रुद्रयामल तंत्र पटल ३८
रुद्रयामल तंत्र पटल ३८ में भगवान्
श्री कृष्ण की ध्यानविधि विस्तृत रूप से वर्णित है । इस पटल के ५वें और ६ वें
श्लोक में ध्यान का मंत्र भी गुप्त रूप से उक्त है । पुनः भगवान् नरसिंह के भी
ध्यान मंत्र का संकेत है (१५--१७)। इस ध्यान से स्वाधिष्ठान में सिद्धि प्राप्तकर
अपनी आत्मा में चिन्मय कृष्ण में मन का लय करना चाहिए।
रुद्रयामल तंत्र पटल ३८
Rudrayamal Tantra Patal 38
रुद्रयामल तंत्र अड़तीसवाँ पटल
रुद्रयामल तंत्र अष्टात्रिंशः पटल:
रूद्रयामल तंत्र शास्त्र
अथाष्टात्रिंशः पटल:
आनन्दभैरवी उवाच
शृणु नाथ प्रवक्ष्यामि
श्रीकृष्णसाधनोत्तमम् ।
येन क्रमेण भक्तिः स्यात्कालजालवशो
भवेत् ॥ १ ॥
आनन्दभैरवी ने
कहा—
हे नाथ! अब श्रीकृष्ण के साधनों में सर्वोत्तम साधन कहती हूँ जिसे
क्रम से करने में श्रीकृष्ण में भक्ति होती है तथा कालसमूह वशवर्ती हो जाते हैं ।।
१ ।।
मम पादाम्बुजे भक्तिर्भवत्येव न
संशयः ।
भक्तिमान् यः साधकेन्द्रो
महाविष्णुं भजेद्यदि ॥ २ ॥
शिवतुल्यो भवेन्नाथ मम भक्तो महीतले
॥ ३ ॥
ऐसा करने से मेरे चरण कमलों में
भक्ति होती है, इसमें संशय नहीं। यदि विष्णु
में भक्ति रखते हुए साधकेन्द्र विष्णु का भजन करे, तो हे
नाथ! मेरा भक्त हो जाने पर वह साधक इस पृथ्वीतल में शिव तुल्य हो जाता है
।। २-३ ।।
श्रीकृष्णं जगदीश्वरं
त्रिजगतामानन्दमोक्षात्मकं
सम्पूर्ण त्रिगुणावृतं गुणधरं
सत्त्वाधिदैवं परम् ।
लिङ्गाषः स्थितिराज्यपालपुरुषं
पञ्चाननस्थायिनं
श्रीविष्णुं शुभदं जनो यदि
भजेल्लोकः सशक्ति सुखी ॥ ४ ॥
त्रिलोकी मात्र को आनन्द एवं मोक्ष
प्रदान करने वाले, पूर्ण स्वरूप
सत्त्वादि तीन गुणों से आवृत, अतएव गुणों को धारण करने वाले,
सत्त्व के अधिदेवता, परब्रह्मस्वरूप, लिङ्ग के अधोभाग में स्थिति वाले, स्वाधिष्ठान (
चक्र रूप) राज्य का पालन करने वाले, पाँच मुख से स्थित,
कल्याण प्रदान करने वाले, महापुरुष, शक्ति सहित विष्णु का यदि भक्त भजन करे तो वह महासुखी हो जाता है ॥ ४ ॥
आदौ कामं त्रिसर्ग कुलवधुनियुतं
कामबीजं त्रिसर्ग
श्रीकृष्णं वारयुग्मं प्रणययुगलकं
चन्द्रिकाकाशयुक्तम् ।
ब्रह्मद्वन्द्वं भजामि प्रकृति
पुरुषिकां काकिनीं तत्परे च
भूयो भूयो भजामि श्रवणगलयनं
वह्निजायाविलग्नम् ॥ ५ ॥
प्रथम त्रिसर्ग युक्त काम,
कुलवधू से संयुक्त कामबीज एवं त्रिसर्गस्वरूप राधा के सहित प्रणयी
युगल, चन्द्रिका से व्याप्त आकाश में निवास करने वाले,
काकिनी रूप प्रकृति रूपी स्त्री से संयुक्त, ब्रह्मद्वन्द्व
श्रवण ( उ ) में मिला हुआ गलयनम् (इ) अर्थात् सन्धि करने से वि उससे विशेष रूप से
लगी हुई वह्निजाया (स्वाहा ) अर्थात् विं 'स्वाहा' इस मन्त्र का बारम्बार जप करता हूँ ।। ५ ॥
एतन्मन्त्रं जपित्वा प्रणवमिति
नमोऽन्तं तथाद्ये मिलित्वा
भूयो भूयो नमोऽन्तं त्रिभुवनसहितं
क्षोभयेत्तत् क्षणेन ।
राजश्रीस्तस्य शीर्षे निरवधि वसुधा
मन्दिरे संस्थिरा स्यात्
कालच्छेदं प्रकृत्य प्रवसति सुमुखी
ब्रह्मदण्डे च काले ॥ ६ ॥
उक्त मन्त्र के आदि में प्रणव (ॐ)
जिसके अन्त में 'नमः' पद हो, अर्थात् 'ॐ नमो विं
स्वाहा' फिर इसके बाद 'नमः' अर्थात् 'ॐ नमो विं स्वाहा नमः' इस मन्त्र का बारम्बार जप करने वाला साधक क्षण भर में समस्त त्रिलोकी को
क्षुब्ध कर देता है । उसके शिर पर सदैव राज्यश्री सवार रहती है और निरवधि वसुधा
उसके मन्दिर में स्थिर रूप से निवास करती है। किं बहुना सुमुखी भगवती महालक्ष्मी,
ब्रह्मा के निर्धारित आयु के अनुसार एक दण्ड पर्यन्त काल तक काल की
मर्यादा लाँघ कर उसके घर में निवास करती हैं ।। ६ ।।
ततः प्राणे दैवनाथ मम सन्तोषवर्द्धन
।
इदानीं नरसिंहस्य मन्त्रं शृणु
महाप्रभो ॥ ७ ॥
कान्तबीजं समुद्धृत्य युगलं युगलं
स्मृतम् ।
महानृसिंहमन्त्रेण पूजयामि नमो नमः
॥ ८ ॥
स्वाधिष्ठाने महापद्मे
मनोनिष्पापहेतुना ।
मनो विधाय यो योगी जपेन्मन्त्रं
पुनः पुनः ॥ ९ ॥
हे देव ! हे नाथ! हे प्राणों में
संतोष बढ़ाने वाले महाप्रभो ! इसके बाद नरसिंह के मन्त्र को सुनिए । कान्त बीज
(क्ष्रौं) को दो दो बार उच्चारण कर फिर 'महानृसिंहमन्त्रेण
पूजयामि नमो नमः' ऐसा कह कर साधक योगी अपने मन को निष्पाप
करने के लिए स्वाधिष्ठान नामक महापद्म में मन को स्थापित कर बारम्बार जप करे ।।
७-९ ॥
एतन्मन्त्रजपेनापि सिद्धो भवति
साधकः ।
एतन्मन्त्रप्रभावेण भावसिद्धिं
क्षणाल्लभेत् ॥ १० ॥
साधको यदि भूमिस्थः साधयेत्तु
हरेर्मनुम् ।
रेणुसंख्या क्रमेणैव सिद्धिं
प्राप्नोति वीर्यतः ॥ ११ ॥
इस मन्त्र के जप से भी वह सिद्ध हो
जाता है। बहुत कहने से क्या ? इस मन्त्र के प्रभाव
से क्षणमात्र में उसे अपने भाव में सिद्धि प्राप्त हो जाती है। साधक यदि पृथ्वी पर
खड़ा हो कर नरसिंह मन्त्र को सिद्ध कर लेवे तो पृथ्वी में जितने रेणुओं की संख्या
है, उतने काल तक अपने पराक्रम से सिद्धि प्राप्त कर लेता है
।। १०-११ ।।
अथ वक्ष्ये महादेव सर्ववर्णसुसारकम्
।
वर्णमालास्वसंशक्तो जप्त्वा
सिद्धिमवाप्नुयात् ॥ १२ ॥
सिद्धिमन्त्रं प्रार्थयते यदि
मर्त्यो निराश्रयः ।
निर्जने संस्थिरो भूत्त्वा एकाकी
दीपवर्जितः ॥ १३ ॥
निःशङ्कं प्रजपेन्मन्त्रं
स्वाधिष्ठानाब्जसङ्गते ।
वशीकृतं जगत्सर्वं येन
तत्क्रममाशृणु ॥ १४ ॥
अब, हे महादेव ! सभी वर्णों के सुन्दर सार वाले मन्त्र को कहता हूँ। वर्णमाला
में संसक्त रह कर साधक उसका जप कर सिद्धि प्राप्त कर लेता है। मनुष्य यदि मन्त्र
की सिद्धि चाहता है तो वह किसी का आश्रय ग्रहण न करे। किसी निर्जन स्थान में स्थिर
हो कर एकाकी निवास करे, दीप का भी प्रकाश वर्जित करे। ऐसे
स्थान में स्वाधिष्ठान चक्र में मन को लगाकर निःशङ्कभाव से मन्त्र का जप करे। इस
मन्त्र के जप से वह सारे जगत् को वश में कर लेता है। हे महादेव! अब उसका क्रम
सुनिए ।। १२-१४ ।।
प्रणवं पूर्वमुच्चार्य नान्तबीजं
तथोद्गरेत् ।
वह्निबीजसमालग्नमधोदन्तस्वरान्वितम्
॥ १५ ॥
नादबिन्दुसमायुक्तं पुनर्वारद्वयं
वदेत् ।
नरसिंहाय शब्दान्ते पुनर्वास्त्रयं
वदेत् ॥ १६ ॥
प्रथम प्रणव (ॐ) का उच्चारण करे फिर
वह्नि बीज 'रं' जो
अधोदन्तस्वर (ओ) एवं नाद बिन्दु (अनुस्वार) से संयुक्त हो अर्थात् (रौं) । ऐसा
नान्तबीज क्ष इस प्रकार (रौं) को दो बार उच्चारण करे। फिर 'नरसिंहाय' इस शब्द के अन्त में 'रौं' इसी मन्त्र को तीन बार पढ़े ।। १५-१६ ॥
देवीबीजं शक्तिबीजं स्वाहान्तं
मनुमुद्गरेत् ।
एतन्मन्त्रप्रयोगेण
कुण्डलीवशमानयेत् ॥१७॥
स्वाधिष्ठाने स्थिरीभावं प्राप्नोति
साधकाग्रणीः ।
सर्वेषां प्राणगो भूत्वा प्रबलोऽसौ
महीतले ॥ १८ ॥
शीतं रौद्रं समं तस्य पापापापं
जयाजयम् ।
धर्माधर्मः सदा ज्ञानं नित्यज्ञानं
समाप्नुयात् ॥ १९ ॥
फिर देवी बीज 'ऐं ह्रीं क्लीं' फिर शक्ति बीज क्लीं' जो स्वाहान्त हो, इस प्रकार रौं रौं नरसिंहाय रौं
रौं क्ष्रौं ऐं ह्रीं क्लीं क्लीं स्वाहा' इस मन्त्र का
उच्चारण करे । साधक इस नृसिंहमन्त्र के जप से कुण्डलिनी को अपने वश में करे। इससे
वह साधकाग्रणी स्वाधिष्ठान चक्र में स्थिरता का भाव प्राप्त कर लेता है और सभी के
प्राण में गमन करते हुए महीतल में प्रबल हो जाता है। ऐसे साधक के लिए शीत गर्मी,
पाप, अपाप, जय, पराजय, धर्म और अधर्म सभी बराबर हैं, वह सदैव ज्ञानवान् रह कर नित्यज्ञान प्राप्त कर लेता है ।। १७-१९ ।।
पुनः श्रीकृष्णमन्त्राश्च
सर्वदेवनिषेवकाः ।
यज्ज्ञात्वा देवताः सर्वा सर्वदिङ्मुखपालकाः
॥ २० ॥
तत्प्रयोगं महादेव शृणु सिद्धेश्च
लक्षणम् ।
विना कृष्णाश्रयेणापि ब्रह्मा
तुष्टो न कुत्रचित् ॥ २१ ॥
न तुष्टा कुण्डली देवी पशुभावं विना
प्रभो ।
पशुभावे ज्ञानसिद्धिर्वी भावे हि
मोक्षभाक् ॥ २२ ॥
इसके अतिरिक्त श्रीकृष्ण के मन्त्र
का सभी देवता सेवन करते हैं, जिसे जान कर
सभी देवता दिक्पाल हो गए हैं। हे महादेव ! अब उन श्रीकृष्ण के मन्त्रों का प्रयोग
सुनिए और सिद्ध हो जाने पर उसके लक्षणों को भी सुनिए । बिना श्रीकृष्ण का आश्रय
लिए ब्रह्मदेव भी कभी संतुष्ट हुए नहीं दिखाई पड़े। हे प्रभो ! पशुभाव के बिना
कुण्डलिनी देवी भी कभी संतुष्ट नहीं दिखाई पड़ी है। पशुभाव के आश्रय से
ज्ञानसिद्धि प्राप्त होती है और वीरभाव में साधक मोक्ष का अधिकारी बनता है ।।
२०-२२ ॥
दिव्यभावे समाधिस्थ जीवन्मुक्तः स
उच्यते ।
कान्तबीजं समुद्धृत्य
शक्रवामस्वरान्वितम् ॥ २३ ॥
नादबिन्दुसमाक्रान्तं कृष्णसम्बोधनं
पदम् ।
पुनः पूर्वमनुं युक्ता
त्र्यक्षरात्मा महामनुः ॥ २४ ॥
एतन्मन्त्रजपं कृत्वा योगी भवति
योगिराट् ।
योगोऽयं परमाह्लादकारकोऽनन्तरूपकः ॥
२५ ॥
दिव्यभाव में जब साधक समाधिस्थ हो
जाता है तब जीवन्मुक्त कहा जाता है । कान्त बीज (क् ) का उच्चारण कर वामस्वर (ई)
से संयुक्त शक्र (र) जो नाद बिन्दु अनुस्वार से संयुक्त हो इस प्रकार 'क्रीं' यही कृष्ण का बीज मन्त्र है। फिर तीन अक्षरों
वाले महामनु क्रीं का पहले कहे गए महामन्त्र से युक्त कर अर्थात् ( क्रीं क्ष्रौं)
जप करने से वह योगिराज बन जाता है । यह योग परमाह्लाद करने वाला है तथा अनन्त रूप
वाला है ।। २३-२५ ॥
बहुभिः किं कथनीयं यः करोति फलं
लभेत् ।
ध्यायेत् श्रीगोपिकानाथं
राकिणीमण्डलेश्वरम् ॥ २६ ॥
जगतां सत्त्वनिलयं श्रीकृष्णं
गोकुलेश्वरम् ।
स्वाधिष्ठानस्थितं श्यामं यजेद्
भुजचतुष्टयम् ॥ २७ ॥
शङ्खचक्रगदापद्म महाशोभामनोरमम् ।
सर्वविद्यागतं काम्यं श्रीगोविन्दं
सुशीतलम् ॥ २८ ॥
बहुत कहने से क्या फल ?
जो करता है उसे उसका फल मिलता है। जप करने के समय राकिणीमण्डल के
ईश्वर श्रीगोपिकानाथ का ध्यान करना चाहिए। जो जगन्मात्र के सत्त्व के निलय हैं,
गोकुलेश्वर श्रीकृष्ण हैं, स्वाधिष्ठान चक्र
में स्थित रहने वाले हैं, श्याम वर्ण और चारभुजा वाले हैं
उनका पूजन करना चाहिए। शंख, चक्र गदा, पद्म
धारण करने से जो महाशोभा से अत्यन्त मनोरम हैं, सभी विद्याओं
को जानने वाले हैं, सबके काम्य हैं, श्रीगोविन्द
हैं और सुशीतल हैं उन श्रीकृष्ण का भजन करे ।। २६-२८ ।।
महामोहहरं नाथं वनमालाविभूषितम् ।
कोटिकन्याकराम्भोजजयितं सर्वसङ्गतम्
॥ २९ ॥
किरीटिनं महावीरं बालेन्दुं
चूडयान्वितम् ।
गुञ्जामाला शोभिताङ्ग श्रीनाथं
परमेश्वरम् ॥ ३० ॥
पीताम्बरं मन्दहास्यं
षट्पद्मदलमध्यगम् ।
कामिनीप्राणनिलयं वसुदेवसुतं हरिम्
॥ ३१ ॥
जो महामोह को हरण करने वाले हैं
सबके नाथ हैं, वनमाला से विभूषित अङ्ग वाले
हैं करोड़ों कन्याओं के कर कमलों से यजन किए जाते हैं, सब
में व्याप्त हैं उन श्रीकृष्ण का पूजन करे। किरीट धारण करने वाले हैं, महावीर हैं, अपनी चूड़ा में बालेन्द्र धारण किए हुए
हैं। गुज्जा की माला से शोभित अङ्गो वाले श्री नाथ हैं, परमेश्वर
हैं ऐसे श्रीकृष्ण का पूजन करे । पीताम्बर धारण किए हुए, मन्द
मन्द मुस्कुराते हुए, ६ पत्ते वाले कमल ( षट्चक्र) के मध्य
में रहने वाले कामिनियों के प्राणभूत वसुदेव पुत्र श्रीहरि का ध्यान करे ।। २९-३१
।।
एवं ध्यात्वा षड्दले च सदा
वक्षःस्थकौस्तुभम् ।
राजराजेश्वरं शौरिं भाव्यं
श्रीवत्सलाञ्छनम् ॥ ३२ ॥
स्वाधिष्ठानगतं
ध्यायेन्मुरारिसिद्धिगो नरः ।
एवं ध्यात्वा पुरा ब्रह्मा
नारायणगुणोदयः ॥ ३३ ॥
मनः कल्पितद्रव्यैश्च पूजयेत्परमेश्वरम्
।
षड्दले च महापद्मे संध्यायेत्
हरिमायजेत् ॥ ३४ ॥
इस प्रकार षद्दल में श्रीकृष्ण का
ध्यान कर वक्ष स्थल पर सर्वदा कौस्तुभ धारण करने वाले राजराजेश्वर शूरवंश में
उत्पन्न,
श्रीवत्स के चिन्ह से सुशोभित, स्वाधिष्ठान
चक्र पर विराजमान श्रीकृष्ण का सिद्धि चाहने वाला साधक ध्यान करे। इस प्रकार ध्यान
करने के कारण ब्रह्मा नारायण के गुणों से युक्त हो गए। फिर मानसिक कल्पित द्रव्यों
से षड्दल महापद्म पर परमेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान करते हुए इस प्रकार यजन करे ।।
३२-३४ ॥
षोडशोपचारयुक्तैर्मानस
क्षेत्रसम्भवैः।
मनः कल्पितपीठे च स्थापयित्वा हरिं
गुरुम् ॥ ३५ ॥
योगेश्वरं कृष्णमीशं
राधिकाराकिणीश्वरम् ।
एकान्तचित्ते चारोप्य कृष्णं पीठे
प्रपूजयेत् ॥ ३६ ॥
तत्र दलाष्टकं पद्मं तत्र
षट्कोणकर्णिकम् ।
वेदद्वारोपशोभञ्च संनिर्माय मनोहरम्
॥ ३७ ॥
पुनः पुनर्यदा ध्यायेत् षड्दलेषु
दलेष्टकम् ।
पञ्चोपचारैर्दशकैः श्रीविष्णुं
परिपूजयेत् ॥ ३८ ॥
साधक मानस क्षेत्र में उत्पन्न किए
गए षोडशोपचार युक्त द्रव्यों से मन में पीठ की कल्पना कर सर्वश्रेष्ठ भगवान्
श्रीकृष्ण को स्थापित करें। योगेश्वर ईश्वर राधिकारूप राकिणी के प्राणवल्लभ
श्रीकृष्ण को एकान्त चित्त रूपी पीठ पर स्थापित कर पूजन करे,
वहाँ पर आठ दलों वाला पद्म उसके भीतर छः कोणों वाली कर्णिकायें
निर्माण करे, फिर चार द्वारों से उसे मनोहर रूप में सुसज्जित
करें, फिर उस षड्दल पर प्रत्येक दलों पर बारम्बार श्री
विष्णु का ध्यान करे और पाँच उपचारों से अथवा दशोपचारों से उन विष्णु का पूजन करे
।। ३५-३८ ।।
गन्धादयो नैवेद्यान्ता
पूजापञ्चोपचारिका ।
आसनं स्वागतं पाद्यमर्घ्यमाचमनीयकम्
॥ ३९ ॥
मधुपर्काचमनस्नान - वसनाभरणानि च ।
सुगन्धिमनो धूपदीपनैवेद्यवन्दनम् ॥
४० ॥
प्रयोजयेदर्वनायामुपचारांस्तु षोडश
।
विष्णोराराधने कुर्यात् सर्वत्र
विधिरेष यः ॥ ४१ ॥
गन्ध से लेकर नैवेद्यपर्यन्त पूजन
पञ्चोपचार पूजन कहा गया है। अथवा १. आसन, २.
स्वागत, ३. पाद्य, ४. अर्घ्य, ५. आचमनीय, ६. मधुपर्क, ७.
आचमन, ८. स्नान, ९.वस्त्र, १०. आभरण, ११. सुगन्धित चन्दन, १२ पुष्प, १३. धूप, १४. दीप,
१५. नैवेद्य एवं १६. प्रणाम — इन षोडश उपचारों
का अर्चन में उपयोग करना चाहिए । विष्णु की आराधना में सर्वत्र यही विधि कही गई है
।। ३९-४१ ।।
विधिः स्यात् कृष्णविश्वेश
समुद्भूतस्य सत्पतेः ।
दशोपचारकथनं श्रूयतां वल्लभ प्रभो ॥
४२ ॥
पाद्यमर्घ्यं तथाचामं मधुपर्काचमनं
तथा ।
गन्धादयो नैवेद्यान्ता उपचारा
दशक्रमात् ॥ ४३ ॥
विष्णुं सम्पूज्य धीमान्
हविष्याशीर्जितेन्द्रियः ।
सर्वदा परमानन्दः कालिकावशसेवकः ॥
४४ ॥
सर्वज्ञानधरो वीरो विवेकी
सर्वदर्शकः ।
संभावयेत् स्वाधिष्ठाने निरन्तरं
महाशुचिः ॥ ४५ ॥
बालकक्रियया व्याप्तो भावज्ञानी
निरामयः ।
स भवेत् कालिकापुत्रो यः
कृष्णभावतत्परः ॥ ४६ ॥
हे प्राणवल्लभ ! हे प्रभो !
कृष्णविश्वेश सत्पति के पूजन में और भी विधियों हैं उनमें दशोपचार से पूजन कहती
हूँ,
उसे सुनिये- १. पाद्य, २. अर्घ्य, ३. आचमनीय, ४. मधुपर्क, ५.
आचमन, ६. गन्ध, ७ पुष्प, ८. धूप, ९. दीप और अन्त में १०. नैवेद्य — ये दश उपचार कहे गए हैं। इस प्रकार पूजन कर हविष्य का भोजन करने वाला,
जितेन्द्रिय, सर्वदा परम आनन्द में निमग्न कालिका
के वश में रह कर उनकी सेवा करने वाला सर्वज्ञानी वीर, विवेकी,
सर्वद्रष्टा, महाशुचि साधक स्वाधिष्ठान चक्र
में निरन्तर ध्यान लगावे । बालक के समान आचरण करने वाला, श्रीकृष्ण
भाव का ज्ञान रखने वाला, स्वस्थ चित्त वाला साधक इस प्रकार
श्रीकृष्ण का ध्यान करता हुआ कालिका पुत्र बन जाता है ।। ४३-४६ ।।
कृष्णं सञ्चिन्तयेन्मूलकमलोद्वें
कुलात्मकम् ।
स
भवेत्कालिकापुत्रोऽष्टाङ्गसिद्धिगुणान्वितः ॥ ४७ ॥
मानसैः पूजनं कृत्वा
शङ्खस्थापनमाचरेत् ।
यत्कृत्वा मानसं योगं न
कुर्याद्बहिरर्चनम् ॥ ४८ ॥
मूलमन्त्रदेवतायाः साधने दैवतं यजेत्
।
देवस्य दक्षिणस्थांश्च
पूर्वोपास्यसुसंस्थितान् ॥ ४९ ॥
पूजयेद् गन्ध 'पुष्पाद्यैस्तुल्यमन्त्रेण मन्त्रवित् ।
ततः श्रीकृष्णपादाब्जं ध्यानं
कुर्यान्मनोलयम् ॥ ५० ॥
इस प्रकार मूलाधार कमल के ऊपर
स्वाधिष्ठान चक में कुल देवता श्रीकृष्ण का ध्यान करने वाला साधक अष्टाङ्ग योग की
सिद्धि के गुणों से युक्त होकर कालिका देवी का पुत्र बन जाता है। उपर्युक्त विधि
से मानसोपचार पूजन कर भगवान् के सामने शंख स्थापित करना चाहिए। साधक को चाहिए कि
मानसोपचार से पूजन करने के पश्चात् बाह्य अर्चन न करे । मूलमन्त्र के देवता के
साधन में देव के दक्षिण भाग में सम्यग् रूप से अवस्थित अन्य देवताओं का भी यजन
पहले करे। मन्त्रवेत्ता साधक जिस मन्त्र से इष्ट देवता का यजन करे उसी मन्त्र से
गन्ध पुष्पादि उपचारों द्वारा उन-उन देवताओं का भी यजन करें,
फिर श्रीकृष्ण के चरण कमलों का ध्यान कर उसी में अपना मन लय कर देवे
।। ४७-५० ।।
एवं क्रमेण तत्पद्ये स्थिरो भवति
योगिराट् ।
यः करोति शुद्धभावं महामोहहरं हरिम्
॥ ५१ ॥
स्थापयित्वा च षट्पद्ये
महामोक्षमवाप्नुयात् ।
यः प्रधानगुणज्ञश्च स मे
शास्त्रार्थमाश्रयेत् ॥ ५२ ॥
इहकाले शत्रुलोके निवसत्येव
योगिराट् ।
पादाम्भोजे मनो
दद्यान्मखकिञ्जल्कचित्रिते ॥ ५३ ॥
जङ्घायुगे चारुरामकदलीकाण्डमण्डिते
।
ऊरुद्वये मत्तगजकरदण्डसमप्रभे ॥ ५४
॥
ऐसा करने से स्वाधिष्ठान चक्र के
पद्म में योगिराज स्थिर हो जाता है। जो साधक शुद्धभाव वाले महामोह का हरण करने
वाले श्री विष्णु को उस षट्पद्म के ऊपर स्थापित कर ध्यान करता है वह महामोक्ष
प्राप्त कर लेता है, जो इस प्रकार
प्रधान इष्ट के देवता के गुण का ज्ञान कर लेता है वही हमारे शास्त्र के अर्थ का
आश्रय प्राप्त करता है। ऐसा योगिराज इस काल में संसार में सुखपूर्वक निवास करता
है। अतः श्रीकृष्ण के यज्ञरूप केशर से चित्रित पद कमलों का ध्यान इस प्रकार करे।
उनके अत्यन्त मनोहर केले के खम्भे के समान दोनों जांघों का ध्यान करे और मदमत्त
हाथी के कर दण्ड के समान शोभा वाले दोनों ऊरुओं का ध्यान करे ।। ५१-५४ ।।
गङ्गावर्तगभीरे तु नाभौ
शुद्धविलेऽमले ।
उदरे वक्षसि तथा हरौ
श्रीवत्सकौस्तुभे ॥ ५५ ॥
पूर्णचन्द्रायुतपक्षे ललाटे
चारुकुण्डले ।
शङ्खचक्रगदाम्भोजे
दोर्दण्डोपरिमण्डिते ॥ ५६ ॥
सहस्रादित्यसङ्काशे सकिरीटकुलद्वयम्
।
स्थानेष्वेषु यजेन्मन्त्री विशुद्धः
शुद्धचेतसा ॥ ५७ ॥
मनो निवेश्य कृष्णे वै तन्मयो भवति
ध्रुवम् ।
यावन्मनोलयं याति कृष्णे स्वात्मनि
चिन्मये ॥ ५८ ॥
गङ्गा के आवर्त (भँवर) के समान
गम्भीर शुद्ध बिल वाले, अत्यन्त स्वच्छ
उनके नाभि भाग का ध्यान करे। इसी प्रकार श्रीवत्स और कौस्तुभ से युक्त उनके वक्षः
स्थल का एवं उदर का ध्यान करे । हजारों चन्द्रमण्डल के समान मुख से युक्त उनके
केशपक्ष में, चारुकुण्डल से संयुक्त ललाट में, शंख, चक्र गदा और पद्ममण्डित उनके हाथों का ध्यान
करे। सहस्रों आदित्य के समान देदीप्यमान, उनके दोनों किरीटों
में—इस प्रकार इन इन स्थानों में मन्त्रज्ञ विशुद्ध साधक
अपने शुद्ध चित्त से श्रीकृष्ण का ध्यान करे। श्रीकृष्ण में मन लगाने से साधक
निश्चित रूप से उनमें तन्मय हो जाता है। अतः चिदानन्द एवं आत्मस्वरूप श्रीकृष्ण
में जब तक मन का लय न हो जावे, तब तक उन श्रीकृष्ण का ध्यान
करे ।। ५६-५८ ।।
॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे
महातन्त्रोद्दीपने सिद्धमन्त्रप्रकरणे षट्चक्रप्रकाशे भैरव भैरवीसंवादे श्रीकृष्णस्वाधिष्ठानप्रवेशो
नाम अष्टात्रिंशत्तमः पटलः ॥ ३८ ॥
॥ श्री रुद्रयामल के उत्तरतन्त्र
में महातन्त्रोद्दीपन में सिद्धमन्त्रप्रकरण में षट्चक्रप्रकाश में भैरवभैरवी संवाद
में श्रीकृष्णयुक्त स्वाधिष्ठान चक्र में प्रवेश नामक अड़तीसवें पटल की डा० सुधाकर
मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ ३८ ॥
आगे जारी............रूद्रयामल तन्त्र पटल ३९
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