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कर्मकाण्ड

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कालिका पुराण अध्याय २७

कालिका पुराण अध्याय २७  

कालिका पुराण अध्याय २७ में सृष्टि का वर्णन करते हुए संसार की अनित्यता का वर्णन किया गया है ।

कालिका पुराण अध्याय २७

कालिकापुराणम् सप्तविंशोऽध्यायः सृष्टि कथनम् २

कालिका पुराण अध्याय २७         

Kalika puran chapter 27

कालिकापुराण सत्ताईसवाँ अध्याय- सृष्टि-कथन

अथ कालिका पुराण अध्याय २७      

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

मन्वन्तरं मनोः कालो यावत् पालयते प्रजाः ।

एको मनुः स कालस्तु मन्वन्तरमितिश्रुतम् ।। १ ।।

मार्कण्डेय बोले- मन्वन्तर मनु का वह समय है, जितने में वह प्रजा का पालन करता है । एक मनु का वह समय उसका मन्वन्तर सुना जाता है ॥ १ ॥

तदेकसप्ततियुगैर्देवानामिह जायते ।

चतुर्दशभिः कल्पो दिनमेकं तु वेधसः ।।२।।

वह देवताओं के एकहत्तर युग तथा मनुष्यों के २८४ युग के मान का होता है। उन चौदह मन्वन्तरों का एक कल्प होता है जो ब्रह्मा का एक दिन कहा जाता है ॥ २ ॥

दिनान्ते बह्मणो जाते सुषुप्सा तस्य जायते ।

योगनिद्रा महामाया समायाति पितामहम् ।।३।।

ब्रह्मा का दिन समाप्त होने पर उनकी सोने की इच्छा उत्पन्न होती है उस समय योगनिद्रा महामाया पितामह के निकट आती है ॥ ३ ॥

नाभिपद्मं प्रविश्याथ विष्णोरमिततेजसः ।

सुखं शेते स भगवान् ब्रह्मा लोकपितामहः ॥४॥

तब वह लोक के पितामह भगवान् ब्रह्मा अमित तेजस्वी विष्णु के नाभि कमल में प्रवेश कर सुखपूर्वक सोते हैं ॥ ४ ॥

ततो विष्णुः स्वयं भूत्वा रुद्ररूपी जनार्दनः ।

पूर्ववन्नाशयामास स सर्वं भुवनत्रयम् ।।५।।

वायुना वह्निना सार्धं दाहयामास वै यथा ।

महाप्रलयकालेषु तथा सर्वं जगत् त्रयम् ।। ६ ।।

तब जनार्दन विष्णु ने स्वयं रुद्र रूपी होकर महाप्रलय काल में पहले जैसे वायु और अग्नि के सहयोग से जलाकर समस्त तीनों लोकों को नष्ट किया था वैसे ही वे तीनों लोकों को नष्ट करते हैं ।। ५-६ ।।

जनं यान्ति प्रतापार्ता महर्लोकनिवासिनः ।

त्रैलोक्यदाहसमये पीडिता दारुणाग्निना ।।७।।

त्रैलोक्य के दाह के समय महर्लोक के निवासी प्रचण्ड ताप से दुःखी तथा भयानक अग्नि से पीड़ित हो जनलोक को चले जाते हैं ।। ७ ।।

ततः कालान्तकैर्मेधैर्नानावर्णैर्महास्वनैः ।

समुत्पाद्य महावृष्टिमापूर्य भुवनत्रयम् ।।८।।

चलत्तरंगैस्तोयोधैराध्रुवस्थानसंगतैः I

निधाय जठरे लोकानिमांस्त्रीन् स जनार्दनः ।

नागपर्यंकशयने शेते स परमेश्वरः ।। ९ ।।

तब काल एवं यमराज के समान अनेक रङ्गों तथा महान ध्वनि वाले बादलों द्वारा महावृष्टि उत्पन्न कर, चञ्चल तरङ्गों तथा ध्रुव स्थान तक पहुँचने वाली जलराशि से तीनों लोकों को पूर्णकर वह जनार्दन उन्हें अपने पेट में रख लेते हैं और वह परमेश्वर नाग के पलंग पर सोते हैं ।। ८-९ ।।

शयानं नाभिकमले ब्रह्माणं स जगप्रभुः ।

संस्थाप्य त्रीनिमाँल्लोकान् दग्ध्वा जगध्वा सर्वश्रियासह ।। १० ।।

शेते स भोगिशय्यायां ब्रह्मा नारायणात्मकः ।

योगनिद्रावशं जातस्त्रैलोक्यग्रासबृंहितः ।। ११ ।।

ब्रह्मा को अपने नाभि कमल में शयन कराये हुए, इन तीनों लोकों को जलाकर और अपने जठर में स्थापित कर नारायण रूपधारी ब्रह्मा, जगद्प्रभु विष्णु, लक्ष्मी के साथ तीनों लोकों को ग्रसित करते हुए शेषनाग की शय्या पर शयन करते हैं ।। १०-११ ॥

त्रैलोक्यमखिलं दग्धं यदा कालाग्निना तदा ।

अनन्तः पृथिवीं त्यक्त्वा विष्णोरन्तिकमागतः ।।१२।।

जब समस्त तीनों लोक कालाग्नि से जल जाता है तब अनन्त पृथ्वी को छोड़कर विष्णु के समीप आ जाते हैं ।। १२ ।।

तेन त्यक्ता तु पृथिवी क्षणमात्रादधोगता ।

पतिता कूर्मपृष्ठे च विशीर्णेव तदाभवत् ।। १३ ।।

तब उनके द्वारा छोड़ी गई यह पृथ्वी क्षण भर में नीचे जाकर कच्छप भगवान के पीठ पर गिरकर नष्ट प्राय हो जाती हैं ॥ १३ ॥

कूर्मोऽपि महतो यत्नाच्चलन्तीं पृथिवीं जले ।

ब्रह्माण्डं पद्धिराक्रम्य पृष्ठे दध्रे धरां तदा ।। १४ ।।

तब कूर्म भी ब्रह्माण्ड को अपने पैरों से आक्रान्त करते हुए बड़े यत्न से जल में चलती हुई इस पृथ्वी को धारण करते हैं ।। १४ ।।

ब्रह्माण्डखण्डसंयोगाच्चूर्णिता पृथिवी भवेत् ।

इति तां परिजग्राह कूर्मरूपी जनार्दनः ।। १५ ।।

चलज्जलौघसंसर्गाच्चलन्त्या धरया तदा ।

कूर्मपृष्ठं बहुतरैर्वरण्डैर्विततीकृतम् ।। १६ ।।

ब्रह्माण्ड के टुकड़े से टकरा कर यह पृथ्वी चूर्ण हो जाएगी, इसीलिए कूर्म रूपधारी जनार्दन विष्णु तब अपने बहुत से उठे हुए ढूहों से युक्त विशाल कूर्मपीठ पर, जलराशि पर चलती हुई पृथ्वी को धारण करते हुए विचरण करते रहे १५-१६॥

अनन्तस्तत्र गत्वा तु यत्र क्षीरोदसागरः ।

तत्र स्वयं श्रिया युक्तं सुषुप्सन्तं जनार्दनम् ।।१७।।

फणया मध्यया दध्रे त्रैलोक्यग्रासबृंहितम् ।

पूर्णं फणाः वितत्योर्धं पद्मं कृत्वा महाबलः ।

विष्णुमाच्छादयामास शेषाख्यः परमेश्वरम् ।।१८।।

तब महाबलशाली शेष नामक अनन्त भी, वहाँ क्षीर सागर में गये जहाँ तीनों लोकों को निगल कर वृद्धिगत हो स्वयं लक्ष्मी के साथ परमेश्वर जनार्दन विष्णु सो रहे थे । वहाँ जाकर उन्होंने पहले अपने पूर्वी फणों को अर्धपद्म के आकार में फैलाया फिर उन्हें (विष्णु को) उन फणों के बीच धारण कर ढक लिया ।। १७-१८ ।।

तस्योपधानमकरोदनन्तो दक्षिणां फणाम् ।

उत्तरां पादयोश्चक्रे उपधानं महाबलः ।। १९ ।।

उस महाबलशाली अनन्त ने अपने दक्षिणी फण को सिर की ओर का उपधान बनाया तो उत्तरी फण को दोनों पैरों की ओर का उपधान (तकिया) बनाया ।। १९ ।।

तालवृन्तं तदा चक्रे सशेषः पश्चिमां फणाम् ।

स्वपन्तं बीजयामास शेषरूपी जनार्दनम् ।। २० ।।

तब उस शेष ने अपने पश्चिंमी फन को ताड़ का पंखा बनाकर सोते हुए शेष रूपधारी जनार्दन विष्णु पर हवा करते रहे २० 

शङ्खं चक्रं नन्दकासिमिषुधी द्वे महाबलः ।

ऐशान्ययाथ फणया स दने गरुडं तथा ।। २१ ।।

गदां पद्मं च शार्ङ्गश्च तथैव विविधायुधम् ।

यानि चान्यानि तस्यासन्नाग्नेय्या फणया दधौ ।। २२ ।।

शङ्ख, चक्र, नन्दक नामक तलवार, दो तरकसों और गरुड़ को उस महाबली ने अपने ईशान कोण वाले फण पर धारण किया तो गदा, पद्म, शार्ङ्ग धनुष तथा अन्य भी जो उन (विष्णु) के भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्र थे, उन्हें अपने आग्नेय दिशा वाले फण पर धारण किया ।। २१-२२ ।।

एवं कृत्वा स्वकं कायं शयनीयं तदा हरेः ।

पृथ्वीमधरकायेन मग्नामाक्रम्य चाम्भसि ।।२३।।

त्रैलोक्यं ब्रह्मसहितं सलक्ष्मीकं जनार्दनम् ।

सोपासङ्ग जगद्वीजं जगत्कारणकारणम् ।। २४ ।।

इस प्रकार अपने शरीर को विष्णु के लिए शैय्या का रूप देकर जल में डूबी हुई पृथ्वी को अपने शरीर के निचले भाग से पकड़कर तीनों लोकों, ब्रह्मा तथा लक्ष्मी एवं सेवकों के सहित जनार्दन को जो जगत के बीज रूप में जगत के कारण के भी कारण हैं, धारण किया ।। २३-२४ ।।

नित्यानन्दं वेदमयं ब्रह्मण्यं परमेश्वरम् ।

जगत्कारणकर्तारं जगत्कारणकारणम् ।। २५ ।।

भूतभव्यभवन्नाथं परावरगतिं हरिम् ।

दधार शिरसा तन्तु स्वयमेव स्वकां तनुम् ।। २६ ।।

उन नित्य आनन्दमय, ज्ञानमय, ब्राह्मणभक्त, परम ईश्वर, संसार के कारण को भी करने वाले, जगत के कारण के भी कारण, भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों कालों में विराजमान (शाश्वत) जो उच्च और नीच दोनों ही गतियों के सञ्चालक भगवान विष्णु को जो स्वयं ही उनके ही एक रूप हैं, अनन्त देव ने शिर पर धारण किया ।। २५-२६ ।।

एवं ब्रह्मदिनस्यैव प्रमाणेन निशां हरिः ।

सन्ध्यां च समभिव्याप्य शेते नारायणोऽव्ययः ।। २७ ।।

इस प्रकार ब्रह्मा के दिन के ही समान मान वाली रात्रि और सन्ध्या को समाहित कर अविनाशी नारायण शयन करते रहते हैं ।। २७ ॥

यस्मादयन्तु प्रलयो ब्रह्मणः स्याद् दिने दिने ।

तस्माद् दैनिन्दिनमिति ख्यापयन्ति पुराविदः ।। २८ ।।

इस प्रकार का प्रलय ब्रह्मा के प्रतिदिन होता है, इसीलिए इसे पुराविद् (प्राचीन (ज्ञान के जानने वाले) दैनन्दिन प्रलय नाम देते हैं ।। २८ ।।

व्यतीतायां निशायां तु ब्रह्मा लोकपितामहः ।

त्यक्त्वा निद्रां समुत्तस्थौ स पुनः सृष्टये हितः ।। २९ ।।

उपर्युक्त रात्रि के बीत जाने पर लोक पितामह ब्रह्मा पुनः सृष्टि के लिए नींद से उठ गये ।। २९ ।।

त्रैलोक्यं तोयसम्पूर्णं शयानं पुरुषोत्तमम् ।

निरीक्ष्य वैष्णवीं मायां महामायां जगन्मयीम् ।

योगनिद्रां स तुष्टाव हरेरंगेषु संस्थिताम् ।। ३० ।।

उस समय जल से पूर्ण तीनों लोकों को तथा सोये हुए पुरुषोत्तम विष्णु को देखकर उन्होंने विष्णु के ही अङ्गों में स्थित जगन्मयी, महामाया, विष्णुमाया, योगनिद्रा की स्तुति किया ।। ३० ।।

कालिका पुराण अध्याय २७ 

अब इससे आगे श्लोक ३१ से ३९ में ब्रह्मप्रोक्ता योगनिद्रा की स्तुति को दिया गया है इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें-

महामाया योगनिद्रा स्तुति:

अब इससे आगे

कालिका पुराण अध्याय २७   

एवं स्तुता महामाया ब्रह्मणा लोककारिणा ।

नेत्रास्यनासिका बाहु - हृदयान्निर्गता हरे ।

राजसीं मूर्तिमाश्रित्य सा तस्थौ ब्रह्मदर्शने ।। ४० ।।

इस प्रकार लोककर्त्ता ब्रह्मा द्वारा स्तुति किये जाने पर महामाया, भगवान विष्णु के नेत्र, बाहु एवं हृदय से बाहर निकल आयीं तथा उनको दर्शन देने के लिए रजोगुणयुक्त रूप धारण कर उपस्थित हुईं ॥ ४० ॥

ततो जनार्दनो भोगिशयनान्निद्रया क्षणात् ।

परित्यक्तः समुत्तस्थौ सृष्टये चाकरोन्मतिम् ।। ४१ ।।

तब निद्रा द्वारा छोड़े जाने पर जनार्दन विष्णु शीघ्र ही उस नाग शैय्या से उठ खड़े हुए और सृष्टि हेतु विचार किये ॥४१॥

ततो वराहरूपेण निमग्नां पृथिवीं जले ।

मग्नां समुद्दधाराशु न्यधाच्च सलिलोपरि ।। ४२ ।।

तब वे शीघ्र ही वराह रूप द्वारा जल में डूबी हुई पृथ्वी का उद्धार किये और उस डूबी हुई पृथ्वी को जल के ऊपर स्थापित किये ॥ ४२ ॥

तस्योपरि जलौघस्य महती नौरिव स्थिता ।

विततत्वाच्च देहस्य न मही याति संप्लवम् ।।४३।।

उस विशाल जलराशि पर एक बड़ी नौका के समान स्थित यह पृथ्वी अपने शरीर के विस्तार के कारण आज भी नहीं डूबती ॥ ४३ ॥

ततो हरिः क्षितिं गत्वा तोयराशिं स्वमायया ।

संहृत्य जन्तुस्थितये प्रवृत्तः स्वयमेव हि ।। ४४ ।।

तब विष्णु पृथ्वी तल पर गये और अपनी माया से उस जलराशि का संहार (समापन) कर प्राणियों के पालन में प्रवृत्त हो गये ।। ४४ ।।

अनन्तोऽपि यथापूर्वं तथा गत्वा क्षितेस्तलम् ।

पृथिवीं धारयामास कूर्मस्योपरि संस्थितः ।। ४५ ।।

अनन्त ने भी पहले की भाँति ही पृथ्वी के निचले भाग में जाकर कूर्म पर स्थित हो पृथ्वी को धारण किया।।४५।।

ततो ब्रह्मा समुत्पाद्य सर्वानेव प्रजापतीन् ।

जगदुत्पादयामास सर्वलोकपितामहः ।। ४६ ।।

तब सभी लोकों के पितामह ब्रह्मा ने सभी प्रजापतियों को उत्पन्न करके संसार को उत्पन्न किया ॥ ४६ ॥

ब्रह्मा वा कुरुते सृष्टिं यदान्ये वापि कुर्वते ।

दक्षाद्यास्तु प्रजापालाः स्वयमेव तदिच्छया ।। ४७ ।।

ब्रह्मा स्वयं जो सृष्टि करते हैं या दक्षादि अन्य प्रजापति जो सृष्टि करते हैं उन्हीं की इच्छा से होता है ॥ ४७ ॥

परब्रह्मस्वरूपी यः सोऽनुगृह्णाति सन्ततम् ।

प्रकृतिश्चानुगृह्णाति महाभूतानि पञ्च वै ।।४८ ।।

पुरुषश्चानुगृह तथैव महदादयः ।

ईश्वरेच्छान्वधिष्ठानात् पुरुषादष्टसंचयात् ।। ४९ ।।

इस हेतु जो परब्रह्म रूपी परमात्मा है वही निरन्तर अनुग्रह करता है। इसी भाँति प्रकृति तथा पञ्चमहाभूत भी अनुग्रह करते हैं । ईश्वरेच्छा पर आधारित होने तथापुरुष से उत्पन्न आठ महदादि पदार्थों का एक सञ्चय होने से पुरुष तथा महदादि भी अनुग्रह करते हैं ।। ४८-४९ ।।

पुरुषाणामधिष्ठानान्महाभूतगणस्य च ।

तथैव महदादीनां कालस्य च महात्मनः ।

अधिष्ठानात् प्रधानस्य यच्च किञ्चन जायते ।। ५० ।।

पुरुषों पर आधारित होने के कारण महाभूतों की उत्पत्ति होती है वैसे ही महात्मा काल तथा प्रधान पर आधारित होने से महदादि का जो कुछ होता है सो होता है ॥ ५० ॥

स्थावरं जङ्गमं वापि स्थिरं वाप्यथवोम्भूतम् ।

सर्वमेतदधिष्ठानाज्जायते द्विजसत्तमाः ।। ५१ ।।

हे द्विजसत्तमों ! स्थावर या जङ्गम, स्थिर या उद्भूत जो भी कुछ होता है, वह सब उसी के अधिष्ठान से होता है ।।५१।।

इति वः कथितं सर्वं यथैवादर्शयत् पुरा ।

हराय सृष्टिसंहार-कल्पास्तान् भगवान् हरिः ।।५२।।

यह सब मैंने आप लोगों से वैसा ही कहा जैसा प्राचीन काल में सृष्टि और संहार का रूप भगवान् विष्णु ने भगवान शिव को दिखाया था ।। ५२ ।।

यथा जगत् प्रपञ्चस्यासारता दर्शिता परा ।

यच्च सारं दर्शितं तन्मत्तः शृण्वन्तु वै द्विजाः ।। ५३ ।।

हे द्विजों ! जैसी जगत-प्रपञ्च की परम असारता तथा सारता शिव को दिखायी गयी थी, उसे मुझसे सुनें ।। ५३ ।।

॥ इति श्रीकालिकापुराणे सृष्टिकथने सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७॥

कालिका पुराण अध्याय २७- संक्षिप्त कथानक

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- यह मन्वन्तर मनु का काल होता है जितने पर्यन्त वह मनु प्रजाओं का पालन किया करता है वह एक ही मनु होता है और वह काल मन्वन्तर इस नाम से प्रसिद्ध होता है । यह देवों के इकहत्तर युगों से यहाँ पर होता है। तात्पर्य यह है कि एक मन्वन्तर में अर्थात् एक ही मनु के काल में देवगणों के इकहत्तर युगों का समय हुआ करता है ऐसे चौदह मन्वन्तरों का एक कल्प होता है जो ब्रह्माजी का एक दिन हुआ करता है । ब्रह्माजी के दिन के अन्त में उनको सोने की इच्छा उत्पन्न होती है और फिर महामाया योगनिद्रा ब्रह्मा जी के निकट आ जाया करती है। इसके अनन्तर वे लोकों के पितामह ब्रह्माजी ने अपरिमित तेज वाले भगवान विष्णु के नाभि के पद्म में प्रवेश करके वे सुख से शयन किया करते हैं। उसके पश्चात भगवान विष्णु स्वयं रुद्ररूपी जनार्दन होकर उन्होंने पूर्व की ही भाँति सम्पूर्ण तीनों भुवनों का विनाश कर दिया था । वायु के साथ वह्नि ने महाप्रलय कालों में जैसे हो वैसे ही सम्पूर्ण तीनों जगतों का दाह कर दिया था । प्रताप से आर्त्त होकर महर्लोक के निवासी जन जनलोक को प्रयाण किया करते हैं। क्योंकि जब तीनों लोकों के दाह होने के समय उस दारुण अग्नि से जन प्रपीड़ित हो गये ।

इसके अनन्तर कालान्तर महामेघों जिनकी गर्जना की महाध्वनि थी, समुत्पादित करके महावृष्टि से तीनों भुवनों को आपूरित करके चलती हुई तरंगों वाले जलों के समूह से जो ध्रुव के स्थान पर्यन्त संगत थे और घोर वृष्टि की थी । फिर वह जनार्दन प्रभु इन तीनों लोकों को अपने उदर में रखकर वे परमेश्वर शेष के पर्यंक पर शयन किया करते हैं । जगत् के गुरुदेव ब्रह्मा को अपनी नाभि के कमल में शयन किए हुए संस्थापित करके इन तीनों लोकों को श्री के सहित दग्ध करके और भक्षण करके नारायण के स्वरूपधारी ब्रह्मशरों की शय्या में शयन किया करते हैं अर्थात् शेषशय्या पर सो जाते हैं । त्रैलोक्य के ग्रास से गृहित वे प्रभु योगनिद्रा के वशीभूत हो गये हैं । जिस समय में कालाग्नि ने सम्पूर्ण त्रिलोकी को दग्ध कर दिया था उसी विष्णु के समीप में समागत हो गये थे । उनके द्वारा त्यागी हुई पृथ्वी एक ही क्षण में नीचे की ओर चली गयी थी और वह कूर्म के पृष्ठ भाग पर पतित होकर उस समय विकीर्ण सी हो गयी थी। कूर्म ने भी बड़े भारी प्रयत्नों से जल में चलती हुई पृथ्वी को पैरों से ब्रह्माण्ड पर आक्रमण करके पृष्ठ पर धरा को धारण किया था ।

ब्रह्माण्ड के खण्डों से संयोग से वह पृथ्वी चूर्ण हो गयी थी इससे भगवान् कूर्म रूपधारी जनार्दन उसको परिग्रहीत कर लिया । चलते हुए जल के समूह में संसर्ग से चलती हुई धरा से उस समय में कूर्म पृष्ठ बहुतर वरण्डी से विततीभूत अर्थात् विस्तृत कर दी थी । अनन्त भगवान उस समय में क्षीरोद सागर में गये थे वहाँ पर उन्होंने देखा कि भगवान जनार्दन प्रभु अपनी श्री के साथ शयन कर रहे थे । मध्य में रहने वाले फन से त्रैलोक्य के ग्रास से उपवृहित हो धारण कर रहे थे । महान बल वाले ने पहले फन को चौड़ा कर ऊर्ध्व में पद्म बनाकर उन शेषनागधारी ने परमेश्वर भगवान विष्णु को समाच्छादित कर दिया था । अनन्त ने अपने दाहिने फन को उनका उपधान ( तकिया) बना दिया था । महान् बलवान उन्होंने उत्तर फन को चरणों की ओर तकिया बना दिया था। उस समय में उन शेष ने पश्चिम फन को तालवृत्त कर दिया था। शेषरूपधारी ने शयन करते हुए जनार्दन प्रभु का व्यंजन किया था । महान बलधारी उन्होंने ऐशानी फन से शंख, चक्र, नन्दक, असि और दो इषुधीयों को और गरुड़ को धारण किया था ।

गदा, पद्म, शार्ग्ऐधनुष तथा अनेक आयुधों को जो भी अन्य उनके अस्त्र थे उनको आग्नेय दिशा वाले फन से धारण किया था । उस समय में भगवान हरि के शयन अर्थात् शय्या के लिए अपने स्वकीय शरीर को बनाकर जल से मग्न पृथ्वी का अधरकाय से आक्रमण करके स्थित हुए थे । त्रैलोक्य ब्रह्म के सहित तथा लक्ष्मी से समन्वित, सामासंग, जगत् के बीज स्वरूप और जगत् के कारण के भी कारण जनार्दन प्रभु को धारण किया था । वे जनार्दन प्रभु नित्य आनन्द स्वरूप हैं, वेदों से परिपूर्ण हैं, ब्रह्मण्य हैं जगत् के कारण के भी कारण हैं, जगत के कारण कर्ता हैं, परमेश्वर हैं, भूत, भव्य और भव के नाथ हैं, बराबर गति से संयुत हैं ऐसे हरि को शिर से धारण किया था और अपने शरीर को भी धारण कर लिया था । इस रीति से अव्यय नारायण हरि भगवान् ब्रह्माजी ने दिन के प्रमाण से निशा और संध्या को अभिव्याप्त करके शयन किया करते हैं । यह प्रलय जिससे ब्रह्मा के दिन - दिन में होती है। इसी कारण से पुरातत्व के ज्ञानीजन इसको दैनन्दिन ख्यापित किया करते हैं अर्थात कहा करते हैं ।

उस निशा के व्यतीत हो जाने पर लोकों के पितामह ब्रह्माजी निद्रा को त्याग करके पुनः सृष्टि की रचना के लिए समुत्थित हो गये थे अर्थात् जागकर खड़े हो गये थे। उन्होंने देखा कि तीनों लोक जल से परिपूर्ण भरे हुए हैं और भगवान पुरुषोत्तम शयन किये हैं । भगवान विष्णु को जगन्मयी महामाया का उन्होंने निरीक्षण किया था फिर ब्रह्माजी ने भगवान हरि के अंग में विराजमान योगनिद्रा की स्तुति की थी ।

फिर उसकी नासिका, मुख, बाहु हरि के हृदय से निकले थे और उनके राजसी मूर्ति का समाश्रय ग्रहण करके वह ब्रह्माजी के दर्शन में स्थित हो गई थी। इसके उपरान्त जनार्दन शेष की शय्या पर निद्रा लेते हुए थे उस निद्रा से एक ही क्षण में उठकर खड़े हो गये थे और फिर सृष्टि की रचना करने की वृद्धि की थी। फिर वाराह के स्वरूप से जल में निमग्न हुई पृथ्वी को शीघ्र ही समुद्धृत करके उसको जल के ऊपर रख दिया था ।

उस जल के समुदाय के ऊपर वह बड़ी विशाल भाव की ही भाँति स्थित हो गयी थी । देह के बहुत विशाल एवं विस्तृत होने से वह मही संप्लव को प्राप्त नहीं हो रही थी। फिर भगवान हरि स्वयं वहाँ पर उपस्थित हुए थे और अपनी माया से जल से समूह का संहार करके जन्तुओं की स्थिति के लिए स्वयं की प्रभु प्रवृत्त हो गये थे। पूर्व में जैसे थे उसी के समान भगवान अनन्त भी वहाँ पर भूमि के तल प्रदेश में जाकर कूर्म के ऊपर संस्थित हो गये थे और पृथ्वी को धारण कर लिया था ।

इसके अनन्तर ब्रह्माजी ने सभी प्रजापतियों को भली-भाँति उत्पादन करके समस्त लोकों के पितामह ने इस जगत् को उत्पादित कर लिया था अथवा ब्रह्मा सृष्टि की रचना करते हैं जबकि अन्य भी सृष्टि किया करते हैं । जो परब्रह्म के रूप वाले हैं वे स्वयं निरन्तर अनुग्रह किया करते हैं और प्रकृतियाँ व महाभूतों को अनुग्रहीत किया करती हैं । पुरुष तथा महदादिक भी अनुग्रह किया करते हैं जो ईश्वर की इच्छा के अनुसार अष्ट संचय अधिष्ठान पुरुष से अनुग्रहीत किया करते हैं। पुरुषों के अधिष्ठान से और महाभूतों के गुण से उसी भाँति से महदादि का और महात्मा काल के अधिष्ठान से तथा प्रधान के अधिष्ठान से जो कुछ समुत्पन्न होता है । स्थावर अर्थात् अचर और जंगम अर्थात चेतन स्थिर अथवा अद्भुत हे द्विजश्रेष्ठों! सभी कुछ अधिष्ठान से उत्पन्न होता है । जैसा कि पूर्व में दिखाया था वह सब आपको बतला दिया था। जिस प्रकार से इस जगत् के प्रपंच की परा असारता दिखलाई थी और जहाँ पर सार दिखलाया है । हे द्विजों ! वह आप मुझसे श्रवण करिये ।       

॥ श्रीकालिकापुराण में सृष्टि-कथन सम्बन्धी सत्ताईसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।। २७ ।।

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 2

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