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अग्निरुवाच
भारतं सम्प्रवक्षयामि
कृष्णमाहात्म्यलक्षणम्।
भूभारमहरद्विष्णुनिमित्तीकृत्य
पाण्डवान् ।। १ ।।
विष्णुनाभ्यब्जजो ब्रह्मा
ब्रह्मापुत्रोऽत्रिरत्रितः।
सोमः सोमाद् बुधस्तस्मादैल आसीत्
पुरूरवाः ।। २ ।।
तस्मादायुस्ततो राजा नहुषोऽतो
ययातिकः।
ततः पुरुस्तस्य वंशे भरतोऽथ नृपः
कुरुः ।। ३ ।।
तद्वंशे शान्तनुस्तस्माद्भीष्मो
गङ्गासुतोऽनुजौ।
चित्राङ्गदौ विचित्रश्च
सत्यवत्याञ्च शान्तनोः ।। ४ ।।
स्वर्गं गते शान्तनौ च भीष्मो
भार्य्याविवर्ज्जितः।
अपालयत् भ्रातृराज्यं बालश्चि
त्राङ्गदो हतः ।। ५ ।।
चित्राङ्गदेन द्वे कन्ये काशिराजस्य
चाम्बिका।
अम्बालिका च भीष्मेण आनीते
विजितारिणा ।। ६ ।।
भार्ये विचित्रवीर्यस्य यक्ष्मणा स
दिवङ्गतः।
सत्यवत्या ह्यनुमतादम्बिकायां
नृपोभवत् ।। ७ ।।
धृतराष्ट्रोऽम्बालिकायां पाण्डुश्च
व्यासतः सुतः।
गान्धार्य्यां धृतराष्ट्राच्च
दुर्योंधनमुखं शतम् ।। ८ ।।
अग्निदेव कहते हैं- अब मैं
श्रीकृष्ण की महिमा को लक्षित करानेवाला महाभारत का उपाख्यान सुनाता हूँ,
जिसमें श्रीहरि ने पाण्डवों को निमित्त बनाकर इस पृथ्वी का भार
उतारा था। भगवान् विष्णु के नाभिकमल से ब्रह्माजी उत्पन्न हुए। ब्रह्माजी से अत्रि,
अत्रि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध और बुध से
इलानन्दन पुरूरवा का जन्म हुआ। पुरूरवा से आयु, आयु से राजा
नहुष और नहुष से ययाति उत्पन्न हुए। ययाति से पूरु हुए। पूरु के वंश में भरत और
भरत के कुलमें राजा कुरु हुए। कुरु के वंश में शान्तनु का जन्म हुआ। शान्तनु से
गङ्गानन्दन भीष्म उत्पन्न हुए । उनके दो छोटे भाई और थे- चित्राङ्गद और
विचित्रवीर्य ये शान्तनु से सत्यवती के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। शान्तनु के
स्वर्गलोक चले जाने पर भीष्म ने अविवाहित रहकर अपने भाई विचित्रवीर्य के राज्य का
पालन किया। चित्राङ्गद बाल्यावस्था में ही चित्राङ्गद नामवाले गन्धर्व के द्वारा
मारे गये। फिर भीष्म संग्राम में विपक्षी को परास्त करके काशिराज की दो
कन्याओं-अम्बिका और अम्बालिका को हर लाये। वे दोनों विचित्रवीर्य की भार्याएँ
हुईं। कुछ काल के बाद राजा विचित्रवीर्य राजयक्ष्मा से ग्रस्त हो स्वर्गवासी हो
गये। तब सत्यवती की अनुमति से व्यासजी के द्वारा अम्बिका के गर्भ से राजा
धृतराष्ट्र और अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु उत्पन्न हुए। धृतराष्ट्र ने गान्धारी के
गर्भ से सौ पुत्रों को जन्म दिया, जिनमें दुर्योधन सबसे बड़ा
था ॥ १-८ ॥
शतश्रृङ्गाश्रमपदे भार्यायोगाद् यतो
मृतिः।
ऋषिशापात्ततो धर्म्मात् कुन्त्यां
पाण्डोर्युधिष्ठिरः ।। ९ ।।
वाताद्भीमोऽर्जुनः
शक्रान्माद्र्यामश्विकुमारतः।
नकुलः सहदेवश्च
पाण्डुर्म्माद्रीयुतो मृतः ।। १० ।।
कर्णः कुन्त्यां हि कन्यायां जातो
दुर्योधनाश्रितः।
कुरुपाण्डवयोर्वैरन्दैवयोगाद् बभूव
ह ।। ११ ।।
दुर्योधनौ जतुगृहे पाण्डवानदहत्
कुधीः।
दग्धागाराद्विनिष्क्रान्ता
मातृषष्ठास्तु पाण्डवाः ।। १२ ।।
ततस्तु एकचक्रायां ब्राह्मणस्य
निवेशने।
मुनिवेषाः स्थिताः सर्वे निहत्य
वकराक्षसम् ।। १३ ।।
ययुः पाञ्चालविषयं द्रौपद्यास्ते
स्वयम्वरे।
सम्प्राप्ता बाहुवेधेन द्रौपदी
पञ्चपाण्डवैः ।। १४ ।।
अर्द्धराज्यं ततः प्राप्ता ज्ञाता
दुर्योधनादिभिः।
गाण्डीवञ्च धनुर्दिव्यं
पावकाद्रथमुत्तमम् ।। १५ ।।
सारथिञ्चार्जुनः सङ्खये
कृष्णमक्षय्यशायकान्।
ब्रह्मास्त्रार्दिस्तथा
द्रोणात्सर्वे शस्त्रविशारदाः ।। १६ ।।
राजा पाण्डु वन में रहते थे। वे एक
ऋषि के शापवश शतशृङ्ग मुनि के आश्रम के पास स्त्री- समागम के कारण मृत्यु को
प्राप्त हुए। [ पाण्डु शाप के ही कारण स्त्री सम्भोग से दूर रहते थे,
] इसलिये उनकी आज्ञा के अनुसार कुन्ती के गर्भ से धर्म के अंश से
युधिष्ठिर का जन्म हुआ। वायु से भीम और इन्द्र से अर्जुन उत्पन्न हुए। पाण्डु की
दूसरी पत्नी माद्री के गर्भ से अश्विनीकुमारों के अंश से नकुल सहदेव का जन्म हुआ।
[शापवश] एक दिन माद्री के साथ सम्भोग होने से पाण्डु की मृत्यु हो गयी और माद्री
भी उनके साथ सती हो गयी। जब कुन्ती का विवाह नहीं हुआ था, उसी
समय [ सूर्य के अंश से] उनके गर्भ से कर्ण का जन्म हुआ था। वह दुर्योधन के आश्रय में
रहता था। दैवयोग से कौरवों और पाण्डवों में वैर की आग प्रज्वलित हो उठी। दुर्योधन
बड़ी खोटी बुद्धि का मनुष्य था । उसने लाक्षा के बने हुए घर में पाण्डवों को रखकर
आग लगाकर उन्हें जलाने का प्रयत्न किया; किंतु पाँचों पाण्डव
अपनी माता के साथ उस जलते हुए घर से बाहर निकल गये वहाँ से एकचक्रा नगरी में जाकर
वे मुनि के वेष में एक ब्राह्मण के घर में निवास करने लगे। फिर बक नामक राक्षस का
वध करके वे पाञ्चाल राज्य में, जहाँ द्रौपदी का स्वयंवर होनेवाला
था, गये। वहाँ अर्जुन के बाहुबल से मत्स्यभेद होने पर पाँचों
पाण्डवों ने द्रौपदी को पत्नीरूप में प्राप्त किया। तत्पश्चात् दुर्योधन आदि को
उनके जीवित होने का पता चलने पर उन्होंने कौरवों से अपना आधा राज्य भी प्राप्त कर
लिया। अर्जुन ने अग्निदेव से दिव्य गाण्डीव धनुष और उत्तम रथ प्राप्त किया था।
उन्हें युद्ध में भगवान् कृष्ण-जैसे सारथि मिले थे तथा उन्होंने आचार्य द्रोण से
ब्रह्मास्त्र आदि दिव्य आयुध और कभी नष्ट न होनेवाले बाण प्राप्त किये थे। सभी
पाण्डव सब प्रकार की विद्याओं में प्रवीण थे ॥ ९-१६ ॥
कृष्णेन सोऽर्जुनो वह्निं खाण्डवे
समतर्पयत्।
इन्द्रवृष्टिं वारयंश्च शरवर्षेण
पाण्डवः ।। १७ ।।
जिता दिशः पाण्डवैश्च राज्यञ्चक्रे
युधिष्ठिरः।
बहुस्वर्णं राजसूयं च सेहै तं
सुयोधनः ।। १८ ।।
भ्रात्रा दुः शासनेनोक्तः कर्णेन
प्राप्तभूतिना।
द्युतकार्ये शकुनिना द्यूतेन स युधिष्ठिरम्
।। १९ ।।
अजयत्तस्य राज्यञ्च सभास्थो
माययाहसत्।
अष्टाशीतिसहस्त्राणि भोजयन्
पूर्ववद् द्विजान् ।। २० ।।
वने द्वादशवर्षाणि प्रतिज्ञातानि
सोऽनयत्।
अष्टाशीतिसहस्त्राणि भोजयन्
पूर्ववद् द्विजान् ।। २१ ।।
सधौम्यो द्रौपदीषष्ठस्ततः
प्रायाद्विराटकम्।
कङ्को द्विजो ह्यविज्ञातो राजा
भीमोथ सूपकृत् ।। २२ ।।
बृहन्नलार्जुनो भार्या सैरिन्ध्री
यमजौ तथा।
अन्यनाम्ना भीमसेनः
कीचकञ्चाबधीन्निशि ।। २३ ।।
द्रौपदीं हर्त्तुकामं
तमर्जुनश्चाजयत् कुरून्।
कुर्वतो गोग्रहादींश्च तैर्ज्ञाताः
पाण्डवा अथ ।। २४ ।।
सुभद्रा कृष्णभगिनी अर्जुनात्समजीजनत्।
अभिमन्युन्ददौ तस्मै
विराटश्चोत्तरां सुताम् ।। २५ ।।
पाण्डुकुमार अर्जुन ने श्रीकृष्ण के
साथ खाण्डव- वन में इन्द्र के द्वारा की हुई वृष्टि का अपने बाणों की [छत्राकार]
बाँध से निवारण करते हुए अग्नि को तृप्त किया था। पाण्डवों ने सम्पूर्ण दिशाओं पर
विजय पायी। युधिष्ठिर राज्य करने लगे। उन्होंने प्रचुर सुवर्णराशि से परिपूर्ण
राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान किया। उनका यह वैभव दुर्योधन के लिये असह्य हो उठा। उसने
अपने भाई दुःशासन और वैभव प्राप्त सुहृद् कर्ण के कहने से शकुनि को साथ ले द्यूत
सभा में जूए में प्रवृत्त होकर, युधिष्ठिर और
उनके राज्य को कपट- द्यूत के द्वारा हँसते- हँसते जीत लिया। जूए में परास्त होकर
युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ वन में चले गये। वहाँ उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा के
अनुसार बारह वर्ष व्यतीत किये। वे वन में भी पहले ही की भाँति प्रतिदिन बहुसंख्यक
ब्राह्मणों को भोजन कराते थे। [ एक दिन उन्होंने] अठासी हजार द्विजों सहित
दुर्वासा को [ श्रीकृष्ण कृपा से] परितृप्त किया। वहाँ उनके साथ उनकी पत्नी
द्रौपदी तथा पुरोहित धौम्यजी भी थे। बारहवाँ वर्ष बीतने पर वे विराटनगर में गये।
वहाँ युधिष्ठिर सबसे अपरिचित रहकर 'कङ्क' नामक ब्राह्मण के रूप में रहने लगे। भीमसेन रसोइया बने थे। अर्जुन ने अपना
नाम 'बृहन्नला ' रखा था। पाण्डव पत्नी
द्रौपदी रनिवास में सैरन्ध्री के रूप में रहने लगी। इसी प्रकार नकुल सहदेव ने भी
अपने नाम बदल लिये थे। भीमसेन ने रात्रिकाल में द्रौपदी का सतीत्व हरण करने की
इच्छा रखनेवाले कीचक को मार डाला। तत्पश्चात् कौरव विराट की गौओं को हरकर ले जाने
लगे, तब उन्हें अर्जुन ने परास्त किया। उस समय कौरवों ने
पाण्डवों को पहचान लिया। श्रीकृष्ण की बहिन सुभद्रा ने अर्जुन से अभिमन्यु नामक
पुत्र को उत्पन्न किया था। उसे राजा विराट ने अपनी कन्या उत्तरा ब्याह दी ॥१७- २५
॥
सप्ताक्षौहिणीश आसीद्धर्म्मराजो
रणाय सः।
कृष्णो दूतोब्रवीद् गत्वा
दुर्योधनममर्षणम् ।। २६ ।।
एकादशक्षौहिणीशं नृपं दुर्योधनं
तदा।
युधिष्ठिरायार्द्धराज्यं देहि
ग्रामांश्च पञ्च वा ।। २७ ।।
युध्यस्व वा वचः श्रुत्वा कृष्णमाह
सुयोधनः।
भूसूच्यग्रं न दास्यामि योत्स्ये
सङ्ग्रहणोद्यतः ।। २८ ।।
विश्वरूपन्दर्शयित्वा अधृष्यं
विदुरार्च्चितः ।
प्रागाद्युधिष्ठिरं प्राह योधयैनं
सुयोधनम् ।। २९ ।।
धर्मराज युधिष्ठिर सात अक्षौहिणी
सेना के स्वामी होकर कौरवों के साथ युद्ध करने को तैयार हुए। पहले भगवान्
श्रीकृष्ण परम क्रोधी दुर्योधन के पास दूत बनकर गये। उन्होंने ग्यारह अक्षौहिणी
सेना के स्वामी राजा दुर्योधन से कहा- 'राजन्
! तुम युधिष्ठिर को आधा राज्य दे दो या उन्हें पाँच ही गाँव अर्पित कर दो नहीं तो
उनके साथ युद्ध करो।' श्रीकृष्ण की बात सुनकर दुर्योधन ने
कहा- 'मैं उन्हें सुई की नोक के बराबर भूमि भी नहीं दूँगा;
हाँ, उनसे युद्ध अवश्य करूँगा।' ऐसा कहकर वह भगवान् श्रीकृष्ण को बंदी बनाने के लिये उद्यत हो गया। उस समय
राजसभा में भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने परम दुर्धर्ष विश्वरूप का दर्शन कराकर
दुर्योधन को भयभीत कर दिया।
फिर विदुर ने अपने घर ले जाकर
भगवान् का पूजन और सत्कार किया। तदनन्तर वे युधिष्ठिर के पास लौट गये और बोले—'महाराज! आप दुर्योधन के साथ युद्ध कीजिये ' ॥ २६-२९
॥
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये
आदिपर्वादिवर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'आदिपर्व से आरम्भ करके (उद्योगपर्व- पर्यन्त]महाभारत कथा का संक्षिप्त
वर्णन' नामक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 14
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