूर्य की ही भाँति छेदन करिए । द्विजोत्तम! आपके अतिरिक्त अन्य कोई भी इसका छेदन करने वाला नहीं है ।

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- प्राचीन समय में प्रजापति दक्ष के परमसुन्दरी सत्ताईस अश्विनी आदि अपनी पुत्रियों को सोम के लिए प्रदान की थीं। उन समस्तों को ही विधि के साथ सोम ने अपने साथ विवाह लिया था । उस समय में दक्ष के अनुमत में वह सोम सबको अपने स्थान में ले गया। इसके अनन्तर चन्द्र उन समस्त कन्याओं में राग से रोहिणी के ही साथ निवास करता था और रसोत्स व कला आदि के द्वारा रमण किया करता था । वह सोम केवल रोहिणी का ही सेवन किया करता था और रोहिणी के साथ ही आनन्द मनाया करता था। रोहिणी के  बिना सोम कुछ भी शान्ति की प्राप्ति नहीं किया करता था । रोहिणी ही परायण रहने वाले चन्द्र को देखकर वह सब कन्याएं अनेक प्रकार के उपचारों के द्वारा चन्द्रमा की सेवा करने लगी थीं । प्रतिदिन उनके द्वारा निषेवित होते हुए भी चन्द्र ने उनमें कुछ भी भाव नहीं किया था तो उस समन में वे सब अमर्ष के वश में समागत हो गयी थीं। इसके अनन्तर उत्तराफाल्गुनी नाम वाली, भरणी, कृत्तिका, आर्द्रा, मघा, विशाखा, उत्तराभाद्रपद, ज्येष्ठा और उत्तराषाढ़ा ये नौ बहुत ही अधिक कुपित हो गयी थीं। वे सब चन्द्र के समीप जाकर चारों ओर से कहने लगी थीं ।

निशानाथ को परिवृत करके फिर उन्होंने रोहिणी को देखा था जो उस चन्द्रमा के वाम अंक में स्थित थी और उसके द्वारा अपने मण्डल में रमण करने वाली थी। उन सबने उस वर्णिनी रोहिणी को उस प्रकार की देखकर वे सब हवि से हुताशन की भी भाँति क्रोध से अत्यधिक जल गयी थीं। इसके अनन्तर जिसके तीन पूर्व में है ऐसी पुनर्वसु, पुष्य और आश्लेषा के सहित मघा, भरणी और कृत्तिका ने चन्द्र की गोद में स्थित महाभागा रोहिणी को हठ से पकड़कर ग्रहण कर लिया और वे अतीव कुपित होती हुई रोहिणी के प्रति कठोर वचन कहने लगी थीं । हे पुरी बुद्धि वाली ! तेरे जीवित रहते हुए चन्द्र हम लोगों में बिल्कुल भी अनुराग नहीं करता। जब भी किसी समय में यह चन्द्र सुरत में उत्सुक होकर समुपस्थित होगा तभी बहुतों के क्षेम की वृद्धि के लिए हम उस दुष्ट बुद्धि वाली का हनन कर देंगी । तुझको मारकर हमको कुछ भी पाप नहीं होगा क्योंकि तू बहुत सी स्त्रियों के प्रजनन का हनन करने वाली तथा बिना ही ऋतुकाल के पाप करने वाली है । जिस अर्थ के विषय में पहले ब्रह्माजी ने अपने पुत्र के प्रति कहा था। नीति शास्त्र के उपदेश के लिए वह निश्चय ही हमारा सुना हुआ है ।

दोषयुक्त कर्म करने वाले किसी एक दुष्ट के जहाँ पर प्रवृत्त हो जाने से यदि बहुतों का क्षेम होता है तो उसका वध पुण्य ही प्रदान करने वाला हुआ करता है वहाँ किसी भी पाप के होने का तो प्रश्न ही नहीं होता है । जो स्वर्ण की चोरी करने वाला है, जो मदिरा का पान करने वाला है, जो ब्राह्मण की हत्या करने वाला है, जो गुरुपत्नी के साथ संगम करने वाला है और जो अपने आपका घात करने वाला हो, इन सबका वध करना पुण्य ही प्रदान करने वाला होता है।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- उन सबके इस प्रकार के अभिप्राय को समझकर और कर्म को देखकर तथा भय से डरी हुई रोहिणी को देखकर जो उसकी अत्यधिक प्रिय और मन को रमण करने वाली परम सुन्दरी थी, उस सबसे सम्भोग को न करने से उत्पन्न क्षोभ व अपने आपको अपराधी सोचकर उस डरी हुई रोहिणी को उनके हाथ से मोचन कर दिया था अर्थात् छुड़ा लिया था । उस चन्द्र ने रोहिणी को छुड़ाकर अपनी दोनों बाहुओं से उसका (रोहिणी) भली-भाँति आलिंगन करके उस चन्द्र ने जो कृत्तिका आदि भामनियाँ थी उस सबका धारण कर दिया था । इस भाँति इन्दु का धारण करती हुई कृत्तिका आदि से लेकर मघा से अन्त तक भामिनियों ने उस रोहिणी को देखती हुई को मनस्विनियों से साम्य वचन कहे थे । हे निशानाथ ! हम सबका निरसन करने वाले आपको न तो कुछ लज्जा ही है और न पाप से कोई डर ही है। आप तो एक प्राकृत अर्थात् साधारण जन की ही भाँति बरताव कर रहे हैं ।

हम सब चारित्र व्रत के धारण करने वाली है अर्थात् हमारे अन्दर चरित्र सम्बन्धी कोई भी दोष नहीं है फिर ऐसी हम सबका निराकरण करके जो सर्वदा ही आपकी भक्ति करने वाली है फिर क्यों आप मूढ़ मानव की भाँति इस एक ही रोहिणी का सदा सेवन किया करते हैं अर्थात् इसी से प्रणयानुराग करते हैं ? क्या आपको धर्म का ज्ञान नहीं हुआ है जो पहले वेदों के मूल वाला सुना गया है जो कि आप तत्पुरुषों के द्वारा निन्दित और धर्म से हीन कर्म को आप कर रहे हैं ? धर्मशास्त्र के अर्थ को गमन करने वाले कर्म को यथोचित रीति से करने वाली और उद्वाहित अर्थात् ब्याही हुई पिता का आप केवल मुख भी नहीं देखते हैं । हे निशापते! पूर्व में कहते हुए पिता के मुख से नारद के लिए जो सुना है उस दक्ष प्रजापति के धर्म-शास्त्र के अर्थ का आप श्रवण कीजिए । जो पुरुष बहुत सी दाराओं वाला हो और राग के वशीभूत होकर उनमें से किसी भी एक ही स्त्री का सेवन किया करता है वह पाप का भागी होता है और स्त्री के द्वारा जित भी हुआ करता है तथा उसका अशौच सनातन अर्थात् सर्वदा ही बने रहना वाला हुआ करता है । हे विधो! स्त्रियों को जो स्वाम्य सम्भोगज दुःख हुआ करता है उस दुःख के समान अन्य कोई भी दुःख नहीं हुआ करता है। जो पुरुष परम सती और ऋतुकाल वाली पत्नी का संग नहीं किया करता है, ऋतुकाल के शुद्ध होने पर भी उसके संग से रहित होता है, वह भ्रूण ही होता है। भ्रूण गर्भ में रहने वाले शिशु को कहते हैं ।

जितने समय तक भार्या आत्रेयी होती है उतने ही समय पर्यन्त निबोधन है । उस भार्या संग में कुछ विहित का आचरण न करना चाहिए। बहुत-सी भार्याओं वाले पुरुष का जो ऋतुकाल के मैथुन का विनाश है वह शास्त्र के द्वारा भी कथित कुछ भी कर्म नहीं होता है ।

विधि के साथ विवाहित भार्याओं का निरन्तर तोष करना चाहिए । अन्य प्रकार से कल्याण करने वाले पुरुष का भी उन भार्याओं की तुष्टि से कल्याण होता है। भार्या के द्वारा तो भर्ता सन्तुष्ट हो और भर्ता के द्वारा भार्या संतुष्ट होवे, जिस कुल में यह नित्य ही होता है वहाँ पर निश्चित रूप से ही कल्याण रहा करता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है । सौभाग्य के मद से अहंकार वाली जिस पत्नी के द्वारा सपत्नी का संगम करने के लिए भर्ता का विरोध किया जाया करता है वह स्त्री दूसरे जन्म में वैश्या हुआ करती है और उसको अधर्म भी होता है । ऐसी स्त्री का तथा पिता का कुल दोनों ही प्रसन्न नहीं हुआ करते हैं । पति के विरुद्ध मान होने पर जो सपत्नी के साथ प्रवृत्त होता है उस अकल्याण करने वाले दोनों को ही अधिक दुःख हुआ करता है ।

मार्कण्डेय ऋषि ने कहा- इस रीति से उनके द्वारा बहुत अधिक कठोर वचन कहने पर चन्द्रमा रोहिणी के मुख की कान्ति को मलिन देखकर बहुत ही अधिक कुपित हुए थे। उस समय में रोहिणी ने भी उन सबकी उग्रता को बारम्बार देखकर वह भी भय, शोक और लज्जा से समाकुल होकर कुछ भी नहीं बोली थी। इसके अनन्तर परमाधिक क्रोधी हुए चन्द्र ने उसी समय में उन सब स्त्रियों को शाप दिया था क्योंकि तुम सबने मेरे ही आगे अतीव उग्र और तीक्ष्ण वचन कहे हैं । इन तीनों भुवनों में कृत्तिका आदि आपकी उग्र और तीक्ष्ण यही गति देवगणों में भी प्राप्त करोगी। इस कारण से ये नौ कृत्तिका प्रभृत्ति दिन यात्रा में उपयुक्त नहीं होगी। तुम सबको देवी देव आदि और क्षिति में मनुष्य आदि देखते हैं तो उसी दोष से यात्रा में उन पुरुषों की यात्रा अभीष्ट के प्रदान करने वाली नहीं हुआ करती है । इसके उपरान्त उन सबों ने उसके अति दारुणी शाप को सुनकर इस शाप के देने से चन्द्रमा के हृदय को बहुत ही अधिक निष्ठुर जान लिया था ।

उस समय वे सब अति कुपित होकर दक्ष प्रजापति के भवन को चली गयी थीं और वहां पर अश्विनी आदि ने अपने पिता दक्ष से कहा था- सोम हमारे साथ निवास नहीं करते हैं और वे सदा ही एक रोहिणी का ही सेवन किया करते हैं। हम लोग सभी उनकी सेवा भी करती हैं तो भी वे पराई वधू की ही भाँति हम से अनुराग न करके हमारा सेवन नहीं किया करते हैं। अवस्थान में, अवसान में तथा भोजन में और श्रवण करने में चन्द्रदेव रोहिणी के साथ निवास करते हुए समीप में आपकी इन पुत्रियों को देखकर रोहिणी के बिना कोई भी शान्ति की प्राप्ति नहीं किया करते हैं। वह अन्य स्थान में गमन करती हुई को देखकर नयन का आधान करके नहीं देखा करते हैं । इस वस्तु में जो भी कुछ करना चाहिए वह हमारे द्वारा चन्द्र अनिरुद्ध हुए हैं उस समय उसने हमारे लिए तीव्र शाप किया था । चन्द्रदेव ने कहा था कि आप लोग अत्यन्त दारुण और तीक्ष्ण होती हुई शोक में वाच्यत्व को प्राप्त करके बिना यात्रा वाली हो जाओगी ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- उस प्रजापति दक्ष ने अपनी पुत्रियों का वाक्य सुनकर और उनको ही साथ में लेकर उसी स्थान पर गये थे जहाँ चन्द्रदेव रोहिणी के साथ उस समय में वर्त्तमान थे । चन्द्रमा दूर से आते हुए दक्ष को देखकर अपने आसन से उठ खड़े हुए थे और समीप जाकर उन महामुनि के लिए प्रणिपात किया था। इसके अनन्तर उस समय अपने आसन को ग्रहण करके दक्ष प्रजापति ने भली भाँति वन्दना करने वाले चन्द्रमा से सामपूर्वक यह कहा था- आप अपनी भार्याओं से समानता का ही व्यवहार करिए और विषम व्यवहार का परित्याग कर दीजिए । विषमता में ब्रह्माजी ने बहुत से दोष परीकीर्त्तित किये हैं । दाराओं में काम के अनुबन्धन से वे दारारति और पुत्र की कला वाली होती हैं । काम का अनुबन्धन संसर्ग से ही होता है और वह ससर्ग संगम से हुआ करता है और संगम अभिध्यान और वीक्षण से समुत्पन्न होता है इस कारण से आप भार्याओं में अभिध्यान और वीक्षण आदि करिए। यदि इस मेरे धर्म से नियन्त्रित वचन को आप नहीं करते हैं तो उस समय में आप लोक के वचनों से दोषयुक्त और पाप वाले हो जायेंगे ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- महात्मा दक्ष के उस वचन का श्रवण करके चन्द्रदेव ने भी 'ऐसा ही होगा'- यह दक्ष की शंका से कह दिया था । इसके अनन्तर दक्ष प्रजापति ने अपनी पुत्रियों को तथा जामाता इंद्र को अनुमन्त्रित करके उस समय में वह मुनिकृतकृत्य होकर अपने आश्रम को चले गये थे । दक्ष के चले जाने पर फिर चन्द्रमा ने उस रोहिणी के पास प्राप्त होकर उसमें और उन शेष पत्नियों से पूर्व जैसा ही भाव ग्रहण किया था क्योंकि रोहिणी में उसका अनुराग था । वहीं पर रोहिणी को प्राप्त करके अन्य किसी को भी वह नहीं देखता था । वह सर्वदा रोहिणी ही में निवास किया करता था । फिर वे सब कुपित हो गई थीं । वे सब अपने दुर्भाग्य के कारण उद्विग्न मन वाली होती हुई पिता के समीप में जाकर उन्होंने कहा था कि सोमदेव हम लोगों में निवास न करते हैं और वे सदा ही रोहिणी का सेवन किया करते हैं । उसने अपने वाक्य को भी ग्रहण नहीं किया । अतएव आप हमारे रक्षक होओ। उसी क्षण में मुनि उस उद्वेग और क्रोध से संयुत होकर उठ खड़े हुए थे और मन में विधु के समीप में जाकर क्या करना है इसका ध्यान करते जा रहे थे ।

उस समय प्रजापति दक्ष चन्द्र के समीप में पहुँचकर यह वचन उन्होंने चन्द्रदेव से कहा था कि अपनी भार्याओं में समानता का ही व्यवहार करिए तथा उनके प्रति जो भी कुछ विषमता की भावना होवे उसका आप अब परित्याग कर दीजिए। यदि आप हमारे वचनों को मूर्खता से नहीं समझते हैं तो हे निशापते! मैं धर्मशास्त्र के अतिक्रमण करने वाले आपके लिए शाप दे दूंगा।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- इसके अनन्तर चन्द्रदेव ने उस प्रजापति के सामने वैसा ही करने के लिए स्वीकार किया था क्योंकि उनको दक्ष से अत्यधिक भय था । 'इसी प्रकार से किया जायेगा। ऐसा पुनः स्वीकार कर लिया था । फिर अपनी भार्याओं में विषय में समान ही व्यवहार करने के लिए चन्द्र के द्वारा अंगीकार किये जाने पर दक्ष चन्द्र से सहमत होकर अपने स्थान को चले गये थे । दक्ष के गमन करने पर निशानाथ चन्द्र फिर अत्यधिक रूप से रोहिणी के ही साथ में रमण करता हुआ उसने उस प्रजापति दक्ष के वचन को भुला ही दिया था कि मैं सब भार्याओं में एक सा व्यवहार करूँगा। वे अश्विनी आदि सभी मनोरमा उनकी सेवा करने वाली हुई थीं किन्तु चन्द्र उनका कभी सेवन नहीं किया था और वह केवल उन सबकी अवज्ञा ही किया करता था । वे चन्द्रदेव के द्वारा अवज्ञासंयुत होकर अपने पिता के समीप जाकर आर्त्तस्वर में अत्यंत आर्त्त होकर रुदन करती हुई अपने पिता से यह बोली थीं ।

उन्होंने कहा था कि- हे मुनिश्रेष्ठ! आपके वचन को भी सोमदेव ने नहीं किया है और वह तो अब पहले से भी अधिक हमारे विषय में अवज्ञा किया करते हैं। सोम के द्वारा हमारे विषय में जो भी करना चाहिए वह कुछ भी नहीं होता है । अतएव अब हम तो सब तपस्विनी हो जायेंगी । आप हमको वही निर्देश कीजिए। तपस्या के द्वारा अपनी आत्माओं का शोधन करके हम अपना जीवन ही त्याग देंगी । हे द्विजोत्तमो ! आप ही विचार कीजिए कि ऐसी दुर्भाग्यशालिनी हमको जीवन रखने से क्या लाभ है।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा-फिर यह इतना कहकर वे सभी कृत्तिका प्रभृति दक्ष की पुत्रियाँ अपने करों से कपोलों का आलम्बन करके विवश होती हुई भूमि पर रूदन करने वाली थीं। अतीव दुःख से व्याकुल इन्द्रियों वाली इस प्रकार से स्थित उन सबको देखकर अत्यन्त दीन मुख वाले प्रजापति कोप से वह्नि के ही समान ज्वलित हो गये थे । इसके अनन्तर कोप से व्याप्त महात्मा दक्ष की नासिका के अग्रभाग से बहुत ही भीषण यक्ष्मा निकल पड़ा था। वह यक्ष्मा दाढ़ों से कराल मुख वाला था और कृष्ण वर्ण वाले अंगार के समान था वह बहुत ही लम्बे विशाल शरीर वाला था उसके केश बहुत ही थोड़े थे वह अतीव कृश और धमनियों से संतत था । उसका मुख तो नीचे की ओर था, उसके हाथ में एक दण्ड था, वह विश्राम करके निरन्तर कास (खाँसी) को करता जा रहा था, उसके नेत्र नीचे की ओर बैठे हुए थे तथा वह स्त्री के साथ सम्भोग करने के लिए अत्यन्त लालायित रहता था ।

उस यक्ष्मा ने दक्ष प्रजापति से कहा था- हे मुनि! मैं अब किस स्थान में स्थित रहूँगा अथवा मुझे क्या करना होगा? हे महामते ! आप मुझे यह अब बतलाइए ।

तब तो प्रजापति दक्ष ने उस यक्ष्मा से कहा था कि आप बहुत शीघ्र सोमदेव के समीप में जाइये । आप सोमदेव का भक्षण करिये और उसी सोम में स्वेच्छा से सदा संस्थित रहिए।

मार्कण्डेय ऋषि ने कहा-इसके अनन्तर महामुनि दक्ष के इस वचन को श्रवण करके वह धीरे-धीरे सोमदेव के समीप गया था और वह सोम का गद (रोग) ही था । उस समय में वह सोम के समीप में इसी भाँति प्राप्त हुआ था जैसे सर्प अपनी बाँबी में प्रवेश किया करता है। वह महागद अर्थात् विशाल रोग चन्द्रमा के हृदय में छिद्र की प्राप्ति करके प्रवेश कर गया था । उस दारुण राज्यक्ष्मा के उस सोम के हृदय में प्रविष्ट हो जाने पर चन्द्रदेव मोहित हो गये अर्थात् उनको मोह हो गया था और वह बहुत बड़े विषम तन्द्र को प्राप्त हो गया था। क्योंकि यह रोग प्रथम उत्पन्न होकर उस राजा में लीन हो गया था । हे द्विज ! इस कारण से उस रोग की लोक में 'राजयक्ष्मा' इस नाम से प्रसिद्धि हो गयी थी ।

इसके अनन्तर वह सोम (रोहिणी का पति ) उस राजयक्ष्मा नामक रोग के द्वारा अभिभूत हो गया था और वह प्रतिदिन ग्रीष्म ऋतु में क्षुप्र नदी की ही भांति क्षय रोग को प्राप्त होने लगा था। इसके अनन्तर उस चन्द्र के क्षीय माण हो जाने पर समस्त औषधियाँ क्षय को प्राप्त हो गयीं थीं । उन औषधियों के क्षय को प्राप्त हो जाने पर यज्ञ नहीं प्रवृत्त होते थे । यज्ञों का अभाव हो जाने से देवों का सब अन्य भी क्षय को प्राप्त हो गया था । तब तो सभी मेघ नष्ट हो गये थे और वृष्टि का एकदम अभाव हो गया था अर्थात फिर वर्षा नहीं हुई थी । जब वृष्टि का ही अभाव हो गया तो लोगों के व्यवहार क्षीण हो गये थे । हे द्विजोत्तमो ! दुर्भिक्ष (अकाल) और उसके कारण से होने वाले व्यसन (दुःख) से समस्त रोग हो गये थे। तब तो लोगों का दान देना और धर्म के कृत्य करना सभी कुछ लोक के लिए प्रवृत्त नहीं होता है । समस्त प्रजासत्त्व से हीन हो गयी थी और सब लोभ से उपहृत इन्द्रियों वाले हो गये थे । वे सभी प्रजायें कुकर्मों में रति रखने वाली हो गई थीं तथा सभी सागर और ग्रह भी क्षुभित हो गये थे। इसके अनन्तर जगत् को अधिक व्याकुल और दस्युओं (चोर लुटेरों) से प्रपीड़ित देखकर चन्द्र को अपना नायक बनाते हुए सब देवगण ब्रह्माजी के समीप में गये थे।

इस सृष्टि की रचना करने वाले, जगतों के स्वामी देवेश्वर ब्रह्माजी के पास पहुँचकर उन्होंने उनको प्रणाम किया तब वे सब यथोचित स्थानों पर उपविष्ट हो गये थे। लोकों के पितामह ब्रह्माजी ने सब देवों को मलिन मुख वाले देखकर जो कि ऐसे प्रतीत होते थे मानों किसी दूसरे के पराभूत हैं और अपने विषयों को अपहृत किए हुए से दिखाई पड़ रहे थे। तब तो ब्रह्माजी ने देवों के गुरु बृहस्पति इन्द्र और अग्नि को आमने सामने बिठाकर उनसे पूछा था ।

ब्रह्माजी ने कहा- हे देवगणों! आपका मैं स्वागत करता हूँ अर्थात् आपका यहाँ पर समागम परम शुभ मानता हूँ । आप लोग अब यह बतलाइये कि आप सब किस प्रयोजन को सुसम्पन्न करने के लिए यहाँ आये हैं ? मैं देख रहा हूँ कि आप सभी लोग किसी महान दुःख से उपहृत देहों वाले हैं और आप अधिक म्लीन हो रहे हैं। आप सबको बाधाओं से रहित, आतंक से हीन तथा इच्छानुसार गमन करने वाले बनाकर और अपने विषय में विन्यस्त करके आज से आप लोगों को परम दुःखित कैसे देख रहा हूँ ? जो भी कुछ आप लोगों के दुःख का बीज अर्थात् हेतु होवे अथवा जो भी कोई आप लोगों को बाधा पहुंचाता होवे वह सभी आप लोग पूर्ण रूप से मुझे बतलाइए और यही समझ लीजिए कि वह आपका कार्य सिद्ध हो ही गया है अर्थात् उसका मैं निवारण करके आपको सुख सम्पन्न ही बना दूँगा, इनमें कुछ भी संशय न समझें।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- इसके अनन्तर वृद्ध श्रवा, जीव और लोकों का भरण करने वाले कृष्णवर्मा ने उन ब्रह्माजी से देवों के दुःख का कारण बतलाया था ।

देवों ने कहा- हे जगत् की रचना करने वाले! आपके समीप में जिस कार्य के सम्पादन के लिए हम लोग समागत हुए हैं उनका आप श्रवण कीजिए जो कि हम लोगों के दुःख का बीज है और जिसके होने से हम सब लोग म्लानश्री वाले हो रहे हैं । हे पितामह! कहीं पर भी लोक में यज्ञ सम्प्रवर्तित नहीं हो रहे हैं अर्थात् कोई भी किसी जगह पर लोक में यज्ञ नहीं कर रहे हैं। समस्त प्रजा इस समय निरातंक और निराधार होकर क्षय को प्राप्त हो रही है । भूमण्डल में न तो कोई दान देता हैं और न कोई धर्म सम्बन्धी कर्म करता है, न तप है अर्थात् कोई भी तपस्या भी नहीं कर रहा है। मेघ लोक में वर्षा नहीं करते हैं, समस्त पृथ्वी क्षीण जल वाली हो गयी थी। सभी औषधियाँ क्षीण हो गयी हैं शस्य भी क्षय को प्राप्त है और लोक सभी समाकुल हैं । विप्रगण दस्युओं के द्वारा पीड़ित होते हुए वेदों के बाद में नियत नहीं हो रहे हैं । अन्न की विकलता को प्राप्त करके बहुत-सी प्रजा मर रही है। यज्ञ भोगों के क्षीण हो जाने पर हम सभी लोग भोगने के योग्य पदार्थों से हीन हो रहे हैं । हम बहुत ही दुर्बल हो गए हैं और हमारी कान्ति नष्ट हो गई है। हम कहीं पर भी शान्ति की प्राप्ति नहीं कर रहे हैं । चन्द्रदेव तो रोहिणी के ही मन्दिर में सदा वक्रगति से चिरकाल पर्यन्त स्थित रहा करते हैं और वृष राशि के वह क्षीण होकर ज्योत्सना (चाँदनी) से हीन रहते हैं। देवी के द्वारा जिस समय में भी चन्द्र का अन्वेषण किया जाता है तो वह कभी भी इनके आगे स्थिति वाला नहीं हुआ करता है। वह किसी समय में भी देवों के समाज में अथवा आप के समीप में उपस्थित नहीं हुआ करता है ।

वह किसी समय भी रोहिणी का त्याग करके कहीं पर भी गमन नहीं किया करता है । यदि कोई भी अन्य नहीं होता है तभी चन्द्र बाहर जाया करता है । वह चन्द्र समस्त कलाओं से हीन केवल एक ही कला वाला रह गया है अर्थात केवल एक ही कला उसमें शेष रह गई हैं । हे लोकों के ईश ! यही सर्वत्र लोक में कर्म का विपर्यय प्रवृत्त हो रहा है । तात्पर्य यही है कि सभी कर्म विपरीत हो रहे हैं । यह ऐसा है उसको देखकर हम सब कान्दिशीक हो रहे हैं अर्थात् किस ओर जावें, ऐसे कर्त्तव्यविमूढ़ होकर हम सब आपकी ही शरणागति में प्राप्त हुए हैं । जब तक पाताल लोक से उठकर काल कञ्जरादि असुर हे लोकेश्वर ! हमको बाधा पहुँचाते हैं तब तक आप भय से हमारी रक्षा कीजिए । यह जगतों का अतिक्रम किस कारण से हो गया है यह हम नहीं जानते हैं। इस विप्लव का क्या कारण है यह भी हम नहीं जानते हैं ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- दिव्यदर्शी पितामह ब्रह्माजी ने देवों के इस वचन का श्रवण करके एक क्षण पर्यन्त ध्यान करते हुए सुरोत्तम से कहा-

ब्रह्माजी ने कहा- हे देवताओं! जिस कारण यह लोकों का विप्लव हो रहा है उसका आप श्रवण करिए। तब ब्रह्माजी ने देवताओं से चन्द्रदेव के शापग्रस्त होने के सम्पूर्ण वृतांत को कह सुनाया ।

चन्द्रमा के क्षीण हो जाने पर महात्मा की ज्योत्सना (चाँदनी) भी क्षय को प्राप्त हो गयी थी । ज्योत्सना के क्षीण हो जाने पर समस्त औषधियाँ भी क्षय को प्राप्त हो गयी थीं । औषधियों के अभाव से ही इस लोक में यज्ञों की सम्प्रवृत्ति नहीं हुआ करती है। यज्ञों के न होने ही से वृष्टि का अभाव हो रहा है और समस्त प्रजाओं का क्षय हो रहा है। यज्ञ के भागों के उपयोग से हीन आप लोगों की दुर्बलता समुत्पन्न हो गई और स्वगोचर से विकार हो  गया है। यही सम्पूर्ण हमने आपको बतला दिया है जिस रीति से लोकों में विप्लव हो रहा है । हे सुरोत्तमों ! अब यह भी आप लोग श्रवण कर लीजिए कि जिस उपाय से इस विप्लव की शान्ति होगी ।

॥ चन्द्रशापवर्णन नामक बीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २० ॥

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 21

Post a Comment

0 Comments