अग्निपुराण अध्याय २
अग्निपुराणम् अध्यायः २
Agni puran chapter 2
अग्निपुराण दूसरा अध्याय
अग्निपुराण अध्याय २
मत्स्यावतारवर्णनम्
वसिष्ठ उवाच
मत्स्यादिरूपिणं विष्णुं ब्रूहि
सर्गादिकारणम् ।
पुराणं ब्रह्म चाग्नेयं यथा विष्णोः
पुरा श्रुतम् ।। १ ।।
वसिष्ठजी ने कहा-
अग्निदेव ! आप सृष्टि आदि के कारणभूत भगवान् विष्णु के मत्स्य आदि अवतारों का
वर्णन कीजिये। साथ ही ब्रह्मस्वरूप अग्निपुराण को भी सुनाइये,
जिसे पूर्वकाल में आपने श्रीविष्णु भगवान् के मुख से सुना था ॥ १ ॥
अग्निरुवाच
मत्स्यावतारं वक्ष्येऽहं वसिष्ठ
श्रृणु वै हरेः ।
अवतारक्रिया दुष्टनष्ट्यै सत्पालनाय
हि ।। २ ।।
आसीदतीतकल्पान्ते ब्राह्मो
नैमित्तिको लयः ।
समुद्रोपप्लुतास्तत्र लोका भूरादिका
मुने ।। ३ ।।
मनुर्वैवस्वतस्तेपे तपो वै
भुक्तिमुक्तये।
एकदा कृतमालायां कुर्वतो जलतर्पणम्
।। ४ ।।
तस्याञ्चल्युदके मत्स्यः स्वल्प
एकोऽभ्यपद्यत।
क्षेप्तुकामं जले प्राह न मां क्षिप
नरोत्तम ।। ५ ।।
ग्राहादिभ्यो भयं मेऽद्यतच्छ्रुत्वा
कलशेऽक्षिपत्।
स तु वृद्धः पुनर्मत्स्यः प्राह तं
देहि मे बृहत् ।। ६ ।।
स्थानमेतद्वचः श्रुत्वा
राजाऽथोदञ्चनेऽक्षिपत्।
तत्र वृद्धोऽब्रवीद् भूपं पृथु देहि
पदं मनो ।। ७ ।।
सरोवरे पुनः क्षिप्तो ववृधे
तत्प्रमाणवान् ।
ऊचे देहि बृहत्
स्थानप्राक्षिपच्चाम्बुधौ ततः।। ८ ।।
लक्षयोजनविस्तीर्णः क्षणमात्रेण
सोऽभवत्।
मत्स्यं तमद्भुतं दृष्ट्वा
विस्मितः प्राव्रवीन् मनुः ।। ९ ।।
को भवान्ननु वै विष्णुः नारायण
नमोऽस्तुते।
मायया मोहयसि मां किमर्थं त्वं
जनार्दन ।। १० ।।
अग्निदेव बोले-
वसिष्ठ ! सुनो, मैं श्रीहरि के मत्स्यावतार का
वर्णन करता हूँ। अवतार धारण का कार्य दुष्टों के विनाश और साधु-पुरुषों की रक्षा के
लिये होता है। बीते हुए कल्प के अन्त में 'ब्राह्म' नामक नैमित्तिक प्रलय हुआ था। मुने! उस समय 'भू'
आदि लोक समुद्र के जल में डूब गये थे। प्रलय के पहले की बात है।
वैवस्वत मनु भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिये तपस्या कर रहे थे। एक दिन जब वे
कृतमाला नदी में जल से पितरों का तर्पण कर रहे थे, उनकी
अञ्जलि के जल में एक बहुत छोटा-सा मत्स्य आ गया। राजा ने उसे जल में फेंक देने का
विचार किया। तब मत्स्य ने कहा-'महाराज ! मुझे जल में न
फेंको। यहाँ ग्राह आदि जल-जन्तुओं से मुझे भय है।' यह सुनकर
मनु ने उसे अपने कलश के जल में डाल दिया। मत्स्य उसमें पड़ते ही बड़ा हो गया और
पुनः मनु से बोला- 'राजन्! मुझे इससे बड़ा स्थान दो।'
उसकी यह बात सुनकर राजा ने उसे एक बड़े जलपात्र (नाद या कुंडा आदि)
में डाल दिया। उसमें भी बड़ा होकर मत्स्य राजा से बोला- 'मनो!
मुझे कोई विस्तृत स्थान दो।' तब उन्होंने पुनः उसे सरोवर के जल
में डाला; किंतु वहाँ भी बढ़कर वह सरोवर के बराबर हो गया और
बोला- 'मुझे इससे बड़ा स्थान दो।' तब
मनु ने उसे फिर समुद्र में ही ले जाकर डाल दिया। वहाँ वह मत्स्य क्षणभर में एक लाख
योजन बड़ा हो गया। उस अद्भुत मत्स्य को देखकर मनु को बड़ा विस्मय हुआ। वे बोले- 'आप कौन हैं? निश्चय ही आप भगवान् श्रीविष्णु जान
पड़ते हैं। नारायण! आपको नमस्कार है। जनार्दन! आप किसलिये अपनी माया से मुझे मोहित
कर रहे हैं ?' ॥ २- १० ॥
मनुनोक्तोऽब्रवीन्मत्स्यो मनुं वै
पालने रतम्।
अवतीर्णो भवायास्य जगतो
दुष्टनष्टये।। ११ ।।
सप्तमे दिवसे त्वव्धिः प्लावयिप्यति
वै जगत् ।
उपस्थितायां नावि त्वं बीजादीनि
विधाय च ।। १२ ।।
सप्तर्षिभिः परिवृतो निशां
ब्राह्मीं चरिष्यसि।
उपस्थितस्य मे श्रृङ्गे निबध्नीहि
महाहिना ।। १३ ।।
इत्युक्त्वान्तर्दृधे मत्स्यो मनुः
कालप्रतीक्षकः ।
स्थितः समुद्र उद्वेले नावमारुरुहे
तदा ।। १४ ।।
एकश्रृङ्गधरो मत्स्यो हैमो
नियुतयोजनः।
नालम्बबन्ध तच्छृङ्गे मत्स्याख्यं च
पुराणकम् ।। १५ ।।
शुश्राव मत्स्यात्पापघ्नं संस्तुवन्
स्तुतिभिश्च तम् ।
ब्रह्मवेदप्रहर्त्तारं हयग्रीवञ्च
दानवम् ।। १६ ।।
अवधीद् वेदमन्त्नाद्यान् पालयामास केशवः।
प्राप्ते कल्पेऽथ बाराहे
कूर्म्मरूपोऽभवद्धरिः ।। १७ ।।
मनु के ऐसा कहने पर सबके पालन में
संलग्न रहने वाले मत्स्यरूपधारी भगवान् उनसे बोले- 'राजन्! मैं दुष्टों का नाश और जगत्की रक्षा करने के
लिये अवतीर्ण हुआ हूँ। आज से सातवें दिन समुद्र सम्पूर्ण जगत्को डुबा देगा। उस समय
तुम्हारे पास एक नौका उपस्थित होगी। तुम उस पर सब प्रकार के बीज आदि रखकर बैठ जाना
। सप्तर्षि भी तुम्हारे साथ रहेंगे। जब तक ब्रह्मा की रात रहेगी,
तब तक तुम उसी नाव पर विचरते रहोगे। नाव आने के बाद मैं भी इसी रूप में
उपस्थित होऊँगा । उस समय तुम मेरे सींग में महासर्पमयी रस्सी से उस नाव को बाँध
देना।' ऐसा कहकर भगवान् मत्स्य अन्तर्धान हो गये और वैवस्वत
मनु उनके बताये हुए समय की प्रतीक्षा करते हुए वहीं रहने लगे। जब नियत समय पर
समुद्र अपनी सीमा लाँघकर बढ़ने लगा, तब वे पूर्वोक्त नौका पर
बैठ गये। उसी समय एक सींग धारण करनेवाले सुवर्णमय मत्स्यभगवान् का प्रादुर्भाव
हुआ। उनका विशाल शरीर दस लाख योजन लंबा था। उनके सींग में नाव बाँधकर राजा ने उनसे
'मत्स्य 'नामक पुराण का श्रवण किया,
जो सब पापों का नाश करनेवाला है। मनु भगवान् मत्स्य की नाना प्रकार के
स्तोत्रों द्वारा स्तुति भी करते थे। प्रलय के अन्त में ब्रह्माजी से वेद को हर
लेनेवाले 'हयग्रीव' नामक दानव का वध
करके भगवान् ने वेद-मन्त्र आदि की रक्षा की। तत्पश्चात् वाराहकल्प आने पर श्रीहरि ने
कच्छपरूप धारण किया ॥ ११-१७॥
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये
मत्स्यावतारो नाम द्वितीयोऽध्यायः ।।
इस प्रकार अग्निदेव द्वारा कहे गये
विद्यासार-स्वरूप आदि आग्रेय महापुराण में 'मत्स्यावतार
वर्णन' नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ २ ॥
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