कालिका पुराण अध्याय १८
कालिका पुराण अध्याय १८ में शिव का सती हेतु रुदन, शनैश्चर स्तवन, वाष्प को रोकने हेतु शनि के प्रयत्न, सती के शव को शिर पर लेकर विचरण ब्रह्मा, विष्णु और शनि द्वारा सती के शव के अङ्गों के गिरने से शक्ति पीठों की उत्पत्ति, त्र्यम्बक स्तवन और वृषभध्वज स्तुति का वर्णन किया गया है ।
कालिकापुराणम् अष्टादशोऽध्यायः शिवविषादवर्णनम्
कालिका पुराण
अध्याय १८
Kalika puran chapter 18
अथ कालिका पुराण अध्याय १८
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
दाक्षायणीगुणगणान्
गणयन् गोरङ्गस्तदा ।
विललापातिदुःखार्तो
मनुजः प्राकृतो यथा ।। १॥
मार्कण्डेय
बोले- तब गोरङ्ग (दिगम्बर) शिव, दाक्षायणी (दक्ष-पुत्री) सती के गुणों की गणना करते हुये
दुःख से भरकर सामान्य मनुष्य की भाँति विलाप
करने लगे ॥ १ ॥
विलपन्तं तदा
भर्ग विज्ञाय मकरध्वजः ।
रतीबसन्तसहित आससाद
महेश्वरम् ।।२।।
तब शिव को
विलाप करते हुए जानकर मकरध्वज कामदेव पत्नी रति एवं पुत्र बसन्त के सहित महेश्वर
के समीप पहुँच गया ॥ २ ॥
तं
शुचातिपरिभ्रष्टं युगपत् स रतिपतिः ।
जघान पञ्चभिर्बाणैः
रुदन्तं भ्रष्टचेतनम् ।।३।।
उस कामदेव ने
शोक से विदीर्ण हुये रोते हुए, चेतना भ्रष्ट हुये, शिव पर एक साथ अपने पाँचों बाणों से प्रहार किया ॥३॥
शोकाभिहतचित्तोऽपि
स्मरबाण समाकुलः ।
सङ्कीर्णभावमापन्नः
शुशोच च मुमोह च ॥४॥
शोकग्रस्त
चित्त होने पर भी कामदेव के बाणों से भलीभाँति व्याकुल हुये संकीर्ण भाव (जगत्पति
की अपेक्षा सतीपति के भाव ) को ग्रहण कर शोक और मोह प्रकट करने लगे ॥ ४॥
क्षणं भूमौ
निपतति क्षणमुत्थाय धावति ।
क्षणं भ्रमति
तत्रैव निमीलति विभुः पुनः ।। ५ ।।
वे विभु किसी
क्षण भूमि पर गिर जाते तो दूसरे क्षण दौड़ने लगते, किसी क्षण घूमने लगते तो वहीं पुनः आँख मूद लेते ॥ ५ ॥
ध्यायन्
दाक्षायणीं देवीं हसमानः कदाचन ।
परिष्वजति
भूमिष्ठां रसभावैरिव स्थिताम् ॥६॥
दाक्षायणी
देवी का ध्यान करते हुए भूमि पर पड़ी हुई सती का रसभाव से हँसते हुए कभी आलिङ्ग
करते ।।६।।
सती सतीति
सततं नाम व्याहृत्य शङ्करः ।
मानं त्यज
वृथेत्येवमुक्त्वा स्पृशति पाणिना ॥७॥
शङ्कर हे सती
! हे सती ! ऐसा निरन्तर नाम पुकारते हुये यह व्यर्थ का रूठना छोड़ो ऐसा कहते हुए,
सती का हाथों से स्पर्श करते ॥ ७ ॥
पाणिनापरिमाज्यैनामलङ्कारान्
यथास्थितान् ।
तस्या विश्लिष्य
च पुनस्तत्रैवानुयुयोज च ॥८॥
उनके यथा
स्थान स्थित अलंकारों को उन्हीं स्थानों पर हाथ से साफ करते,
उन्हें वहाँ से अलग करते तथा पुनः उन्हीं स्थानों पर
व्यवस्थित कर देते थे ॥ ८ ॥
एवं कुर्वति
भूतेशे मृता नोवाच किञ्चन ।
यदा सती तदा
भर्गः शोकाद्गाढं रुरोद ह ।।९।।
इस प्रकार से
किये जाने पर भी जब मरी हुई सती देवी कुछ नहीं बोलीं तब शिव बहुत अधिक रोने लगे ।।
९ ।।
रुदतस्तस्य
पततो वाष्पान् वीक्ष्य तदा सुराः ।
ब्रह्मादयः परां
चिन्तां जग्मुश्चिन्तापरायणाः ।।१०।।
तब रोने पर
उनके गिरे हुये अश्रुविन्दुओं को देखकर चिन्तित ब्रह्मा आदि देवगण बहुत अधिक
चिन्तित हो गये ॥ १० ॥
वाष्पाः पतन्तो
भूमौ चेद्दहेयुः पृथिवीमिमाम् ।
उपायस्तत्र कः
कार्य इति हा हेति चुक्रुशुः ।।११।।
ये वाष्प
(अश्रु) धरती पर पड़ेंगे तो इस पृथ्वी को जला देंगे। तब कौन-सा उपाय करना चाहिये,
इस चिन्ता से वे हाहाकार करने लगे ।। ११ ।।
ततो विमृष्यते
देवा ब्रह्माद्यास्तु शनैश्चरम् ।
तुष्टुवुर्मूढभर्गस्य
वाष्पधारणकारणात् ।।१२।।
तब विचाररत
ब्रह्मा आदि देवताओं ने मोहग्रस्त शिव के अश्रु - विन्दुओं को धारण करने हेतु शनि
ग्रह की स्तुति की ॥ १२ ॥
कालिकापुराण अट्ठारहवाँ अध्याय
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कालिका पुराण
अध्याय १८
।। मार्कण्डेय
उवाच । ।
इत्येवम्भाषमाणेषु
देवेषु मिहिरात्मजः ।
प्रत्युवाच स
तान् देवान्नातिहृष्टमना इव ।। २१ ।।
मार्कण्डेय
बोले- देवताओं द्वारा ऐसा कहे जाने पर सूर्यपुत्र शनि देव ने बहुत प्रसन्न न होते
हुए भी उनको उत्तर दिया ।। २१ । ।।
॥ शनैश्वर
उवाच ॥
करिष्ये भवतां
कर्म यथाशक्ति सुरोत्तमाः ।
तथा किन्तु
विदग्धं हि न मां वेत्ति यथा हरः ।। २२ ।।
शनि ने कहा-
हे देवश्रेष्ठों ! मैं यथाशक्ति आपलोगों का कार्य करूँगा किन्तु शिव जिस प्रकार से
मुझे जला हुआ न जाने (जला न दें) ऐसा कुछ कीजिए ॥ २२ ॥
दुःखशोकाकुलस्यास्य
समीपे वाष्पधारिणः ।
कोपान्नश्येच्छरीरं
मे नियतं नात्र संशयः ।। २३ ।।
क्योंकि दुःख
और शोक से आकुल, अश्रुपूरित शिव के समीप पहुँचूँगा तो मेरा यह शरीर उनके क्रोध से नष्ट हो
जायेगा। इसमें कोई सन्देह नहीं है ।। २३ ॥
तस्माद् यथा
मां भूतेशो न जानाति सतीपतिः ।
तथा कुरुध्वं नेत्रेभ्यो
हरलोतकधारिणम् ।।२४।।
इसलिए जिस
प्रकार सतीपति शिव अपने नेत्रों के आँसुओं को धारण करने वाले मुझको न जान सकें,
ऐसा आप लोग प्रयत्न करें ॥ २४ ॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
ततो
ब्रह्मादयो देवास्ते सर्वे शङ्करान्तिकम् ।
गत्वा हरं
सम्मुमुहुः सांसार्या योगमायया ।। २५ ।।
मार्कण्डेय
बोले- तब ब्रह्मादि सभी देवता शंकर के समीप जाकर उन्हें सांसारिक योग माया से
सम्मोहित करने लगे ।। २५ ।।
शनैश्चरोऽपि भूतेशमासाद्यान्तर्हितस्तदा
।
वाष्पवृष्टिं
दुराधर्षामवजग्राह मायया ।।२६।।
तब अन्तर्हित
रूप में शिव के समीप पहुँचकर शनैश्चर ने भी अपनी माया से अश्रु वर्षा को दूर कर
दिया ।। २६ ।।
यदा स
नाशकद्वाष्पान् सन्धारयितुमर्कजः ।
तदा महागिरौ
क्षिप्ता वाष्पास्ते जलधारके ।। २७ ।।
जब वे
सूर्यपुत्र शनिदेव उन वाष्पों को धारण करने में समर्थ नहीं हुए तो उनको जलधारक
नामक महान पर्वत पर छोड़ दिया ।। २७ ।।
लोकालोकस्य निकटे
जलधाराह्वयो गिरिः ।
पुष्करद्वीपपृष्ठस्थस्तोयसागर
पश्चिमे ।। २८ ।।
वो जलधार नामक
पर्वत लोकालोक पर्वत के समीप पुष्कर द्वीप के पीछे स्थित तोयसागर के पश्चिम में
स्थित था।।२८।।
स तु
सर्वप्रमाणेन मेरुपर्वतसन्निभः ।
तस्मिन्
विन्यस्तवान् वाष्पांस्तदाशक्तः शनैश्चरः ।। २९ ।।
वह सभी
प्रमाणों से मेरु पर्वत के समान था । असमर्थ शनि ने वाष्पों को उसी पर्वत पर डाल
दिया ॥ २९ ॥
स पर्वतोपि तान्
वाष्पान्न धर्तुं क्षम ईशितुः ।
विदीर्णस्तैस्तु
वाष्पौघैर्भग्नमध्योऽभवद्द्भुतम् ॥३०॥
वह पर्वत भी
शिव के उन आँसुओं को धारण करने में सक्षम नहीं हुआ और उन अश्रु समूहों से शीघ्र ही
मध्यभाग से विभक्त (दो फाड़ हो गया ॥ ३० ॥
ते वाष्पाः
पर्वतं भित्वा विविशुस्तोयसागरम् ।
सागरोऽपि
ग्रहीतुं तन्न शशाक खरानति ।। ३१ ।।
पर्वत को
विदीर्ण कर वे अश्रु प्रवाह भी तोय सागर में प्रवेश कर गये । वह सागर भी अति
तीक्ष्ण उन्हें ग्रहण करने में समर्थ नहीं हुआ ॥ ३१ ॥
ततस्तु सागरं
मध्ये भित्वा वाष्पाः समागताः ।
तोयधेः
प्राग्भवां वेलां स्पर्शमात्राद्विभेद ताम् ।।३२।।
तब वे आँसु
समुद्र को मध्य से भेदकर जलधि के पूर्वी किनारे को स्पर्श मात्र से ही तोड़ दिये ॥
३२ ॥
विभिद्य वेलां
ते वाष्पाः पुष्करद्वीपमध्यगाः ।
नदी भूत्वा
वैतरणी पूर्वसागरगाभवत् ।।३३॥
तट को तोड़ कर
वे पुष्कर द्वीप के मध्यगामी हो पूर्वीसागर की ओर जाने वाली वैतरणी नदी हो गये ॥
३३ ॥
जलधारस्य
भेदेन संसर्गात् सागरस्य च ।
अवाप्य
सौम्यतां किञ्चिद्वाष्पास्ते नाभिन्दन् क्षितिम् ॥३४॥
वैवस्वतपुरद्वारे
योजनद्वयविस्तृता ।
अद्यापि
तिष्ठत्यपगा हरलोतकसम्भवा ।।३५।।
जलधार पर्वत
के भेदन तथा सागर के संसर्ग से वे अश्रु, कुछ सौम्यता को प्राप्त हुए । पृथ्वी का विखण्डन नहीं करते
हुए,
शिव के आँसुओं से उत्पन्न नदी (वैतरणी) के रूप में आज भी यम
नगरी के द्वार पर दो योजन तक चौड़ाई में स्थित हैं ।। ३४-३५ ।।
कालिका पुराण
अध्याय १८- ।। शक्ति पीठ
स्थापन ।।
अथ शोकविमूढात्मा
विलपन् वृषभध्वजः ।
जगाम
प्राच्यदेशांस्तु स्कन्धे कृत्वा सतीशवम् ।। ३६ ।।
इसके बाद शोक
से विलाप करते हुए भगवान शङ्कर सती के शव को कंधे पर रख कर प्राच्य देश को चले गये
॥३६ ॥
उन्मत्तवद्गच्छतोऽस्य
दृष्ट्वा भावं दिवौकसः ।
ब्रह्माद्याश्चिन्तयामासुः
शवभ्रंशनकर्मणि ।। ३७।।
पागल की तरह
जाते हुए शिव के भाव को देखकर ब्रह्मादि देवता (उनके कंधे पर स्थित ) शव के नाश के
सम्बन्ध में विचार करने लगे ॥ ३७ ॥
हरगात्रस्य संस्पर्शाच्छवो
नायं विशीर्णताम् ।
गमिष्यति कथं
तस्मादस्य भ्रंशो भविष्यति ।। ३८ ।।
शिव के शरीर
के संस्पर्श से यह शव नाश को नहीं प्राप्त होगा तब इसका नाश कैसे होगा?
॥ ३८ ॥
इति सञ्चिन्तयन्तस्ते
ब्रह्मविष्णुशनैश्चराः ।
सतीशवान्तर्विविशुरदृश्या
योगमायया ।। ३९ ।।
ऐसा सोचते हुए
उन ब्रह्मा, विष्णु और शनैश्चर देवता ने योग माया के कारण अदृश्य रूप से सती के शव में
प्रवेश किया ॥ ३९ ॥
प्रविश्याथ
शवं देवाः खण्डशस्ते सतीशवम् ।
भूतले
पातयामासुः स्थाने स्थाने विशेषतः ।।४० ।।
सती के शव में
प्रवेश करके देवताओं ने उसे टुकड़े-टुकड़े कर पृथ्वी के विशिष्ट स्थानों पर गिरा
दिया ।। ४० ।।
देवीकूटे
पादयुग्मं प्रथमं न्यपतत् क्षितौ ।
उड्डीयाने
चोरुयुग्मं हिताय जगतां ततः ।। ४१ ।।
सर्वप्रथम देवी
के दोनों चरण देवी कूट में पृथ्वी पर गिरे तब संसार के कल्याण हेतु उनके दोनों
जङ्घे उड्डीयान में गिरे ॥ ४१ ॥
कामरूपे
कामगिरौ न्यपतत्योनिमण्डलम् ।
तत्रैव न्यपतद्भूमौ
पर्वते नाभिमण्डलम् ।।४२।।
उनका
योनिमण्डल कामरूप कामगिरि (कामाक्षा) पर और वहीं पर्वतीभूमि पर उनका नाभिमण्डल
गिरा।।४२।।
जालन्धरे
स्तनयुगं स्वर्णहारविभूषितम् ।
अंशग्रीवं पूर्णगिरौ
कामरूपात्ततः शिरः ।। ४३ ।।
जालन्धर में
स्वर्णहार से विभूषित उनके दोनों स्तन गिरे, पूर्णगिरि पर कंधे एवं गला तत्पश्चात् सिर कामरूप में गिरा
।। ४३ ।।
यावद्भुवं गतो
भर्गः समादाय सतीशवम्
प्राच्येषु
याज्ञिको देशस्तावदेव प्रकीर्तितः ।। ४४ ।।
सती के शव को
लेकर शिव पूर्व दिशा में जहाँ तक गये वही स्थान यज्ञभूमि कहा गया है ॥ ४४ ॥
अन्ये
शरीरावयवा लवश: खण्डिताः सुरैः ।
आकाशगङ्गामगमन्
पवनेन समीरिताः ।। ४५ ।।
शरीर के अन्य
अवयव देवताओं द्वारा खण्डित हो टुकड़ों के रूप में वायु से प्रेरित हो आकाश गङ्गा
में चले गये ॥ ४५ ॥
यत्र
यत्रापतन् सत्यास्तदापादादयो द्विजाः ।
तत्र तत्र
महादेव: स्वयं लिङ्गस्वरूपधृक् ।
तस्थौ
मोहसमायुक्तः सतीस्नेहवशानुगः ।। ४६ ।।
हे द्विजों !
जहाँ-जहाँ सती के पैर आदि अङ्ग गिरे स्वयं महादेव वहीं-वहीं सती के स्नेहवशीभूत
मोहित हो लिंग स्वरूप धारण कर स्थित हो गये ।। ४६ ।।
ब्रह्मविष्णुशनिश्चापि
सर्वे देवगणास्तथा ।
पूजयाञ्चक्रुरीशस्य
प्रीत्या सत्याः पदादिकम् ॥४७ ।।
तब ब्रह्मा,
विष्णु, शनि तथा सभी देवताओं ने प्रेमपूर्वक शिव की तथा सती के
पादादिक अंगों की पूजा की॥४७॥
देवीकूटे
महादेवी महाभागेति गीयते ।
सतीपादयुगे
लीना योगनिद्रा जगत् प्रभुः ।। ४८ ।।
देवीकूट में
महादेवी महाभागा नाम से गाई जाती हैं । वहाँ जगत के स्वामी सती के चरणद्वय में
योगनिद्रा का आश्रय ले लीन रहते हैं ॥ ४८ ॥
कात्यायनी
चोड्डीयाने कामाख्या कामरूपिणी ।
पूर्णेश्वरी
पूर्णगिरौ चण्डी जालन्धरे गिरौ ।। ४९ ।।
पूर्वान्त
कामरूपस्य देवी दिक्करवासिनी ।
तथा
ललितकान्तेति योगनिद्रा प्रगीयते ॥५०॥
उड्डियान में
महादेवी कात्यायनी, कामरूप में कामाख्या, पूर्णगिरि पर पूर्णेश्वरी, जालन्धर पर्वत पर चण्डीनाम से तथा कामरूप के पूर्वान्त में
देवी दिक्करवासिनी तथा ललितकान्ता नाम से योगनिद्रा ही गाई जाती हैं।।४९-५०।।
यत्रैव पतितं
सत्या: शिरस्तत्र वृषध्वजः ।
उपविष्टः शिरो
वीक्ष्य श्वसञ्छोकपरायणः ।। ५१ ।।
जहाँ सती का
सिर गिरा वृषध्वज शिव उस गिरे हुए सिर को देखकर शोक परायण हो वहीं बैठकर लम्बी
साँस लेने लगे ।। ५१ ।।
उपविष्टे हरे
तत्र ब्रह्माद्यास्ते दिवौकसः ।
समीपमगमंस्तस्य
दूरत: सान्त्वयन् हरम् ।।५२।।
शिव के वहाँ
बैठ जाने पर, वे ब्रह्मादि देवता दूर से ही उन्हें सान्त्वना देते हुए उनके समीप पहुँच गये
।। ५२ ।।
देवानागच्छतो
दृष्ट्वा शोक- लज्जासमन्वितः ।
गत्वा
शिलात्वं तत्रैव लिङ्गत्वं गतवान् हरः ।। ५३ ।।
देवताओं को
आया हुआ देखकर शोक एवं लज्जा से युक्त हो शिव वहीं पत्थर और लिंगवत् हो गये ॥ ५३ ॥
हरे लिङ्गत्वमापन्ने
ब्रह्माद्यास्तु दिवौकसः ।
तुष्टुवुत्र्यम्बकं
तत्र लिङ्गरूपं जगद्गुरूम् ।।५४।।
शिव के
लिङ्गत्व को प्राप्त हो जाने पर ब्रह्मादि देवता लिंगरूप जगद्गुरु त्र्यम्बक शिव
की वहीं स्तुति करने लगे ॥ ५४ ॥
कालिका पुराण
अध्याय १८
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श्लोक ५५ से ६७ में भगवान् महादेव का त्र्यम्बक स्तुति को दिया गया है इसे पढ़ने के
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कालिका पुराण
अध्याय १८
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इति संस्तूयमानस्तु
महादेवो जगत्पतिः ।
निजं रूपं
समास्थाय प्रादुर्भूतः शुचाहतः ।।६८।।
मार्कण्डेय
बोले-शोक से आहत हुये जगत के स्वामी महादेव इस प्रकार से भलीभाँति स्तुति किये
जाने पर अपने यथार्थ रूप का आश्रय ले प्रकट हुये ।। ६८ ।।
तं शुचा
विह्वलं दृष्टा प्रादुर्भूतं विचेतसम् ।
शोकापहं विधिं
साम्ना तुष्टाव वृषभध्वजम् ॥६९ ।।
उन शोकविह्वल
शिव को बिना चेतना के उत्पन्न हुआ देखकर उन्हें शोकरहित करने के लिए ब्रह्मा ने
साममन्त्रों से उनकी स्तुति की ।। ६९ ।।
कालिका पुराण
अध्याय १८
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७० से ८२ में भगवान् शिव के इस ब्रह्मकृता शिवस्तुति वृषभध्वज स्तवन को दिया गया
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कालिका पुराण
अध्याय १८
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इति शाम्ना
स्तुत: शम्भुः संस्मृत्यपि स्ववाञ्छितम् ।
नावदध्रे
तदात्मानं शोकात् सत्या विनाकृतः ।। ८३ ।।
मार्कण्डेय
बोले- इस शाम (स्तुति) से स्तुति किये जाने पर भगवान शिव ने अपनी वांछित योजना का
स्मरण कर सती के अभाव में अपने शोक को धारण नहीं किया अर्थात् छोड़ दिया ॥ ८३ ॥
अधोमुखः
स्थितं वीक्ष्य ब्रह्माणं सः शनैरिदम् ।
प्राह
ब्रह्मन्नायतिगं वद किं करवाण्यहम् ॥८४ ।।
(तथा) शनि के
साथ ही स्वयं नीचे मुँह किये, ब्रह्मा को खड़े देख वे बोले - हे ब्रह्मन् ! आप अधीनता को
प्राप्त नहीं हैं। बतायें मैं (आप के लिए) क्या करूँ?
॥ ८४ ॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ॥
इत्युक्तो वामदेवेन
विधाता सर्वदेवतैः ।
इदमाह तदेशस्य
शोकविध्वंसकं वचः ॥८५॥
मार्कण्डेय
बोले- वामदेव (शिव) के द्वारा इस प्रकार से कहे जाने पर सभी देवताओं के साथ
ब्रह्मा ने उन ईश्वर (शिव) के शोक को नष्ट करने में सक्षम ये वचन कहे ॥ ८५ ॥
।। ब्रह्मोवाच
।।
त्यज शोकं
महादेव संस्मृत्यात्मानमात्मना ।
न त्वं शोकस्य
सदनं परं शोकात्तवान्तरम् ।। ८६ ।।
ब्रह्मा बोले-
हे महादेव ! अपने को अपने आप में ही स्मरण करके शोक का त्याग कर दीजिये ।
आप शोक के घर आश्रय नहीं हैं। शोक से आप बहु अन्तर (दूरी)
है ॥ ८६ ॥
सशोके त्वयि
भूतेश देवा भूताः ससाध्वसाः ।
भ्रंशयेज्जगतीं
कोपः शोकः सर्वांश्च शोषयेत् ।। ८७ ।।
हे भूतनाथ !
आपके शोकग्रस्त होने पर सभी देवता एवं प्राणी अस्त- व्यस्त हो गये हैं । आपका
क्रोध पृथ्वी को नष्ट कर देता है तथा शोक सब को सोखने लगा है ।। ८७ ॥
त्वद्वाष्पव्याकुला
पृथ्वी विदीर्णा स्यान्न चेच्छनिः ।
अवजग्राह ते
वाष्पं सोऽपि कृष्णोऽभवद् हठात् ।। ८८ ।।
यदि शनिदेव न
होते तो आप के आँसुओं से व्याकुल हो यह पृथ्वी विदीर्ण हो गई होती । उन्होंने आपके
अश्रुओं को ग्रहण कर लिया फलतः वे न चाहते हुए भी काले पड़ गये ॥ ८८ ॥
यत्र देवाः
सगन्धर्वाः सदा क्रीडन्ति सोत्सुकाः ।
सुमेरुसदृशो
योऽसौ मानतः पर्वतोत्तमः ।। ८९ ।।
जहाँ देवगण
गन्धर्वों के सहित उत्सुकता (आनन्द) पूर्वक सदैव क्रीड़ा करते हैं,
ऐसा यह सुमेरु के समान ऊँचाई में सर्वश्रेष्ठ पर्वत है ॥ ८९
॥
यस्मिन् प्रविश्य
शिशिरे पद्मनालनिभे घनाः ।
उत्पिबन्ति
स्म तोयानि पुष्करावर्तकादयः ।। ९० ।।
जिसमें शिशिर
ऋतु प्रवेश कर कमल के नाल के समान आभा वाले धवल पुष्कर,
आवर्तक आदि महामेघ जल ग्रहण करते हैं ॥ ९० ॥
मन्दरात् सततं
यत्र कुम्भयोनिर्महामुनिः ।
गत्वा गत्वा
तपस्तेपे हिताय जगतो हरः ।।९१।।
हे हर ! जहाँ
महामुनि अगस्त्य संसार के कल्याण हेतु मन्दराचल पर्वत से बार-बार जाकर तपस्या किये
हैं।।९१।।
यस्मिन्
स्थित्वा गिरौ पूर्वमगस्त्यस्तोयसागरम् ।
पपौ तपोबलात्
कृत्वा करमध्यगतं किल ।।९२।।
प्राचीनकाल
में जिस पर्वत पर स्थित होकर उन्होंने अपने तपोबल से चुल्लू में लेकर तोय-सागर का
पान किया था ।। ९२ ।।
शनैश्चरेण ते वोढुमसमर्थेन
लोतकैः ।
क्षिप्तैर्विदारितस्तेऽसौ
जलधाराह्वयो गिरिः ।। ९३ ।।
शनि द्वारा
तुम्हारे आँसुओं के ढोने में असमर्थ हो उन्हें छोड़ देने पर,
उन्हीं अश्रुओं द्वारा उपर्युक्त जलधारा नामक यह पर्वत
विदीर्ण हो गया है ।। ९३।।
विभिद्य
पर्वतं शम्भो वाष्पास्ते सागरं ययुः ।
भित्त्वा तु
सागरं शीघ्रं प्रभीताण्डजसंकुलम् ।।९४।।
हे शम्भु !
आपके वे अश्रु इस पर्वत को विदीर्ण कर सागर में चले गये और मछलियों से भरे हुए
विक्षुब्ध समुद्र को भी भेद दिया ।। ९४ ।।
जग्मुस्ते पूर्वपुलिनं
तस्य द्विभिदुश्च ते ।
भित्वा वेलां
ततः पृथ्वीं यिभिद्याशु तरङ्गिणीम् ।। ९५ ।।
तब वे उसके
पूर्वी तट पर पहुँच गये तथा उसका भी भेदन कर तट को तोड़ते हुए पृथ्वी को विदीर्ण
करके नदी रूप हो लिये ।। ९५ ।।
चक्रुर्वैतरणीं
नाम्ना पूर्वसागरगामिनीम् ।
न नावा न
विमानेन न द्रोण्या स्यन्दनेन च ।। ९६ ।।
तर्तुं शक्या
सा तु नदी तप्ततोयातिभीषणा ।
दुःखेन तान्तु
पृथिवी विभर्ति महताधुना ।। ९७ ।।
वह वैतरणी
नामक नदी जो पूर्व सागर की ओर बहती है न नाव से, न विमान से, न रथ से और न द्रोण (एक प्रकार का घड़ा) से पार की जा सकती
है। अर्थात् अपार है । वह गर्म जल से भरी हुई तथा अत्यन्त भयानक है। आज भी उसे
पृथ्वी अत्यन्त दुःख से धारण किये हुए है ।। ९६-९७ ।।
सदा चोर्द्धगतैर्वाष्पैर्विक्षिपन्ती
नभश्चरान् ।
तस्यास्तूपरि
नो यान्ति देवा अपि भयातुराः ।। ९८ ।।
वह सदैव ऊपर
की ओर वाष्पों को उछाली रहती है, जिससे आकाशगामी पक्षी आदि उसमें गिर जाते हैं।
देवगण भी भयवश उसके ऊपर से नहीं जाते ॥ ९८ ॥
यमद्वारं परावृत्य
योजनद्वयविस्तृता ।
निम्ना वहति
सम्पूर्णा भीषयन्ती जगत्त्रयम् ।।९९ ।।
जो यमलोक के
चारों ओर दो योजन (१६ मील) चौड़ाई में स्थित है। यह नदी तीनों लोकों को भयभीत करती
हुई बह रही है ।। ९९ ।।
त्वन्निःश्वासमरुज्जातैर्व्यस्ता
पर्वतकाननाः ।
समाकुलद्वीपिनागा
नाद्यापि प्रतिशेरते ।। १०० ॥
आपके नि:श्वास
की वायु से वन और पर्वतों के व्यस्त हो जाने से व्याकुल हो बाघ और हाथी आज भी
आश्रय नहीं ले पा रहे हैं ॥ १०० ॥
तव निःश्वासजो
वायुः पीडयन् जगतः सुखम् ।
नाद्यापि
प्रशमं याति बाधाहीनः सनातनः ।। १०१ ।।
आपके नि:श्वास
से उत्पन्न वायु संसार के सुख को पीड़ित कर रही है । यह सनातन जगत आज भी बाधारहित
हो विश्राम को नहीं पा रहा है ।। १०१ ॥
सतीशवं ते
वहतः शीर्यमाणा पदे पदे ।
नाद्यापि
व्याकुला पृथ्वी व्याकुलत्वं विमुञ्चति ।। १०२ ।।
जब आप सती
देवी के शव को ढो रहे थे, उस समय पग-पग पर कुचली जाती हुई,
व्याकुल पृथ्वी आज भी उस व्याकुलता को छोड़ नहीं पा रही है
।। १०२ ॥
न स्वर्गे न च
पाताले तत्सत्त्वं विद्यतेऽधुना ।
यत्ते क्रोधेन
शोकेन नाकुलं वृषभध्वज ।। १०३ ।।
हे वृषभध्वज !
इस समय न स्वर्ग में और न पाताल में कोई ऐसा प्राणी है,
जो आपके क्रोध और शोक से व्याकुल न हुआ हो अर्थात् सभी
व्याकुल हैं ॥ १०३ ॥
तस्माच्छोकममर्षञ्च
त्यक्त्वा शान्तिं प्रयच्छ नः।
आत्मानञ्चात्मना
वेत्थ धारयात्मानमात्मना ।। १०४ ।।
इसीलिये शोक
और क्रोध का त्याग कर आप हमें शान्ति प्रदान करें। आप अपने से आत्मस्वरूप को जानकर
अपने आपको धारण करें (संयत करें) ।। १०४ ॥
सती च
दिव्यमानेन व्यतीते शरदां शते ।
सा च
त्रेतायुगस्यादौ भार्या तव भविष्यति ।। १०५ ।।
और यह सती
देवी भी देवताओं के मान से १०० वर्ष (मानव मान से ३६००० वर्ष) व्यतीत हो जाने पर
त्रेता युग के प्रारम्भ में वही पुनः आपकी पत्नी होवेंगी ।। १०५ ॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इत्युक्तो
वेधसा शम्भुस्तूष्णीं ध्यानपरायणः ।
अधोमुखस्तदा प्राह
ब्रह्माणममितौजसम् ।। १०६ ।।
मार्कण्डेय
बोले- ब्रह्मा द्वारा ऐसा कहे जाने पर शिव कुछ समय के लिए ध्यानस्थ हो मौन हो गये।
तब अमित तेजस्वी, नीचे मुख किये हुये (विनम्र ) ब्रह्मा से कहे - ॥ १०६ ॥
।। ईश्वर उवाच
।।
यावद्
ब्रह्मन्नहं शोकादुत्तरामि सतीकृतान् ।
तावन्मम सखा भूत्वा
कुरु शोकापनोदनम् ।। १०७ ।।
ईश्वर बोले -
हे ब्रह्म देव ! जब तक मैं सतीवियोग से उत्पन्न शोक से पार नहीं पाता तब तक आप
मेरे साथ रहकर शोक को दूर कीजिये ।। १०७ ॥
तस्मिन्नवसरे
यत्र यत्र गच्छाम्यहं विधे ।
तत्र तत्र
भवान् गत्वा शोकहानिं करोतु मे ।। १०८ ।।
हे विधि ! उस
अवसर पर मैं जहाँ जहाँ जाऊँ, वहाँ-वहाँ आप भी जाकर मेरे शोक का नाश कीजिये ।। १०८ ।।
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
एवमस्त्विति लोकेश
प्रोक्त्वा वृषभवाहनम् ।
हरेण सार्धं
कैलासं गन्तुं चक्रे मनस्ततः ।। १०९ ।।
तब लोकेश
ब्रह्मा ने वृषभवाहन शिव से ऐसा ही हो कह कर उनके साथ कैलास पर जाने का मन बनाया
।। १०९ ॥
ब्रह्मणा
सहितं शम्भुं कैलासगमनोत्सुकम् ।
समासेदुर्गणा
दृष्ट्वा नन्दिभृंगिमुखाश्च ये ।। ११० ।।
जब शिव
ब्रह्मा के सहित कैलास पर्वत पर जाने को उत्सुक हुए तो इसे देखकर नन्दि,
भृंगी आदि जो उनके प्रमुख गण थे,
वहाँ आ गये ॥ ११० ॥
ततः पर्वतसंकाशो
वृषभ: पुरतो विधेः ।
उपतस्थे
सिताभ्रस्य सदृशो गैरिको यथा ।। १११ ।।
तब ब्रह्मा के
सम्मुख वृषभ उसी भाँति स्थित हुआ जैसे गैरिक लाल पर्वत के समीप श्वेत बादल खड़ा हो
।।१११॥
वासुक्याद्याश्च
ये सर्पा यथास्थानञ्च ते हरम् ।
भूषयांचक्रुरुद्रम्य
शिरोबाह्वादिषु द्रुतम् ।।११२।।
तब वासुकी आदि
जो सर्प थे, उन्होंने शिव के सिर एवं भुजा आदि स्थानों पर शीघ्र जाकर यथास्थान सुसज्जित
किया ।। ११२ ।।
ततो ब्रह्मा च
विष्णुश्च महादेवः सतीपतिः ।
सर्वैः सुरगणैः
सार्धं जग्मुः प्रालेयपर्वतम् ।।११३।।
तब ब्रह्मा,
विष्णु तथा सती के पति महादेव शिव,
सभी देवताओं के साथ हिमालय पर्वत पर गये ॥ ११३ ॥
ततस्तानौषधिप्रस्थान्
निःसृत्य नगराद्गिरिः ।
सर्वैरमात्यैः
सहित उपतस्थे सुरोत्तमान् ।। ११४।।
तब अपने सभी मन्त्रियों
सहित नगर से बाहर आकर हिमालय ने अपने यहाँ औषधिप्रस्थ से पधारे श्रेष्ठ देवगणों का
स्वागत किया ।। ११४ ।।
ततः
सम्पूजितास्तेन सुरौघा गिरिणा सह ।
सचिवैः
पौरवर्णैश्च मुमुदुस्ते सुरर्षभाः ।। ११५।।
तब वह देव
समूह,
नागरिकों तथा सचिवों सहित हिमालय द्वारा पूजित हुआ और
श्रेष्ठ देवगण भी पूजा प्राप्त कर प्रसन्न हो गये ।। ११५ ।।
ततो ददर्श
तत्रैव गिरीन्द्रस्य पुरे हरः ।
विजयामौषधिप्रस्थे
सखीभिर्गौतमात्मजाम् ।।११६ ।।
तत्पश्चात्
वहीं हिमालय की नगरी में शिव ने औषधि शिखर पर गौतम ऋषि की पुत्री विजया को सखियों
के साथ देखा ।। ११६ ॥
सापि सर्वान्
सुरवरान् प्रणम्य हरमुक्तवान् ।
चुक्रोश
मातृभगिनीं पृच्छन्तीं गिरिशं सतीम् ।। ११७ ।।
उसने भी सभी
श्रेष्ठ देवों को प्रणाम किया तथा आक्रोश वश शिव से अपनी मौसी सती के विषय में
पूछते हुए कहा- ॥ ११७ ॥
क्व सती ते
महादेव शोभसे न तया विना ।
विस्मृतापि त्वया
तात मद्हृदो नापसर्पति ।। ११८ ।।
हे महादेव !
मेरी सती मौसी कहाँ है ? आप उनके बिना सुशोभित नहीं हो रहे हो । हे तात ! यद्यपि
आपने उन्हें भुला दिया है फिर भी वे मेरे हृदय से दूर नहीं हटती॥ ११८ ॥
ममाग्रे सा
पुरा प्राणान् यदा त्यजति कोपतः ।
तदैवाहं
शोकशल्यविद्धा नाप्नोमि वै सुखम् ।।११९ ।।
प्राचीनकाल
में उसने जब क्रोध में आकर अपने प्राणों का परित्याग किया था तभी मैं शोकरूपी
काँटे से विंध गई थी और आज भी सुख नहीं पा रही हूँ ।। ११९ ॥
इत्युक्त्वा
वदनं वस्त्रप्रान्तेनाच्छाद्य सा भृशम् ।
रुदन्ती प्रापतद्भूमौ
कश्मलञ्चाविशत्तदा ।। १२० ।।
ऐसा कहते हुए
आँचल से मुँह ढक कर वह बहुत रोई और रोते-रोते पृथ्वी पर गिरकर मूर्छित हो गयीं ।।
१२० ।।
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे शिवविषादवर्णनम् नाम अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
कालिका पुराण अध्याय १८ - संक्षिप्त कथानक
मार्कण्डेय
महर्षि ने कहा- उस अवसर पर भगवान शिव दक्षा के गुणगणों को परिगणन करते हुए हुए
अत्यधिक दुःख से प्रपीड़ित होकर प्राकृत मनुष्य की ही भाँति शोकाकुल हो गये थे ।
उस समय में विलाप करते हुए शिव को जानकर अर्थात् सती के वियोग में शम्भु को रुदन
करते हुए देखकर कामदेव, रति और बसन्त के सहित महेश्वर प्रभु के समीप में प्राप्त हो
गया था। उस रति के पति कामदेव ने शोक से अत्यन्त परिभ्रष्ट उस शम्भु को जो भ्रष्ट
चेतना वाले और रुदन करने वाले थे, एक ही साथ अपने पाँचों बाणों से प्रहार किया था। शोक के
कारण अभिहत चित्त वाले भी शम्भु कामदेव के बाणों के प्रहार से व्याकुल होकर
अत्यन्त ही संकीर्ण भाव को प्राप्त हो गये थे और उन्होंने बहुत शोक किया था और वे
मोह को भी प्राप्त हो गये थे अर्थात् शोक के वेग से मूर्छित हो गये थे । वे एक
क्षण में तो शोकाकुल होकर भूमि पर गिर जाया करते थे और एक क्षण में ही उठकर दौड़
लगाते थे । एक ही क्षण में वे भ्रमण करने लगते थे अथवा चक्कर काटा करते थे और फिर
वे विभु वहीं पर अपने नेत्रों को निमीलित कर लिया करते थे। किसी समय में देवी
दाक्षायणी का ध्यान करते हुए हास करने वाले हो जाते थे अर्थात् खूब अधिक हँसते रहा
करते थे । किसी समय में भूमि में लेटी हुई उस सती का आलिंगन किया करते थे मानों वह
रस के भावों से युक्त ही स्थित होवे । भगवान शंकर 'हे सती! हे सती!' इस प्रकार से निरन्तर सती के नाम का कथन करके ऐसा कहा करते
थे कि अब इस व्यर्थ में किए हुए नाम का परित्याग कर दो। ऐसा कहकर अपने हाथ से उस
सती के शव का स्पर्श किया करते थे । शम्भु भगवान् अपने हाथ से इस सती का परिमार्जन
करके उसके यथास्थित अलंकारों को विश्लेषित करके अर्थात् शरीर से दूर करके फिर उन अलंकारों
को वहाँ पर ही अर्थात् उस सती के मृत शरीर पर अलंकारित किया करते थे । तात्पर्य यह
है कि कभी तो आभूषणों को सती के मृत शव से दूर हटा लेते थे और उसी सती को सजीव
समझकर आभूषणों को उनके अंगों में धारण कराया करते थे ।
भूतेश्वर
भगवान् शम्भु के इस प्रकार से विलाप -कलाप करने पर भी जिस समय में वह मृत हुई सती
ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया था तो उस समय भगवान् शिव शोक की उद्गाढ़तापूर्वक
अत्यधिक रूदन करने लगे थे। जब वे रूदन करें रहे थे तो उसके आँसू नीचे गिर रहे थे ।
उस समय में देवगण ने उसको देखा था और वे ब्रह्मादिक देव चिन्ता में परायण होते हुए
अत्यधिक चिन्तातुर हो गये थे । भूमि पर गिरे हुए ये वाष्पक अर्थात् आँसू यदि
पृथ्वी का दाह कर देंगे तो वहाँ पर क्या उपाय करना चाहिए अर्थात् इन आँसुओं के
द्वारा पृथ्वी का दाह का क्या प्रीतकार होगा इससे ये सभी हाहाकार करने लगे थे । इसके
अनन्तर ब्रह्मादिक देवों ने शनैश्चर के साथ विचार किया था और उन्होंने भगवान शम्भु
के जो मोह के वशीभूत हो गए थे वाष्पों को धारण करने हेतु शनैश्चर का स्तवन किया
था।
मार्कण्डेय
ऋषि ने कहा- समस्त देवों द्वारा इस प्रकार से भाषण किए जाने पर सूर्य पुत्र
शनैश्चर ने अत्यन्त दयाद्र मन वाला होकर उन देवों को प्रत्युत्तर दिया था ।
शनैश्चर ने
कहा- हे सुरों में श्रेष्ठों! अपनी शक्ति के अनुसार ही आपका कार्य करूँगा किन्तु
ऐसी ही होना चाहिए कि दाह करने वाले मुझको भगवान् शम्भु न जान लेवें । महान् दुःख
और शोक के व्याकुल वाष्पधारी शिव के समीप में उनके कोप से यदि वह जान लेंगे तो
मेरा शरीर निश्चय ही नष्ट हो जायेगा- इसमें लेशमात्र भी संशय नहीं है । इस कारण से
ऐसा ही करिए कि जिस प्रकार से सती के पति भूतेश्वर शिव मुझको न जान पावें और उनके
नेत्रों से मैं पृथक ही बना रहूँ।
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा- - इसके पश्चात् वहाँ से ब्रह्मा आदि समस्त देवता शंकर के समीप में
गये थे और सांसारिक योगमाया के द्वारा शम्भु को उन्होंने पुनः अधिक मोहित कर दिया
था । शनैश्चर भी उसी समय भूतेश्वर के समीप में पहुंच गया था और उस दुराधर्म
वाष्पों की वृष्टि को माया से रोक दिया था। जब ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी तो वह
शनैश्चर भी शम्भु के वाष्पों को धारण करने में असमर्थ हो गया था तो उसके द्वारा
जलधारक महागिरि पर वे वाष्प प्रक्षिप्त किय गये थे ।
लोकालोक पर्वत
के समीप में जलधारा वाष्प वाला गिरि है जो पुष्कर द्वीप के पृष्ठ में स्थित है। वह
तोय सागर के पश्चिम में है । वह सब परिमाण से मेरु पर्वत के सदृश है । उस समय में
असमर्थ शनैश्चर ने उस पर ही वाष्पों को विन्यस्त कर दिया था। वह पर्वत भी शम्भु के
उन वाष्पों को धारण करने में समर्थ नहीं हुआ था । उन वाष्पों के समुदायों से वह
पर्वत विदीर्ण हो गया था और शीघ्र ही मध्य भाग में भग्न हो गया था । उन वाष्पों ने
उस पर्वत का भेदन करके वे फिर तोय सागर में प्रवेश कर गये थे । वे वाष्प अतीव
क्षार थे कि वह सागर भी ग्रहण करने में समर्थ नहीं हुआ था। इसके अनन्तर सागर को
मध्य में भेदन करके वे वाष्प सागर की पूर्व में रहने वाली बेला पर समागत हो गये थे
तथा स्पर्श मात्र से उन्होंने उस बेला का भेदन कर दिया था । पुष्कर द्वीप के मध्य
में गमन करने वाले ने वाष्प बेला का भेदन करके वैतरणी नदी हो गये थे और पूर्व सागर
में गमन करने वाले हो गये थे । जलधारा के भेद से और सागर के संसर्ग से कुछ सौम्यता
को प्राप्त होकर फिर उन्होंने पृथ्वी का भेदन नहीं किया था ।
इसके अनन्तर
शोक से विमूढ़आत्मा वाले शम्भु विलाप करते हुए उस मृत सती के शव (मृत देह ) को
अपने कन्धे पर रखकर प्राच्य देशों को चले गए थे । एक उन्मत्त की भाँति गमन करने
वाले इन शंकर के भाव को देवगणों ने देखकर ब्रह्मा आदि देवगण शव के भ्रष्ट होने के
कर्म के विषय में चिन्ता करने लगे थे । भगवान् शंकर के शरीर के स्पर्श से यह शव
विकीर्णता को प्राप्त नहीं होगा फिर किस रीति से उस वृषभध्वज के कन्धे से इस शव का
भ्रंश होगा। यही चिन्तन करते हुए वे ब्रह्मा विष्णु और शनैश्चर योगमाया से अदृश्य
होते हुए सती के शव के अन्दर प्रवेश कर रहे थे । देवों ने इसके उपरान्त सती के शव
के अन्दर प्रवेश करके उन्होंने उस सती के शव के खण्ड-खण्ड कर दिए थे और विशेष रूप
से स्थान-स्थान में उन खण्डों को भूतल में गिरा दिया था । देवीकूट के दोनों चरणों
को सबसे प्रथम भूमि में निपातित किया था । उड्डीपान में दोनों उरुओं के युग्म को
जगतों के हित के लिए भूमि पर उसको डाला था ।
कामगिरि
कामरूप योनि मण्डल गिरा था और वहाँ पर ही पर्वत की भूमि में सती के शव का
नाभिमण्डल गिरा था । जालन्धर में सुवर्ण के हार से विभूषित स्तनों को जोड़ा गिरा
था,
पूर्वगिरि में अस और ग्रीवा पतित हुए और फिर कामरूप से शिर
पतित हुआ था । भगवान् शंकर जितने भूमि के भाग में सती के शव लेकर गये थे उतना ही
प्राच्यों में याज्ञिक देश कीर्तित हुआ था । अन्य जो सती शव के अवयव थे वह छोटे-छोटे
टुकड़ों में देवों के द्वारा खण्डित कर दिए गये थे । हे द्विजो! जहाँ-जहाँ पर सभी
सती के पाद आदि पर्यन्त शरीर के अवयव गिरे थे वहाँ-वहाँ पर ही महादेव स्वयं लिंग
के स्वरूप धारण करने वाले हो गये थे और वे मोह से समायुक्त होकर सती के प्रति
स्नेह के वशीभूत होकर स्थित हो गये । ब्रह्मा-विष्णु और शनैश्चर ने भी समस्त
देवगणों ने परम प्रीति के साथ सती के पाद आदि शरीरावयवों की और ईश की पूजा की थी।
देवीकूट में
महादेवी महाभाग, इस नाम से गान की जाया करती हैं । जगत् के प्रभु योगनिद्रा सती के दोनों चरणों
में लीन हैं । उड्डीयान में कात्यायनी और कामरूप वाली कामाख्या हैं । पूर्णगिरि व
पूर्णेश्वरी है तथा जालन्धर गिरि में चण्डी इस नाम से विख्यात है । कामरूप के
पूर्वान्त में देवी दिकुरवासिनी है तथा ललितकान्ता, इस नाम से योगनिद्रा का गान किया जाता हैं। जहाँ पर सती का
शिर गिरा था वहाँ पर वृषभध्वज उस शिर का अवलोकन करके लम्बी श्वास लेते हुए शोक के
परायण होकर उपविष्ट हो गये थे । भगवान् शंकर के उपविष्ट हो जाने पर वहाँ पर
ब्रह्मा आदि देवगण दूर से ही शिव को सान्त्वना देते हुए उनके समीप में गये थे ।
भगवान् शंकर ने आते हुए देवों का अवलोकन करके शोक और लज्जा से समन्वित होते हुए
वहीं पर शिवत्व को प्राप्त होकर लिंग के स्वरूप को प्राप्त हो गये थे । भगवान शंकर
के लिंग का स्वरूप प्राप्त हो जाने पर ब्रह्मा आदि देवगणों ने उन लिंग के स्वरूप
वाले जगतगुरू त्र्यम्बक भगवान् का वहाँ पर ही स्तवन किया था ।
मार्कण्डेय
महर्षि ने कहा- इस प्रकार से भली-भाँति स्तवन किए गए जगत् के पति महादेव अपने रूप
में समस्थित होते हुए शोक से आहत प्रादुर्भूत हुए थे । उनकी शोक से विह्वल और बिना
चेत वाले अर्थात् मन्य मनस्क प्रादुभूर्त हुए देखकर देवों ने शोक के अपहरण
करनेवाले विधि वृषभध्वज की स्तुति की थी ।
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा- इस रीति से साम के द्वारा स्तुति किए गए शम्भु ने अपने वाँछित का
संस्मरण करके भी सती के शोक से बिना कृत हुए शिव ने उस समय में आत्मा का अवधारण
नहीं किया था । नीचे की ओर को मुख किए हुए समवस्थित ब्रह्माजी को देखकर उसने धीरे
से यह कहा था- हे ब्रह्माजी ! कुछ अतिक्रमण करनेवाली बात कहो। आप बतलाओ,
अब मैं क्या करूँ ।
मार्कण्डेय
महर्षि ने कहा- इस प्रकार से वामदेव और समस्त देवों के द्वारा कहे हुए विधना
(ब्रह्मा) उस समय मे महेश्वर के शोक का विनाश करने वाला यह वचन कहा था।
ब्रह्माजी ने
कहा- हे महादेव ! अपनी आत्मा के द्वारा ही अर्थात् अपने-आप ही अपनी आत्मा अर्थात्
अपने वास्तविक स्वरूप का संस्मरण करके शोक का परित्याग कर दो। आप शोक करने के
स्थान नहीं हैं। शोक से आपका परम अन्तर हो गया है । हे भूतेश्वर ! आपके शोकयुक्त
हो जाने पर सभी देवगण अत्यन्त भयभीत हो गए हैं। आपका क्रोध और शोक जगती-तल को
भ्रंश कर देगा और आपका शोक इसका शोषण कर देगा। आपके वाष्पों अर्थात् अश्रुपात से
यह सम्पूर्ण पृथ्वी व्याकुल होकर विदीर्ण हो जाती यदि शनि आपके वाष्पों को अवग्रहण
नहीं करता। वह शनि भी हठ से कृष्ण हो गया है । जहाँ पर गन्धर्वों के सहित सब देवगण
सदा उत्सुकता से युक्त होकर क्रीड़ा किया करते हैं। जो यह सुमेरु पर्वत के सदृश
मान से उत्तम पर्वत हैं- पुष्कर, आवर्त्तक आदि जलों का पान किया करते थे-जहाँ पर जा करके
महामुनि कुम्भयोनि मन्दार पर्वत से निरन्तर जगत के हित में तपस्या किया करते थे ।
जिस पर्वत में
भगवान शम्भु स्थित होकर पूर्व में जल के सागर को हाथ के मध्य में रखकर तप के बल से
पी गये थे। शनैश्चर के द्वारा आपके वाष्पों को सहन करने में असमर्थ होते हुए
क्षिप्त लोकों से यह जलधारा नामक गिरि विदारित हो गया था । हे शम्भो ! आप वाष्प
पर्वत का विशेष रूप से भेदन करके सागर में चले गये थे। वे प्रभीत अण्डजों से सकूल
सागर का शीघ्र ही भेदन करके वाष्प उसके पूर्व पुलिन पर चले गये थे और उन्होंने उस
पुलिन का भी भेदन कर दिया था । वेला का भेदन करके फिर पृथ्वी का भेदन किया था और
उन्होंने एक नदी को बना दिया था । उन्होंने उस वैतरणी नाम वाली नदी को बना दिया था
जो पूर्व सागर की ओर गमन करने वाली थी। वह नदी गर्म जल के होने के कारण से अत्यन्त
भीषण थी जो किसी भी नौका, विमान, द्रोणी और रथ के द्वारा भी पार करने के योग्य नहीं हो सकी
थी । पृथिवी महान् दुःख से साथ अब उसको धारण किए हुए थी । वह सदा ही ऊर्ध्वगत
अर्थात् ऊपर की ओर जाते हुए वाष्पों से नभश्चरों का विक्षेपण करती हुई थी और उसके
ऊपर से देवगण भी भय से आतुर होकर गमन करते हैं ।
यमराज के
द्वार से परावर्तित होकर दोनों जल से विस्तार वाली निम्न होती हुई वह सम्पूर्ण
तीनों भुवनों को भय उत्पन्न करती हुई वहन किया करती है । आपके शोक संतप्त
निःश्वासों की वायुओं से समस्त पर्वत और कानन व्याप्त हैं और समाकुल द्वीपीनाग आज
तक भी प्रतिशयन नहीं किया करते हैं। आपके संतप्त निःश्वासों से समुत्पन्न वायु
सम्पूर्ण जगत के सुख को पीड़ित करता हुआ वह बाधाहीन और सनातन आज तक भी शमन को
प्राप्त नहीं होता है। सती के शव अर्थात् मृत शरीर को वह करनेवाले आपके पद-पद में
यह पृथ्वी शीर्यमाण हो रही है और वह परम व्याकुल पृथ्वी अपनी व्याकुलता का मोचन
नहीं कर रही है। इस समय न तो पाताल में और न स्वर्ग में वह सत्व विद्यमान है जो
आपके क्रोध से और शोक से हे वृषभध्जव! व्याकुल न होवे। इसी कारण से आप शोक और अमर्ष
को परित्याग करके हम सब को शान्ति का प्रदान करो। अपनी आत्मा के द्वारा ही अपनी
आत्मा को जानिये अर्थात् स्वयं ही अपने आपके स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कीजिए और
आत्मा से ही आत्मा को धारण करिए और वह सती दिव्यमान से सौ वर्षों के व्यतीत हो
जाने पर त्रेता युग के आदि में वही सती पुनः आपकी भार्या होगी ।
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा- ब्रह्माजी के द्वारा इस रीति से कहे हुए शम्भु नीचे की ओर मुख वाले,
ध्यान में परायण होकर अमित ओज वाले ब्रह्माजी से बोले-हे
ब्रह्मण! जब तक मैं सती के द्वारा किए हुए शोक से उत्तीर्ण होऊँ तब तक आप मेरे सखा
हो व शोक का अपमोदन करिये। हे ब्रह्माजी ! उस अवसर पर मैं जहाँ-जहाँ पर भी गमन
करूँ वहाँ-वहाँ पर भी आप भी गमन करके मेरे इस दुस्सह शोक की हानि करिए । तात्पर्य
यही है कि मेरे ही सर्वदा साथ रहकर जहाँ पर भी मैं जाऊँ वहीं पर मेरे शोक का विनाश
करने की कृपा करें। लोकेश ब्रह्माजी ने 'ऐसा ही होवे' यह वृषभवाहन से कहकर अर्थात् मैं आपके साथ में सर्वत्र रहकर
आपके शोक का विनाश करूँगा। फिर ब्रह्माजी ने भगवान् शम्भु के ही साथ में कैलाश
गिरि पर जाने का मन किया था । ब्रह्माजी के साथ भगवान शम्भु को कैलाश पर्वत की ओर
गमन करने के लिए उत्सुक देखकर जो नन्दी और भृङ्गि आदिगण थे वे भी यह देखकर वहाँ
प्राप्त हो गये थे। फिर एक विशाल पर्वत के ही समान वृषभ विधाता के सामने उपस्थित
हो गया था जिस तरह से सिताभ के सदृश गैरिक होवे । वासुकि आदि जो शर्व थे उन सबने
यथास्थान पर भगवान् शम्भु की बहुत शीघ्र वहाँ आकर शिव के शिर और बहु आदि से उनको
विभूषित कर दिया था । कथन का अभिप्राय यही है कि वासुकी प्रभृति सब सर्प वहाँ आकर
शिव के करादि अंगों के आभूषण हो गये थे।
इसके अनन्तर
ब्रह्मा,
विष्णु और सती के पति महादेव समस्त देवों के समूह के साथ
हिमवान् पर्वत पर चले गए थे। इसके पश्चात् गिरि अपने नगर से निकलकर उन औषधियों के
प्रस्थों को अपने आत्माओं के सहित सुरोत्तमों के सामने उपस्थित हुए थे। इसके
अनन्तर उस गिरिराज के द्वारा वे सभी सुरगण पूजे गये थे और सबका एक ही साथ अभ्यर्चन
किया गया था । वहाँ पर उस देवों के यजन करने में सभी सचिव और पुरवासीगण भी
सम्मिलित थे । सुरगण ही बहुत प्रसन्न हुए थे। फिर वहीं पर उस गिरीन्द्र के नगर में
भगवान् हर ने उस औषधियों के प्रस्थ पर सखियों के साथ गौतम की आत्मजा विजया का
अवलोकन किया था ।
उसने भी उन
समस्त सुरों को प्रणिपात करके हर से कहा था । गिरीश से अपनी माता की भगिनी सती के
विषय में पूछती हुई ने क्रोध किया था । हे महादेव! आपकी वह सती कहाँ पर है मेरे
हृदय से दुःख दूर नहीं हट रहा है । मेरे ही आगे पहले समय में उसने जिस समय में कोप
से प्राणों को त्यागती है उसी समय में शोकरूपी शल्य से विद्ध होकर सुख को प्राप्त
नहीं करती हूँ । इतना कहकर वस्त्र के छोर से मुख को ढककर अधिक रूदन करती हुई भूमि
पर गिर पड़ी थी और बहुत दुःख को प्राप्त हो गई थी ।
॥
श्रीकालिकापुराण में शिवविषादवर्णन नामक अठारहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।। १८ ।।
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 19
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