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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
त्रितत्त्वलाकिनी स्तवन
रुद्रयामल तंत्र पटल ४४ में मणिपूर
भेदन के प्रसङ्ग में ही त्रितत्त्वलाकिनी शक्ति का स्तवन किया गया है। मणिपूर का
ध्यान कर क्या नहीं सिद्ध किया जा सकता है। हृदयपद्म के अधोभाग में विधिपूर्वक
ध्यान करके योगिराट् होता है और रुद्राणी सहित महारुद्र का दर्शन प्राप्त करता
है। इस प्रकार २४ श्लोकों तक पूजा क्रम का विधान कर २५--३३ तक स्तोत्र है। ३४-३७
तक स्तोत्र की फलश्रुति कही गई है ।
रुद्रयामल तंत्र पटल ४४ त्रितत्त्वलाकिनी शक्ति स्तवन
Rudrayamal Tantra Patal 44
रुद्रयामल तंत्र चौवालिसवाँ पटल
रुद्रयामल तंत्र चतुश्चत्वारिंशः पटल:
रूद्रयामल तंत्र शास्त्र
अथ चतुश्चत्वारिंशः पटल:
आनन्दभैरवी उवाच
मणिपूरविभेदार्थं शृणु वक्ष्यामि
तत्त्वतः ।
यं ज्ञात्वा मूढलोकाश्च प्रविशन्ति
महाघटे ॥ १ ॥
अमूढत्वं प्राप्नुवन्ति भवन्ति
योगिनोऽमराः ।
खेचरत्वं प्राप्नुवन्ति
सांख्ययोगनिषेविणः ॥२॥
महापातकमुख्यानां नाशं शीघ्रं
महारिपुम् ।
कियत्कालेऽनले दोषे जले पर्वतकानने
॥ ३ ॥
कुर्वन्ति च दिदृक्षूणां देवतावशमेव
च ।
मणिपूरं महापीठं ध्यायेद् यः
प्राणसंयमम् ॥ ४ ॥
आनन्दभैरवी ने कहा- हे आनन्दभैरव !
अब मणिपूर के भेदन के लिए जिन बातों को कह रही हूँ, उसे सावधानी पूर्वक सुनिए। जिसे जानकर मूर्ख लोग भी महाकाश (निराकार
आत्मा) में प्रवेश करते हैं। वे ज्ञान प्राप्त कर ज्ञानी बन जाते हैं, अमर योगी बन जाते हैं। ज्ञान और योग की सेवा करते हुए खेचरता भी प्राप्त
कर लेते हैं। उनके द्वारा किए गए समस्त बड़े बड़े पाप, शीघ्र
नष्ट हो जाते हैं और उनके शत्रु कुछ ही काल में अग्नि में जल जाते हैं अथवा अपने
पापों से मर जाते हैं, अथवा जल में डूब जाते हैं अथवा पर्वत
से गिर कर नष्ट हो जाते हैं, किं वा वन में भटक जाते हैं। ऐसे लोग जो प्राणसंयम कर
मणिपूर महापीठ का ध्यान करते हैं, देखने वालों को तथा
देवताओं को अपने वश में कर लेते हैं ।। १-४ ।।
मणिपूरचक्रभेदनम्
तथा पञ्चाऽऽसवासिद्धिं कृत्वा पूरं
विभेदयेत् ।
त्रिलोक जननीं सत्यां शिवामाद्यां त्रियोगिनीम्
॥ ५ ॥
मूलाधारात् समुत्पत्य गच्छन्ती रसषड्दले
।
प्रकाशं षड्दलं कृत्त्वा
प्रगच्छन्ती प्रभान्विता ॥ ६ ॥
साधक सर्वप्रथम पञ्च आसव की सिद्धि
करे । तदनन्तर मणिपूर का विभेदन करे। मूलाधार से उठकर षड्दल कमल पर जाती हुई और
उसे प्रकाशित करती हुई प्रभा से युक्त त्रिलोक जननी सत्या,
आद्या, शिवा, त्रियोगिनी
का ध्यान करे ।। ५-६ ।।
विमर्श - पञ्च आसव — अमरलता, काली तुलसी, भाँग, दूर्वा, मेउड़ी
(निर्गुण्डी) और बिल्व पत्र हैं( द्र० ५०. ३२-३३ )।
मणिपूरे महाचक्रे त्रैलोक्यजपसाधने
।
सिद्धीनां निलये काम्ये कमनीये मनः
प्रिये ॥ ७ ॥
मनः प्रिया महादेवी
सर्वोल्लासनकारिणी ।
खेचरी महदानन्दमण्डिता मन्त्रयोगिनी
॥ ८ ॥
अनुग्रहकरी सिद्धा विभाव्या तत एव
हि ।
आनन्दघन सन्दोहमात्मज्ञानं
सुनिर्मलम् ॥ ९ ॥
मणिपूरं संविभाव्य किन्न सिद्धयति
भूतले ।
अणिमा लघिमा
व्याप्तिर्महाश्रेष्ठादिसिद्धिभाक् ॥ १० ॥
यह मणिपूर महाचक्र त्रैलोक्य के जप
का साधन है, सिद्धियों की निवास भूमि है,
कामना प्रदान करने वाला है, कमनीय एवं मन को
सुख देने वाला है। वहाँ पर महादेवी, सर्वोल्लासकारिणी,
मनः प्रिया, खेचरी, महदानन्दमण्डिता,
अनुग्रहकारिणी, सिद्धा एवं मन्त्रयोगिनी देवी
का ध्यान करना चाहिए। यह मणिपूर आनन्द घन संदोह है । अत्यन्त निर्मल आत्मज्ञान का
स्वरूप है । उसका ध्यान करने से इस भूतल में कौन सी सिद्धि नहीं होती ? मणिपूर का ध्यान करने वाला साधक अणिमा, लघिमा,
व्याप्ति तथा अन्य महाश्रेष्ठ सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है ।।
७-१० ।।
कौलो वा वार मुख्यो वा ज्ञानी वा
साधकोत्तमः ।
योगाभ्यासं यः करोति मणिपूरं
समाश्रयेत् ॥ ११ ॥
मणिपूरस्थितं देवं यः स्तौति नियतः
शुचिः ।
स्तवराजस्य पाठेन प्रबुद्धा कुण्डली
भवेत् ॥ १२ ॥
सा देवी परमा माया मणिपूरे स्थिता
शिवा ।
प्रबुद्धां कास्यत्येव ततः सिद्धो
भवेन्मनुः ॥ १३ ॥
साधक कौल हो अथवा वारमुख्य (गवैया
या नर्तक) हो, ज्ञानी हो अथवा साधकोत्तम हो,
जिसे योगाभ्यास करना हो उसे मणिपूर का आश्रय अवश्य ग्रहण करना चाहिए
। जो नियमपूर्वक पवित्र होकर मणिपूर में स्थित होकर स्तुति करता है, इस स्तवराज के पाठ से उसकी कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो जाती है। वह कुण्डली
परमा माया है, मणिपूर में स्थित रहने वाली शिवा देवी है। वह
प्रबुद्ध हो जाने पर प्रकाश उत्पन्न करती है, जिससे मन्त्र
सिद्ध हो जाता है ।। ११-१३ ।।
सिद्धे मनौ पराप्राप्तिरिति मे
तन्त्रनिर्णयः ।
यदि चैतन्यमिच्छन्ति कुण्डलिन्याः
पराक्रमम् ॥ १४ ॥
जानाति निजदेहे च महोदयमनुत्तमम् ।
तेषां चैतन्यहेतोश्च देवतानां
कुलेश्वर ॥ १५ ॥
महास्तोत्रं समाकुर्यात् प्रत्यहं
सिद्धिहेतुना ।
सिद्धिकार्यं धर्मकार्यं मणिपूरे
समाप्नुयात् ॥ १६ ॥
मन्त्र के सिद्ध होने पर पराशक्ति
की प्राप्ति होती है, ऐसा तन्त्र शास्त्र
का निर्णय है। साधक गण जब कुण्डलिनी को चेतन कर लेते हैं, तब
उन्हें कुण्डलिनी के पराक्रम का ज्ञान होने लगता है । उसे अपने देह में महान्
अभ्युदय प्राप्त होने लगता है। अतः हे कुलेश्वर ! साधक को कुण्डलिनी को जागरूक
करने के लिए तथा सिद्धि प्राप्त करने के लिए मणिपूर स्थित उन-उन देवताओं के
महास्तोत्र का पाठ प्रतिदिन करते रहना चाहिए। ऐसा करने से वह सिद्धि कार्य तथा
धर्म कार्य मणिपूर में प्राप्त कर लेता है ।। १४-१६ ।।
मणिपूर निवासिन्याः भेदनं ज्ञानसाधनम्
।
सहस्रनामममलं सिद्धिद्रव्यनिरूपणम्
॥ १७ ॥
नित्यसिद्धिं काम्यसिद्धिं मणिपूरे
समाश्रयेत् ।
प्राणबुद्धया स्वेष्टदेवीं
पूजयेल्लाकिनीं पराम् ॥ १८ ॥
मणिपूर में स्थित महादेवी का भेदन
समस्त ज्ञान का साधन है । उनका परम पवित्र सहस्रनाम सिद्धि प्रदान करने वाले समस्त
द्रव्यों का निरूपण करने वाला है । नित्यसिद्धि तथा काम्यसिद्धि प्रदान करता है।
अतः मणिपूर का आश्रय अवश्य लेना चाहिए और अपने प्राणों की बुद्धि से स्वेष्ट देवी
परा लाकिनी का पूजन करना चाहिए ।। १७-१८ ।।
स्वदेवतां पूजयेद् वै मणिपूरे
महालये ।
मणिपूरस्थितां रौद्री महाशक्तिं
महोदयाम् ॥ १९ ॥
सर्वसञ्चारिणीं योग्यां
महायोगिप्रियां पराम् ।
निजदेवीपदाम्भोज पूजावत् पूजनं
चरेत् ॥ २० ॥
मणिपूर नामक महालय में स्वदेवता का
पूजन करे । फिर मणिपूर में रहने वाली १. रौद्री, २. महाशक्ति, ३. महोदया, ४.
सर्वसञ्चारिणी, ५. योग्या, ६.
महायोगिप्रिया एवं ७. परादेवी का भी अपने इष्टदेवता के चरण कमलों के समान ही पूजन
करे ॥ १९-२० ॥
पूजां समाप्य विधिना स्तोत्रं
देव्याः समाचरेत् ।
तत्प्राणवायुरुपेण सिद्धीना
नाशहेतवे ॥२१॥
विधिपूर्वक पूजा करने के अनन्तर
प्राणवायु रूप से स्थित समस्त (सिद्धियों) विघ्नों के विनाश के लिए देवी के
स्तोत्र का पाठ करना चाहिए ॥ २१ ॥
कृतं स्तोत्रं कोटिनाम ब्रह्मणा
गुणकात्मना ।
तत्सर्वं प्रकरोष्येतत् प्रकारं
ज्ञानशङ्कर ॥२२॥
एतत्स्तोत्रप्रसादेन योगिनस्ते
महौजसः ।
अहङ्कारघटी ज्ञानं
महाव्याधिनिवारणम् ॥२३॥
महास्तवनमेवं हि
साक्षादानन्दवर्धनम् ।
नय भक्तिप्रदं शुद्धं
शुद्धानामप्यगोचरम् ॥२४॥
गुणों की प्राप्ति की इच्छा से
ब्रह्मदेव ने करोड़ों नाम से युक्त इस स्तोत्र का पाठ किया था । हे ज्ञानशङ्कर !
यह प्रकार सब कुछ कर देता है । इस स्तोत्र के प्रभाव से वे महायोगी महातेजस्वी बन
गए । जिससे उन्ह आत्मज्ञान प्राप्त हो गया और उनके महाव्याधियों का निवारण भी हो
गया । ऐसे भी यह सहस्त्रनाम महास्तोत्र साधक के सक्षात् आनन्द को बढ़ाने वाला है
। यह नय (नीति) है, भक्ति प्रदान करने
वाला है तथा शुद्ध साधक को आत्म दर्शन कराने वाला है ॥ २२-२४॥
रुद्रयामल तंत्र पटल ४४
Rudrayamal Tantra Patal 44
रुद्रयामल तंत्र चौवालिसवाँ पटल त्रितत्त्वलाकिनीस्तवनम्
रुद्रयामल तंत्र चतुश्चत्वारिंशः पटल:
अथ त्रितत्त्वलाकिणीशक्तिस्तवनम्
शिवां शक्यमाद्यां दशदलगतां
रुद्रमहिषीं
विशालाक्षीं सूक्ष्मां
शशियुतजटाजूटमुकुटाम् ।
महाविद्युत्कोटिप्रियजटितपीठे
त्रिनयनां
महालाकिन्याख्यां दशदल कलां भावयति
कः ॥२५॥
शिवा, सब कुछ करने में समर्थ, आद्या, दशद्ल पर निवास करने वाली रुद्र महिषी, जिनके नेत्र
विशाल हैं, जो अत्यन्त सूक्ष्म हैं, जिनके
जटाजूट मे चन्द्रमा रूप मुकुट का निवास है, जो करोड़ों
विद्युत् के समान जटित अपने पीठ पर विराजमान हैं, जिनके तीन
नेत्र हैं ऐसी दश दल कला के ऊपर रहने वाली एवं महान् प्रकाश वाली लाकिनी का ब्रह्मदेव
ध्यान करते हैं ॥ ।॥ २५ ॥
मृणालान्तर्ध्वान्तः
प्रकटतटसंहारसुभगां
कुलक्षेत्रोल्लासां चरमपददां
दीपकलिकाम् ।
सदानन्दाकारां गतिगुणहरां
चारुकिरणां
प्रभावर्णश्यामां रुचिरवदनां भावयति
कः ॥ २६ ॥
जो मृणाल के भीतर रहने वाले अन्धकार
को स्पष्ट रूप से संहार करने में कुशल हैं, कुल
क्षेत्र (मूलाधार) को प्रकाशित करने वाली, मोक्ष प्रदान करने
वाली दीपकलिका हैं, सदा आनन्द के आकार वाली, ज्ञान रूप गुणों वाली तथा सुन्दर किरणों वाली हैं, प्रभा
तथा वर्ण से श्याम रङ्गवाली हैं, ऐसी मनोहर मुख वाली,
चन्द्रवदना भगवती का ब्रह्मदेव ध्यान करते हैं ॥ २६ ॥
प्रतीक्षानन्दाब्धि प्रकटचरणाम्भोजयुगलां
वियद्वर्णा कान्तां
सुरवरसुपूजाविधिरताम् ।
महासूक्ष्मद्वारप्रचलनकरीं भेदनकरीं
दिवायोगालादप्रियजनशिवां भावयति कः
॥ २७ ॥
जो (सिद्धि की) प्रतीक्षा रूप से
आनन्द का समुद्र हैं, जो अपने दोनों चरण
कमलों से प्रकाश करती हैं, आकाश के समान वर्ण वाली, कमनीय शोभा से युक्त जो सुरवरों (इन्द्रादि देवगण)
द्वारा की गई पूजा विधि को ग्रहण करने वाली हैं, जो
महासूक्ष्मद्वार में चलने वाली तथा भेदन करने वाली हैं, ऐसी
दिवायोग में प्राणियों को आह्लादित करने वाली एवं प्रियजनों का कल्याण करने वाली
भगवती का ब्रह्मदेव ध्यान करते हैं ॥। २७ ॥
अयोध्यापीठस्थामरुणकमनीं
प्रेमगलितां
महारौद्री भीमां
शतशतरविप्रेमनिकराम् ।
महादुःखार्तानां नयनशुभगां
भावविरहां
सतीं सीतामिन्द्रोत्सवनवघटां भावयति
कः ॥ २८ ॥
जो अयोध्या पीठ में निवास करने वाली,
रक्त होने से प्रेम से आर्द्र होने वाली हैं, महारौद्री
एवं भीमा हैं, महान् दुःखी जनों के लिए दर्शन में कमनीय लगने
वाली, सौ सौ सूर्यों के समान अगाध प्रेम से परिपूर्ण,
नेत्रों को शीतल करने वाली, भाव से परिपूर्ण,
सती सीता स्वरूपा तथा इन्द्र धनुष युक्त नवीन घटाओं वाली ऐसी श्री भगवती
लाकिनी का ब्रह्मदेव ध्यान करते हैं ।। २८ ।।
सुधाब्धेराह्लादप्रकरणसुरां
सौरभकरां
क्रियारूपां योग्यां
भुवमणिपूरप्रकृतिगाम् ।
गुरोः स्थानोद्योगां समनदहनां
शीतलवरां
त्रितत्त्वां तत्त्वज्ञां स
(श)मरहरशक्तिं भजति कः ॥ २९ ॥
सुधा समुद्र को आह्लादित करने के
लिए सुरा के समान, सुगन्धित किरणों
वाली, क्रियास्वरूपा, योग्या, भुवन की मणि से परिपूर्ण, प्रकृति में निवास करने
वाली, गुरुगणों के स्थानों से युक्त, समन
अर्थात् अहङ्कार सहित पाप को अथवा शमन काल को भी जला देने वाली, अतएव अत्यन्त शीतल, त्रितत्त्वा, तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण तथा समर में शत्रु शक्ति का नाश करने वाली ऐसी
भगवती का ब्रह्मदेव पूजन करते हैं ।। २९ ।।
विकाराकाराङ्गीं
तरुणरविकोटिश्रियमिमां
कुलाधारां सारां परमरसधारां जयवराम्
।
कृपाच्छन्नाकामा परमरसभाण्डेषु
शुभदां
भजेदिन्द्रां रुद्रां
शशिमुखकराह्लादनिकराम् ॥ ३० ॥
प्रकृति के विकारों के आकार वाली,
मध्याह्नकालीन करोड़ों सूर्यो के समान शोभा वाली, मूलाधार स्वरूपा, सारा, परमरस
धारा, जयदात्री, कृपा से आच्छन्न,
कामरहित एवं परब्रह्म- रस चाहने वाले भक्तों का कल्याण करने वाली,
इन्द्राणी, रुद्राणी, अपने
चन्द्रमुख से समस्त जगत् को आह्लादित करने वाली जो हैं ऐसी भगवती की सेवा करनी
चाहिए ॥ ३० ॥
रसाब्धी विश्रान्तिं कुपितजनशान्तिं
सकरुणां
त्रिलोकज्ञानस्थां मदननिलयां
योगनिकराम् ।
मणिद्वीपच्छायां दशदलकलां केवलभवां
भवानीं रुद्राणीं वरदमणिपूरे भजति
कः ॥ ३१ ॥
रस के समुद्र में विश्राम करने वाली,
क्रोधी जनों को शान्ति प्रदान करने वाली, करुणा
से परिपूर्ण, त्रिलोकज्ञान में रहने वाली, कामकला, योगिनी, मणिद्वीप
को आच्छादित करने वाली, दश दल रूप कला वाली, एकमात्र ब्रह्मस्वरूपा, भवानी, रुद्राणीरूपा भगवती की सेवा वरद मणिपूर में ब्रह्मदेव करते हैं ॥ ३१ ॥
कृपाब्धी किं किं किमनुगतसुतां
मौलिनमितां
शिवाङ्कां मूलस्थां
सकलमणिपूरस्थिरभवाम् ।
हिरण्याक्षीं तक्षा
क्षयकरणरश्मिच्छविशतां
विनोदीं पञ्चास्यप्रियगुणधरां
भावयति कः ॥ ३२ ॥
कृपा के समुद्र में 'किं किं किं' इस मन्त्र से
उत्पन्न होने वाली, भक्तों द्वारा शिरों से नमस्कृत, शिव के अङ्क में निवास करने वाली, मूलाधार में स्थित
रहने वाली, समस्त मणिपूर में स्थिर रूप से रहने वाली,
हिरण्याक्षी, पापों को काटने वाली (तक्षा),
संहार के लिए सैकड़ों रश्मि से संयुक्त छवि वाली, विनोदिनी, पंचमुख सदाशिव की प्रिया, गुणधारिणी श्री भगवती का ब्रह्मदेव ध्यान करते हैं ।। ३२ ॥
महापद्माख्यां सकलधनदानाकुलचलां
चलानन्दोद्रेक-प्रचयरससिन्धूद्भवहृदि
।
हृदानन्दो ध्यायेत् सकलगुणदात्रीं
सुखमयीं
कलां सूक्ष्मात्यन्तां तिमिरदहनां
कोटिधनदाम् ॥ ३३ ॥
महापद्म नाम से पुकारी जाने वाली,
सम्पूर्ण धन देने के लिए आकुल एवं चञ्चल, सुखमयी,
सकल गुणदात्री, कला, सूक्ष्मा,
अत्यन्त अन्धकार का नाश करने वाली, करोड़ों
कुबेर के समान श्री भगवती का निश्चल आनन्द के उद्रेक से एकत्रित रस सिन्धु स्वरूप
हृदय में, हृदय से आनन्दित हुआ भक्त ध्यान करे ।। ३३ ॥
रुद्रयामल तंत्र पटल ४४
Rudrayamal Tantra Patal 44
रुद्रयामल तंत्र चौवालिसवाँ पटल
रुद्रयामल तंत्र चतुश्चत्वारिंशः पटल: त्रितत्त्वलाकिणीशक्तिस्तवनम् फलश्रुति:
दशकं यः पठेन्नित्यं श्रीविद्यां
सुखदायिनीम् ।
ध्यात्वा हृदयपद्माधो निर्मलात्मा
सदा पठेत् ॥ ३४ ॥
सुखदायिनी श्रीविद्या का हृदय पद्म
के नीचे ध्यान कर निर्मलात्मा साधक उक्त दश श्लोकों ( द्र०. ४४. २५-३४) का सर्वदा
पाठ करे ॥ ३४ ॥
मणिपूरस्थितं देवं रुद्रं पश्यति
योगिराट् ।
रुद्राणीसहितं शम्भुं दृष्ट्वा
मुक्तो भवेत् क्षणात् ॥ ३५ ॥
ऐसा योगिराज मणिपूर में स्थित
रुद्राणी सहित रुद्र का दर्शन कर लेता है, फिर
रुद्राणी सहित रुद्र का दर्शन कर क्षण भर में मुक्त हो जाता है ।। ३५ ।।
जीवन्मुक्तः स एवात्मा योगिनीवल्लभो
भवेत् ।
योगात्मा परमात्मा च स हि
साक्षादनीश्वरः ॥ ३६ ॥
स भित्वा मणिपूराब्धिं निर्मलं
ज्योतिरुज्ज्वलम् ।
शम्भोरीश्वरयोगज्ञक्रियानाथस्य
श्रीपतेः ॥ ३७ ॥
निकटे याति देव्याश्च स्थाने योगी न
संशयः ॥ ३८ ॥
वह साधक जीवन्मुक्त हो जाता है,
स्वयं योगिनीवल्लभ बन जाता है, वही योगात्मा
एवं परमात्मा होता है और अन्ततः उसका कोई ईश्वर नहीं होता। ऐसा योगी साधक मणिपूर
नामक महासमुद्र का भेदन कर, निर्मल उज्ज्वल ज्योति प्राप्त
कर, योग के ज्ञाता ईश्वर क्रियानाथ श्री पति शम्भु के तथा
श्री महादेवी के धाम में जाकर उनके निकट निवास करता है, इसमें
संशय नहीं ।। ३६-३८ ।।
॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे
महातन्त्रोद्दीपने सिद्धमन्त्रप्रकरणे षट्चक्रप्रकाशे मणिपूरभेदने भैरवीभैरवसंवादे
त्रितत्त्वलाकिनीशक्तिस्तवनं नाम चतुश्चत्वारिंशत्तमः पटलः ॥ ४४ ॥
॥ श्री रुद्रयामल तन्त्र के
उत्तरतन्त्र में महातन्त्रोद्दीपन में सिद्धमन्त्र प्रकरण में षट्चक्र प्रकाश में
मणिपूर भेदन में भैरवभैरवीसंवाद में त्रितत्त्व- लाकिनी-शक्तिस्तवन नामक
चौवालिसवें पटल की डा० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ ४४ ॥
आगे जारी............रूद्रयामल तन्त्र पटल ४५
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