राकिणी स्तोत्र
रुद्रयामल तंत्र पटल ४१ में राकिणी
के साथ योगिराज श्रीकृष्ण का स्तवन है (२०--२१)।
इस स्वाधिष्ठान राकिणी स्तोत्र में कृष्णप्रिया से सुख देने की प्रार्थना की गई है
। कुलेश जननी माता राधेश्वरी से रोग आदि शत्रुओं से शरीर रक्षा की प्रार्थना की गई
है । इस प्रकार स्तोत्र एवं कवच का विस्तार से वर्णन है। इस स्तोत्र के प्रभाव से
भव बन्धन से मुक्ति पाकर विश्वामित्र के समान साधक जितेन्द्रिय हो जाता है और भगवान्
कृष्ण में अचल भक्ति प्राप्त करता है। इस स्तोत्र का पाठ षट्चक्र भेद के समय सदैव
किया जाता है।
रुद्रयामल तंत्र पटल ४१ राकिणी स्तोत्र
Rudrayamal Tantra Patal 41
रुद्रयामल तंत्र इकचालीसवाँ पटल
रुद्रयामल तंत्र एकचत्वारिंशः पटल:
रूद्रयामल तंत्र शास्त्र
अथैकचत्वारिंशः पटलः
आनन्दभैरवी उवाच
कृतान्तसंहारविहारभोगं रसाप्लुतश्रीकर
शङ्कर प्रभो ।
तवाज्ञयाऽहं कथयामि सिद्धये मयागमानन्दवशाद्धि
तन्त्रम् ॥ १ ॥
श्री आनन्दभैरवी ने कहा—
हे रस में डूबे हुए श्री देने वाले प्रभो शङ्कर ! मैं आपकी आज्ञा से
भक्तजनों की सिद्धि हेतु तथा मय के आगमशास्त्र के आनन्द से वशीभूत होकर कृतान्त का
संहार कर विहार और भोग वाले तन्त्र को कहती हूँ ॥ १ ॥
प्रेमाभिलाषी सुजनो मुनीन्द्रो
जानाति तन्त्रार्थमनन्तसाधनम् ।
महाप्रभाते चराणाब्जभक्तो
गोविन्द शम्भोर्यदि भक्तिभाजनः ॥ २
॥
षड्चक्रभेदार्थविशेषसाधनं
जानाति यो वास जनोऽतिदुर्लभः ।
स एव संसारनिषेधसाधनं
सदा विहायाचल भक्तिमाप्नुयात् ॥ ३ ॥
प्रेम की अभिलाषा वाला सज्जन
मुनीन्द्र यदि प्रातः काल गोविन्द अथवा सदाशिव के चरण कमलों में भक्ति रखता हो तो
वह अनन्त साधन सम्पन्न तन्त्र के अर्थों को जानने वाला होता है । षट्चक्रों के
भेदन के लिए विशेष साधनों को जानने वाला ऐसा साधक विशेष दुर्लभ है। क्योंकि वही
संसार के निषेध का साधन जानने से संसार का परित्याग कर भगवान् में अचल भक्ति
प्राप्त करता है ।। २-३ ।।
आनन्दभैरव उवाच
यदि वा कथिता कान्ते षड्दलप्रक्रिया
शुभा ।
राकिण्या मिलनं देव्याः
कुण्डलिन्याः पराक्रमम् ॥ ४ ॥
सार्द्ध श्रीविष्णुना कालरूपिणा
बहुरूपिणा ।
शुद्धनिर्मलतत्त्वेन परिवारगणैः सह
॥ ५ ॥
न तद्धि कथितं सर्वं श्रीकृष्णस्य
पराक्रमम् ।
स्तवनं देवराकिण्या सहितं
कृष्णसाधनम् ॥ ६ ॥
श्रीआनन्दभैरव ने कहा—
हे कान्ते! यद्यपि आपने सर्वकल्याणकारी षट्चक्रदल की प्रक्रिया कह
दी, तथापि कालरूपधारी एवं अनेक रूपधारी शुद्ध निर्मल तत्त्व
वाले परिवार सहित श्री विष्णु के साथ राकिणी देवी का सम्मिलन, कुण्डलिनी का पराक्रम और श्रीकृष्ण का पराक्रम, यह
सब आपने नहीं कहा। इतना ही नहीं, आपने कृष्ण के सिद्धि के
साधन भूत देवी राकिणी का स्तोत्र भी नहीं कहा ।। ४-६ ।।
मङ्गलं परमं ब्रह्मसाधनं कुलवर्द्धनम्
।
कृष्णप्रकाशस्तवनं
राकिणीशक्तिसंयुतम् ॥ ७॥
कथयस्व महाकालि यदि स्नेहोऽस्ति मां
प्रति ।
अत्यन्तगुह्यं कथनं सहस्र
नाममङ्गलम् ॥ ८ ॥
अष्टोत्तरं महाविष्णो राकिण्या
सहितं प्रिये ।
इदानीं राकिणीस्तोत्रं वद भामिनी
कामदे ॥ ९ ॥
अतः हे महाकालि ! यदि मुझमें आपका
स्नेह हो तो परम कल्याणकारी ब्रह्मा के साधनभूत, कुल को बढ़ाने वाले, राकिणी शक्ति से संयुक्त एवं
कृष्णतत्त्व का प्रकाश करने वाले उस स्तोत्र को कहिए। हे प्रिये ! राकिणी के सहित
महाविष्णु का परम मङ्गलदायी अष्टोत्तर सहस्र (११०८) नाम कहिए। किन्तु, हे भामिनि ! हे कामदे ! इस समय सर्वप्रथम राकिणी स्तोत्र का आख्यान कीजिए
।। ७९ ।
आनन्दभैरवी उवाच
योगेन्द्र परमानन्दसिन्धो
श्रीचन्द्रशेखर ।
शृणुष्व राकिणीस्तोत्रं
परमानन्दवर्धनम् ॥ १० ॥
सर्वत्र सुखदं प्रोक्तं सिद्धानामपि
साधनम् ।
एतत् स्तवनपाठेन योगी योगेन्द्रभाक्
भवेत् ॥ ११ ॥
श्री आनन्दभैरवी ने कहा—हे योगन्द्र ! हे परमानन्द सिन्धो ! हे श्रीचन्द्रशेखर ! इस समय परमानन्द
को बढ़ाने वाले राकिणी स्तोत्र को सुनिए। यह स्तोत्र सभी काल में सुख देने वाला
कहा गया है, और यह सिद्ध लोगों का साधन है। इस स्तोत्र के
पाठ से योगी योगेन्द्र एवं दृढ़ बन जाता ।। १०-११ ।।
वैष्णवीसाधने यस्तु पञ्चाचारं करोति
वा ।
सर्वेषां साधनोत्कृष्टं जातिभ्रष्टोऽपि
नो भवेत्॥ १२ ॥
समता शत्रुमित्रेषु कर्माकर्मसु
तत्त्ववित् ।
यदि वा वैष्णवे नाथ समभावः प्रजायते
॥ १३ ॥
पञ्चाचार की महिमा- वैष्णवी
के साधन में जो वैष्णव पञ्चाचार का आचरण करता है, वह इस सर्व साधनोत्कृष्ट स्तोत्र का पाठ करे तो वह जाति भ्रष्ट (पतित)
नहीं होता । हे नाथ ! यदि विष्णु में भक्ति कर वैष्णव हुए भक्त में समभाव आ जावे
तो उसे शत्रु और मित्र में समता प्राप्त होती है और वह कर्म एवं अकर्म का
तत्त्ववेत्ता बन जाता है ।। १२-१३ ।।
पञ्चाचारक्रमेणैव सिद्धो भवति
नान्यथा ।
राधादिगोपिकाभिश्च गोपवृन्दैः
समन्ततः ॥ १४ ॥
पञ्चाचारं मुदा कृत्वा सर्वेषां
परिपालनम् ।
चकार कमलानाथोऽतः पञ्चाचारमाश्रयेत्
॥ १५ ॥
कोई भी साधक पञ्चाचार क्रम से सिद्ध
होता है,
अन्यथा नहीं। राधादि गोपियों के साथ तथा गोपवृन्दों के साथ कमलानाथ
विष्णु ने प्रसन्नतापूर्वक पञ्चाचार कर सबका पालन किया । इसलिए पञ्चाचार का आश्रय
साधक को अवश्य ग्रहण करना चाहिए ।। १४-१५ ॥
पञ्चाचार क्रमेणैव चैतन्या कुण्डली
भवेत् ।
कृष्णचैतन्यहेतोश्च राकिण्याश्च तथा
प्रभो ॥ १६ ॥
चैतन्याय षड्दलस्थदेव चैतन्यहेतुना
।
कुण्डलीवधुराकिण्याः स्तोत्रं शृणु
कुलार्णव ॥ १७ ॥
हे कुलार्णव ! क्योंकि पञ्चाचार का
क्रम करने से कुण्डलिनी जागृत हो जाती है। हे प्रभो ! कृष्ण के चैतन्य के लिए तथा
राकिणी को चैतन्य करने के लिए, किं बहुना,
षड्दलस्थ देवताओं के चैतन्य के लिए कुण्डली के रूप में स्वीभावापन्न
राकिणी देवी के स्तोत्र को सुनिए । १६-१७ ॥
रुद्रयामल तंत्र पटल ४१
रुद्रयामल तंत्र इकचालीसवाँ पटल राकिणी
स्तोत्र
रुद्रयामल तंत्र एकचत्वारिंशः पटल:
राकिणीराधिकास्तवम्
आन्दोलिता रसनिधौ कुलचञ्चला या
मायामयो सकलदुःखविनाशवीरा ।
वीरासना स्थितिगता सुलभा मुनीनां
भव्या प्रपातु भविका कुलराकिणी माम्
॥ १८ ॥
राकिणीस्तोत्र
—
रस समुद्र में झूलती हुई, मूलाधार में चञ्चल
रहने वाली जो मायामयी हैं, भक्तों के समस्त दुःख का विनाश
करने के लिए जो एकमात्र समर्थ हैं, जो वीरासन से विराजमान
अपनी स्थिति में रहने वाली, मुनियों के लिए सर्वदा सुलभ,
सबसे मनोहर, सबका कल्याण करने वाली कुलराकिणी
(विष्णु की शक्ति ) मेरी रक्षा करें ॥ १८ ॥
आनन्दसिन्धु जडिताखिलसारपाना
बाला कुलीननमिता दलषट्कुलस्था ।
काली कलामलगुणा धनिनां धनस्था
कृष्णेश्वरी समुदयं कुरु राकिणी मे
॥ १९ ॥
आनन्द सिन्धु में सराबोर रहने वाली,
अखिल सारों को पी जाने वाली, बाला, कुलीन जनों से नमन की जाने वाली, षड्दल कमल चक्र पर
निवास करने वाली, काली कलास्वरूपा, शुभगुणों
से संयुक्त, धनियों के धन में निवास करने वाली, कृष्णेश्वरी श्री राकिणी देवी मेरा अभ्युदय करें ।। १९ ।।
या राकिणी त्रिजगतामुदयाय चेष्टा
संज्ञामयी कुलवती कुलवल्लभस्था ।
विश्वेश्वरी स्मरहरप्रियकर्मनिष्ठा
कृष्णप्रिया मम सुखं परिपातु देवी ॥
२० ॥
जो राकिणी तीनों लोकों के अभ्युदय
के लिए चेष्टा स्वरूपा हैं, सबमें चेतना का
संचार करने वाली हैं, जो कुलवती एवं कुल (शाक्त सम्प्रदाय)
को अत्यन्त प्रिय हैं, जो विश्व की ईश्वरी हैं, सदाशिव को प्रिय एवं उनके कर्म में निष्ठा रखने वाली हैं ऐसी
श्रीकृष्णप्रिया राकिणी देवी सुखपूर्वक मेरी रक्षा करें ॥ २० ॥
षड्वर्गनाथकरपद्मनिषेविता या
राधेश्वरी प्रियकरी सुरसुन्दरी सा ।
माता कुलेशजननी जगतां मनुस्था
विद्या परा रिपुहरावत मे शरीरम् ॥
२१ ॥
समस्त ऐश्वर्य,
यश, ज्ञान एवं वैराग्यादि षड्वर्गों के स्वामी
श्रीकृष्ण के कर कमलों द्वारा जो सेवित हैं ऐसी राधा, ईश्वरी,
सबका प्रिय करने वाली, सुरसुन्दरी, वही माता कुलेश जननी सब के मन में निवास करने वाली, परा
विद्या, शत्रुओं का संहार करने वाली राकिणी मेरे शरीर की
रक्षा करें ॥ २१ ॥
गोविन्दरामरमणी नवमालिनी या
राज्येश्वरी स्मरहरा नवकामिनी वा ।
मे षड्दलाश्रितसुर परिपातु नित्यं
श्रीकुण्डली सुविमला कुलराकिणी सा ॥
२२ ॥
गोविन्द को रमण कराने के कारण उनकी
रमणी,
नवीन माला धारण करने वाली राजेश्वरी, कामदेव
का विनाश करने वाली अथवा युवावस्था सम्पन्न श्री कुण्डलिनी, सुविमला,
कुल राकिणी देवी मेरे षड्दल कमल चक्र पर रहने वाले सभी देवताओं की
सदैव रक्षा करें ॥ २२ ॥
श्रीसुन्दरी कुलपरा कुलवृन्दवन्द्या
सन्ध्याविधि प्रभवतामतिकामतीर्था ।
श्रीदायिनी कुलगणामलभावदात्री
नित्यं प्रपातु विषयं कुलषड्दलानाम्
॥ २३ ॥
श्री सुन्दरी कुल में रहने वाली
शाक्त सम्प्रदाय के समूहों से वन्दना किए जाने योग्य,
संध्या विधि के आचरण करने वालों के लिए उनकी कामना पूर्ण करने वाली,
श्रीदायिनी, कुलगणों (शाक्त उपासकों) में
स्वच्छभाव प्रदान करने वाली राकिणी देवी मूलाधार के षडदलों के समस्त विषयों की
नित्य रक्षा करें ॥ २३ ॥
चैतन्यदाननिरतां त्रिगुणाभिरामां
श्यामां नितम्बधृतसुन्दररत्नघण्टाम्
।
नीलाचलस्थितकरां वरदानहस्तां
श्रीकृष्णवाम कमलोपरि पूजयामि ॥ २४
॥
सब में चैतन्य प्रदान करने के लिए
निरत,
त्रिगुण, (सत्त्व, रज
एवं तम) से अभिराम, श्यामा, नितम्बस्थल
पर सुन्दर रत्नघण्टा धारण किए हुए, नील पर्वत पर हाथ रखे हुए
वरदान देने के लिए उत्सुक हाथों वाली, श्रीकृष्ण की वामा जो
कमल के समान कमनीय हैं, मैं उनका पूजन करता हूँ ।। २४ ।।
तां राकिणीं त्रिरमणीं समलापहन्त्री
सर्वस्थिता गगनमातरमम्बुजस्थाम् ।
पद्मासनां श्रुतिभुजां
गुरुजामनन्तां
शान्तां षडम्बुजदलोपरि पूजयामि ॥ २५
॥
तीनों लोकों में रमण करने वाली,
समस्त मलों को प्रक्षालन करने वाली, सब में
स्थित आकाश की भी माता, कमल के ऊपर निवास करने वाली, पद्मासन से बैठी हुई श्रुति को अन्तःकरण में स्थापित करने वाली उन अनन्ता,
शान्ता राकिणी की मैं षट्कमल दल पर पूजन करता हूँ ।। २५ ।।
शान्तिं कृपाकपटकोपरि नाशमुक्ति
शिवां परमवैष्णवपूजिताङ्घ्रिम् ।
राधा सुधां वरमयीं जगतां गुणस्थां
धर्मार्णवां रसदले परिपूजयामि ॥ २६
॥
शान्तिस्वरूप कृपा में कपट करने
वाले का विनाश कर उसे मुक्त करने वाली शिवा,परम
वैष्णवों द्वारा पूजित चरणों वाली, राधा, सुधा, वरमयी, जगत्स्वरूपा,
गुणों में रहने वाली, धर्म के समुद्र वाली
श्री राकिणी की मैं षट्दल कमल पर सब प्रकार से पूजा करता हूँ ।। २६ ।।
कर्त्तीकरां सकरुणां रमणीं
त्रिसर्गा
तां राकिणीमतिदयाममलार्थचिन्ताम् ।
भ्रान्तिं भ्रमागमवरां
स्मृतिमादिपूज्यां
भार्यां हरेरतिसुखां परिपूजयामि ॥
२७ ॥
हाथ में कैंची लिए हुए,
करुणायुक्त, तीनों लोकों की सृष्टि करने वाली,
स्त्रीस्वरूपा, अत्यन्त दया वाली, स्वच्छ अर्थ के चिन्तन में लगी हुई, भ्रान्ति
स्वरूपा, आगम ग्रन्थों द्वारा सर्वश्रेष्ठ कही जाने वाली,
स्मृति स्वरूपा, सर्वप्रथम पूज्य, विष्णु की भार्या और अत्यन्त सुख स्वरूपा उन राकिणी देवी का मैं पूजन करता
हूँ ।। २७ ।।
या कातरं निरवधिप्रणय स्ववस्था
वागीश्वरी भगवती यतिकोटिनम्रा ।
ताम्राकृति प्रकृति चेतसि रक्तवर्णा
मायामयी सुरकलावति पातु मेऽङ्गम् ॥
२८ ॥
जो कातर जनों को अपने असीम प्रेम से
अपना लेती हैं, ऐसी यतियों से करोड़ों बार
प्रणाम की जाने वाली, ताम्र के समान आकृति वाली, प्रकृति, चित्त में राग रखने वाली मायामयी, सुरकलास्वरूपा, वागीश्वरी भगवती राकिणी मेरे अङ्गों
की रक्षा करें ॥। २८ ।।
कल्पद्रुमाशयलता फलरूपिणी या
भर्गस्थिता पुरुषकोटिमुनिस्तुवन्ती
।
सा मे कुलेश्वररसं हरिहस्तपूज्या
क्षान्तिः सदा मम धनं परिपातु राधा
॥ २९ ॥
कल्पद्रुम के समान लता वाली जो
भगवती फलरूपिणी हैं, सूर्य में निवास
करने वाली हैं, करोड़ों पुरुषों तथा मुनियों से संस्तुत,
भगवान् विष्णु के हाथों से पूजी गई वह भगवती मुझे कुल (मूलाधार) के
ईश्वर (स्वयंभूलिङ्ग) में रस (प्रेम) प्रदान करें ।। २९ ।।
क्षेमङ्करी वरकरी सुकरी हरिस्था
या सौकरी भवकरी त्रिपुरा महेशी ।
वायुस्थिता लयमयी स्थितिमार्गसङ्गा
भङ्गप्रिया सकलका परिपातु राधा ॥ ३०
॥
क्षमा स्वरूपा,
सबका कल्याण करने वाली, वरदायिनी, शुभ करने वाली, सिंहवाहिनी, सबको
सुलभ करने वाली, संसार में जन्म देने वाली, त्रिपुरा, महेशी, वायुस्थिता,
लयमयी, स्थितिमार्ग की सङ्गिनी ऐसी राधा रानी
मेरे धन की रक्षा करें और भङ्गप्रिया सकलका राधा मेरी रक्षा करें ॥ ३० ॥
गङ्गा निर्मलभावदा ममशिरोदेशं सदा
रक्षतु
श्रीराधा कुलराकिणी मम कपालोर्ध्व
महावाक्प्रिया ।
मन्त्रस्था जयदा मुदा कुमुदिनी भालं
भ्रुवोरन्तरं
विद्या वाग्भवकुण्डलीफलवलाबाला च
नेत्रत्रयम् ॥ ३१ ॥
निर्मल भावना प्रदान करने वाली
गङ्गा मेरे शिरः प्रदेश की रक्षा करें। कुल में रहने वाली राकिणी महावाक् प्रिया
श्रीराधा हमारे कपाल के ऊर्ध्व भाग की रक्षा करें। मन्त्र में स्थित रहने वाली,
जयदायिनी, कुमुदिनी प्रेमपूर्वक मेरे भाल तथा भ्रू
के मध्य भाग की रक्षा करें । वाग्भवकुण्डलिनी फलवला बाला विद्या मेरे तीन नेत्रों
की रक्षा करें ।। ३१ ।।
गण्ड चण्डसरस्वती श्रुतिकुल
कैलासशैलस्थिता
मेधा टं घटवासिनी शशीमुखी सूक्ष्मातिसूक्ष्माशया'।
जिह्वाग्रं चिबुकं रदावधिवहा कण्ठं
गलं स्कन्धगं
स्कन्देशी दशनप्रभामलमति –
वैकुण्ठधामेश्वरी ॥ ३२ ॥
चण्ड सरस्वती गण्डस्थल की,
कैलास पर्वत पर रहने वाली देवी दोनों कानों की, टं शब्दगत घटवासिनी, शशिमुखी, सूक्ष्मातिसूक्ष्माशया
मेरी मेधा की, रदावधिवहा देवी मेरे जिह्वाग्र एवं चिबुक
प्रदेश की, कण्ठ गला एवं स्कन्ध की स्कन्देशी और मेरे
दशनप्रभा की अमलमति वाली वैकुण्ठ धामेश्वरी देवी रक्षा करें ॥ ३२ ॥
नानावर्णविलासिनी मृदुरसं
शम्भोर्भवानी शिवा
पृष्ठ कर्मसु पृष्ठगा गतिकरी
नित्योल्बणी भास्वती ।
पार्श्व मे कुलमालिनी मम कटिं
लिङ्गं नितम्बाम्बरं
कामाख्या धनदायिनी सकरुणा पादद्वयं
पातु सा ॥ ३३ ॥
नाना वर्ण विलासिनी देवी मेरे हृदय
स्थल की,
शम्भु पत्नी भवानी शिवा मेरे पृष्ठ की, पृष्ठगा
कर्म की, गतिकरी नित्योल्बणी भास्वती देवी मेरे पार्श्वभाग
की, कुलमालिनी मेरे दोनों कटियों, लिङ्ग,
नितम्ब और वस्त्र की तथा वही कामाख्या धनदायिनी राकिणी भगवती
करुणापूर्वक मेरे दोनों पैरों की रक्षा करें ।। ३३ ।।
मातृक्रोधनिवारिणी मम शिवं
षट्पत्रशोभाकरं
पातु श्रीचरुवासिनी कुलतरुं गौरी
परानन्ददा ।
चैतन्यस्थलवासिनी मम गता गोविन्द
मातृप्रिया
चैतन्यं सततं प्रपातु धरणी धात्री
वरक्षेत्रगा ॥ ३४ ॥
माता के क्रोध का निवारण करने वाली,
मेरे षट्पत्र की शोभा बढ़ाने वाले शिव की श्रीचरुवासिनी गौरी जो
परब्रह्म को भी आनन्द प्रदान करती हैं, चैतन्य स्थल में
निवास करती हैं, गोविन्द के माता के समान प्रिय हैं और हमारे
में निवास करती हैं, वे हमारे कुलतरु (शाक्त रूपी वृक्ष) की
रक्षा करें । वरक्षेत्रगा धात्री धरणी (पृथ्वी) देवी मेरे चैतन्य की नित्य रक्षा
करें ।। ३४ ।।
धन्या पिङ्गललोचनाम्बुजमुखी
चैतन्यकर्मप्रिया
सर्वत्र प्रियमाकरोतु नियतं शक्तिः
क्षमाकर्तृका ।
कीर्तिस्था मम कीर्तिचक्रनिलयं
लाक्षारुणा बल्वरी
नीचा चक्रनिवासिनी मम जया जीवं मुदा
पातु माम् ॥ ३५ ॥
धन्या पीतवर्ण के नेत्रों वाली,
चन्द्रमुखी, चैतन्यकर्म प्रिया, क्षमा करने वाली, शक्ति स्वरूपा भगवती राकिणी
सर्वत्र नियत रूप से मेरा प्रिय करें। कीर्ति में निवास करने वाली देवी, मेरे कीर्ति एवं चक्र निलय की और लाक्षा के समान अरुण वर्ण वाली, बल्वरी ?, नीचा ? चक्र
निवासिनी जया देवी मेरे जीव की प्रसन्नता पूर्वक रक्षा करें ।। ३५ ।।
एतत्स्तोत्रं पठेन्नित्यं प्राणवायुवराशुभे
।
षट्चक्रभेदसमये सदा पाठ्यं
सुयोगिभिः ॥ ३६ ॥
कुलविन्याससमये कुलचक्रप्रवेशने ।
अवश्यं प्रपठेद्विद्वान्
राकिणीराधिकास्तवम् ॥ ३७ ॥
प्राण वायु के अशुभ काल में इस
स्तोत्र का नित्य पाठ करे तथा षट्चक्र के भेदन काल में अच्छे योगियों को इस
स्तोत्र का सदा पाठ करना चाहिए। कुल विन्यास काल में और कुलचक्र के प्रवेश काल में
विद्वान् साधक अवश्य ही राकिणी राधिका स्तव का पाठ करे ।। ३६-३७ ॥
रुद्रयामल तंत्र पटल ४१
रुद्रयामल तंत्र इकचालीसवाँ पटल
रुद्रयामल तंत्र एकचत्वारिंशः पटल: राकिणीराधिका स्तव: फलश्रुति:
त्रिसन्ध्यं चेदमाकुर्यात् पठित्वा
च पुनः पुनः ।
ध्यात्वा भावपरो भूत्वा मुच्यते
भवबन्धनात् ॥ ३८ ॥
अचलां भक्तिमाप्नोति विश्वामित्रो
यथा वशी ।
पठनात् पामरो याति ब्रह्मलोकं
कुलाधिप ॥ ३९ ॥
राकिणीराधिका स्तव की फलश्रुति
—
तीनों सन्ध्या में बारम्बार पाठ करे और पाठ करके पुनः पुनः भाव में
तन्मय होकर राकिणी का ध्यान करे तो साधक भव बन्धन से शीघ्र मुक्त हो जाता है । इस
स्तोत्र के पाठ से कर्ता अचल भक्ति प्राप्त कर लेता है जिस प्रकार जितेन्द्रिय
विश्वामित्र ने भक्ति प्राप्त की थी। हे कुलाधिप ! बहुत कहने से क्या ? इसके पाठ से पामर भी ब्रह्मलोक प्राप्त कर लेता है ।। ३८-३९ ॥
एतत्पठनमात्रेण शीतलो गुणवान् भवेत्
।
अप्रकाश्यमिदं स्तोत्रं
सर्वान्तकविनाशनम् ॥ ४० ॥
समभावं समाकृत्य जीवन्मुक्तो
भवेद्वशी ।
पञ्चाचाररतो भूत्वा साधयेद् यदि
साधनम् ॥ ४१ ॥
इसके पाठ मात्र से साधक शान्त
स्वभाव एवं गुणवान् बन जाता है। यह स्तोत्र किसी से प्रकाशित नहीं करना चाहिए। यह
सभी प्रकार के काल का विनाशक है। यदि साधक पञ्चाचार में निरत होकर इस साधन को
सिद्ध कर ले और (प्राणिजात पर) समभाव व्यवहार करे तो वह जितेन्द्रिय एवं
जीवन्मुक्त बन जाता ।। ४०-४१ ।।
कुण्डलीयोगकाले च कुलाचारं न
वर्जयेत् ।
कुलाचारवर्जनेन महाहानि: प्रजायते ॥
४२ ॥
ब्राह्मणः क्षत्रियो वापि वैश्यो वा
शूद्र एव च ।
समभावं सदा कृत्वा कुलाचारं
समाश्रयेत् ॥ ४३ ॥
कुण्डलिनी से युक्त हो जाने पर
कुलाचार को छोड़ नहीं देना चाहिए, क्योंकि
कुलाचार के वर्जन से महान् हानि की संभावना है। ब्राह्मण हो, चाहे क्षत्रिय हो, चाहे वैश्य हो, चाहे शूद्र हो (समस्त चराचर जगत् में) समभाव का व्यवहार करते हुए कुलाचार
का आश्रय अवश्य ग्रहण करना चाहिए ।। ४२-४३ ॥
कुण्डली पृथिवी देवी राकिणी
स्वारिदेवता ।
तद्गेहगामिनी देवी राधिका
राज्यकामिनी ॥ ४४ ॥
अस्याः साधनकाले च समयाचारमाश्रयेत्
।
समभावे महामोक्ष इति
तन्त्रार्थनिर्णयः ॥ ४५ ॥
समभावार्थकथनं त्यक्त्वा योगी
भवेत्कृती ॥ ४६ ॥
कुण्डली पृथ्वी देवी हैं,
राकिणी उनकी प्रत्यधि देवता हैं और राज्यकामिनी राधिका देवी
श्रीकृष्ण की गृहस्वामिनी हैं। इस स्तोत्र के साधनकाल में साधक समयाचार का पालन
करे। जब समभाव आ जाय तो महा मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है, ऐसा
तन्त्रों के द्वारा अर्थ का निर्णय किया गया है। समभाव का अर्थ कथन (किसी से न
कहे) उसे त्याग देवे तो योगी कृतार्थ हो जाता है ।। ४४-४६ ।।
॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे
महातन्त्रोद्दीपने सिद्धिमन्त्रप्रकरणे षट्चक्रप्रकाशे भैरवीभैरवसंवादे
स्वाधिष्ठानराकिणी- स्तोत्रं नामैकचत्वारिंशत्तमः पटलः ॥ ४१ ॥
॥ श्री रुद्रयामल में उत्तरतन्त्र
में महातन्त्रोद्दीपन में सिद्धिमन्त्र के प्रकरण में षट्चक्र प्रकाश में भैरवी
भैरव संवाद में स्वाधिष्ठान स्थित राकिणी स्तोत्र की इक्तालिसवें पटल की डॉ०
सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ ४१ ॥
आगे जारी............रूद्रयामल तन्त्र पटल ४२
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