रुद्रयामल तंत्र पटल ४०

रुद्रयामल तंत्र पटल ४०                             

रुद्रयामल तंत्र पटल ४० में षड्दल कमल के ६ वर्णो का पृथक्‌-पृथक्‌ ध्यान प्रतिपादित है (१९-२१) । इस प्रकार से षड्दलवर्णं के प्रकाश से शरीर में चित्त की निर्मलता से प्राणवायु की भी शुद्धि होती है ।

रुद्रयामल तंत्र पटल ४०

रुद्रयामल तंत्र पटल ४०                             

Rudrayamal Tantra Patal 40

रुद्रयामल तंत्र चालीसवाँ पटल

रुद्रयामल तंत्र चत्वारिंशः पटल:

रूद्रयामल तंत्र शास्त्र

अथ चत्वारिंशः पटल:

आनन्दभैरवी उवाच

अथ नाथ प्रवक्ष्यामि शृणुष्वावहितो मम ।

येन क्रमेण लोकानां योगकार्यं दृढं भवेत् ॥ १ ॥

श्री आनन्दभैरवी ने कहाहे मेरे नाथ! अब मैं जिस क्रम से लोगों का योग कार्य दृढ़ होता है, उसे कहती हूँ, सावधान हो कर सुनिए ॥ १ ॥

सर्वत्र भावग्रस्तः सः सिद्धो भवति भैरव ।

यो भवेभैरवो देवो भुवने सर्वगो हि सः ॥ २ ॥

हे भैरव ! जो साधक भैरव देव हो जाता है वह इस त्रिभुवन में सर्वज्ञ हो जाता है, सर्वत्र भैरव के भाव से ग्रस्त रहता है और वही सिद्ध भी कहा जाता है ॥ २ ॥

क्रियादक्षो महावीरो वीरवल्लभभावकः ।

भावयित्वा वर्णमालां मध्ये जप्त्वा दिवानिशम् ॥ ३ ॥

हविष्याशी प्राणवायुरतो वेदान्तपारगः ।

सिद्धान्तवेत्ता सर्वेषां शास्त्राणां निर्णयप्रियः ॥ ४ ॥

गाथाज्ञानी परानन्दो विवेकी भावतत्परः ।

भाववेत्ता रहस्यार्थज्ञानी कोविदवेदवित् ॥ ५ ॥

वाक्यसिद्धिज्ञानपरः सत्यवादी दृढासनः ।

भावयेत् षड्गतं वर्णं ध्यानं कुर्यात् पृथक् पृथक् ॥ ६ ॥

वही समस्त क्रिया में दक्ष, महावीर और वीरवल्लभ भावक तथा (ध्यानी) होता है, जो वर्णमाला का ध्यान कर मध्य में जप करता है। साधक हविष्यान्न का भोजन करे, प्राणवायु (प्राणायाम) में निरत रहे । उसे वेदान्त का पारगामी विद्वान्, सिद्धान्तवेत्ता, सभी शास्त्रों का निर्णय करने वाला, गाथा का ज्ञान रखने वाला, परब्रह्म के आनन्द वाला, विवेकी, भावतत्पर, भाववेत्ता, रहस्यार्थ का ज्ञानी, कोविद, वेदवेत्ता, वाक्सिद्धि का ज्ञान रखने वाला, सत्यवादी और दृढ़ासन का अभ्यासी होना चाहिए। ऐसा साधक स्वाधिष्ठान चक्र के ६ पत्रों पर रहने वाले छः वर्णों को पृथक् पृथक् ध्यान करे ।। ३-६ ॥

षट्पद्मस्थो भावयेद्वै षड्वर्ण ध्यानपूर्वकम् ।

वादिलान्ताक्षरं ध्यायेन्महाविद्यानिषेवकः ॥ ७ ॥

महाविद्या की उपासना करने वाला षट्वर्ण वाले स्वाधिष्ठान पद्म पर स्थित हो कर ब भ म य र और ल वर्णों की ध्यानपूर्वक भावना करे ॥ ७ ॥

रुद्रयामल तंत्र चत्वारिंशः पटल:

बकार सौन्दर्यं स्वकिरणमयं भाव्यमतुलं

मुकुन्दश्रीभक्तिप्रियरमणकं पूर्वदलगम् ।

विशिष्टज्ञानान्तं सुखरनतं कोटिकरणं

विभाव्य श्रीलक्ष्मीं गमयति झटित् कालपुरुषम् ॥ ८ ॥

१. बकार का ध्यान पूर्व दिशा के दल पर स्थित बकार वर्ण सुन्दरता से युक्त अपने किरणों वाला, भाव्य (भव्यता से युक्त) एवं असीम है। मुकुन्द भगवान् की श्रीभक्ति का प्रिय रमण करने वाला मन्त्रज्ञ है, विशिष्ट ज्ञान का अन्त है। सुख देने वाला एवं विनम्र है और करोड़ों किरणों से युक्त है इस प्रकार के बकार का ध्यान कर साधक श्रीलक्ष्मी प्राप्त करता है और शीघ्र कालपुरुष को नष्ट कर देता है ॥ ८ ॥

द्विवर्णं श्रीनाथं सुखयति भकारं रसदले

त्रिकोणापार्श्वस्थां चपलशकलं शम्भुनिलयम् ।

महारक्ताकारं तरुणविगतं भीममकुलं

कुलागारस्थानं कुलरमणीरक्तायुतमिति ॥ ९ ॥

२. भकार का ध्यान षड्दल पर स्थित भकार दो वर्ण वाले श्री महालक्ष्मी (गौर वर्ण) एवं उनके नाथ विष्णु (श्याम वर्ण) को सुख प्रदान करता है। ये त्रिकोणा (भगवती) के पार्श्व में स्थित रहने वाला चपल (त्वरा) का खण्ड है, शम्भु का गृह है, उसका आकार महारक्त है तारुण्य से रहित, भीम एवं अकुल है। कुलागार का स्थान एवं कुलरमणी महाशक्ति के रक्त से युक्त है ॥ ९ ॥

यदा ध्यायेत् ज्ञानी निरवधि मुदा शोकविषहं

त्रिलोकानां स्थानं भुवनशरणं प्रातविसुखी ।

महामोक्षद्वारे भवति स महान् सर्वजडितो

विलासी सर्वेषां नवनववधूनां प्रियपतिः ॥ १० ॥

जिस समय ज्ञानी प्रसन्नतापूर्वक शोक रूपी विष को दूर करने वाले, असीम भकार का ध्यान करता है तो वह तीनों लोकों के स्थान सभी भुवनों को शरण देने वाले (परमात्मा) को प्राप्त कर विशेष रूप से सुखी हो जाता है। महामोक्ष के द्वार पर वह सब से महान् हो जाता है, सब में मिला हुआ हो जाता है, विलासी एवं सभी प्रकार के नवीन से नवीन तरुणी जनों का प्रियपति बन जाता है ॥ १० ॥

महाकालस्थानं स जयति सकारं यदि भजे

दरीणां व्याहस्ता रुधिरकिरणं कोट्यरुणकम् ।

महाकालस्थानं (.....) शरणं प्रागपि सुखी

त्रिकोणां दक्षाङ्गे निगमनयनो योगयजितः ॥ ११ ॥

३. मकार का ध्यान यदि साधक, रुधिर (लाल) किरणों वाले, करोड़ों अरुण (सूर्यसारथि) के समान मकार का ध्यान करता है तो वह महाकाल के स्थान को भी जीत लेता है, अपने समस्त शत्रुओं को हस्तरहित (परतन्त्र) बना देता है, वह सर्वप्रथम महाकाल का स्थान जीतता है और सुखी हो जाता है एवं त्रिकोणा (भगवती) के दाहिने अङ्ग में निवास करता है । अन्ततः निगम (वेद) का नेत्र एवं योगियों से पूजित हो जाता है ॥ ११ ॥

विनोदी सौख्यानां सुरतरुसमानो भुवि दिवि

यकारं यो ध्यायेदमरपदवीव्याधिरहितः ।

महावाणीनाथं प्रणयजडितं त्वक् सुरतरुं

मुकुन्दानन्दान्तः पवनमिलितं कामकरणम् ॥ १२ ॥

४. यकार का ध्यानमहावाणी के नाथ, प्रेम से जड़ीभूत त्वक् एवं कल्पवृक्ष के समान मुकुन्द के आनन्द का अन्तरूप, पवन से मिश्रित, काम उत्पन्न करने वाले यकार का जो साधक ध्यान करता है वह सभी सौख्यों से विनोद (सुख) करने वाला, पृथ्वी और आकाश में कल्प- वृक्ष के समान अमर पदवी वाला बनकर सभी प्रकार के व्याधि से रहित हो जाता है ॥ १२ ॥

तदा लोकोऽकामी भवति नितरां काकपवनी

महाग्ने: संस्थानं परजलधरं सूर्यशतकम् ।

यदानन्दैर्ध्यायेत् परमधनदं यज्ञसुधया

सुधापानज्ञानी हवनकरणं काम्यफलदम् ।

प्रियं तवेरत्याः कमलगभुजङ्गेश्वरनुतं

त्रिकोणा पृष्ठस्थं विधिहरिहरस्य प्रियमिति ॥ १३ ॥

५. रकार का ध्यान साधक के लिए यह सारा लोक उस समय अकामी (कामना से रहित) हो जाता है तथा कौवे के चञ्चु के समान निर्मित अपने अधरोष्ठ से पवन पी कर संतुष्ट हो जाता है जब वह महाग्नि के संस्थानभूत उत्कृष्ट जल धारण करने वाले सैकड़ों सूर्य के समान तेजस्वी, यज्ञसुधा से बहुत धन प्रदान करने वाले, हवन करने से काम्य फल देने वाले अग्नि (रं) का आनन्द से ध्यान करता है, तभी वह सुधापान का ज्ञानी (देवता) बन जाता है । रति का प्रिय हो जाता है। कमलेश्वर एवं भुजङ्गेश्वर से प्रणत हो जाता है, त्रिकोणा (भगवती) के पीठ पर स्थिति प्राप्त करता है। किं बहुना विधि, हरि और हर का प्रिय हो जाता है ।। १३ ॥

विधानं वह्नीनां कुल विमलबीजं सकरुणं

असृङ् मायाखण्डं खगगणमनोरञ्जनवरम् ।

यदि ध्यायेदेको विभवविविधं याति सहसा

महेन्द्रः स्थानाङ्गं कमलसुखदं कृष्णनिलयम् ॥१४॥

सृष्टि का विधान करने वाला गार्हपत्यादि समस्त अग्नियों के कुल का विमल बीज (रं) का स्वरूप, करुणा से युक्त असृङ् (रक्त रूप से प्रवाहित होने वाले) माया के खण्ड तथा हविर्दान से देवताओं को प्रसन्न करने वाले, महेन्द्र का स्थान प्राप्त कराने वाले, (हृत्) कमल को सुख देने वाले, कृष्ण के निवास का स्थानभूत अग्नि (रं) का जो अकेले ध्यान करता है वह सहसा नाना प्रकार के विभवों को प्राप्त करता है ॥ १४ ॥

प्रियं सिद्धक्षेत्रं यदि सुखमयं भावयति यः

लकार चन्द्रस्थं विधुशतकरं बिन्दुनिलयम् ।

विशालाक्षी राधा मधुरवचनालापकलितं

रमामोदे पत्रे तरणकरणं सापहरणम् ॥ १५ ॥

सुवामे राकिण्या नवरसमयं मोहहरणं ।

विभाव्य श्रीनाथं भजति स नरो ध्याननिपुणो ।

महामोक्षं प्राप्य प्रथम रजसं सङ्गमयति ॥ १६ ॥

६. लकार का ध्यानचन्द्रमा में रहने वाले, चन्द्रमा के समान किरणों वाले, बिन्दु के निवास स्थान, विशालाक्षी राधा के मधुर वचनालाप से अलंकृत, रमा को आनन्द देने वाले, कमल पत्र पर तैरने वाले तथा ताप का हरण करने वाले लकार का जो साधक विभावन करता है वह सबका प्रिय, सिद्ध क्षेत्र और सुखमय हो जाता है। राकिणी के सुन्दर वाम भाग में विराजमान नवो रसों के स्वरूप, मोह का हरण करने वाले श्री नाथ का ध्यान जो मनुष्य ध्यान में निपुणता प्राप्त करता है वह महामोक्ष पदवी प्राप्त कर अपने पूर्वजन्म के रजोगुणों को नष्ट कर देता है ।। १५-१६ ।।

ततो ध्येया महाविद्या राकिणीशक्तिरुत्तमा ।

श्रीविष्णुसहिता नित्यं योगैर्भोगविवर्जितः ॥ १७ ॥

अकलङ्की कुलानन्दो मन्दहास्यावृतो महान् ।

स योगी परमं राज्यं प्राप्नोति नात्र संशयः ॥ १८ ॥

यावन्मूलाधारयोगं तावद् यमादिकं प्रभो ।

यमनियमासने काले योगं पञ्चामरान्वितम् ॥ १९ ॥

छः वर्णों एवं श्री नाथ का ध्यान करने के उपरान्त भोगों को त्याग कर योग के द्वारा श्रीविष्णु सहित उत्तमा महाविद्या राकिणी का साधक को ध्यान करना चाहिए। ऐसा करने वाला साधक कलङ्करहित, निर्दोष, कुल के लिए आनन्दभूत, मन्दहास्य से युक्त महान् बन जाता ऐसा योगी परम राज्य (पूर्णानन्द) प्राप्त कर लेता हैं, इसमें संशय नहीं। हे प्रभो ! जब तक मूलाधार से साधक का सम्बन्ध है तब तक यम, नियम आसनादि योग विधेय है, इतना ही नहीं यम, नियम एवं आसनकाल में पञ्चामरायोग का भी सेवन करना चाहिए ।। १७-१९ ।।

तावत्कुर्यान्महादेव यावत्तत् सिद्धिमाप्नुयात् ।

यदि पञ्चामरा सिद्धिस्तदा मायादिसिद्धिभाक् ॥ २० ॥

पञ्चासवा सिद्धिकाले प्राणादिवायुपञ्चमम् ।

धृत्वा धृत्वा पुनर्धृत्वा कुम्भयेदनिशं शनैः ॥ २१ ॥

शरीरे निर्मले याते वायुनिर्मलता भवेत् ।

सर्वरूपी महावायुर्निर्मलात्मानमात्मनि ॥ २२ ॥

सिद्धिं ददाति योगेश यदि स्वकार्यमाश्रयेत् ॥ २३ ॥

हे महादेव ! उक्त सभी क्रियायें तब तक करनी चाहिए, जब तक सिद्धि प्राप्त न हो जाय । यदि पञ्चामरा की सिद्धि हो गई तो साधक मायादि सिद्धि का भाजन बन जाता है। जब तक पञ्चामरा की सिद्धि न हो, तब तक पाँचों प्राणवायुओं को बारम्बार धारण करते हुए धीरे धीरे निरन्तर कुम्भक करता रहे। शरीर के निर्मल हो जाने पर वायु निर्मल हो जाता है, क्योंकि महावायु सर्वरूपी है। हे योगेश ! यदि साधक अपने कार्य में लगा रहे तो वह अपनी आत्मा के निर्मल हो जाने पर सिद्धि प्रदान करता है ।। २१-२३ ।।

॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महातन्त्रोद्दीपने सिद्धिमन्त्रप्रकरणे आनन्दभैरवी-भैरवसंवादे षड्दलवर्णप्रकाशो नाम चत्वारिंशत्तमः पटलः ॥ ४० ॥

॥ श्रीरुद्रयामल के उत्तरतन्त्र के महातन्त्रोद्दीपन में सिद्धिमन्त्र प्रकरण में आनन्दभैरवी-भैरव संवाद में अधिष्ठान चक्र के षड्दलों के वर्ण प्रकाश नामक चालीसवें पटल की डा० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ ४० ॥

आगे जारी............रूद्रयामल तन्त्र पटल ४१ 

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