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कालिका पुराण अध्याय १६
कालिका पुराण अध्याय १६ में पिता द्वारा किये गये शिव के अपमान से क्षुब्ध हो सती का देहत्याग, सतीवियोग में विजया का करुणक्रन्दन वर्णित है।
कालिकापुराणम् षोडशोऽध्यायः सतीदेहत्यागवर्णनम्
कालिका पुराण
अध्याय १६
Kalika puran chapter 16
कालिकापुराण पन्द्रहवाँ अध्याय – सती देह त्याग वर्णन
अथ कालिका
पुराण अध्याय १६
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
विचित्रं
कनकैरूप्यैः शिखरं रत्नकर्बुरम् ।
बालार्कसदृशं
तुङ्गमाससाद सतीसखः ।।१।।
मार्कण्डेय
बोले- सोने चाँदी से बने अद्भुत रत्नों से चित्रित, उदयकालीन सूर्य की आभावाले, विचित्र किन्तु ऊँचे शिखर पर सती के साथ भगवान शिव पहुँच
गये ॥ १ ॥
स्फटिकाश्मालये
तस्मिन् फ़शाद्वलद्रुमराजिते ।
विचित्रपुष्पवल्लीभिः
सरसीभिश्च संयुते ।
प्रफुल्लतरुशाखाग्रगुञ्ज
भ्रमरभूषिते ।।२।।
वह स्फटिक
पत्थर का बना, हरी घास तथा हरे-भरे वृक्षों से सुशोभित, आकर्षक पुष्प लताओं तथा गुञ्जार करते हुए भौरों के गुञ्जार
से जिनके अगले हिस्से(पुष्प) सुशोभित हो रहे थे, ऐसे वृक्षों और सरोवरों से युक्त था ॥ २ ॥
पंकेरुहैः
प्रफुल्लैश्च नीलोत्पलचयैस्तथा ।
शोभिते
चक्रवाकौघैः कादम्बैर्हसमद्गुभिः ।।३।।
प्रमत्तसारसैः
क्रौञ्चैनीलकण्ठैश्च शब्दिते ।
पुंस्कोकिलकलस्वनैर्मधुरैर्मृगसेविते
।।४।।
वहाँ के सरोवर
खिले हुये नीलकमल एवं कमलों के समूह से सुशोभित तथा चक्रवाकों,
कल हंस और हंसों की वाणी तथा विशेष रूप से आनन्द विभोर सारस,
क्रौञ्च और नीलकण्ठों के शब्दों से शब्दायमान हो रहे थे। वह
स्थान नर कोयलों के कलरव की मधुर ध्वनि एवं अनेक पशुओं से सेवित था ।। ३-४ ॥
तुरङ्गवदनैः सिद्धैरप्सरोभिः
सगुह्यकैः ।
विद्याधरीभिर्देवीभिः
किन्नरीभिर्विहारिते ।
पुरन्ध्रीभिः
पार्वतीभिः कन्याभिश्च समन्विते ॥५॥
वह घोड़े के
समान मुख वाले (गन्धर्वों), सिद्धजनों, गुह्यकों, अप्सराओं, विद्याधरियों, देवियों (देव पत्नियों), पहाड़ी विवाहिता स्त्रियों और कन्याओं से समन्वित था ॥ ५ ॥
विपञ्चीतन्त्रिकामन्द्र
मृदङ्गपटहस्वनैः ।
नृत्यद्भिरप्सरोभिश्च
कौतुकोत्थैः सुशोभिते ।।६।।
वह वीणा के
तारों की मन्द्र तथा मृदंग और नगाड़ों की ध्वनियों एवं कौतुक पूर्ण नाचती हुई
अप्सराओं से सुशोभित था ॥ ६॥
दैवीलताभिर्दिव्याभिर्गन्धिनीभिः
समावृते ।
ऊर्द्धप्रफुल्लकुसुमैर्निकुञ्जैरुपशोभिते
।।७।।
दिव्यगन्धों
से सुगन्धित दैवी लताओं से घिरा हुआ था और ऐसे कुञ्जों से शोभायमान था,
जिनके ऊपरी भाग पर खिले हुये फूल विराजमान थे॥७॥
शैलराजपुराभ्यासे
शिखरे वृषभध्वजः ।
सह सत्या चिरं
रेमे एवम्भूते सुशोभने ॥८॥
इस प्रकार के
(उपर्युक्त) वर्णित हिमालय के सुन्दर शिखर पर वृषभध्वज शिव ने बहुत समय तक सती के
साथ रमण किया ॥८॥
तस्मिन्
स्वर्गसमे स्थाने दिव्यमानेन शङ्करः ।
दश-वर्षसहस्राणि रेमे सत्या समं मुदा ।।९।।
उस स्वर्ग के
समान सुन्दर स्थान पर शङ्कर ने प्रसन्नतापूर्वक सती देवी के साथ देवताओं के मान से
दश हजार वर्ष (३६ लाख मानव वर्षों) तक रमण किया ॥९॥
स कदाचित्तु
तत्स्थानात् कैलासं याति शङ्करः ।
कदाचिन्मेरुशिखरं
देवदेवीवृतं पुरा ।।१०।।
दिक्पालानां
तथोद्यानं वनानि वसुधातलम् ।
गत्वा गत्वा पुनस्तत्र
रेमे तेभ्यः सतीसखः ।। ११ ।।
वह सती-सखा
शंकर उस स्थान से कभी कैलाश पर जाते तो कभी देवी- देवताओं से पहले से ही घिरे हुए
मेरु पर्वत के शिखर पर चले जाते थे । दिक्पालों के नन्दनादि उद्यानों तथा पृथ्वी
के अनेक वनों में जा-जाकर वह वहाँ स्थित देवी- देवताओं के बीच सती के साथ बार-बार
रमण करते रहे ।।१०-११ ॥
न जज्ञौ स
दिवारात्रं न ब्रह्म न तपः शमम् ।
सत्याहितमनाः
शम्भुः प्रीतिमेव चकार ह ।।१२।।
इस अवधि में
शिव ने रात-दिन, न ब्रह्मतत्त्व को जाना, न तपस्या को जाना और न शम वृत्ति को ही जाना । वे सती में
ही मन लगाये हुये प्रेम व्यापार करते रहे ॥ १२ ॥
एकं
महादेवमुखं सती पश्यति सर्वशः ।
महादेवोऽपि सर्वत्र
सदाद्राक्षीत् सतीमुखम् ।।१३।।
उस समय सब ओर
से सती केवल शंकर का मुख देखती थीं, तो महादेव भी सब जगह और सदा सती का ही मुख देखते रहते थे ॥१३॥
एवमन्योन्यसंसर्गादनुरागमहीरुहम्
।
वर्धयामासतुः शम्भुसत्यौ
भावाम्बुसेचनैः ।।१४।।
इस प्रकार से
भावनाओं के जल की सिंचाई से शिव और सती का प्रेमरूपी वृक्ष एक-दूसरे के परस्पर
संसर्ग से बढ़ता ही गया ॥१४॥
एतस्मिन्नन्तरे
दक्षो जगतां हितकारकः ।
महायज्ञं
समारेभे यष्टुं वै सर्वजीवनम् ।।१५।।
इसी बीच दक्ष
प्रजापति ने संसार के हित के लिए और सब के जीवन-धन परमात्मा की आराधना के लिए एक
महान यज्ञ आरम्भ किया ॥१५॥
अष्टाशीतिसहस्राणि
यत्र जुह्वति ऋत्विजः ।
उद्गातारश्चतुःषष्टिसहस्राणि
सुरर्षयः ।
अध्वर्यवोऽथ होतारस्तावन्तो
नारदादयः ।। १६ ।।
जहाँ (उस यज्ञ में) अट्ठासी हजार ऋषिगण ऋत्विज के रूप में हवन कर रहे थे तथा चौसठ हजार उद्गाता और इतनी ही संख्या में नारदादि देवर्षि अध्वर्यु एवं होता बने थे ॥१६॥
अधिष्ठाता
स्वयं विष्णुः सह सर्वमरुद्गणैः ।
स्वयं
तत्राभवद् ब्रह्मा त्रयीविधिनिदर्शकः ।।१७।।
स्वयं विष्णु
सभी मरुद्गणों के साथ उस यज्ञ के अधिष्ठाता और ब्रह्मा स्वयं वहाँ वेदत्रयी के
अनुसार विधि निर्देश कर्ता ब्रह्मा नामक ऋत्विक हुये थे ॥१७॥
तथैव
सर्वदिक्पाला द्वारपालाश्च रक्षकाः ।
उपतस्थे स्वयं
यज्ञः स्वयं वेदी धराभवत् ।।१८।।
उसी प्रकार
स्वेच्छा से ही सभी दिक्पालों ने उस यज्ञ की रक्षा हेतु द्वारपालों की भूमिका
निभाई थी। स्वयं यज्ञ वहाँ साक्षात् उपस्थित हुये तथा पृथ्वी ही यज्ञ वेदी बनी थी ॥१८॥
तनूनपादपि निजं
चक्रे रूपं सहस्रशः ।
हविषां ग्रहणायाशु
तस्मिन् यज्ञमहोत्सवे ।। १९ ।।
उस यज्ञ
महोत्सव में अग्निदेव शीघ्र ही हविष्य ग्रहण की लालसा से अपने हजारों रूप धारण
किये हुये थे ॥१९॥
आमन्त्र्याशु
मरीच्याद्याः पवित्रैकैकधारिणः ।
सर्वत्र
सामिधेन्या ते ज्वालयामासुरर्च्चिषम् ।।२०।।
सप्तर्षयः
सामगाथा कुर्वन्ति स्म पृथक् पृथक् ।
गान्दिशो विदिशः
खञ्च पूरयन्तः श्रुतिस्वरैः ।। २१ ।।
उस समय
पवित्रीधारी, समिधायुक्त मरीचि आदि सप्तर्षियों ने अलग-अलग सामगान करते हुए तथा पृथ्वी,
आकाश, दिशाओं और विदिशाओं को वेद मन्त्रों से पूरित करते हुये सब
जगह अग्नि को प्रज्वलित किया था ।। २०-२१ ।।
न वृतास्तत्र
यागेषु दक्षेण सुमहात्मना ।
न केचिदृषयो
देवा न मनुष्या न पक्षिणः ।
नोद्भिदो न
तृणं वापि पशवो न मृगास्तथा ।।२२।।
गन्धर्वविद्याधरसिद्धसंघा-नादित्यसाध्यर्षिगणान्
सयक्षान् ।
सस्थावरान्नागवरान्
समस्तान् वव्रे स दक्षः सुमहाध्वरेषु ।। २३ ।।
उस यज्ञ में
कोई ऐसा ऋषि, देवता, मनुष्य, पक्षी, वृक्ष, तृण,
पशु, मृग, गन्धर्व, विद्याधर, सिद्ध, साध्य, आदित्य, यक्ष नहीं था जिसको महात्मा दक्ष ने वरण न किया हो ।
पर्वतादि स्थावरों के सहित दक्ष ने उस महान यज्ञ में सभी श्रेष्ठ नागों का भी वरण
किया था ।।२२-२३ ।।
कल्प -
मन्वन्तरयुग वर्ष मास-दिवा- निशाः ।
कला -
काष्ठानिमेषाद्या वृताः सर्वे समागताः ।। २४ ।।
कल्प,
मन्वन्तर, युग, वर्ष, मास, दिन, रात्रि, कला, काष्ठा आदि कालमान वरण किये जाने के कारण सशरीर उस यज्ञ में
उपस्थित हुये थे ॥२४॥
महर्षिराजर्षिसुरर्षिसङ्घा
नृपाः सपुत्राः सचिवैः ससैन्यैः ।
वसुप्रमुख्या गणदेवता
याः सर्वा वृतास्तेन गता मखं तम् ।। २५ ।।
उस यज्ञ में
महर्षियों, राजर्षियों तथा देवर्षियों के समूह, अपने पुत्र, सचिव, सेना के सहित राजागण और वसु आदि गण देवता,
सभी आमन्त्रित हो पधारे थे ॥२५॥
कीटाः पतङ्गा जलजाश्च
सर्वे सवानराः श्वापदविघ्नघोराः ।
मेघाः सशैलाः सनदीसमुद्राः
सरांसि वाप्यश्चागता वृतास्ते ।। २६ ।।
सभी
कीट-पतङ्गे, जलचर,
वानरों के सहित घोर बाधा पहुँचाने वाले जङ्गली जानवर,
पर्वतों के सहित बादल, नदियों के सहित समुद्र, सरोवर एवं वापियाँ आमन्त्रित हो सशरीर आई थीं ॥२६॥
सर्वे स्वभागं
हविषां जिघृक्षवः क्रतुं प्रजग्मुर्दृढयज्विनस्ते ।
पातालवासा असुराः
समागता नागस्त्रियो देवसभा: समस्ताः ।। २७ ।।
वे सभी
अपने-अपने अंश का हविष्य ग्रहण करने की इच्छा से दृढ़तापूर्वक यज्ञ में गये थे ।
उसमें पातालवासी असुर, नाग - स्त्रियाँ तथा समस्त देव सभाओं के सदस्य भी पधारे थे
॥ २७॥
जगद्वर्त्यस्ति
यत् किञ्चिच्चेतनाचेतनं पुनः ।
सर्व वृत्वा
समारेभे यज्ञं सर्वस्वदक्षिणम् ।। २८ ।।
पुनः (और क्या
कहा जाय?)
संसार में जो कुछ भी चेतन या अचेतन था,
सभी को आमन्त्रित कर, सर्वस्व दक्षिणा रूप में दिये जाने वाले उस महायज्ञ का दक्ष
प्रजापति ने आरम्भ किया ॥२८॥
तस्मिन् यज्ञे
वृतः शम्भुर्न दक्षेण महात्मना ।
कपालीति
विनिश्चित्य तस्य यज्ञार्हता न हि ।। २९ ।।
शिव कपाल धारण
करने वाले हैं अतः यज्ञ में आमन्त्रित करने योग्य नहीं हैं। इसी विचार से महात्मा
दक्ष ने उस यज्ञ में शिव को आमन्त्रित नहीं किया ॥२९॥
कपालिभार्येति
सती दयितापि सुता निजा ।
नाहूता
यज्ञविषये दक्षेण दोषदर्शिना ॥३०॥
यज्ञ के
सम्बन्ध में दोष दृष्टि रखने वाले दक्ष ने कपाली (शिव) की प्रिय पत्नी होने के
कारण अपनी पुत्री सती को भी उस यज्ञ में नहीं बुलाया ॥३०॥*
* कापालिकों के प्रति द्वेष द्रष्टव्य है ।
श्रुत्वा सती
तथा यज्ञं तातेनारब्धमुत्तमम् ।
कपालिभार्येति
वृता नाहमित्यपि तत्त्वतः ।। ३१ ।।
उच्चैकोप दक्षाय
रक्तनेत्रानना तदा ।
शापेन दक्षं
दग्धुं च मनश्चक्रे तदा सती ।। ३२ ।।
जब सती ने
पिता द्वारा आरम्भ किये गये उस उत्तम यज्ञ का वृतान्त सुना तथा यह जाना कि कपाली
(शिव) की भार्या होने के कारण मुझे भी नहीं बुलाया है दक्ष के प्रति सती बहुत
क्रुद्ध हुईं। उस समय उनके मुख और नेत्र लाल हो गये और उन्होंने दक्ष को शाप से
जलाने का निश्चय कर लिया ॥ ३१-३२॥
कोपाविष्टापि
सा पूर्वसमयं स्मृतवत्यमुम् ।
मनसेति विनिश्चित्य
न शशाप तदा सती ॥३३॥
क्रोध से भरी
हुई उस देवी सती ने पहले के वचन का स्मरण करके, मन से शाप देने का निश्चय करके भी उस समय शाप नहीं दिया ॥
३३ ॥
अलं शापेन मे
पूर्वं सुदृढः समयः कृतः ।
अस्तीति
मय्यवज्ञायां प्राणान् मोक्ष्ये ध्रुवं पुनः ॥३४॥
जब मैंने पहले
ही दृढ़ अनुबन्ध कर लिया था कि "जब मेरी अवज्ञा होगी तो मैं अपने प्राणों को
निश्चय ही छोड़ दूँगी।" तब अब शाप देना उचित नहीं ॥३४॥
यदा स्तुताहं
दक्षेण सुचिरं तनयार्थिना ।
तदैव समयो
मेऽयं शापेनालङ्करोमि तम् ।। ३५ ।।
जब पुत्री के
निमित्त दक्ष प्रजापति द्वारा बहुत समय तक मेरी स्तुति की गई। थी तभी मैंने यह
अनुबन्ध किया था। मैं शाप द्वारा उसे व्यर्थ नहीं करूँगी ॥३५॥
इति
सञ्चिन्त्य सा देवी नित्यरूपमथात्मनः ।
सस्मातुलमत्युग्रं
निष्कलं तु जगन्मयम् ।। ३६ ।।
ऐसा निश्चय कर
उस देवी ने अपने अत्यन्त उग्र, अतुलनीय, जगन्मय, अखण्ड, नित्यस्वरूप का स्मरण किया ॥३६॥
पूर्वरूपं
स्मरन्ती सा योगनिद्राह्वयं हरेः ।
एवं
संचिन्तयामास मनसा दक्षजा तदा ।। ३७।।
हरि के द्वारा
योगनिद्रा नाम से बोधित अपने पूर्व रूप का स्मरण करती हुईं दक्ष- तनया सती देवी ने
मन में यह विचार किया- ॥३७॥
ब्रह्मणोदितदक्षेण
यदर्थमहमीडिता ।
तत् किञ्चिदपि
नो ज्ञातं शङ्करोऽपि न पुत्रवान् ।। ३८ ।।
ब्रह्मा
द्वारा कहे जाने पर दक्ष प्रजापति द्वारा मैं जिस हेतु पूजी गई थी वह कुछ भी नहीं
ज्ञात हुआ, तथा शंकर भी पुत्रवान नहीं हुये ॥ ३८ ॥
इदानीमेकमेवाभूत्
कार्यं देवगणस्य च ।
यच्छंकरः सानुरागो
मत्कृतेऽभूच्च योषिति ।। ३९ ।।
इस समय तक
देवताओं का मात्र एक कार्य यही हुआ है कि भगवान् शङ्कर मेरे प्रयत्नों से स्त्री
के प्रति अनुराग युक्त हो गये हैं ॥३९॥
मत्तो नान्या
पुनः शम्भो रागं वर्धयितुं पुनः ।
शक्ता न कापि
भविता स नान्यां संग्रहीष्यति ॥४०॥
मेरे अतिरिक्त
दूसरी स्त्री पुनः शिव का अनुराग बढ़ाने में समर्थ नहीं होगी और न वे ही किसी
दूसरी स्त्री के संग्रहकर्ता होंगे ॥४०॥
तथाप्यहं तनुं
त्यक्षे समयात् पूर्वयोजितात् ।
हिताय जगतां
कुर्यां प्रादुर्भावं पुनर्गरौ ।।४१।।
तथापि मैं
अपने पूर्व योजित समय (अनुबन्ध) के अनुसार शरीर का त्याग करूंगी एवं संसार के
कल्याण के लिए पर्वतराज हिमालय के यहाँ पुन: उत्पन्न होऊँगी ॥४१॥
पुरा हिमवतः
प्रस्थे रम्ये देवगृहोपमे ।
शम्भुः सार्धं
मया रन्तुं सुचिरं प्रीतिसंयुतः ।। ४२ ।।
तत्र या मेनका
देवी चार्वङ्गी चरितव्रता ।
सुशीला सा
पुरस्त्रीणामुत्तमा पार्वतीगणे ॥४३॥
सा मां
मातृवदाचष्ट सर्वकर्मसु नर्मकम् ।
तस्यां
मेऽत्यनुरागोऽभूत् सा मे माता भविष्यति ।। ४४ ।।
पहले जब
देवगृह (सुमेरु) के समान हिमालय के सुन्दर शिखर पर मेरे साथ प्रेमपूर्वक लम्बे समय
तक शिव ने रमण किया था। उस समय मेनका नाम की सुन्दर - अंग,
चरित्र तथा नियमोंवाली, सुशील स्वभाव वाली, नागर और पर्वतीय स्त्रियों में उत्तम देवी ने सभी रहस्यमय
कार्यों में मेरे साथ मातृवत् व्यवहार किया था । उनमें मेरा बहुत ही अनुराग हो गया
है। वे ही अब मेरी माता होंगी ।।४२-४४ ।।
कन्याभिः
पार्वतीभिश्च बाल्यक्रीडामहं चिरम् ।
कृत्वा कृत्वा
मेनकायाः करिष्ये मोदमुत्तमम् ॥४५।।
मैं भी
पर्वतीय कन्याओं के साथ बहुत समय तक बार-बार बालक्रीड़ा करके मेनका को भलीभाँति
प्रसन्न करूँगी ॥४५॥
पुनश्चाहं
भविष्यामि शम्भोर्जयातिवल्लभा ।
करिष्ये
देवकार्याणि तदुपायादसंशयम् ।।४६।।
फिर मैं शम्भु
की अति प्रिय पत्नी होऊँगी तथा उस उपाय से देवताओं का कार्य सम्पादन करूँगी। इसमें
कोई संशय नहीं है ॥ ४६ ॥
इति
संचिन्तयन्ती सा पुनः कोपसमावृता ।
जज्वाल दक्षतनया
दक्षदारुणकर्मणा ।।४७।।
क्रोधरक्तेक्षणा
तत्र तनुयष्टिस्तदा सती ।
स्फोटञ्चकार
द्वाराणि सर्वाण्यावृत्य योगतः ।।४८ ।।
ऐसा विचार
करते हुये वे (सती देवी) पुन: क्रोध से भर गयीं । दक्ष के दारुण कर्म के कारण
क्रोध से दक्ष पुत्री सती जल उठीं। उस समय क्रोध से उनकी आँखें लाल हो गईं ।
उन्होंने योग द्वारा अपने शरीर के सभी नव द्वारों को बन्द कर विस्फोट किया ।।४७-४८
।।
तेन स्फोटेन
महता तस्यास्तु प्राणवायवः ।
निर्भिद्य दशमद्वारमात्मनस्ते
बहिर्ययुः ।।४९।।
उस महान्
विस्फोट के कारण उनकी प्राण वायु शरीर के दसवें द्वार (ब्रह्मरन्ध्र) को भेद कर
अपने आप बाहर निकल गयी* ॥ ४९ ॥
* योग की
एक विद्या, जिसमें योगी समस्त द्वारों को बन्द कर दसवें
द्वार से प्राण (धनंजय वायु) को स्वयं निकालता है।
त्यक्तप्राणान्तु
तां दृष्ट्वा देवाः सर्वेऽन्तरिक्षगाः ।
हाहाकारं तदा
चक्रुः शोकव्याकुलितेक्षणाः ।।५० ।।
तब उस प्राण
छोड़ी हुई सती को देखकर अन्तरिक्ष में स्थित सभी देवता शोक से व्याकुल नेत्रों से
युक्त हो हाहाकार करने लगे ॥५०॥
ततस्तु सत्या
भगिनीसुता तां द्रष्टुमागता ।
चुक्रोश
शोकाद्विजया मृतां दृष्ट्वा सतीं मुहुः ।। ५१ ।।
तब सती के बहन
की पुत्री (विजया) उसे देखने वहाँ आई । सती को मरा हुआ देखकर विजया ने बार-बार शोक
व्यक्त किया- ॥ ५१ ॥
हा सती क्व
गतासीति हा सती तव किन्विदम् ।
हा
मातृष्वसरित्युच्चैस्तदा शब्दो महानभूत् ।। ५२ ।।
उसके द्वारा
हा सती ! तू कहाँ चली गई ? हा मातृस्वसा (मौसी) ये तुम्हारा क्या हो गया?
ऐसे महान शब्द उच्च स्वर से होने लगे ॥ ५२ ॥
विप्रियश्रवणादेव
प्राणांस्त्यक्तास्त्वया सति ।
अहं कथन्तु
जीवामि दृष्ट्वेदृग्विप्रियं दृढम् ।।५३।।
अप्रिय बात को
सुनते ही तुम्हारे द्वारा प्राण छोड़ दिये गये हैं। फिर मैं नेत्रों को अत्यधिक
अप्रिय लगने वाले इस दृश्य को देखकर कैसे जीवित रहूँगी?
।। ५३ ।।
पाणिना वदनं
सत्या मार्जयन्ती मुहुर्मुहुः ।
करुणं
विलपन्ती स्म मुखं जिघ्रति सा तदा ।। ५४ ।।
तब वह
बारम्बार हाथ से सती के मुख को पोंछती तथा करुणविलाप करती हुई उनके मुख को सूँघने
लगी॥५४॥
सिञ्चन्ती
नेत्रजैस्तोयैः सत्याः सा हृदयं मुखम् ।
केशानुल्लास्य
पाणिभ्यां वीक्षन्ती वदनं मुहुः ।। ५५ ।।
वह विजया
नेत्रों से उत्पन्न जल (आँसुओं) से सती के हृदय एवं मुख का सिञ्चन करती,
हाथों से केशों को उठाकर बार-बार उनके मुख को देखती थी ॥५५॥
ऊद्धर्वाधः
कम्पितशिरः शोकव्याकुलितेन्द्रिया ।
हृदयं
पञ्चशाखाभ्यां विनिहन्ती तथा शिरः ।
इदं च वचनं
साश्रुकण्ठा सा विजयाव्रवीत् ।। ५६ ।।
शोक से व्याकुलित
इन्द्रियों से तथा शिर को ऊपर नीचे कपाँते (उठा-उठाकर पटकते) हुए और हृदय एवं
मस्तक को हाथों से पीटते हुए उस विजया ने अश्रु से युक्त कण्ठ से ये वचन कहे -
॥५६॥
कालिका पुराण अध्याय १६- विजया विलाप
।। विजयोवाच
।।
श्रुत्वा ते मरणं
माता वीरिणी शोककर्षिता ।
धारयन्ती कथं
प्राणान् सद्यस्त्यक्ष्यति जीवितम् ।।५७।।
विजया बोली -
तुम्हारा मरण सुनकर शोकाभिभूत माता वीरिणी कैसे अपने प्राणों को धारण करेंगी?
वे तो शीघ्र अपना प्राण छोड़ देंगी ॥५७॥
स तथा
निरनुक्रोशः क्रूरकर्मा पिता तव ।
प्रमृतां भवतीं
श्रुत्वा कथं धास्यति जीवितम् ।। ५८ ।।
क्रूरकर्मा
तुम्हारे पिता, आक्रोशरहित होने पर तुम्हें मरा हुआ सुनकर, कैसे अपना जीवन धारण करेंगे? ॥५८॥
विचिन्त्य
नूनं कर्माणि स्वीयानि भवतीं प्रति ।
कृतानि स
नृशंसानि दक्षः शोकाकुलस्तदा ।। ५९ ।।
यज्वा स च
ज्ञानहीनः कथं यज्ञे प्रवर्तते ।
निःश्रद्धस्त्यक्त
बुद्धिश्च कथं वा स भवेत् क्रतौ ।।६०।।
तब दक्ष आपके
प्रति किये गये अपने क्रूर कर्मों को सोचकर शोकाकुल हो जाएँगे। वे ज्ञान (चेतना)
हीन हो यज्ञ करते हुए कैसे यज्ञ में प्रवृत्त होंगे ?
श्रद्धा के बिना, बुद्धि के अभाव में वह यज्ञ कैसे सम्पन्न होगा ?
।।५९-६० ।।
हा मातर्देहि वचनं
रुदन्त्या बालवन्मम ।
भवत्या निर्दया
शोकाद्ध्रिये शल्यसमानसून् ।।६१।।
हा माता !
बच्चे की भाँति रोती हुई मुझे वचन (प्रत्युत्तर) दीजिये,
क्योंकि आप दयाहीन अवस्था को प्राप्त हैं और मैं शोकवश अपने
प्राणों को काँटों की भाँति धारण कर रही हूँ ॥ ६१ ॥
त्वं किं
स्मरसि मे शम्भोर्विहितस्य कदाचन ।
तेनामर्षवशं प्राप्ता
मातर्मा किन्न भाषसे ।। ६२॥
या हे माता !
आप शिव के कभी कहे वचनों का स्मरण कर उन्हीं के आवेश में इस अवस्था को प्राप्त हुई
हैं?
आप मुझसे क्यों नहीं बताती ? ॥ ६२ ॥
तदेव वचनं
चक्षुर्मुखं सा नासिका तव ।
एतेषां क्व
गताः सर्वे विभ्रमा हसितं क्व च ।। ६३ ।।
वही आपकी वाणी,
नेत्र और मुख तथा नासिका थीं। ये सब कहाँ चले गये? और वह चंचल हंसी कहाँ चली गई?
॥६३॥
ननु ते विभ्रमैर्हीनं
नेत्रयुग्मं सुनासिकम् ।
स्मितहीनं च
वदनं दृष्ट्वा सोढा कथं हरः ।। ६४ ।।
निश्चय ही
आपके इन चंचलतारहित नेत्रद्वय तथा सुन्दर नासिका और मुसुकानरहित मुख देख कर शिव
कैसे सहेंगे ? ॥६४॥
का
सुधासम्मितं वाक्यं हराश्रमसमागतान् ।
सुनृर्त
त्वामृते मातर्वदिष्यति मुहुर्मुहुः ।।६५।।
हे माता !
आपके बिना अब कौन शिव के आश्रम (आवास) पर आने वालों से बार बार अमृतयुक्त सुन्दर
सत्य वचन बोलेगा ? ॥६५॥
श्रद्धावती
बान्धवेषु पत्युर्भाववशानुगा ।
सर्वलक्षणसम्पूर्णा
त्वत्समा का भविष्यति ।।६६।।
पति के
बन्धुजनों के प्रति श्रद्धायुक्त, पति की भावपूर्ण अनुगमन करने वाली,
सभी लक्षणों से युक्त आपके समान कौन होंगी?
॥६६॥
त्वदृते देवि देवेशः
शोकोपहतचेतनः ।
दुःखितात्मा निरुत्साहो
निश्चेष्टश्च भविष्यति ।। ६७ ।।
हे देवि !
आपके अभाव में देवेश शिव शोक से चेतना रहित, दुःखित आत्मा वाले, उत्साह और चेष्टा से हीन हो जायेंगे ॥६७॥
एवं लपन्ती
भृशदुःखिता सतीं मृतां
समीक्ष्यातिशयं शुचाहता ।
पपात भूमौ विजया
विरावं वितन्वती चोर्धभुजा प्रवेपती ।। ६८ ।।
सती को मरी
हुई देखकर, इस प्रकार बहुत अधिक दु:खी हो, विलाप करती हुई, अत्यधिक शोक से आहत विजया काँपती हुई बिना आवाज के दोनों
भुजाओं को ऊपर की ओर फैलाये हुए भूमि पर गिर पड़ी ॥ ६८ ॥
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे सती- देह त्यागो नाम षोडशोऽध्यायः ॥१६॥
कालिका पुराण अध्याय १६- संक्षिप्त कथानक
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा- वह कनकों के रूपों से रत्न सुशोभित शिखर था । वह शिखर सूर्य के समान
उन्नत था । उस शिखर को सती सखा शिव ने प्राप्त किया था। उसमें जो स्फटिक पाषाण था
और शाद्वल एवं द्रुमों से राजित था, विचित्र पुष्पों की लताओं से तथा सरोवरों से संयुत था, वहाँ प्रफुल्लित वृक्षों की शाखाओं की
टहनियों पर गुञ्जार करते हुए भ्रमरों के द्वारा परम शोभा हो रही थी । विकसित कमलों
के द्वारा तथा नील कमलों के समुदाय के द्वारा चक्रवाकों समूहों से और कादम्ब से
शोभित था । प्रमत्त सारस, कौंच और नीलकण्ठ इनसे जो शब्दायमान था एवं कोकिलों की मधुर
ध्वनियों से तथा मृगों से सेवित था। तुरंग के समान मुखों वाले सिद्धों,
अप्सराओं और गुह्यकों से, विद्याधरों, देवियों तथा किन्नरों के द्वारा विहार किया हुआ था ।
पर्वतीय पुरन्ध्रियों से और कन्याओं से वह समन्वित था । विपञ्ची तन्त्रिका मन्द
मृदंग,
पट्टह की ध्वनियों से और नृत्य करती हुई कौतुक से समुत्थित
अप्सराओं के द्वारा सुशोभित था । दैवी दिव्य और गन्ध युक्त लताओं से समावृत्त,
ऊर्ध्व प्रफुल्ल कुसुमों से तथा निकुन्जों से शोभायमान
स्थान था ।
उसमें
वृषभध्वज ने इस प्रकार से समन्वित सुशोभन में सती के साथ चिरकाल पर्यन्त रमण किया
था। उस स्वर्ग के सदृश स्थान में भगवान् शंकर ने दिव्यमान से दश हजार वर्ष तक
आनन्द सहित सती देवी के साथ रमण किया था। पहले वह शंकर भगवान् किसी समय उस स्थान
से कैलाश पर चले जाया करते हैं । किसी समय देवों और देवियों से समावृत मेरु पर्वत
के शिखर चले जाते हैं । उसी भाँति दिक्पालों के उद्यान में,
वनों में और वसुधा तल में जा-जाकर पुन: वहाँ पर सती को साथ
में लिए हुए उनसे रमण किया करते थे । उन्होंने रात दिन को नहीं जाना था,
न तो वे ब्रह्मा का चिन्तन करते थे,
न तप और शम का ही समाचरण किया करते थे । सती के अन्दर
समाहित मन वाले शम्भु ने केवल प्रीति ही की थी। सती सभी ओर केवल एक महादेवजी के ही
मुख को देखा करती थीं और महादेवजी भी निरन्तर सभी जगह सर्वदा सती के ही मुख का
अवलोकन किया करते थे। इस रीति से परस्पर में एक-दूसरे संसर्ग से अनुराग रूपी वृक्ष
को सती और शम्भु ने भावरूपी जल के सेवन के समान सेवन किया था ।
इसी बीच में
जगतों के हित को करने वाले प्रजापति दक्ष के एक महान् यज्ञ के यजन करने का समारम्भ
किया था जो कि सर्वजीवन था । जहाँ पर अट्ठासी हजार ऋत्विज हवन करते । हे
सुरर्षियों! इसमें चौसठ हजार उद्गाता थे। उतने ही अध्वर्यु और नारद आदि होता गण थे
। समस्त मरुद्गणों के साथ विष्णु भगवान् स्वयं ही अधिष्ठाता हुए थे । ब्रह्माजी
स्वयं वहाँ पर त्रयी की विधि के निदर्शक थे। उसी भाँति सब दिक्पाल उसके द्वारपाल
और रक्षक थे । वहाँ पर यज्ञ स्वयं उपस्थित हुआ था और धरा स्वयं वेदी हुई थी
अर्थात् पृथ्वी ने ही स्वयं वेदी का स्वरूप धारण किया था। अग्नि ने उस यज्ञ के
महोत्सव में हवियों के शीघ्र ग्रहण करने के लिए ही अपने अनेक स्वरूप धारण किए थे।
शीघ्र ही मरीचि आदि को आमन्त्रित करके जो पवित्रैक धारण करने वाले थे वहाँ पर
बुलाया था और उन्होंने सामिधेनी से अर्चि को प्रज्ज्वलित किया था । सप्तर्षि गण
पृथक-पृथक सामगाथा करते थे जो कि श्रुतियों के स्वरों से पृथ्वी,
दिशाओं को और विदिशाओं को एवं आकाश को पूरित कर रहे थे ।
महात्मा दक्ष
ने वहाँ पर योगियों में किन्हीं को भी परावृत नहीं किया था। न तो कोई ऋषिगण,
न देवगण, न मनुष्य और न पक्षीगण, न उद्भेद, न तृण, न पशु और मृग पराव्रत किए गए थे। उस दक्ष ने सुमदाध्वरों
में गन्धर्व, विद्याधर, सिद्धों के समुदाय, आदित्य, साध्य, ऋषिगण, यक्ष, समस्त स्थावर नागदर को भी परावृत नहीं किया था । कल्प,
मन्वन्तर, युग, वर्ष, मास, दिन, रात्रि, कला, काष्ठा, निमेष आदि सब वृत किए हुए वहाँ पर सब समागत हुए थे। उस दक्ष
के द्वारा वृत किए हुए महर्षि, राजर्षि, सुरभि संघ, पुत्रों के सहित नृप, गण देवता ये सब उस समय आगत हुए थे । कीट,
पतंग, सब जल में समुत्पन्न जीव, वानर, श्वापद, घोर, विघ्न, शैल, नदियाँ और समुद्र, सरोवर, वापी, वृत हुए थे और सब गये थे। सभी हवियों के अपने भाग को ग्रहण
करने की इच्छा वाले थे। वे दृढ़ यज्वीक्रतु के गमन करने वाले हुए थे । पाताल में
निवास करने वाले असुर भी वहाँ पर समागत हुए थे । नागों की स्त्रियाँ और समस्त
देवों की सभा आई थी ।
जो कुछ भी इस
जगत में वर्त्तन करने वाले थे चाहे चेतन हो या अचेतन ही वे सब में वरण इस सर्वस्व
दक्षिणा वाले यज्ञ का समारम्भ किया था । उस यज्ञ में महात्मा दक्ष ने केवल भगवान्
शम्भु का वरण नहीं किया था अर्थात् शम्भु को आमन्त्रण नहीं दिया था। शम्भु कपाल
धारण करने वाले हैं अतएव उनमें यज्ञ में सम्मिलित होने की योग्यता ही नहीं है ऐसा
ही निश्चय करके शम्भु को निमन्त्रित नहीं किया गया था । सती भी यद्यपि परमप्रिय
अपनी पुत्री थी किन्तु क्योंकि वह भी कपाली शिव की भार्या थी अतएव उनका भी वृत
नहीं किया गया था क्योंकि यज्ञ के विषय में दक्ष ने दोषों को विचार कर लिया था ।
सती ने यह श्रवण करके कि पिताजी ने एक उत्तम यज्ञ करने का आरम्भ किया है किन्तु
क्योंकि मैं कपालधारी की भार्या हूँ इसीलिए वास्तव में मुझको नहीं बुलाया गया है।
वह सती अत्यन्त क्रोधित हो गयी थी जो कि कोप उसे अपने पिता दक्ष के ऊपर उनको हुआ
था। उस अवसर पर उनका मुख और नेत्र क्रोध से लाल हो गये थे। उसी समय में सती ने शाप
द्वारा दक्ष प्रजापति को दग्ध करने के लिए मनन किया था । यद्यपि वह सती क्रोध में
आविष्ट थीं तो भी इस पूर्व समय को उसने स्मरण किया था । मन से ऐसा निश्चय करके उस
समय में सती ने शाप नहीं दिया था क्योंकि मैंने पहले दृढ़ प्रतिज्ञा की है मेरी
अवज्ञा होने पर मैं फिर निश्चय ही अपने प्राणों का परित्याग कर दूँगी ।
जिस समय दक्ष
ने तनया की इच्छा वाले होते हुए बहुत समय तक मेरा स्तवन किया था उसी समय में मैंने
यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं उसको शाप नहीं दूँगी । इसके अनन्तर अपने नित्य स्वरूप
का उस देवी ने चिन्तन करके अत्यन्त उग्र, निष्कल और जगत् से परिपूर्ण का स्मरण किया था। उस सती ने
हरि की योगनिद्रा नाम वाले पूर्व स्वरूप का स्मरण करती हुई उस समय में दक्ष की
पुत्री ने मन के द्वारा इस प्रकार से चिन्तन किया था। ब्रह्मा के द्वारा उदित दक्ष
प्रजापति ने जिसके लिए मेरी स्तुति की थी वह कुछ भी नहीं जाना था और भगवान् शंकर
भी पुत्रवान् नहीं हुए थे । इस समय में देवगण का एक ही कार्य सम्पन्न हुआ था कि
भगवान् शंकर मेरे लिए स्त्री में अनुराग करने वाले हो गये थे । मेरे अतिरिक्त अन्य
कोई भी शम्भु के अनुराग की वृद्धि करने के लिए समर्थ नहीं थी और न कोई होगी
क्योंकि अन्य किसी को भी शंकर ग्रहण नहीं करेंगे। तो भी मैं पूर्वयोजित समय से
पूर्व ही अपने शरीर का त्याग कर दूँगी और जगत् की भलाई के लिए फिर गिरि अर्थात्
हिमवान् में अपना प्रादुर्भाव करूँगी ।
पूर्वकाल में
हिमवान् के सुरम्य एवं देवों के गृह के सदृश प्रस्थ में शम्भु ने प्रीति से संयुत
मेरे साथ रमण करने को बहुत समय तक मुझसे प्रेम किया था । वहाँ पर जो मेनका देवी है
वह सुन्दर अंगों वाली और व्रत का समाचरण करने वाली है । वह परम सुशीला और पुर की
स्त्रियों में अत्युत्तमा है जो कि पार्वती के गण हैं उनमें श्रेष्ठ है। उसमें
मेरे साथ एक माता की ही भाँति चेष्टा की थी जो कि सभी कर्मों से यथोचित थी । उसमें
मेरा अनुराग हो गया था और वह अनुराग ऐसा ही था कि वही मेरी माता होगी। पर्वतीय
कन्याओं के साथ मैं बचपन की क्रीड़ायें चिरकाल पर्यन्त कर-करके मेनका की उत्तम
प्रसन्नता को उत्पन्न करूँगी। मैं फिर भगवान् शम्भु की अत्यन्त प्यारी जाया
(पत्नी) होऊँगी। फिर मैं उनके उपाय से बिना किसी संशय के देवों कार्यों को करूँगी
। इस प्रकार से चिन्तन करते हुए वह फिर कोप से समावृत्त हो गयी थी । वहाँ पर क्रोध
से लाल नेत्रों वाली उस समय में अपने शरीर को योग के द्वारा समस्त द्वारों को आवृत
करके मस्तक स्फोटित कर दिया था ।
उस महान स्फोट
ने उस सती की प्राणवायु आत्मा के दशम द्वार पर निर्भेदन करके बाहर चली गयी थी। सब
ऋषिगणों ने प्राणों का परित्याग करने वाली उसको देखकर आकाश में स्थित उन्होंने
हा-हाकार किया था और वे शोक से व्याकुल नेत्र वाले हो गये थे। इसके अनन्तर उसी सती
के बहिन की पुत्री वहाँ पर सती को मृत देखकर शोक से पुन: विजया ने रुदन किया था ।
हा! सती तुम कहाँ गयीं ? हा! सती आपको यह क्या हुआ ? हा! मौसी ! इस प्रकार का उस समय में महान् क्रन्दन का शब्द
हो गया था । हे सती! अप्रिय के श्रवण करने ही से तुमने अपने प्राणों का परित्याग
कर दिया है । अब मैं ऐसे सुदृढ़ विप्रिय को देखकर कैसे जीवित रहूँ । उस समय में
अपने हाथ से सती के मुख का बार-बार मार्जन करती हुई उसने करुणापूर्वक विलाप करती
हुई ने उसी सती के मुख को सूँघा था। वह अपने नेत्रों से निकलते हुए जलों से उस सती
के हृदय और मुख का सिंचन करती हुई हाथों से उसके केशों को उल्लासित करके बार-बार
मुख को देख रही थी ।
ऊपर और नीचे
की ओर कम्पित शिर वाली शोक से व्याकुल इन्द्रियों से समन्वित हुई पाँचों अंगुलियों
से अपने वृक्ष-स्थल और शिर को पीट रही थी । उस विजया ने अश्रुओं से युक्त कण्ठ
वाली होती हुई यह वचन कहा था। माता वीरणी तेरे मरण का श्रवण करके शोक से कर्षित हो
जायेंगी। वह माता कैसे प्राणों को धारण करने वाली होगी। वह तो तुरन्त ही जीवन को
त्याग देगी । उसके द्वारा क्रूर कर्म करने वाले आपके पिता कैसे होंगे ?
आपको मृत सुनकर कोई कैसे अपना जीवन धारण करेगा। आपके प्रति
निश्चय ही अपने कर्मों का विचिन्तन करके उस समय शोक से व्याकुल दक्ष ने ये बहुत ही
क्रूर एवं कठोर कर्म किए थे और ज्ञान से हीन वह यजन करने वाला होकर कैसे कर्म के
करने में प्रवृत्त हो रहे हैं क्योंकि वह श्रद्धा से रहित और बुद्धि का त्याग कर
देने वाला है। हा! माता! बालक की भाँति रुदन करती हुई मुझे कुछ उत्तर तो दो ।
भक्ति से दयाशून्य मैं शोक से अपने प्राण शल्य ही समान धारण कर रही हूँ। हे माता!
क्या किसी समय शम्भु के द्वारा विहित का स्मरण कर रही हो?
आपका वही सचन
चक्षु,
मुख और नासिका से सभी हैं । इन सबके सब विभ्रम इस समय में
कहाँ चले गये हैं और आपका वह हसित भी कहाँ चला गया है ?
वे भगवान् शम्भु आपके विभ्रमों से हीन,
सुन्दर नासिका से युक्त नेत्रों से युग्म वाले मन्द हास से
रहित,
आपके मुख को देखकर कैसे सहन करेंगे ?
हे माता! आपके बिना हर के आश्रम में समागत हुओं को बार-बार
सुधा के तुल्य सुवृत वाक्य को कौन कहेंगी ? बान्धवों में श्रद्धा वाली और पति के भावों के वश में
अनुगमन करने वाली, सुलक्षणों से पूर्ण उसके समान अब कौन होगी । 'हे देवी! अब आपके बिना देवेश्वर शम्भु शोक से उपहत चेतना
वाले होकर दुःखित आत्मा से युक्त निरुत्साह और चेष्टा रहित हो जायेंगे । इस रीति
से विशेष रूप से दुःखित होकर सती के प्रति विलाप करती हुई विजया सती को मृत देखकर
अत्यधिक शोक से आहत हो गयी थी। वह ऊपर की ओर भुजाओं को किए हुए विशेष क्रन्दन करती
हुई कम्प से संयुत होती हुई भूमि पर गिर गयी थी ।
॥
श्रीकालिकापुराण में सती देहत्याग नामक सोलहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १६ ॥
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 17
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