अग्निपुराण अध्याय ११
अग्निपुराण अध्याय ११ में उत्तरकाण्ड
की संक्षिप्त कथा का वर्णन है।
अग्निपुराणम् अध्यायः ११
Agni puran chapter 11
अग्निपुराण ग्यारहवाँ अध्याय
अग्नि पुराण अध्याय ११
अग्निपुराण अध्याय ११ - उत्तरकाण्डवर्णनं
नारद उवाच
राज्यस्थं राघवं जग्मुरगस्त्याद्याः
सुपूजिताः।
धन्यस्त्वं विजयी
यस्मादिन्द्रजिद्विनिपातितः ।। १ ।।
ब्रह्मात्मजः पुलस्त्योभूद्
विश्रवास्तस्यनैकषी।
पुष्पोत्कटाभूत् प्रथमा
तत्पुत्रोभूद्धनेश्वरः ।। २ ।।
नैकष्यां रावणो जज्ञे
विंशद्बाहुर्द्दशाननः।
तपसा ब्रह्मदत्तेन वरेण जितदैवतः ।।
३ ।।
कुम्भकर्णः
सनिद्रोऽभूद्धर्म्मिष्ठोऽभूद्धिभीषणः।
स्वसा शूर्पणखा तेषां
रावणान्मेघनादकः ।। ४ ।।
इन्द्रं
जित्वेन्द्रजिच्चाभूद्रावणादधिको बली।
हतस्त्वया लक्षमणेन देवादेः
क्षेममिच्छता ।। ५ ।।
इत्युक्त्वा ते गता विप्रा
अगस्त्याद्या नमस्कृताः।
देवप्रार्थितरामोक्तः शत्रुघ्नो
लवणार्द्दनः ।। ६ ।।
अभूत् पूर्म्मथुरा काचिद् रामोक्तो
भरतोऽवधीत्।
कोटित्रयञ्च शैलूषपुत्राणां निशितैः
शरैः ।। ७ ।।
शैलूषं दुप्टगन्धर्वं
सिन्धुतीरनिवासिनम्।
तक्षञ्च पुष्करं पुत्रं
स्थापयित्वाथ देशयोः ।। ८ ।।
भरतोगात्सशत्रुघ्नो राघवं पूजयन्
स्थितः।
रामो दुष्टान्निहत्याजौ शिष्टान्
सम्पाल्य मानवः ।। ९ ।।
नारदजी कहते
हैं—
जब रघुनाथजी अयोध्या के राजसिंहासन पर आसीन हो गये, तब अगस्त्य आदि महर्षि उनका दर्शन करने के लिये गये। वहाँ उनका भली भाँति
स्वागत-सत्कार हुआ। तदनन्तर उन ऋषियों ने कहा- 'भगवन्! आप
धन्य हैं, जो लङ्का में विजयी हुए और इन्द्रजित् जैसे राक्षस
को मार गिराया। [अब हम उनकी उत्पत्ति-कथा बतलाते हैं, सुनिये-] ब्रह्माजी के पुत्र मुनिवर पुलस्त्य हुए और पुलस्त्य से महर्षि विश्रवा का
जन्म हुआ। उनकी दो पत्नियाँ थीं- पुण्योत्कटा और कैकसी। उनमें पुण्योत्कटा ज्येष्ठ
थी। उसके गर्भ से धनाध्यक्ष कुबेर का जन्म हुआ। कैकसी के गर्भ से पहले रावण का
जन्म हुआ, जिसके दस मुख और बीस भुजाएँ थीं। रावण ने तपस्या
की और ब्रह्माजी ने उसे वरदान दिया, जिससे उसने समस्त
देवताओं को जीत लिया। कैकसी के दूसरे पुत्र का नाम कुम्भकर्ण और तीसरे का विभीषण
था। कुम्भकर्ण सदा नींद में ही पड़ा रहता था; किंतु विभीषण
बड़े धर्मात्मा हुए। इन तीनों की बहन शूर्पणखा हुई। रावण से मेघनाद का जन्म हुआ।
उसने इन्द्र को जीत लिया था, इसलिये 'इन्द्रजित्
' के नाम से उसकी प्रसिद्धि हुई। वह रावण से भी अधिक बलवान्
था परंतु देवताओं आदि के कल्याण की इच्छा रखनेवाले आपने लक्ष्मण के द्वारा उसका वध
करा दिया।' ऐसा कहकर वे अगस्त्य आदि ब्रह्मर्षि श्रीरघुनाथजी
के द्वारा अभिनन्दित हो अपने-अपने आश्रम को चले गये। तदनन्तर देवताओं की प्रार्थना
से प्रभावित श्रीरामचन्द्रजी के आदेश से शत्रुघ्न ने लवणासुर को मारकर एक पुरी
बसायी, जो 'मथुरा' नाम से प्रसिद्ध हुई। तत्पश्चात् भरत ने श्रीराम की आज्ञा पाकर सिन्धु-तीर
निवासी शैलूष नामक बलोन्मत्त गन्धर्व का तथा उसके तीन करोड़ वंशजों का अपने तीखे
बाणों से संहार किया। फिर उस देश के [ गान्धार और मद्र] दो विभाग करके, उनमें अपने पुत्र तक्ष और पुष्कर को स्थापित कर दिया ॥ १-९ ॥
पुत्रौ कुशल्वौ जातौ
वाल्मीकेराश्रमे वरौ।
लोकापवादात्त्यक्तायां ज्ञातौ
सुचरितश्रवात् ।। १० ।।
राज्येभिषिच्य ब्रह्माहमस्मीति
ध्यानतत्परः।
दशवर्षसहस्त्राणि दशवर्षसतानि च ।।
११ ।।
राज्यं कृत्वा क्रतून् कृत्वा
स्वर्गं देवार्च्चितो ययौ।
सपौरः सानुजः सीतापुत्रो
जनपदान्वितः ।।१२ ।।
इसके बाद भरत और शत्रुघ्न अयोध्या में
चले आये और वहाँ श्रीरघुनाथजी की आराधना करते हुए रहने लगे। श्रीरामचन्द्रजी ने दुष्ट
पुरुषों का युद्ध में संहार किया और शिष्ट पुरुषों का दान आदि के द्वारा भली भाँति
पालन किया। उन्होंने लोकापवाद के भय से अपनी धर्मपत्नी सीता को वन में छोड़ दिया
था। वहाँ वाल्मीकि मुनि के आश्रम में उनके गर्भ से दो श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हुए.
जिनके नाम कुश और लव थे। उनके उत्तम चरित्रों को सुनकर श्रीरामचन्द्रजी को भली भाँति
निश्चय हो गया कि ये मेरे ही पुत्र हैं। तत्पश्चात् उन दोनों को कोसल के दो
राज्यों पर अभिषिक्त करके, 'मैं ब्रह्म हूँ'
इसकी भावनापूर्वक ध्यान- योग में स्थित होकर उन्होंने देवताओं की
प्रार्थना से भाइयों और पुरवासियों सहित अपने परमधाम में प्रवेश किया। अयोध्या में
ग्यारह हजार वर्षों तक राज्य करके वे अनेक यज्ञों का अनुष्ठान कर चुके थे। उनके
बाद सीता के पुत्र कोसल जनपद के राजा हुए। १०-१२ ॥
अग्निरुवाच
वाल्मीकिर्नारदाच्छ्रु त्वा
रामायणमकारयत् ।
सविस्तरं यदेतच्च श्रृणुयात्स दिवं
व्रजेत् ।।१३ ।।
अग्निदेव कहते
हैं—
वसिष्ठजी! देवर्षि नारद से यह कथा सुनकर महर्षि वाल्मीकि ने
विस्तारपूर्वक रामायण नामक महाकाव्य की रचना की। जो इस प्रसङ्ग को सुनता है,
वह स्वर्गलोक को जाता है ॥ १३ ॥
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये रामायणे
उत्तरकाण्डवर्णनं नाम एकादशोऽध्यायः ।।
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'रामायण कथा के अन्तर्गत उत्तरकाण्ड की कथा का वर्णन' नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ११ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 12
अग्निपुराण के पूर्व अंक पढ़ें-
अध्याय 1 अध्याय
2 अध्याय 3 अध्याय 4
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