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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
रुद्रयामल तंत्र पटल ३७
रुद्रयामल तंत्र पटल ३७ में
पीताम्बरधारी वंशीनाद वाले भगवान् कृष्ण का विमल ध्यान वर्णित है। बिना
कृष्णपदाम्भोज के ध्यान के स्वाधिष्ठान चक्र पर विजय नहीं हो सकती। अतः
स्वाधिष्ठान भेदन ही इसका फल है।
रुद्रयामल तंत्र पटल ३७
Rudrayamal Tantra Patal 37
रुद्रयामल तंत्र सैंतीसवाँ पटल
रुद्रयामल तंत्र सप्तत्रिंशः पटल:
रूद्रयामल तंत्र शास्त्र
अथ सप्तत्रिंशः पटल:
आनन्दभैरव उवाच
श्रुतञ्च परमं ज्ञानं
धर्माधर्मविवेचनम् ।
सर्ववेदान्तसारं च सारात्सारं
परात्परम् ॥ १ ॥
श्री आनन्दभैरव ने
कहा—हे भैरवी! धर्म एवं अधर्म का विवेचन करने वाला समस्त सारों का तत्त्व,
सभी वेदान्तों का सारभूत उत्कृष्ट ज्ञान हमने सुना ॥ १ ॥
कुण्डलीस्तवनं श्रुत्वा पूर्णोऽहं
जगदीश्वरि ।
इदानीं श्रोतुमिच्छामि स्वाधिष्ठानं
प्रकाशकम् ॥ २ ॥
यदि मे सुकृपादृष्टिरानन्दघनसञ्चये
।
वद श्रीकुण्डलीयोगं
स्वाधिष्ठानविभेदनम् ॥ ३ ॥
येन क्रमेण भेदं स्यात्तत्प्रकारं
विनिर्णय ।
हे जगदीश्वरि ! कुण्डलीस्तवन
सुनकर मैं पूर्णकाम हो गया। हे आनन्दघन सञ्चये ! यदि आप मुझ पर कृपादृष्टि रखती
हैं तो अब स्वाधिष्ठान चक्र को प्रकाशित करने वाले उस ज्ञान को कहिए,
जिससे कुण्डलिनी का योग होने पर स्वाधिष्ठान चक्र का भेदन हो जाता
है। अतः हे भैरवी! जिस प्रकार स्वाधिष्ठान चक्र का भेदन होता है उस प्रकार को
निर्णयपूर्वक कहिए ॥ २-४ ॥
आनन्दभैरवी उवाच
महाकाल महावीर आनन्दसागरप्रिय ॥ ४ ॥
योग्योऽसि योगमार्गाणामत एव
प्रकथ्यते ।
येन क्रमेण चक्रस्य भेदः स्यादमरो
भवेत् ॥ ५ ॥
श्री आनन्दभैरवी ने
कहा—हे महाकाल ! हे महावीर ! हे आनन्द सागर प्रिय ! आप योग मार्गों के योग्य
हैं, इसलिए जिस प्रकार स्वाधिष्ठान चक्र का भेदन हो जाता है
उसे कह रही हूँ ।। ४-५ ॥
अमरो जितचित्तारिः क्रोधजित् प्रबलो
बली ।
धर्माधर्मज्ञानवांश्च योगी भवति
सज्जनः ॥ ६ ॥
स्वाधिष्ठान चक्र के भेदन से साधक
अमर हो जाता है, चित्त में रहने वाले काम
क्रोधादि शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है। क्रोध को जीत कर साधक प्रबल एवं बलवान्
हो जाता है, धर्म और अर्धम का ज्ञाता तथा सज्जन योगी हो जाता
है।।६।।
परकालदर्शी विज्ञः स्यात्
क्रतुश्रद्धापरायणः ।
अहङ्कारविहीनो यः स योगी भवति
ध्रुवम् ॥ ७ ॥
महावीरसुसङ्गिनी च सङ्गदोषविवर्जितः
।
महात्मापरमं ब्रह्मज्ञानी भवति
योगिराट् ॥ ८ ॥
वह वर्तमान के अतिरिक्त भूत
भविष्यत्काल का ज्ञाता, प्राज्ञ
क्रतुश्रद्धापरायण हो जाता है । जो अहङ्कार से विहीन है, वह
निश्चय ही योगी बन जाता है। महावीरों का सुन्दर साथ करने वाला तथा अन्य के सङ्ग
दोष से विवर्जित रहता है। स्वाधिष्ठान का भेदन करने वाला साधक महात्मा परम
ब्रह्मज्ञानी तथा योगीराज बन जाता है ।। ७-८ ।।
विख्यातः सर्वदेशे च किन्तु
स्वाश्रयवर्जितः ।
बालको विक्रमी धन्वी
धनुर्बाणधरोऽव्ययः ॥ ९ ॥
स भवेत् योगमार्गेशो विवेकी
पापवर्जितः ।
अविद्याग्रन्थिनिश्चेष्टो विवेकधर्मचातकः
॥ १० ॥
सभी स्थानों में वह अपनी कीर्ति से
विख्यात हो जाता है, उसे स्वयं किसी के
आश्रय की आवश्यकता नहीं रहती । चाहे बालक हो, चाहे
पुरुषार्थी हो, चाहे धनुर्धारी हो अथवा धनुषवाण धारण करने
वाला हो, चाहे विकारहीन हो, स्वाधिष्ठान
का भेदक जैसा कैसा भी साधक योगमार्ग का ईश्वर, विवेकी,
पापविवर्जित हो जाता है, अविद्या ग्रन्थि के
भेदन से वह किसी कार्य में आसक्त नहीं होता तथा विवेक एवं धर्म का चातक बन जाता है
।। ९-१० ।।
चतुरो विषमज्ञानवर्जितो यज्ञकृत्
शुचिः ।
स भवेद् योगिनीपुत्रो योगानामधिपो
भवेत् ॥ ११ ॥
यदि योगस्थितो मन्त्री
वायवीशक्तिनिर्भर: ।
स एव योगी षण्मासादिति मे
तन्त्रनिर्णयः ॥ १२ ॥
वह चतुर बन जाता है,
विषमज्ञान से वर्जित, यज्ञकर्ता तथा शुचि बन
जाता है, योगिनियों का पुत्र बन कर सभी योगों का अधिपति हो
जाता है। यदि योगाभ्यास करने वाला मन्त्रवेत्ता साधक वायवी शक्ति पर निर्भर रह कर
इसका पाठ करे, तो वह ६ महीने के भीतर ही योगी बन जाता है,
ऐसा हमारे तन्त्रशास्त्र में निर्णय है।।११-१२।।
यो मे तन्त्राणि जानाति
सदर्थज्ञानजानि च ।
स एव चतुरो योगी मम भक्तो न संशयः ॥
१३ ॥
जो उत्तम अर्थ वाले ज्ञान से
उत्पन्न हुए मेरे तन्त्रों को जानता है, वही
चतुर योगी है मेरा भक्त है, इसमें संशय नहीं॥१३॥
यदि वायुपानरतो मन्त्री भवति साधकः
॥ १४ ॥
अथ स्वाधिष्ठानं कुलवरगतं षड्दलगतं
प्रभाकारं विष्णोरतिशयपदं कामनिलयम्
।
महायोगेन्द्राणां मनसि निलयं
चारुकिरणं
शरच्चन्द्रज्योत्स्नायुतमतिधनं
भव्यविषयम् ॥ १५ ॥
यदि मन्त्र साधक वायुपान में निरत
रहने वाला तथा यह स्वाधिष्ठान चक्र शक्ति के मार्ग में रहने वाला,
६ पद्म दलों से युक्त है, प्रभा के आकार वाला,
विष्णु का अतिशय पद तथा काम का स्थान है, तो
यह महायोगेन्द्रों के मन में रहने वाला तथा मनोहर किरणों वाला है, शरत्कालीन चन्द्रिका से युक्त, अत्यन्त घना तथा भव्य
विषयों वाला है ।। १४-१५ ।।
सदाभावक्षेत्रे सकलसुधियो वेद
यदामापक्षेमे सकलसुधियो वेदपथगाः
विचारं कुर्वन्ति क्षितिगतरताः
श्रीप्रभृतयः
महाविष्णोः पीताम्बर नरपते श्यामलतनोः
।
(प्रकाशस्यान्तः पटस्थ
नटवरस्यातिनिलयम् )
विटच्छायामध्ये निवसति यथा
गोकुलकुले ॥ १६ ॥
हरिध्यानं
कुर्यान्निरवधिमहानन्दरसिकः
स एवात्मा साक्षादिह नववर: षोडशयुवा
।
महासर्पारिस्थं स्थितिकरणगं नागगमनं
मुखं वंशीनादध्वनिगुणधरं भावयति कः
॥ १७ ॥
अनन्त आनन्द समुद्र के महारसिक को
निरवधि (निरन्तर) विष्णु का ध्यान करना चाहिए। वह विष्णु सबकी
साक्षात् आत्मा है। नवीन पीताम्बर धारण करने वाले तथा षोडशवर्षीय युवा हैं। गरुड़
के ऊपर स्थित रहने वाले, सृष्टि की स्थिति
करने वाले तथा मत्त नाग पर गमन करने वाले हैं। मुख में वंशीनाद ध्वनि रूप गुण धारण
करने वाले हैं, ऐसे विष्णु का ध्यान ब्रह्मदेव करते
हैं ।। १६-१७ ।
विमर्श - सोलहवाँ श्लोक
अस्पष्ट है।
स एवात्मा नित्यो यतिरिह दले
कोमलकुले
कुलागारे सारे सरसिज युते षड्दलवरे
।
सुरानन्दश्रीदं दिवि
दमनकर्त्तारममदं
सुधाकान्तं कृष्णं परमपुरुषं भावयति
कः ॥ १८ ॥
वही आत्मा है,
जिनका ध्यान यति लोग अपने आप कुलागार के सारभूत ६ पत्ते वाले कमल पर
करते हैं । उन देवताओं को आनन्द तथा श्री देने वाले स्वर्गलोक में दमन करने वाले,
स्वयं मदरहित, सुधा के कान्त, परमपुरुष श्रीकृष्ण का ध्यान ब्रह्मदेव करते हैं ।। १८ ॥
महाविद्यासिद्धं
कुलपतिमनोमान्ययजितं
मुकुन्दं श्रीकृष्णं रसदलगतं
स्वागमगतं ।
मुरारिं पापारिं
नवयुवतिहृत्पद्मसुगतं
हृषीकेशं विष्णुं विषयकरणं भावयति
कः ॥ १९ ॥
महाविद्या की उपासना में सिद्ध,
शाक्त सम्प्रदाय के स्वामियों के मन से मान्य होने के कारण पूजित,
मुकुन्द श्रीकृष्ण, ६ पत्ते वाले कमल पर रहने
वाले, अपने आगमों में विद्यमान्, मुरनामक
असुर के अरि, पापारि, नवयुवतियों के
हृदय कमल पर विराजित, विषयों के कारणभूत, हृषीकेश, विष्णु का ब्रह्मदेव ध्यान करते हैं ॥ १९ ॥
स योगेन्द्रो ज्ञानी जयति सुकृतौ
कौतुकवतां
रमेशं श्रीकृष्णं रसविषहरं मानसचरम्
।
सरस्वत्या युक्तं कुलरसमयं
मुक्तिजडितं
भजेच्चैतन्यान्तं सुरगुरुवरं
मोक्षमयते ॥ २० ॥
कुतूहल करने वालों में अत्यन्त
पारङ्गत योगेन्द्र ज्ञानी भगवान् श्रीकृष्ण सर्वोत्कृष्टता को प्राप्त करें
। जो रमेश, श्रीकृष्ण, पारद के विष को हरण करने वाले, योगियों के मन में
सञ्चरण करने वाले, सरस्वती से युक्त, शक्ति
स्वरूप रसमय, मुक्ति से जड़े हुए, चेतना
वाले और देवताओं में सर्वश्रेष्ठ है, उन भगवान् का मैं भजन
करता हूँ, जिनके भजन से मनुष्य मोक्ष प्राप्त करते है ॥ २० ॥
यतीन्द्रः सश्रीकः प्रचयति निजं
भाव्यविषयं
पुराणं योगीन्द्रं हरिमखिलपं
कामनिलयम् ।
महासूक्ष्मं द्वारं कुलवधुरतं
वामकिरणं
विशालाक्षं कृष्णं निजरसकुले
कान्तममरम् ॥ २१ ॥
श्रीसम्पन्न यतीन्द्र जिनकी कृपा से
अपने भावी विषय को पूर्ण करना चाहते हैं ऐसे पुराणपुरुष,
योगीन्द्र, समस्त विश्व का पालन करने वाले,
काम के एकमात्र स्थान, महासूक्ष्म, जीवों के प्रवेश निर्गम के द्वार, कुल वधुओं में
प्रेम करने वाले, सुन्दर प्रकाश वाले, अपने
सरस कुल में कान्त और अमर हरि श्रीकृष्ण का मैं भजन करता हूँ ।। २१ ।।
कृपासाक्षीज्ञानं गुणगदितदेहं
दाहरहितं
महाशील सत्यं कुवलयकरिं हन्ति मरणम्
।
अघावीशं श्रीशं
शशिमुखिकराम्भोजयजितं
तमात्मानं कृष्णं निजकुलदले योऽपि
भजति ॥ २२ ॥
जो कृपा के साक्षी हैं,
ज्ञानस्वरूप हैं, जिनका देह गुणमय है, जो ईर्ष्यादि दाह से रहित हैं, महान् शूल एवं सत्य
स्वरूप हैं, कुवलय नामक अरि को मार डालने वाले हैं, अघावीश (पतिः एवं घावः सथाथोजण् न धावः यस्य स
अघावस्तस्येशः) अनाथों के ईश्वर, श्री के ईश्वर, चन्द्रमुखि गोपाङ्गनाओं के कर कमलों से पूजित, उन
आत्मस्वरूप श्रीकृष्ण की अपने कुलदल में जो कोई योगी भजन करता है, वह मोक्ष प्राप्त करता है ।। २२ ।।
महाशब्दोत्पन्नं प्रकृतिविकृतिं
कारणकृतिं
कृपासिन्धुं कृष्णं
कुलवधुशतामोदमिलितम् ।
जगन्नाथं स्तौति
क्षितिपतिवशायोपकरणं
विराटं ब्रह्माण्डं
करणगमहाविष्णुमरणम् ॥ २३ ॥
महाशब्द से उत्पन्न होने वाले,
प्रकृति के विकृति, कारण और कार्य स्वरूप,
कृपासिन्धु श्रीकृष्ण, सैकड़ो कुल वधुओं के
प्रमोद में मिले हुए, समस्त क्षितिपतियों के वश के लिए
उपकरणभूत, विराट् एवं ब्रह्माण्ड स्वरूप, कारण में रहने वाले तथा द्रुतगति वाले महाविष्णु जगन्नाथ की जो स्तुति
करता है वह मोक्ष प्राप्त करता है ।। २३ ।।
विनोदं व्याकर्तुं त्रिभुवनपति:
श्रीपतिरहो
प्रचण्डे संसारे उदयति सदाभावसदने ।
महामेघश्यामस्त्रिफल करुणासागरकुले
अमूल्ये सञ्चारे विषयरसनासञ्चय
विषम् ॥ २४ ॥
अहो ! संसारी मनुष्यों के विषय में
संलग्न रसना के संचय में विषरूप विनोद को विशेष रूप से विकसित करने के लिए त्रिभुवनपति,
महामेघ के समान श्यामवर्ण वाले, श्रीपति अपने
भक्तों के भावसदन में एवं अमूल्य सञ्चरणशील इस संसार के धर्म, अर्थ, काम रूप तीनों फलों वाले, करुणासागर वाले कुल में अवतार लेते हैं ।॥ २४ ॥
स कृष्णः श्री विष्णुः प्रकृतिगदया
हन्ति सततं
अतः कृष्णो ध्येयः सुरनरगणैः
पञ्चसुमुखैः ।
कुलाम्भोजे षट्के मनरसदले
ध्यानफलितः
किराती राकिण्या नयन कमलापानमधुरम्
॥ २५ ॥
वे श्रीकृष्ण श्रीविष्णु होकर अपनी
प्रकृतिरूपी गदा से सर्वदा सबको मारते हैं, अतः
देवताओं, मनुष्यों एवं पञ्चमुख वाले सदाशिव के द्वारा
एकमात्र श्रीकृष्ण ही ध्यान करने योग्य हैं। जो स्वाधिष्ठान चक्र के ६ पत्तों वाले
कमल पर ध्यान करने से फल प्रदान करते हैं और जो किराती(गोया) राकिणी के नयन रूपी
कमल पान से माधुर्य भाव को प्राप्त हो रहे हैं।२५॥
धराधारं पूर्ण गगननिलयं कालपुरुषं
मनोगम्यं रम्यं नव नयनलावण्यरसिकम्
।
सदा ध्यायेत् कृष्णं कुरुगणरिपुं यः
कुलपतिः
निरालम्बः श्यामः
प्रकृतियमुनातीरतरुगः ॥ २६ ॥
इस धरा के आधार पूर्ण,
शून्य में निवास करने वाले, कालपुरुष, मनोगम्य, परम रमणीय, नवीन
नेत्रों के लावण्य के रसिक कुरुगणों के शत्रु श्रीकृष्ण का कुलपति को ( शाक्त
सम्प्रदाय का श्रेष्ठ उपासक ) सदैव ध्यान करना चाहिए। जो निरालम्ब श्यामवर्ण वाले
हैं प्रकृतिस्वरूप एवं यमुना तट के वृक्षों पर बैठे हुए हैं ।। २६ ।।
कुलीना गोपीभिः
परिमिलितपार्श्वस्थलसुखः
प्रधान: क्षेत्रज्ञ: 'क्षितिपतिकराम्भोजयजितः ।
प्रकाशात्मा नाथः प्रचयकरुणो ध्येय
इरया
मनोधर्मं च्छत्रं
त्रिविधगुणगानाश्रितकरम् ॥ २७ ॥
कुलीन गोपियों के साथ सम्मिलित हो
कर जो उनके पार्श्व स्थल का सुख प्राप्त करने वाले हैं,
प्रधान हैं, क्षेत्रज्ञ हैं, राजाओं के कर कमलों से पूजित हैं, प्रकाशात्मा और
सबके स्वामी हैं, करुणा से परिपूर्ण हैं, ईडा के द्वारा ध्यान करने योग्य हैं, मन के धाम
(त्रिताप) से बचाने वाला जिनका छाता है तथा त्रिविधगुणगान करने वाली वंशी में
जिनका हाथ लगा हुआ है ।। २७ ।।
त्रिकाण्डस्थं खण्डोद्भववनरसं
प्राणरसिकं
यदा स्तौति प्रातः समयमफले चारुवरदम्
।
महामोक्षक्षेत्रं कुलवधुयुतं
कृष्णपरमं
गुणेशं राधेश रजनिविधुनितं रे
वेदनिलयम् ॥ २८ ॥
वेद के त्रिकाण्ड में रहने वाले (
खण्डोद्भव वनरसा ?) प्राणों से प्रिय
राधा के रसिक, सुन्दर वरदान देने वाले, महामोक्ष के क्षेत्र, कुल बधुओं से संयुक्त, परम ब्रह्मस्वरूप, गुणों के ईश्वर, राधा के स्वामी, रात्रि के चन्द्रमा स्वरूप वेद में
निवास करने वाले श्रीकृष्ण का प्रातः काल में बिना फल की आकांक्षा किए जो लोग
स्तुति करते हैं ॥ २८ ॥
क्रियादक्षं सूक्ष्मं
समयगुणयोगाङ्कजडितं
त्रिकोणस्थं गङ्गाजलगलितसारं
तारकतनुम् ।
महाकालानन्द गगनघनवर्णं सजलकं
प्रभावा भावं तरुणनववपुः श्रीधरमलम्
॥ २९ ॥
क्रिया में दक्ष,
सूक्ष्म, समयगुण योगाङ्कजडितं त्रिकोणस्थ,
गङ्गाजल में जिनका तत्त्व गलित हो कर मिल गया है, ऐसे तारक शरीर वाले, महाकाल सदाशिव के आनन्द स्वरूप,
आकाश एवं बादल के समान कान्ति वाले, प्रभा के
समूह, युवावस्था के उमङ्ग युक्त नवीन शरीरधारी श्रीधर के भजन
से बढ़कर अन्य कुछ भी नहीं है ॥ २९ ॥
वनोत्फुलाम्भोजा मनविरचना भालकलया
महाशोभारूपं कुलपुरुषगं व्याश्रयति यः
।
स योगी संसारे भवति रसनायोगनिरतः
मनो यो व्याधाय प्रचुरफलदं
कृष्णमखिलम् ॥ ३० ॥
वन में फूले हुए कमल के पुष्पों से
रचना वाले, मस्तक की कला से महाशोभा
सम्पन्न कुल पुरुषों में निवास करने वाले, प्रचुर फल देने
वाले, सर्वस्वरूप श्रीकृष्ण में मन स्थापित कर जो उनका आश्रय
ग्रहण कर लेता है ॥ ३० ॥
महाज्ञानोत्साहं गतिगुणवहि:
प्राणनिचयं
जगत्तारं ब्रह्म निरवधिमहायोगकिरणम्
।
यदा लोकस्तौति
प्रतिदिनमिहानन्दघटितं
विकारं सर्वेषां ग्रहणनिलनं
भास्करविधोः ॥ ३१ ॥
महाराहुग्रासं शतशतमहापुण्यनिकरं ।
कुलानन्दं विष्णुं
शशिशतघटारामकिरणम् ।
मनोगम्यं सूक्ष्मं त्रिगुणजडितं
भावयति कः ॥ ३२ ॥
महान् ज्ञान के उत्साह से सम्पन्न,
मनुष्यों के गति और गुण से परे, प्राणों के
समूह सब का प्राण होने से जगत् को तारने के लिए परब्रह्मस्वरूप, जिनके महायोग के किरण की कोई सीमा नहीं है ऐसे आनन्द की घटना से घटित,
सभी में विकार स्वरूप, सूर्य और चन्द्रमा में
ग्रहण स्वरूप श्रीकृष्ण की जब सारा जगत् स्तुति करता है। महाराहु को अपना ग्रास
बनाने वाले, सैकड़ों सैकड़ों चन्द्र समूहों के समान सुखदायक
किरणों वाले, कुलानन्द, विष्णु जो मन
से भी अगम्य एवं सूक्ष्म अनेक पुण्यों के समुदाय स्वरूप हैं, तीन गुणों से समन्वित हैं ऐसे श्रीकृष्ण का ध्यान ब्रह्मदेव करते हैं ।।
३१-३२ ।।
कृष्णभक्तिं मुदा कृष्णं ध्यात्वा
कृत्वा यतिर्भवेत् ।
श्रीकृष्णचरणाम्भोजे तस्य भक्तिर्न
संशयः ॥ ३३ ॥
कृष्णब्रह्म कृष्णब्रह्मा च
त्रिध्यानपरायणः ।
स कृष्णस्तं जनं नीत्वा ददाति अपि
शङ्कर ॥ ३४ ॥
विना कृष्णपदाम्भोजं स्वाधिष्ठानं
कुतो जयम् ।
कृष्णध्यानान्महापद्मभेदं
प्राप्नोति शङ्कर ॥ ३५ ॥
जो साधक प्रसन्नतापूर्वक श्रीकृष्ण में भक्ति करता है एवं प्रसन्नता से उनका ध्यान करता है, वह यति बन जाता है और श्रीकृष्ण के चरण कमलों में उसकी भक्ति हो जाती हैं। इसमें संशय नहीं । श्रीकृष्ण ही ब्रह्म हैं। श्रीकृष्ण ही सृष्टिकर्ता ब्रह्मा हैं ऐसा विचार कर जो तीनों काल में उनके ध्यान में परायण रहता है, हे शङ्कर ! ऐसे अपने भक्त को वे श्रीकृष्ण अपनाकर अपना सब कुछ दे देते हैं। बिना कृष्णपदाम्भोज की सेवा किए भला साधक किस प्रकार स्वाधिष्ठान चक्र पर विजय प्राप्त कर सकता है, हे शङ्कर ! कृष्ण के ध्यान से ही स्वाधिष्ठान नामक महापद्म का साधक भेद कर लेता है ।। ३३-३५ ।।
॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महातन्त्रोद्दीपने षट्चक्रप्रकाशे भैरवी भैरवसंवादे स्वाधिष्ठान श्रीकृष्णराकिणीसाधनं नाम सप्तत्रिंशत्तमः पटलः ॥ ३७ ॥
॥ श्री रुद्रयामल के उत्तरतन्त्र के
महातन्त्रोद्दीपन में षट्चक्र प्रकाश भैरवीभैरव संवाद में स्वाधिष्ठान चक्र पर
श्रीकृष्ण राकिणी साधन नामक सैंतीसवें पटल की डा० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी
व्याख्या पूर्ण हुई ॥ ३७ ॥
आगे जारी............रूद्रयामल तन्त्र पटल ३८
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