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अध्याय ३ - कूर्मावतारवर्णनम्
अग्निरुवाच
वक्ष्ये कूर्मावतारञ्च श्रुत्वा
पापप्रणाशनम् ॥
पुरा देवासुरे युद्धे दैत्यैर्देवाः
पराजिताः ॥१॥
दुर्वाससश्च शापेन
निश्रीकाश्चाभवंस्तदा ॥
स्तुत्वा क्षीराब्धिगं विष्णुमूचुः
पालय चासुरात् ॥२॥
ब्रह्मादिकान् हरिः प्राह सन्धिं
कुर्वन्तु चासुरैः ॥
क्षीराब्धिमथनार्थं हि अमृतार्थं
श्रियेऽसुराः ॥३॥
अरयोऽपि हि सन्धेयाः सति
कार्यार्थगौरवे ॥
युष्मानमृतभाजो हि कारयामि न
दानवान् ॥४॥
मन्थानं मन्दरं कृत्वा नेत्रं
कृत्वा तु वासुकिम् ॥
क्षीराब्धिं मत्सहायेन
निर्मथध्वमतन्द्रिताः ॥५॥
विष्णूक्तां संविदं कृत्वा दैत्यैः
क्षीराब्धिमागताः ॥
ततो मथितुमारब्धाः यतः पुच्छन्ततः
सुराः ॥६॥
फणिनिःश्वाससन्तप्ता हरिणाप्यायिताः
सुराः ॥
मथ्यमानेऽर्णवे सोऽद्रिरनाधारो
ह्यपोऽविशत् ॥७॥
अग्निदेव कहते हैं—
वसिष्ठ! अब मैं कूर्मावतार का वर्णन करूँगा। यह सुनने पर सब पापों का
नाश हो जाता है। पूर्वकाल की बात है, देवासुर संग्राम में
दैत्यों ने देवताओं को परास्त कर दिया। वे दुर्वासा के शाप से भी लक्ष्मी से रहित
हो गये थे। तब सम्पूर्ण देवता क्षीरसागर में शयन करनेवाले भगवान् विष्णु के पास
जाकर बोले- 'भगवन्! आप देवताओं की रक्षा कीजिये।' यह सुनकर श्रीहरि ने ब्रह्मा आदि देवताओं से कहा- 'देवगण!
तुम लोग क्षीरसमुद्र को मथने, अमृत प्राप्त करने और लक्ष्मी को
पाने के लिये असुरों से संधि कर लो। कोई बड़ा काम या भारी प्रयोजन आ पड़ने पर
शत्रुओं से भी संधि कर लेनी चाहिये। मैं तुम लोगों को अमृत का भागी बनाऊँगा और
दैत्यों को उससे वञ्चित रखूँगा। मन्दराचल को मथानी और वासुकि नाग को नेती बनाकर
आलस्यरहित हो मेरी सहायता से तुम लोग क्षीरसागर का मन्थन करो।' भगवान् विष्णु के ऐसा कहने पर देवता दैत्यों के साथ संधि करके क्षीरसमुद्र
पर आये। फिर तो उन्होंने एक साथ मिलकर समुद्र मन्थन आरम्भ किया। जिस ओर वासुकि नाग
की पूँछ थी, उसी ओर देवता खड़े थे। दानव वासुकि नाग के
निःश्वास से क्षीण हो रहे थे और देवताओं को भगवान् अपनी कृपादृष्टि से परिपुष्ट कर
रहे थे। समुद्र मन्थन आरम्भ होने पर कोई आधार न मिलने से मन्दराचल पर्वत समुद्र में
डूब गया ॥ १-७॥
कूर्मरूपं समास्थाय दध्रे विष्णुश्च
मन्दरम् ॥
क्षीराब्धेर्मथ्यमानाच्च विषं
हालाहलं ह्यभूत् ॥८॥
हरेण धारितं कण्ठे
नीलकण्ठस्ततोऽभवत् ॥
ततोऽभूद्वारुणी देवी पारिजातस्तु
कौस्तुभः ॥९॥
गावश्चाप्सरसो दिव्या लक्ष्मीर्देवी
हरिङ्गता ॥
पश्यन्तः सर्वदेवास्तां स्तुवन्तः
सश्रियोऽभवन् ॥१०॥
ततो
धन्वन्तरिर्विष्णुरायुर्वेदप्रवर्तकः ॥
बिभ्रत्कमण्डलुम्पूर्णममृतेन
समुत्थितः ॥११॥
अमृतं तत्कराद्दैत्या सुरेभ्योऽर्धं
प्रदाय च ॥
गृहीत्वा जग्मुर्जन्माद्या विष्णुः
स्त्रीरूपधृक्ततः ॥१२॥
तां दृष्ट्वा रूपसम्पन्नां दैत्याः
प्रोचुर्विमोहिताः ॥
भव भार्यामृतं गृह्य पाययास्मान्
वरानने ॥१३॥
तथेत्युक्त्वा हरिस्तेभ्यो
गृहीत्वापाययत्सुरान् ॥
चन्द्ररूपधरो राहुः
पिबंश्चार्केन्दुनार्पितः ॥१४॥
तब भगवान् विष्णु ने कूर्म (कछुए )
का रूप धारण करके मन्दराचल को अपनी पीठ पर रख लिया। फिर जब समुद्र मथा जाने लगा,
तो उसके भीतर से हलाहल विष प्रकट हुआ। उसे भगवान् शंकर ने अपने कण्ठ
में धारण कर लिया। इससे कण्ठ में काला दाग पड़ जाने के कारण वे 'नीलकण्ठ' नाम से प्रसिद्ध हुए। तत्पश्चात् समुद्र से
वारुणीदेवी, पारिजात वृक्ष, कौस्तुभमणि,
गौएँ तथा दिव्य अप्सराएँ प्रकट हुईं। फिर लक्ष्मीदेवी का
प्रादुर्भाव हुआ। वे भगवान् विष्णु को प्राप्त हुईं। सम्पूर्ण देवताओं ने उनका
दर्शन और स्तवन किया। इससे वे लक्ष्मीवान् हो गये। तदनन्तर भगवान् विष्णु के
अंशभूत धन्वन्तरि, जो आयुर्वेद के प्रवर्तक हैं, हाथ में अमृत से भरा हुआ कलश लिये प्रकट हुए। दैत्यों ने उनके हाथ से अमृत
छीन लिया और उसमें से आधा देवताओं को देकर वे सब चलते बने। उनमें जम्भ आदि दैत्य
प्रधान थे । उन्हें जाते देख भगवान् विष्णु ने स्त्री का रूप धारण किया। उस रूपवती
स्त्री को देखकर दैत्य मोहित हो गये और बोले- 'सुमुखि ! तुम
हमारी भार्या हो जाओ और यह अमृत लेकर हमें पिलाओ।' 'बहुत
अच्छा' कहकर भगवान् ने उनके हाथ से अमृत ले लिया और उसे
देवताओं को पिला दिया। उस समय राहु चन्द्रमा का रूप धारण करके अमृत पीने लगा। तब
सूर्य और चन्द्रमा ने उसके कपट-वेष को प्रकट कर दिया ॥ ८- १४ ॥
हरिणाप्यरिणा च्छिन्नं स
राहुस्तच्छिरः पृथक् ॥
कृपयामरतान्नीतं वरदं हरिमब्रवीत्
॥१५॥
राहुर्मत्तस्तु चन्द्रार्कौ
प्राप्स्येते ग्रहणं ग्रहः ॥
तस्मिन् काले च यद्दानं दास्यन्ते
स्यात्तदक्षयं ॥१६॥
तथेत्याहाथ तं विष्णुस्ततः सर्वैः
सहामरैः ॥
स्त्रीरूपं सम्परित्यज्य हरेणोक्तः
प्रदर्शय ॥१७॥
दर्शयामास रुद्राय स्त्रीरूपं
भगवान् हरिः ॥
मायया मोहितः शम्भुः गौरीं
त्यक्त्वा स्त्रियं गतः ॥१८॥
नग्न उन्मत्तरूपोऽभूत्स्त्रियः
केशानधारयत् ॥
अगाद्विमुच्य केशान् स्त्री
अन्वधावच्च ताङ्गताम् ॥१९॥
स्खलितं तस्य वीर्यं कौ यत्र यत्र
हरस्य हि ॥
तत्र तत्राभवत्क्षेत्रं लिङ्गानां
कनकस्य च ॥२०॥
मायेयमिति तां ज्ञात्वा
स्वरूपस्थोऽभवद्धरः ॥
शिवमाह हरी रुद्र जिता माया त्वया
हि मे ॥२१॥
न जेतुमेनां शक्तो मे त्वदृतेऽन्यः
पुमान् भुवि ॥
अप्राप्याथामृतं दैत्या
देवैर्युद्धे निपातिताः ॥२२॥
त्रिदिवस्थाः सुराश्चासन् यः
पठेत्त्रिदिवं व्रजेत् ॥२३॥
यह देख भगवान् श्रीहरि ने चक्र से
उसका मस्तक काट डाला। उसका सिर अलग हो गया और भुजाओं सहित धड़ अलग रह गया। फिर
भगवान् को दया आयी और उन्होंने राहु को अमर बना दिया। तब ग्रहस्वरूप राहु ने
भगवान् श्रीहरि से कहा - ' इन सूर्य और
चन्द्रमा को मेरे द्वारा अनेकों बार ग्रहण लगेगा। उस समय संसार के लोग जो कुछ दान
करें, वह सब अक्षय हो।' भगवान् विष्णु ने
'तथास्तु' कहकर सम्पूर्ण देवताओं के साथ
राहु की बात का अनुमोदन किया। इसके बाद भगवान्ने स्त्रीरूप त्याग दिया; किंतु महादेवजी को भगवान् के उस रूप का पुनर्दर्शन करने की इच्छा हुई। अतः
उन्होंने अनुरोध किया- 'भगवन् ! आप अपने स्त्रीरूप का मुझे
दर्शन करावें।' महादेवजी की प्रार्थना से भगवान् श्रीहरि ने
उन्हें अपने स्त्रीरूप का दर्शन कराया। वे भगवान् की माया से ऐसे मोहित हो गये कि
पार्वतीजी को त्यागकर उस स्त्री के पीछे लग गये। उन्होंने नग्न और उन्मत्त होकर
मोहिनी के केश पकड़ लिये। मोहिनी अपने केशों को छुड़ाकर वहाँ से चल दी। उसे जाती
देख महादेवजी भी उसके पीछे-पीछे दौड़ने लगे। उस समय पृथ्वी पर जहाँ-जहाँ भगवान्
शंकर का वीर्य गिरा, वहाँ-वहाँ शिवलिङ्गों का क्षेत्र एवं
सुवर्ण की खानें हो गयीं। तत्पश्चात् 'यह माया है' - ऐसा जानकर भगवान् शंकर अपने स्वरूप में स्थित हुए। तब भगवान् श्रीहरि ने
प्रकट होकर शिवजी से कहा- 'रुद्र ! तुमने मेरी माया को जीत
लिया। पृथ्वी पर तुम्हारे सिवा दूसरा कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जो मेरी इस माया को जीत सके।' भगवान् के प्रयत्न से
दैत्यों को अमृत नहीं मिलने पाया; अतः देवताओं ने उन्हें
युद्ध में मार गिराया। फिर देवता स्वर्ग में विराजमान हुए और दैत्य लोग पाताल में
रहने लगे। जो मनुष्य देवताओं की इस विजयगाथा का पाठ करता है, वह स्वर्गलोक में जाता है ॥ १५- २३ ॥
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये
कूर्मावतारो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥
इस प्रकार विद्याओं के सारभूत आदि
आग्नेय महापुराण में 'कूर्मावतार वर्णन'
नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ ३ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 4
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