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कर्मकाण्ड

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कालिका पुराण अध्याय २१

कालिका पुराण अध्याय २१

कालिका पुराण अध्याय २१ में चन्द्रमा का शाप से मुक्ति की कथा का वर्णन है

कालिका पुराण अध्याय २१

कालिकापुराणम् एकविंशोऽध्यायः चन्द्रशापमोक्षणम्

कालिका पुराण अध्याय २१     

Kalika puran chapter 21

कालिकापुराण इक्कीसवाँ अध्याय – चन्द्रशाप विमोचन वर्णन

अथ कालिका पुराण अध्याय २१

।। ब्रह्मोवाच ।।

गच्छन्तु भोः सुरगणा दक्षस्य सदनं प्रति ।

प्रसादयत चन्द्रार्थे स च पूर्णो भवेद्यथा ॥१॥

ब्रह्मा बोले- हे देवगण! आप दक्ष प्रजापति के घर जाएँ एवं उन्हें चन्द्रमा के (कल्याण) हेतु प्रसन्न करें, जिससे वह पूर्ण हो जाय ।। १ ।।

पूर्णे चन्द्रे जगत्सर्वं प्रकृतिस्थं भविष्यति ।

युष्मा कंच भवेच्छान्तिरोषधीनाञ्च सम्भवः ।। २ ।।

'चन्द्रमा के पूर्ण होते ही सम्पूर्ण जगत् स्वस्थ हो जायेगा, आपको भी शान्ति प्राप्त होगी तथा ओषधियों की उत्पत्ति होवेगी ॥ २ ॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

इति ब्रह्मवचः श्रुत्वा देवाः शक्रपुरोगमाः ।

प्रययुर्हृष्टमनसस्तदा दक्षनिवेशनम् ।।३।।

मार्कण्डेय बोले- तब ब्रह्मा के इस वचन को सुनकर प्रसन्न मन से इन्द्र के नेतृत्व में देवगण दक्ष के निवास पर गये ॥३ ॥

यथान्यायमुपस्थाय सर्वे मुनिवरं सुराः ।

प्रोचुः प्रजापतिं दक्षं प्रणम्य श्लक्ष्णया गिरा ॥४॥

वे सभी देवता मुनिवर दक्ष प्रजापति के सम्मुख यथोचित क्रम से उपस्थित हुए, उन्हें प्रणाम किया और मधुर वाणी में बोले ॥ ४ ॥

कालिका पुराण अध्याय २१- देवकृतादक्षस्तुति

।। देवा ऊचुः ।।

प्रसीद सीदतां ब्रह्मन्नस्माकं बहुदुःखिनाम् ।

उद्धरस्व महाबुद्धे त्राहि नः शोकसागरात् ।।५।।

देवगण बोले- हे ब्रह्मन् ! अत्यन्त दुःखी तथा पीड़ित हम सब पर आप प्रसन्न होइये । हे महान बुद्धिवाले ! इस समुपस्थित शोक-सागर से हमारा उद्धार कीजिए ।। ५ ।।

यद्रूपं ब्रह्मसंज्ञन्तु सृष्टिकृत् परमात्मनः ।

तदंशस्त्वं परं ज्योतिर्विप्ररूप नमोऽस्तुते ।।६।।

हे विप्ररूप ! परमात्मा का सृष्टि करने वाला जो ब्रह्मा नामक रूप है, आप उसी के अंशभूत, परं ज्योति हो, आपको नमस्कार है ।। ६ ।।

रक्षणात् सर्वजगतां प्रजापालनकारणात् ।

दक्षः प्रजापतिश्चेति योगेशस्तं नुमो वयम् ।।७।।

सम्पूर्ण जगत की रक्षा तथा प्रजा का पालन करने के कारण आप दक्ष प्रजापति कहे जाते हैं। आप योगेश भी हैं; हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ ७ ॥

दक्षाय सर्वजगतां दक्षाय कुशलात्मनाम् ।

दक्षायात्महितायाशु नमस्तुभ्यं महात्मने ॥८॥

सम्पूर्ण जगत में दक्ष, कुशलात्माओं में दक्ष, आत्मा के हित-साधन में तेज महात्मा दक्ष तुम्हें नमस्कार है ॥ ८ ॥

सततं चिन्त्यमानस्य योगिभिर्नियतेन्द्रियैः ।

सारस्य सारभूतस्त्वं दक्षाय परमात्मने ॥९॥

योगिवृत्तिरनाधृष्य पारगाणां परायणः ।

आद्यन्तमुक्तः सहसा तस्मै नित्यं नमो नमः ।।१०।।

नियन्त्रित इन्द्रिय वाले योगीजन निरन्तर जिसका चिन्तन करते रहते हैं, जो सार तत्त्व के भी सारभूत अर्थात् परमसार तत्त्व हैं, जो योगियों के भी आचरण पर विजय प्राप्त कर पारंगतों (ऊपर उठे हुये लोगों) के भी परमस्थान (लक्ष्य) हैं उन आदि और अन्त से रहित, शाश्वत, सामर्थ्यवान, परमात्मा दक्ष को बारम्बार नमस्कार है ।। ९-१० ।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

इति तेषां वचः श्रुत्वा दक्षो यज्ञभुजां तथा ।

प्राह प्रसन्नवदनः शक्रमाभाष्य मुख्यतः ।। ११ ।।

मार्कण्डेय बोलें- उन यज्ञभोगी देवताओं के ये वचन सुनकर, प्रसन्न मुख, दक्ष प्रजापति से इन्द्र को मुख्य रूप से सम्बोधित कर बोले - ॥ ११ ॥

।। दक्ष उवाच ।

कुतः शक्र महाबाहो भवतां दुःखमागतम् ।

दुःखहेतुं वद विभो श्रोतुमिच्छाम्यहन्तु तम् ।।१२।।

दक्ष प्रजापति बोले - हे महाबाहु इन्द्र ! आप लोगों पर दुःख कहाँ से आ गया ? हे विभु ! आप अपने दुःख का कारण बताइये, मैं उसे सुनना चाहता हूँ ॥ १२ ॥

ममास्ति वा किं कर्तव्यं भवतां दुःखहानये ।

तदहं यदि शक्नोमि करिष्यामि हितं समम् ।।१३।।

या आप लोगों का दुःख दूर करने के लिए मुझे क्या करना है? यदि मैं कर सकूँगा तो वही करूंगा जो आपके लिए हितकर हो ।। १३ ।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य ब्रह्मसूनोर्महात्मनः ।

जगाद वाक्पतिः शक्रो वीतिहोत्रोऽथ तं मुनिम् ।। १४ ।।

मार्कण्डेय बोले- उस ब्रह्मपुत्र महात्मा दक्ष के वचनों को सुनकर वाक्प (वृहस्पति), देवराज इन्द्र तथा अग्निदेव ने उन मुनिवर से कहा॥ १४ ॥

।। त ऊचुः ।।

क्षयी जातो निशानाथस्तस्मिन् क्षीणे क्षयं गताः ।

सर्वौषध्यो द्विजश्रेष्ठ तद्धानिर्यज्ञहानिकृत् ।।१५।।

वे (वृहस्पति, इन्द्र और अग्निदेव) बोले- हे द्विजश्रेष्ठ ! आज निशापति चन्द्रमा क्षीण हो गया है। उसके क्षीण होने से सभी ओषधियाँ नष्ट हो गई हैं और उनकी हानि, यज्ञ की हानि का कारण हो रही है ।। १५ ।।

यज्ञे विनष्टे सकलाः प्रजाः क्षुद्धयकातराः ।

वृष्ट्यभावान्महद्दुःखं प्राप्य नष्टाश्च काश्चन ।। १६ ।।

यज्ञ के नष्ट होने से वृष्टि के अभाव में सारी प्रजा किसी महान दुःख को प्राप्त कर भूख एवं भय से भयभीत हो, नष्ट हो गई है ॥ १६ ॥

क्षयोऽयं रात्रिनाथस्य यस्ते कोपात् प्रवर्तते ।

स सर्वजगतो ब्रह्मन्नभावार्थमुपस्थितः ।। १७ ।।

हे ब्रह्मन् ! यह रात्रिपति चन्द्रमा का क्षय जो आप के क्रोध के कारण हुआ है। वह इस समय सम्पूर्ण जगत के अभाव (नाश) का कारण हो रहा है ।। १७ ।।

नाधुना तत् त्रिभुवने यन्न क्षुब्धं नु किञ्चन ।

विप्लुतं वास्ति विप्रेन्द्र स्थावराः पतगाश्च वा ।। १८ ।।

न यज्ञाः सम्प्रवर्तन्ते न तपस्यन्ति तापसाः ।

आहारदुःखान्निश्रीका: प्रजा क्षीणा भयातुराः ।। १९ ।।

हे विप्रों में श्रेष्ठ ! आज तीनों लोकों में कोई भी ऐसा नहीं है जो दुःखी या विनष्ट न हो भले ही वह स्थावर या गगनचर पक्षी आदि ही क्यों न हो अर्थात् सभी दुःखी हैं। आज न यज्ञ हो रहे हैं और न तपस्वीजन तपस्या कर रहे हैं। भोजन के दुःख से शोभारहित तथा भयभीत सम्पूर्ण प्रजा नष्ट हो रही है ।। १८-१९ ।।

एवं प्रवृत्ते विप्रेन्द्र विप्लवेऽस्मात् रसातलात् ।

दैत्या न यावदुत्थाय बाधन्ते तावदुद्धर ।।२०।।

हे विप्रेन्द्र ! इस प्रकार के विपल्व की दशा के कारण जब तक रसातल से ऊपर आकर दैत्य हमें बाधा न पहुँचाये तब तक आप हमारा उद्धार कीजिए ।। २०।।

प्रसीद दक्ष चन्द्रस्य तं पूरय तपोबलात् ।

पूर्णे चन्द्रे जगत्सर्वं प्रकृतिस्थं भविष्यति ।। २१ ।।

हे दक्ष ! आप प्रसन्न होइए तथा तपस्या के बल से चन्द्रमा को पूर्ण कर दीजिये । चन्द्रमा के पूर्ण होने पर सम्पूर्ण जगत अपने स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त कर लेगा ।। २१ ।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

इति तेषां वचः श्रुत्वा प्रजापतिसुतस्तदा ।

उवाच तान् सुरगणान् हृदयाच्छल्यमुद्धरन् ।।२२।।

तब प्रजापति ब्रह्मा के पुत्र दक्ष, उन देवताओं के वचनों को सुनकर उनके हृदयों से उनके कष्ट दूर करते हुए उनसे बोले - ॥ २२ ॥

।। दक्ष उवाच ॥

यन्मे वचो निशानाथे प्रवृत्तं शापकारणम् ।

न केनापि निदानेन मिथ्या कर्तुं तदुत्सहे ।। २३ ।।

दक्ष बोले- निशापति चन्द्रमा के शाप के कारण जो मेरा यह वचन हुआ है, वह किसी भी उपाय से झुठलाया नहीं जा सकता ॥ २३ ॥

किन्तु मद्वचनं यस्मान्नैकान्तेन मृषा भवेत् ।

चन्द्रोऽपि वर्ध यस्मात्तदुपायमुदेक्षत ।। २४ ।।

किन्तु मेरा वचन जिस उपाय से भी पूर्णतः झूठा न हो, चन्द्रमा भी वृद्धि को प्राप्त हो वैसा उपाय देखा जाय, विचारा जाय ॥ २४ ॥

तत्राप्ययमुपायोऽस्ति मासार्थं यातु चन्द्रमाः ।

क्षयं वृद्धिञ्च मासार्धं समं भार्यासु वर्तताम् ।। २५ ।।

यहाँ यह उपाय दीखता है कि आधे महीने (एक पक्ष में) चन्द्रमा क्षय को प्राप्त हो तथा आधे महीने स्वकीय पत्नियों के साथ समान वर्ताव करते हुए वृद्धि को प्राप्त हो ॥ २५ ॥

तस्य तद्वचनं श्रुत्वा तं प्रसाद्य प्रजापतिम् ।

सर्वे सुरगणास्तत्र गता यत्रास्ति चन्द्रमाः ।। २६ ।।

प्रजापति के उस वचन को सुन, उन्हें प्रसन्न कर, सभी देवगण वहाँ गये जहाँ उस समय चन्द्रमा थे ॥ २६ ॥

एवमुक्ते तु वचने दक्षेण मुनिना द्विजाः ।

अथ चन्द्रं समादाय भार्याभिः सहितं तदा ।

जग्मुस्ते ब्रह्मभवनं मुदिताः सुरसत्तमाः ।। २७ ।।

हे द्विजों ! मुनिवर दक्ष द्वारा इस प्रकार के वचन कहे जाने पर वे देवगण प्रसन्नतापूर्वक पत्नियों के सहित चन्द्रमा को साथ लेकर ब्रह्मा के भवन को गये ॥ २७ ॥

तत्र गत्वा महाभागाः यथा दक्षेण भाषितम् ।

तत्सर्वं कथयामासुर्ब्रह्मणे परमात्मने ।। २८ ।।

वहाँ जाकर उन महापुरुषों ने जो कुछ दक्ष प्रजापति द्वारा कहा गया था वही सब परमात्मा ब्रह्मा से कहा ।।२८।।

ब्रह्मा दक्षवचः श्रुत्वा देवानां वचनात्तदा ।

चन्द्रभागं महाशैलं जगाम सहितः सुरैः ।। २९ ।।

तब देवताओं के मुँह से दक्ष की कही हुई बात सुनकर उन्हीं देवताओं के साथ ब्रह्मा चन्द्रभाग नामक विशाल पर्वत पर गये ।। २९ ।।

तत्रगत्वा सुरश्रेष्ठः प्रजानां हितकाम्यया ।

स्नापयामास शुभ्रांशुं वृहल्लोहितपुष्करे ।। ३० ।।

वहाँ जाकर देवताओं में श्रेष्ठ ब्रह्मा ने प्रजा के हित की कामना से श्वेत किरणों वाले चन्द्रमा को बृहल्लोहित सरोवर में स्नान कराया ।। ३० ।।

भूतभव्यभवज्ज्ञान: पूर्वमेव पितामहः ।

एतदर्थञ्चकारा सर: पूर्णं जगद्गुरुः ।। ३१ ।।

भूत, भविष्य एवं वर्तमान तीनों काल का ज्ञान रखने वाले, जगद्गुरु पितामह ब्रह्मा ने इस कार्य हेतु उपर्युक्त परिपूर्ण सरोवर का पहले ही निर्माण कर लिया था ।। ३१ ॥

तत्र स्नातस्य जन्तोस्तु नीरोगत्वं प्रजायते ।

चिरायुष्यञ्च सततं वृहल्लोहितसंज्ञके ।।३२।।

उस बृहल्लोहित नामक सरोवर में स्नान किये प्राणियों को सदैव आरोग्य एवं दीर्घायुष्य प्राप्त होता है ।। ३२ ।।

तत्र स्नातस्य चन्द्रस्य शरीरात्तत्क्षणं गदः ।

राजयक्ष्मा निः ससार पूर्वरूपो यथोदितः ।।३३।।

वहाँ स्नान किये हुए चन्द्रमा के शरीर से पूर्व में वर्णित रूप में राजयक्ष्मा नामक रोग तत्काल बाहर निकला ॥ ३३ ॥

निःसृत्य राजयक्ष्मापि ब्रह्माणञ्च जगत्पतिम् ।

प्रणम्याहं किं करिष्ये क्व गच्छामीत्युवाच तम् ।।३४।।

चन्द्रमा के शरीर से निकलते ही राजयक्ष्मा ने जगत्पति ब्रह्मा को प्रणाम किया और उनसे पूछा - "मैं क्या करूँ और कहाँ जाऊँ ?” ।। ३४ ।।

स्थानं पत्नीञ्च लोकेश कृत्यं मम सनातनम् ।

निदेशयानुरूपे मे स्रष्टा त्वं जगतां यतः ॥३५॥

हे लोकेश ! मेरे अनुरूप स्थान, पत्नी तथा सनातन कार्यों का आप निर्देश कीजिए क्योंकि आप संसार के रचयिता हैं ।। ३५ ।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

ततो ब्रह्मापि तं पुष्टं निरीक्ष्येन्दुं शरीरगैः ।

अमृतैस्तेनातियुक्तैः क्षीणञ्चापि निशापतिम् ।। ३६ ।

दोर्भिः हस्तैः तं गृहीत्वा गिरौ निष्पीड्य वै मुहुः ।

अमृतं गालयामास शरीराद्राजयक्ष्मणः ।। ३७ ।।

मार्कण्डेय बोले- तब ब्रह्मा ने चन्द्रमा के शरीर से निकले अमृत से युक्त होने के कारण पुष्ट शरीर वाले उस राजयक्ष्मा को तथा (अमृत के अभाव से) क्षीण चन्द्रमा को देखकर उसे दोनों हाथों से पकड़ा तत्पश्चात् उसे पर्वत पर निचोड़ कर, राजयक्ष्मा के शरीर से अर्क की भाँति अमृत निकाल लिया ।। ३६-३७ ।।

अमृतानि च यान्याशु गालितानि तदा जले ।

क्षीरोदस्य च चिक्षेप मध्ये रहसि लोकभृत् ॥३८॥

तब जो निचुड़े अमृतविन्दु थे उन्हें ब्रह्मा ने शीघ्र ही क्षीर सागर के मध्यवर्ती जल के एकान्त स्थान में डाल दिया ॥ ३८ ॥

तस्मादस्यामृतादिन्दोः कलाः क्षीणास्तु याः पुरा ।

तासां जग्राह लवशश्चर्णान् क्षीरोदसागरात् ।। ३९।।

चन्द्रमा की जो कलायें पहले क्षीण हो गई थीं उन्होंने उस क्षीर सागर में पड़े हुए अमृत की बूँद-बूँद से उन कलाओं के चूर्णों को ग्रहण किया ।। ३९ ।।

कलामात्रावशेषष्य संसर्गाद्राजयक्ष्मणः ।

क्षीणाः कलाः पञ्चदश याः पूर्वममृतात्मिकाः ।

ता राजयक्ष्मगर्भस्थाचूर्णीभूतास्तु पीडया ॥४०॥

चन्द्रमा एक कलामात्र ही अवशिष्ट रह गये थे। पहले उनकी जो पन्द्रह अमृतयुक्त कलायें थीं, राजयक्ष्मा के संसर्ग से वे क्षीण हो गई थीं। वे पीड़ा के कारण राजयक्ष्मा के गर्भ में चूर्णीभूत हो गई थीं ॥ ४० ॥

तेजोज्योत्स्ना सुधाभिस्तु निबद्धं यत् कलापतेः ।। ४१ ।।

शरीरं तत् त्रिधा भूतं गर्भस्थं राजयक्ष्मणः ।। ४२ ।।

चन्द्रमा का तेज, ज्योत्स्ना तथा अमृत निबद्ध (सुगठित) जो शरीर था वह तीन भागों में बँटकर राजयक्ष्मा के गर्भ में स्थित हो गया था ।। ४१-४२ ॥

ज्योतिश्चूर्णमभूत् ज्योत्स्ना लीना राजादियक्ष्मणि ।

द्रवीभूताः सुधाः सर्वाः गर्भे रोगस्य च स्थिताः ।। ४३ ।।

ज्योति अर्थात् तेज राजयक्ष्मा के गर्भ में चूर्ण रूप हो गई तथा ज्योत्स्ना उसी में लीन हो गई तथा समस्त सुधा द्रवरूप में यक्ष्मा रोग के गर्भ में स्थित हो गई थी ।। ४३ ।।

यदा निर्यालयामास सुधां ब्रह्मा क्षमान्तरात् ।

तदा ज्योत्स्नासुधाज्योतिः सर्वं तस्माद्बहिर्गतम् ।।४४ ।।

जब ब्रह्मा ने यक्ष्मा के भीतर से अमृत को निचोड़ा तब ज्योत्स्ना (चंद्रिका), अमृत एवं ज्योति तीनों ही उसके अन्दर से बाहर आ गये ।। ४४ ।।

क्षीरोदसागरे क्षिप्तं तत् सर्वं विधिना तदा ।

देवान् गिरौ परित्यज्य स्वयं गत्वा द्रुतं ततः ।। ४५ ।।

तब विधाता ने उन सभी को क्षीर सागर में डाल दिया। तत्पश्चात् सभी देवता पर्वत को छोड़कर स्वयं तेजी से वहाँ गये ।। ४५ ।।

ततोऽमृतानि प्रक्षाल्य कलाचूर्णानि वारिभिः ।

ज्योत्स्नाञ्चाप्याजगामाशु गृहीत्वा तत्त्रयं गिरिम् ॥४६॥

अमृतकला के चूर्ण तथा ज्योत्स्ना को भी क्षीर सागर के जल में धोकर वे शीघ्र ही उन तीनों को लेकर पर्वत पर (लौटकर) आ गये ।। ४६ ।।

क्षीरोदागिरिमासाद्य चन्द्रभागं तदा विधिः ।

देवमध्ये कलाचूर्णं सुधाज्योत्स्ना न्यवीविशत् ।। ४७ ।।

तब ब्रह्मा ने क्षीर-सागर से चन्द्रभाग पर्वत पर पहुँचकर कलाओं के चूर्ण, ज्योत्स्ना और अमृत को देवताओं के मध्यस्थान में निवेशित किया ॥ ४७ ॥

संस्थाप्य तत्त्रयं ब्रह्मा देवानां मध्यतः स्थितः ।

जगाद राजयक्ष्माणं तत् स्थानादि निदेशयन् ।।४८ ।।

उन देवताओं के मध्य में स्थित ब्रह्मा उन तीनों को स्थापित कर राजयक्ष्मा को स्थान आदि का निर्देश करते हुए बोले- ॥ ४८ ।।

।। ब्रह्मोवाच ।।

सर्वदा यो दिवारात्रं सन्ध्यायां वनितारतः ।

सेवते सुरतं तस्मिन् राजयक्ष्मन् वसिष्यसि ।। ४९ ।।

ब्रह्मा बोले- हे राजयक्ष्मा ! जो व्यक्ति सदैव रात दिन या सायंकाल स्त्रियों में आसक्त हो सुरत (सम्भोग) का सेवन करता हो, तुम उसमें निवास करो ॥ ४७ ॥

प्रतिशाय-श्वासकास- संयुक्तो मैथुनं चरेत् ।

स ते प्रवेश्यः सततं श्लेष्मणश्च तथाविधः ॥५० ।।

जो सर्दी, जुकाम, श्वास-कास से युक्त होने पर भी निरन्तर मैथुन कर्म करे वही तुम्हारे प्रवेश करने योग्य है । श्लेष्मा से युक्त उस प्रकार का व्यक्ति भी तुम्हारे प्रवेश के योग्य है* ।। ५० ॥

* ४९-५० श्लोकों में अति और अनियंत्रित संभोग यक्ष्मा रोग का आधार बताया गया है।

कृष्णाख्या मृत्युपुत्री या भवतः सदृशी गुणैः ।

सा तेऽस्तु भार्या सततं भवन्तमनुयास्यति ।। ५१ । ।

तुम्हारे ही समान गुणोंवाली मृत्यु की जो कृष्णा नामक पुत्री है, वह तुम्हारी पत्नी होकर निरन्तर तुम्हारा अनुगमन करेगी ।। ५१ ॥

क्षीणत्वं भवतः कृत्यं ततस्त्वं विषयं कुरु ।

द्रुतं गच्छ यथाकामं चन्द्रात् त्वं विमुखो भव ।। ५२ ।।

क्षीण करना आपका मुख्य कर्म होगा उसे तुम अपना उद्दिष्ट कर्त्तव्य बना लो । तुम चन्द्रमा को छोड़कर शीघ्र ही जहाँ चाहो चले जाओ ।। ५२ ।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

एवं विसृष्टो विधिना राजयक्ष्मा महागदः ।

पश्यतां सर्वदेवानामन्तर्धानं जगाम ह ।। ५३ ।।

मार्कण्डेय बोले- ब्रह्मा द्वारा इस प्रकार विदा किया हुआ राजयक्ष्मा नामक महान् रोग देवताओं के देखते ही देखते अन्तर्धान हो गया ।। ५३ ।।

अन्तर्हिते महारोगे ब्रह्मा लोकपितामहः ।

चन्द्रं समग्रयामास कलापञ्चदशैधितम् ।।५४।।

उस महारोग के अन्तर्धान हो जाने पर लोक पितामह ब्रह्मा ने चन्द्रमा को पन्द्रह कलाओं से बढ़ाकर उसे सम्पूर्ण कर दिया ।। ५४ ।।

तेन क्षीरोदधौतेन सुधापूतेन चात्मभूः ।

सज्योत्स्नैस्तु कलाचूर्णैः पूर्ववच्चाकरोद्विधुम् ।। ५५ ।।

आत्मभू ब्रह्मा ने उन क्षीर सागर से धुले हुए अमृत से पवित्र ज्योत्स्ना और कला के चूर्णों से चन्द्रमा को पहले के समान कर दिया ।। ५५ ।।

स षोडशकलापूर्णः पूर्ववद्विभौ यदा ।

चन्द्रस्तदा सर्वदेवा मुमुदुस्तस्य दर्शनात् ।। ५६ ।।

जब वह चन्द्रमा सोलह कलाओं से पहले की भाँति हो गया तब उसके दर्शन से सभी देवता प्रसन्न हो गये ॥ ५६ ॥

अथ चन्द्रस्तदा पूर्णः प्रणिपत्य पितामहम् ।

उवाचेदं सुरसदोमध्यगो नाति हर्षितः ।।५७।।

तब देवताओं के मध्य स्थित पूर्ण किन्तु बहुत प्रसन्न न हो चन्द्रमा, पितामह ब्रह्मा को प्रणाम कर यह बोले।।५७।।

।। सोम उवाच ।

न श्याम पूर्ववद् ब्रह्मञ्छशरीरे मम वर्तते ।

न वीर्यं वा तथोत्साहो निषीदन्त्यंगसन्धयः ।। ५८ ।।

चन्द्रमा बोले- हे ब्रह्मन् ! मेरे शरीर में पहले की भाँति आनन्द नहीं है और न उस प्रकार का पराक्रम या उत्साह ही है। अंगों की सन्धियाँ दुःख रहीं हैं ।। ५८ ।

नोत्सहे पूर्ववच्चेष्टां विधातुं सुतरामहम् ।

चेष्टाही नस्त्वनुदिनं वर्तेयं केन लोककृत् ।।५९।।

हे लोककर्त्ता ! मैं अब पहले की भाँति कार्य करने का जरा भी साहस नहीं रखता ऐसी दशा में निश्चेष्ट होकर मैं कैसे यह जीवन-यात्रा चला सकूँगा? ।। ५९ ।।

।। ब्रह्मोवाच ।।

ग्रस्तस्य यक्ष्मणा सोम यदभूदंगसन्धयः ।

पूर्वं विशीर्णा भवतस्तत्पूर्णमभवन्नहि ॥६०॥

ब्रह्मा बोलेहे चन्द्रदेव ! यक्ष्मा से ग्रस्त हो जाने से जो तुम्हारे अंगों की संधिया अर्थात् हड्डियों के जोड़ पहले नष्ट हो गये थे वे अभी भी पूर्ण नहीं हुई हैं ॥ ६० ॥

अधुना भवतो देहचूर्णं निःसारितं मया ।

शरीरात् सामृतज्योत्स्नमञ्जसा राजयक्ष्मणः ।।६१।।

इस समय मैंने राजयक्ष्मा के शरीर से अमृत तथा ज्योत्स्ना के सहित तुम्हारा देह चूर्ण, जो उसने हरण कर लिया था, निकाल लिया है ।। ६१ ।।

तेषां प्रक्षालनविधौ लवशो यत्स्थितं जले ।

ज्योत्स्नायाश्च सुधायाश्च तेन हीनो भवान् यतः ।। ६२ ।।

उनके जल में प्रक्षालन करते समय अमृत, ज्योत्स्ना तथा देहचूर्ण को जो अंश मात्र जल में अवशिष्ट रह गया उन्हीं के अभाव में तुम यह हीनता का अनुभव कर रहे हो ।। ६२ ।

ततोऽङ्गसन्धयो राजंस्तव सीदन्ति साम्प्रतम् ।

तस्योपायं विधास्यामि यथा नार्तिं लभेद्भवान् ।।६३।।

हे द्विजराज ! इसीलिए तुम्हारी अंगसंधिया इस समय व्यथित हैं। मैं उसका उपाय करूँगा, जिससे तुम्हें कष्ट न हो।।६३।।

प्राजापत्यः पुरोडाशो हवनीयः पुरोऽध्वरे ।

ऐन्द्रस्ततोऽनु चाग्नेयः प्रदेयः सर्वतः क्रतौ ।। ६४ ।।

ततो नु भवतो भागः पुरोडाशो मया कृतः ।

तेन भागेन भुक्तेन नित्यं यज्ञकृतेन हि ।

पूर्ववत् ते समुत्साहः श्यामवीर्यं भविष्यति ।।६५।।

प्राचीनकाल में प्रजापति के यज्ञ के समय हवनीय पुरोडाश* (आहुति विशेष) की इन्द्र, तत्पश्चात् अग्नि हेतु 'सभी यज्ञों में व्यवस्था है। उसी में मैंने आपके भी अंशभाग की व्यवस्था कर दी है। उस अपने अंशभाग के भोग तथा स्वयं भी नित्य यज्ञ करने से तुम्हारा उत्साह, कल्याण एवं शक्ति पूर्ववत् हो जाएगी ।। ६४-६५ ।।

* यक्ष्मा के मरीज को यदि खीर खिलाया जाय तथा वह यज्ञ शाला में स्वतः यज्ञ करे तो अग्नि, हविष्य गंध के प्रभाव से वह रोग मुक्त हो सकता है।

ये चामृतकणास्तोये क्षीरोदस्य स्थितास्तव ।

शरीरचूर्णं वा यत्ते ज्योत्स्नायाश्चापि ये लवाः ।। ६६ ।।

तत् सर्वं भवतो ज्योत्स्नायोगादनुदिनं विधो ।

वृद्धिं यास्यति सततं क्षीरसागरगर्भगम् ।।६७।।

हे चन्द्र ! जो तुम्हारे अमृत के कण, शरीर का चूर्ण, ज्योत्स्ना की बूँदे क्षीर सागर के जल में रह गई हैं। वही सभी आपके चाँदनी के संयोग से क्षीर-सागर के गर्भ में दिनों दिन निरन्तर बढ़ेंगी ।। ६६-६७ ।।

स्वारोचिषेऽन्तरे प्राप्ते द्वितीये शङ्करांशजः ।

दुर्वासा भविता विप्रः प्रचण्डश्चण्ड भानुवत् ।।६८।।

स्वारोचिष नामक द्वितीय मन्वन्तर में भगवान् शंकर के अंश से (तीक्ष्ण) सूर्य के समान प्रचण्ड दुर्वासा नामक एक ब्राह्मण होंगे ॥ ६८ ॥

स देवेन्द्रस्याविनयाच्छापं दत्वा सुदारुणम् ।

करिष्यति त्रिभुवनं निःश्रीकं ससुरासुरम् ।।६९।।

वह देवराज इन्द्र की उदण्डता से क्रुद्ध होकर भयानक शाप देकर देवता तथा राक्षसों के सहित तीनों लोकों को शोभारहित, श्रीहीन कर देंगे । ६९ ॥

श्रिया हीने ततो लोके भविता लोकविप्लवः ।

यथा तव क्षयात् सोम प्रवृत्तः सर्वविप्लवः ।।७० ।।

हे सोम ! तब उस समय भी लोक के श्रीहीन हो जाने पर जैसा तुम्हारे क्षय ग्रस्त हो जाने से सब जगह उथल-पुथल मच गई थी वैसे ही लोक में उथल-पुथल मच जाएगी ।। ७० ।

तन्मानुषप्रमाणेन तृतीये तु कृते युगे ।

भविष्यति स्थास्यति च यावद् युगचतुष्टयम् ।।७१।।

यह स्थिति मनुष्य के कालमान के तीसरे सत्युग में होवेगी तथा चौथे युग तक रहेगी ।। ७१ ।।

ततश्चतुर्थे सम्प्राप्ते सह देवैः कृते युगे ।

क्षीरोदं निर्मथिष्यामः शम्भुर्विष्णुरहं तथा ।

मन्थानं मन्दरं कृत्वा नेत्रं कृत्वा तु वासुकीम् ।।७२।।

तब चौथे चतुर्युग के प्राप्त होने पर सत्ययुग में सभी देवताओं के सहित शिव, विष्णु तथा मैं मन्दराचल को मथानी तथा वासुकी को उसे चलाने हेतु नेत्र (डोरविशेष) बना कर क्षीर सागर का मन्थन करेंगे ।। ७२ ।।

यज्ञभागेषु लीनेषु देवान्नार्थं वयं ततः ।

मथिष्यामः समं देवैः क्षीरोदं सह दानवैः ।।७३।

क्षीर सागर में लुप्त हुए देवताओं के उस यज्ञभाग के लिए देवताओं तथा दानवों के सहित क्षीर सागर को मथेंगे ॥ ७३ ॥

त्वच्छरीरामृतमिदं यत्स्थितं क्षीरसागरे ।

तत् प्रमथ्य ग्रहीष्यामो राशीभूतं तथा क्षयम् ।।७४।

क्षीर सागर में तुम्हारे शरीर से निकल कर जो अमृत नष्ट हो, इकट्ठा हो स्थित है, उसे मथकर हम वह ग्रहण करेंगे।।७४।।

सर्वौषध्यन्तरे कृत्वा त्वच्छरीरं तदा वयम् ।

क्षेप्स्यामः सागरजले शरीरार्थं विधो तव ।।७५।।

हे विधु ! तब हम तुम्हारे शरीर को सभी औषधियों से संयुक्त कर उसके कल्याण हेतु उसे क्षीर सागर के जल में फेंक देंगे ।। ७५ ।।

निर्मथ्य सागरं पश्चात् समुद्धार्य यदामृतम् ।

तदा तव वपुस्तस्मिन् पूर्ववत् सम्भवविष्यति ।। ७६ ।।

उसके बाद पुनः समुद्र का मन्थन कर जब अमृत का उद्धार करेंगे तब उस समय तुम्हारा शरीर पूर्ववत् हो जायेगा।।७६।।

ओजोवीर्याद्भुतं कान्तमक्षयंच सुधात्मकम् ।

दृढाङ्गसन्धिकं चारु भविष्यति वपुस्तव ।।७७ ।।

उस समय तुम्हारा शरीर ओज, वीर्य, अद्भुत कांति से युक्त, अक्षय, अमृतमय, दृढ़ अङ्गसंधि (जोड़ों) वाला तथा सुन्दर हो जायेगा ।। ७७ ।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

सुधांशुमेवमाभाष्य ब्रह्मा लोकपितामहः ।

विधोः क्षयाय मासार्धं वृद्धये यत्नवानभूत् ।।७८।।

मार्कण्डेय बोले- चन्द्रमा से इस प्रकार कह कर लोकपितामह ब्रह्मा उसके एक मासार्ध (पक्ष) तक क्षय तथा दूसरे पक्ष तक वृद्धि हेतु प्रयत्न करने लगे ॥ ७८ ॥

यथा दक्षेण गदितं मासार्थं यातु चन्द्रमाः ।

क्षयं वृद्धिं च मासार्धं यत्नं तत्राकरोद्विधिः ।। ७९ ।।

वही प्रयत्न ब्रह्मा ने किया, जिससे दक्ष का यह कथन सफल हो कि चन्द्रमा एक पक्ष में क्षय तथा दूसरे पक्ष में वृद्धि को प्राप्त करे ।। ७९ ।।

ततः षोडशधा चन्द्रं सुरज्येष्ठो विभक्तवान् ।

विभज्य च सुरान् सर्वान् समुवाचेदमुत्तमम् ॥८०॥

तब सुरज्येष्ठ ब्रह्मा ने चन्द्रमा का सोलह भागों में विभाजन किया और विभाजन कर वहाँ उपस्थित देवगणों से यह उत्तम वचन कहा॥ ८० ॥

कलाः षोडश चन्द्रस्य तत्रैका शम्भुमूर्धनि ।

तिष्ठत्वद्यावधि परा क्षयं यान्तु क्षयं विना ।।८१ ।।

जो चन्द्रमा की सोलह कलाएँ हैं उनमें से एक आज से शिव के मस्तक पर विराजमान रहे, तथा अन्य १५ बिना क्षय के ही क्षय को प्राप्त होवें ॥। ८१ ॥

क्षयेण यदि रोगेण मासार्धं दक्षवाक्यतः ।

क्षयाय पीड्यते चन्द्रो नोपशान्तिस्तदा भवेत् ।।८२ ।।

दक्ष के वचनानुसार चन्द्रमा क्षय रोग से पीड़ित हो क्षय (ह्रास) को प्राप्त होता है तो शान्ति नहीं मिलेगी ।।८२।।

किंत्वस्य या कला शम्भौ ज्योत्स्ना गच्छतु तां प्रति ।

चतुर्दशकलासंस्थाः प्रतिमासं सुरोत्तमाः ।। ८३ ।।

किन्तु हे सुरोत्तमों ! इसकी जो कला शिव के शिर पर रहेगी, चौदह कलाओं में स्थित ज्योत्स्ना प्रतिमाह वही ले जाया करेगी ।। ८३ ।।

चतुर्दशकलासंस्थान्यमृतानि पिबन्तु वै ।

प्रतिपत्तिथिमारभ्य भवन्तस्तां चतुर्दशीम् ।।८४॥

'प्रतिपद् तिथि से आरम्भ कर चतुर्दशी तिथि तक चौदह कलाओं में स्थित अमृत का पान भी आप सब करेंगे ॥ ८४ ॥

तेजोभोगाः सूर्य्यबिम्बं चतुर्दशतिथौ क्रमात् ।

प्रविशन्तु क्षयं त्वेवं कृष्णपक्षे विधोर्भवेत् ।। ८५ ।।

चन्द्रमा का तेज भाग भी चौदह तिथियों में क्रमशः सूर्यबिम्ब में प्रवेश कर जायेगा। इस प्रकार कृष्णपक्ष में चन्द्रमा क्षय को प्राप्त होगा ।। ८५ ।।

यातु शेष कला दर्शे हरित्पत्रे पलायिता ।

तिष्ठतु प्रथमे भागे तिथौ तस्यां निशापतेः ।। ८६ ।।

चन्द्रमा की शेष पन्द्रहवीं कला जो अमावस्या को भागकर हरितपत्र (हरित कुशा) में छिप गई थी वह तिथि के पहले भाग में वहीं निवास करे ।। ८६ ।।

द्वितीये दर्शभागे तु रोहिण्या यातु मन्दिरम् ।

तृतीये तु सरस्वत्यां स्नात्वा समुत्थितो विधुः ॥८७।।

चतुर्थे बलसम्पूर्णस्तिथिभागे विभावसोः ।

मण्डलं यातु चन्द्रोऽयं सविम्बस्थघोटकः ॥८८ ।।

अमावस्या के द्वितीय भाग में रोहिणी के भवन तथा तृतीय भाग में सरस्वती में स्नान कर चन्द्रमा पुनः उठे एवं चौथे भाग में बल से युक्त होकर बिम्ब और वाहन से युक्त सूर्यमण्डल में जाय ।। ८७-८८ ।।

यावत् कालेन हि कला प्रथमा क्षयमाप्नुयात् ।

एवमेवं कृष्णपक्षे तावत् सा प्रतिपद् भवेत् ।।८९।।

कृष्ण पक्ष में जितने समय में चन्द्रमा की प्रथम कला क्षय को प्राप्त हो वह समय प्रतिपद् तिथि होवेगी ।। ८९ ।।

द्वितीयादौ कृष्णपक्षे वृद्धि - ह्रासस्तथाविधः ।

तिथीनां वृद्धिहेतुश्च शुक्ले कृष्णे तथा भवेत् ।। ९० ।।

शुक्ल पक्ष की द्वितीया से वृद्धि तथा कृष्ण पक्ष की द्वितीया से ह्रास उसी प्रकार होता है । यही शुक्ल पक्ष में तिथि वृद्धि तथा कृष्ण पक्ष में तिथि -हास का कारण होता है ।। ९० ॥

ततः पुनः शुक्लपक्षे यावत् पूर्वकलोदिता ।

वृद्धिं नैति भवेत्तावत् प्रतिपत्तिथिरादितः ।।९१।।

पुनः शुक्ल पक्ष में पहले कही हुई अमावस्या की कला तब तक वृद्धि को प्राप्त नहीं होती जब तक प्रारम्भ से प्रतिपद् तिथि रहती है ।। ९१ ।।

ततो द्वितीयभागस्य या ज्योत्स्ना हरमूर्धनि ।

स्थिता या वै कला यातु गता सा पुनरेष्यति ।। ९२ ।।

तब द्वितीय भाग की ज्योत्स्ना जो शिव के मस्तक पर स्थित कला में चली गई थी वह पुन: वापस आयेगी ।।९२।।

युष्माभिस्तु भवेत् पेयममृतं यद्दिने दिने ।

तद्द्वितीयादितिथिभिः पूर्णान्ताभिः सदैव हि ।

स्वयमुत्पत्स्यते चन्द्रो ज्योत्स्नायोगात् सुरोत्तमाः ।। ९३ ।।

हे सुरोत्तमों ! आप लोगों ने जो भी अमृत प्रतिदिन पान किया था वही द्वितीया से पूर्णिमा पर्यन्त सदैव चन्द्रमा ज्योत्स्ना के संयोग से उत्पन्न करेगा ।। ९३ ।

यथा दिने दिने भागाः क्षयं यान्ति तथा विधोः ।

वृद्धिं गच्छन्त्यनुदिनं शुक्लपक्षेऽन्वहं सुराः ।।९४।।

हे देवगण ! कृष्ण पक्ष में जैसे-जैसे चन्द्रमा के अंश दिन-दिन क्षय को प्राप्त होते हैं वैसे ही शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त करते हैं ।। ९४ ।।

तेजोभागः सूर्यबिम्बात् पुनरेव समेष्यति ।

प्रयास्यति कृष्णपक्षे यथा भागक्रमं तथा ।। ९५ ।।

सूर्यबिम्ब से तेज भाग वैसे ही पुनः आ जाएगा जैसे कृष्ण पक्ष में क्रमश: गया होगा ।। ९५ ।।

ज्योत्स्ना हरशिरश्चन्द्रात् प्रत्यहं पुनरेष्यति ।

तेजोभागः सूर्यबिम्बादमृतं वर्षति स्वयम् ।।९६ ।

शिव के मस्तक पर स्थित चन्द्रमा से ज्योत्स्ना प्रतिदिन वापस आयेगी।सूर्यबिम्ब से तेज भाग स्वयं अमृत वर्षायेगा।।९६।।

एवं वृद्धिः शुक्लपक्षे सुधांशोः सम्भविष्यति ।

पक्षयोः शुक्लकृष्णत्वं चन्द्रवृद्धिक्षयाद्भवेत् ।। ९७।।

इस प्रकार शुक्ल पक्ष में सुधांशु चन्द्र की वृद्धि होवेगी तथा पक्ष की शुक्ला एवं कृष्णता उसकी वृद्धि एवं क्षय के कारण होंगे ।। ९७ ।।

यावत् कालेन यो भागः क्षयं वृद्धिंच यास्यति ।

तावत् कालमभिव्याप्य तिथि: स्थास्यति सा पुनः ।। ९८ ।।

जितने समय तक जो हिस्सा क्षय या वृद्धि को प्राप्त करेगा उतने समय तक वह तिथि व्याप्त होकर बार-बार स्थित रहेगी ।। ९८ ।।

चिरेण वृद्धिर्यदि वा क्षयो वा द्रुतेन वृद्धिर्यदिवा क्षयो वा ।

द्रुतातिथीनान्तु सदा क्षयः स्याच्चिरातु वृद्धिस्तिथिषु प्रवेशे ।। ९९ ।।

यह वृद्धि या क्षय धीरे-धीरे भी होता है अथवा शीघ्रता से भी होता है। जिन तिथियों में शीघ्रता से यह होता है वे क्षय तिथियाँ तथा जिनमें धीरे-धीरे होता है वे वृद्धि युक्त तिथियाँ कही जाती हैं ।। ९९ ।।

हव्यं कव्यञ्च चन्द्रेण विना न सम्भविष्यति ।

तस्मात्तयोः प्रवृद्धयर्थं चन्द्रं रक्षन्तु देवताः ।। १०० ।।

चन्द्रमा के बिना न हव्य (देवान्न) और न कव्य (पितृ भाग के अन्न) उत्पन्न हो सकते हैं। इसलिए उनकी वृद्धि हेतु देवता चन्द्रमा की रक्षा करें ॥। १०० ।।

आस्वादनीयः शुभ्रांशुः कलाशेषोऽनुमासतः ।

अमावास्यापराधें तु पितृभी रोहिणीगृहे ।। १०१ ।।

तस्यैवास्वादनात् कव्यं वृद्धिं यास्यति चान्वहम् ।

तेन कव्येन पितरस्तृप्तिं यास्यन्ति वै पराम् ।। १०२ ।।

चन्द्रमा अमावस्या के अगले मासांश में देवताओं द्वारा आस्वादनीय हैं अर्थात् देवकार्य साधक हैं तथा अमावस्या के अपर (पूर्ववर्ती) पक्ष में रोहिणी के घर में स्थित हो पितरों द्वारा सेवनीय है। उसके ही आस्वादन से कृष्ण पक्ष में प्रतिदिन कव्य की वृद्धि होवेगी, तथा उसी कव्य में पितृगण परम संतुष्टि को प्राप्त करेंगे ॥ १०१-१०२ ।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

ततः सुरगणाः सर्वे यथोक्तं विधिना तथा ।

चक्रुर्लोकहितार्थाय चन्द्रस्य क्षय वृद्धये ।। १०३ ।।

मार्कण्डेय बोले- तब लोक के कल्याण के लिए तथा चन्द्रमा की क्षय- वृद्धि के सम्बन्ध में ब्रह्मा ने जैसा कहा था वैसा ही सभी देवताओं ने किया ।। १०३ ॥

महादेवोऽपि चन्द्रार्धं स्वरूपं परमात्मनः ।

जग्राह देवैर्विधिना शिरसा गदितो भृशम् ।। १०४ ।।

महादेव ने भी देवताओं एवं ब्रह्मा के बहुत अधिक कहे जाने पर परमात्मा के चन्द्रार्ध रूप को शिर पर धारण कर लिया ।। १०४ ।।

यत्तेजः परमं नित्यमजमव्ययमक्षयम् ।

तत्स्वरूपा चन्द्रकला शापतस्तु क्षयं गता ।। १०५ ।।

परमात्मा का जो तेज परम, नित्य, अज, अव्यय और अक्षय था वही दक्षशाप के कारण चन्द्रकला के रूप में क्षय को प्राप्त हुआ ।। १०५ ।।

प्रविशति यदा ज्योतिरानन्दमजरं परम् ।

योगिनस्तु तदा तेषां चिन्तनं लीनमेष्यति ।। १०६ ।।

यही ज्योति जब अजर, परम आनन्द रूप, शिव के सिर स्थित चन्द्र कला मे प्रवेश करेगी तब योगीजन उनके चिन्तन में लीन होवेंगे ॥ १०६ ॥

महादेवशिर: संस्थे लीने चित्ते सुधानिधौ ।

चन्द्रद्वारा भवेन्मुक्तिरित्येवं वैदिकी श्रुतिः ।। १०७ ।।

महादेव के शिर पर स्थित चन्द्रमा में चित्त लीन होने की दशा के ही विषय में यह वैदिक कथन है कि चन्द्रमा द्वारा मुक्ति प्राप्त होती है ।। १०७ ।।

एतज् ज्ञात्वा महादेवः क्षयवृद्ध्यविनाकृतम् ।

हिताय सर्वलोकानां जग्राह शिरसा विधुम् ।। १०८ ।।

यह जानकर ही महादेव ने क्षय और वृद्धि से रहित चन्द्रमा को सभी लोकों के कल्याण हेतु अपने शिर पर धारण कर लिया ।। १०८ ।।

चन्द्रज्योत्स्नासमायोगादौषध्यो यान्ति वृद्धये ।

सर्वोषधिषु वृद्धासु प्रवर्तन्ते ततोऽध्वराः ।। १०९ ।।

तब चन्द्रमा और उसकी ज्योत्स्ना के संयोग से औषधियाँ बढ़ने लगीं। उन औषधियों के बढ़ जाने पर यज्ञ भी होने लगे ॥ १०९ ॥

अध्वरेषु प्रवृत्तेषु स्वान् स्वान् भागांस्तु देवताः ।

परिगृह्णन्ति पितरस्तथा कव्यानि भूरिशः ।। ११० ।।

यज्ञों के होने पर देवगण अपना-अपना भाग तथा पितृगण बहुत अधिक मात्रा में कव्य ग्रहण करते हैं ।। ११० ।।

अमृतं ब्रह्मणा सृष्टं यद् देवेभ्यः पुरातनम् ।

तेन तृप्यन्ति हीना ये हव्यभागेन देवताः ।। १११ ।।

प्राचीनकाल में देवताओं के लिए ब्रह्मा ने जिस अमृत की सृष्टि की थी, हव्य भाग से हीन देवता उसी से (कृष्ण पक्ष) में तृप्ति को प्राप्त करते हैं ।। १११ ॥

यज्ञेनाप्यायितं तच्च ज्योत्स्नाभिर्वृद्धिमेति वै ।

यज्ञज्योत्स्ना विनाभूतं तच्च स्यात् क्षीणमन्यथा ।। ११२ ।।

वह भी यज्ञ से ही हृष्ट-पुष्ट होता तथा ज्योत्स्ना से वृद्धि को प्राप्त करता है । अन्यथा यज्ञ और ज्योत्स्ना के अभाव में वह भी क्षीण हो जावे ।। ११२ ॥

अतोऽमृतस्य यज्ञस्य चन्द्रमाः कारणं स्वयम् ।

अतो दक्षस्य शापात्तु रक्षायै तच्चिकीर्षितम् ।।११३।।

अतः अमृत एवं यज्ञ दोनों की ही रक्षा का कारण स्वयं चन्द्रमा है अतः उसकी दक्ष शाप से रक्षा करनी चाहिये ।। ११३ ॥

अद्यापि कृष्णपक्षे तु सुधांशुः पीयते सुरैः ।

तेजः सूर्यं याति शम्भुं चन्द्रार्धं ज्योत्स्निका यथा ।। ११४ ।।

आज भी कृष्ण पक्ष में उसके अमृत का पान देवगण करते हैं, तेज सूर्य को चला जाता है तथा शिव के मस्तक पर स्थित चन्द्रार्ध ज्योत्स्ना को ग्रहण कर लेता है ।। ११४ ।।

पुनश्च शुक्लपक्षे तु शेषोदेति कला ततः ।

ज्योत्स्नाद्वितीयो भागस्तु तेजोभागो द्वितीयकः ।। ११५ ।।

पुनः शुक्ल पक्ष में जब चन्द्रकला का उदय होता है तो ज्योत्स्ना एवं तेज का दूसरा भाग तथा अन्य भी उग्र (शिव) के शिर पर स्थित चन्द्रमा तथा सूर्यबिम्ब से क्रमशः आती है ॥ ११५ ॥

अन्येऽत्युग्रशिरश्चन्द्रात् सूर्यविम्बाद् यथाक्रमम् ।

कलाः षोडश चन्द्रस्य तत्रैका शम्भुशेखरे ।। ११६ ।।

चन्द्रमा की एक सोलहवीं कला शिव के शिखर पर स्थित है यही शुक्ल और कृष्ण पक्ष में शेष कलाओं के उदय एवं क्षय में सहायक है ।। ११६ ॥

सितासितावुभौ पक्षौ शेषाणामुदयक्षयौ ।

इति वः सर्वमाख्यातं विभक्तश्चन्द्रमा यथा ।

ब्रह्मणा पर्वतश्रेष्ठे यथो तच्चन्द्रभागतः ।। ११७।।

यज्ञभागे स्थिते यस्माद्देवान्नमकरोद्विधुम् ।

कव्ये स्थितेऽपि पित्रन्नं तिथिवृद्धि-क्षयो यथा ।। ११८ ।।

यह ब्रह्मा ने उस चन्द्रभाग पर्वत पर जिस प्रकार चन्द्रमा का विभाजन किया था तथा जिस प्रकार चन्द्रमा को यज्ञ भाग मिला, देवताओं को यज्ञभाग के रूप में हव्य तथा पितरों को कव्य में स्थित पित्रान्न प्राप्त हुआ तथा तिथियों के क्षय एवं वृद्धि की व्यवस्था हुई, वह सब मैंने आप लोगों को कह सुनाया है ।। ११७-११८ ।।

इदं पुण्यतमाख्यानं यः शृणोति सकृन्नरः ।

राजयक्ष्मा तस्य कुले न कदाचिद् भविष्यति ।। ११९ ।।

यक्ष्मणा परिभूतो यः शृणोति वचनं विधेः ।। १२० ।।

ब्रह्मा द्वारा कहे इस अत्यन्त पुण्यमय, कल्याणकारी आख्यान को यक्ष्माग्रस्त जो पुरुष एक बार भी सुनता है, कभी भी उसके कुल में राज यक्ष्मा का रोग नहीं होता ।। ११९-१२० ॥

इदं स्वस्त्ययनं पुण्यं गुह्याद्गुह्यातमं शुभम् ।

यः शृणोत्येकचित्तः सन् स महापुण्यभाग्भवेत् ।। १२१ ।।

जो एकाग्रचित्त होकर इस पवित्र, कल्याणकारी, शुभ, गुप्त से गुप्त, आख्यान को सुनता है वह महान् पुण्यवान् होता है ॥ १२१ ॥

॥ इति श्रीकालिकापुराणे चन्द्रशाप-मोक्षणं नाम एकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥

कालिका पुराण अध्याय २१- संक्षिप्त कथानक

ब्रह्माजी ने कहा- हे सुरगणों! अब आप सब लोग दक्ष प्रजापति के गृह को चले जाइए और उनको प्रसन्न करिए कि चन्द्रदेव का अर्थात उनके क्षीण होने का महारोग दूर हो जावे । चन्द्रदेव के परिपूर्ण हो जाने पर सम्पूर्ण जगत् प्रकृति में स्थित हो जायेगा और आपको भी शान्ति की प्राप्ति हो जायेगी तथा समस्त औषधियों की समुत्पत्ति भी हो जायेगी ।

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- ब्रह्माजी के इस वचनामृत का श्रवण करके समस्त देवगण जिनमें इन्द्रदेव सबके आगे चलने वाले नायक से परम प्रसन्न मन वाले होते हुए उस समय में दक्ष प्रजापति के सदन अर्थात निवास स्थान पर गए थे। वहाँ पर सब सुरगणों ने नीति के अनुसार उपस्थान करके मुनिवर प्रजापति दक्ष को प्रणाम करके बहुत ही विनम्रता संयुत मधुर वाणी से उन्होंने कहा।

देवों ने कहा- हे ब्राह्मण! अत्यन्त दुःखित हमारे ऊपर प्रसन्न होइये, हे महाबुद्धे ! हमारी इस शोक के सागर से रक्षा कीजिए और उद्धार करिए । सृष्टि की रचना करने वाले परमात्मा का ब्रह्मा संज्ञा वाला जो रूप है उन्हीं के अंश समस्त जगतों के आप परम ज्योति हैं । हे विप्ररूप ! आपके लिए हमारा नमस्कार है । प्रजा की रक्षा करने से और प्रजा के पालन करने के कारण से दक्ष और प्रजापति आप योगेश हैं, आपको हम प्रणाम करते हैं ।

समस्त जगतों की रक्षा के लिए और कुशल आत्मा वालों के लिए तथा आत्मा के हित के लिए, दक्ष के लिए, महात्मा के लिए शीघ्र आपके लिए नमस्कार है । नियत इन्द्रियों वाले योगियों के द्वारा निरन्तर चिन्तन किये हुए सार का भी आप सारभूत हैं। ऐसे परमात्मा दक्ष के लिए नमस्कार है । योगियों की वृत्ति को अनाधृष्ट करके पारगामियों में परायण सहसा ही आद्यन्त्र कहा गया है उनके लिए नित्य ही नमस्कार है, नमस्कार है । इन प्रकार से कहे हुए उन यज्ञ के भागों का सेवन करने वालों के वचन को सुनकर दक्ष प्रसन्न मुखवाला होकर मुख्य रूप से इन्द्रदेव को सम्बोधित करके बोले ।

दक्ष ने कहा- हे महाबाहो ! हे इन्द्रदेव! आपको यह महान् दुःख कैसे प्राप्त हो गया है ? हे विभो ! आप इस दुःख का हेतु तो बतलाइए। मैं उसके श्रवण करने की इच्छा कर रहा हूँ । आप लोगों के दुःख को दूर करने के लिए मेरा क्या कर्त्तव्य होता है ? उसको यदि मैं कर सकता हूँ तो अवश्य ही करूँगा ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा-उस महान आत्मा वाले ब्रह्माजी पुत्र के वचन का श्रवण करके नीतिक्षेत्र वाक्पति इन्द्रदेव ने उस महामुनि से कहा था।

शचीपतिशक्र ने कहा- निशानाथ चन्द्रक्षयी अर्थात् क्षय होने वाला हो गया है। उसके क्षीण हो जाने पर सभी औषधियां क्षय को प्राप्त हो गई हैं । हे द्विजश्रेष्ठ, उनकी हानि यज्ञों की हानि करने वाली हैं। कुछ तो प्रजा वृष्टि के अभाव से महान दुःख को पाकर नष्ट हो गई है । यह निशानाथ चन्द्रमा का जो क्षय है वह आपके ही कोप से प्रवृत्त हो गया है और इस क्षय से पूरे जगत् का ही विनाश हो जायेगा । इस समय में ऐसा कुछ भी नहीं है जो क्षोभ से युक्त न हो। हे विप्रेन्द्र ! इस समय सभी विलुप्त हैं चाहे स्थावर हो या जंगम होवे या पतंग ही होवे । इस समय से न तो यज्ञ सम्प्रवत्त हो रहे हैं और तापस गण ही तपश्चर्या किया करते हैं । आहार के अभाव के कारण होने वाले दुःख से समस्त प्रजा क्षीण और भय से आतुर हैं। हे विपेन्द्र ! ऐसा प्रवृत्त होने पर इस रसातलिक से जब तक दैत्य उठकर बाधा नहीं पहुँचाते हैं तभी तक आप उद्धार कीजिए । हे दक्ष ! चन्द्रदेव पर प्रसन्न होइए और अपने तप के बल से उसे पूर्ण बना दीजिए । चन्द्रदेव के परिपूर्ण हो जाने पर सम्पूर्ण जगत् प्रकृति में स्थित हो जायेगा ।

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- इस प्रकार से उसके वचन का श्रवण करके उस समय में प्रजापति के उन सुरगणों से हृदय के शल्य का उद्धार करते हुए बोले ।

दक्ष प्रजापति ने कहा- जो मेरा वचन निशानाथ चन्द्र में शाप का व्यसन कर प्रवृत्त हुआ है उसको किसी भी निदान के द्वारा मैं मिथ्याभूत करने का उत्साह नहीं करता हूँ। किन्तु मेरा वचन एकान्त रूप से जिससे वृथा न होवे और चन्द्र भी बढ़ता रहे, जिससे वही उपाय देखिए । उसमें भी एक उपाय है कि जो चन्द्रमा मास के आधे भाग में क्षय और वृद्धि को प्राप्त होकर भार्याओं से समान बर्ताव करे । उस प्रजापति को प्रसन्न करके उसके उस वचन का श्रवण करके समस्त देवगण वहाँ पर गये थे जहाँ पर चन्द्रमा रहता है। हे द्विजो ! दक्ष मुनि के द्वारा इस प्रकार से वचन के कहने पर इसके अनन्तर उस समय में भार्याओं के सहित चन्द्रमा का समादान करके वे परम प्रसन्न सुरश्रेष्ठ ब्रह्माजी के भवन में गये थे । हे महाभागो ! वहाँ पर पहुँचकर जैसा दक्ष प्रजापति ने कहा था वह सभी परमात्मा ब्रह्माजी से उन्होंने कह दिया था ।

उस समय में ब्रह्माजी देवों के मुख से दक्ष प्रजापति के वचन का श्रवण करके वे फिर सब सुरों के साथ चन्द्रभाग नामक पर्वत पर जो कि एक महान् पर्वत था वहाँ चले गये थे । वहाँ पर सुरों के श्रेष्ठ ने जाकर प्रजाओं के हित की कामना से वृहल्लोहित पुष्प में चन्द्रदेव को स्थापित कर दिया था । उस सरोवर में स्नान करने वाले जन्तु को निरोगता हो जाया करती है । बृहल्लोहित नाम वाले सरोवर में स्नान करने से प्राणी चिरायु अर्थात् बड़ी उम्र वाला हो जाया करता है । वहाँ पर स्नान किए हुए चन्द्र के शरीर से उसी क्षण में रोग निकल गया था जिसका नाम राज्यक्ष्मा था जैसा कि पूर्व रूप कहा गया है । राज्यक्ष्मा भी निकलकर जगत् के पति ब्रह्माजी को प्रणाम करके उससे बोला था कि मैं क्या करूँगा और कहाँ पर जाऊँगा। क्योंकि आप इस सम्पूर्ण जगत् के सृजन करने वाले हैं अतएव हे लोकेश ! मेरा सनातन कृत्य- स्थान और पत्नी को मेरे ही अनुरूप निर्देश कीजिए ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- इसके अनन्तर चन्द्रमा के शरीर में स्थित अभियुक्त अमृतों से परिपुष्ट उसको देखकर और क्षीण हुए चन्द्रमा को देखकर उन्होंने स्वयं ही हाथों से उसका ग्रहण करके गिरि में बारम्बार निष्पीडित किया था और उस राजयक्ष्मों के शरीर से उस अमृत को गालित किया था । उस समय में जो शीघ्र ही अमृत जल में गलित किए गये थे । लोकभृत ने क्षीरसागर के मध्य में एकान्त में प्रक्षिप्त कर दिया था । जो पहले उसके उस अमृत से चन्द्र की कलाएं क्षीण हो गयी थीं उनके चूर्णों को क्षीरोद सागर से लव से ग्रहण किया था। राजयक्ष्मा के संसर्ग से एक कला मात्र ही शेष वाले इसकी क्षीण हुई पन्द्रह कलाएं जो पूर्व में अमृत से परिपूर्ण थीं वे राज्यक्ष्मा के गर्भ में स्थित थीं और पीड़ा से तृष्णीभूत थीं वे ज्योत्स्ना के अमृतों से जो कलपापति का निबद्ध शरीर था वह राजयक्ष्मा के गर्भ में स्थित तीन प्रकार का हो गया था ।

वह ज्योति से परिपूर्ण हो गया था और ज्योत्स्ना राजयक्ष्मा में लीन हो गई थी और रोग के गर्भ में स्थित सम्पूर्ण सुधा द्रवीभूत हो गई थी । जिस समय ब्रह्माजी ने राजयक्ष्मा के अन्तर से सुधा को निर्गलित किया था उस समय समस्त ज्योत्सना सुधा की ज्योति उससे बहिर्गत हो गई थी। उसी समय विधाता के द्वारा वह सम्पूर्ण क्षीरोद सागर में प्रक्षिप्त कर दी गयी थी। उन देवों को उस पर्वत में परित्याग करके वह स्वयं वहाँ से शीघ्र ही गमन कर गये थे। इसके उपरान्त कलापूर्ण अमृतों का जल से प्रक्षालित करके उन तीनों को ग्रहण करके शीघ्र ही ज्योत्सना का भी प्रक्षालन करके उस गिरि पर समागत हो गए थे। उस समय विधाता क्षीरोद से चन्द्रभाग पर्वत पर पहुँचकर देवों के मध्य में ज्योत्स्ना कलाओं के चूर्ण में प्रवृष्टि हो गयी थी । ब्रह्माजी ने उन तीनों को संस्थापित करके वे देवों के मध्य में संस्थित हो गए थे। उसके स्थान आदि के विषय में निर्देश करते हुए उन्होंने राजयक्ष्मा से कहा था ।

ब्रह्माजी ने कहा- हे राजयक्ष्मा ! जो सर्वदा ही रात दिन व सन्ध्या के समय में वनिता में रत रहा करता है और उसमें सुरत को सेवन किया करता है वहाँ पर ही आप निवास करेंगे। जो प्रतिश्याय (जुकाम- सर्दी) श्वास और कास से समन्वित होता हुआ भी मैथुन को समाचरण किया करता है और श्लेष्मा (कफ) का उसी प्रकार वाला हुआ करता है उसमें ही आपका प्रवेश होना चाहिए। जो कृष्णनाम वाली मृत्यु की पुत्री है और आपके गुणों के ही तुल्य है वही आपकी भार्या होवेगी जो निरन्तर ही आपका अनुगमन किया करेगी। आपका कर्म भी यही है कि जो क्षीणता करें उसी को आप अपना विषय बना लेवें। अब आप बहुत ही शीघ्र चले जाइए और आप चन्द्र से विमुख हो जाइए।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा-इस रीति से विधाता के द्वारा विदा किया गया महान रोग राजयक्ष्मा समस्त देवगणों के देखते हुए ही अन्तर्धान को प्राप्त हो गया था। उस महान रोग के अर्न्तधान हो जाने पर लोकों के पितामह ब्रह्माजी ने चन्द्रमा को पन्द्रह कलाओं के द्वारा समृद्धिपूर्ण कर दिया था। फिर ब्रह्माजी ने सुता से पूत और क्षीरोद से धौत उसके द्वारा तथा ज्योत्स्ना के सहित कलाओं के चूर्णों से पूर्व की ही भांति चन्द्रदेव को कर दिया था। जिस समय में सोलह कलाओं से परिपूर्ण चन्द्र पूर्व की ही भाँति शोभित था उस समय में समस्त देवगण उसके दर्शन से बहुत अधिक प्रसन्न हुए थे । इसके अनन्तर उस पूर्ण चन्द्र ने पितामह के लिए प्रणिपात किया था । अत्यन्त हर्षित न होते हुए सुरों ने सभा के मध्य में संस्थित होते हुए यह वचन कहा था ।

सोमदेव ने कहा- हे ब्रह्माजी ! मेरे शरीर में पूर्व की ही भाँति श्यामलता नहीं है और न तो वैसा पराक्रम है और न वैसा उत्साह ही है। मेरे अंग की सन्धियाँ निषीदित हैं। मैं पहली की ही भाँति चेष्टायें करने के लिए सुनरा अर्थात् अपने आप ही उत्साहित नहीं होता हूँ । हे लोककृत ! मैं निरन्तर चेष्टा से हीन होता हुआ किस कारण से रहता हूँ?

ब्रह्माजी ने कहा- हे सोम! यक्ष्मा के द्वारा ग्रस्त आपकी जो अंग की सन्धियाँ हो गई हैं वे पूर्व में विकीर्ण हो गई हैं और अब वह पूर्णता को प्राप्त नहीं है। अब इस समय में मैंने आपसे देह का चूर्ण निकाल दिया है । राजयक्ष्मा के शरीर से अमृत की ज्योत्सना शीघ्र ही निकाल दी है । उनके प्रक्षालन की विधि में जो लव के रूप में जल में स्थित है क्योंकि आप ज्योत्सना से और सुधा से उसी से हीन हैं । इसके उपरान्त आपकी अंग संधियां, हे राजन! इस समय में सीदित हो रही हैं। उपाय भी मैं करूँगा जिससे आप किसी पीड़ा को प्राप्त न होवें । पुर के अध्वर में प्राजापत्य पुरोडाश का हवन करना चाहिए । इसके उपरान्त ऐन्द्र और पीछे आग्नेय सभी ऋतुओं में देना चाहिए। इसके अनन्तर आपका भाग पुरोडाश मैंने किया है। उस भाग करने वाले जो नित्य ही यज्ञ के द्वारा कृत है पूर्व की ही भाँति आपका उत्साह और श्याम वीर्य हो जायेगा। जो आपके अमृत के कण क्षीरोद के जल में स्थित हैं अथवा आपके शरीर का चूर्ण और ज्योत्सना के जो लव हैं । हे विभो ! वह सब आपकी ज्योत्सना योग से अनुदिन वृद्धि को प्राप्त होगा जो निरन्तर क्षीर सागर के गर्भ में गमन करने वाला है । द्वितीय स्वरोचिष के अन्तर के प्राप्त होने पर शंकर के अंश से जायमान दुर्वासा विप्र सूर्य की ही भाँति प्रचण्ड और चण्ड होगा। उसने देवेन्द्र के अविनय से सदारुण शाप दे दिया था । सुर और असुरों से सहित तीनों भुवनों को बिना श्री वाला कर देगा फिर लोक के श्री से हीन होने पर लोक में विप्लव हो जायेगा । हे सोम! जिस तरह से आपके क्षय होने से सबका विप्लव प्रवृत्त हो गया था ।

वह मनुष्य के प्रमाण से तीसरे कृत युग में होगा और जब तक चारों युग होंगे स्थित होगा। इसके अनन्तर देवों के साथ चतुर्थ कृतयुग के सम्प्राप्त होने पर मैं शम्भु और विष्णु क्षीरोद का निर्मन्थन करेंगे । मन्दराचल को मन्थन करके अर्थात् मथान करने का साधन बनाकर फिर वासुकि सर्प का नेतरा बनायेंगे। यज्ञ भागों के लीन होने पर देवान्न के लिए हम फिर देवों के साथ दानवों के साथ मिलकर क्षीरोद का मन्थन करेंगे । आपके शरीर का यह अमृत जो क्षीरसागर में स्थित है उसको प्रमथन करके हम राशिभूत तथा क्षय को ग्रहण करेंगे। उस समय में हम आपके शरीर को सर्वोषधियों के अनन्तर से करके हे विभो ! आपके शरीर के लिए सागर के जल में प्रथिप्त कर देंगे। सागर का निर्मन्थन करके और पीछे जब अमृत का समुद्धरण करेंगे तो उस समय आपका वपु पूर्व की ही भाँति सम्भूत होगा। ओज और वीर्य से अद्भुतकान्त अक्षय और सुधात्मक अर्थात् सुधा से परिपूर्ण हर अंग की सन्धियों वाला आपका शरीर परम सुन्दर हो जायेगा ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- लोकों के पितामह ब्रह्माजी ने इस प्रकार सुधाँशु (चन्द्रमा) से कहकर चन्द्र के क्षय के लिए और आधे मास तक वृद्धि के लिए यत्नों वाले हुए थे। जैसा प्रजापति दक्ष ने कहा था कि चन्द्रमा आधे मास तक क्षय और वृद्धि को प्राप्त होवे उस मासार्ध में विधाता ने यत्न किया था। फिर सुरों में ज्येष्ठ ने चन्द्रमा को सोलह प्रकार से विभक्त किया था और ऐसा विभाग करके समस्त देवों से वे यह उत्तम वचन बोले थे । चन्द्रमा की सोलह कलायें हैं उनमें एक भगवान शम्भु के मस्तक में आज की अवधि पर्यन्त स्थित रहे और पराक्षय के बिना ही क्षय को प्राप्त होंवे । दक्ष के वाक्य से यदि क्षय रोग से मासार्ध तक क्षय के लिए चन्द्र प्रपीड़ित किया जाता है तो उस समय में उपशान्ति नहीं होगी किन्तु जिसकी जो कला शम्भु में है ज्योत्सना उसके ही प्रति गमन करे। हे सुरोत्तमो ! प्रतिमास में चौदह कलाओं की संस्था है। आप लोग प्रतिपदा तिथि से आरम्भ करके चतुर्दशी पर्यन्त चतुर्दश की संस्थाओं से भी तथ्यों का पालन करें ।

तेजों के लोग चतुर्दशी तिथि में क्रम से सूर्य के विम्ब में प्रवेश करें । इस प्रकार से कृष्णपक्ष में चन्द्र का क्षय होता है। शेष कला हरिपत्र में पलायित दर्श में जावें । उस तिथि में निशापति के प्रथम भाग में स्थित रहे । द्वितीय दर्श भाग में रोहिणी के मन्दिर में गमन करे । तीसरे भाग में तो सरस्वती में स्नान करके चन्द्र समुस्थित होता है । विभावस्तु के चतुर्थ तिथि भाग में वह बल से सम्पूर्ण होता है । विम्ब में स्थित घोटक के सहित यह चन्द्रमा मण्डल में जावे। जितने समय पर्यन्त प्रथमा कला क्षय को प्राप्त होवे इसी प्रकार से कृष्णपक्ष तब तक वह प्रतिपदा होती है। द्वितीयादि में कृष्णपक्ष में उसी प्रकार की वृद्धि तथा ह्रास होता है । तिथियों की वृद्धि का हेतु शुक्ल और कृष्ण उसी भाँति होता है। इसके अनन्तर फिर शुक्ल पक्ष में जब तक पूर्व कला उचित होती है तब तक वृद्धि को नहीं जाती है और आदि से प्रतिपदा तिथि है ।

इसके अनन्तर द्वितीय भाग की जो ज्योत्स्ना भगवान हर के मस्तक में है और जो स्थित है वह जावे और गयी हुई वह फिर आ जायेगी । आपके द्वारा दिन - दिन में अमृत पीने के योग्य होता है । हे सुरोत्तमो ! वह पूर्ण अन्त वाला द्वितीया आदि तिथियों से सदा ही चन्द्र स्वंय ही उत्पन्न होगा क्योंकि वहाँ पर ज्योत्स्ना का योग होता है उसी के उसी से उसकी समुत्पत्ति होगी। जिस प्रकार से दिन-दिन में भाग क्षण को प्राप्त होते हैं वे अनुचित चन्द्र की वृद्धि को प्राप्त होते हैं । हे सुरो ! शुक्ल पक्ष में भी प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त हुआ करते हैं । सूर्य के बिम्ब से तेज का भाग पुनः ही समागत होगा । जिस प्रकार से कृष्णपक्ष में उसी भाँति भाग के क्रम को प्राप्त होगा । भगवान् शम्भु के मस्तक में संस्थित चन्द्रमा से ज्योत्सना प्रति दिन पुनः आयेगी। सूर्य के बिम्ब से तेजोभाग स्वयं ही अमृत की वर्षा करता है । इसी प्रकार से शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा की वृद्धि होगी। दोनों पक्षों में जो 'शुक्लत्व और कृष्णत्व के नाम हैं वे चन्द्रमा के क्षय और वृद्धि से ही हुआ करते हैं । जब चन्द्र वृद्धि को प्राप्त होता है तो उसे कृष्ण पक्ष पुकारा जाया करता है । जितने काल के द्वारा जो भाग क्षय और वृद्धि को प्राप्त होगा उतने ही काल को अभिव्याप्त करके वह तिथि फिर स्थित रहेगी ।

चिरकाल में वृद्धि अथवा क्षय शीघ्रता से वृद्धि अथवा क्षय को द्रुत से अर्थात् शीघ्रता से तिथियों का सदा क्षय होता है और चिरकाल तिथियों में प्रवेश में वृद्धि होती है । हव्य और कव्य चन्द्रदेव के बिना सम्भव नहीं होगा । इस कारण से उसकी वृद्धि के लिए हे देवताओं ! आप लोग चन्द्रदेव की रक्षा करें। 100 अनुमास से कला शेष चन्द्रदेव का आस्वादन करना चाहिए। अमावस्या के अपराध काल में तो वह पितृगणों के साथ रोहिणी के मन्दिर में रहता है। उसके ही आस्वादन से प्रतिदिन कला की वृद्धि हुआ करती है । उस कव्य से पितृगण भी परामृप्ति को प्राप्त होंगे।

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- इसके अनन्तर सभी सुरगण जैसा भी विधाता ने कहा था वैसा ही उन्होंने चन्द्र की क्षय और वृद्धि के लिए लोक हित के स्वरूप चन्द्रमा के अर्धभाग को देवों सहित विधिपूर्वक अत्यन्त क्षुधित होकर शिर से ग्रहण किया था । जो तेज परनित्य अज, अव्यय और अक्षय है उस स्वरूप वाली ही चन्द्रमा की कला है जो प्राप्त हो गई थी।

जिस समय योगी की आनन्दज, अजर और पर ज्योति प्रवेश किया करती है उस समय में उनका चिन्तन लीनता को प्राप्त हो जायेगा । महादेव के मस्तक में विराजमान सुधा निधि के होने पर चित्त की लीनता में चन्द्र के द्वारा मुक्ति हो जाया करती है। इस प्रकार से यह वैदिकी श्रुति है । महादेव जी ने इसका ज्ञान प्राप्त करके क्षय और वृद्धि के अनिवाकृत चन्द्र को लोकों के हित के लिए शिर के द्वारा ग्रहण किया था । चन्द्रमा की ज्योत्स्ना के समायोग से औषधियाँ वृद्धि को प्राप्त हुआ करती हैं । सब औषधियों के प्रवृद्ध होने पर ही अध्वरों की प्रवृत्ति हुआ करती है । अध्वरों के प्रवृत्त हो जाने पर देवगण अपने-अपने भागों का परिग्रहण किया करते हैं और पितृगण बहुत कव्यों को ग्रहण करते हैं । अमृत ब्रह्माजी ने देवगणों के लिए बहुत पुरातन सृजा था अब देवता लोग हव्यभाग से हीन हुये जो भी हैं वे उसके द्वारा ही तृप्ति का लाभ किया करते हैं । यज्ञ आयातित भी वह ज्योत्सनाओं से निश्चय ही वृद्धि को प्राप्त होता है और वह यज्ञों की ज्योत्सना के विनाशभूत अन्यथा क्षीण हो जाया करता है ।

अतएव यज्ञ के अमृत का कारण भी चन्द्रमा ही स्वयं होता है अतएव दक्ष प्रजापति के शाप से रक्षा के लिए चिकीर्षित होता है । आज भी कृष्णपक्ष में सुरगणों के द्वारा चन्द्र का पान किया जाया करता है। तेज तो सूर्य देव को चला जाता है और चन्द्र का अर्धभाग तथा उसकी ज्योत्सना भगवान शम्भुदेव के समीप में चले जाया करते हैं और फिर शुक्ल पक्ष में शेष कला उदित हुआ करती है । ज्योत्सना का दूसरा भाग और द्वितीय तेज का भाग और अन्य भी शिव के मस्तक में संस्थित चन्द्रमा से और क्रम से सूर्य के बिम्ब से चन्द्र की सोलह कलायें हैं उनमें एक भगवान शम्भु के मस्तक में रहा करती है । शेष कलाओं के सित और असित अर्थात् शुक्ल और कृष्ण ये दोनों पक्ष उदय और क्षय वाले ही होते हैं । यह सब मैंने आपको बतला दिया है । जिस प्रकार से भी चन्द्रमा का विभाग किया गया है, जिस रीति से ब्रह्मा के द्वारा उस श्रेष्ठ पर्वत में चन्द्रमा समागत हुआ था । जिस कारण से यज्ञ भाग के स्थित होने पर विभु को देवों का अन्न किया था । जिस तरह से कव्य के स्थित होने पर भी पितृगण का अन्न तिथियों का क्षय और वृद्धि होता है। इस परम पुण्यतम आख्यान को जो भी कोई मनुष्य एक बार भी श्रवण कर लिया करता है उसके कुल राजयक्ष्मा का महारोग कभी भी किसी को नहीं रहा करता है और न होता ही है । जो भी कोई मनुष्य राजयक्ष्मा से पराभूत है और विधाता के वचन का श्रवण कर लेता है तो उसका यक्ष्मा विनष्ट हो जाया करता है । यह आख्यान परमाधिक स्वस्ति अर्थात् कल्याण का स्थान है, पुण्यमय है और शुभ तथा गुह्य से भी अधिक गोपनीय है । जो भी कोई एकचित्त होकर इसको सुनता है वह महान् पुण्य का भागी होता है ।

 श्री कालिकापुराण में चन्द्रशापमोक्षण नामक इक्कीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ  २१  

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 22

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