अग्निपुराण अध्याय ७
अग्निपुराण अध्याय ७ में अरण्यकाण्ड की संक्षिप्त कथा का वर्णन है।
अग्निपुराणम् अध्यायः ७
Agni puran chapter 7
अग्निपुराण सातवाँ अध्याय
अग्नि पुराण अध्याय ७
अग्निपुराण अध्याय ७ - अरण्यकाण्डवर्णनं
नारद उवाच
रामो वशिष्ठं मातॄश्च नत्वाऽत्रिञ्च
प्रणम्य सः।
अनसूयाञ्च तत्पत्नीं शरभङ्गं
सुतीक्ष्णकम् ।। १ ।।
अगस्त्य भ्रातरं नत्वा
अगस्त्यन्तत्प्रसादतः।
धनुः खङ्गञ्च सम्प्राप्य
दण्डकारण्यमागतः ।। २ ।।
जनस्थाने पञ्चवट्यां स्थितो
गोदावरीं तटे।
तत्र सूर्पणखायाता भक्षितुं तान्
भयङ्करी ।। ३ ।।
रामं सुरूपं दृष्ट्वा सा कामिनी
वाक्यमब्रवीत्।
कस्त्वं कस्मात्समायातो भर्त्ता मे
भव चार्थितः ।। ४ ।।
नारदजी कहते
हैं—
मुने! श्रीरामचन्द्रजी ने महर्षि वसिष्ठ तथा माताओं को प्रणाम करके
उन सबको भरत के साथ विदा कर दिया। तत्पश्चात् महर्षि अत्रि तथा उनकी पत्नी अनसूया को,
शरभङ्गमुनि को, सुतीक्ष्ण को तथा अगस्त्यजी के
भ्राता अग्निजिह्व मुनि को प्रणाम करते हुए श्रीरामचन्द्रजी ने अगस्त्यमुनि के
आश्रम पर जा उनके चरणों में मस्तक झुकाया और मुनि की कृपा से दिव्य धनुष एवं दिव्य
खड्ग प्राप्त करके वे दण्डकारण्य में आये। वहाँ जनस्थान के भीतर पञ्चवटी नामक
स्थान में गोदावरी के तट पर रहने लगे। एक दिन शूर्पणखा नामवाली भयंकर राक्षसी राम,
लक्ष्मण और सीता को खा जाने के लिये पञ्चवटी में आयी; किंतु श्रीरामचन्द्रजी का अत्यन्त मनोहर रूप देखकर वह काम के अधीन हो गयी
और बोली ॥ १-४ ॥
एतौ च भक्षयिष्यामि इत्युक्त्वा तं
समुद्यता ।
तस्या नासाञ्च कर्णौ च रामोक्तो
लक्ष्मणोऽच्छिनत् ।। ५।।
शूर्पणखा ने कहा-
तुम कौन हो ? कहाँ से आये हो? मेरी प्रार्थना से अब तुम मेरे पति हो जाओ। यदि मेरे साथ तुम्हारा सम्बन्ध
होने में [ये दोनों सीता और लक्ष्मण बाधक हैं तो ] मैं इन दोनों को अभी खाये लेती
हूँ ॥ ५ ॥
रक्तं क्षरन्ती प्रययौ खरं
भ्रातरमब्रवीत्।
मरीष्यामि विनासाऽहं खर जीवामि वै
तदा ६ ।।
रामस्य भार्य्या सीताऽसौ
तस्यासील्लक्ष्मणोऽनुजः।
तेषां यद्रुधिरं सोष्णं पाययिष्यसि
मां यदि ।। ७ ।।
खरस्तथेति तामुक्त्वा
यतुर्दृशसहस्त्रकैः।
रक्षसां दूषणेनागाद्योद्धु
त्रिशिरसा सह ।। ८ ।।
रामं रामोऽपि युयुधे शरैर्विव्याध
राक्षसान्।
हस्त्यश्वरथपादातं बलं निन्ये
यमक्षयम् ।। ९ ।।
त्रिशीर्षाणं खरं रौद्रं
युध्यन्तञ्चौव दूषणम्।
ययौ सूर्पणखा लङ्कां रावणाग्रेपतद्
भुवि ।। १० ।।
अब्रवीद्रावणं क्रुद्धा न त्वं राजा
न रक्षकः।
खरादिहन्तू रामस्य सीतां भार्यां
हरस्व च ।। ११ ।।
रामलक्ष्मणरक्तस्य पानाज्जीवामि
नान्यथा।
तथेत्याह च तच्छ्रुत्वा मारीचं
प्राह वै व्रज ।। १२ ।।
ऐसा कहकर वह उन्हें खा जाने को
तैयार हो गयी। तब श्रीरामचन्द्रजी के कहने से लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक और दोनों
कान भी काट लिये। कटे हुए अङ्गों से रक्त की धारा बहाती हुई शूर्पणखा अपने भाई खर के
पास गयी और इस प्रकार बोली-'खर ! मेरी नाक
कट गयी। इस अपमान के बाद मैं जीवित नहीं रह सकती। अब तो मेरा जीवन तभी रह सकता है,
जब कि तुम मुझे राम का, उनकी पत्नी सीता का
तथा उनके छोटे भाई लक्ष्मण का गरम-गरम रक्त पिलाओ।' खर ने
उसको 'बहुत अच्छा' कहकर शान्त किया और
दूषण तथा त्रिशिरा के साथ चौदह हजार राक्षसों की सेना ले श्रीरामचन्द्रजी पर चढ़ाई
की। श्रीराम ने भी उन सबका सामना किया और अपने बाणों से राक्षसों को बींधना आरम्भ
किया। शत्रुओं की हाथी, घोड़े, रथ और
पैदल सहित समस्त चतुरङ्गिणी सेना को उन्होंने यमलोक पहुँचा दिया तथा अपने साथ
युद्ध करनेवाले भयंकर राक्षस खर दूषण एवं त्रिशिरा को भी मौत के घाट उतार दिया। अब
शूर्पणखा लङ्का में गयी और रावण के सामने जा पृथ्वी पर गिर पड़ी। उसने क्रोध में
भरकर रावण से कहा- 'अरे! तू राजा और रक्षक कहलाने योग्य नहीं
है। खर आदि समस्त राक्षसों का संहार करनेवाले राम की पत्नी सीता को हर ले। मैं राम
और लक्ष्मण का रक्त पीकर ही जीवित रहूँगी; अन्यथा नहीं'
॥ ६-१२ ॥
स्वर्णचित्रमृगो भूत्वा
रामलक्ष्मणकर्षकः।
सीताग्रे तां हरिष्यामि अन्यथा मरणं
तव ।। १३ ।।
मारीचो रावणं प्राह रामो
मृत्युर्धनुर्धरः।
रावणादपि मर्त्तव्यं मर्त्तव्यं
राघवादपि ।। १४ ।।
अवश्यं यदि मर्त्तव्यं वरं रामो न
रावणः।
इति मत्वा मृगो भूत्वा सीताग्रे
व्यचरन्मुहुः ।। १५ ।।
सीतया प्रेरितो रामः शरेणाथावधीच्च
तम्।
म्रियमाणो मृगः प्राह हा सीते
लक्ष्मणेति च ।। १६ ।।
सौमित्रिः सीतयोक्तोऽथ विरुद्धं
राममागतः।
रावणोऽप्यहरत् सीतां हत्वा गृध्रं
जटायुषम् ।। १७ ।।
जटायुषा स भिन्नाङ्गः अङ्केनादाय
जानकीम्।
गतो लङ्कामशोकाख्ये धारयामास
चाब्रवीत् ।। १८ ।।
भव भार्य्या ममाग्र्या त्वं
राक्षस्यो रक्ष्यतामियम् ।
रामो हत्वा तु मारीचं दृष्ट्वा
लक्ष्मणमब्रवीत् ।। १९ ।।
मायामृगोऽसौ सौमित्रे यथा त्वमिह
चागतः ।
शूर्पणखा की बात सुनकर रावण ने कहा- 'अच्छा, ऐसा
ही होगा।' फिर उसने मारीच से कहा - 'तुम
स्वर्णमय विचित्र मृग का रूप धारण करके सीता के सामने जाओ और राम तथा लक्ष्मण को
अपने पीछे आश्रम से दूर हटा ले जाओ। मैं सीता का हरण करूँगा। यदि मेरी बात न
मानोगे, तो तुम्हारी मृत्यु निश्चित है।' मारीच ने रावण से कहा - 'रावण! धनुर्धर राम साक्षात्
मृत्यु हैं।' फिर उसने मन ही मन सोचा - 'यदि नहीं जाऊँगा, तो रावण के हाथ से मरना होगा और
जाऊँगा तो श्रीराम के हाथ से । इस प्रकार यदि मरना अनिवार्य है तो इसके लिये
श्रीराम ही श्रेष्ठ हैं, रावण नहीं; [क्योंकि
श्रीराम के हाथ से मृत्यु होने पर मेरी मुक्ति हो जायगी]। ऐसा विचारकर वह मृगरूप
धारण करके सीता के सामने बारंबार आने-जाने लगा। तब सीताजी की प्रेरणा से श्रीराम ने
[दूर तक उसका पीछा करके] उसे अपने बाण से मार डाला। मरते समय उस मृग ने 'हा सीते! हा लक्ष्मण!' कहकर पुकार लगायी। उस समय
सीता के कहने से लक्ष्मण अपनी इच्छा के विरुद्ध श्रीरामचन्द्रजी के पास गये। इसी
बीच में रावण ने भी मौका पाकर सीता को हर लिया। मार्ग में जाते समय उसने गृध्रराज
जटायु का वध किया। जटायु ने भी उसके रथ को नष्ट कर डाला था। रथ न रहने पर रावण ने
सीता को कंधे पर बिठा लिया और उन्हें लङ्का में ले जाकर अशोकवाटिका में रखा। वहाँ
सीता से बोला- तुम मेरी पटरानी बन जाओ।' फिर राक्षसियों की
ओर देखकर कहा-'निशाचरियो ! इसकी रखवाली करो' ॥ १३–१९ई ॥
तथा सीता हृता नूनं नापश्यत् स
गतोऽथ ताम् ।। २० ।।
शुशोच विललापार्त्तो मां त्यक्त्वा
क्क गतासि वै।
लक्ष्मणाश्वासितो रामो मार्गयामास
जानकीम् ।। २१ ।।
दृष्ट्वा जटायुस्तं प्राह रावणो
हृतवांश्च ताम्।
मृतोऽथ संस्कृतस्तेन
कबन्धञ्चावधीत्ततः ।।
शापमुक्तोऽब्रवीद्रामं स त्वं
सुग्रीवमाव्रज ।। २२ ।।
उधर श्रीरामचन्द्रजी जब मारीच को
मारकर लौटे, तो लक्ष्मण को आते देख बोले- 'सुमित्रानन्दन ! वह मृग तो मायामय था- वास्तव में वह एक राक्षस था;
किंतु तुम जो इस समय यहाँ आ गये, इससे जान
पड़ता है, निश्चय ही कोई सीता को हर ले गया।' श्रीरामचन्द्रजी आश्रम पर गये; किंतु वहाँ सीता नहीं
दिखायी दीं। उस समय वे आर्त होकर शोक और विलाप करने लगे- 'हा
प्रिये जानकी! तू मुझे छोड़कर कहाँ चली गयी ?' लक्ष्मण ने
श्रीराम को सान्त्वना दी। तब वे वन में घूम-घूम सीता की खोज करने लगे । इसी समय
इनकी जटायु से भेंट हुई। जटायु ने यह कहकर कि 'सीता को रावण
हर ले गया है' प्राण त्याग दिया। तब श्रीरघुनाथजी ने अपने
हाथ से जटायु का दाह संस्कार किया। इसके बाद इन्होंने कबन्ध का वध किया। कबन्ध ने
शापमुक्त होने पर श्रीरामचन्द्रजी से कहा- 'आप सुग्रीव से
मिलिये ' ॥ २० - २२ ॥
इत्यादिमहापुराणे अग्नेये रामायणे
आरण्यककाण्डवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ।
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'रामायण-कथा के अन्तर्गत अरण्यकाण्ड की कथा का वर्णन'-विषयक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ७ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 8
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