कालिका पुराण अध्याय १९

कालिका पुराण अध्याय १९

कालिका पुराण अध्याय १९ में शिवसंताप निवारण हेतु ब्रह्मा प्रबोधन करने हेतु शिव को शिप्रा सरोवर पर ले जाते है जहाँ से शिप्रा नदी का प्राकट्य हुआ है । यहीं शिप्रा उत्पत्तिप्रसङ्ग में अरुन्धती के विवाह से उत्पन्न जल का उल्लेख हुआ है । यहीं से कथाप्रवाह अरुन्धती की पूर्वजन्म की तपस्या एवं उसके चरित की ओर मुड़ता है । क्योंकि चन्द्रभागपर्वत पर सन्ध्या ने तपस्या आरम्भ की थी।

कालिका पुराण अध्याय १९

कालिकापुराणम् एकोनविंशोऽध्यायः सन्ध्यातपश्चरणम्

कालिका पुराण अध्याय १९     

Kalika puran chapter 19

कालिकापुराण उन्नीसवाँ अध्याय – संध्या तपश्चर्या वर्णन

अथ कालिका पुराण अध्याय १९   

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

ततस्तां पतितां दृष्ट्वा तदा दाक्षायणीं स्मरन् ।

न शशाक हवै सोढुं शोकमुद्वेगसम्भवम् ।।१।।

भ्रष्टधैर्यस्ततः शम्भुर्वाष्पव्याकुललोचनः ।

पश्यतां सर्वदेवानां चिन्ताध्यानपरोऽभवत् ।।२।।

तब शिव ने उस मूर्छित हो भूमि पर गिरी हुई विजया को देखा और दक्ष-कन्या सती का स्मरण करते हुए शोक के उद्वेग को सह न सके। आँसुओं से उनके नेत्र भर गये तथा धैर्य नष्ट हो गया। तब वे देवताओं के देखते ही देखते चिन्ता या ध्यान में लीन हो गये ॥ १-२ ॥

अथाश्वास्य तदा धाता विजयां शोककर्षिताम् ।

हरमाश्वासयन् सान्त्वपूर्वमेतदुवाच ह ॥३॥

तब ब्रह्मा ने शोक पीड़ित विजया को आश्वस्त किया तथा शिव को सान्त्वना देते और आश्वस्त करते हुये कहा - ॥३ ॥

।। ब्रह्मोवाच ।।

पुराणयोगिन् भगवन्न शोकस्तव युज्यते ।

परधानि तव ध्यानमासीत् कस्मात् स्त्रियामिह ॥४॥

ब्रह्मा बोले-हे भगवन् ! आप पुराने योगी हो। इस प्रकार शोक करना आपके योग्य नहीं है । आप का ध्यान तो सदा परमधामवासी तत्त्व में रहता था । इस समय स्त्री में क्यों लगा है ? ॥ ४ ॥

प्रभविष्णुः परः शान्तः सूक्ष्मः स्थूलतरः सदा ।

तव स्वभावश्च कथं शोकेन बहुधाकृतः ॥५॥

आप प्रभविष्णु (प्रकृष्ट पुण्यात्मा), सर्वश्रेष्ठ, शान्त, सूक्ष्म और सदैव स्थूल से भी स्थूल हैं। आज आपका यह स्वभाव शोक द्वारा क्यों छिन्न-भिन्न किया जा रहा है ? ॥ ५ ॥

निरञ्जनं ध्यानगम्यं यतीनां परात्परं निर्मलं सर्वगामि ।

मलैर्हीनं रागलोभादिभिर्यत् तत् ते रूपं त्वद्भूयों तद् गृह्ण बुद्ध्या ।।६।।

आपका रूप निरञ्जन यतियों के द्वारा ध्यानपूर्वक जाननेवाला, श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ, निर्मल, सर्वत्र गतिशील, राग लोभादि मलों से रहित है। वह आपसे उत्पन्न है, आप उसे बुद्धिपूर्वक ग्रहण करें ।। ६ ।।

शोको लोभः क्रोधमोहौ च हिंसा मानो दम्भो मदमोहप्रमोदाः ।

ईर्ष्यासूयाक्षान्तिरसत्यता च चतुर्दश ज्ञाननाशा हि दोषाः ॥७॥

क्योंकि शोक, लोभ, क्रोध, मोह, हिंसा, मान, दम्भ, मद, मोह, प्रमोद, ईर्ष्या, निन्दा, अशान्ति (असहनशीलता), असत्यता ये चौदह ज्ञान का नाश करने वाले दोष बताये गये हैं ॥ ७ ॥

ध्यानेन त्वां योगिनश्चिन्तयन्ति त्वं विष्णुरूपी जगतां विधाता ।

या ते महामोहकरी सतीति तवैव सा लोकमोहाय माया ॥८॥

योगीजन ध्यान मार्ग से आपका चिन्तन किया करते हैं । आप विष्णु रूप हो, सम्पूर्ण जगत के विधाता, निर्माता हो। ये जो आपको अत्यधिक मोह में डालने वाली सती देवी हैं, ये लोक को मोहनेवाली आपकी अपनी ही माया शक्ति हैं ॥ ८ ॥

या सर्वलोकाञ्जननेऽथ गर्भे विमोहयन्ती पूर्वदेहस्य बुद्धिम् ।

विनाश्य बाल्यं कुरुते हि जन्तो-र्विमोहयत्यद्य सा त्वं सशोकम् ।।९।।

जो जन्म के समय गर्भ में ही सभी प्राणियों की पूर्व सम्बन्धी बुद्धि को मोहग्रस्त कर लेती है, जो बाल्यावस्था का विनाश कर प्राणियों को मोहित करती है । वही आज आपको शोकाभिभूत कर रही है ।। ९ ॥

सतीसहस्राणि पुरोज्झितानि त्वया मृतानि प्रतिकल्पमेवम् ।

हिताय लोकस्य चराचरस्य पुनर्गृहीता च तथा त्वयेयम् ।।१०।।

प्रत्येक कल्पों में आपके द्वारा इस प्रकार मरी हुई हजारों सतियाँ, इसी प्रकार से पूर्ववर्ती छोड़ी गई तथा चराचर जगत के कल्याण हेतु आपके द्वारा पुनः पुनः ग्रहण की गई हैं ।। १० ॥

भवान्तरे ध्यानयोगेन पश्य सतीसहस्राणि मृतानि यानि ।

यथा तथा त्वं परिवर्जितश्च यथास्ति सा वा वृषराजकेतो ।। ११ ।।

जो हजारों सतियाँ मरी हैं उन्हें आप अपने अन्तर में ध्यान योग से देखिये । हे वृषराज को अपनी ध्वजा में धारण करने वाले ! जिस प्रकार आप अलग हुए जैसी वह सती हैं, उसे भी आप ध्यानपूर्वक देखिये ॥ ११ ॥

यतः समुत्पद्य मुहुर्भवन्तं सा प्राप्स्यतीश त्रिदशैदुरापम् ।

पुनश्चजाया यादृशी ते भवित्री तत्तत् सर्वं ध्यानयोगेन पश्य ।। १२ ॥

हे ईश ! जिससे उत्पन्न हो वह आप जैसे देव दुर्लभ व्यक्तित्व को प्राप्त करेंगी। जिस प्रकार वे पुनः आपकी पत्नी होंगी। उन सबको आप ध्यान योग से देखिये ।। १२ ।।

कालिका पुराण अध्याय १९-शिप्रा दर्शन

।। मार्कण्डेय उवाच ॥

एवं बहुविधं ब्रह्मा व्याहरत् साम शङ्करम् ।

गिरिराजपुरात्तस्माद्गमयामास निर्जनम् ।।१३।।

इस प्रकार बहुत विधियों से ब्रह्मा ने शिव को ढाँढ़स बँधाया । तदन्तर वे (शिव) गिरिराज हिमालय नगर से निर्जन वन में चले गये ॥ १३ ॥

ततो हिमवतः प्रस्थे प्रतीच्यां तत्पुरस्य च ।

शिप्रं नाम सरः पूर्णं ददृशुर्दुहिणादयः ।। १४ ॥

तब हिमालय के शिखर पर उनके नगर से पश्चिम की ओर शिप्र नामक परिपूर्ण सरोवर को ब्रह्मादि देवताओं ने देखा ॥ १४ ॥

तद्रहस्थानमासाद्य ब्रह्मशक्रादयः सुराः ।

उपविष्टा यथान्यायं पुरस्कृत्य महेश्वरम् ।।१५।।

उस एकान्त स्थान पर पहुँचकर, महेश्वर को आगे करके ब्रह्मा, इन्द्रादि देवता न्यायानुकूल यथाक्रम बैठ गये ।। १५ ।।

तं शिप्रसंज्ञं कासारं मनोज्ञं सर्वदेहिनाम् ।

शीतामलजलं सर्वैर्गुणैर्मानससम्मितम् ।

दृष्ट्वा क्षणं हरस्तस्मिन् सोत्सुकोऽभूदवेक्षणे ।। १६ ।।

सभी प्राणियों को सुन्दर लगने वाले, शीतल निर्मल जल आदि सभी गुणों के कारण मान सरोवर के समान श्रेष्ठ शिघ्र नामक सरोवर को देखकर शिव उसे देखने के लिए समुत्सुक हुये ॥ १६ ॥

शिप्रां नाम नदीं तस्मान्निः सृतां दक्षिणोदधिम् ।

गच्छन्तीञ्च ददर्शासौ पावयन्तीं जगज्जनान् ।।१७।।

उन्होंने उससे निकल कर दक्षिण सागर को जाती हुई तथा संसार के लोगों को पवित्र करती हुई शिप्रा नामक नदी को भी देखा ॥१७॥

तत्सरः पूर्णमासाद्य चरतः शकुनान् बहून् ।

नानादेशागताञ्छम्भुर्वीक्षाञ्चक्रे मनोरमान् ।। १८ ।।

उस समय शिव ने अनेक देशों से आये हुए तथा उस भरे हुये सरोवर पर पहुँचकर विहार करते हुए बहुत से सुन्दर पक्षियों को देखा ।। १८ ।।

गम्भीरपवनोद्धतिसम्पन्नेषु विराजितः ।

कोकद्वन्द्वांस्तरङ्गेषु ददर्श नृत्यतो यथा ।।१९।

गम्भीर वायु द्वारा उछाल से युक्त तरंगों पर विराजमान हो चकवा - चकई के जोड़े जिस प्रकार नृत्य कर रहे थे, शिव ने देखा ।। १९ ।।

मद्गुचञ्चषु सम्पृक्तांस्तरङ्गान् सः पृथक् पृथक् ।

वीक्षाञ्चक्रे यथा तोयादुत्पतत्पतगान् मुहुः ॥२०॥

जिस प्रकार वे पक्षी बार-बार जलकाकों के चोंचों से सम्पृक्त तरंगों पर अलग अलग उछल रहे थे, उन्होंने देखा ।। २० ।।

कादम्बैः सारसैर्हसैः श्रेणीभूतैस्तटे तटे

भङ्गीकृतैर्यथा शङ्खैः सागरस्तादृशं सरः ।।२१।।

उन्होंने किनारे-किनारे शृङ्खला बद्ध कलहंसो हंसों, सारसों से सुशोभित सरोवर को टूटे हुए शङ्खों से युक्त सागर की भाँति देखा ।। २१ ।।

महामीनाहतिक्षुब्धैस्तोयशब्दोत्थसाध्वसैः।

पक्षिभिर्विहितैः शब्दस्तत्र तत्र मनोहरम् ।।२२।।

वहाँ बड़ी-बड़ी मछलियों के मार से क्षुब्धजल की अस्त-व्यस्तता से उत्पन्न शब्द समूहों तथा पक्षियों द्वारा उच्चारित सुन्दर शब्द विराजमान थें ॥ २२ ॥

प्रफुल्लैः पङ्कजैश्चैव क्वचिर्ज्जालर्मनोहरैः ।

सरो रेजे यथा स्वर्गे नक्षत्रैः स्थूलसूक्ष्मकैः ।। २३ ।।

वह सरोवर खिले हुए कमलों तथा कुछ सुन्दर कलियों से उसी प्रकार शोभायमान हो रहा था जैसे स्वर्ग (आकाश) छोटे बड़े नक्षत्रों से सुशोभित होता है ॥ २३ ॥

महोत्पलानां मध्येषु विरलं नीलमुत्पलम् ।

रेजे नक्षत्रमध्येषु नीलनीरदखण्डवत् ॥२४॥

बड़े-बड़े कमल दलों के बीच कम मात्रा में पाये जाने वाले नीलकमल नक्षत्रों के बीच काले बादलों के समान सुशोभित हो रहे थे ।। २४ ॥

पद्मसङ्घात- मध्यस्था हंसा: कैश्चिन्न संस्तुताः ।

प्रफुल्लपङ्कजभ्रान्त्या निश्चलाः स्वर्गवासिभिः ।।२५।।

पद्मसमूहों के मध्य विचरते हंसों की कौन नहीं स्तुति करता अर्थात् सभी करते हैं। खिले हुए कमल निश्चल स्वर्गवासी दिव्यजनों का भ्रम पैदा करते थे ।। २५ ।।

द्विधा दृष्ट्वा शोणशुक्ले पद्मे फुल्ले विधिः स्वके ।

कायेऽरुणत्वं फुल्लत्वं स्वासनाब्जे निनिन्द च ।। २६ ।।

ब्रह्मा ने लाल एवं सफेद दो प्रकार के खिले हुए कमलों को देखकर अपने शरीर की लालिमा की तथा अपने आसन के कमल की उत्फुल्लता की निन्दा की ॥ २६ ॥

फुल्लं महोत्पलं वीक्ष्य सरसस्तस्य शङ्करः ।

मौलीन्दुकान्तिमलिनं हस्तस्थं नोत्पलं ममे ।। २७ ।।

शिव ने उस सरोवर में खिले हुए विशाल नीलकमल को देख कर जटा में स्थित चन्द्रमा की कांति से फीके पड़े अपने हाथ में लिए नीलकमल को महत्त्व नहीं दिया ।। २७ ।।

हरे: स्वचक्रसूर्यांशुफुल्लं हस्तगताम्बुजम् ।

सरः पद्मञ्च सदृशं मेने वीक्ष्य समन्ततः ।। २८।।

हरि ने अपने चक्ररूपी सूर्य की किरणों से खिले हुए, हाथ में धारण किये कमल और सरोवर के कमल को सब ओर से देखकर समान ही माना ।। २८ ।

तत्सरो वीक्ष्य सम्पूर्णं नानापक्षिसमाकुलम् ।

पद्मिनीशतसञ्छन्नं नीलोत्पलचयैर्वृतम् ।। २९ ।।

देवदारुतरूणाञ्च तटस्थानां प्रसूनजैः ।

परागैर्वासितजलं हृदयानन्दकारकम् ।।३०।।

तीरे तीरे महावृक्षैः शाद्वलैः परिवारितम् ।

दृष्ट्वा शम्भुः क्षणं तत्र सोत्सुकः शोकवर्जितः ।

शिप्रामालोकयामास निःसृतां सरसस्ततः ।। ३१ ।।

जल से भलीभाँति भरे, अनेक पक्षियों के समूह से सुशोभित, सैकड़ों कमलिनियों से ढँके, नीले कमल के समूह से घिरे हुए, किनारे पर स्थित देवदारु के वृक्षों के फूलों से उत्पन्न परागों से सुगन्धित, हृदय को आनन्दित करनेवाले, किनारे-किनारे बड़े वृक्षों, घासों से घिरे हुए उस सरोवर को देखकर शिव क्षण भर के लिए शोक से मुक्त हो, उत्सुकतापूर्वक उससे उत्पन्न शिप्रा नदी को देखने लगे ।। २९-३१ ।।

यथेन्दुमण्डलद् गङ्गा मेरोर्जाम्बूनदी यथा ।

तथा दृष्ट्वा महेशेन शिप्रा शिप्राद्विनिःसृता ।। ३२ ।।

जैसी चन्द्र मण्डल से निकली गङ्गा तथा मेरु से निकली स्वर्ण नदी देखी जाती है वैसी ही शिप्रसरोवर से निकली शिप्रा नदी शिव द्वारा देखी गई ॥ ३२ ॥

कालिका पुराण अध्याय १९-शिप्राजन्म कथा

।। ऋषय ऊचुः ।।

शिप्राह्वयः कः कासारः कथं शिप्रा ततः सृता ।

कीदृशोऽस्य प्रभावश्च तत् समाचक्ष्व विस्तरात् ।।३३।।

ऋषिगण बोले- शिप्रा नामक कौन-सा सरोवर है और उससे शिप्रा नदी कैसे उत्पन्न हुई? इसका कैसा प्रभाव है ? वह विस्तार से बताइये ॥३३॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

शृण्वन्तु मुनयः सर्वे यथा शिप्रा नदी सृता ।

शिप्रस्य च महाभागाः प्रभावं गदतो मम ।।३४।।

मार्कण्डेय बोले- हे महाभाग मुनिगण! शिप्रा नदी जैसे निकली तथा इसका जैसा प्रभाव है, यह मेरे द्वारा कहा हुआ, आप सभी सुनिये ॥ ३४ ॥

वसिष्ठेन यदा देवी परिणीता त्वरुन्धती ।

तदा वैवाहिकैस्तोयैः शिप्रासिन्धुर भूद्विजाः ।।३५।।

हे ब्राह्मणों ! जब महर्षि वशिष्ठ से देवी अरुन्धती का विवाह हुआ उस समय विवाह में प्रयुक्त जल से शिप्रा नदी उत्पन्न हुई ।। ३५ ।।

सा समागत्य पतिता शिप्रे सरसि शासनात् ।

यथा मन्दाकिनी विष्णुपादादब्धौ शिवोदका ।। ३६ ।।

वह पूर्व निर्देशानुसार शिप्र सरोवर में उसी प्रकार आ गिरी जिस प्रकार मिलती कल्याणकारी जलवाली मन्दाकिनी (गंगा) विष्णु के चरणों से उत्पन्न हो सागर में हैं ।। ३६ ॥

ब्रह्मविष्णुमहादेवैस्तोयं सिक्तं तयोः पुरा ।

विवाहे शान्तिविहितं गायत्रीद्रुपदादिभिः ।। ३७।।

प्राचीनकाल में वशिष्ठ और अरुन्धती के विवाह के समय ब्रह्मा-विष्णु तथा महेश ने गायत्री एवं दुप्रदादि छन्दों द्वारा इस जल से शान्ति कर्म के अन्तर्गत उन दोनों का अभिषेक किया था ॥ ३७ ॥

एकीभूतन्तु तत्तोयं मानसाचलकन्दरात् ।

तत् सर्वं पतितं शिप्रे कासारे सागरोपमे ।। ३८ ।।

वही (तीनों द्वारा अभिषेक में प्रयुक्त जल ) इकट्ठा होकर मानस पर्वत की कन्दराओं से निकलकर वह समस्त जल सागर के समान विस्तृत शिप्र नामक सरोवर में गिरा ॥ ३८ ॥

देवानामुपभोगार्थं पुरा धात्रा विनिर्मितम् ।

सर: शिप्राह्वयं सानौ प्रालेयस्य गिरेर्महत् ।। ३९ ।।

शिप्र नामक यह सरोवर पहले ब्रह्मा द्वारा देवताओं के उपभोग हेतु हिमालय पर्वत की महान चोटी पर बनाया गया था ।। ३९ ।।

तत्राद्यापि सुनासीर: सहितश्चाप्सरोगणैः ।

शचीसहायो रमते प्रसन्ने सलिले शुभे ।। ४० ।।

वहाँ आज भी इसके निर्मल, शुभ जल में देवराज इन्द्र अपनी अप्सराओं सहित शचीदेवी के साथ विहार करते हैं ॥ ४० ॥

तद्देवैः सर्वदा यत्नाद्रक्ष्यतेऽद्यापि रत्नवत् ।

न तत्र मानुषः कश्चिद् यातुं शक्नोति योऽमुनिः ।।४१।।

वह सरोवर सदैव रत्न की भाँति आज भी प्रयत्नपूर्वक रक्षा किया जाता है । वहाँ जो मुनि न हो, ऐसा कोई मनुष्य नहीं जा सकता ॥ ४१ ॥

तपः प्रभावान्मुनयः प्रयान्ति सरसीं शुभाम् ।

शिप्राख्यान्तु महायनात् स्नातुं पातुञ्च तज्जलम् ।।४२।।

मुनिगण तप के प्रभाव से अत्यधिक प्रयत्नपूर्वक उस शिप्र नामक सरोवर में स्नान करने एवं उसका जल पीने के लिए पहुँच जाते हैं ॥ ४२ ॥

तत्र स्नात्वा च पीत्वा च मनुष्याः दैवयोगतः ।

अवश्यममरत्वाय गच्छन्त्यविकलेन्द्रियाः ।। ४३ ।।

दैवयोग से मनुष्य वहाँ स्नान कर, वहाँ का जल पीकर बिना किसी इन्द्रिय- विकार के अमरता को अवश्य ही प्राप्त कर लेता है ॥ ४३ ॥

वृद्धिं गच्छति वर्षासु सरो नैतद्विजोत्तमाः ।

न ग्रीष्मे शोषतां याति सर्वदा तद्यथा तथा ।।४४ ।।

हे द्विजोत्तमों ! यह सरोवर न तो वर्षा में बढ़ता है और न गर्मी में सूखता है। हमेशा ज्यों का त्यों बना रहता है ॥ ४४ ॥

तत्र तत् पतितं तोयं वसिष्ठोद्वाहसम्भवम् ।

ब्रह्मविष्णुमहादेवकरपद्मैरुदीरितम् ।। ४५ ।।

ववृधे शिप्रगर्भस्थमन्वहं द्विजसत्तमाः ।

तत्र वृद्धन्तु तत्तोयञ्चक्रेण च हरिः पुरा ।। ४६ ।।

गिरेः शृङ्गं विनिर्भिद्य लोकानां हितकाम्यया ।

पृथिवीं प्रेरयामास कृत्वा पुण्यतमां नदीम् ।।४७ ।।

हे द्विजोत्तमों ! वहाँ वशिष्ठ के विवाह में उत्पन्न ब्रह्मा-विष्णु-महादेव के करकमलों से गिराया हुआ यह जल शिप्रसरोवर के गर्भ में प्रतिदिन बढ़ता रहा । तब प्राचीनकाल में विष्णु ने उस बढ़े हुए जल को अपने चक्र से पर्वत की चोटियों को भेदकर संसार के कल्याण की कामना से पुण्यतमा नदी के रूप में पृथ्वी की ओर प्रेरित किया ।। ४५-४७ ॥

परिवृत्य महेन्द्रं सा पुनाना स्नानकारिणः ।

दक्षिणं सागरं याता फलंदा जाह्नवी समा ।।४८ ।।

वह स्नान करने वालों को पवित्र करनेवाली नदी महेन्द्र पर्वत की परिक्रमा करती हुई दक्षिण में, सागर में चली गयी। वह गङ्गा के समान ही फल देने वाली थी ॥ ४८ ॥

शिप्राख्यात् सरसो यस्मान्निःसृता सा महानदी ।

अतः शिप्रेति तन्नाम पुरैव ब्रह्मणा कृतम् ।।४९ ।।

जिस सरोवर से यह महान नदी निकली थी, वह सरोवर शिप्र नामक था। अतः प्राचीनकाल में ब्रह्मा ने इस नदी का 'शिप्रा' यह नामकरण किया ॥ ४९ ॥

कार्तिक्यां पौर्णमास्यां तु तस्यां यः स्नाति मानवः ।

स याति विष्णुसदनं विमानेनातिदीप्यता ।। ५० ।।

कार्तिक पूर्णिमा में जो मनुष्य इसमें स्नान करता है, वह अत्यन्त प्रकाशित विमान से विष्णुलोक को जाता है ।। ५० ।।

कार्तिकं सकलं मासं स्नात्वा शिप्राजले नरः ।

प्रयाति ब्रह्मसदनं पश्चान्मोक्षमवाप्नुयात् ।।५१।।

सम्पूर्ण कार्तिक मास में शिप्रा के जल में स्नान कर मनुष्य ब्रह्मलोक को जाता है वहाँ सुखोपभोग के पश्चात् मोक्ष को प्राप्त करता है ॥ ५१ ॥

।। ऋषय ऊचुः ।

वसिष्ठेन कथं देवी परिणीता त्वरुन्धती ।

कस्य सा तनया ब्रह्मन्नुत्पन्ना वा वदस्व नः ।।५२।।

ऋषिगण बोले- हे ब्रह्मन् ! देवी अरुन्धती वसिष्ठ से कैसे व्याही गई ? वे किसकी पुत्री थीं ? या वे उत्पन्न न होकर प्रकट हुई थीं, यह हमें बताइये ।। ५२ ।।

पतिव्रतासु प्रथिता त्रिषु लोकेषु या वरा ।

भर्तृपादौ विनान्यत्र या न चक्षुः प्रदास्यति ।। ५३ ।।

यस्या: स्मृत्वा कथामात्रं माहात्म्यसहितं स्त्रियः ।

प्रेत्येह च सतीत्वं वै प्राप्नुवन्त्यन्यजन्मनि ।। ५४ । ।

जो श्रेष्ठ देवी तीनों लोकों में पतिव्रताओं में सिरमौर हैं, जो पति के चरणों को छोड़ कहीं दूसरी ओर अपने नेत्रों को नहीं डालतीं, माहात्म्य के सहित जिसकी कथामात्र का स्मरण कर स्त्रियां इस वर्तमान जन्म में सतीत्व को प्राप्त कर, अन्य जन्मों में भी प्राप्त करती हैं ।। ५३-५४ ।।

आसन्नकालधर्मो यां न पश्यति तथा शुचिः ।

पुरुषः पापकारी च तस्या जन्म वदस्व नः ।। ५५।।

जो इतनी पवित्र हैं कि काल धर्मों के रहते हुए भी पापी मनुष्य उसे नहीं देख सकता ऐसी श्रेष्ठतमा अरुन्धती देवी का चरित्र हमें बताइये ।। ५५ ।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

शृणुध्वं सा यथा जाता यस्य वा तनया शुभा ।

यथावाप वसिष्ठं सा यथाभूता प्रतिव्रता ।।५६ ।।

मार्कण्डेय बोले- जिस प्रकार वे (अरुन्धती) उत्पन्न हुईं, जिसकी वे सुन्दरी कन्या थीं, जैसे वे वशिष्ठ को प्राप्त हुईं तथा जैसे वे प्रतिव्रता हुई इन प्रसङ्गों को आप लोग सुनिये ॥ ५६ ॥

या सा सन्ध्या ब्रह्मसुता मनोजाता पुराभवत् ।

तपस्तप्त्वा तनुं त्यक्त्वा सैव भूता त्वरुन्धती ।।५७।।

जो वह ब्रह्मा की पुत्री सन्ध्या पहले उनके मन से उत्पन्न हुई थी, वही तपस्या करके, अपने उस सन्ध्या शरीर को छोड़कर अरुन्धती के रूप में उत्पन्न हुई ॥ ५७॥

मेधातिथेः सुता भूत्वा मुनिश्रेष्ठस्य सा सती ।

ब्रह्मविष्णुमहेशानां वचनाच्चरितव्रता ।

वव्रे पतिं महात्मानं वसिष्ठं संशितव्रतम् ।।५८।।

उस सती ने मुनिश्रेष्ठ मेधातिथि की पुत्री हो ब्रह्मा, विष्णु और महेश के वचनों के अनुसार आचरण कर तीव्र व्रती महात्मा वशिष्ठ का पति रूप में वरण किया ।। ५८ ।।

।। ऋषय ऊचुः ।

कथं तया तपस्तप्तं किमर्थं कुत्र सन्ध्यया ।

कथं शरीरं सा त्यक्त्वा भूता मेधातिथेः सुता ।। ५९ ।।

ऋषिगण बोले- सन्ध्या द्वारा कहाँ और क्यों तपस्या की गई ? क्यों वह अपना शरीर छोड़ मेधातिथि की पुत्री हुईं ? ।। ५९ ।।

कथं वा गदितं देवैर्ब्रह्मविष्णुशिवैः पतिम् ।

वसिष्ठं सुमहात्मानं सा वव्रे संशितव्रतम् ।।६०।।

कैसे उसने ब्रह्मा विष्णु शिव से कहे जाने पर संशित (तीव्र) व्रती महात्मा वशिष्ठ का पतिरूप में वरण किया । ६० ॥

तन्नः सर्वं समाचक्ष्व विस्तरेण द्विजोत्तम ।

एतन्नः श्रोष्यमाणानां चरितं द्विजसत्तम ।

अरुन्धत्या महासत्याः परं कौतुहलं महत् ।। ६१ ।।

हे द्विजोत्तम ! वह सब आप हमें विस्तार से सुनायें; क्योंकि महासती अरुन्धती के इस चरित को सुनने के लिए हमें अत्यन्त उत्सुकता है ।। ६१ ॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

ब्रह्मापि तनयां सन्ध्यां दृष्ट्वा पूर्वमथात्मनः ।

कामाय मानसञ्चक्रे त्यक्ता सा च सुतेति वै ।।६२।।

मार्कण्डेय बोले- प्राचीनकाल में ब्रह्मा ने अपनी पुत्री सन्ध्या को देखकर काम हेतु मन बनाया किन्तु सुता है, ऐसा ज्ञान होते ही उसे छोड़ दिया ॥ ६२ ॥

तस्यांच चलितं चित्तं कामवाणविलोडितम् ।

ऋषीणां प्रेक्षतां तेषां मानसानां महात्मनाम् ।।६३॥

भर्गस्य वचनं श्रुत्वा सोपहासविधिं प्रति ।

आत्मनश्चलचित्तत्वममर्यादमृषीन् प्रति ।। ६४ ।।

कामस्य तादृशं भावं मुनिमोहकरं मुहुः ।

दृष्ट्वा सन्ध्या स्वयं तत्र त्रपामायाति दुःखिता ।।६५ ।।

कामवाण से विक्षुब्ध हुये, अपने चंचलचित्त, देखने वाले महात्मा ऋषियों के मन को देख, ब्रह्मा का उपहास करते हुए शिव के कहे वचनों को सुन, अपने चित्त की चंचलता, ऋषियों के प्रति मर्यादाहीनता, बार-बार मुनियों को भी मोह में डालनेवाले काम के भाव को देखकर वहाँ सन्ध्या स्वयं लज्जावश दुःखी हो गई।।६३-६५।।

ततस्तु ब्रह्मा शप्ते मदने तदनन्तरम् ।

अन्तर्भूते विधौ शम्भौ गते चापि निजास्पदम् ।।६६ ।।

अमर्षवशमापन्ना सन्ध्या ध्यानपराभवत् ।

ध्यायन्ती क्षणमेवाशु पूर्ववृत्तं मनस्विनी ।।६७।।

वहीं सन्ध्या ब्रह्मा द्वारा कामदेव को शाप दिये जाने के बाद उनके अन्तर्हित हो जाने तथा शिव के अपने स्थान पर चले जाने के पश्चात् क्रोधवश ध्यानस्थ हो गई और क्षणभर में ही पूर्ववृत्तान्त का स्मरण करने लगी ।। ६६-६७ ।।

इदं विममृशे सन्ध्या तस्मिन् काले यथोचितम् ।

उत्पन्नमात्रां मां दृष्ट्वा युवतीं मदनेरितः ।

अकार्षीत् सानुरागोऽयमभिलाषं पितामहः ॥६८ ॥

सर्वेषां मानसानाञ्च मुनीनां भावितात्मनाम् ।

दृष्टैव माममर्यादं सकाममभवन् मनः ।।६९॥

तब सन्ध्या ने उस समय के अनुरूप यह विचार किया उत्पन्न होते ही मुझ युवती को देखकर काम से प्रेरित हो पितामह ब्रह्मा अनुरागवश मेरी अभिलाषा करने लगे । आत्मभाव में लीन रहने वाले सभी मुनियों का मन मुझे देखते ही मर्यादाहीन हो कामग्रस्त हो गया ।। ६८-६९ ।।

ममापि मथितं चित्तं मदनेन दुरात्मना ।

येन दृष्ट्वा मुनीन् सर्वान् चलितं मे मनोभृशम् ।।७०।।

दुरात्मा मदन ने मेरे भी चित्त को मथ दिया था, जिससे सभी मुनियों को देखकर मेरा भी मन बहुत अधिक चञ्चल हो उठा था ।। ७० ।।

फलमेतस्य पापस्य मदनः स्वयमाप्तवान् ।

स्वयं शशाप कुपितः शम्भोरग्रे पितामहः ।।७१।।

इस पाप का फल स्वयं कामदेव ने तभी प्राप्त कर लिया जब शिव के सामने ही पितामह ब्रह्मा ने कुपित हो उसे शाप दिया ।। ७१ ॥

ममोचितं फलं सर्वं प्राप्तुमिच्छामि साम्प्रतम् ।।७२।।

यन्मां पिता भ्रातरश्च सकामामपरोक्षतः ।

दृष्ट्वा चक्रुः स्पृहां तस्मान्न मत्तः काऽपि पापकृत् ।।७३।।

अब मैं भी अपने अनुरूप फल पाने की इच्छा करूँ; क्योंकि जिस मुझे देखकर अपरोक्ष रूप में मेरे पिता एवं भाई ही काम मोहित हो गये, उसे देखकर कोई भी मत्त पापी मेरी स्पृहा न कर सके ।। ७२-७३ ।।

ममापि कामभावोऽभूदमर्यादं समीक्ष्य तान् ।

पत्याविव स्वके ताते सर्वेषु सहजेष्वपि ।।७४।।

मेरे मन में भी उन्हें देखकर अपने ही पिता और भाइयों के प्रति पति की भाँति ही मर्यादाहीन कामभाव उत्पन्न हुआ ।। ७४ ॥

करिष्याम्यस्य पापस्य प्रायश्चित्तमहं स्वयम् ।

आत्मानमग्नौ होष्यामि वेदमार्गानुसारतः ।। ७५ ।।

किन्त्वेकां स्थापयिष्यामि मर्यादामिह भूतले ।

उत्पन्नमात्रा न यथा सकामाः स्युः शरीरिणः ।। ७६ ।।

मैं स्वयं वेदमार्ग के अनुसार इस पाप का प्रायश्चित करूँगी, अपने आपको अग्नि में होम कर दूँगी । किन्तु इस पृथ्वी पर एक मर्यादा भी स्थापित करूंगी जिससे शरीरधारी उत्पन्न होते ही मात्र कामासक्त न होवें।।७५-७६।।

एतदर्थमहं कृत्वा तपः परमदारुणम् ।

मर्यादां स्थापयित्वैव पश्चात्त्यक्ष्यामि जीवितम् ।।७७ ।।

इसलिए मैं परमदारुण तपस्या कर उपर्युक्त मर्यादा की स्थापना करूँगी । तत्पश्चात् अपने जीवन का परित्याग कर दूँगी ॥ ७७ ॥

यस्मिञ्छरीरे पित्रा मे ह्यभिलाषः स्वयं कृतः ।

भ्रातृभिस्तेन कायेन किञ्चिन्नास्ति प्रयोजनम् ।।७८ ।।

क्योंकि जिस शरीर के प्रति मेरे पिता ने एवं भाइयों ने स्वयं अभिलाषा की अब उससे कोई प्रयोजन नहीं है ।। ७८ ॥

येन स्वेन शरीरेण ताते च सहजे स्वके ।

उद्भावितः कामभावो न तत्सुकृतसाधकम् ।।७९।।

जिस अपने शरीर से अपने ही पिता एवं भाई में कामभाव उत्पन्न हो गया वह अब पुण्य साधक नहीं हो सकता ।। ७९ ।।

इति सञ्चिन्त्य मनसा सन्ध्या शैलवरं ततः।

जगाम चन्द्रभागाख्यं चन्द्रभागा यतः सृता ॥८०॥

तब मन में ऐसा विचार कर सन्ध्या उस श्रेष्ठ चन्द्रभाग नामक पर्वत पर चली गई, जहाँ से चन्द्रभागा नदी निकली है ॥ ८० ॥

तया स शैलैः समधिष्ठितः तदा सुवर्णगौर्या सुसमप्रभाभृता ।

सोमेन सन्ध्यासमयोदितेन यथोदयाद्रिर्विरराज शश्वत् ।।८१।।

तब उस स्वर्णिम गोरी सन्ध्या के साथ वह चन्द्रभाग ऐसी सुन्दर प्रभा से युक्त हुआ जैसा सन्ध्या समय उगते हुए चन्द्रमा की प्रभा से सदैव उदयाचल पर्वत सुशोभित होता है ।। ८१ ।।

॥ इति श्रीकालिकापुराणे सन्ध्यातपश्चरणं नाम एकोनविंशोऽध्यायः ।। १९ ।।

कालिका पुराण अध्याय १९ - संक्षिप्त कथानक

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- इसके पश्चात् उस समय में दाक्षायणी का स्मरण करते हुए उसको भूमि पर गिरी हुई देखकर उस समय में शोक से समुत्पन्न उद्वेगयुक्त रञ्ज को शिव सहन न कर सके थे । जिनका धीरज एकदम ही नष्ट हो गया था ऐसे भगवान् शम्भु वाष्पों से व्याकुल लोचनों वाले गए थे अर्थात् उनके नेत्रों से अविरल अश्रु प्रवाह चलने लग गया था। सभी देवों के देखते हुए वे भगवान् शिव चिन्ता के ध्यान में तत्पर हो गये थे। इसके अनन्तर ब्रह्माजी ने शोक से कथित विजया को ढाढ़स बँधाकर फिर भगवान् शंकर को समाश्वासन देते हुए सान्त्वना से साथ यह वचन कहने लगे थे ।

ब्रह्माजी ने कहा- भगवान्! आप पुराने योगी हैं। आपको ऐसा शोक करना युक्त प्रतीत नहीं होता है। आपका ध्यान तो परधाम में ही था फिर यहाँ पर सती में कैसे हो गया ? आप तो निरञ्जन हैं और आप बड़े-बड़े यतियों के ध्यान में जानने के योग्य हैं। आप पर से भी पर हैं, आपका स्वरूप निर्मल है तथा आप सर्वत्र गमन के स्वभाव एवं शक्ति से समन्वित हैं । जो राग और लोभ आदि मल हैं उन मलों से आप विहीन रहने वाले हैं। ऐसा ही आपका स्वरूप है उसे ही आप अपनी बुद्धि से ग्रहण कीजिए ।

प्राणी के अन्दर रहने वाले ज्ञान के विनाश करने वाले निम्नलिखित चौदह दोष हुआ करते हैं । वे ये हैं-शोक, लोभ, क्रोध, मोह, हिंसा, मान (मैं बहुत ही महान् हूँ, ऐसा मान मन में रखना), दम्भ अर्थात् याषाणु, मद, प्रमोद, ईर्ष्या, असूया, अक्षान्ति और असत्यता । आप तो विष्णु के ही स्वरूप वाले जगतों के विधाता हैं अर्थात् जगतों की रचना करने वाले हैं। जो भी आपको महान् मोह कर देने वाली सती हैं, यह तो आपकी ही लोकों के मोह के लिए माया है। जो समस्त लोकों को जन्म में और गर्भ में पूर्व देह की बुद्धि को विमोहित करती हुई, विनाश करके बाल्य अवस्था में जन्तु का पालन किया करती है आज वह भी शोक से सहित आपको विमोहित कर रही है। प्रत्येक कल्प में पहले आपने सहस्त्रों सतियों का त्याग किया था जो मृत हो गई थीं । इस प्रकार से चर-अचर लोक के हित के ही सम्पादन करने के लिए उसी भाँति आपके द्वारा यह सती पुनः ग्रहण की गई थी। हे वृषभध्वज ! आप ध्यान के योग द्वारा देखिए दूसरे जन्म में जो सहस्त्रों सतियां मृत हुई हैं आप यथा तथा परिवर्जित हैं अथवा जैसी की तैसी वह हैं । क्योंकि वह पुनः समुत्पन्न होकर हे ईश ! वह आपको ही प्राप्त करेगी । जो आप देवगणों के द्वारा भी दुष्प्राप्य होते हैं और फिर वह जैसी जाया आपको होने वाली है । यह सभी कुछ आप ध्यान के योग द्वारा देख लीजिए ।

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- इस रीति से ब्रह्माजी ने बहुत प्रकार से ज्ञान को भगवान् शंकर से कहा था। फिर उस गिरिराज ने नगर से उनको निर्जन स्थान में गत कर दिया था। इसके उपरान्त हिमवान् के प्रस्थ में और उनके नगर के पश्चिम दिशा में द्रुहिण आदि ने शिव नाम वाला परिपूर्ण एक सरोवर देखा था । उस परम एकान्त स्थान की प्राप्ति करके ब्रह्मा और इन्द्र आदि देवों ने वहाँ पर उपसेवन किया था अर्थात् वहाँ पर बैठ गए थे और जैसा भी न्याय था उसी के अनुसार उन्होंने महेश्वर को अपने आगे बिठा लिया था। वह शिव नाम वाला सरोवर बहुत ही सुन्दर था जो सभी देहधारियों में मन को हरण करने वाला था । उसका जल ठंडा और निर्मल था । वह सरोवर अपने सभी गुणों से मानस सरोवर के तुल्य था । भगवान् शम्भु उस सरोवर को देखकर एक क्षण पर्यन्त उसके देखने में उत्सुकता से रुक गए थे। उसी सरोवर से एक शिप्रा नाम वाली नदी निकली हैं और वह दक्षिण सागर को जा रही थी, जो जगत् के जनों को पावन कर रही थी, ऐसा उन्होंने वहाँ पर देखा था । उस पूर्ण सरोवर के पास जाकर अनेक देशों से समागत हुए परमाधिक सुन्दर दर्शन करते हुए बहुत से पक्षियों को शम्भु ने अवलोकन किया था ।

वहाँ पर विराजित होकर उन्होंने गम्भीर वायु से एवं सम्पन्न तरंगों में चक्रवाक के जोड़ों को नृत्य करते हुए देखा था । उन शम्भु भगवान चक्षुओं से तरंगों को पृथक-पृथक देखा था जिस तरह से जल पुन: उत्पन्न करते हुए पक्षियों को देखा हो । प्रत्येक तट पर श्रेणी में आबद्ध हुए कादम्ब, सारस और हंसों के द्वारा अंगीकृत वह सागर जैसा हो वैसा ही वह सरोवर था । जिसको शिव ने देखा था । बड़े-बड़े मत्स्यों से युक्त अर्थात् बड़ी मछलियों के उछालों से क्षोभ को प्राप्त हुए जल के शब्द से भय उत्पन्न होने वाले पक्षियों के द्वारा विहित शब्द वहाँ पर हो रहा था । वहाँ पर उस मन के हरण करने वाले दृश्य का अवलोकन किया था । विकास को प्राप्त हुए कमलों से और वहीं पर मनोहर जलों से वह सरोवर परम शोभित हो रहा था। जिस तरह से स्थूल और सूक्ष्म नक्षत्रों से स्वर्ग शोभयमान हुआ करता था । बड़े-बड़े कमलों के मध्य में विरले ही नीलकमल उसमें दिखलाई दे रहे थे और वह ऐसे ही शोभा से संयुक्त थे जैसे नक्षत्रों के मध्य में नीलमेघ का खण्ड शोभित हुआ करता है ।

पद्मों के समूह के मध्य में संस्थित हम किन्हीं के द्वारा प्रस्तुत नहीं हो रहे थे क्योंकि उनमें भी विकसित कमलों की भ्रान्ति होती थी । अर्थात् उन हँसों को भी जो कमलों के बीच में स्थित थे खिले हुए कमल की समझा जा रहा था । वे स्वर्गवासियों के द्वारा निश्चल ही दिखाई दे रहे थे। दो प्रकार के रक्त और शुक्ल वर्ण के विकसित पद्मों को देखकर ब्रह्माजी ने अपने आसन के कमल में काम में उत्फुल्लल्व और अरुणत्व की अर्थात् विकास और लालिमा की निन्दा की थी। महादेवजी ने उस सरोवर के विकसित महोत्पल का अवलोकन करके उन्होंने हाथ में स्थित कमल का कुछ भी मान नहीं किया था क्योंकि वह हाथ के कमल की कान्ति मस्तक में स्थित चन्द्रमा की कान्ति से मलिन हो गया था । भगवान् हरि ने अपने सुदर्शन चक्र से सूर्य की किरणों से विकसित हाथ में रहने वाले कमल को ओर सरोवर के पद्म को सब ओर देखकर सदृश ही माना था। उस सरोवर को जो नाना भाँति के पक्षियों से समाकुल, सम्पूर्ण सैकड़ों ही कमलिनिओं से संच्छन्न ( ढका हुआ ) और नीलोत्पलों के समूह से युक्त था, देखा था । वह सरोवर तट पर देवदारु के वृक्षों के प्रसूनों में रहने वाले परागों से सुगन्धित जल से समन्वित था और देखने वालों के हृदय को महान आनन्द को उत्पन्न करने वाला था । उस सरोवर के प्रत्येक तट पर महान विशाल वृक्ष थे और वह शाद्वलों से भी परिवारित था अर्थात् उसके किनारे शाद्वलों से चारों ओर घिरे हुए थे। ऐसे उस सुन्दर सरोवर की शोभा को देखकर शम्भु क्षण भर के लिए उत्सुकता से युक्त तथा शोक से रहित हो गये थे । तात्पर्य यही है कि उस सरोवर की सुषमा से शम्भु का शोक मिट गया था और एक विशेष उत्सुकता उनके हृदय में उत्पन्न हो गई थी।

भगवान् महेश्वर ने उस सरोवर से निकली हुई शिप्रा नदी का अवलोकन किया था जिस प्रकार से इन्द्र मण्डल से भागीरथी गंगा और मेरु पर्वत से जम्बु नदी निकलती है, उसी भाँति भगवान् शम्भु से शिप्र से शिप्रा को विनिसृत किया था।

ऋषियों ने कहा- शिप्र नाम वाला सरोवर कौन-सा है और किस प्रकार से उससे शिप्रा नदी निःसृत हुई थी ? इसका प्रभाव किस प्रकार का है, यह सभी कुछ आप विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- हे मुनिगणों! अब आप लोग श्रवण कीजिए कि जिस प्रकार से शिप्रा नदी निःसृत हुई थी। हे महाभागों ! यह भी सुनिए कि उस शिप्रा का क्या प्रभाव है क्योंकि मैं यह सभी आप लोगों को बतला रहा हूँ। जिस समय से वशिष्ठ जी ने देवी अरुन्धती का विवाह किया था । हे द्विजो ! उसी समय में वैवाहिक जनों से शिप्रा नदी समुत्पन्न हुई थी । वह समागत होकर शासन से शिप्र सरोवर में गिरी थी जिस प्रकार से भागीरथीं गंगा भगवान विष्णु के चरणों से शिव जल वाली सागर में पतित हुई थी ।

पहले समय में देवों के उपयोग करने के लिए ही धाता ने इसका विशेष निर्माण किया था जो हिमवान् के शिखर पर एक महान शिप्र नाम वाला सरोवर है । वहाँ पर आज भी अप्सरागणों के सहित इन्द्र देव अपनी शची को साथ में लेकर उस परम शुभ जल में रमण किया करते हैं । आज तक भी वह देवों के द्वारा एक रत्न की ही भाँति सर्वदा यत्न के साथ रक्षित हुआ करता है । वहाँ पर तप के प्रभाव से मुनिगण इस परम शुभ सरोवर में गमन किया करते हैं। महान् यत्न से ही वे लोग शिप्रा नाम वाले सरोवर के उसके जल में स्नान करने के लिए तथा पान करने को जाया करते हैं । वहाँ पर मनुष्य हैं जो योग से उसके जल का स्नान तथा पान करके अविकल इन्द्रियों वाले होते हुए अवश्य ही देव के स्वरूप को प्राप्त हो जाया करते हैं । हे द्विजोतमों! यह सरोवर वर्षा ऋतु में भी वृद्धि को प्राप्त नहीं होता है। तात्पर्य यह है कि अन्य प्राकृत जलाशयों के समान यह सरोवर का जल नहीं बढ़ा करता है और यह गर्मी की ऋतु में शोषण को भी प्राप्त नहीं हुआ करता है । यह तो सर्वदा ही जैसा है वैसा ही रहा करता है। न घटता है और न कभी बढ़ता ही है ।

हे द्विजश्रेष्ठों ! शिप्र के गर्भ के मध्य में स्थित जल प्रतिदिन बढ़ता था। वहाँ पर उस बढ़े हुए जल को पहले भगवान् हरि ने अपने चक्र के द्वारा लोकों की भलाई करने की भावना से गिरि के शिखर का भेदन करके उस नदी को परमपुण्य करके पृथ्वी की ओर प्रेरित कर दिया था। जाह्नवी गंगा के ही समान फल देने वाली वह नदी स्नान करने वालों को पवित्र करती हुई दक्षिण सागर को चली गयी थी । क्योंकि वह नदी शिप्र नाम वाले सरोवर से ही समुत्पन्न हुई थी अर्थात् वह महानदी शिप्र से निकली थी अतएव उसका 'शिप्रा' यह शुभ नाम पूर्व में ही ब्रह्माजी ने रखा था। जिसमें कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि के दिन जो भी कोई मनुष्य स्नान किया करता है वह मनुष्य अत्यन्त देदीप्यमान विमान के द्वारा भगवान् विष्णु के लोक में गमन किया करता है । तात्पर्य यही है कि इस महानदी में कार्तिक मास की पूर्णमासी में स्तवन करने का ऐसा फल हुआ करता है कि वह सीधा विष्णु लोक की प्राप्ति कर लिया करता है। पूरे कार्तिक मास में शिप्रा नदी के जल में जो भी मनुष्य स्नान किया करता है वह सीधा ही ब्रह्माजी के लोक को चला जाया करता है और कुछ समय तक वहाँ दैविक सुखों का भोग करके पीछे संसार के जन्म और मृत्यु के निरन्तर आवागमन से मुक्त होकर मोक्ष की प्राप्ति कर लिया करता है।

ऋषिगणों ने कहा- महामुनि वशिष्ठ जी ने किस प्रकार से अरुन्धती देवी के साथ विवाह किया था ? हे ब्रह्मण, वह अरुन्धती किसकी पुत्री समुत्पन्न हुई थी ? यह सभी आप कृपा करके हमको वर्णन करके समझाइए ।

वह परमश्रेष्ठा देवी अरुन्धती तीनों लोकों में पतिव्रता नारियों में बहुत ही अधिक प्रसिद्ध हुई थी। वह ऐसी ही पतिव्रता नारी थी कि अपने पतिदेव के चरणों के अतिरिक्त अन्य किसी भी स्थान में अपने नेत्रों से नहीं देखा करती थी। जिस देवी अरुन्धती को केवल कथा का ही श्रवण करके जो कि महात्म्य के सहित स्त्रियाँ स्मरण करके यहाँ सतीत्व को प्राप्त करती हुई मर कर भी अन्य जन्म में भी सतीत्व को प्राप्त किया करती हैं । कालधर्म को समासन्न होने वाला पुरुष जिसका दर्शन नहीं किया करता है तथा जो भी शुचि होता है वह पुरुष पापकारी होता है । वह देवी के जन्म का वर्णन आप हमारे समझ में करने की कृपा करिए।

मार्कण्डेय ऋषि ने कहा था- आप लोग भली-भाँति श्रवण कीजिए जैसें वह समुत्पन्न हुई थी और जिस प्रकार से उस देवी ने अपने पति के स्वरूप वशिष्ठ मुनि को प्राप्त किया था और जो वह प्रसिद्ध पतिव्रता हुई थी। जो सन्ध्या पहले ब्रह्माजी पुत्री मन से ही समुत्पन्न हुई थी उसने तपस्या का तपन किया था और वहीं शरीर का त्याग करके पीछे अरुन्धती नाम वाली हुई थीं। वह मेधातिथि की पुत्री होकर वह सती ब्रह्मा, विष्णु और महेश के वचन से सचरित्र व्रत वाली मुनियों में श्रेष्ठ की सती हुई थी। उसने ही संशित व्रतों वाले महात्मा वशिष्ठ का पति के स्वरूप में वरण किया था अर्थात् स्वयं ही वशिष्ठ को अपना पति बनाना स्वीकार किया था ।

ऋषियों ने कहा- उस संध्या ने किस प्रयोजन की सिद्धि के लिए कहाँ पर किस प्रकार से तप किया था? फिर क्यों अपने शरीर का परित्याग किया था और वह कैसे मेधातिथि की पुत्री होकर समुत्पन्न हुई थी ? कैसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश देवों के द्वारा कहे हुए परम संशित वाले सुन्दर महात्मा वशिष्ठ मुनि को उसने पति के स्थान में वरण किया था ? हे द्विजोत्तम! इस चरित्र को श्रवण करने की इच्छा वाले हमको यह सब विस्तार के साथ कहने की कृपा कीजिए । महासती अरुन्धती देवी के चरित्र के सुनने के लिए हमारे हृदय में बड़ा भारी कौतुहल हो रहा है।

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- ब्रह्माजी ने भी पहले अपनी पुत्री सन्ध्या को देखकर कामवासना के लिए अपना मन किया था और फिर सुता का त्याग कर दिया था । काम के उस प्रकार के भाव को जो मुनियों के हृदय में भी मोह के करने वाला है वहाँ पर उसको सन्ध्या ने स्वयं ही देखा था । तब वह परम दुःखिता होकर लज्जा को प्राप्त हो गई थी अर्थात् स्वयं ही लज्जा आ गई थी ।

इसके अनन्तर ब्रह्माजी के द्वारा कामदेव को शाप दे देने पर तथा विधाता के अन्तर्धान हो जाने पर और भगवान् शम्भु अपने स्थान पर चले जाने पर वह मनस्विनी सन्ध्या एक क्षण पर्यन्त शीघ्र ही पूर्व में होने वाले वृत्त का ध्यान करती हुई वह सन्ध्या परायण हो गई थी । इस महापाप का प्रायश्चित मैं स्वयं ही करूंगी और वेद मार्ग के अनुसार अपने आपको अग्नि में हवन कर दूँगी अर्थात् अग्नि में जलकर अपने प्राणों का परित्याग कर दूँगी । इस भूमण्डल में मैं एक प्रकार की मर्यादा की स्थापना करूँगी कि जिससे उत्पन्न होते ही शरीरधारी कामदेव से युक्त न होवे। इसी के लिए मैं परमाधिक दारुण अर्थात् कठिन कष्टप्रद तप का समाचरण करके मर्यादा की स्थापना करके ही इसके पश्चात् अपने जीवन का त्याग करूँगी। जिस मेरे शरीर में मेरे पिता ब्रह्माजी ने अपने मन को अभिलाषा से समन्वित स्वयं किया था जब उस शरीर से भाइयों के साथ कुछ प्रयोजन भी नहीं है । जिस अपने शरीर के द्वारा सहज स्वीय तात में काम का भाव उद्भावित कर दिया गया था वह शरीर कभी सुकृत की साधना करने वाला नहीं है । इस प्रकार से संध्या मन के द्वारा भली-भाँति चिन्तन करके वह परम श्रेष्ठ पर्वत पर चली गयी थी जो चन्द्रभाग नाम वाला था और जिससे चन्द्रभाग नाम वाली नदी निकली थी। सवर्ण समान और समुदित चन्द्र से जिस रीति से उदयपर्वत निरन्तर शोभित हुआ था ठीक उसी भाँति उस संध्या के द्वारा वह पर्वत उस समय समाधिष्ठित हुआ और शोभित हुआ ।

॥ श्रीकालिकापुराण में सन्ध्या- तपश्चरण नामक उन्नीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।। १९।।

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 20 

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