वृषभध्वज स्तुति

वृषभध्वज स्तुति

भगवान् शिव के इस वृषभध्वज स्तुति का पाठ करने से सभी शोकों का नाश होता है।

वृषभध्वज स्तुति

वृषभध्वज स्तुति

Vrishabhadhvaj stuti

॥ ब्रह्मोवाच ॥

हिरण्यबाहो ब्रह्मा त्व व्विँष्णुस्त्व ञ्जगतः पतिः ॥

सृष्टिस्थितिविनाशानां हेतुस्त्वङ्केवलंहर ॥ ७१ ॥

ब्रह्माजी ने कहा- हे हर ! आप ही हिरण्यबाहु ब्रह्मा हैं और आप ही जगत् के पति विष्णु हैं । इस जगत् की सृष्टि, स्थिति और विनाशों के आप ही हेतु होते हैं ।

त्वमष्टमूर्त्तिभिः सर्व्वञ्जगद्व्याप्यचराचरम् ॥

उत्पादक स्थापकश्च नाशकश्चापि विश्वकृत् ॥ ७२ ॥

आप अपनी अष्ट मूर्तियों के द्वारा इस सम्पूर्ण चराचर जगत् में व्याप्त होकर इसके उत्पादक-स्थापक और नाशक भी हैं। विश्वकृत ! आप ही हैं।

त्वामाराध्य महादेव मुक्तियाता मुमुक्षवः ॥

रागद्वेषादिभिस्त्यक्ता संसारविमुखा बुधाः॥ ७३ ॥

हे महादेव! आपकी आराधना करके मुक्ति पाने की इच्छा वाले पुरुष मुक्ति को प्राप्त हो गये हैं। वे राग-द्वेष आदि बन्धन के कारणों से छूटे हुए हैं और बुद्ध पुरुष संसार से विमुख होते हैं ।

तृतीयम्यद्भवन्नेत्र ललाटस्थं महेश्वर ।

सततम्नाजमानञ्चचिन्त्यते यन्मु मुक्षुभिः॥ ७४ ॥

हे महेश्वर! आप सदा अजन्मा हैं और आपकी आपके माथे पर तीसरी आंख स्थित है। जो मोक्ष का चिंतन करते रहते हैं ।

विभिन्नवाय्वग्नि जलौघवर्जितं न दूरसस्थ रविचन्द्रसयुतम् ॥

त्रिमार्गमध्वस्थ मनुप्रकाशकत्त्वम्परं शुद्धमयम्महेश्वर ॥ ७५ ॥

हे महेश्वर ! विभिन्न वायु, अग्नि और जल के ओघ से रहित, सूर्य और चन्द्रमा से युक्त, इस रीति से दूर में भी स्थित नहीं है अर्थात् सन्निकट में ही वर्तमान हैं। तीन मार्गों के मध्य में संस्थित हैं और अनु प्रकाशक हैं, परमशुद्धमय तत्त्व हैं।

यदष्टशाखस्यतरोः प्रसूनञ्चिदम्बुवृद्धस्य समीपजस्य ॥

तपश्छदः संस्थगितस्य पीनं सूक्ष्मोपगन्ते वशगं सदैव ॥ ७६ ॥

जो ज्ञानरूपी जल के द्वारा बर्धित - समीप में ही समुत्पन्न तपरूपी जत्रों से संस्थागित, आठ शास्त्ररूपी तरु का पुष्प है उसका सूक्ष्म उपगमन करने वाला, पीत- पराग सदा ही आपके वश में गमन करने वाला है ।

अधस्समाधाय समीरणस्वनं निरुद्ध्य चोर्ध्वन्निशिहंसमध्यतः ॥

हृत्पद्ममध्ये सुमुखीकृतंरजः परन्तु तेजस्तव सर्वदेश्यताम् ॥ ७७ ॥

समीकरण (वायु) की ध्वनि को नीचे की ओर समाधान करके और रात्रि को ऊपर की ओर निरुद्ध करके हंस के मध्य से हृदय के पद्म के मध्य में रज सुमुखीकृत है परन्तु आपका तेज सर्वदा सर्वत्र है ।

प्राणायामैः पूरकै स्तम्भकैर्व्वारिक्तै श्चित्रैश्चोदनय्यत्पराख्यम् ॥

दृश्यादृश्य योगिभिस्ते प्रपञ्चाः शुद्धव्वृद्धन्तत्तवतस्तेस्तिलब्धम् ॥ ७८ ॥

पूरक अथवा कुम्भक प्राणायामों से रिक्त चित्रों से जो पर नामक प्रेरणा है, प्रपञ्च योगियों के द्वारा दृश्य और अदृश्य है । तात्विक रूप से शुद्ध और वृद्ध आपके द्वारा लब्ध हैं।

सूक्ष्मञ्जगद्व्यापि गुणौघपीनम्मृग्यम्बुधैः साधनसाध्यरूपम् ॥

चौरैरक्षैर्नाप्लुर्तन्नैवनीतव्विँत्तन्तवा स्त्यर्थ हीन महेश ॥ ७९ ॥

सूक्ष्म जगत् व्याप्त और गुणों के समूह से पीन मृग्यम्बुधि के साधन-साध्य रूप वाला है । हे महेश ! चोर और रक्षकों के द्वारा न तो उग्झित है और न नीत ही है अर्थात् लिया हुआ है ऐसा ही आपका अर्थ से हीन चित्त है ।

नकोपेन नशोकेन नमानेन नदम्भतः ॥

उपयोज्य तु तद्वित्तमन्यथैव विवर्द्धते ॥ ८० ॥

वह चित्त कोप से, शोक से, मान से और दम्भ से भी व्यय नहीं होता है । वह चित्त तो उपयोग करके अन्य प्रकार से ही बढ़ता रहा करता है ।

माययामोहितः शम्भो विस्मृतन्ते हृदिस्थितम् ॥

मायाम्भिन्नाम्परिज्ञाय धारयात्मानमात्मना ॥ ८१ ॥

आप माया से मोहित हैं इसलिए आप हृदय में स्थित को ही आपने विस्मृत कर दिया है। माया को भिन्न समझकर अपनी आत्मा के द्वारा ही आत्मस्वरूप को धारण करो ।

मायास्माभि स्तुतापूर्व्वञ्जगदर्थे महेश्वर ॥

तया ध्यानगत ञ्चित्तम्बहुयत्नैः प्रसाधितम् ॥ ८२ ॥

हे महेश्वर ! जगत् के हित के सम्पादन करने के लिए हमने पूर्व में ही माया का स्तवन किया था उसके द्वारा ध्यान में संलग्न चित्त बहुत से प्रयत्नों के द्वारा प्रसाधित है।

शोकः क्रोधश्चलोभश्चका मोमोहः परात्मता ॥

ईर्ष्यामानौधिचिकित्सा कृपासूयाजुगुप्सुता ॥ ८३ ॥

द्वादशैते बुद्धिनाशहेतवो मनसो मलाः ॥

नत्वादृशैर्निषेव्यन्ते शोकम्त्यजततोहर ॥ ८४ ॥

शोक, क्रोध, लोभ, काम, मोह, परात्मता, ईर्ष्या, मान, संशय, कृपा, असूया, जुगुप्सिता ये बारह, मन में मल होते हैं जो बुद्धि के नाश करने के हेतु हैं । आप जैसे महापुरुषों द्वारा इन बारह मानस मलों का सेवन नहीं किया जाया करता है । हे हर ! आप शोक का परित्याग कर दीजिए ।

॥ इतिश्री कालिकापुराणे वृषभध्वजस्तुति: अष्टादशोध्यायःसम्पूर्णः॥

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