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अग्निपुराण अध्याय ६ - अयोध्याकाण्डवर्णनं
नारद उवाच
भरतेऽथ गते रामः पित्रादीनभ्यपूजयत्
।
राजा दशरथो राममुवाच श्रृणु राघव
॥१॥
गुणानुरागाद्राज्ये त्वं
प्रजाभिरभिषेचितः ।
मनसाऽहं प्रभाते ते यौवराज्यं ददामि
च ॥२॥
रात्रौ त्वं सीतया सार्धं संयतः
सुव्रतो भव ।
राज्ञश्च मन्त्रिणश्चाष्टौ
सवसिष्ठास्तथाब्रुवन् ॥३॥
सृप्टिर्जयन्तो विजयः सिद्धार्थो
राष्ट्रवर्धनः ।
अशोको धर्मपालश्च सुमन्त्रः
सवसिष्ठकः ॥४॥
पित्रादिवचनं श्रुत्वा
तथेत्युक्त्वा स राघवः ।
स्थितो देवार्चनं कृत्वा कौशल्यायै
निवेद्य तत् ॥५॥
राजोवाच वसिष्ठादीन्
रामराज्याभिषेचने ।
सम्भारान् सम्भवन्तु स्म
इत्युक्त्वा कैकयीङ्गतः ॥६॥
अयोध्यालङ्कृति दृष्ट्वा ज्ञात्वा
रामाभिषेचनम् ।
भविष्यतीत्याचचक्षे कैकेयीं मन्थरा
सखी ॥७॥
पादौ गृहीत्वा रामेण कर्षिता
सापरधतः ।
तेन वैरेण सा राम वनवासञ्च काङ्क्षति ॥८॥
नारदजी कहते
हैं—
भरत के ननिहाल चले जाने पर [लक्ष्मण सहित] श्रीरामचन्द्रजी ही पिता-
माता आदि के सेवा सत्कार में रहने लगे। एक दिन राजा दशरथ ने श्रीरामचन्द्रजी से
कहा- ' रघुनन्दन ! मेरी बात सुनो तुम्हारे गुणों पर अनुरक्त
हो प्रजाजनों ने मन-ही-मन तुम्हें राज- सिंहासन पर अभिषिक्त कर दिया है-प्रजा की
यह हार्दिक इच्छा है कि तुम युवराज बनो; अतः कल प्रातः काल
मैं तुम्हें युवराजपद प्रदान कर दूँगा । आज रात में तुम सीता सहित उत्तम व्रत का
पालन करते हुए संयमपूर्वक रहो।' राजा के आठ मन्त्रियों तथा
वसिष्ठजी ने भी उनकी इस बात का अनुमोदन किया। उन आठ मन्त्रियों के नाम इस प्रकार
हैं- दृष्टि, जयन्त, विजय, सिद्धार्थ, राज्यवर्धन, अशोक,
धर्मपाल तथा सुमन्त्र* ।
इनके अतिरिक्त वसिष्ठजी भी [मन्त्रणा देते थे]। पिता और मन्त्रियों की बातें सुनकर
श्रीरघुनाथजी ने 'तथास्तु' कहकर उनकी
आज्ञा शिरोधार्य की और माता कौसल्या को यह शुभ समाचार बताकर देवताओं की पूजा करके
वे संयम में स्थित हो गये। उधर महाराज दशरथ वसिष्ठ आदि मन्त्रियों को यह कहकर कि '
आप लोग श्रीरामचन्द्र के राज्याभिषेक की सामग्री जुटायें, कैकेयी के भवन में चले गये। कैकेयी के मन्थरा नामक एक दासी थी, जो बड़ी दुष्टा थी। उसने अयोध्या की सजावट होती देख, श्रीरामचन्द्रजी के राज्याभिषेक की बात जानकर रानी कैकेयी से सारा हाल कह
सुनाया। एक बार किसी अपराध के कारण श्रीरामचन्द्रजी ने मन्थरा को उसके पैर पकड़-
कर घसीटा था। उसी वैर के कारण वह सदा यही चाहती थी कि राम का वनवास हो जाय ॥ १-८॥
* वाल्मीकीय रामायण, बालकाण्ड ७३ में इन
मन्त्रियों के नाम इस प्रकार आये हैं-सृष्टि, जयन्त, विजय, सुराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन,
अकोप, धर्मपाल तथा सुमन्त्र।
कैकयि त्वं समुत्तिष्ठ
रामराज्याभिषेचनम् ।
मरणं तव पुत्रस्य मम ते नात्र
संशयः॥९॥
मन्थरा बोली-
कैकेयी! तुम उठो, राम का राज्याभिषेक
होने जा रहा है। यह तुम्हारे पुत्र के लिये, मेरे लिये और
तुम्हारे लिये भी मृत्यु के समान भयंकर वृत्तान्त है-इसमें कोई संदेह नहीं है ॥ ९
॥
कुव्जयोक्तञ्च तच्छ्रुत्वा एकमाभरणं
ददौ ।
उवाच मे यथा रामस्तथा मे भरतः
सुतः॥१०॥
उपायन्तु न पश्यामि भरतो येन
राज्यभाक् ।
कैकेयीमब्रवीत् क्रुद्धा हारं
त्यक्त्वाऽथ मन्थरा ॥११॥
मन्थरा कुबड़ी थी। उसकी बात सुनकर
रानी कैकेयी को प्रसन्नता हुई। उन्होंने कुब्जा को एक आभूषण उतारकर दिया और कहा- 'मेरे लिये तो जैसे राम हैं, वैसे ही मेरे पुत्र भरत
भी हैं। मुझे ऐसा कोई उपाय नहीं दिखायी देता, जिससे भरत को
राज्य मिल सके।' मन्थरा ने उस हार को फेंक दिया और कुपित
होकर कैकेयी से कहा ॥ १०-११ ॥
बालिशे रक्ष भरतमात्मानं माञ्च
राघवात् ।
देवासुरे पुरा युद्धे शम्बरेण हताः
सुराः ॥१२॥
राजवंशस्तु कैकेयि भरतात्
परिहास्यते ।
देवासुरे पुरा युद्दे राम्बरेण हताः
सुरा ॥१३॥
रात्रौ भर्त्ता गतस्तत्र रक्षितो
विद्यया त्वया ।
वरद्वयन्तदा प्रादाद्याचेदानीं
नृपञ्च तत् ॥१४॥
रामस्य च वनेवासं नव वर्षाणि पञ्च च
।
यौवराज्यञ्च भरते तदिदानीं
प्रदास्यति॥१५॥
मन्थरा बोली-
ओ नादान! तू भरत को, अपने को और मुझे भी
राम से बचा कल राम राजा होंगे। फिर राम के पुत्रों को राज्य मिलेगा। कैकेयी! अब
राजवंश भरत से दूर हो जायगा। [मैं भरत को राज्य दिलाने का एक उपाय बताती हूँ।]
पहले की बात है। देवासुर संग्राम में शम्बरासुर ने देवताओं को मार भगाया था। तेरे
स्वामी भी उस युद्ध में गये थे। उस समय तूने अपनी विद्या से रात में स्वामी की
रक्षा की थी। इसके लिये महाराज ने तुझे दो वर देने की प्रतिज्ञा की थी। इस समय
उन्हीं दोनों वरों को उनसे माँग एक वर के द्वारा राम का चौदह वर्षों के लिये वनवास
और दूसरे के द्वारा भरत का युवराज पद पर अभिषेक माँग ले। राजा इस समय वे दोनों वर
दे देंगे ॥ १२-१५ ॥
प्रोत्साहिता कुव्जया सा अनर्थे
चार्थदर्शिनी ।
उवाच सदुपायं मे कच्चितं कारयिष्यति
॥१६॥
क्रोधागारं प्रविष्टाऽय पतिता भुवि
मूर्च्छिता ।
द्विजादीनर्च्चयित्वाऽथ राजा
दशरथस्तदा ॥१७॥
ददर्श केकयीं रुष्टामुवाच कथमीदृशी
।
रोगार्त्ता किं भयोद्विग्ना किमिच्छसि
करोमि तत् ॥१८॥
येन रामेण हि विना न जीवामि
मुहूर्त्तकम् ।
शपामि तेन कुर्यां वै वाञ्छितं तव
सुन्दरि ॥१९॥
सत्यं व्रूहीति सोवाच नृपं मह्यं
ददासि चेत् ।
वरद्वयं पूर्वदत्तं सत्यात् त्वं
देहि मे नृप ॥२०॥
चतुर्द्दशसमा रामो वने वसतु संयतः ।
सम्भारैरेभिरद्यैव भरतोत्राभिषेच्यताम्॥२१॥
विषं पीत्वा मरिप्यामि दास्यसि त्वं
न चेन्नृप ।
तच्छ्रुत्वा मूर्च्छितो भूमौ
वज्राहत इवापतत् ॥२२॥
मुहूर्त्ताच्चेतनां प्राप्य
कैकेयीमिदमब्रवीत् ।
किं कृतं तव रामेण मय वा पापनिश्चये
॥२३॥
इस प्रकार मन्थरा के प्रोत्साहन
देने पर कैकेयी अनर्थ में ही अर्थ की सिद्धि देखने लगी और बोली-'कुब्जे ! तूने बड़ा अच्छा उपाय बताया है। राजा मेरा मनोरथ अवश्य पूर्ण
करेंगे।' ऐसा कहकर वह कोपभवन में चली गयी और पृथ्वी पर अचेत
सी होकर पड़ रही। उधर महाराज दशरथ ब्राह्मण आदि का पूजन करके जब कैकेयी के भवन में
आये तो उसे रोष में भरी हुई देखा तब राजा ने पूछा- 'सुन्दरी
! तुम्हारी ऐसी दशा क्यों हो रही है? तुम्हें कोई रोग तो
नहीं सता रहा है ? अथवा किसी भय से व्याकुल तो नहीं हो ?
बताओ, क्या चाहती हो? मैं
अभी तुम्हारी इच्छा पूर्ण करता हूँ। जिन श्रीराम के बिना मैं क्षणभर भी जीवित नहीं
रह सकता, उन्हीं की शपथ खाकर कहता हूँ, तुम्हारा मनोरथ अवश्य पूर्ण करूँगा। सच-सच बताओ, क्या
चाहती हो?" कैकेयी बोली- 'राजन्!
यदि आप मुझे कुछ देना चाहते हों, तो अपने सत्य की रक्षा के
लिये पहले के दिये हुए दो वरदान देने की कृपा करें। मैं चाहती हूँ, राम चौदह वर्षों तक संयमपूर्वक वन में निवास करें और इन सामग्रियों के
द्वारा आज ही भरत का युवराज पद पर अभिषेक हो जाय। महाराज! यदि ये दोनों वरदान आप
मुझे नहीं देंगे तो मैं विष पीकर मर जाऊँगी।' यह सुनकर राजा
दशरथ वज्र से आहत हुए की भाँति मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़े। फिर थोड़ी देर में
चेत होने पर उन्होंने कैकेयी से कहा ॥ १६ - २३ ॥
यन्मामेवं ब्रवीषि त्वं
सर्वलोकाप्रियङ्करि ।
केवलं त्वत्प्रियं कृत्वा भविष्यामि
सुनिन्दितः ॥२४॥
या त्वं भार्या कालरात्री भरतो
नेदृशः सुतः ।
प्रशाधि विधवा राज्यं मृते मयि गतो
सुते ॥२५॥
सत्यपाशनिबद्धस्तु राममाहूय
चाब्रवीत् ।
दशरथ बोले-
पापपूर्ण विचार रखनेवाली कैकेयी ! तू समस्त संसार का अप्रिय करनेवाली है। अरी!
मैंने या राम ने तेरा क्या बिगाड़ा है, जो
तू मुझसे ऐसी बात कहती है? केवल तुझे प्रिय लगनेवाला यह
कार्य करके मैं संसार में भलीभाँति निन्दित हो जाऊँगा। तू मेरी स्त्री नहीं,
कालरात्रि है। मेरा पुत्र भरत ऐसा नहीं है। पापिनी ! मेरे पुत्र के
चले जाने पर जब मैं मर जाऊँगा तो तू विधवा होकर राज्य करना ॥ २४-२५३ ॥
कैकय्या वञ्चितो राम राज्यं कुरु
निगृह्य माम् ॥२६॥
त्वया वने तु वस्तव्यं कैकेयीभरतो
नृपः ।
पितरञ्चैव कैकेयीं नमस्कृत्य
प्रदक्षिणम् ॥२७॥
कृत्वा नत्वा च कौशल्यां समाश्वास्य
सलक्ष्मणः ।
सीतया भार्यया सार्द्ध सरथः
ससुमन्त्रकः ॥२८॥
दत्त्वा दानानि विप्रेभ्यो
दीनानाथेभ्य एव सः ।
मातृभिश्चैव विप्राद्यैः
शोकार्त्तौनिर्गतः पुरात् ॥२९॥
उषित्वा तमसातीरे रात्रौ पौरान्
विहाय च ।
प्रभाते तमपश्यन्तोऽयोध्यां ते
पुनरागताः ॥३०॥
रुदन् राजापि कौशल्यागृहमागात्
सुदुः खितः ।
पौरा जना स्त्रियः सर्वा रुरुदू
राजयोपितः ॥३१॥
रामो रथस्थश्चीराढ्यः
श्रृङ्गवेरपुरं ययौ ।
गुहेन पूजितस्तत्र
इङ्गुदीमूलमाश्रितः ॥३२॥
लक्ष्मणः स गुहो रात्रौ,
चक्रतुर्ज्जागरं हि तौ ।
सुमन्त्रं सरथं त्यक्त्वा
प्रातर्न्नवाथ जाह्नवीम् ॥३३॥
राजा दशरथ सत्य के बन्धन में बँधे
थे। उन्होंने श्रीरामचन्द्रजी को बुलाकर कहा- 'बेटा!
कैकेयी ने मुझे ठग लिया। तुम मुझे कैद करके राज्य को अपने अधिकार में कर लो।
अन्यथा तुम्हें वन में निवास करना होगा और कैकेयी का पुत्र भरत राजा बनेगा।'
श्रीरामचन्द्रजी ने पिता और कैकेयी को प्रणाम करके उनकी प्रदक्षिणा
की और कौसल्या के चरणों में मस्तक झुकाकर उन्हें सान्त्वना दी। फिर लक्ष्मण और
पत्नी सीता को साथ ले, ब्राह्मणों, दीनों
और अनाथों को दान देकर, सुमन्त्र सहित रथ पर बैठकर वे नगर से
बाहर निकले। उस समय माता-पिता आदि शोक से आतुर हो रहे थे। उस रात में
श्रीरामचन्द्रजी ने तमसा नदी के तट पर निवास किया। उनके साथ बहुत से पुरवासी भी
गये थे। उन सबको सोते छोड़कर वे आगे बढ़ गये। प्रातः काल होने पर जब
श्रीरामचन्द्रजी नहीं दिखायी दिये तो नगरनिवासी निराश होकर पुनः अयोध्या लौट आये।
श्रीरामचन्द्रजी के चले जाने से राजा दशरथ बहुत दुःखी हुए। वे रोते-रोते कैकेयी का
महल छोड़कर कौसल्या के भवन में चले आये। उस समय नगर के समस्त स्त्री-पुरुष और
रनिवास की स्त्रियाँ फूट-फूटकर रो रही थीं। श्रीरामचन्द्रजी ने चीर वस्त्र धारण कर
रखा था। वे रथ पर बैठे-बैठे शृङ्गवेरपुर जा पहुँचे। वहाँ निषादराज गुह ने उनका
पूजन, स्वागत-सत्कार किया। श्रीरघुनाथजी ने इङ्गुदी – वृक्ष की
जड़ के निकट विश्राम किया। लक्ष्मण और गुह दोनों रात भर जागकर पहरा देते रहे ।।
२६-३३ ॥
रामलक्ष्मणसीताश्च तीर्णा आपुः
प्रयागकम् ।
भरद्वाजंनमस्कृत्य चित्रकूटं गिरिं
ययुः ॥३४॥
वास्तुपूजान्ततः कृत्वा स्थिता
मन्दाकिनीतटे ।
सीतायै दर्शयामास चित्रकूटञ्च राघवः
॥३५॥
नखैर्विदारयन्तन्तां
काकन्तच्छक्षुराक्षिपत् ।
ऐषिकास्त्रेण शरणं प्राप्तो देवान्
विहाय सः ॥३६॥
रामे वनं गते राजा षष्ठेऽह्नि निशि
चाब्रवीत् ।
कौशल्यां सकथा पौर्वां
यदज्ञानाद्दतः पुरा ॥३७॥
कौमारे सरयूतीरे यज्ञदत्तकुमारकः ।
शब्दभेदाच्च कुम्भेन शब्दं
कुर्वंश्च तत्पिता ॥३८॥
शशाप विलपन्मात्रा शोकं कृत्वा रुदन्मुहुः
।
पुत्रं विना मरिष्यावस्त्वं च
शोकान्मरिष्यसि ॥३९॥
पुत्रं विना स्मरन् शोकात् कौशल्ये
मरणं मम ।
कथामुक्त्वाऽथ हा राममुक्त्वा राजा
दिवङ्गतः ॥४०॥
सुप्तं मत्वाऽथ कौशल्या सुप्ता
शोकार्त्तमेव सा ।
सुप्रभाते गायनाश्च सूतमागधवन्दिनः
॥४१॥
प्रबोधका बोधयन्ति न च बुध्यत्यसौ
मृतः ।
कौशल्या तं मृतं ज्ञात्वा हा
हतास्मीति चाब्रवीत् ॥४२॥
प्रातः काल श्रीराम ने रथसहित
सुमन्त्र को विदा कर दिया तथा स्वयं लक्ष्मण और सीता के साथ नाव से गङ्गा-पार हो
वे प्रयाग में गये। वहाँ उन्होंने महर्षि भरद्वाज को प्रणाम किया और उनकी आज्ञा ले
वहाँ से चित्रकूट पर्वत को प्रस्थान किया। चित्रकूट पहुँचकर उन्होंने वास्तुपूजा
करने के अनन्तर (पर्णकुटी बनाकर ) मन्दाकिनी के तट पर निवास किया। रघुनाथजी ने
सीता को चित्रकूट पर्वत का रमणीय दृश्य दिखलाया। इसी समय एक कौए ने सीताजी के कोमल
श्रीअङ्ग में नखों से प्रहार किया। यह देख श्रीराम ने उसके ऊपर सक के अस्त्र का
प्रयोग किया। जब वह कौआ देवताओं का आश्रय छोड़कर श्रीरामचन्द्रजी की शरण में आया,
तब उन्होंने उसकी केवल एक आँख नष्ट करके उसे जीवित छोड़ दिया।
श्रीरामचन्द्रजी के वनगमन के पश्चात् छठे दिन की रात में राजा दशरथ ने कौसल्या से
पहले की एक घटना सुनायी, जिसमें उनके द्वारा कुमारावस्था में
सरयू के तट पर अनजान में यज्ञदत्त - पुत्र श्रवणकुमार के मारे जाने का वृत्तान्त
था । " श्रवणकुमार पानी लेने के लिये आया था। उस समय उसके घड़े के भरने से जो
शब्द हो रहा था, उसकी आहट पाकर मैंने उसे कोई जंगली जन्तु
समझा और शब्दवेधी बाण से उसका वध कर डाला। यह समाचार पाकर उसके पिता और माता को
बड़ा शोक हुआ। वे बारंबार विलाप करने लगे। उस समय श्रवणकुमार के पिता ने मुझे शाप
देते हुए कहा- 'राजन्! हम दोनों पति-पत्नी पुत्र के बिना
शोकातुर होकर प्राणत्याग कर रहे हैं; तुम भी हमारी ही तरह
पुत्रवियोग के शोक से मरोगे; [तुम्हारे पुत्र मरेंगे तो नहीं,
किंतु] उस समय तुम्हारे पास कोई पुत्र मौजूद न होगा।' कौसल्ये! आज उस शाप का मुझे स्मरण हो रहा है। जान पड़ता है, अब इसी शोक से मेरी मृत्यु होगी।" इतनी कथा कहने के पश्चात् राजा ने 'हा राम !' कहकर स्वर्गलोक को प्रयाण किया। कौसल्या ने
समझा, महाराज शोक से आतुर हैं; इस समय
नींद आ गयी होगी। ऐसा विचार करके वे सो गयीं। प्रातःकाल जगानेवाले सूत, मागध और बन्दीजन सोते हुए महाराज को जगाने लगे; किंतु
वे न जगे ॥ ३४ - ४२ ॥
नरा नार्योऽथ रुरुदुरानीतो भरतस्तदा
।
वशिष्ठद्यैः सशत्रुघ्नः शीघ्नं
राजगृहात्पुरीम् ॥४३॥
दृष्ट्वा सशोकां कैकेयीं निन्दयामास
दुः खितः ।
अकीर्त्तिः पातिता मूर्ध्नि
कौसल्यां स प्रशस्य च ॥४४॥
पितरन्तैलद्रोणिस्थं संस्कृत्य
सरयूतटे ।
वशिष्ठाद्यैर्ज्जनैरुक्तोराज्यं
कुर्विति सोऽब्रवीत् ॥४५॥
व्रजामि राममानेतुं रामो राजा मतो
बली
श्रृङ्गवेरं प्रयागञ्च भरद्वाजेन
भोजितः ॥४६॥
नमस्कृत्य भरद्वाजं रामं
लक्ष्मणमागतः ।
पिता स्वर्गं गतो राम अयोध्यायां
नृपो भव ॥४७॥
अहं वनं प्रयास्यामि
त्वदादेशप्रतीक्षकः ।
रामः श्रुत्वा जलं दत्त्वा गृहीत्वा
पादुके व्रज ॥४८॥
राज्यायाहं न यास्यामि
सत्याच्चीरजटाधरः ।
रामोक्तो भरतश्चायान्नन्दिग्रामे
स्थितो बली
त्यक्त्वाऽयोध्यां पादुके ते पूज्य
राज्यमपालयत् ॥४९॥
तब उन्हें मरा हुआ जान रानी कौसल्या
'हाय! मैं मारी गयी' कहकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। फिर तो
समस्त नर-नारी फूट-फूटकर रोने लगे। तत्पश्चात् महर्षि वसिष्ठ ने राजा के शव को
तैलभरी नौका में रखवाकर भरत को उनके ननिहाल से तत्काल बुलवाया। भरत और शत्रुघ्न
अपने मामा के राजमहल से निकलकर सुमन्त्र आदि के साथ शीघ्र ही अयोध्यापुरी में आये।
यहाँ का समाचार जानकर भरत को बड़ा दुःख हुआ। कैकेयी को शोक करती देख उसकी कठोर
शब्दों में निन्दा करते हुए बोले- 'अरी! तूने मेरे माथे
कलङ्क का टीका लगा दिया- मेरे सिर पर अपयश का भारी बोझ लाद दिया। फिर उन्होंने
कौसल्या की प्रशंसा करके तैलपूर्ण नौका में रखे हुए पिता के शव का सरयूतट पर
अन्त्येष्टि-संस्कार किया। तदनन्तर वसिष्ठ आदि गुरुजनों ने कहा-'भरत ! अब राज्य ग्रहण करो।'
भरत बोले-
मैं तो श्रीरामचन्द्रजी को ही राजा मानता हूँ। अब उन्हें यहाँ लाने के लिये वन में
जाता हूँ।' ऐसा कहकर वे वहाँ से दल-बल सहित
चल दिये और शृङ्गवेरपुर होते हुए प्रयाग पहुँचे। वहाँ महर्षि भरद्वाज ने उन सबको
भोजन कराया। फिर भरद्वाज को नमस्कार करके वे प्रयाग से चले और चित्रकूट में
श्रीराम एवं लक्ष्मण के समीप आ पहुँचे। वहाँ भरत ने श्रीराम से कहा - ' रघुनाथजी ! हमारे पिता महाराज दशरथ स्वर्गवासी हो गये। अब आप अयोध्या में
चलकर राज्य ग्रहण करें। मैं आपकी आज्ञा का पालन करते हुए वन में जाऊँगा।' यह सुनकर श्रीराम ने पिता का तर्पण किया और भरत से कहा- 'तुम मेरी चरण पादुका लेकर अयोध्या लौट जाओ मैं राज्य करने के लिये नहीं
चलूँगा। पिता के सत्य की रक्षा के लिये चीर एवं जटा धारण करके वन में ही रहूंगा।'
श्रीराम के ऐसा कहने पर सदल-बल भरत लौट गये और अयोध्या छोड़कर
नन्दिग्राम में रहने लगे। वहाँ भगवान् की चरण- पादुकाओं की पूजा करते हुए वे
राज्य का भली- भाँति पालन करने लगे ॥ ४३-४९ ॥
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये
रामायणेऽयोध्याकाण्डवर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'रामायण- कथा के अन्तर्गत अयोध्याकाण्ड की कथा का वर्णन' नामक छठा अध्याय पूरा हुआ ॥ ६ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 7
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