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चाणक्यनीति अध्याय १
चाणक्य नीति या चाणक्य नीतिशास्त्र
(४ से ३ शताब्दी ई॰पु॰ मध्य) चाणक्य द्वारा रचित एक नीति ग्रन्थ है। इसमें
सूत्रात्मक शैली में जीवन को सुखमय एवं सफल बनाने के लिए उपयोगी सुझाव दिये गये
हैं।
चाणक्यनीति प्रथमोऽध्यायः
चाणक्यनीति अध्याय १
चाणक्यनीति पहला अध्याय
Chanakya niti chapter 1
प्रणम्य शिरसा विष्णुं
त्रैलोक्याधिपतिं प्रभुम् ।
नानाशास्त्रोदधृतं वज्ञ्ये
राजनीतिसमुच्चयम् ।।१।।
दोहा-- सुमति बढावन सबहि
जन, पावन नीति प्रकास ।
टिका चाणक्यनीति कर, भनत भवानीदास ॥१॥
मैं उन विष्णु भगवान को प्रणाम करके
कि जो तीनों लोकों के स्वामी हैं, अनेक
शास्त्रों से उद्धृत राजनीतिसमुच्चय विषयक बातें कहूंगा ॥१॥
अधीत्दंये यथाशास्त्रं नरो जानाति
सत्तमः ।
धर्मोपदेशं विख्यातं कार्याऽकार्य
शुभाऽशुभम् ।।२।।
दोहा-- तत्व सहित पढि
शास्त्र यह, नर जानत
सब बात ।
काज अकाज शुभाशुभहिं, मरम नीति विख्यात ॥२॥
इस नीति के विषय को शास्त्र के
अनुसार अध्ययन करके सज्जन धर्मशास्त्र में कहे शुभाशुभ कार्य को जान लेते हैं ॥२॥
तदहं संप्रवक्ष्यामि लोकानां
हितकाम्यया ।
येन विज्ञानामात्रेण सर्वज्ञत्वं
प्रपद्यते ।।३।।
दोहा-- मैं सोड अब बरनन
करूँ, अति हितकारक अज्ञ ।
जाके जानत हो जन, सबही विधि सर्वज्ञ ॥३॥
लोगों की भलाई के लिए मैं वह बात
बताऊँगा कि जिसे समभक्त लेने मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है ॥३॥
मूर्खशिष्योपदेशेन
दुष्टास्त्रीभरणेन च ।
दुःखितै सम्प्रयोगेण
पणिड्तोऽप्यवसीदति ।।४।।
दोहा-- उपदेशत शिषमूढ कहँ; व्यभिचारिणि ढिग वास ।
अरि को करत विश्वास उर, विदुषहु लहत विनास ॥४॥
मूर्खशिष्य को उपदेश देने से,
कर्कशा स्त्री का भरण पोषण करने से ओर दुखियों का सम्पर्क रखने से
समझदार मनुष्य को भी दुःखी होना पडता है ॥४॥
दुष्टाभार्या शठं मित्रं
भृत्यश्चोत्तरदायकः ।
ससर्पे च गृहे वासो मृत्युरेव नः
संशयः ।।५।।
दोहा-- भामिनी दुष्टा
मित्र शठ, प्रति
उत्तरदा भृत्य।
अहि युत बसत अगार में, सब विधि मरिबो सत्य ॥५॥
जिस मनुष्य की स्त्री दुष्टा है,
नौकर उत्तर देनेवाला (मुँह लगा) है और जिस घर में साँप रहता है उस
घर में जो रह रहा है तो निश्चय है कि किसी न किसी रोज उसकी मौत होगी ही ॥५॥
आपदर्थे धनं रक्षेद्दारान्
रक्षेध्दनैरपि ।
आत्मानं सततं रक्षेद्दारैरपि धनैरपि
।।६।।
दोहा-- धन गहि राखहु
विपति हित, धन ते
वनिता धीर ।
तजि वनिता धनकूँ तुरत, सबते राख शरीर ॥६॥
आपत्तिकाल के लिए धन को और धन से भी
बढकर स्त्री की रक्षा करनी चाहिये । किन्तु स्त्री और धन से भी बढकर अपनी रक्षा
करनी उचित है ॥६॥
आपदार्थे धनं रक्षेच्छ्रीमतश्च
किमापदः ।
कदाचिच्चलेता
लक्ष्मीःसंचितोऽपिविनश्यति ।।७।।
दोहा-- आपद हित धन राखिये, धनहिं आपदा कौन ।
संचितहूँ नशि जात है, जो लक्ष्मी करु गौन ॥७॥
आपत्ति से बचने के लिए धन कि रक्षा
करनी चाहिये । इस पर यह प्रश्न होता है कि श्रीमान् के पास आपत्ति आयेगी ही क्यों ?
उत्तर देते हैं कि कोई ऐसा समय भी आ जाता है, जब
लक्ष्मी महारानी भी चल देती हैं । फिर प्रश्न होता है कि लक्ष्मी के चले जाने पर
जो कुछ बचा बचाया धन है, वह भी चला जायेगा ही ॥७॥
यस्मिन् देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न
च बान्धवः ।
न च विद्यागमऽप्यस्ति वासस्तत्र न
कारयेत् ।।८।।
दोहा-- जहाँ न आदर जीविका, नहिं प्रिय बन्धु निवास ।
नहिं विद्या जिस देश में, करहु न दिन इक वास ॥८॥
जिस देश में न सम्मान हो,
न रोजी हो, न कोई भाईबन्धु हो और न विद्या का
ही आगम हो, वहाँ निवास नहीं करना चाहिये ॥८॥
धनिकः श्रोत्रियो राजा नदी
वैद्यस्तु पञ्चमः ।
पञ्च यत्र न विद्यन्ते न तत्र दिवसं
वसेत ।।९।।
दोहा-- धनिक वेदप्रिय भूप
अरु, नदी वैद्य पुनि सोय ।
बसहु नाहिं इक दिवस तह, जहँ यह पञ्च न होय ॥९॥
धनी (महाजन) वेदपाठी ब्राह्मण,
राजा, नदी और पाँचवें वैद्य, ये पाँच जहाँ एक दिन भी न वसो ॥९॥
लोकयात्रा भयं लज्जा दाक्षिणायं
त्यागशीलता ।
पञ्च यत्र न विद्यन्ते न
कुर्य्यात्तत्र सड्गतिम् ।।१०।।
दोहा-- दानदक्षता लाज भय, यात्रा लोक न जान ।
पाँच नहीं जहँ देखिये, तहाँ न बसहु सुजान ॥१०॥
जिसमें रोजी,
भय, लज्जा, उदारता और
त्यागशीलता, ये पाँच गुण विद्यमान नहीं, ऎसे मनुष्य से मित्रता नहीं करनी चाहिये ॥१०॥
जानीयात् प्रेषणे भृत्यान्
बान्धवान् व्यसनागमे ।
मित्रं चापत्तिकाले तु भार्यां च विभवक्षये
।।११।।
दोहा-- काज भृत्य कूँ
जानिये, बन्धु परम दुख होय ।
मित्र परखियतु विपति में, विभव विनाशित जोय ॥११॥
सेवा कार्य उपस्थित होने पर सेवकों
की,
आपत्तिकाल में मित्र की, दुःख में बान्धवों की
और धन के नष्ट हो जाने पर स्त्री की परीक्षा की जाती है ॥११॥
आतुरे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे
शत्रुसंकटे ।
राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स
बान्धवः ।।१२।।
दोहा-- दुख आतुर दुरभिक्ष
में, अरि जय कलह अभड्ग ।
भूपति भवन मसान में, बन्धु सोइ रहे सड्ग ॥१२॥
जो बिमारी में दुख में,
दुर्भिक्ष में शत्रु द्वारा किसी प्रकार का सड्कट उपस्थित होने पर,
राजद्वार में और श्मशान पर जो ठीक समय पर पहुँचता है, वही बांधव कहलाने का अधिकारी है ॥१२॥
यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवं
परिषेवते ।
ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवं
नष्टमेव हि ।।१३।।
दोहा-- ध्रुव कूँ तजि
अध्र अ गहै, चितमें
अति सुख चाहि ।
ध्रुव तिनके नाशत तुरत, अध्र व नष्ट ह्वै जाहि ॥१३॥
जो मनुष्य निश्चित वस्तु छोडकर
अनिश्चित की ओर दौडता है तो उसकी निश्चित वस्तु भी नष्ट हो जाती है और अनिश्चित तो
मानो पहले ही से नष्ट थी ॥१३॥
वरयेत्कुलजां प्राज्ञो विरूपामपि
कन्यकाम् ।
रूपशीलां न नीचस्य विवाहः सद्रॄशे
कुले ।।१४।।
दोहा-- कुल जातीय विरूप
दोउ, चातुर वर करि चाह ।
रूपवती तउ नीच तजि, समकुल करिय विवाह ॥१४॥
समझदार मनुष्य का कर्तव्य है कि वह
कुरूपा भी कुलवती कन्या के साथ विवाह कर ले, पर
नीच सुरूपवती के साथ न करे । क्योंकि विवाह अपने समान कुल में ही अच्छा होता है
॥१४॥
नदीनां शस्रपाणीनां नखीनां
श्रृड्गिणां तथा ।
विश्वासो नैव कर्तव्यः
स्त्रीषुराजकुलेषु च ।।१५।।
दोहा-- सरिता श्रृड्गी
शस्त्र अरु, जीव
जितने नखवन्त ।
तियको नृपकुलको तथा , करहिं विश्वास न सन्त ॥१५॥
नदियों का,
शस्त्रधारियों का, बडे-बडे नखवाले जन्तुओं का,
सींगवालों का, स्त्रियों का और राजकुल के
लोगों का विश्वास नहीं करना चाहिये ॥१५॥
विषादप्यमृतं ग्राह्यममेध्यादपि
काञ्चनम् ।
नीचादप्युत्तमां विद्यांस्त्रीरत्नं
दुष्कुलादपि ।।१६।।
दोहा-- गहहु सुधा विषते
कनक, मलते बहुकरि यत्न ।
नीचहु ते विद्या विमल, दुष्कुलते तियरत्न ॥१६॥
विष से भी अमृत,
अपवित्र स्थान से भी कञ्चन, नीच मनुष्य से भी
उत्तम विद्या और दुष्टकुल से भी स्त्री रत्न को ले लेना चाहिए ॥१६॥
स्त्रीणां द्विगुण आहारो लज्जा चापि
चतुर्गणा ।
साहसं षड्र्गुणं चैव कामश्चाष्टगुणः
स्मृत ।।१७।।
दोहा-- तिय अहार देखिय
द्विगुण, लाज चतुरगुन जान ।
षटगुन तेहि व्यवसाय तिय, काम अष्टगुन मान ॥१७॥
स्त्रियों में पुरुष की अपेक्षा
दूना आहार, चौगुनी लज्जा, छ:गुना साहस और आठगुना काम का वेग रहता है ॥१७॥
इति चाणक्यनीति प्रथमोऽध्यायः ॥१॥
आगे जारी............ चाणक्यनीति अध्याय 2
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