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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
राकिणी केशव सहस्रनाम
राकिणी केशव सहस्रनाम-
रुद्रयामल तंत्र पटल ४२ में राकिणी एवं श्रीकृष्ण की प्रीति के लिए हवन एवं तर्पण
का विधान है। मन्त्रोद्धार, फिर तर्पण एवं
अभिषेक, अन्त में अष्टाङ्ग प्रणाम पूर्वक अर्चना और अष्टोत्तर
सहस्रनाम का पाठ करना चाहिए । इस सहस्रनाम की विशेषता है कि इसमें एक नाम
श्रीकृष्ण का है और उसी चरण में अन्य नाम राकिणी देवी के हैं । जैसे -
मुकुन्दो मालती माला
विमलाविमलाकृतिः ।
रमानाथो महादेवी महायोगी प्रभावती
।। ( रुद्र ४२.१८-२० )
इस स्तोत्र के पाठ से साधक शान्ति
प्राप्त करता है । वह अकाल मृत्यु पर विजय प्राप्त करता है और सभी व्याधियों का
नाश होता है । अनायास ही साधक योगिराट हो जाता है । अन्त में कैलासदर्शन आदि और अष्टाङ्गसाधन की विधि कही गई है।
रुद्रयामल तंत्र पटल ४२ राकिणी केशव सहस्रनाम स्तोत्र
Rudrayamal Tantra Patal 42
रुद्रयामल तंत्र बयांलीसवाँ पटल
रुद्रयामल तंत्र द्विचत्वारिंशः पटल:
रूद्रयामल तंत्र शास्त्र
अथ द्विचत्वारिंशः पटल:
आनन्दभैरवी उवाच
कथयामि महाकाल परमाद्भुतसाधनम् ।
कुण्डलीरूपिणी देवी राकिण्याः
कुलवल्लभ ॥ १ ॥
श्री आनन्दभैरवी ने कहा—
हे महाकाल ! हे कुलवल्लभ ! अब कुण्डलीरूपिणी राकिणी देवी के
परमाद्भुत साधन को कहती हूँ ॥ १ ॥
मानसं द्रव्यमानीय चाथवा
बाह्यद्रव्यकम् ।
अनष्टहृष्टचित्तश्च पूजयेत्
सावधानतः ॥ २ ॥
भक्त्या जपेन्मूलमन्त्रं मानसं
सर्वमेव च ।
पूजयित्वा ततो जप्त्वा होमं
कुर्यात् परामृतैः ॥ ३ ॥
मानसिक द्रव्यों को अथवा बाह्य जगत्
के द्रव्यों को एकत्रित कर उससे विश्वास और हर्षपूर्ण चित्त हो कर साधक सावधानी से
राकिणी देवी का साधन करे। फिर भक्तिभाव पूर्ण हो कर सभी प्रकार से मूल मन्त्र का
मानस जप करे, इस प्रकार प्रथम पूजन करे फिर
जप करे । तदनन्तर परामृत से होम करे ।। २-३ ।।
समासैः पक्वनैवेद्यैः
सुगन्धिकुसुमैस्तथा ।
स्वयम्भूकुसुमैर्नित्यमर्घ्यं
कृत्त्वा निवेदयेत् ॥ ४ ॥
सुमुखं पूजयेन्नित्यं मधुमांसेन
शंकर ।
हुत्वा हुत्वा पुनर्हुत्वा
प्राणवाय्वग्निसंगमैः ॥ ५ ॥
उस महीने में उत्पन्न होने वाले पके
पके फलों के नैवेद्य से, सुगन्धित फूलों एवं
कोश स्वयंभू कुसुमों से नित्य अर्घ्य निवेदन करना चाहिए। हे शङ्कर ! मधु और मांस
द्वारा सुमुख (श्री गणेश) का पूजन करे। फिर प्राणवायु और अग्नि के संयोग से
बारम्बार हवन करे ।। ४-५ ॥
भ्रामयित्त्वा मनो बाह्ये
स्थापयित्त्वा पुनः पुनः ।
पुनरागम्यगमनं कारयित्त्वा
सुमङ्गलम् ॥ ६ ॥
वाचयित्त्वा सुवाणीभिर्याचयित्त्वा
सवापिकम् ।
तर्पणं चाभिषेकञ्च केवलासवमिश्रितैः
॥ ७ ॥
मन को बाह्य जगत् में भ्रमण कराते
हुए बारम्बार उसी में स्थापन करे। इस प्रकार गतागत करा कर सुन्दर वाणी से सुमङ्गल
पाठ कर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करे। फिर केवल आसव (पुष्परस) मिश्रित मांस,
मुद्रादि तथा मत्स्यों से संयुक्त पिष्टक सहित सार द्रव्यों से
तर्पण एवं अभिषेक करे ।। ६-७ ॥
मांसैर्मुद्रादिभिर्मत्स्यैः
सारद्रव्यैः सपिष्टकैः ।
घृतादिसुफलैर्वापि यद् यदायाति
कौलिके ॥ ८ ॥
अचला भक्तिमाप्नोति विश्वामित्रो
यथा वशी ।
तत्तद्रव्यैः साधकेन्द्रो नित्यं
सन्तर्प्य संजपेत् ॥ ९ ॥
घृतादि से अथवा सुन्दर फलों से जैसा
कि कौलिक सम्प्रदाय का विधान है, उससे भी तर्पण
एवं अभिषेक करे। ऐसा करने से वशी साधक विश्वामित्र के समान अचल भक्ति प्राप्त
कर लेता है। अतः साधकेन्द्र तत्तत् द्रव्यों से नित्य संतर्पण कर मूलमन्त्र का जप
करे ।। ८-९ ॥
ॐ महाकाल कृष्णेन्द्र
नीलमणिनिभ राकिणी-वल्लभ कुण्डली महावीर राकिणी कैवल्य- मोक्षदात्र्यै नमः ॥
क्रां कौं क्रं क्रं
क्लीं श्रीं रां रीं रूं रें रैं रों रौं र रः स्वाहा ॥
परमवैष्णवो महाभैरवी
महाविष्णुः कुलदेवता परजननिष्फल पुरुषोत्तम वासुदेव हृषीकेशकेशव नारायण दामोदर
पंचचूड चतुर्भुजशङ्खचक्रगदाधर राकिणी सूक्ष्मा कुलकुण्डली राधिका बाह्यदेवता श्री
श्रीविद्याचैतन्यानन्दमयी विश्वव्यापिका जगन्मोहिनी मूलात् प्रगच्छन्ती षडाधारभेदिनी
षड्दलाकार प्रकाशिनी मनोभवा मांस मांसरुधिरादिशरीरपरिवारादिकं पालय पालय गोपय गोपय
स्थापय स्थापय शत्रून् घातय घातय हौं हौं स्थों इस हसकल हीं सकल ह्रीं श्रीं
जुहोमि नमो नमः स्वाहा ॥
एतन्मन्त्रं पाठित्त्वा च तर्पणञ्च
समाचरेत् ।
तर्पणान्ते चाभिषेकं सदा कुर्याच्च
तान्त्रिकः ॥ १० ॥
मूलान्ते चाभिषिञ्चामि नमः स्वाहा
पदं ततः ।
ततो हि प्रणमेद्भक्त्या
अष्टाङ्गनतिभिः प्रभो ॥ ११ ॥
ॐ महाकाल कृष्णेन्द्र..... श्री
जुहोमि नमः स्वाहा'
पर्यन्त मन्त्र को पढ़कर तर्पण करना चाहिए । तर्पण उपरान्त फिर
तान्त्रिक साधक अभिषेक करे। उपर्युक्त मूलमन्त्र (महाकाल कृष्णेन्द्र नमः स्वाहा)
के अन्त में 'अभिषिंचामि नमः स्वाहा' इतना
और उच्चारण कर तर्पण करे। फिर हे प्रभो! अपने अष्टाङ्गों का नमन करते हुए इष्टदेव
को प्रणाम करे।।१०-११।।
सहस्रनाम्ना स्तवनमष्टोत्तरसमन्वितम्
।
अर्धाङ्ग राकिणीयुक्तं
राकिणीकेशवस्तवम् ॥१२॥
तदनन्तर अर्द्धाङ्ग राकिणी से
संयुक्त केशव के एक हजार आठ नामों से जिसका नाम 'राकिणी केशव स्तोत्र' है
उस स्तोत्र का पाठ करे ॥ १२ ॥
रुद्रयामल तंत्र पटल ४२
Rudrayamal Tantra Patal 42
रुद्रयामल तंत्र बयांलीसवाँ पटल राकिणी केशव सहस्रनाम स्तोत्रम्
रुद्रयामल तंत्र द्विचत्वारिंशः पटल:
शृणु तं सकलं नाथ यत्र श्रद्धा सदा
तव ।
श्रवणार्थं बहूक्तं तत् कृपया ते
वदाम्यहम् ॥ १३ ॥
एतत् श्रवणमात्रेण सर्वपापक्षयो
भवेत् ।
राकिणीसङ्गमं नाथ स्तवनं नाम पावनम्
॥ १४ ॥
ये पठन्ति श्रद्धया चाश्रद्धया वा
पुनः पुनः ।
तस्य सर्वः पापराशिः क्षयं याति
क्षणादिह ॥ १५ ॥
हे नाथ! उन सभी नामों को श्रवण
कीजिए,
जिसमें आपकी श्रद्धा है। इसके पहले भी आप ने उन नामों को सुनने के
लिए कई बार कहा भी था, अब मैं कृपा कर उन नामों को कह रही
हूँ। इस अष्टोत्तर सहस्र नाम के सुनने मात्र से सभी पापों का क्षय हो जाता
है। हे नाथ ! यह राकिणी सङ्गम नामक स्तोत्र अत्यन्त पवित्र है। जो लोग
श्रद्धा से अथवा अश्रद्धा से इस स्तोत्र का बारम्बार पाठ करते हैं उनकी समस्त
पापराशि क्षण मात्र में यहीं पर नष्ट हो जाती है ।। १३-१५ ।।
काले काले महावीरो भवत्येव हि
योगिराट् ।
संसारोत्तारणे युक्तो महाबलपराक्रमः
॥ १६ ॥
तत्तत्समय प्राप्त होने पर पाठकर्ता
साधक महावीर योगिराज बन जाता है। वह इस संसार से लोगों को पार उतारने में समर्थ
महाबल और पराक्रम से युक्त हो जाता है ॥ १६ ॥
रुद्रयामल तंत्र पटल ४२
Rudrayamal Tantra Patal 42
रुद्रयामल तंत्र बयांलीसवाँ पटल
रुद्रयामल तंत्र द्विचत्वारिंशः पटल: राकिणी सङ्गम स्तोत्रम्
अस्य श्रीमहदानन्द कुलमङ्गल
कालसुन्दर- कृष्णमुकुन्दनारायणराकिणीकुल- कुण्डलिनीमिलन-सर्वसाधननिष्फलाय परमोक्षाय
नित्यसुखाय योगसिद्धयेऽष्टोत्तर- सहस्रनामस्तोत्रस्य गणेश- कुलगणाधिपतिः
ऋषिर्बृहतीच्छन्द: श्रीमत्कृष्ण महाकाल- पुरुषोत्तम - कुलकुण्डलिनी
राधाराकिणीदेवता षड्दलाधारादिप्रकाश षट्पद्मसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
स्तोत्र का विनियोग—इस अष्टोत्तर सहस्रनाम स्तोत्र के गणेश कुल गणाधिपति ऋषि हैं, बृहतीच्छन्द है, श्रीमत्कृष्ण महाकाल पुरुषोत्तम
सहित कुल कुण्डलिनी राधा राकिणी देवता हैं। श्री महदानन्द कुल मङ्गल कालसुन्दर
कृष्ण मुकुन्द नारायण एवं राकिणी कुल कुण्डलिनी मिलन रूप सर्वसाधन के सम्पूर्ण फल
प्राप्ति के लिए, परम मोक्ष के लिए, नित्य
सुख के लिए, योगसिद्धि के लिए, षड्दलाधारादि
प्रकाश एवं षट् पद्म की सिद्धि के लिए इसके पाठ में विनियुक्त करता हूँ।
अष्टोत्तरसहस्रनामारम्भः
ॐ श्रीकृष्णो महामाया यादवो
देवराकिणी ।
गोविन्दो विश्वजननी
महाविष्णुर्महेश्वरी ॥ १७ ॥
मुकुन्दो मालती माला विमला
विमलाकृतिः ।
रमानाथो महादेवी महायोगी प्रभावती ॥
१८ ॥
वैकुण्ठो देवजननी दहनो दहनप्रिया ।
दैत्यारिर्दैत्यमथिनी मुनीशो
मौनभाविता ॥ १९ ॥
नारायणो जयकला करुणो करुणामयी ।
हृषीकेशः कौशिकी च केशवः केशिघातिनी
॥ २० ॥
किशोरापि कैशोरी महाकाली महाकला ।
महायज्ञो यज्ञहत्र दक्षेशो
दक्षकन्यका ॥ २१ ॥
अष्टोत्तर सहस्रनामारम्भ- ॐ
श्रीकृष्ण, महामाया यादव, देवराकिणी, गोविन्द, विश्वजननी,
महाविष्णु, महेश्वरी, मुकुन्द,
मालतीमाला, विमला, विमलाकृति,
रमानाथ, महादेवी, महायोगी,
प्रभावती वैकुण्ठ, देवजननी, दहन, दहनप्रिया, दैत्यारि
दैत्यमथिनी मुनीश,मौनभाविता, नारायण,
जयकला, करुण, करुणामयी,
हृषीकेश, कौशिकी, केशव,
केशघातिनी, किशोर, कैशोरी,
महाकाल, महाकला, महायज्ञ
यज्ञहर्त्री, दक्षेश, दक्षकन्यका ।।
१७-२१ ।।
महाबली महाबाला बालको देवबालिका ।
चक्रधारी चक्रकरा चक्राङ्गः
चक्रमर्दिका ॥ २२ ॥
अमरो युवती भीमो भया देवो
दिविस्थिता ।
श्रीकरो वेशदा वैद्यो गुणा योगी
कुलस्थिता ॥ २३ ॥
समयज्ञो मानसज्ञा क्रियाविज्ञः
क्रियान्विता ।
अक्षरो वनमाला च कालरूपी कुलाक्षरा
॥ २४ ॥
विशालाक्षो दीर्घनेत्रा जयदो
जयवाहना ।
शान्तः शान्तिकरी श्यामो विमलश्याम
विग्रहा ॥ २५ ॥
कमलेशो महालक्ष्मी सत्यः साध्वी
शिशुः प्रभा ।
विद्युताकारवदनो
विद्युत्पुञ्जनभोदया ॥ २६ ॥
राधेश्वरो राकिणी च कुलदेवः कुलामरा
।
दक्षिणो दक्षिणी श्रीदा क्रियादक्षो
महालया ॥ २७ ॥
वशिष्ठगमनो विद्या विद्येशो
वाक्सरस्वती ।
अतीन्द्रियो योगमाता रणेशी
रणपण्डिता ॥ २८ ॥
कृतान्तको बालकृष्णा कमनीयः सुकामना
।
अनन्तो अनन्तगुणदा वाणीनाथो
विलक्षणा ॥ २९ ॥
गोपालो गोपवनिता गोगोप कुलात्मजा ।
मौनी मौनकरोल्लासा मानवो मानवात्मजा
॥ ३० ॥
महाबली,
महाबाला, बालक, देवबालिका,
चक्रधारी, चक्रकरा, चक्राङ्ग,
चक्रमर्दिका, अमर, युवती,
भीम, भया, देव, दिविस्थिता, श्रीकर, वेशदा,
वैद्य, गुणा, योगी,
कुलस्थिता, समयज्ञ, मानसज्ञा,
क्रियाविज्ञ, क्रियान्विता, अक्षर, वनमाला, कालरूपी,
कुलाक्षरा, विशालाक्ष, दीर्घनेत्रा,
जयद, जयवाहना, शान्त,
शान्तिकरी, श्याम, विमलश्यामविग्रहा,
कमलेश, महालक्ष्मी, सत्य,
साध्वी, शिशु, प्रभा,
विद्युताकारवदन, विद्युत्पुञ्जनभोदया, राधेश्वर, शकिणी, कुलदेव,
कुलामरा, दक्षिण, दक्षिणी,
श्रीदा, क्रियादक्ष, महालया,
वशिष्ठ- गमन, विद्या, विद्येश,
वाक्, सरस्वती, अतीन्द्रिय,
योगमाता रणेश, रणपण्डिता, कृतान्तक, बालकृष्णा, कमनीय,
सुकामना, अनन्त, अनन्तगुणदा,
वाणीनाथ, विलक्षणा, गोपाल,
गोपवनिता गोगोप, कुलात्मजा, मानी मौनकरोल्लासा मानव मानवात्मजा ।।२२-३०॥
सर्वाच्छिन्नो मोहिनी च मायी माया
शरीरजा ।
अक्षुण्णो वज्रदेहस्था गरुडस्थो हि
गारुडी ॥ ३१ ॥
सत्यप्रिया रुक्मिणी च
सत्यप्राणोऽमृतापहा ।
सत्यकर्मा सत्यभामा सत्यरूपी
त्रिसत्यदा ॥ ३२ ॥
शशीशो विधुवदना कृष्णवर्णो विशालधीः
।
त्रिविक्रमो विक्रमस्था
स्थितिमार्गः स्थितिप्रिया ॥ ३३ ॥
श्रीमाधवो माधवी च मधुहा मधुसूदनी ।
वैकुण्ठनाथो विकला विवेकस्थो
विवेकिनी ॥ ३४ ॥
विवादस्थो विवादेशी कुम्भकः
कुम्भकारिका ।
सुधापान: सुधारूपा सुवेशो देवमोहिनी
॥ ३५ ॥
सर्वाच्छिन्न,
मोहिनी, मायी, माया, शरीरजा,
अक्षुण्ण, वज्रदेहस्था, गरुडस्थ,
गारुडी, सत्यप्रिय, रुक्मिणी,
सत्यप्राण, अमृतापहा, सत्यकर्मा,
सत्यभामा, सत्यरूपी, त्रिसत्यदा,
शशीश, विधुवदना, कृष्णवर्ण,
विशालधी, त्रिविक्रम, विक्रमस्था,
स्थितिमार्ग, स्थितिप्रिया श्रीमाधव, माधवी, मधुहा, मधुसूदनी,
वैकुण्ठनाथ, विकला, विवेकस्थ,
विवेकिनी, विवादस्थ, विवादेशी,
कुम्भक, कुम्भकारिका, सुधापान,
सुधारूपा, सुवेश, देवमोहिनी
॥ ३१-३५ ॥
प्रक्रियाधारको धन्या धन्यार्थो
धन्यविग्रहा ।
धरणीशो महानन्ता सानन्तो
नन्दनप्रिया ॥ ३६ ॥
प्रियो विप्रियहरा च विप्रपूज्यो
द्विजप्रिया ।
कान्तो विधुमुखी वेद्यो विद्या
वागीश्वरोऽरुणा ॥ ३७ ॥
अकामी कामरहिता कम्रो विलचरप्रिया ।
पुण्डरीको विकुण्डस्था वैकुण्ठो
बालभाविनी ॥ ३८ ॥
पद्मनेत्र पद्ममाला
पद्महस्तोऽम्बुजानना ।
पद्मनाभिः पद्मनेत्रा पद्मस्थः
पद्मवाहना ॥ ३९ ॥
वासुदेवो बृहद्गर्भा महामानी
महाञ्जना ।
कारुण्यो बालगर्भा च आकाशस्थो
विभाण्डजा ॥ ४० ॥
प्रक्रियाधारक,
धन्या, धन्यार्थ, धन्यविग्रहा,
धरणीश महानन्ता, सानन्त, नन्दनप्रिया, प्रिय, विप्रियहरा,
विप्रपूज्य, द्विजप्रिया, कान्त, विधुमुखी, वेद्य,
विद्या, वागीश्वर, अरुणा,
अकाम, कामरहिता, कम,
विलचरप्रिया, पुण्डरीक, विकुण्डस्था,
वैकुण्ठ, बालभाविनी, पद्मनेत्र,
पद्ममाला, पद्महस्त, अम्बुजानना,
पद्मनाभि, पद्मनेत्रा, पद्मस्थ,
पद्मवाहना, वासुदेव, बृहद्गर्भा,
महामानी, महाज्ञ्जना, कारुण्य,
बालगर्भा, आकाशस्थ, विभाण्डजा
।। ३६-४० ॥
तेजोराशिस्तैजसी च भयाच्छन्नो
भयप्रदा ।
उपेन्द्रो वर्णजालस्था
स्वतन्त्रस्थो विमानगा ॥ ४१ ॥
नगेन्द्रस्थो नागिनी च नगेशो
नागनन्दिनी ।
सार्वभौमो महाकाली नगेन्द्रः
नन्दिनीसुता ॥ ४२ ॥
कामदेवाश्रयो माया मित्रस्थो
मित्रवासना ।
मानभङ्गकरो रावा वारणारिप्रियः
प्रिया ॥ ४३ ॥
रिपुहा राकिणी माता सुमित्रो
मित्ररक्षिका ।
कालान्त कलहा देवी
पीतवासाम्बरप्रिया ॥ ४४ ॥
पापहर्ता पापहन्त्री निष्पापः
पापनाशिनी ।
परानन्दप्रियो ६ मीना मीनरूपी
मलापहा ॥ ४५ ॥
तेजोराशि,
तैजसी, भयाच्छन्न, भयप्रदा,
उपेन्द्र, वर्णजालस्था, स्वतन्त्रस्थ,
विमानगा, नगेन्द्रस्थ, नागिनी,
नगेश, नागनन्दिनी, सार्वभौम,
महाकाली, नगेन्द्रनन्दिनीसुता, कामदेवाश्रय, माया, मित्रस्थ,
मित्रवासना, मानभङ्गकर, रावा,
वारणारिप्रिय, प्रिया, रिपुहा,
राकिणी, माता सुमित्रा, मित्ररक्षिका,
कालान्त, कलहा, देवा,
पीतवास, अम्बरप्रिया, पापहर्ता,
पापहन्त्री, निष्पाप, पापनाशिनी,
परानन्दप्रिय, मीना, मीनरूपी,
मलापहा ।। ४१-४५ ।।
इन्द्रनीलमणिश्यामो महेन्द्रो
नीलरूपिणी ।
नीलकण्ठप्रियो दुर्गा
दुर्गादुर्गतिनाशिनी ॥ ४६ ॥
त्रिकोणमन्दिरश्रीदो विमाया
मन्दिरस्थिता ।
मकरन्दरसोल्लासो मकरन्दरसप्रिया ॥
४७ ॥
दारुणारिनिहन्ता च दारुणारिविनाशिनी
।
कलिकालकुलाचारः कलिकालफलावहा ॥ ४८ ॥
कालक्षेत्रस्थितो रौद्री व्रतस्थो
व्रतधारिणी ।
विशालाक्षो विशालास्या चमत्कारो
करोद्यमा ॥ ४९ ॥
लकारस्थो लाकिनी च लाङ्गली
लोलयान्विता ।
नाकस्थो नाकपदका नाकाक्षो नाकरक्षका
॥ ५० ॥
इन्द्रनीलमणिश्याम,
महेन्द्रनीलरूपिणी, नीलकण्ठप्रिय, दुर्गा, दुर्गादुर्गतिनाशिनी, त्रिकोण-मन्दिरश्रीद,
विमाया, मन्दिरस्थिता, मकरन्दरसोल्लास,
मकरन्दरसप्रिया, दारुणारिनिहन्ता, दारुणारिविनाशिनी, कलिकालकुलाचार, कलिकालफलावहा, कालक्षेत्रस्थित, रौद्री, व्रतस्थ, व्रतधारिणी,
विशालाक्ष, विशालास्या, चमत्कारकरोद्यमा,
लकारस्थ, लाकिनी, लाङ्गली,
लोलयान्विता, नाकस्थ, नाकपदका,
नाकाक्ष, नाकरक्षका ।। ४६-५० ।।
कामगो नामसम्बन्धा सामवेदविशोधिका ।
सामवेद: सामसन्ध्या सामगो
मांसभक्षिणी ॥ ५१ ॥
सर्वभक्षो रात्रभक्षा रेतस्थो
रेतपालिनी ।
रात्रिकारी महारात्रिः कालरात्रो
महानिशा ॥ ५२ ॥
नानादोषहरो मात्रा मारहन्ता सुरापहा
।
चन्दनाङ्गी नन्दपुत्री नन्दपाल:
विलोपिनी ॥ ५३ ॥
मुद्राकारी महामुद्रा मुद्रितो
मुद्रिता रतिः ।
शाक्तो लाक्षा वेदलाक्षी लोपामुद्रा
नरोत्तमा ॥ ५४ ॥
महाज्ञान धरोऽज्ञानी नीरा मनहरोऽमरा
।
सत्कीर्तिस्थो महाकीर्तिः कुलाख्यो
कुलकीर्तिता ॥ ५५ ॥
कामग, नामसम्बन्धा, सामवेदविशोधिका, सामवेद,
सामसन्ध्या, सामग, मांसभक्षिणी,
सर्वभक्ष, रात्रभक्षा, रेतस्थ,
रेतपालिनी, रात्रिकारी, महारात्रि,
कालरात्र, महानिशा, नानादोषहर,
मात्रा, मारहन्ता, सुरापहा,
चन्दनाङ्ग, नन्दपुत्री, नन्दपाल,
विलोपिनी, मुद्राकारी, महामुद्रा,
मुद्रित, मुद्रिता, रति,
शाक्त, लाक्षा, वेदलाक्ष,
लोपामुद्रा, नरोत्तमा, महाज्ञानधर,
अज्ञानी, नीरा, मानहर,
अमरा, सत्कीर्तिस्थ, महाकीर्ति,
कुलाख्य, कुलकीर्तिता ॥ ५१-५५ ॥
आशावासी वासना सा कुलवेत्ता
सुगोपिता ।
अश्वत्थवृक्षनिलयो वृक्षसारनिवासिनी
॥ ५६ ॥
नित्यवृक्षो नित्यलता क्लृप्तः
क्लृप्तपदस्थितः ।
कल्पवृक्षो कल्पलता सुकाल:
कालभक्षिका ॥ ५७ ॥
सर्वालङ्कारभूषाढ सर्वालङ्कारभूषिता
।
अकलङ्की निराहारा दुर्निरीक्ष्यो
निरापदा ॥ ५८ ॥
कामकर्ता कामकान्ता कामरूपी महाजवा
।
जयन्तो याजयन्ती च जयाख्य जयदायिनी
॥ ५९ ॥
त्रिजीवनो जीवमाता कुशलाख्यो विसुन्दरा
।
केशधारी केशिनी च कामजो कामजाइयदा ॥
६० ॥
आशावासी,
वासना, कुलवेत्ता, सुगोपिता,
अश्वत्थवृक्षनिलय, वृक्षसारनिवासिनी, नित्यवृक्ष, नित्यलता, क्लृप्त,
क्लृप्तपदस्थित, कल्पवृक्ष, कल्पलता, सुकाल, कालभक्षिका,
सर्वालङ्कारभूषाढ्य, सर्वालङ्कारभूषिता,
अकलङ्की, निराहारा, दुर्निरीक्ष्य,
निरापदा, कामकर्ता, कामकान्ता,
कामरूपी, महाजवा, जयन्त,
याजयन्ती, जयाख्य, जयदायिनी,
त्रिजीवन, जीवमाता, कुशलाख्य,
विसुन्दरा, केशधारी, केशिनी,
कामज, कामजाड्यदा । ५६-६० ।।
किङ्करस्थो विकारस्था मानसंज्ञो
मनीषिणी ।
मिथ्याहरो महामिथ्या मिथ्यासर्गे
निराकृति ॥ ६१ ॥
नागयज्ञोपवीतश्च नागमालाविभूषिता ।
नागाख्यो नागकुलपा नायको नायिका
वधूः ॥ ६२ ॥
नायकक्षेमदो नारी नरो नारायणप्रिया
।
किरातवर्णो रासज्ञी तारको गुणतारिका
॥ ६३ ॥
शङ्कराख्योऽम्बुजाकारा कृपणः
कृपणावती ।
देशगो देशसन्तोषा दर्शा
दर्शनिवासिनी ॥ ६४ ॥
दर्शनज्ञो दर्शनस्था दृग् दृदिक्षा
सुरोऽसुराः ।
सुरपालो देवरक्षा त्रिरक्षो
रक्षदेवता ॥ ६५ ॥
किङ्करस्थ,
विकारस्था, मानसंज्ञ मनीषिणी, मिथ्याहर, महामिथ्या, मिथ्यासर्ग,
निराकृति, नागयज्ञोपवीत, नागमालाविभूषिता, नागाख्य, नागकुलपा,
नायक, नायिकावधू, नायकक्षेमद,
नारी, नर, नारायणप्रिया,
किरातवर्ण, रासझी, तारक,
गुणतारिका, शङ्कराख्य, अम्बुजाकारा,
कृपण, कृपणावती, देशग,
देशसन्तोषा, दर्श, दर्शनिवासिनी,
दर्शन, दर्शनस्था, दृग,
दिदृक्षा, सुर, असुरा,
सुरपाल, देवरक्षा, त्रिरक्ष,
रक्षदेवता।।६१-६५।।
श्रीरामसेवी सुखदा सुखदो
व्यासवासिनी ।
वृन्दावनस्थो वृन्दा च वृन्दावन्यो
महत्तनू ॥ ६६ ॥
ब्रह्मरूपी त्रितारी च तारकाक्षो हि
तारिणी ।
तन्त्रर्थज्ञ: तन्त्रविद्या
सुतन्त्रज्ञः सुतन्त्रिका ॥ ६७ ॥
तृप्तः सुतृप्ता लोकानां तर्पणस्थो
विलासिनी ।
मयूरा मन्दिररतो मथुरा मन्दिरेऽमला
॥ ६८ ॥
मन्दिरो मन्दिरादेवी निर्मायी
मायसंहरा ।
श्रीवत्सहृदयो वत्सा वत्सलो
भक्तवत्सला ॥ ६९ ॥
भक्तप्रियो भक्तगम्या भक्तो भक्तिः
प्रभुः प्रभा ।
जरो जरा वरो रावा हविर्हेमा क्षमः
क्षिति ॥ ७० ॥
श्रीरामसेवी,
सुखदा, सुखद व्यासवासिनी, वृन्दावनस्थ, वृन्दा, वृन्दावन्य,
महत्तनू, ब्रह्मरूपी, त्रितारी,
तारकाक्ष, तारिणी, तन्त्रार्थज्ञ,
तन्त्रविद्या, सुतन्त्रज्ञ, सुतन्त्रिका, तृप्त, सुतृप्ता
लोकानां तर्पणस्थ, विलासिनी, मयूरा,
मन्दिररत, मथुरा, मन्दिर,
अमला, मन्दिर, मन्दिरा,
देवी, निर्मायी मायसंहरा, श्रीवत्सहृदय, वत्सा, वत्सल,
भक्तवत्सला, भक्तप्रिय, भक्तगम्या,
भक्त, भक्ति, प्रभु,
प्रभा, जर, जरा, वर, रावा, हवि, हेमा, क्षम, क्षिति ॥ ६६-७० ।।
क्षोणीपो विजयोल्लासा विजयोजयरूपिणी
।
जयदाता दातृजाया बलिपो बलिपालिका ॥
७१ ॥
कृष्णमार्जाररूपी च
कृष्णमार्जाररूपिणी ।
घोटकस्थो हयस्था च गजगो गजवाहना ॥
७२ ॥
गजेश्वरो गजाधारा गजो गर्जनतत्परा ।
गयासुरो गयादेवी गजदर्पो गजार्पिता
॥ ७३ ॥
कामनाफलसिद्ध्यर्थी कामनाफलसिद्धिदा
।
धर्मदाता धर्मविद्या मोक्षदो मोक्षदायिनी
॥ ७४ ॥
मोक्षाश्रयो मोक्षकर्त्री नन्दगोपाल
ईश्वरी ।
श्रीपतिः श्रीमहाकाली किरणो
वायुरूपिणी ॥ ७५ ॥
क्षोणीप,
विजया, उल्लास, विजय,
जयरूपिणी, जयदाता, दातृजाया,
बलिप, बलिपालिका, कृष्णमार्जाररूपी
कृष्णमार्जाररूपिणी, घोटकस्थ, हयस्था,
गजग, गजवाहना गजेश्वर, गजाधारा,
गज, गर्जनतत्परा, गयासुर,
गयादेवी, गजदर्प, गजार्पिता
कामनाफल- सिद्ध्यर्थी, कामनाफलसिद्धिदा, धर्मदाता, धर्मविद्या, मोक्षद,
मोक्षदायिनी, मोक्षात्रय, मोक्षकर्त्री, नन्दगोपाल, ईश्वरी,
श्रीपति श्रीमहाकाली, करिशाव, वायुरूपिणी ।। ७१ ७५ ॥
वाय्वाहारी वायुनिष्ठा
वायुबीजयशस्विनी ।
जेता जयन्ती यागस्थो यागविद्या शिवः
शिवा ॥ ७६ ॥
वासवो वासवस्थी च वासाख्यो
धनविग्रहा ।
आखण्डलो विखण्डा च खण्डस्थो खण्डखञ्जनी
॥ ७७ ॥
खड्गहस्तो बाणहस्ता बाणगो बाणवाहना
।
सिद्धान्तज्ञो ध्वान्तहन्त्री
धनस्थो धान्यवर्द्धिनी ॥ ७८ ॥
लोकानुरागो रागस्था स्थितः
स्थापकभावना ।
स्थानभ्रष्टोऽपदस्था च
शरच्चन्द्रनिभानना ॥ ७९ ॥
चन्द्रोदयश्चन्द्रवर्णा चारुचन्द्रो
रुचिस्थिता ।
रुचिकारी रुचिप्रीता रचनो रचनासना ॥
८० ॥
वाय्वाहारी,
वायुनिष्ठा, वायुबीजयशस्विनी, जेता जयन्ती, यागस्थ, यागविद्या,
शिव, शिवा, वासव,
वासवस्थी, वासाख्य, धनविग्रहा,
आखण्डल, विखण्डा, खण्डस्थ,
खण्ड- खञ्जनी, खड्गहस्त, बाणहस्ता, बाणग, बाणवाहना,
सिद्धान्तज्ञ, ध्वान्तहन्त्री, धनस्थ धान्य- वर्द्धिनी, लोकानुराग, रागस्था, स्थित, स्थापकभावना,
स्थानभ्रष्ट, अपदस्था, शरच्चन्द्रनिभानना,
चन्द्रोदय, चन्द्रवर्णा, चारुचन्द्र, रुचिस्थिता, रुचिकारी,
रुचिप्रीता, रचन, रचनासना
॥ ७६-८० ।।
राजराजो राजकन्या भुवनो भुवनाश्रया
।
सर्वज्ञः सर्वतोभद्रा वाचालो लयधातिनी
॥ ८१ ॥
लिङ्गरूपधरो लिङ्गा कलिङ्गः
कालकेशरी ।
केवलानन्दरूपाख्यो
निर्वाणमोक्षदायिनी ॥ ८२ ॥
महामेघगाढ़ो महानन्दरूपा
महामेघजालो महाघोररूपा ।
महामेघमालः सदाकारपाला
महामेघमालामलालोलकाली ॥ ८३ ॥
वियद्व्यापको व्यापिका सर्वदेहे
महाशूरवीरो महाधर्मवीरा ।
महाकालरूपी महाचण्डरूपा
विवेकी मदैकी कुलेश: कुलेशी ॥ ८४ ॥
सुमार्गी सुगीता शुचिस्वो विनिता
महाकवितर्कासुतर्कोऽवितर्का ।
कृतीन्द्रो महेन्द्री भगो
भाग्यचन्द्रा
चतुर्थो महार्था नगः कीर्तिचन्द्रा
॥ ८५ ॥
राजराज,
राजकन्या, भुवन, भुवनाश्रया,
सर्वज्ञ, सर्वतोभद्रा, वाचाल,
लयघातिनी, लिङ्गरूपधर, लिङ्गा,
कलिङ्ग, कालकेशरी, केवलानन्दरूपाख्य
निर्वाणमोक्षदायिनी, महा- मेघगाढ़, महानन्दरूपा,
महामेघजाल, महाघोररूपा, महामेघमाल,
सदाकारपाला, महामेघमाला, अमला, लोलकाली, वियद्व्यापक,
सर्वदेहे, व्यापिका, महाशूरवीर,
महाधर्मवीरा, महाकाल- रूपी, महाचण्डरूपा, विवेकी, मदैकी,
कुलेश, कुलेशी, सुमार्गी,
सुगीता, शुचिस्वी, विनिता,
महार्क, वितर्का, सुतर्क,
अवितर्का, कृतीन्द्र, महेन्द्री,
भग भाग्यचन्द्रा, चतुर्थ, महार्था, नग, कीर्तिचन्द्रा ।।
८१-८५ ।।
विशिष्टो महेष्टिर्मनस्वी सुतुष्टि-
र्महाषड्दलस्थो महासुप्रकाशा ।
गलच्चन्द्रधारामृतस्निग्धदेहो
गलत्कोटिसूर्यप्रकाशाभिलाषा ॥ ८६ ॥
महाचण्डवेगो महाकुण्डवेगी
महारुण्डखण्डो महामुण्डखण्डा ।
कुलालभ्रमच्चक्रसार प्रकारा
कुलालो मलाका रचक्रप्रसारी ॥ ८७ ॥
कुलालक्रियावान् महाघोरखण्डः
कुलालक्रमेण भ्रमज्ञानखण्डा ।
प्रतिष्ठः प्रतिष्ठा प्रतीक्ष:
प्रतीक्षा
महाख्यो महाख्या सुकालोऽतिदीक्षा ॥
८८ ॥
महापञ्चमाचारतुष्टः प्रचेष्टा
महापञ्चमा प्रेमहा कान्तचेष्टा ।
महामत्तवेशो महामङ्गलेशी
सुरेशः क्षपेशी वरो दीर्घवेशा ॥ ८९
॥
चरो बाह्यनिष्ठा चरश्चारुवर्णा
कुलाद्योऽकुलाद्या यतिर्यागवाद्या ।
कुलोकापहन्ता महामानहन्त्री
महाविष्णुयोगी महाविष्णुयोगा ॥ ९० ॥
विशिष्ट, महेष्टि, मनस्वी, सुतुष्टि, महाषड्दलस्थ, महासुप्रकाशा, गलच्चन्द्रधारामृत-स्निग्धदेह, गलत्कोटिसूर्य- प्रकाशाभिलाषा, महाचण्डवेग, महाकुण्डवेगी, महारुण्डखण्ड, महा- मुण्डखण्डा, कुलालभ्रमच्चक्रसार प्रकारा, कुलाल, मलाका, रचक्रप्रसारी, कुलालक्रियावान्, महाघोरखण्ड, कुलालक्रमेणभ्रमज्ञानखण्डा, प्रतिष्ठ प्रतिष्ठा, प्रतीक्ष, प्रतीक्षा, महाख्य, महाख्या, सुकाल, अतिदीक्षा, महापञ्चमाचारतुष्ट, प्रचेष्टा, महापञ्चमा, प्रेमहा, कान्तचेष्टा, महामत्तवेश, महामङ्गलेशी, सुरेश, क्षपेशी, वर दीर्घवशा, चर, बाह्यनिष्ठा अचर, चारुवर्णा, कुलाद्य, अकुलाद्या, यति, यागविद्या, कुलोकापहन्ता महामानहन्त्री, महाविष्णुयोगी, महाविष्णुयोगा ।। ८६- ९० ।।
क्षितिक्षोभहन्ता क्षितिक्षुब्धबाधा
महार्षो महार्घा धनी राज्यकार्या ।
महारात्रि सान्द्रान्धकारप्रकाशो
महारात्रि सान्द्रान्धकारप्रवेशा ॥
९१ ॥
महाभीमगम्भीरशब्दप्रशब्दो
महाभीमगम्भीरशब्दापशब्दा
कुला ज्ञानदात्री यमो यामयात्रा
वशी सूक्ष्मवेशाश्वगो नाममात्रा ॥ ९२ ॥
हिरण्याक्षहन्ता महाशत्रुहन्त्री
विनाशप्रियो बाणनाशप्रिया च ।
महाडाकिनीशो महाराकिणीशो
महाडाकिनी सा महाराकिणी सा ॥ ९३ ॥
मुकुन्दो महेन्द्रो महाभद्रचन्द्रा
क्षितित्यागकर्ता महायोगकर्त्री ।
हितो मारहन्त्री महेशेश इन्द्रा
गतिक्षोभभावो महाभावपुञ्जा ॥ ९४ ॥
शशीनां समूहो विधोः कोटिशक्ति:
कदम्बाश्रितो वारमुख्या सतीनां ।
महोल्लासदाता महाकालमाता
स्वयं सर्वपुत्रः स्वयं लोकपुत्री ॥
९५ ॥
क्षितिक्षोभहन्ता,
क्षितिक्षुब्धबाधा, महार्घ, महार्घा, धनी, राज्यकार्या,
महारात्रिसान्द्रान्धकार- प्रकाश, महारात्रिसान्द्रान्धकारप्रवेशा,
महाभीमगम्भीरशब्दप्रशब्द, महाभीमगम्भीरशब्दापशब्दा,
कुला, ज्ञानदात्री, यम,
यामयात्रा, वशी, सूक्ष्मवेश,
अश्वग, नाममात्रा, हिरण्याक्षहन्ता,
महाशत्रुहन्त्री, विनाशप्रिय, बाणनाशप्रिया, महाडाकिनीश, महाराकिणीश,
महाडाकिनी, महाराकिणी, मुकुन्द,
महेन्द्र, महाभद्रचन्द्रा, क्षितित्यागकर्ता, महायोगकर्त्री, हित, मारहन्त्री, महेशेश,
इन्द्रा, गतिक्षोभभाव, महाभावपुञ्जा,
शशीनां समूह, विद्यो कोटिशक्ति, कदम्बाश्रित, सतीनां वारमुख्या, महोल्लासदाता, महाकालमाता, स्वयं
सर्वपुत्र, स्वयं लोकपुत्री ।। ९१- ९५ ।।
महापापहन्ता महाभावभर्त्री
हरिः कार्तिकी कार्तिको देवसेना ।
जयाप्तो विलिप्ता कुलाप्तो गणाप्ता
सुवीर्यो सभाषा क्षितीशोऽभियाता ॥
९६ ॥
भवान् भावलक्ष्मीः प्रियः
प्रेमसूक्ष्मा
जनेशो धनेशी कृपो मानभङ्गा ।
कठोरोत्कटानां महाबुद्धिदाता
कृतिस्था गुणज्ञो गुणानन्दविज्ञा ॥
९७ ॥
महाकालपूज्यो महाकालपूज्या
खगाख्यो नगाख्या खरः खड्गहस्ता ।
अथर्वोऽथर्वान्दोलितस्थः महार्था
खगक्षोभनाशा हविः कूटहाला ॥ ९८ ॥
महापद्ममालाधृतो गाणपत्या
गणस्थो गभीरा गुरु: ज्ञानगम्या ।
घटप्राणदाता घनाकाररूपा
भयार्थोङबीजाङवारीङकर्ता
भवो भावमाता नरो यामध्याता
चलान्तोऽचलाख्या चयोऽञ्जालिका च ।
छलज्ञश्छलाढ्या छकारश्छकारा ॥ ९९ ॥
जयो जीवनस्था जलेशो जलेशा ॥ १०० ॥
महापापहन्ता,
महाभावभर्ती, हरि कार्तिकी, कार्तिक, देवसेना जयाप्त विलिप्ता, कुलाप्त, गणाप्ता, सुवीर्य,
सभाषा, क्षितीश, अभियाताभवान्,
भावलक्ष्मी, प्रिय, प्रेमसूक्ष्मा,
जनेश, धनेशी, कृप,
मानभङ्गा, कठोर, उत्कटानां
महाबुद्धिदाता, कृतिस्था, गुणज्ञ,
गुणानन्दविज्ञा, महाकालपूज्य, महाकालपूज्या, खगाख्य, नगाख्या
खर, खड्गहस्ता, अथर्व, अथर्वान्दोलितस्थ, महार्था, खगक्षोभनाशा,
हवि, कूटहाला, महापद्ममालाधृत,
गाणपत्य, गणस्थ, गभीरा,
गुरुज्ञानगम्या, घटप्राणदाता, धनाकाररूपा, भयार्थ, डबीजा,
डवारी, डकर्ता, भव,
भावमाता, नर, यामध्याता,
चलान्त, अचलाख्या, चय
अञ्जालिका, छलज्ञ, छलाख्या, छकार, छकारा, जय, जीवनस्था, जलेश, जलेशा ।।
९६-१०० ।।
जपञ्जापकारी जगज्जीवनीशा
जगत्प्राणनाथो जगद्ध्लादकारी ।
झरो झर्झरीशा झनत्कारशब्दो
झनञ्झञ्जनानादझङ्काररावा॥ १०१ ॥
अचैतन्यकारी अकैवल्यनारी
हनोल्लासधारी टनत्टङ्कहस्ता ।
ठरेशो पविष्टश्ठकारादिकोटी
डरो डाकिनीशो डरेशो डमारा ॥ १०२ ॥
ढमेशो हि ढक्का वरस्थानबीजो
णवर्णा तमालतनुः स्थाननिष्ठा ।
थकारार्णमानस्थनिस्थोऽसंख्या
दयावान् दयार्द्रा धनेशो धनाढ्या ॥
१०३ ॥
नवीनो नगेभागतीर्णाङ्गहारो
नगेशी परः पारणी सादिपाला ।
फलात्मा फला फाल्गुनी फेणनाशः
फलाभूषणाढ्या वशी वासरम्या ॥ १०४ ॥
भगात्मा भवस्त्री महाबीजमानो
महाबीजमाला मुकुन्दः सुसूक्ष्मा ।
यतिस्था यशस्था रतानन्दकर्ता
रतिर्लाकिनीशो लयार्थ प्रचण्डा ॥
१०५ ॥
जपज्जापकारी,
जगज्जीवनी, ईश, जगत्प्राणनाथ,
जगद्भ्लादकारी, झर झर्झरीशा, झनत्कारशब्द, झनझनानादझङ्काररावा, अचैतन्यकारी, अकैवल्यनारी, हनोल्लासधारी,
टनत्ट- बगहस्ता, ठरेशोपविष्ट, ठकारादिकोटी, डर, डाकिनीश,
डरेश, डमारा, ढमेश,
ढक्का, वरस्थानबीज, णवर्णा,
तमालतनु, स्थाननिष्ठा, थकारार्णमानस्थनिस्थ,
असंख्या, दयावान्, दयार्द्रा,
धनेश, धनाढ्या, नवीन,
नगेभागतीर्णाङ्गहारा, नगेशी, पर, पारणी, सादिपाला, फलात्मा, फला, फाल्गुनी,
फेणनाश, फलाभूषणाढ्या, वशी,
वासरम्या, भगात्मा, भवस्वी,
महाबीजमान, महाबीजमाला, मुकुन्द,
सुसूक्ष्मा, यतिस्था यशस्था, रतानन्दकर्ता, रति, लाकिनीश
लयार्थ प्रचण्डा ।। १०१-१०५ ॥
प्रवालाङ्गधारी प्रवालाङ्गमाला
हलोहालहेलापदः पादताला।
वशीन्द्र: प्रकाशो वरस्थानवासा
शिवः श्रीधराङ्गः शलाका शिला च ॥
१०६ ॥
षडाधारवासी षडाधारविद्या
षडाम्भोजसंस्थः षडब्जोपविष्टा ।
सदा साधरोग्रोपविष्टाऽपरागी
सुसूक्तापयस्था पलाश्रयस्थिता ॥ १०७
॥
हरस्थोग्रकर्मा हरानन्दधारा लघुस्थो
लिपिस्था क्षयीक्षुब्धक संख्या ।
अनन्तो निर्वाणाहखकारबीजा
उरस्थोऽप्युरुस्था उरा ऊर्ध्वरूपा ॥
१०८ ॥
ऋचस्थो हि ऋगालसो दीर्घऌस्था
त्वमेको हि चैंबीजगुर्वी गुणस्था ।
सदौङ्कारवर्णा ह्सौंकारबीजा
असङ्कारचन्द्रो ह्युसः कारवीरा ॥
१०९ ॥
हरीन्द्रो हरीशा हरिः कृष्णरूपा
शिवो वेदभाषा च शौरिः प्रसङ्गा ।
गणाध्यक्षरूपी परानन्दभक्षा
परेशो गणेशी रसो वासपूज्या ॥ ११० ॥
प्रथालाङ्गधारी,
प्रवालाङ्गमाला, हल, हालहेलापद,
पादताला, वशीन्द्र, प्रकाश,
वरस्थानवासा, शिव, श्रीधराङ्ग,
शलाका, शिला, षडाधारवासी,
षडाधारविद्या, षडाम्भोजसंस्थ, षडाजोपविष्टा, सदा साधरोगोवविष्टा, अपरागी, सुसूक्ता, पयस्था,
पला, आश्रयस्थिता, हरस्थोग्रकर्मा,
हरानन्दधारा, लघुस्थ, लिपिस्था,
क्षयी, क्षुब्धक, संख्या,
अनन्त, निर्वाण- हराकारबीजा, उरस्थ, ऊरुस्था, उरा, ऊर्ध्वरूपा, ऋचस्थ ॠग्, अलस,
दीर्घलृस्था, एक, चैबीजगुर्वी,
गुणस्था, सदौङ्कारवर्णा, हसौङ्कारबीजा, असङ्कारचन्द्र, ह्युसः
कारवीरा, हरीन्द्र, हरीशा, हरि, कृष्णरूपा, शिव, वेदभाषा, शौरि, प्रसङ्गा,
गणाध्यक्षरूपी, परानन्दभक्षा, परेश, गणेशी, रस, वासपूज्या ।। १०६- ११० ।।
चकोरि कुलप्राणबुद्धिस्थितिस्था
स्वयं कामधेनुस्वरूपी विरूपा ।
श्रीहिरण्यप्रभः
श्रीहिरण्यप्रभाङ्गी
प्रभातार्कवर्णो ऽरुणाकारणाङ्गी ॥
१११ ॥
विभा कोटिधारा धराधार कोषा
रणीशो प्रत्यादिकूटोऽधरो धारणा
शौरिरार्या ।
महायज्ञसंस्थो महायज्ञनिष्ठा
सदाकर्मसङ्गः सदामङ्गरङ्गा ॥ ११२ ॥
किरातीपति राकिणी कालपुत्री
शिलाकोट निर्माणदोहा विशाला ।
कलार्ककलस्थो कलाकिङ्किणीस्था
किशोर: किशोरी कुरुक्षेत्रकन्या ॥
११३ ॥
महालाङ्गलिश्री बलोद्धामकृष्णः
कुलालादिविद्याऽभयो भावशून्या।
महालाकिनी काकिनी शाकिनीशो
महासुप्रकाशा परो हाकिनीशा ॥ ११४ ॥
कुरुक्षेत्रवासी कुरुप्रेममूर्ति
महाभूतिभोगी महायोगिनी च ।
कुलाङ्गारकारो कुलाङ्गीशकन्या
तृतीयस्तृतीयाऽद्वितीयोऽद्वितीया ॥
११५ ॥
चकोरि,
कुलप्राणबुद्धिस्थितिस्था, स्वयंकामधेनुस्वरूपी,
विरूपा, श्रीहिरण्यप्रभ, श्री- हिरण्यप्रभाङ्गी, प्रभातार्कवर्ण, अरुणाकारणाङ्गी, विभा, कोटिधारा,
धराधार, कोषा, रणीश,
प्रत्यादिकूट, अधर, धारणा,
शौरि, आर्या, महायज्ञसंस्थ,
महायज्ञनिष्ठा, सदाकर्मसङ्ग, सदाभङ्गरङ्गा किरातीपति, राकिणी, कालपुत्री, शिलाकोटिनिर्माणदेहा, विशाला, कलाकङ्कलस्थ, कलाङ्किकिणीस्था,
किशोर, किशोरी, कुरुक्षेत्रकन्या
महालाङ्गलिश्री, बलोद्धामकृष्ण, कुलालादि-
विद्या, अभय, भावशून्या महालाकिनी,
काकिनी, शाकिनीश, महासुप्रकाशा,
परहाकिनीशा, कुरुक्षेत्रवासी, कुरुप्रेममूर्ति, महाभूतिभोगी, महायोगिनी, कुलाङ्गारकारी, कुलाङ्गीशकन्या,
तृतीय, तृतीया, अद्वितीय,
अद्वितीया ।।१११-११५।।
महाकन्दवासी महानन्दकाशी
पुरग्रामवासी महापीठदेशा ।
जगन्नाथ वक्ष स्थलस्थो वरेण्या-
च्युतानन्दकर्ता रसानन्दकर्त्री ॥
११६ ॥
जगद्दीपकलो जगद्दीपकाली
महाकामरूपी महाकामपीठा ।
महाकामपीठस्थिरो भूतशुद्धि -
महाभूतशुद्धिः महाभूतसिद्धिः ॥ ११७
॥
प्रभान्तः प्रवीणा गुरुस्थो
गिरिस्था
गलद्धारधारी महाभक्तवेषा ।
क्षणक्षुन्निवृत्ति
र्निवृत्तान्तरात्मा
सदन्तर्गतस्था लयस्थानगामी ॥ ११८ ॥
लयानन्दकाम्या विसर्गाप्तवर्गों
विशालाक्षमार्गा कुलार्णः कुलार्णा
।
मनस्था मनः श्रीः भयानन्ददाता सदा
लाणगीता गजज्ञानदाता महामेरुपाया ॥
११९ ॥
तरोर्मूलवासी तरज्ञोपदर्शा सुरेशः
समेश: सुरेशा सुखी खड्गनिष्ठा ।
भयत्राणकर्ता भयज्ञानहन्त्री
जनानां मखस्थो मखानन्दभङ्गा ॥ १२० ॥
महाकन्दवासी,
महानन्दकाशी, पुरग्रामवासी, महापीठदेशा, जगन्नाथवक्षःस्थलस्थ, वरेण्या, अच्युतानन्दकर्ता, रसानन्दकर्त्री,
जगद्दीपकाल, जगद्दीपकाली, महाकामरूपी, महाकामपीठा, महाकामपीठस्थिर,
भूतशुद्धि, महाभूतशुद्धि, महाभूतसिद्धि, प्रभान्त, प्रवीणा,
गुरुस्थ गिरिस्था, गलद्धारधारी, महाभक्तवेषा, क्षणक्षुन्निवृत्ति, निवृत्तान्तरात्मा, सदन्तर्गतस्था, लयस्थानगामी, लयानन्दकाम्या, विसर्गाप्तवर्ग,
विशालाक्षमार्गा, कुलार्ण, कुलार्णा, मनःस्था, मनःश्री,
सदाभयानन्ददाता, लाणगीता, गजज्ञानदाता, महामेरुपाया, तरोर्मूलवासी,
तरज्ञोपदर्शा, सुरेश, समेश,
सुरेशा, सुखी, खड्गनिष्ठा,
भयत्राणकर्ता, जनानां भयज्ञानहन्त्री, मखस्थ, मखानन्दभङ्गा ।। ११६-१२० ।।
महासत्पथस्थो महासत्पथज्ञा
महाबिन्दुमानो महाबिन्दुमाना ।
खगेन्द्रोपविष्टो विसर्गान्तरस्था
विसर्गप्रविष्टो महाबिन्दुनादा ॥
१२१ ॥
सुधानन्दभक्तो विधानन्दमुक्ति:
शिवानन्दसुस्थो विनानन्दधात्री ।
महावाहनाह्लादकारी सुवाहा
सुरानन्दकारा गिरानन्दकारी ॥ १२२ ॥
हयानन्दकान्तिः मतङ्गस्थदेवो
मतङ्गाधिदेवी महामत्तरूपः ।
तदेको महाचक्रपाणिः प्रचण्डा-
खिलापस्थलस्थोऽविहम्नीशपत्नी ॥ १२३
॥
शिखानन्दकर्ता शिखासारवासी
सुशाकम्भरी क्रोष्टरी
वेदवेदीसुगन्धा ।
युगो योगकन्या दवो दीर्घकन्या शरण्यः
शरण्या
मुनिज्ञानगम्या सुधन्यः सुधन्या ॥
१२४ ॥
शशी वेदजन्या यमी यामवामा
ह्यकामो ह्यकामा सदा ग्रामकामा ।
धृतीश: धृतीशा सदा हाटकस्था -
यशोऽयनेशी भकारो भगीरा ॥ १२५ ॥
महासत्पथस्थ,
महासत्पथज्ञा, महाबिन्दुमान, महाबिन्दुमाना, खगेन्द्रोपविष्ट, विसर्गान्त- रस्था, विसर्गप्रविष्ट, महाबिन्दुनादा, सुधानन्दभक्त, विद्यानन्दमुक्ति,
शिवानन्दसुस्थ, विनानन्द- धात्री, महावाहनाह्लादकारी, सुवाहा सुरानन्दकारा, गिरानन्दकारी, हयानन्दकान्ति, मतङ्गस्थदेव,
मतङ्गाधिदेवी, महामत्तरूप, तदेक, महाचक्रपाणि, प्रचण्डा,
खिलापस्थलस्थ, अविहम्नीशपत्नी, शिखानन्दकर्ता, शिखासारवासी, सुशाकम्भरी,
क्रोष्टरी, वेदवेदी, सुगन्धा,
युग, योगकन्या, दव,
दीर्घकन्या, शरण्य, शरण्या,
मुनिज्ञानगम्या, सुधन्य, सुधन्या, शशी, वेदजन्या,
यमी, यामवामा अकाम, अकामा,
सदा ग्रामकामा, घृतीश, घृतीशा,
सदा हाटकस्था, अयनेश अयनेशी, भकार, भगीरा ।। १२१-१२५ ।।
चलत्खञ्जनस्थः खलत्खेलनस्था विवाती
किराती खिलाङ्गोऽखिलाङ्गी ।
बृहत्खेचरस्थो बृहत्खेचरी च
महानागराजो महानागमाला ॥ १२६ ॥
हकारार्द्धसंज्ञा वृतोहारमाला
महाकालनेमिप्रहा पार्वती च ।
तमिस्रा तमिस्रावृतो दुःखहत्या
विपन्नो विपन्ना गुणानन्दकन्या ॥
१२७ ॥
सदा दु:खहन्ता महादुःखहत्री
प्रभातार्क वर्णः प्रभातारुणश्रीः ।
महापर्वतप्रेमभावोपपन्नो
महादेवपत्नीशभावोपपन्ना ॥ १२८ ॥
महामोक्षनीलप्रिया भक्तिदाता
नयानन्द भक्तिप्रदा देवमाता ॥ १२९ ॥
चलत्खञ्जनस्थ,
खलत्खेलनस्था, विवाती, किराती,
खिलाडू, अखिलाड़ी, बृह-
त्खेचरस्थ, बृहत्खेचरी, महानागराज,
महानागमाला, हकारार्द्धसंज्ञा, वृतोहारमाला महाकाल- नेमिप्रहा, पार्वती, तमिस्र, तमिस्रवृत, दुःखहत्या,
विपन्न, विपन्ना, गुणानन्दकन्या,
सदा दुःखहन्ता महादुःखहन्त्री, प्रभातार्कवर्ण,
प्रभातारुणश्री महापर्वत, प्रेमभावोपपन्न,
महादेवपत्नी, ईशभावोपपन्ना, महामोक्षनीलप्रिया, भक्तिदाता, नयानन्द, भक्तिप्रदा, देवमाता
॥। १२६-१२९ ।।
रुद्रयामल तंत्र पटल ४२ राकिणी
केशव सहस्रनाम स्तोत्र फलश्रुति
Rudrayamal Tantra Patal 42
रुद्रयामल तंत्र बयांलीसवाँ पटल
रुद्रयामल तंत्र द्विचत्वारिंशः पटल:
इत्येतत्कथितं नाथ महास्तोत्रं
मनोरमम् ।
सहस्रनामयोगाऽङ्ग
मष्टोत्तरसमन्वितमम् ॥ १३० ॥
यः पठेत् प्रातरुत्थाय
शुचिर्वाशुचिमानसः ।
भक्त्या शान्तिमवाप्नोति अनायासेन
योगिराट् ॥ १३१ ॥
प्रत्यहं ध्यानमाकृत्य त्रिसन्ध्यं
यः पठेत् शुचिः ।
षण्मासात् परमो योगी सत्यं सत्यं
सुरेश्वर ॥ १३२ ॥
हे नाथ! इस प्रकार मैने मनोरम १००८
नामों से संयुक्त महास्तोत्र कहा जो भक्त प्रातःकाल उठकर शुद्ध मन से अथवा अशुद्ध
मन से भक्तिपूर्वक इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह
अनायास शान्ति प्राप्त कर लेता और योगिराज बन जाता है। पवित्र होकर जो प्रतिदिन
ध्यान लगाकर तीनों सन्ध्या में इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह
६ मास भीतर महायोगी बन जाता है, हे सुरेश्वर ! हे महादेव! यह
सत्य है यह सत्य है ।। १३०-१३२ ।।
अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम्
।
अपमृत्य्वादिहरणं वारमेकं पठेद्यदि
॥ १३३ ॥
पठित्वा ये न गच्छन्ति विपत्काले
महानिशि ।
अनायासेन ते यान्ति महाघोरे
भयार्णवे ॥ १३४ ॥
यदि भक्त एक बार भी प्रतिदिन इस
स्तोत्र का पाठ करे तो उसकी अकाल मृत्यु नहीं होती, उसके समस्त व्याधियों का नाश हो जाता है और अपमृत्यु भी दूर हो जाती है।
जो लोग विपत्ति काल में इस स्तोत्र का बिना पाठ किए अर्द्धरात्रि में गमन करते हैं,
वे महाघोर भय समुद्र में अकस्मात् गिर जाते हैं ।। १३३-१३४ ॥
अकाले यः पठेन्नित्यं
सुकालस्तत्क्षणाद्भवेत् ।
राजस्वहरणे चैव सुवृत्तिहरणादिके ॥
१३५ ॥
मासैकपठनादेव राजस्वं स लभेद्
ध्रुवम् ।
विचरन्ति महावीराः स्वर्गे मर्त्ये
रसातले ॥ १३६ ॥
गणेशतुल्यवलिनो महाक्रोधशरीरिण: ।
एतत्स्तोत्रप्रसादेन जीवन्मुक्तो
महीतले ॥ १३७ ॥
जो अकाल में इस स्तोत्र का पाठ करता
है उसके लिए वह अकाल तत्क्षण सुकाल बन जाता है । जब राजा अपनी सम्पत्ति का हरण
करना चाहता हो अथवा कोई अपनी वृत्ति का हरण करना चाहता हो तो एक महीने तक पाठ करने
से साधक अपनी राजकीय सम्पत्ति अवश्य प्राप्त कर लेता है। ऐसे तो स्वर्ग में
मृत्युलोक में तथा पाताल लोक में गणेश के तुल्य बलवान् महाक्रोधी महावीर विचरण
करते हैं किन्तु इस स्तोत्र की कृपा प्राप्त करने वाला साधक उनसे निर्भय होकर इसी
पृथ्वी में जीवन्मुक्त हो जाता है ।। १३५-१३७ ।।
महानामस्तोत्रसारं
धर्माधर्मनिरूपणम् ।
अकस्मात् सिद्धिदं काम्यं काम्यं
परमसिद्धिदम् ॥ १३८ ॥
महाकुलकुण्डलिन्याः भवान्याः साधने
शुभे ।
अभेद्यभेदने चैव महापातकनाशने ॥ १३९
॥
महाघोरतरे काले पठित्वा
सिद्धिमाप्नुयात् ।
षट्चक्रस्तम्भनं नाथ प्रत्यहं यः
करोति हि ॥ १४० ॥
यह धर्माधर्म का निरूपण करने वाला
महानामस्तोत्र का सर्वस्व है, अकस्मात्
सिद्धि प्रदान करने वाला है, कामना प्रदान करने वाला है,
परमसिद्धि भी देता है अतः सभी लोगों के लिए काम्य है। महाकुण्डलिनी
भवानी के कल्याणकारी साधन में, अभेद्य भेदन में, महापातकों के नाश करने में, घोर से महाघोर काल के
उपस्थित होने पर इस स्तोत्र का पाठ कर साधक सिद्धि प्राप्त कर लेता है ।। १३८-१४०
।।
मनोगतिस्तस्य हस्ते स शिवो न तु
मानुषः ।
योगाभ्यासं यः करोति न स्तवः पठ्यते
यदि ॥ १४१ ॥
योगभ्रष्टो भवेत् क्षिप्रं
कुलाचारविलङ्घनात् ।
कुलीनाय प्रदातव्यं न
खल्वकुलेश्वरम् ॥ १४२ ॥
हे नाथ! जो प्रतिदिन षट्चक्रों को
स्तम्भित करने वाले इस स्तोत्र का पाठ करता है उसके हाथ में उसके मन की गति हो
जाती है वह साक्षात् शिवस्वरूप है, मनुष्य
नहीं। जो साधक योगाभ्यास तो करता है किन्तु इस स्तोत्र का पाठ नहीं करता, वह इस कुलाचार के उल्लंघन से योगभ्रष्ट हो जाता है। यह स्तोत्र कुलीन को
ही देना चाहिए। जो कुल (शक्ति) का उपासक नहीं है उसे कदापि न देवे ।। १४०-१४२ ।।
कुलाचारं समाकृत्य ब्राह्मणाः
क्षत्रियादयः ।
योगिनः प्रभवन्त्येव स्तोत्रपाठात्
सदामराः ॥ १४३ ॥
ब्राह्मण,
क्षत्रिय आदि कुलाचार (शक्ति सम्प्रदाय) का अनुसरण करते हुए इस
स्तोत्र के पाठ से योगी बन जाते हैं और सर्वदा अमर हो कर जीवित रहते हैं ।। १४३ ॥
आनन्दभैरव उवाच
वद कान्ते रहस्य मे मया सर्वञ्च
विस्मृतम् ।
महाविषं कालकूट पीत्त्वा
देवादिरक्षणात् ॥ १४४ ॥
कण्ठस्थाः देवताः सर्वा भस्मीभूताः
सुसम्भृताः ।
महाविषज्वालया च मम देहस्थदेवताः ॥
१४५ ॥
कैवल्यनिरताः सर्वे प्रार्थयन्ति
निरन्तरम् ।
षट्चक्रं कथयित्वा तु सन्तोष मे कुरु
प्रभो ।
षट्चक्रभेदकथनममृतश्रवणादिकम् ॥ १४६
॥
कथित्वा मम सन्तोषं कुरु कल्याणि
वल्लभे ।
अमृतानन्दजलधौ सुधाभिः
सिक्तविग्रहम् ॥ १४७ ॥
कृत्त्वा कथय शीघ्रं मे चायुषं
परिवर्धय ।
आनन्दभैरव ने कहा- हे कान्ते ! मुझे
रहस्य बताइए क्योंकि मैं देवादिकों के रक्षण के लिए कालकूट नामक महाविष का पान कर
उन रहस्यों को भूल गया हूँ। इतना ही नहीं उस महाविष की ज्वाला से देह में रहने
वाले तथा कण्ठ में रहने वाले सभी देवता जो ज्ञान का स्मरण कराते थे वे सब के सब भी
भस्म हो गए। अब कैवल्य पद को प्राप्त करने वाले वे सभी मुझसे प्रार्थना करते हैं,
कि हे प्रभो ! षट्चक्रों का वर्णन कर हमें सन्तोष प्रदान करें। अतः
हे कल्याणि ! हे प्राणवल्लभे ! षट्चक्रों का भेद कह कर मेरा सन्तोष कीजिए। जिसका
श्रवण अमृत के समान है। अतः हे देवि ! अमृतानन्द के समुद्र के अमृत से मेरे शरीर
को सींच कर मेरे आयुष्य का परिवर्धन करने के लिए शीघ्रातिशीघ्र उसे कहिए ।।
१४४-१४८ ।।
आनन्दभैरवी उवाच
निगूढार्थ महाकाल कालेश जगदीश्वर ॥
१४८ ॥
भैरवानन्दनिलय कालकूटनिषेवण ।
इदानीं शृणु योगार्थ मयि संयोग एव च
॥ १४९ ॥
श्रुत्वा चैतत्क्रियाकार्यं नरो
योगीश्वरो भवेत् ।
ममोद्भवः खेऽमले च
सर्वाकारविवर्जिते ॥ १५० ॥
श्री आनन्दभैरवी ने कहा—
हे महाकाल ! हे कालेश! हे जगदीश्वर ! हे भैरव ! हे आनन्दनिलय ! हे
कालकूट नामक विष का सेवन करने वाले ! हे महाभैरव ! अब योग के अर्थ को तथा मुझ में
होने वाले सम्यक् योग को सुनिए इसे सुनकर इसकी क्रिया करने वाला मनुष्य योगीश्वर
बन जाता क्योंकि सर्वाकार से विवर्जित निर्मल विशुद्ध आकाश में मेरा उद्भव है ।।
१४८-१५० ।।
भ्रूमध्ये सर्वदेहे च स्थापयित्वा च
मां नरः ।
भाव्यते चापरिच्छन्नं
ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम् ॥ १५१ ॥
मम रूपं महाकाल सत्त्वरजस्तमः
प्रियम् ।
केवलं रजोयोगेन शरीरं नापि तिष्ठति
॥ १५२ ॥
तथा केवलयोगेन तमसा नापि तिष्ठति ।
तथा केवलसत्त्वेन कुतो देही
प्रतिष्ठति ।
अतस्त्रिगुणयोगेन धारयामि नवाङ्गकम्
॥ १५३ ॥
साधक मनुष्य भ्रूमध्य में अथवा
सम्पूर्ण शरीर में मुझे स्थापित कर ब्रह्मा, विष्णु,
शिव स्वरूपात्मक अपरिच्छिन्न रूप में मेरा ध्यान करता है। हे महाकाल
! मेरा स्वरूप सत्त्व, रज तथा तमोगुणात्मक है, क्योंकि केवल रजो गुण मात्र के संयोग से शरीर की स्थिति नहीं होती,
मात्र तमोगुण के भी संयोग से शरीर स्थिति नहीं होती, फिर केवल सत्त्वगुण के संयोग से शरीर स्थिति किस प्रकार से संभव है। इसलिए
मैं तीनों गुणों के संयोग से नवीन शरीर धारण करती हूँ ।। १५१-१५३ ।।
शनैः शनैः विजेतव्याः
सत्त्वरजस्तमोगुणाः ।
आदौ जित्वा रजोधर्म पश्चात्तामसमेव
च ॥ १५४ ॥
सर्वशेषे सत्त्वगुणं नरो योगीश्वरो
भवेत् ।
गुणवान् ज्ञानवान् वाग्मी
सुश्रीर्धर्मी जितेन्द्रियः ॥ १५५ ॥
शुद्धनिर्मलसत्वं तु गुणमाश्रित्य
मोक्षभाक् ।
सदा सत्त्वगुणाच्छन्नं पुरुषं काल
एव च ॥ १५६ ॥
पश्यतीह न
कदाचिज्जरामृत्युविवर्जितम् ।
तं जनं परमं शान्तं निर्मलं
द्वैतवर्जितम् ॥ १५७ ॥
सर्वत्यागिनमात्मानं काल: सर्वत्र
रक्षति ।
जले वा पर्वते वापि महारण्ये
रणस्थले ॥ १५८ ॥
भूगर्त्तनिलये भीते संहारे
दुष्टविग्रहे ।
सन्तिष्ठति महायोगी सत्यं सत्यं
कुलेश्वर ॥ १५९ ॥
साधक को धीरे धीरे सत्त्व रज तथा
तमोगुण पर विजय प्राप्त करनी चाहिए, प्रथम
रजोगुण के धर्म को जीते, फिर तमोगुण को जीते, फिर शेष सत्त्वगुण को जीतें, ऐसा करने वह योगीश्वर
बन जाता है। गुणवान् ज्ञानवान्, वाग्मी, लक्ष्मीवान्, धार्मिक तथा जितेन्द्रिय बन जाता है।
साधक शुद्ध एवं निर्मल सत्त्वगुण के आश्रय से मोक्ष का भागी बन जाता है। जरा
मृत्यु से विवर्जित हो जाता है और उसे काल भी नहीं देख पाता । किन्तु द्वैतवर्जित,
निर्मल, परम शान्त सर्वत्यागी आत्मा वाले उस
जन की काल भी जल में, पर्वत पर, घोर
अरण्य में, युद्धभूमि में, पृथ्वी के
गर्त में भय तथा संहार के स्थान में दुष्टों के निग्रह स्थान में उसकी रक्षा करता
है। हे कुलेश्वर ! वह महायोगी सदैव अविचल एवं एकरस स्थित रहता है यह सत्य है यह
सत्य है ।। १५४-१५९ ।।
महायोगं शृणु प्राणवल्लभ श्रीनिकेतन
।
योगार्थं परमं ब्रह्मयोगार्थ
परन्तपः ॥ १६० ॥
ये जानन्ति महायोगं म्रियन्ते न च
ते नराः ।
कृत्वा कृत्वा षड्दलस्य साधनं
कृत्स्नसाधनम् ॥ १६१ ॥
ततः कुर्यान्मूलपद्मे कुण्डलीपरिचालनम्
।
मुहुर्मुहुश्चालनेन नरो योगीश्वरो
भवेत् ॥ १६२ ॥
हे प्राणवल्लभ ! हे श्रीनिकेतन ! अब
महायोग को सुनिए। योग के लिए ही परम ब्रह्म है, योग
के लिए ही परम तप है। जो लोग महायोग को जानते हैं। वे कभी भी नहीं मरते ।
सर्वप्रथम षड्दल के एक एक पत्र का साधन करे, फिर सम्पूर्ण
दलों का साधन करे । इसके बाद मूलपद्म में कुण्डली का परिचालन करना चाहिए। इस
प्रकार बारम्बार कुण्डली के परिचालन से साधक योगीश्वर बन जाता है ।। १६०-१६२ ।।
एकान्तनिर्मले देशे
दुर्भिक्षादिविवर्जिते ।
वर्षमेकासने योगी योगमार्गपरो भवेत्
॥ १६३ ॥
पद्मासनं सदा कुर्याद् बद्धपद्मासनं
तथा ।
महापद्मासनं कृत्वा तथा चासनमञ्जनम्
॥ १६४ ॥
तत्पश्चात् स्वस्तिकाख्यञ्च
बद्धस्वस्तिकमेव च ।
योगाभ्यासे सदा कुर्यात्
मन्त्रसिद्धादिकर्मणि ॥ १६५ ॥
चक्रासनं सदा योगी योगसाधनकर्मणि ।
बद्धचक्रासनं नाम महाचक्रासनं तथा ॥
१६६ ॥
जो देश दुर्भिक्षादि से पीड़ित न
हों उस देश के किसी एकान्त निर्मल स्थान में वर्ण पर्यन्त एक आसन पर स्थित हो
योगमार्ग का अभ्यास करे। सर्वदा पद्मासन करे तदनन्तर बद्धपद्मासन करे,
फिर महापद्मासन कर अञ्जनासन करे। इसके बाद स्वास्तिकासन, फिर बद्धस्वस्तिकासन करे। इन सभी आसनों को योगाभ्यास में तथा मन्त्र
सिद्धि आदि के कार्यों में सदैव करते रहना चाहिए। योगी योगसाधन कर्म में सर्वदा
चक्रासन करे, फिर बद्ध चक्रासन करे, तदनन्तर
महाचक्रासन करना चाहिए ।। १६३-१६६ ।।
कृत्वा पुनः प्रकर्तव्यं
बद्धयोगेश्वरासनम् ।
योगेश्वरासनं कृत्वा
महायोगेश्वरासनम् ॥ १६७ ॥
वीरासनं ततः कुर्यात् महावीरासनं
तथा ।
बद्धवीरासनं कृत्वा नरो योगेश्वरो
भवेत् ॥ १६८ ॥
इतना कर लेने के पश्चात्
बद्धयोगेश्वरासन, फिर योगेश्वरासन,
तदनन्तर महायोगेश्वरासन करे । इसके पश्चात् वीरासन, फिर महावीरासन, तदनन्तर बद्धवीरासन करने पर साधक
योगेश्वर बन जाता है ।। १६७-१६८ ॥
ततः कुर्यान्महाकाल
बद्धकुक्कुटासनम् ।
महाकुक्कुटमाकृत्य केवलं
कुक्कुटासनम् ॥ १६९ ॥
मयूरासनमेवं हि महामयूरमेव च ।
बद्धमयूरमाकृत्य नरो योगेश्वरो
भवेत् ॥ १७० ॥
इसके बाद हे महाकाल !
बद्धकुक्कुटासन, फिर महाकुक्कुटासन, फिर केवल कुक्कुटासन करे । इसी प्रकार मयूरासन, फिर
महामयूरासन तदनन्तर बद्धमयूरासन कर मनुष्य योगेश्वर बन जाता है ।। १६९-१७० ।।
एतत् सर्वं प्रवक्तव्यं विचार्य
सुमनःप्रिय ।
अभिषेकप्रकरणे आसनादिप्रकाशकम् ॥
१७१ ॥
हे सज्जनों के प्रिय महाभैरव ! ये सभी
आसन भली प्रकार से जान कर तब करना चाहिए। अभिषेक के प्रकरण में मैं इन सभी आसनों
को प्रकाशित करूँगी ।। १७१ ॥
कथितव्यं विशेषेण इदानीं शृणु
षट्क्रमम् ।
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च
ईश्वरश्च सदाशिवः ॥ १७२ ॥
ततः परशिवो देवः षशिवाः
षट्प्रकाशकाः ।
एतेषां षड्गुणानन्दाः शक्तयः
परदेवताः ॥ १७३ ॥
षट्चक्रभेदनरता महाविद्याधिदेवताः ।
एतेषां स्तवनं कुर्यात्
परदेवसमन्वितम् ॥ १७४ ॥
हे सदाशिव ! अब षट्चक्रों के क्रम
के विषय में सुनिए। ब्रह्मा, विष्णु रुद्र,
ईश्वर सदाशिव, इसके बाद परशिव ये ६ शिव
षट्चक्रों के प्रकाशक हैं। इन सभी से ६ गुना आनन्द देने वाली इनकी छः शक्तियाँ हैं
जो परदेवता कही जाती हैं। ये सभी महाविद्याओं की अधिदेवता हैं और षट्चक्रों के
भेदन में निरत रहने वाली हैं। इसलिए उक्त परदेवों के साथ उनकी इन शक्तियों का
स्तवन करना चाहिए ।। १७२-१७४ ।।
एतत्प्रकार करणे यच प्रत्यहमादरात्
।
क्रियानिविष्टः सर्वत्र
भावनाग्रहरूपधृक् ॥ १७५ ॥
स पश्यति जगन्नाथं कमलोपगतं हरिम् ।
आदौ हरेर्दर्शनञ्च कारयेद्येन
कुण्डली ॥ १७६ ॥
इस प्रकार की प्रक्रिया के प्रकार
के करने में जो नित्यप्रति आदरपूर्वक क्रिया में संलग्न रहता है तथा भावना पूर्वक
उनके स्वरूपों का ध्यान करता है, वह कमल के आसन
पर आसीन श्री हरि का दर्शन प्राप्त करता है। अतः श्री हरि का ही दर्शन प्राप्त
करने की चेष्टा करनी चाहिए, जिससे कुण्डलिनी का दर्शन हो ।
१७५-१७६ ॥
ततो रुद्रस्य सञ्ज्ञाया लाकिन्याः
शुभदर्शनम् ।
सर्वश: क्रमशो नाथ दर्शनं प्राप्यते
नरः ॥ १७७ ॥
इसके बाद लाकिनी के साथ रुद्र का
शुभ दर्शन होता है, हे नाथ ! इसी क्रम
से साधक सभी शक्तियों के साथ सभी देवताओं का दर्शन प्राप्त कर लेता है ॥१७७ ॥
शनैः शनैर्महाकाल कैलासदर्शनं भवेत्
।
क्रमेण सर्वसिद्धिः स्यात्
अष्टाङ्गयोगसाधनात् ॥ १७८ ॥
हे महाकाल ! इसी प्रकार धीरे धीरे
कैलास का दर्शन होता है और इस क्रम से अष्टाङ्ग योग साधन करते रहने पर समस्त
सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं ॥१७८ ।।
अष्टाङ्गसाधने काले यद्यत् कर्म
करोति हि ।
तत्सर्वं परियनेन शृणु सादरपूर्वकम्
।
तत्क्रियादिकमाकृत्य शीघ्रं योगी
भविष्यति ॥ १७९ ॥
हे महाभैरव ! अष्टाङ्ग योगसाधन काल
में साधक अत्यन्त प्रयत्न से जो जो कर्म करता है, उसे आदरपूर्वक सुनिए। उस क्रिया के अनुष्ठान कर लेने पर साधक शीघ्र ही
योगी बन जाता है ।। १७९ ।।
॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे
महातन्त्रोद्दीपने सिद्धमन्त्रप्रकरणे षट्चक्रप्रकाशे भैरवी भैरवसंवादे
द्विचत्वारिंशत्तमः पटलः ॥ ४२ ॥
॥ श्री रुद्रयामल के उत्तरतन्त्र
में महातन्त्रोद्दीपन के सिद्धमन्त्र प्रकरण में षट्चक्र प्रकाश में भैरवी भैरव
संवाद में बयालिसवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ ४२
॥
आगे जारी............रूद्रयामल तन्त्र पटल ४३
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