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कर्मकाण्ड

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अग्निपुराण अध्याय ८

अग्निपुराण अध्याय ८     

अग्निपुराण अध्याय ८ में किष्किन्धाकाण्ड की संक्षिप्त कथा का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय ८

अग्निपुराणम् अध्यायः ८     

Agni puran chapter 8

अग्निपुराण आठवाँ अध्याय

अग्नि पुराण अध्याय ८     

अग्निपुराण अध्याय ८ - किष्किन्धाकाण्डवर्णनं

नारद उवाच

रामः पस्पासरो गत्वा शोचन् स शर्वरीं ततः।

हनूमता स सूग्नीवं मित्रञ्चकार ह ।। १ ।।

सप्त तालन् विनिर्भिद्य शरेणैकेन पश्यतः।

पादेन दुन्दुभेः कायञ्चिक्षेप दशयोजनम् ।। २ ।।

तद्रिपुं बालिनं हत्वा भ्रातरं वैरसारिणम्।

किष्किन्धां कपिरज्यञ्च रुमान्तारां समर्पयत् ।। ३ ।।

ऋष्यमूकेहरीशायकिष्किन्धेशोऽब्रवीत्सच ।

सीतां त्वं प्राश्यसेयद्वत् तथा राम करोमिते ।। ४ ।।

तछ्रुत्वा माल्यवत्पृष्ठे चातुर्मास्यं चकारसः।

किष्किन्धायाञ्च सुग्रीवो यदा नायाति दर्शनम् ।। ५ ।।

तदाऽब्रवीत्तं रामोक्तं लक्षमणो व्रज राघवम्।

न स सङ्कुचितः पन्था येन बाली हतो गतः ।। ६ ।।

समये तिष्ठ सुग्रीव मा बालिपथमन्वगः।

सुग्रीव आह संसक्तो गतं कालं न बुद्धवान् ।। ७ ।।

नारदजी कहते हैंश्रीरामचन्द्रजी पम्पा- सरोवर पर जाकर सीता के लिये शोक करने लगे। वहाँ वे शबरी से मिले। फिर हनुमान्जी से उनकी भेंट हुई। हनुमान्जी उन्हें सुग्रीव के पास ले गये और सुग्रीव के साथ उनकी मित्रता करायी। श्रीरामचन्द्रजी ने सबके देखते-देखते ताड़ के सात वृक्षों को एक ही बाण से बींध डाला और दुन्दुभि नामक दानव के विशाल शरीर को पैर की ठोकर से दस योजन दूर फेंक दिया। इसके बाद सुग्रीव के शत्रु बाली को, जो भाई होते हुए भी उनके साथ वैर रखता था, मार डाला और किष्किन्धापुरी, वानरों का साम्राज्य, रुमा एवं तारा- इन सबको ऋष्यमूक पर्वत पर वानरराज सुग्रीव के अधीन कर दिया । तदनन्तर किष्किन्धापुरी के स्वामी सुग्रीव ने कहा-' श्रीराम ! आपको सीताजी की प्राप्ति जिस प्रकार भी हो सके, ऐसा उपाय मैं कर रहा हूँ।' यह सुनने के बाद श्रीरामचन्द्रजी ने माल्यवान् पर्वत के शिखर पर वर्षा के चार महीने व्यतीत किये और सुग्रीव किष्किन्धा में रहने लगे। चौमासे के बाद भी जब सुग्रीव दिखायी नहीं दिये, तब श्रीरामचन्द्रजी की आज्ञा से लक्ष्मण ने किष्किन्धा में जाकर कहा- 'सुग्रीव! तुम श्रीरामचन्द्रजी के पास चलो अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहो, नहीं तो बाली मरकर जिस मार्ग से गया है, वह मार्ग अभी बंद नहीं हुआ है। अतएव बाली पथ का अनुसरण न करो।

सुग्रीव ने कहा-' सुमित्रानन्दन ! विषयभोग में आसक्त हो जाने के कारण मुझे बीते हुए समय का भान न रहा। [अतः मेरे अपराध को क्षमा कीजिये ] ' ॥ १-७॥

इत्युक्त्वा स गतो रामं नत्वोवाच हरीश्वरः।

आनीता वानराः सर्वे सीतायाश्च गवेषणे ।। ८ ।।

त्वन्मतात् प्रेषयिष्यामि विचिन्वन्तु च जानकीम् ।

पूर्वादौ मासमायान्तु मासादूर्ध्वं निहन्मि तान् ।। ९ ।।

इत्युक्ता वानराः पूर्वपश्चमोत्तरमार्गगाः।

जग्मू रामं ससुग्रीवमपशयन्तस्तु जानकीम् ।। १० ।।

रामाङ्गुलीयं संगृह्य हनूमान् वानरैः सह।

दक्षिणे मागयामास सुप्रभाया गुहान्तिके ।। ११ ।।

मासादूर्ध्वञ्च विन्यस्ता अपश्यन्तस्तु जानकीम्।

ऊचुर्वृथामरिष्यामो जटायुर्द्धन्य एव सः ।। १२ ।।

सीतार्थे योऽत्यजत् प्राणान्रावणेन हतो रणे।

तच्छ्रु त्वा प्राह सम्पातिर्विहाय कपिभक्षणम् ।। १३ ।।

ऐसा कहकर वानरराज सुग्रीव श्रीरामचन्द्रजी के पास गये और उन्हें नमस्कार करके बोले- 'भगवन्! मैंने सब वानरों को बुला लिया है। अब आपकी इच्छा अनुसार सीताजी की खोज करने के लिये उन्हें भेजूँगा। वे पूर्वादि दिशाओं में जाकर एक महीने तक सीताजी की खोज करें। जो एक महीने के बाद लौटेगा, उसे मैं मार डालूँगा।' यह सुनकर बहुत से वानर पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशाओं के मार्ग पर चल पड़े तथा वहाँ जनककुमारी सीता को न पाकर नियत समय के भीतर श्रीराम और सुग्रीव के पास लौट आये। हनुमान्जी श्रीरामचन्द्रजी की दी हुई अँगूठी लेकर अन्य वानरों के साथ दक्षिण दिशा में जानकीजी की खोज कर रहे थे। वे लोग सुप्रभा की गुफा के निकट विन्ध्यपर्वत पर ही एक मास से अधिक काल तक ढूँढ़ते फिरे; किंतु उन्हें सीताजी का दर्शन नहीं हुआ। अन्त में निराश होकर आपस में कहने लगे- 'हम लोगों को व्यर्थ ही प्राण देने पड़ेंगे। धन्य है वह जटायु, जिसने सीता के लिये रावण के द्वारा मारा जाकर युद्ध में प्राण त्याग दिया था' ॥ ८- १३ ॥

भ्राताऽसौ मे जटायुर्वै मयोड्डीनोऽर्कमण्डलम्।

अर्क तापाद्रक्षितोऽगाद् दग्धपक्षोऽहमभ्रगः ।। १४ ।।

रामवार्त्ताश्रवात् पक्षौ जातौ भूयोऽथ जानकीम्।

पश्याम्यशोकवनिकागतां लङ्कागतां किल ।। १५ ।।

शतयोजनचविश्तीर्णे लवणाब्धौ त्रिकूटके।

ज्ञात्वा रामं ससुग्रीवं वानराः कथयन्तु वै ।। १६ ।।

उनकी ये बातें सम्पाति नामक गृध्र के कानों में पड़ीं। वह वानरों के (प्राणत्याग की चर्चा से उनके) खाने की ताक में लगा था। किंतु जटायु की चर्चा सुनकर रुक गया और बोला- 'वानरो! जटायु मेरा भाई था। वह मेरे ही साथ सूर्यमण्डल की ओर उड़ा चला जा रहा था। मैंने अपनी पाँखों की ओट में रखकर सूर्य की प्रखर किरणों के ताप से उसे बचाया। अतः वह तो सकुशल बच गया; किंतु मेरी पाँखें जल गयीं, इसलिये मैं यहीं गिर पड़ा। आज श्रीरामचन्द्रजी की वार्ता सुनने से फिर मेरे पंख निकल आये। अब मैं जानकी को देखता हूँ; वे लङ्का में अशोक वाटिका के भीतर हैं। लवणसमुद्र के द्वीप में त्रिकूट पर्वत पर लङ्का बसी हुई है। यहाँ से वहाँ तक का समुद्र सौ योजन विस्तृत है। यह जानकर सब वानर श्रीराम और सुग्रीव के पास जायँ और उन्हें सब समाचार बता दें' ॥१४- १६ ॥

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये रामायणे किष्किन्धाकाण्डर्णनं नाम अष्टमोऽध्यायः ।।

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'रामायण कथा के अन्तर्गत किष्किन्धाकाण्ड की कथा का वर्णन'नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 9

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