Slide show
Ad Code
JSON Variables
Total Pageviews
Blog Archive
-
▼
2023
(355)
-
▼
March
(33)
- राकिणी स्तोत्र
- रुद्रयामल तंत्र पटल ४०
- श्रीकृष्णस्तोत्र
- रुद्रयामल तंत्र पटल ३८
- कालिका पुराण अध्याय २३
- कालिका पुराण अध्याय २२
- रुद्रयामल तंत्र पटल ३७
- हरि स्तोत्र
- श्रीहरि विष्णु स्तवन
- कालिका पुराण अध्याय २१
- कालिका पुराण अध्याय २०
- अग्निपुराण अध्याय ११
- अग्निपुराण अध्याय १०
- अग्निपुराण अध्याय ९
- अग्निपुराण अध्याय ८
- अग्निपुराण अध्याय ७
- अग्निपुराण अध्याय ६
- अग्निपुराण अध्याय ५
- अग्निपुराण अध्याय ४
- अग्निपुराण अध्याय ३
- अग्निपुराण अध्याय २
- अग्निपुराण अध्याय १
- कालिका पुराण अध्याय १९
- कालिका पुराण अध्याय १८
- वृषभध्वज स्तुति
- कालिका पुराण अध्याय १७
- त्र्यम्बक स्तवन
- कालिका पुराण अध्याय १६
- शनि स्तवन
- कालिका पुराण अध्याय १५
- कालिका पुराण अध्याय १४
- कालिका पुराण अध्याय १३
- कालिका पुराण अध्याय १२
-
▼
March
(33)
Search This Blog
Fashion
Menu Footer Widget
Text Widget
Bonjour & Welcome
About Me
Labels
- Astrology
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड
- Hymn collection
- Worship Method
- अष्टक
- उपनिषद
- कथायें
- कवच
- कीलक
- गणेश
- गायत्री
- गीतगोविन्द
- गीता
- चालीसा
- ज्योतिष
- ज्योतिषशास्त्र
- तंत्र
- दशकम
- दसमहाविद्या
- देवी
- नामस्तोत्र
- नीतिशास्त्र
- पञ्चकम
- पञ्जर
- पूजन विधि
- पूजन सामाग्री
- मनुस्मृति
- मन्त्रमहोदधि
- मुहूर्त
- रघुवंश
- रहस्यम्
- रामायण
- रुद्रयामल तंत्र
- लक्ष्मी
- वनस्पतिशास्त्र
- वास्तुशास्त्र
- विष्णु
- वेद-पुराण
- व्याकरण
- व्रत
- शाबर मंत्र
- शिव
- श्राद्ध-प्रकरण
- श्रीकृष्ण
- श्रीराधा
- श्रीराम
- सप्तशती
- साधना
- सूक्त
- सूत्रम्
- स्तवन
- स्तोत्र संग्रह
- स्तोत्र संग्रह
- हृदयस्तोत्र
Tags
Contact Form
Contact Form
Followers
Ticker
Slider
Labels Cloud
Translate
Pages
Popular Posts
-
मूल शांति पूजन विधि कहा गया है कि यदि भोजन बिगड़ गया तो शरीर बिगड़ गया और यदि संस्कार बिगड़ गया तो जीवन बिगड़ गया । प्राचीन काल से परंपरा रही कि...
-
रघुवंशम् द्वितीय सर्ग Raghuvansham dvitiya sarg महाकवि कालिदास जी की महाकाव्य रघुवंशम् प्रथम सर्ग में आपने पढ़ा कि-महाराज दिलीप व उनकी प...
-
रूद्र सूक्त Rudra suktam ' रुद्र ' शब्द की निरुक्ति के अनुसार भगवान् रुद्र दुःखनाशक , पापनाशक एवं ज्ञानदाता हैं। रुद्र सूक्त में भ...
Popular Posts
अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
अग्निपुराण अध्याय १०
अग्निपुराण अध्याय १० में युद्धकाण्ड
की संक्षिप्त कथा का वर्णन है।
अग्निपुराणम् अध्यायः १०
Agni puran chapter 10
अग्निपुराण दसवाँ अध्याय
अग्नि पुराण अध्याय 10
अग्निपुराण अध्याय १० - युद्धकाण्डवर्णनं
नारद उवाच
रामोक्तञ्चाङ्गदौ गत्वा रावणं प्राह
जानकी।
दीयतां राघवायाशु अन्यथा त्वं
मरिप्यसि ।। १ ।।
रावणो हन्तुमुद्युक्तः
सङ्ग्रामोद्धतराक्षसः।
रामयाह दशग्रीवो युद्धमेकं तु
मन्यते ।। २ ।।
रामो युद्धाय तच्छ्रुत्वा लङ्कां
सकपिराययौ।
वानरो हनुमान मैन्दो द्विविदौ जाम्बवान्नलः
।। ३ ।।
नीलस्तारोङ्गदो धूभ्रः सुषेणः केशरी
गयः।
पनसो विनतो रम्भः शरभः कथनो बली ।।
४ ।।
गवाक्षो दधिवक्त्रश्च गवयो
गन्धमादनः।
एते चान्ये च सुग्रीव एतैर्युक्तो
ह्यसङ्ख्यकैः ।। ५ ।।
रक्षसां वानराणाञ्च युद्धं
सङ्कुलमाबभौ।
राक्षसा वानराञजघ्नुः शरशक्तिगदादिभिः
।। ६ ।।
वानरा राक्षसाञ्
जघ्नुर्नखदन्तशिलादिभिः।
हस्त्थश्वरथपादातं राक्षसानां बलं
हतम् ।।७ ।।
हनूमान् गिरिऋङ्गेण
धूम्राक्षमवधीद्रिपुम्।
अकम्पनं प्रहस्तञ्च युध्यन्तं नील
आवधीत् ।। ८ ।।
नारदजी
कहते हैं—
तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी के आदेश से अङ्गद रावण के पास गये और बोले-
नारदजी कहते हैं— तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी के आदेश से अङ्गद
रावण के पास गये और बोले— 'रावण! तुम जनककुमारी सीता को ले
जाकर शीघ्र ही श्रीरामचन्द्रजी को सौंप दो अन्यथा मारे जाओगे।' यह सुनकर रावण उन्हें मारने को तैयार हो गया। अङ्गद राक्षसों को मार-पीटकर
लौट आये और श्रीरामचन्द्रजी से बोले-'भगवन्! रावण केवल युद्ध
करना चाहता है।' अङ्गद की बात सुनकर श्रीराम ने वानरों की
सेना साथ ले युद्ध के लिये लङ्का में प्रवेश किया। हनुमान्, मैन्द,
द्विविद, जाम्बवान्, नल,
नील, तार, अङ्गद,
धूम्र, सुषेण, केसरी,
गज, पनस, विनत, रम्भ, शरभ, महाबली कम्पन,
गवाक्ष, दधिमुख, गवय और
गन्धमादन- ये सब तो वहाँ आये ही, अन्य भी बहुत-से वानर आ
पहुँचे। इन असंख्य वानरों सहित [ कपिराज] सुग्रीव भी युद्ध के लिये उपस्थित थे।
फिर तो राक्षसों और वानरों में घमासान युद्ध छिड़ गया। राक्षस वानरों को बाण,
शक्ति और गदा आदि के द्वारा मारने लगे और वानर नख, दाँत एवं शिला आदि के द्वारा राक्षसों का संहार करने लगे। राक्षसों की
हाथी, घोड़े, रथ और पैदलों से युक्त
चतुरङ्गिणी सेना नष्ट-भ्रष्ट हो गयी। हनुमान्ने पर्वतशिखर से अपने वैरी धूम्राक्ष का
वध कर डाला। नील ने भी युद्ध के लिये सामने आये हुए अकम्पन और प्रहस्त को मौत के
घाट उतार दिया ॥ १-८ ॥
इन्द्रजिच्छरबन्धाच्च विमुक्तौ
रामलक्षमणौ।
तार्क्ष्यसन्दर्शनाद् बाणैर्जघ्ननू
राक्षसं बलम् ।। ९ ।।
रामः शरैर्जर्जरितं
रावणञ्चाकरोद्रणे।
रावणः कुम्बकर्णञ्च बौधयामास दुः
खितः ।। १० ।।
कुम्भकर्णः प्रबुद्धोऽथ पीत्वा
घटसहस्त्रकम्।
मद्यस्य महिषादीनां भक्षयित्वाह
रावणम् ।। ११ ।।
सीताया हरणं पापं कृतन्त्वं हि
गुरुर्यतः।
अतो गच्छामि युद्धाय रामं हन्मि
सवानरम् ।। १२ ।।
श्रीराम और लक्ष्मण यद्यपि
इन्द्रजित्के नागास्त्र से बँध गये थे, तथापि
गरुड़ की दृष्टि पड़ते ही उससे मुक्त हो गये। तत्पश्चात् उन दोनों भाइयों ने बाणों
से राक्षसी सेना का संहार आरम्भ किया। श्रीराम ने रावण को युद्ध में अपने बाणों की
मार से जर्जरित कर डाला। इससे दुःखित होकर रावण ने कुम्भकर्ण को सोते से जगाया।
जागने पर कुम्भकर्ण ने हजार घड़े मदिरा पीकर कितने ही भैंस आदि पशुओं का भक्षण
किया। फिर रावण से कुम्भकर्ण बोला- 'सीता का हरण करके तुमने
पाप किया है। तुम मेरे बड़े भाई हो, इसीलिये तुम्हारे कहने से
युद्ध करने जाता हूँ। मैं वानरों सहित राम को मार डालूँगा' ॥
९-१२ ॥
इत्युक्त्वा वानरान् सर्वान्
कुम्भकर्णो ममर्द्द ह।
गृहीतस्तेन सुग्रीवः कर्णनासं
चकर्त्त सः ।। १३ ।।
कर्णनासाविहीनोऽसौ भक्ष यामास
वानरान्।
अथ कुम्भो निकुमभश्च मकराक्षश्च
राक्षसः ।। १४ ।।
ततः पादौ ततश्छित्त्वा शिरो भूमौ
व्यपातयत् ।
अथ कुम्भो निकुम्भश्च मकराक्षश्च
राक्षसः ।। १५ ।।
महोदरो महापार्श्वो मत्त
उन्तत्तराक्षसः।
प्रघसो भासकर्णश्च विरूपाक्षस्छ
संयुगे ।। १६ ।।
देवान्तको नरान्तश्च
त्रिशिराश्चातिकायकः।
रामेण लक्ष्मणेनैते वानरैः
सविभीषणैः ।। १७ ।।
युध्यमानास्तथाह्यन्ये राक्षसाभुवि
पातिताः।
इन्द्रजिन्मायया युध्यन् रामादीन्
सम्बबन्ध ह ।। १८ ।।
वरदत्तैर्नागबाणै रोषध्या तौ
विशल्यकौ।
विशल्ययाव्रणौ कृत्वा
मारुत्यानीतपर्वने ।। १९ ।।
हनूमान् धारयामास तत्रागं यत्र
संश्थितः।
निकुम्भिलायां होमादि कुर्वन्तं तं
हि लक्ष्मणः ।। २० ।।
शरैरिन्द्रजितं वीरं युद्धे तं तु व्यशातयत्।
रावणः शोकस्न्तप्तः सीतां हन्तुं
समुद्यतः ।। २१ ।।
अविन्ध्यवारितो राजरथस्यः सबलौययौ।
इन्द्रोक्तो मातलीरामं रथस्थं
प्रचकार तम् ।। २२ ।।
ऐसा कहकर कुम्भकर्ण ने समस्त वानरों
को कुचलना आरम्भ किया। एक बार उसने सुग्रीव को पकड़ लिया,
तब सुग्रीव ने उसकी नाक और कान काट लिये। नाक और कान से रहित होकर
वह वानरों का भक्षण करने लगा। यह देख श्रीरामचन्द्रजी ने अपने बाणों से कुम्भकर्ण की
दोनों भुजाएँ काट डालीं। इसके बाद उसके दोनों पैर तथा मस्तक काटकर उसे पृथ्वी पर
गिरा दिया। तदनन्तर कुम्भ, निकुम्भ, राक्षस
मकराक्ष, महोदर, महापार्श्व, मत्त, राक्षसश्रेष्ठ उन्मत्त, प्रघस,
भासकर्ण, विरूपाक्ष, देवान्तक,
नरान्तक, त्रिशिरा और अतिकाय युद्ध में कूद
पड़े। तब इनको तथा और भी बहुत से युद्धपरायण राक्षसों को श्रीराम, लक्ष्मण, विभीषण एवं वानरों ने पृथ्वी पर सुला दिया।
तत्पश्चात् इन्द्रजित् (मेघनाद ) ने माया से युद्ध करते हुए वरदान में प्राप्त हुए
नागपाश द्वारा श्रीराम और लक्ष्मण को बाँध लिया। उस समय हनुमान्जी के द्वारा लाये
हुए पर्वत पर उगी हुई 'विशल्या' नाम की
ओषधि से श्रीराम और लक्ष्मण के घाव अच्छे हुए । उनके शरीर से बाण निकाल दिये गये।
हनुमान्जी पर्वत को जहाँ से लाये थे, वहीं उसे पुनः रख आये।
इधर मेघनाद निकुम्भिलादेवी के मन्दिर में होम आदि करने लगा। उस समय लक्ष्मण ने
अपने बाणों से इन्द्र को भी परास्त कर देनेवाले उस वीर को युद्ध में मार गिराया।
पुत्र की मृत्यु का समाचार पाकर रावण शोक से संतप्त हो उठा और सीता को मार डालने के
लिये उद्यत हो उठा; किंतु अविन्ध्य के मना करने से वह मान
गया और रथ पर बैठकर सेना सहित युद्धभूमि में गया। तब इन्द्र के आदेश से मातलि ने
आकर श्रीरघुनाथजी को भी देवराज इन्द्र के रथ पर बिठाया ॥ १३-२२ ॥
रामरावणयोर्युद्धं रामरावणयोरिव।
रावणो वानरान् हन्ति
मारुत्याद्याश्च रावणम् ।। २३ ।।
रामः शस्त्रैस्तमस्त्रैश्च ववर्ष
जलदो यथा।
तस्य ध्वजं स चिच्छेद रथमश्वांश्च
सारथिम् ।। २४ ।।
धनुर्बाहूञ्छिरांस्येव उत्तिष्ठन्ति
शिरांसि हि।
पैतामहेन हृदयं भित्त्वा रामेण
रावणः ।। २५ ।।
भूतले पातितः सर्वै राक्षसै रुरुदुः
स्त्रियः।
आश्वास्य तञ्च संस्कृत्य रामज्ञप्तो
विभीषणः ।। २६ ।।
हनृमतानयद्रामः सीतां शुद्धां
गृहीतवान्।
रामो वह्नौ प्रविष्टान्तां
शुद्धामिन्द्रादिभिः स्तुतः ।। २७ ।।
ब्रह्मणा दशरथेन त्वं विष्ण्
राक्षसमर्द्दनः।
इन्द्रौर्च्चितोऽमृतवृष्ट्या
जीवयामास वानरान् ।। २८ ।।
रामेण पूजिता जग्मुर्युद्धं
दृष्ट्वा दिवञ्च ते ।
रामो विभीषणायादाल्लङ्कामभ्यर्च्य
वानरान् ।। २९ ।।
श्रीराम और रावण का युद्ध श्रीराम
और रावण के युद्ध के ही समान था उसकी कहीं भी दूसरी कोई उपमा नहीं थी। रावण वानरों
पर प्रहार करता था और हनुमान् आदि वानर रावण को चोट पहुँचाते थे। जैसे मेघ पानी
बरसाता है, उसी प्रकार श्रीरघुनाथजी ने
रावण के ऊपर अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा आरम्भ कर दी। उन्होंने रावण के रथ, ध्वज, अश्व, सारथि, धनुष, बाहु और मस्तक काट डाले । काटे हुए मस्तकों के
स्थान पर दूसरे नये मस्तक उत्पन्न हो जाते थे। यह देखकर श्रीरामचन्द्रजी ने
ब्रह्मास्त्र के द्वारा रावण का वक्षःस्थल विदीर्ण करके उसे रणभूमि में गिरा दिया।
उस समय [ मरने से बचे हुए सब] राक्षसों के साथ रावण की अनाथा स्त्रियाँ विलाप करने
लगीं। तब श्रीरामचन्द्रजी की आज्ञा से विभीषण ने उन सबको सान्त्वना दे, रावण के शव का दाह संस्कार किया। तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी ने हनुमान्जी के
द्वारा सीताजी को बुलवाया। यद्यपि वे स्वरूप से ही नित्य शुद्ध थीं, तो भी उन्होंने अग्नि में प्रवेश करके अपनी विशुद्धता का परिचय दिया।
तत्पश्चात् रघुनाथजी ने उन्हें स्वीकार किया। इसके बाद इन्द्रादि देवताओं ने उनका
स्तवन किया। फिर ब्रह्माजी तथा स्वर्गवासी महाराज दशरथ ने आकर स्तुति करते हुए कहा
- श्रीराम ! तुम राक्षसों का संहार करनेवाले साक्षात् श्रीविष्णु हो।' फिर श्रीराम के अनुरोध से इन्द्र ने अमृत बरसाकर मरे हुए वानरों को जीवित
कर दिया। समस्त देवता युद्ध देखकर, श्रीरामचन्द्रजी के
द्वारा पूजित हो, स्वर्गलोक में चले गये। श्रीरामचन्द्रजी ने
लङ्का का राज्य विभीषण को दे दिया और वानरों का विशेष सम्मान किया ॥ २३-२९ ॥
ससीतः पुष्पके स्थित्वा गतमार्गेण
वै गतः।
दर्शयन् वनदुर्गाणि सीतायै
हृष्टमानसः ।। ३० ।।
भरद्वाजं नमस्कृत्य नन्दिग्रामं
समागतः।
भरतेन नतश्चागादयोध्यान्तत्र
संश्थितः ।। ३१ ।।
वसिष्ठादीन्नमस्कृत्य कौशल्याञ्चैव
केकयीम् ।
सुमित्रां प्राप्तराज्योऽथ
द्विजादीन् सोऽभ्यपूजयत् ।। ३२ ।।
वासुदेवं स्वमात्मानमश्वमेधैरथायजत्।
सर्वदानानि स ददौ पालयामास स प्रजाः
।।३३।।
पुत्रवद्धर्म्मकामादीन्
दुष्टनिग्रहणे रतः।
सर्वधर्म्मपरो लोकः सर्वशस्या च
मेदिनी ।।
नाकालमरणञ्चासीद्रामे राज्यं
प्रशासति ।। ३४ ।।
फिर सबको साथ ले,
सीता सहित पुष्पक विमान पर बैठकर श्रीराम जिस मार्ग से आये थे,
उसी से लौट चले। मार्ग में वे सीता को प्रसन्नचित्त होकर वनों और
दुर्गम स्थानों को दिखाते जा रहे थे। प्रयाग में महर्षि भरद्वाज को प्रणाम करके वे
अयोध्या के पास नन्दिग्राम में आये। वहाँ भरत ने उनके चरणों में प्रणाम किया। फिर
वे अयोध्या में आकर वहीं रहने लगे। सबसे पहले उन्होंने महर्षि वसिष्ठ आदि को
नमस्कार करके क्रमशः कौसल्या, कैकेयी और सुमित्रा के चरणों में
मस्तक झुकाया। फिर राज्य ग्रहण करके ब्राह्मणों आदि का पूजन किया। अश्वमेध यज्ञ
करके उन्होंने अपने आत्मस्वरूप श्रीवासुदेव का यजन किया, सब
प्रकार के दान दिये और प्रजाजनों का पुत्रवत् पालन करने लगे। उन्होंने धर्म और
कामादि का भी सेवन किया तथा वे दुष्टों को सदा दण्ड देते रहे। उनके राज्य में सब
लोग धर्मपरायण थे तथा पृथ्वी पर सब प्रकार की खेती फली फूली रहती थी। श्रीरघुनाथजी
के शासनकाल में किसी की अकालमृत्यु भी नहीं होती थी । ३०-३४ ॥
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये रामायणे
युद्धकाण्डवर्णनं नाम दशमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'रामायण- कथा के अन्तर्गत युद्धकाण्ड की कथा का वर्णन' नामक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १० ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 11
Related posts
vehicles
business
health
Featured Posts
Labels
- Astrology (7)
- D P karmakand डी पी कर्मकाण्ड (10)
- Hymn collection (38)
- Worship Method (32)
- अष्टक (54)
- उपनिषद (30)
- कथायें (127)
- कवच (61)
- कीलक (1)
- गणेश (25)
- गायत्री (1)
- गीतगोविन्द (27)
- गीता (34)
- चालीसा (7)
- ज्योतिष (32)
- ज्योतिषशास्त्र (86)
- तंत्र (182)
- दशकम (3)
- दसमहाविद्या (51)
- देवी (190)
- नामस्तोत्र (55)
- नीतिशास्त्र (21)
- पञ्चकम (10)
- पञ्जर (7)
- पूजन विधि (80)
- पूजन सामाग्री (12)
- मनुस्मृति (17)
- मन्त्रमहोदधि (26)
- मुहूर्त (6)
- रघुवंश (11)
- रहस्यम् (120)
- रामायण (48)
- रुद्रयामल तंत्र (117)
- लक्ष्मी (10)
- वनस्पतिशास्त्र (19)
- वास्तुशास्त्र (24)
- विष्णु (41)
- वेद-पुराण (691)
- व्याकरण (6)
- व्रत (23)
- शाबर मंत्र (1)
- शिव (54)
- श्राद्ध-प्रकरण (14)
- श्रीकृष्ण (22)
- श्रीराधा (2)
- श्रीराम (71)
- सप्तशती (22)
- साधना (10)
- सूक्त (30)
- सूत्रम् (4)
- स्तवन (109)
- स्तोत्र संग्रह (711)
- स्तोत्र संग्रह (6)
- हृदयस्तोत्र (10)
No comments: