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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
रुद्रयामल तंत्र पटल ४३
रुद्रयामल तंत्र पटल ४३ में मणिपूरचक्र
के भेदन की विधि का निरूपण है । (५३--५४, ५९,६०)
यहीं पर भगवान् रुद्र के ध्यान विधि का प्रतिपादन है। गन्ध, पुष्प, धूप, दीप आदि उपचारों
से उनका पूजन, प्राणायाम और भक्तिपूर्वक मन्त्र जाप करना
चाहिए। जप समर्पण करके पुनः तीन प्राणायाम करे और स्तोत्र एवं कवच से अपने हृदय
में देवी को प्रसन्न करे।
रुद्रयामल तंत्र पटल ४३
Rudrayamal Tantra Patal 43
रुद्रयामल तंत्र तिरालिसवाँ पटल
रुद्रयामल तंत्र त्रिचत्वारिंशः पटल:
रूद्रयामल तंत्र शास्त्र
अथ त्रिचत्वारिंशः पटल:
आनन्दभैरवी उवाच
अथ कामातुराणाञ्च कामनिर्मूलहेतुना
।
कथयामि महाकाल यत् कृत्वा
कामिनीवशम् ॥ १ ॥
आनन्दभैरवी ने कहा- हे महाकाल ! अब
कामातुरों के काम के निर्मूलन के लिए उपाय कहती हूँ, जिसके करने से कामिनी वश में हो जाती है ॥ १ ॥
तत्प्रकारं प्रवक्ष्यामि
योगसाधनहेतुना ।
हस्तासनं समाकृत्य ऊर्ध्वे पद्मासनं
चरेत् ॥ २ ॥
शिरोमूले करद्वन्द्वं नियोज्य
जपमाचरेत् ।
अल्पाल्पधारणं कुर्यात्
श्वाससंख्यां समाचरेत् ॥ ३ ॥
श्वाससंख्यां तदा कुर्याद् यदा
कुम्भकसुस्थिरः ।
विना श्वाससंख्यां च कुतो योगिवरो
वशी ॥ ४ ॥
योग साधन में (श्वास) कारण होने से
उसका प्रकार कहती हूँ। साधक ऊपर की ओर हस्तासन करके पद्मासन कर शिर के मूलभाग में
दोनों हाथों को रखकर जप करे और थोड़ी थोड़ी देर श्वास को धारण कर श्वास की गणना
करे। जब कुम्भक स्थिर रहे, तब श्वास की गणना
करे। जब तक श्वास की संख्या नहीं होती तब तक साधक योगीश्वर एवं जितेन्द्रिय नहीं
हो सकता ।। २-४ ।।
विना संख्याप्रयोगेण बिना
कुयोगवारणात् ।
कदाचिन्न प्रकर्तव्यं
संख्याकुम्भकवर्जितः ॥ ५ ॥
अल्पाल्पकुम्भकं कुर्यात्
खेचरप्रियकर्मणि ।
सर्वकाले प्रकर्तव्यं सर्वकाले सुखी
भवेत् ॥ ६ ॥
साधक श्वास संख्या के प्रयोग के
बिना तथा (श्वास के) कुयोग को दूर किए बिना योग न करे तथा कुम्भक के बिना श्वास
संख्या भी न करे। खेचर रूप प्रिय कर्म में अल्प से भी अल्प कुम्भक करे। यह सर्वकाल
में (सदैव) करना चाहिए, जिससे साधक सदा
सुखी रहता है ।। ५-६ ।
आनन्दकल्पमाकृत्य विजयाद्यासवादिभिः
।
क्रमेण भेदनं कुर्यात् ततः
साधकयोगिराट् ॥ ७॥
योगिनामपरिच्छिन्नं भावं
विद्युत्प्रभाकरम् ।
विद्युत्कोटिसमाभासं
वारिधारासमाकुलम् ॥ ८ ॥
विजयादि आसवों (भाँग आदि) के साथ
अत्यन्त आनन्द में निमग्न होकर तदनन्तर योगिराज साधक क्रमशः षट्चक्रों का भेदन
करे। बिजली के समान प्रकाश उत्पन्न करने वाला और करोड़ों बिजली के समान प्रकाश
करने वाला तथा वर्षा की धारा से परिपूर्ण हुआ जैसा योगियों का भाव अपरिच्छिन्न
होता है ।। ७-८ ।।
यद्येवं सुतभावज्ञा विपाकेन पतन्ति
ते ।
ते यान्ति परमं स्थानं ते यान्ति
कोटिराज्यपाः ॥ ९ ॥
ते भोगिनो योगिनश्च ते लोकपालकाः
स्मृताः ।
ते महद्गुणसम्भोग्या म्रियन्ते न
कदा कुतः ॥ १० ॥
यदि इस प्रकार के राजयोगी किसी कर्म
के फल से भ्रष्ट हो जावें तो वे अत्यन्त श्रेष्ठ स्थान प्राप्त करते हैं अथवा जहाँ
करोड़ों घृतपायी देव (आज्यपा) रहते हैं वहाँ चले जाते हैं। वही भोगी होते हैं,
वही योगी होते हैं, वही लोक का पालन करते हैं,
वही महान् गुणों के संभोग के योग्य होते हैं और वे कभी किसी स्थान
पर नहीं मरते ।। ९-१० ।।
ते भवन्ति महाश्रेष्ठास्ते भवन्ति
सुधाकराः ।
ते भेदकरणे युक्तास्ते मनुष्या न देवताः
॥ ११ ॥
ते सर्वे यान्ति सर्वत्र ते
शिवास्ते च किङ्कराः ।
ते मे भक्ता महाकाल इति मे
स्वागमोदयम् ॥ १२ ॥
वही महाश्रेष्ठ होते हैं और वही
चन्द्रमा के समान सुधा की वृष्टि करते हैं। वहीं षट्चक्रों के भेदन में समर्थ होते
हैं। वे मनुष्य नहीं अपितु देवता हैं। वे सर्वत्र जाने वाले होते हैं,
वही शिव होते हैं, वहीं हमारे किङ्कर तथा भक्त
होते हैं, हे महाकाल ! ऐसा मेरे आगम का उद्घोष है ।। ११-१२
।।
ये भजन्ति तव पदाम्भोजं भावपरायणाः
।
ते ज्ञानिनो भवन्त्येव तेषां कालो
वशो भवेत् ॥ १३ ॥
ये प्राणवायुसंयोगा ये प्राणपरिरक्षकाः
।
आत्महत्यां परीहाय ब्रह्मलोकं
मुदान्विताः ॥ १४ ॥
हे महाभैरव ! जो भाव परायण होकर
आपके चरण कमल की सेवा करते हैं वे ज्ञानी हो जाते हैं और काल उनके वश में हो जाता
है। जो साधक प्राणवायु से संयुक्त रहते हैं और जो प्राणवायु की रक्षा करते हैं वे
अपनी मृत्यु पर विजय प्राप्त कर प्रसन्नतापूर्वक ब्रह्मलोक चले जाते हैं ।। १३-१४
।।
यान्ति नाथ ध्यानपराः
संसारार्थविवर्जिताः ।
अरण्यवासिनो ये च नारण्यवासिनो नराः
॥ १५ ॥
एकान्तनिर्जने देशे
सर्वविघ्नविवर्जिते ।
षट्चक्रभेदमाकृत्य ते नराः फलभागिनः
॥ १६ ॥
हे नाथ! जो साधक अरण्य में रहकर
अथवा बिना अरण्य में निवास किए ही संसार की कामना से रहित हो कर आपका ध्यान करते
हैं वे भी ब्रह्मलोक प्राप्त कर लेते हैं। सर्वथा एकान्त एवं निर्जन प्रदेश में,
जहाँ किसी प्रकार के विघ्न की संभावना न हो ऐसे स्थान में, जो साधक षट्चक्र का भेदन करने में तत्पर रहते हैं, उन्हें
उस साधना का फल प्राप्त होता है ।। १५-१६ ॥
महाकालफलं यस्तु सदेच्छति सतां
गतिम् ।
स एव योगी भूमध्ये स्थित्वा
सर्वत्रगो भवेत् ॥ १७ ॥
सर्वदेशे सदा पूज्यः सर्वेशो
निर्मलोऽद्वयः ।
अनाद्यनन्त विभवः कालात्मा स भवेत्
क्षणात् ॥ १८ ॥
हे महाकाल ! जो फल चाहता है,
अथवा सज्जनों की गति चाहता है वह योगी भ्रुमध्य में ध्यान कर सभी की
बातें जान लेता है। ऐसा पुरुष सभी देशों में सदा पूज्य होता है, सर्वेश, निर्मल तथा अद्वय बन जाता है। उसके विभव का
आदि और अन्त नहीं होता । वह क्षणमात्र में सभी कालों की बात जान लेता है ॥। १७-१८
।।
एतेषां साधनं शीघ्रं
सिद्धिविद्यासुकल्पनम् ।
एतद्रूपं निजं ध्यात्वा भेदं कृत्वा
निजस्थलम् ॥ १९ ॥
मूलाधारं स्वाधिष्ठानं भेदज्ञानी
विभेद्य च ।
कुर्यात् 'परमसन्दर्भ मणिपूरे विचक्षणः ॥ २० ॥
कृत्वा च दर्शनं विद्वान्
श्रीकृष्णचरणाम्बुजम् ।
स्वाधिष्ठानादिदेवेन्द्रं
शक्तियुक्तं निरञ्जनम् ॥ २१ ॥
राकिणीराधिका व्याप्तं
त्रिलोकरक्षणं परम् ।
परमाकाशनिलयं त्रैगुण्यं
वारिरूपिणम् ॥ २२ ॥
इसके शीघ्र साधनों को सिद्धिविद्या
में विचार कर कहा गया है, साधक अपने इस
स्वरूप का ध्यान कर शरीर स्थित (छः) स्थलों (षट्चक्रों) का भेद करे। इनके भेद को
जानने वाला विचक्षण मूलाधार का भेदन करे । फिर स्वाधिष्ठान चक्र का भेदन कर मणिपूर
चक्र के भेदन में तत्पर हो जावे । विद्वान् साधक वहाँ पर(मणिपूर चक्र में)
स्वाधिष्ठान आदि देवों के इन्द्र शक्ति युक्त निरञ्जन श्रीकृष्ण के चरण कमलों का
दर्शन करे। वे श्रीकृष्ण त्रिलोकी की रक्षा करने वाले हैं अपनी राकिणी स्वरूपा
राधा शक्ति से युक्त होकर वे सर्वत्र व्याप्त हैं । परमाकाश में उनका निवास है और
वे त्रिगुणात्मक तथा जलस्वरूप हैं ।। १९-२२ ॥
वाञ्छाकल्पतरोर्मूलवासिनं
शिववैष्णवम् ।
विलोक्यानन्दहृदयोऽशङ्कः सर्वत्र
दर्शकः ॥ २३ ॥
कृत्वा योगी सदाभ्यासी मणिपूरं
विलोकयेत् ।
मणिपूरं महाचिन्हं द्धिक्षेत्रं
सुधामयम् ॥ २४ ॥
वे वाञ्छा प्रदान करने वाले कल्पतरु
के मूल में निवास करने वाले हैं, सबके कल्याणकारी
वैष्णव हैं । दर्शक ऐसे श्रीकृष्ण का दर्शन कर आनन्द से हृदय को परिपूर्ण कर लेता
है और सर्वत्र निर्भय रहता है। इस प्रकार सदाभ्यास करने वाला योगी परमात्मा
श्रीकृष्ण का दर्शन कर उस मणिपूर का दर्शन करे, जो सिद्धि का
क्षेत्र तथा सुधामय है ।। २३-२४ ।।
हिरण्यकोटिदानेन गोकोटिदानहेतुना ।
कोटिब्राह्मणभोज्येन यत्फलं लभते
नरः ॥ २५ ॥
तत्फलं लभते ध्यात्वा मणिपूरं
मनोरमम् ।
मणिपूरं महास्थानं
योगिनामप्यदर्शनम् ॥ २६ ॥
सूक्ष्मातिसूक्ष्मं परमं ज्ञानिनां
ज्ञानगोचरम् ।
अप्रकाश्यं महागुह्यं योगयोगेन
लभ्यते ॥ २७॥
करोड़ों हिरण्य के दान से करोड़ों
गोदान,
करोड़ों ब्राह्मण भोजन से मनुष्य को जो फल प्राप्त होता है, वह फल मात्र मनोरम मणिपूर के ध्यान से प्राप्त हो जाता है । वस्तुतः यह
मणिपूर (ब्रह्मा का) महास्थान है, जिसका दर्शन योगीजनों को
भी दुर्लभ है। यह सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म है । यह केवल ज्ञानियों को ज्ञान से
दिखाई पड़ता है, यह महागुप्त स्थान है और किसी के द्वारा
प्रकाशित होने वाला नहीं है। मात्र योग से यह दिखाई पड़ता है ।। २५-२७ ।।
आनन्दभैरव उवाच
योगार्थं यत्र कमले
कोटिविद्युत्समप्रभे ।
कोटिकालाग्निमिलिते कोटिचन्द्रविनिर्मिते
॥ २८ ॥
कोटिसूर्यादिकिरणे मनः केन विलीयते
।
सूची रन्ध्रे यथा सूत्रं तदेव फलदं
सुखम् ॥ २९ ॥
आनन्दभैरव ने कहा—
हे सुन्दरि ! करोड़ों विद्युत् के समान प्रकाश वाले, करोड़ों कालाग्नि से संयुक्त, करोड़ों चन्द्रमा से
विनिर्मित, करोड़ों सूर्य के समान किरण वाले कमल में योग की
सिद्धि के लिए मन का लय किस प्रकार किया जा सकता है? सूची के
छिद्र में डाला हुआ सूत्र ही (सीने आदि का) फल प्रदान करता है।।२८-२९।।
यन्न दृष्टं श्रुतं क्वापि ज्ञानं न
तत्र सुन्दरि ।
तत्र केन प्रकारेण मनोनिवेशनं भवेत्
॥ ३० ॥
यत्र न गमनं नृणां तस्य देवस्य
यत्फलम् ।
तत्फलं किं न जानाति अदृष्टे गमनं
कुतः ॥ ३१ ॥
कुतो राज्ञां न सम्पत्तिः कुतो वा
स्वार्थदर्शनम् ।
कुतो वा जायते सिद्धिर्भेदने फलं
भवेत् ॥ ३२ ॥
तत्त्वं जानासि देवेशि तत्प्रकारं
प्रकाशय ।
किन्तु,
हे सुन्दरि ! जिसे कभी देखा नहीं गया, कभी
सुना नहीं गया और जिसका कोई ज्ञान भी नहीं है, उस (ब्रह्म)
में किस प्रकार से मन का लय किया जाय? जहाँ मनुष्यों की कोई
गति नहीं है? उस देवता का कैसा फल है? जब
उसका कोई ज्ञान नहीं हैं, फिर ऐसे अदृश्य स्थान में किस
प्रकार गमन किया जा सकता है। जहाँ राजा की सम्पत्ति काम नहीं देती वहाँ अपने
स्वार्थ का क्या भरोसा है? कैसे सिद्धि प्राप्त की जाय?
तथा षटचक्रों के भेदन में क्या फल होता है, हे
देवेशि ! यह सब तत्त्व आप जानती हैं? अतः उसकी प्राप्ति का
प्रकार प्रकाशित कीजिए । ३०-३३ ॥
आनन्दभैरवी उवाच
यदुक्तं तद्धि सकलं सफलं परमेश्वर ॥
३३ ॥
तत्र पूर्व योगधर्मस्वाश्रय शृणु
तत्क्रमम् ।
पूर्वस्मरणमात्रेण जीवन्मुक्तो
भविष्यसि ॥ ३४ ॥
श्री आनन्दभैरवी ने कहा—हे परमेश्वर ! मैने जो कहा है, वह सब फल देने वाला है।
उसमें पूर्व (कृत) योग के धर्म का आश्रय होता है। अतः उसका क्रम सुनिए। आप अपने
पूर्व स्मरण मात्र से जीवन्मुक्त हो जाएंगे?।। ३३-३४ ।।
जीव एव महाभाग लोकानां मोक्षबन्धगः
।
स जीवो वायुरूपेण महाबलपराक्रमः ॥
३५ ॥
गच्छति प्रत्यहं नित्यं सर्वदा च
पुनः पुनः ।
पुनरायाति धरणीं स्वभावेन निरन्तरम्
॥ ३६ ॥
नानाभावप्रियः सोऽपि नानाकारनिरूपकः
।
नानाधर्मप्रियः शुद्धोऽशुद्धवेशधरो
महान् ॥ ३७ ॥
जीव का स्वरूप हे महाभाग,
मनुष्यों का एकमात्र जीव ही मोक्ष तथा बन्धन प्रदान करने वाला है,
जीव वायुरूप होने से महाबली तथा पराक्रम वाला है। वह प्रतिदिन,
नित्य एवं सर्वदा बारम्बार लोक लोकान्तरों में आता जाता रहता है।
फिर अपने स्वभाव से इस पृथ्वी पर भी लौट कर आ जाता है। वह अनेक प्रकार के भावों से
प्रेम करता है तथा नाना प्रकार के आकार को धारण करता है, इतना
ही नहीं, वह अनेक प्रकार के धर्म से भी प्रेम करता है शुद्ध
एवं अशुद्ध वेष धारण करता है, किं बहुना, वह महान् भी है ।। ३५-३७ ।।
कन्दर्पनिलयो योगी स योगी
परमार्थवित् ।
स ज्ञानी निरहङ्कारी सोऽहङ्कारी
शरीरधृक् ॥ ३८ ॥
सर्वगन्धप्रियोऽदृश्यो भावयेत्ता
रहस्यवित् ।
स एव निष्कलः शुद्धः सदा
ध्यानपरायणः ॥ ३९ ॥
वह जीव समस्त कामनाओं का स्थान है,
योगी है, परमार्थ वेत्ता है, ज्ञानी है, निरहङ्कारी एवं अहङ्कारी भी है वही शरीर
भी धारण करता है। वह समस्त गन्धों से प्रेम करता है और अदृश्य है, रहस्यवेत्ता साधक इस प्रकार के जीव का ध्यान करे। इस प्रकार ध्यान परायण
होने पर वह निष्फल एवं शुद्ध हो जाता है ।। ३८-३९ ।।
या चात्मनि ब्रह्माण्डे ब्रह्मणि
त्वयि शङ्करे ।
तन्मयो विलयं याति तदा भावो महान्
स्मृतः ॥ ४० ॥
तद्भावः परमं ज्ञानं न कथ्यं
विपरीतकम् ।
आधारं सुसुखं नित्यं स्वल्प
कालविवर्जितम् ॥ ४१ ॥
अत्यन्तधर्म सन्धानं प्राप्य योगी
भवेन्नरः ।
शनैः शनैः प्रगन्तव्यं तत्र तत्र
सुदर्शनम् ॥ ४२ ॥
जब आत्मा में,
ब्रह्माण्ड में और ब्रह्मस्वरूप आप शङ्कर में साधक का मन विलीन हो
जावे तो वही महान् भाव कहा गया है। वही भाव सर्वश्रेष्ठ ज्ञान है उससे विपरीत कुछ
हो ही नहीं सकता । वही आधार है, सुन्दर सुख देने वाला है,
नित्य है, स्वल्प है किन्तु काल का उसमें
प्रवेश नहीं । वह अत्यन्त धर्म से जुड़ा हुआ है, जिसे
प्राप्त करते ही साधक नर योगी बन जाता है। वहाँ धीरे धीरे पहुँचना चाहिए, जिससे उस ब्रह्म का सुदर्शन प्राप्त हो सके ।। ४०-४२ ॥
तत्र तत्र महासिद्धो भूत्त्वा
संसारपुत्रवान् ।
योगिनां बहुकालस्थं
मृतानामल्पकालकम् ॥ ४३ ॥
श्वासधारणमाकृत्य बहुकालं सुखी
भवेत् ।
यथा बृहस्पतिः श्रीमान् यथा सूर्यो
दिवाकरः ॥ ४४ ॥
तथा प्रकाशमाकुर्यात् कोटिभिः
स्तोत्रनामभिः ।
स्तुत्वा भूत्वा
महाद्रव्यैस्तर्पयित्वा यथाक्रमम् ॥ ४५ ॥
अभिषिक्तः पुनर्ध्यात्वा पूजयित्वा
यथाविधि ।
मानसोपचारद्रव्यैः स्वधायुक्तैरथापि
वा ॥ ४६ ॥
परमानन्दितो भूत्त्वा भावयेत्
पीठदेवताः ।
भावयित्वा ततो जप्त्वा धर्माधर्मो
विचिन्तयेत् ॥ ४७ ॥
वहाँ वह महासिद्ध होकर सारे संसार
को अपना पुत्र समझता है। योगियों के लिए बहुत काल तक व मरे हुओं को अल्पकाल तक
रहने वाले श्वास को धारण कर साधक बहुत काल के लिए सुखी हो जाता है। जिस प्रकार
बृहस्पति श्री से सम्पन्न हैं और जिस प्रकार सूर्य दिन प्रगट करते हैं,
उसी प्रकार साधक को भी देवी के स्तोत्रों एवं करोड़ों नामों से अपना
प्रकाश प्रकाशित करना चाहिए। प्रथम स्तुति, फिर भावना,
फिर महाद्रव्यों से तर्पण इस क्रम से पुनः अभिषेक, फिर ध्यान, फिर यथाविधि मानसोपचार द्रव्यों से अथवा
स्वधावाचन से यथाविधि पूजन कर अत्यन्त आनन्द में परिपूर्ण होकर पीठदेवता का ध्यान
करे, इस प्रकार की भावना के पश्चात् जप करे तदनन्तर धर्म एवं
अधर्म का चिन्तन करे ।। ४३-४७ ॥
देवतायां मनो योज्य स्थापयित्वा
स्वपीठके ।
पुनरुत्फुल्लकमलं मुद्रितं
परिकारयेत् ॥ ४८ ॥
षड्दलं मूच्छितं कृत्वा दलाने
सविशेत् सुधीः ।
सदानन्दः सर्वमयो वेदवेदान्तनामभिः
॥ ४९ ॥
स्तवकोटिभिरेकत्र ध्यात्वा
संहारमुद्रया ।
अधोमुखे दशदलकमलाग्रे नियोजयेत् ॥
५० ॥
साधक इष्ट देवता में मन लगावे,
फिर अपने हृदय रूप पीठ पर उन्हें स्थापित करे । तदनन्तर उस फूले कमल
के सदृश हृदय को मुद्रित (बन्द) कर देवे। फिर षड्दल का भेदन कर सुधी साधक आगे के
दल में प्रवेश करे फिर सदानन्द एवं सर्वमय होकर वेद वेदान्त में प्रतिपादित नामों
से अथवा अनेक स्तोत्रों से संहारमुद्रा का प्रदर्शन करते हुए अधोमुख वाले दशदल कमल
के आगे अपने को उपस्थित करे ।। ४८-५० ।
षड्दा महाकाल नियोज्य गमनं चरेत् ।
ततो गच्छेत् प्रज्वलिते पद्मे दशदले
पुरे ॥ ५१ ॥
प्रविश्य कर्णिकामध्ये
तन्मयस्तत्क्षणाद् भवेत् ।
तत्क्षणात्तन्मयो भूत्वा
कुण्डलीचक्रसंस्थितः ॥ ५२ ॥
असाध्यसाधनं सर्वं
मणिपूरस्थनिर्मलम् ।
मणिपूरे महापीठे ध्यानगम्ये सति
प्रभो ॥ ५३॥
मनोनिवेशनं कृत्वा नरो मुच्येत
सङ्कटात् ।
मनोयोगी मनोभोगी मनोभक्तो मनोयुवा ॥
५४ ॥
हे महाकाल ! इसके अनन्तर षड्दलों
वाले चक्र के आगे अपने को नियुक्त कर अत्यन्त देदीप्यमान दशदल वाले पद्म रूपी पुर
में प्रवेश करे। वहाँ कर्णिका के मध्य में प्रविष्ट होकर तत्क्षण कुण्डली चक्र पर
स्थित रह कर तन्मय हो जावे । मणिपूर में होने वाला (ज्ञान) सब कुछ निर्मल है और
असाध्य को भी साधने वाला है। हे प्रभो ! ध्यान द्वारा गम्य मणिपूर नामक महापीठ में
मन को सन्निविष्ट करने से मनुष्य सङ्कट से मुक्त हो जाता है। क्योंकि यह मन योगी
है,
मन ही भोगी है, मन ही भक्त है और मन ही युवा
है ।। ५१-५४ ।।
मन एव मनुष्याणां कारणं
त्राणमोक्षयोः ।
कारणं सर्वभावानां तद्भावं
सन्त्यजेद् बुधः ॥ ५५ ॥
सर्वभावं विहायापि महाभावं
समाश्रयेत् ।
भावेन लभ्यते मोक्षो भावेन लभ्यते
सुखम् ॥ ५६ ॥
एतद्भावं सदा कुर्याद् भावाद् भवति
योगिराट् ।
भावेन भक्तिमाप्नोति विषयाद्
भावमाश्रयेत् ॥ ५७ ॥
मन ही सभी मनुष्यों के संरक्षण एवं
मोक्ष का कारण है। अतः बुद्धिमान् साधक सभी भावों के कारणभूत भावों का त्याग कर
देवे भावों में सभी भावों का त्याग कर भी महाभाव का आश्रय लेना ही चाहिए। वस्तुतः
भाव से ही मोक्ष प्राप्त होता है, भाव से ही सुख
की प्राप्ति संभव है। साधक को इस प्रकार का भाव सदैव करते रहना चाहिए, क्योंकि भाव से ही मनुष्य योगिराज बन जाता है तथा भाव से ही भक्ति प्राप्त
होती है। अतः विषय के अनुसार भाव का आश्रय लेना चाहिए ।। ५५-५७ ।।
विषयं विकृतिग्राह्यं
सुकृतिज्ञानवर्जितम् ।
त्यक्त्वा दिव्यं महापीठं मणिपूरं समाश्रयेत्
॥ ५८ ॥
महायन्त्रे मनो दत्वा निर्माणं
कारयेद् बुधः ।
मणिभिर्ग्रथनं कृत्वा
नानामणिविभूषितम् ॥ ५९ ॥
सुपीठं कुलपीठे वा लिङ्गपीठमथापि वा
।
श्रीविद्यापीठमालिख्य विभाव्य च
पुनः पुनः ॥ ६० ॥
जिसमें सुकृति (पुण्य) अथवा ज्ञान न
हो ऐसे विकृतिपूर्ण विषय का त्याग कर देवे । ऐसे भावापन्न होकर दिव्य मणिपूर नामक
महापीठ का आश्रय लेवे। बुद्धिमान् पुरुष महायन्त्र में भली प्रकार मन लगाकर उसकी
रचना करे। मणियों से गूथ कर अनेक मणियों से विभूषित कर सुपीठ की रचना करे। इस
प्रकार विरचित कुलपीठ पर अथवा लिङ्ग पीठ पर श्री विद्या के पीठ का बारम्बार
सर्वेक्षण करते हुए श्री विद्यापीठ की रचना करे।।५८-६०।।
ततः प्रस्फुटिते पद्मे दलाने
षड्दलस्य च ।
स्थापयित्वा महाविष्णुं पूजयित्वा
सुसंयतः ॥ ६१ ॥
जप्त्वा च तन्मयो भूत्वा निधाय
मणिपूरके ।
दृढाकारमूर्ध्वगत षड्दल परिरक्षयेत्
॥ ६२ ॥
ततश्चोर्ध्वतरे स्थाने
महोच्चोत्तरसुन्दरें ।
मनोनिवेशनं कृत्वा शक्तिं रुद्रं
समाश्रयेत् ॥ ६३ ॥
चैतन्यरूपिणीं शक्तिं चैतन्यं
रुद्ररूपिणम् ।
तत्र भद्रात्मकं रौद्रं रौद्री
प्रकाशकारिणीम् ॥ ६४ ॥
फिर उस श्री विद्यापीठ पर खिले हुए
षड्दल वाले पद्म पर षड्दलों के आगे महाविष्णु को स्थापित कर सावधानी से उनका पूजन
कर जप कर तन्मय हो मणिपूर में दृढ़ता युक्त आकार वाले षड्दल को स्थापित कर उसकी
रक्षा करे। फिर उससे भी अत्यन्त ऊपर महान् सुन्दर स्थान में मन को सन्निविष्ट कर
शक्ति सहित रुद्र को स्थापित करे । शक्ति चेतनास्वरूपा हैं तथा चैतन्य रुद्रस्वरूप
हैं। उसमें भी भद्रात्मक रौद्र हैं और उनकी शक्ति रौद्री प्रकाश करने वाली हैं ।।
६१-६४ ।।
भक्त्या पुनः
पुनर्ध्यायेदूवरतास्तमीश्वरम् ।
प्रगच्छन्ति चोर्ध्वमार्गे ध्येया
योगिभिरेव च ॥ ६५ ॥
अहं देवी परानन्दा मणिपूरनिवासिनी ।
तथा श्रीलाकिनीशक्ति:
श्रीरुद्रस्त्व न संशयः ॥ ६६ ॥
ऊर्ध्वरेता साधक भक्तिपूर्वक शक्ति
सहित उन रुद्र स्वरूप ईश्वर का ध्यान करे । योगियों को ऊर्ध्व मार्ग से गमन करने
वाली रौद्री शक्ति का भी ध्यान करना चाहिए। मणिपूर में निवास करने वाली
परानन्दस्वरूपा लाकिनी नामक शक्ति देवी मैं हूँ और हे महाभैरव ! आप रुद्र हो—इसमें संशय नहीं है ।। ६५-६६ ।।
रुद्ररूपी महादेवो रुद्ररूपा
सरस्वती ।
सर्वदा ऊर्ध्वगामी च सा
शक्तिरूर्ध्वगामिनी ॥ ६७ ॥
ऊर्ध्वमार्ग काशयन्तीं योगिनीं
योगमातरम् ।
महारुद्रं तथा ध्यात्वा मणिपूरे
सुनिर्मले ॥ ६८ ॥
ऊर्ध्वमुखं समाकुर्याद् महापद्मं
मनोरमम् ।
मणिपूरं महाकान्तं
मणिकोटिसुनिर्मलम् ॥ ६९ ॥
महादेव रुद्ररूप वाले हैं और
सरस्वती रुद्ररूपा हैं। रुद्र सर्वदा ऊर्ध्वगमन करने वाले हैं तथा उनकी शक्ति
ऊर्ध्वगामिनी है। ऊर्ध्वभाग को प्रकाशित करती हुई योगियों की माता योगिनी तथा
महारुद्र का स्वच्छ मणिपूर में ध्यान कर साधक वहाँ रहने वाले परम सुन्दर अधोमुख
वाले कमल को ऊर्ध्वमुख करे। मणिपूर अत्यन्त सुन्दर है और करोड़ों मणियों से विरचित
होने से अत्यन्त निर्मल है ।। ६७-६९ ॥
कोटिकोटिशरच्चन्द्र पूर्णज्योति:
समाकरम् ।
ऊर्ध्वमुखं समाकुर्यात् स्वयंभावेन
जायते ॥ ७० ॥
यदि चोर्ध्वमुखं पद्मं
यन्त्रमण्डलसंयुतम् ।
अतिकोमलपत्रेषु भाति
चात्यद्भुतङ्करम् ॥ ७१ ॥
मणिपूर चक्र करोड़ों करोड़
शरत्कालीन चन्द्रमा की पूर्ण ज्योति से देदीप्यमान है । उस चक्र पर रहने वाले
अधोमुख कमल को साधक ऊर्ध्वमुख करे क्योंकि यह कार्य स्वयं अपनी भावना से संभव है।
यह यन्त्र मण्डल से संयुक्त ऊर्ध्वमुख पद्म अत्यन्त कोमल पत्र पर अत्यन्त अद्भुत
रूप से शोभित होता है ।। ७०-७१ ।।
लेपयित्वा योजयित्वा स्थापयित्वा
पुनः पुनः ।
प्रापयित्वा महारुद्रं
त्रैलोक्यजननीं शिवाम् ॥ ७२ ॥
रुद्राणी रौद्रशक्तिञ्च लाकिनीं
लोकसाक्षिणीम् ।
कुम्भकं प्राणवायोश्च प्राणवायोश्च
योजनम् ॥ ७३ ॥
एकत्र मिलनं कृत्वा भावनं
परिकारयेत् ।
भावेन लभ्यते मोक्षो भाव एव
निजप्रियः ॥ ७४ ॥
उस ऊर्ध्वमुख कमल का लेपन करे,
एक में योजना करे और उसे बारम्बार अच्छी तरह स्थापित करे । तदनन्तर
उस पर महारुद्र तथा त्रैलोक्य जननी शिवा को उस पर पधरावे। रुद्राणी रौद्रशक्ति
वाली लोकसाक्षिणी लाकिनी को तथा प्राणवायु के कुम्भक को प्राणवायु से संयुक्त करे।
इन दोनों को एक में मिलाकर उनकी भावना करे। क्योंकि भाव से मोक्ष प्राप्त होता है
भाव ही इष्टदेवता को प्रिय भी है ।। ७३-७४ ।।
मनो निवेश्य तत्रस्थो
रुद्राराधनमाचरेत् ।
तथा श्रीलाकिनीदेव्याः
परमाद्भुतसाधनम् ॥ ७५ ॥
उसमें अपने मन को सन्निविष्ट कर
रुद्राराधन करे। इसी प्रकार श्री लाकिनीदेवी का भी परमाद्भुत साधन करे ॥ ७५ ॥
शृणुष्व परमानन्द भैरव प्रियवल्लभ ।
ममोपदेश सन्त्यज्य कोऽपि सिद्धो न
सम्भवेत् ॥ ७६ ॥
ममाज्ञाबलयोगेन सिद्धो भवति मानवः ।
मुक्तिमूलं महाभावं मुक्तिमूलं हि
साधनम् ॥ ७७ ॥
मुक्तिक्रमेण कालेन सिद्धो भवति
साधकः ।
मम योगक्रमेणैव मम तन्त्रावलोकनात्
॥ ७८ ॥
हे भैरव ! हे प्राणवल्लभ ! हे परमानन्द
! मेरी एक बात और सुनिए। मेरे उपदेश का परित्याग कर कोई भी सिद्ध नहीं हो सकता।
केवल मेरी आज्ञा के बल से ही मनुष्य सिद्ध हो सकता है। महाभाव मुक्ति का मूल है और
मुक्ति का मूल साधन ही है। मुक्ति क्रम से प्राप्त होती है तथा साधक काल आने पर
सिद्ध होता है और ऐसा हमारे योग के क्रम से तथा हमारे तन्त्र के अवलोकन से होता है
। ७६-७८ ।।
कोsपि नाथ ब्रह्मयोगी भवत्येव न चाखिले ।
सर्वे च योगिनः शीघ्रं प्रभवन्ति न
संशयः ॥ ७९ ॥
हे नाथ ! इस अखिल ब्रह्माण्ड में
कोई भी 'ब्रह्मयोगी' नहीं होता, योगी
तो सब हो ही सकते हैं इसमें संशय नहीं ।। ७९ ।।
स्फुटाकारदलं कृत्वा विन्यासं तत्र
कारयेत् ।
महायोगिकुलन्यासं विद्यान्यासं
समाचरेत् ॥ ८० ॥
सर्वन्यासं निजन्यासं ज्ञानजालं
समाचरेत् ।
मानसक्रियया व्याप्तं देहं
मधुरसम्प्लुतम् ॥ ८१ ॥
शिवरूपिणमात्मानं वैष्णवं
ज्ञानचक्षुषम् ।
एकाकारं मूलमन्त्रध्यानं तत्र
समाचरेत् ॥ ८२ ॥
उस दल को स्पष्ट रूप में परिणत कर
विशिष्ट न्यास करे, फिर महायोगि
कुलन्यास करे, तदनन्तर विद्यान्यास करे। तदनन्तर सर्वन्यास,
निजन्यास एवं विभिन्न ज्ञान जाल का अनुष्ठान करे । मानस क्रिया से
व्याप्त माधुर्य में डूबे हुए इस शरीर को, शिव स्वरूप आत्मा
को ज्ञानचक्षु वाले विष्णु को एकाकार कर मूलमन्त्र का ध्यान करे ।। ८०-८२ ॥
ध्यात्वा चार्घ्यं समाकुर्यात्
कुलचक्रक्रमेण तु ।
आत्मानमपरिच्छिन्नं विचिन्त्य
पुनरेव च ॥ ८३ ॥
सन्ध्यायेन्निजचैतन्यदेवतां
कुलदेवताम् ।
पाद्यार्थ्यादिक्रमेणैव
पूजयित्वाऽप्यहर्निशम् ॥ ८४ ॥
परिवारांस्ततो ध्यात्वा तत्सर्वान्
परिपूजयेत् ।
धूपदीपौ ततो दद्याद् निजपूजाविधानतः
॥ ८५ ॥
इस प्रकार ध्यान कर शक्ति चक्र के
अनुसार उन्हे अर्घ्य प्रदान करे। फिर अपनी आत्मा को अपरिच्छिन्न समझकर अपने चैतन्य
देवता (रुद्र) तथा कुल देवता (लाकिनी शक्ति) का ध्यान करे। दिन रात पाद्य अर्घ्य
आदि क्रम से पूजन कर उनके आवरण देवता का भी ध्यान करे और उन सभी का उक्त क्रम से
पूजन भी करे। फिर शाक्त तन्त्रानुसार उन्हें धूप दीप प्रदान करे ।। ८४-८५ ।।
प्राणायामं दीपनादौ कुर्यात् साधक
एव च ।
भक्त्या ध्यात्वा मनुं जप्त्वा
मणिपूरस्थदैवते ॥ ८६ ॥
जपं समर्प्य विधिना प्राणायामं
पुनस्त्रयम् ।
प्रणम्य स्तोत्रकवचैः स्वदेवीं हृदि
चार्पयेत् ॥ ८७ ॥
साधक फिर प्राणायाम कर आरती कर नाद
(घण्टा घड़ियाल) करे इस प्रकार मणिपूर में रहने वाले देवता का भक्तिपूर्वक ध्यान
कर मन्त्र का जप करे। तदनन्तर विधिपूर्वक उन्हें जप समर्पण कर तीन प्राणायाम करे।
उन देवताओं के स्तोत्र एवं कवचों से उन्हें प्रणाम कर अपनी इष्टदेवी लाकिनी को
अपने हृदय में पधरावे।।८६-८७ ।।
॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे
महातन्त्रोद्दीपने सिद्धिमन्त्रप्रकरणे भैरव भैरवीसंवादे मणिपूरचक्रभेदप्रकारो नाम
त्रिचत्वारिंशत्तमः पटलः ॥ ४३ ॥
॥ श्रीरुद्रयामल के उत्तरतन्त्र में
महातन्त्रोद्दीपन में सिद्धमन्त्रप्रकरण में भैरव-भैरवी संवाद में मणिपूरचक्र भेदप्रकार
नामक तिरालिसवें पटल की डा० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ ४३ ॥
आगे जारी............रूद्रयामल तन्त्र पटल ४४
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