श्रीकृष्णस्तोत्र

श्रीकृष्णस्तोत्र                            

रुद्रयामल तंत्र पटल ३९ में भगवान्‌ श्रीकृष्ण के स्तोत्र एवं कवच पद्धति का विस्तार से प्रतिपादन है। इस स्तोत्र पाठ से पहले साधक उनके कवच मन्त्र से पहले आत्म रक्षा कर ले। इस विधि से एक मास में ही षड्दल में सिद्धि प्राप्त होती है।

श्रीकृष्णस्तोत्र

रुद्रयामल तंत्र पटल ३९ श्रीकृष्ण स्तुति कवच                           

Rudrayamal Tantra Patal 39

रुद्रयामल तंत्र एकोनचत्वारिंशः पटल: श्रीकृष्णस्तवनकवचम्

रुद्रयामल तंत्र ऊनचालीसवाँ पटल

रूद्रयामल तंत्र शास्त्र

अथैकोनचत्वारिंशः पटल:

आनन्दभैरवी उवाच

अथ नाथ प्रवक्ष्येऽहं संसारसाधनोत्तमम् ।

येन साधनमात्रेण योगी भवति तत्क्षणात् ॥ १ ॥

अनायासेन सिद्धिः स्याद् यद्यन्मनसि वर्त्तते ।

त्रैलोक्यं मोहयेत्क्षिप्रं त्रैलोक्यं वशमानयेत् ॥ २ ॥

श्री आनन्दभैरवी ने कहाहे नाथ! अब संसार के सभी साधनों में उत्तम साधन कहती हूँ, जिसके साधन कर लेने मात्र से साधक तत्क्षण योगी हो जाता है। साधक के मन में जो जो कामनायें होती हैं, इस साधन से उनकी अनायास सिद्धि हो जाती है। ऐसा साधक शीघ्र ही त्रिलोकी को मोहित कर लेता है और उसे अपने वश में कर लेता है॥ १-२ ॥

रामेण सहितं नित्यं जगतां साक्षिणं वरम् ।

जामदग्न्यकराम्भोजसेवितं सर्वसेवितम् ॥ ३ ॥

अनन्तसत्त्वनिलयं वासुकी सङ्गमाकुलम् ।

अष्टहस्ताग्रसुश्रीदं नानालङ्कारशोभितम् ॥ ४ ॥

स्वाधिष्ठानगतं ध्यात्वा शीतलो जायते वशी ।

तत्स्तोत्रं शृणु मे नाथ यत्पाठात् सिद्धिमाप्नुयात् ॥ ५ ॥

श्रीकृष्णध्यानबलराम के साथ निवास करने वाले जगन्मात्र के सर्वश्रेष्ठ द्रष्टा, परशुराम के करकमलों से सेवित, किं बहुना सभी से सेवित, अनन्त सत्व (बल) के निलय, वासुकी नाग के साथ से आकुल, आठ हाथों वाले, सुन्दर लक्ष्मी प्रदान करने वाले, अनेक प्रकार के अलङ्कारों से शोभित स्वाधिष्ठान चक्र में निवास करने वाले श्रीकृष्ण का ध्यान कर साधक जितेन्द्रिय एवं शान्त हो जाता है। हे नाथ! अब उनके स्तोत्र को सुनिये, जिसके पाठ करने से साधक को सिद्धि प्राप्त हो जाती है ।। ३-५ ।।

श्रीकृष्णस्तोत्रम्

ब्रह्मादयः सुराधीशा मुनयः क्रतुरक्षकाः ।

एतत् स्तोत्रं पुरा कृत्वा जीवन्मुक्तो महीतले ॥ ६ ॥

अतः श्रीकालिकानाथ स्तोत्रं शृणु महत्फलम् ॥ ७ ॥

ब्रह्मादि देवगण, मुनिगण तथा यज्ञरक्षक, इस स्तोत्र का पाठ कर इस पृथ्वी पर ही जीवन्मुक्त हो गए। इसलिए हे श्रीकालिकानाथ ! उस महान् फल देने वाले स्तोत्र को सुनिए ।। ६-७ ॥

श्रीविष्णोरद्भुतकर्मणो ब्रह्मर्षिस्त्रिष्टुप्छन्दः

श्रीविष्णुः श्रीकृष्णः श्रीनारायणो देवता

सर्वस्तोत्रसारकवचमन्त्र सिद्ध्यर्थे विनियोगः ॥

अद्भुतकर्मा श्रीविष्णु के इस स्तोत्र के ब्रह्मा ऋषि हैं और त्रिष्टुप् छन्द है । श्रीविष्णु, श्रीकृष्ण और श्रीनारायण देवता हैं। सर्वस्तोत्र सार कवच मन्त्र की सिद्धि के लिए इसका विनियोग करता हूँ ।

श्री कृष्णं जगतामधीशमनघं ध्यानात्सिद्धिप्रदं

गोविन्दं भवसिन्धुपारकरणं सन्तारणं कारणम् ।

श्री विष्णुं वनमालिनं नरहरिं नारायणं गोकुलं

योगेन्द्रं नरनाथमादिपुरुषं वृन्दावने भावयेत् ॥ ८ ॥

समस्त जगत् के अधीश्वर ध्यान से सिद्धि प्रदान करने वाले गोविन्द, संसाररूप समुद्र से पार लगाने वाले, सब को तारने वाले, सब के कारणभूत, श्रीविष्णु के स्वरूप वनमालाधारी नृसिंह, नारायण, गोकुल, योगेन्द्र, नरनाथ एवं आदिपुरुष श्रीकृष्ण का वृन्दावन में ध्यान करना चाहिए ॥ ८ ॥

मोक्षश्रीसहितं कृतान्तविकृतं धर्मार्णवं सुन्दरं

श्रीरामं बलरामभावविमलं नित्याकुलं सत्कुलम् ।

श्रीश्यामं कनकादिहाविलसत्लम्बोदरं श्रीधरं

तं वन्दे हरिमीश्वरं गुणवतीमायाश्रयं स्वाश्रयम् ॥ ९ ॥

मोक्ष श्री के साथ रहने वाले कृतान्त को विकृत करने वाले, धर्म के समुद्र, परमसुन्दर,श्री में रमण करने वाले, बलराम के भाव में विमल, नित्य, आकुल, सत्कुलीन, सुवर्णादि के हार धारण करने से जिनका लम्बा उदर शोभित हो रहा है, ऐसे श्रीधर, गुणवती माया के आश्रय एवं स्व में आश्रय वाले ईश्वर हरि की मैं वन्दना करता हूँ ।। ९ ।।

वैकुण्ठेशमशेषदोषरहितं सायुज्यमोक्षात्मकं

नानारत्नविनिर्मिता मम पूजा राजेन्द्रचूडामणिम् ।

शोभामण्डलमण्डितं सुरतरुच्छायाकरं योगिनं

विद्यागोपसुतावृतं गुणमयं वाक्सिद्धये भावयेत् ॥ १० ॥

वैकुण्ठ के ईश्वर, सम्पूर्ण दोषों से रहित, सायुज्यमोक्ष के साक्षात् स्वरूप, राजेन्द्र चूड़ामणि, शोभामण्डल से मण्डित, कल्पवृक्ष के समान छाया करने वाले, योगी, महाविद्या एवं गोपसुतों से घिरे हुए, गुणमय, श्रीकृष्ण नाना रत्नों से विरचित मेरी पूजा ग्रहण करें । भक्त जनों को इस प्रकार के श्रीकृष्ण का ध्यान वाक्सिद्धि के लिए करना चाहिए ॥ १० ॥

स्वाधिष्ठाननिकेतनं परजनं विद्याधनं मायिनं

श्रीनाथं कुलयोगिनं त्रिभुवनोल्लासैकबीजं प्रभुम् ।

संसारोत्सवभावलाभनिरतं सर्वादिदेशं सुखं

वन्देऽहं वरसर्पशत्रुसफले पृष्ठे स्थिरानन्ददम् ॥ ११ ॥

स्वाधिष्ठान चक्र में निवास करने वाले, पुरुषोत्तम, विद्यारूप धन वाले, माया से युक्त, श्रीनाथ, कुलयोगी, समस्त त्रिभुवन के एकमात्र आनन्द के बीजरूप, प्रभु, संसाररूप उत्सव के भाव लाभ में संलग्न, समस्त प्रदेशों में विद्यमान, सुखरूप, श्रेष्ठ गरुड की पीठ पर आसीन और स्थिर आनन्द देने वाले बलराम एवं श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ॥११ ॥

भावाष्ट भवभावयोगजडितं जाड्यापहं भास्वरं

नित्यं शुद्धगुणं गभीरधिषणामोदैकहेतुं पतिम् ।

कीर्तिक्षेमकरं महाभयहरं कामाधिदैवं शिवं

तत्तत्षड्दलमध्यगेहरुचिरानन्दैकदेशास्पदम् ॥ १२ ॥

आठ प्रकार के भावों से संयुक्त, संसारी भाव ( चेष्टा) रूप योग से जड़ीभूत, मूर्खता को दूर करने वाले, महातेजस्वी, नित्य शुद्धगुणस्वरूप, गम्भीरबुद्धि से आनन्द के एकमात्र साधन, सबके स्वामी, भक्त जनों को कीर्ति प्रदान करने वाले और उनका कल्याण करने वाले तथा उनके भय को हरण करने वाले, काम के अधिदेवता, शिव स्वरूप स्वाधिष्ठान के उन उन षड्दलों के गेह पर रुचिर आनन्द के एक देश के आस्पद, श्रीकृष्ण का ध्यान करना चाहिए ॥ १२ ॥

वन्दे श्रीपतिमच्युतं नरहरिं दैत्यारिशिक्ष्याकुलं

गन्धर्वप्रभृतेः सुगायनरतं वंशीधरं भावदम् ।

रत्नानामधिपं गतिस्थमचलं गोवर्धनाधारणं

विश्वामित्रतपोधनादि मुनिभिः संसेवितं तेजसम्॥ १३ ॥

श्री के पति, कभी च्युत न होने वाले, नृसिंह, दैत्यों के अरि, देवतागणों के शिक्षण में व्यग्रचित्त, गन्धर्व प्रभृति के सुन्दर गायन में रत, वंशी धारण करने वाले एवं भाव (सत्ता), चेष्टा प्रदान करने वाले, रत्नों के अधिप, गति में रहने वाले, अचलस्वरूप, गोवर्धन धारण करने वाले, विश्वामित्रादि तपोधनादि मुनियों से सुसेवित, तैजस स्वरूप श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ ॥ १३ ॥

वन्दे गोविन्दपादाम्बुजमजमजितं राजितं भक्तिमार्गे

सत्त्वोत्पन्नं प्रभुत्वं परगणनमितं चारुमञ्जीरहारम् ।

हंसाकारं धवलगरुडानन्दपृष्ठे निमग्नं

बन्धूकारक्तसारान्वितचरणतलं सर्वदाशान्तरालम् ॥ १४ ॥

अज, किसी के द्वारा न जीते जाने वाले, भक्ति मार्ग में विराजित, सत्त्वोपपन्नता एवं प्रभुत्व से परिपूर्ण, अपने शत्रुओं के द्वारा प्रणमित, अत्यन्त सुन्दर मञ्जीर एवं हार धारण करने वाले, हंस के आकार वाले, श्वेत वर्ण वाले गरुड़ के आनन्द देने वाले पृष्ठ पर बैठे हुए, बन्धूक पुष्प के समान रक्त वर्ण से संयुक्त चरण तल वाले, अपना सब कुछ देने वाले, आशा के अन्तराल में रहने वाले ऐसे गोविन्द के चरण कमलों की मैं वन्दना करता हूँ ॥ १४ ॥

राकिण्याः प्रेमसिद्धं नववयसिगतं गीतवाद्यादिरागं

रागोत्पन्नं सुफलगुणदं गोकुलानन्दचन्द्रम् ।

वाणी- लक्ष्मी-प्रियं तं त्रिभुवनसुजनाह्लादकर्तारमाद्यं

वन्दे सिद्धान्तसारं गतिनतिरहितं सारसङ्केतिताप्तम् ॥१५ ॥

राकिणी के प्रेम से सिद्ध होने वाले, युवावस्था सम्पन्न, गीतवाद्यादि में राग रखने वाले, राग से उत्पन्न होने वाले, सुन्दर फलों वाले गुणों को देने वाले, गोकुल के आनन्द चन्द्र, वाणी एवं लक्ष्मी के प्रिय त्रिभुवन में रहने वाले, सज्जनों में आह्लाद करने वाले, आद्य सिद्धान्तों के सारभूत, गति नति से रहित, तत्त्वों के सङ्केत द्वारा जिन्हें आप्त बताया है। ऐसे उन श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ ॥ १५ ॥

कामं कामात्मकं तं विधुगतशिरसं कृष्णसम्बोधनान्तं

बीजं कामं पुनस्तत् पुरुषसुरतरुं भावयित्वा भजेऽहम् ।

श्रीकृष्णं कृष्णकृष्णं निरवधिसुखदं सुप्रकाशं प्रसन्नं

स्वाधिष्ठानाख्यपद्ये मनसि गतो भवे सिद्धिस्थलस्थम् ॥ १६ ॥

काम, काम के स्वरूप, सर्वत्र व्याप्त, कृष्ण शब्द से संबोधित किए जाने वाले, कामबीज स्वरूप, फिर तत्स्वरूप, पुरुषों के रूप में कल्पवृक्ष उन श्रीकृष्ण का ध्यान कर मैं भजन करता हूँ। जो श्रीकृष्ण हैं, कृष्ण वर्ण वाले हैं, पापों को विनष्ट करने वाले हैं, जिसकी कोई अवधि नही हैं ऐसे सुख देने वाले हैं, सुन्दर प्रकाश वाले एवं प्रसन्न हैं, स्वाधिष्ठान नामक पद्म में, मन में रह कर जो इसी संसार में सिद्धि स्थल में निवास करते हैं ॥ १६ ॥

आकाशे चारुपद्ये रसभयवलगं रक्तवर्णं प्रकाण्डं

आत्मारामं नरेन्द्रं सकलरतिकरं कंसहन्तारमादिम् ।

आद्यन्तस्थानहीनं विधिहरगमनं सेन्द्रनीलामलाभं

भावोत्साहं त्रिसर्गस्थितिपरममरं भावये भावसिद्धयै ॥१७॥

अत्यन्त मनोहर स्वाधिष्ठान चक्र रूप कमल के आकाश में ब भ म य र ल इन ६ पत्तों पर रक्तवर्ण के प्रकाण्ड (मूल से शाखापर्यन्त ) भाग से युक्त, आत्मा में रमण करने वाले, मनुष्यों में इन्द्र, सबसे प्रेम करने वाले, कंस के काल, आदि पुरुष, आद्यन्तस्थान से हीन, ब्रह्मा और सदाशिव से प्राप्त किए जाने योग्य, इन्द्रनील के समान स्वच्छ आभा वाले, भावना से उत्साह प्रदान करने वाले, सृष्टि, स्थिति एवं संहार करने वाले परब्रह्म देवाधिदेव

श्रीकृष्ण का मैं भावसिद्धि के लिए ध्यान करता हूँ ॥ १७ ॥

सर्वेषां ज्ञानदानं रसदलकमले सर्वदा त्वं करोषि

आत्मानन्दं सुधादिप्रियधनगुणिनामेकयोगप्रधानम् ।

मायापूर्णः प्रचयनवरसः प्रीतिदेशः प्रभेकः

श्री राजाख्यः प्रपूर्णः मयि धनरहिते दृष्टिपातं भवादौ ॥ १८ ॥

हे प्रभो ! आप ६ पत्तों वाले अधिष्ठान चक्र के कमलों पर निवास करते हुए सबको ज्ञान दान करने वाले हो । सुधादि प्रियधन वाले गुणियों के एक योग प्रधानभूत आत्मानन्द हो । माया से परिपूर्ण हो, नवों रसों के राशि हो, सब के प्रीति के स्थान ( प्रभेग ? एवं प्रभेक ? ) हो और श्रीराज नाम से प्रसिद्ध हो। किं बहुना, सब प्रकार से परिपूर्ण हो । अतः इस संसार में मुझ निर्धन पर दृष्टिपात कीजिए ।। १८ ।।

काली श्री कुण्डलिन्याः परगृहनिरतं भावकब्रह्मरूपं ।

मुक्तिच्छत्रं पुरेशं निजधनसुखं भार्यया क्रीडयन्तम् ।

सभाक्षेत्र नेत्रं नयमानमयमत्पुरसंस्थाभिषेकम् ॥ १९ ॥

काली श्री कुण्डलिनी रूप के श्रेष्ठ गृह में निवास करने वाले, सब को उत्पन्न करने वाले, परब्रह्मस्वरूप, मुक्तिरूप छत्र वाले, शरीर रूपी पुर के ईश ( परमात्मस्वरूप ) निर्धन जनों को सुख देने वाले, अपनी भार्या के साथ क्रीड़ा करते हुए ल य व श अक्षरों वाले संसत्प्रदेश में दूर से ही अभिषिक्त उन तारक ब्रह्म का मैं ध्यान करता हूँ ॥१९॥

ध्यात्वाऽहं प्रणमामि सूक्ष्मकमले लोकाधिपं व्याधिपं

वैकुण्ठं कृष्णमीडे कुरुभवविभवक्षेमहन्तारमन्तम् ।

शान्तानां ज्ञानगम्यं स्वनयनकमले पालयन्तं त्रिमार्ग

वज्रारिं पूतनारिं द्वयवकनरकध्वान्तसंहारसूरम् ॥ २० ॥

सूक्ष्म कमल पर लोकों के अधिप, व्याधि से संरक्षण करने वाले, वैकुण्ठ धाम वाले, श्रीकृष्ण का ध्यान कर मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ और उनसे प्रार्थना करता हूँ, जो कौरवों के विभव एवं क्षेम के विनाशकर्ता एवं मृत्युस्वरूप हैं, शान्त पुरुषों के अपने नेत्र कमलों में ज्ञान द्वारा गम्य हैं, सृष्टि, स्थिति एवं संहार रूप तीनों भागों का पालन करने वाले हैं, वज्र के अरि एवं पूतना के शत्रु हैं, बकासुर एवं नरकासुर इन दोनों के पापसंहार करने में शूर हैं ॥ २० ॥

मान्य लोकेषु सर्वेष्वतिशयमनसं केवलं निर्मलञ्च

ओङ्कारं कारणाख्यं सुगतिमतिमतां मातृकामन्त्रसिद्धम् ।

सिद्धानामादिसिद्धं सुररिपुशमनं कालरूपं रिपूणां

मूलो षड्लान्ते मनसि सुविमले पूरयित्वा मुकुन्दम् ॥ २१ ॥

नित्यं सम्भावयेऽहं निजतनुसमता सिद्धये पूजयामि ।

त्वं साक्षादखिलेश्वरः प्रियकरः श्रीलोकहस्तार्चितः ।

क्षोणीशः प्रलयात्मकः प्रतिगुणी ज्ञानी त्वमेको महान् ॥ २२ ॥

सभी लोक में मान्य (आदरणीय) श्रेष्ठ मन वाले एकमात्र (अकेले ) स्वच्छ ॐकार स्वरूप, कारण नाम से कहे जाने वाले, सुन्दर गति वाले, बुद्धिमानों के आराध्य, मातृका मन्त्र से सिद्ध, सभी सिद्धों में आदि सिद्ध, देवताओं के शत्रु राक्षसों का शमन करने वाले, सर्वथा निष्पाप, शत्रुओं के लिए कालस्वरूप, मूलाधार चक्र के ऊपर स्वाधिष्ठान चक्र में ६ पत्ते वाले कमल के अन्त में अत्यन्त स्वच्छ मन में भगवान् मुकुन्द को स्थापित कर मैं उनका नित्य ध्यान करता हूँ और अपने शरीर में समदृष्टि प्राप्त करने के लिए उन श्रीकृष्ण का पूजन करता हूँ । हे भगवान् ! आप साक्षात् अखिलेश्वर हो, सबका प्रिय करने वाले हो, श्री सम्पन्न लोगों द्वारा अर्चित हो, इस पृथ्वी के ईश्वर हो, प्रलयकर्ता हो समस्त गुणियों के प्रतिनिधि हो । किं बहुना, आप मात्र एक हो और महान् हो । २१-२२ ॥

यद्येवं मम पामरस्य कलुषं श्रीधर्महीनान्दितं

कृत्वा पादतले यदीह नियतं व्यारक्ष रक्षात्मगम् ।

राधा कृष्णपदामलाम्बुजतलं चैतन्यमुक्त्याकुलं

सर्वत्रादिगमागमं त्रिगमनं निर्वाणमोक्षाश्रयम् ॥ २३ ॥

यदि ऐसा है तो मुझ जैसे पामर के श्री धर्म से हीन, कालुष्य (पाप) को अपने पैरों से दबाकर इस लोक में मेरी रक्षा कीजिए। क्योकि मैं रक्षा के योग्य हूँ। आप श्रीराधाकृष्ण के पैर के तलवे स्वच्छ कमल के समान कोमल एवं रक्तवर्ण वाले हैं, चैतन्यपूर्ण है, मुक्ति के लिए आकुल है सर्वत्र आदि में रहने वाले आगम है। तीनों लोकों में गमनशील है निर्वाण और मोक्ष का आश्रय है ॥ २३ ॥

बालं वैरिविनाशनं सुखमयं कैवल्यमोक्षास्पदं

दैवं देवगणार्चितं रसदले चारोपयामि प्रभो ।

निर्दिष्टं भुवनाश्रयं यतिपतिं निर्वाणमोक्षस्थितं

निर्वाणादिकमोदने प्रचपलं श्रीचञ्चलासङ्कुलम् ॥ २४ ॥

हे प्रभो ! मैं बालक रूप आपको, शत्रुनिहन्ता एवं सुख स्वरूप को, कैवल्यमोक्ष के आस्वाद को तथा देवीगणों से अर्चित आप देव को षड्दल वाले पद्म पर आरोपित करता हूँ । आप निश्चित रूप से रहने वाले हैं, इन भुवनों के आश्रय हैं, यतियों के पति हैं, निर्वाण मोक्ष में स्थित हैं, निर्वाणादिक सुख प्रदान करने में प्रकृष्ट रूप से चपल हैं और श्री के चञ्चलता से परिपूर्ण है ॥ २४ ॥

वन्देऽहं परमेश्वरं सकलदैत्यानां बलप्राणहं ।

हंसारूढनिरक्षणं क्षणगतं वाणीपतिं भूपतिम् ।

वाञ्छाकल्पलतापतिं कुलपतिं विद्यापतिं गोपतिम् ॥ २५ ॥

मैं उन समस्त दैत्य समूहों के बल और प्राण का हरण करने वाले, हंस पर आरूढ़, निःशेष रूप से रक्षा करने वाले, उत्साहसम्पन्न, वाणी के पति भूपति (श्रीकृष्ण ) की वन्दना करता हूँ, जो वाञ्छा पूर्ण करने वाली कल्पलता के स्वामी हैं, कुलो (शाक्तों) के पति हैं और महाविद्याओं के पति एवं इन्द्रियों के पति हैं ॥ २५ ॥

श्री विद्यापतिमादिदेवपुरुषं विश्वेश्वरप्रेमगं ।

श्री कुम्भोद्भवकालसत्वनिकरं त्वां भास्करं भावये ।

सिद्धानामभिचिन्हयोगनिरतं रक्ष त्वमादौ हि माम् ॥ २६ ॥

आप श्रीविद्या के पति आदिदेव एवं शरीर रूपी पुर में निवास करने के कारण पुरुष हैं, श्री विश्वेश्वर के प्रेम से गम्य हैं, श्री कुम्भोद्भव (अगस्त्य ) स्वरूप हैं। काल में सत्त्व के निकर समूह हैं अतः भास्कर स्वरूप आप का ध्यान करता हूँ। यतः आप सिद्धों में विशेष चिह्नयोग (?) में निरत हैं, अतः सर्वप्रथम आप मेरी रक्षा कीजिये ॥ २६ ॥

प्रभो निःसङ्केतं गुणमणिमतं श्रेयसि मतं ।

मतामन्तः सुस्थं विगलितमहाप्रेमसुरसम् ।

मुदा वन्दे कृष्णं हरकरतलाम्भोजयजितम् ॥ २७ ॥

हे प्रभो ! आप सङ्केत रहित हैं, गुणमणियों के मान्य हैं, कल्याण करने वाले हैं, माननीयों के सिद्धान्त हैं, सुन्दर वस्तुओं में निवास करने वाले हैं और महाप्रेम करने पर सुन्दर रसों का क्षरण करने वाले हैं। ऐसे सदाशिव के कराम्भोजों से लालित आप श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ ॥ २७ ॥

प्रभापुञ्ज रामाश्रयपदमदं कामकुशलं

महामन्त्रच्छायां रजनिमिलितं ध्वान्तजडितम् ।

त्रिकोणस्थं कुस्थं कुगतिसुगतिं कारणगतिं

प्रलीन संस्थानं जगति जगतां धर्ममुदयम् ॥ २८ ॥

रमेशं वाणीशं विधिगतपदं शम्भुनिगतं

त्रिकालं योगानां नयनकमलं शब्दनिरतम् ।

कुलानन्दं गोपीजनहृदयगं गोपियजितं

विधानं त्वामिन्द्रं गुरुतरमुपेन्द्रं हरिरिपुम् ॥ २९ ॥

मुदा त्वां वन्देऽहं चपलं तां मे नवहवे ।

कुलालापश्रद्धामय मखिलसिद्धिप्रदमनम् ।

मलातीतं नीतं सुरनरसतां शास्त्रभवनम् ॥ ३० ॥

प्रभा के पुञ्ज, परशुराम के आश्रय वाले पद से गर्वीले, काम कला में कुशल महामन्त्र की छाया वाले, रजनी से मिले हुए, ध्वान्त (कृष्णता) से जडित, त्रिकोण में स्थित, क वर्ग वर्ण में स्थित रखने वाले कुगति, सुगति, कारणगति, प्रलीन तथा जगत् के उदीयमान धर्मरूप, रमेश, वाणीश और समस्त विधानों में अपना स्थान रखने वाले सदाशिव में निःशेषरूप से (निवास करने वाले) तीनों काल में योगों में तथा नेत्रकमल शब्द में संलग्न, कुल (शाक्त सम्प्रदाय) के आनन्दभूत, गोपीजनों के हृदय में रहने वाले, गोपियों द्वारा अर्चित, सबका विधान (रचना) करने वाले आप, इन्द्र को सबसे श्रेष्ठ उपेन्द्र हरि (यम अथवा सर्प कालियनाग) के शत्रु और अत्यन्त चपल ऐसे आप परमात्मा श्रीकृष्ण को मैं प्रणाम करता हूँ । कुल के अनुरूप आलाप करने वाले श्रद्धामय, सब प्रकार की सिद्धि प्रदान करने वाले. सबसे नमस्करणीय, पाप रहित, देवता, मनुष्य और सज्जनों के मनोनीत, शास्त्र के भवनरूप आप श्रीकृष्ण को मैं प्रणाम करता हूँ ।। २८-३० ।।

विनोदं नारीणां हृदयरसिकं शोकरहितम् ।

विराजं यज्ञानां हितमतिगुणं यामि शरणम् ॥ ३१ ॥

भक्तों के विनोद स्वरूप एवं स्त्रियों के हृदय के रसिक, शोक से रहित, विराट् रूप धारण करने वाले, यज्ञों के हितकारी और अत्यन्त गुणज्ञ आप भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण की मैं शरण में जाता हूँ ॥ ३१ ॥

एतत्सम्बन्धमात्री मम कुलशिरसि स्थायिनं पातु नित्यं

गोपीनां प्राणनाथः प्रतिदिनमनिशं भालदेशं प्रपायात् ।

भालाधोदेशसंस्थं समवतु सहसा राजराजेश्वरेश:

( गोपान्वन्वो सुरेश: ? )

स्थित्यन्तेशस्त्रिनेत्र सुखमखिलभवः कण्ठच्छत्राभिसंस्थम् ॥ ३२ ॥

उपर्युक्त संबन्ध की मात्रा वाले मेरे कुल (कौलिक शाक्त सम्प्रदाय) वाले, ध्यानस्थ रहने वालों की आप नित्य रक्षा करें। गोपियों के प्राणनाथ आप प्रतिदिन एवं निरन्तर मेरे भालदेश की रक्षा करें । राजराजेश्वर आप मेरे मस्तक के नीचे रहने वाले प्रदेश स्थित तत्त्वों की रक्षा करें । गोपजनों का अनुसरण करने वाले आप सुरेश, मेरी स्थिति, अन्त, शास्त्र और नेत्रों की रक्षा करें। अखिलमय आप मेरे सुख की तथा कण्ठ के छत्र भूत मस्तक में रहने वालों की रक्षा करें ॥ ३२ ॥

पृष्ठस्थं पातु शौरिः प्रतिदिनममरो लिङ्गबाह्यं कटिस्थं

शम्भुप्रेमाभिलाषी मम तु कुलपदं गुह्यदेशं प्रपायात् ।

आनन्दोद्रेककारी सकलतनुगतं पातु नित्यं मुरारिः

दैत्यारिश्चोरुमूलं नृहरिरवतु मे जङ्घया पादपद्मम् ॥ ३३ ॥

शौरि कृष्ण मेरे पृष्ठ (अग्रभाग) में रहने वाले तत्त्वों की रक्षा करें एवं अमर प्रतिदिन मेरे लिङ्ग से बाहर कटि में रहने वाले तत्त्व की रक्षा करें। शम्भु के प्रेम की अभिलाषा रखने वाले आप मेरे कुल, पद और गुह्य प्रदेश की रक्षा करें। आनन्द के उद्रेक को करने वाले मुरारि मेरे समस्त शरीर में रहने वाले तत्त्वों की नित्य रक्षा करें ॥ ३३ ॥

एतत्स्तोत्रं पठेद्विद्वान् नियतो भक्तिमान् शुचिः ।

स्थिरो भवति मासेन षड्दले सर्वसिद्धिभाक् ॥ ३४ ॥

विद्वान् साधक नियमपूर्वक तथा भक्तिपूर्वक पवित्र होकर इस स्तोत्र का पाठ करें तो वे एक मास में षड्दल वाले स्वाधिष्ठान चक्र में स्थिर हो जाते हैं और समस्त सिद्धियों के भाजन बन जाते हैं ॥ ३४ ॥

॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महातन्त्रोद्दीपने सिद्धमन्त्रप्रकरणे षट्चक्रप्रकाशे भैरव भैरवीसंवादे श्रीकृष्णस्तवनकवचं नामैकोनचत्वारिंशत्तमः पटलः ॥ ३९ ॥

॥ श्रीरुद्रयामल के उत्तरतन्त्र के महातन्त्रोद्दीपन में सिद्धमन्त्रप्रकरण में षट्चक्र प्रकाश में भैरवीभैरवसंवाद में श्रीकृष्ण की स्तुति एवं कवच नामक उन्तालीसवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीयकृत हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ ३९ ॥

आगे जारी............रूद्रयामल तन्त्र पटल ४०  

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