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या चाणक्य नीतिशास्त्र (४ से ३ शताब्दी ई॰पु॰ मध्य) चाणक्य द्वारा रचित एक नीति
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सानन्दं सदनं सुतास्तु सधियः कांता
प्रियालापिनी
इच्छापूर्तिधनं स्वयोषितिरतिः
स्वाज्ञापराः सेवकाः
आतिथ्यं शिवपूजनं प्रतिदिनं मिष्टान्नपानं
गृहे
साधोः सुड्गमुपासते च सततं धन्यो
गृहस्थाश्रमः ।।१।।
सोरठा --
सानन्दमंदिरपण्डित पुत्र सुबोल रहै
तिरिया पुनि प्राणपियारी
इच्छित सतति और स्वतीय रती रहै सेवक
भौंह निहारी ॥
आतिथ औ शिवपूजन रोज रहे घर संच
सुअन्न औ वारी ।
साधुनसंग उपासात है नित धन्य अहै
गृह आश्रम धारी ॥1॥
अर्थ -- आनन्द से रहने लायक़ घर हो, पुत्र बुध्दिमान हो, स्त्री मधुरभाषिणी हो, घर आये हुए अतिथियों का सत्कार हो, सेवक आज्ञाकारी हो, घर आये हुए अतिथियों का सत्कार हो, प्रति दिन शिवजी का पूजन होता रहे और सज्जनों का साथ हो तो फिर वह गृहस्थाश्रम धन्य है।
आर्तेषु विप्रेषु दयान्वितश्चे-
च्छ्रध्देण या स्वल्पमुपैति दानम् ।
अनन्तपारं समुपैति दानम् ।
यद्दीयते तन्न लभेद् द्विजेभ्यः
।।२।।
दोहा --
दिया दयायुत साधुसो,
आरत विप्रहिं जौन ।
थोरी मिलै अनन्त ह्वै,
द्विज से मिलै न तौन ॥2॥
अर्थ -- जो मनुष्य श्रध्दापूर्वक और
दयाभाव से दीन-दुखियों तथा ब्राह्मणों को थोडा भी दान दे देता है तो वह उसे
अनन्तगुणा होकर उन दीन ब्राह्मणों से नहीं बल्कि ईश्वर के दरबार से मिलता है।
दाक्षिण्यं स्वजने दया परजने शाठ्यं
सदा दुर्जने
प्रीतिःसाधुजने स्मयः खलजने
विद्वज्जने चार्जवम् ।
शौर्यं शत्रुजने क्षमा गुरुजने
नारीजने धूर्तता
इत्थं ये पुरुषा कलासु
कुशलास्तेष्वे लोकस्थितिः ।।३।।
कविता --
दक्षता स्वजनबीच दया परजन बीच शठता
सदा ही रहे बीच दुरजन के ।
प्रीति साधुजन में शूरता सयानन में
क्षमा
पूर धुरताई राखे फेरि बीच नारिजन के
।
ऎसे सब काल में कुशल रहैं जेते लोग
लोक थिति रहि रहे बीच तिनहिन के ॥3॥
अर्थ -- जो मनुष्य अपने परिवार में
उदारता,
दुर्जनों के साथ शठता, सज्जनों से प्रेम,
दुष्टों में अभिमान, विद्वानों में कोमलता,
शत्रुओं में वीरता, गुरुजनों में क्षमा और
स्त्रियों में धूर्तता का व्यवहार करते हैं। ऎसे ही कलाकुशल मनुष्य संसार में आनंद
के साथ रह सकते हैं।
हस्तौ दानविवर्जितौ श्रुतिपुटौ
सारस्वतद्रोहिणौ
नेत्रे साधुविलोकनेन रहिते पादौ न
तीर्थं गतौ ।।
अन्यायार्जितवित्त पूर्णमुदरं
गर्वेण तुड्गं शिरो ।
रे रे जंबुक मुञ्चमुञ्च सहसा नीचं
सुनिन्द्यं वपुः ।।४।।
छंद --
यह पाणि दान विहीन कान पुराण वेद
सुने नहीं ।
अरु आँखि साधुन दर्शहीन न पाँव तीरथ
में कहीं ॥
अन्याय वित्त भरो सुपेट उय्यो सिरो
अभिमानही ।
वपु नीच निंदित छोड अरे सियार सो
बेगहीं ॥4॥
अर्थ -- जिसके दोनों हाथ दानविहीन
हैं,
दोनों कान विद्याश्रवण से परांगमुख हैं, नेत्रसज्जनों
का दर्शन नहीं करते और पैर तिर्थों का पर्यटन नहीं करते। जो अन्याय से अर्जित धन
से पेट पालते हैं और गर्व से सिर ऊँचा करके चलते हैं, ऎसे
मनुष्यों का रूप धारण किये हुए ऎ सियार! तू झटपट अपने इस नीच और निन्दनीय शरीर को
छोड दे।
येषां श्रीमद्यशोदा सुतपदकमले
नास्ति भक्तिर्नराणां
येषामाभीरकन्याप्रियगुणकथने
नानुरक्ता रसज्ञा ।
येषां श्रीकृष्णलीलाललितरसकथा
सादरौनैव कर्णौ
धिक्तांधिक्तांधिगेतांकथ यति सततं
कीर्तनस्थोमॄदंगः ।।५।।
छंद --
जो नर यसुमतिसुत चरणन में भक्ति
हृदय से कीन नहीं ।
जो राधाप्रिय कृष्ण चन्द्र के गुण
जिह्वा नाहिं कहीं ॥
जिनके दोउ कानन माहिं कथारस कृष्ण
को पीय नहीं ।
कीर्तन माहिं मृदंग इन्हे धिक्कएहि
भाँति कहेहि कहीं ॥5॥
अर्थ -- कीर्तन के समय बजता हुआ
मृदंग कहता है कि जिन मनुष्यों को श्रीकृष्णचन्द्रजी के चरण कमलों में भक्ति नहीं
है श्रीराधारानी के प्रिय गुणों के कहने में जिसकी रसना अनुरक्त नहीं और श्रीकृष्ण
भगवान् की लीलाओं को सुनने के लिए जिसके कान उत्सुक नहीं हैं। ऎसे लोगों को
धिक्कार है, धिक्कार है।
पत्रं नैव यदा करीरविटपे दोषो
वसन्तस्य किं
नोलूकोऽप्यवलोकते यदि दिवा सूर्यस्य
किं दूषणं ।
वर्षा नैव पतन्ति चातकमुखे मेघस्य
किं दूषणं ।
यत्पूर्व विधिना ललाटलिखितं
तन्मार्जितुं कः क्षमः ।।६।।
छंद --
पात न होय करीरन में यदि दोष
बसन्तहि कान तहाँ है ।
त्यों जब देखि सकै न उलूकदिये तहँ
सूरज दोष कहाँ है ।
चातक आनन बूँदपरै नहिं मेघन दूषन
कौन यहाँ है ॥
जो कछु पूरब माथ लिखाविधि मेटनको
समरत्थ कहाँ है ॥6॥
अर्थ -- यदि करीर पेड में पत्ते
नहीं लगते तो बसन्त ऋतु का क्या दोष ? उल्लू
दिन को नहीं देखता तो इसमें सूर्य का क्या दोष ? बरसात की
बूँदे चातक के मुख में नहीं गिरती तो इसमें मेघ का क्या दोष ? विधाता ने पहले ही ललाट में जो लिख दिया है, उसे कौन
मिटा सकता है।
सत्सङ्गाद भवति हि साधुता खलानां ।
साधूनां न हि खलसंगतेः खलत्वम् ।।
आमोदं कुसुमभवं मृदेव धत्ते
मृदगन्धं नहि कुसुमानि धारयन्ति
।।७।।
च० ति० -
सत्संगसों खलन साधु स्वभाव सेवै ।
साधू न दुष्टपन संग परेहु लेवै ॥
माटीहि बास कछु फूल न धार पावै ।
माटी सुवास कहुँ फूल नहिं बसावै ॥7॥
अर्थ -- सत्संग से दुष्ट सज्जन हो
जाते हैं। पर सज्जन उनके संग से दुष्ट नहीं होते। जैसे फूल की सुगंधि को मिट्टी
अपनाती है, पर फूल मिट्टी की सुगंधि को
नहीं अपनाते।
साधूनां दर्शनं पुण्यं तीर्थीभूता
हि साधवः ।
कालेन फलते तीर्थं सद्यः साधुसमागमः
।।८।।
दोहा --
साधू दर्शन पुण्य है,
साधु तीर्थ के रूप ।
काल पाय तीरथ फलै,
तुरतहि साधु अनूप ॥8॥
अर्थ -- सज्जनों का दर्शन बडा पुनीत
होता है। क्योंकि साधुजन तीर्थ के समान रहते हैं। बल्कि तीर्थ तो कुछ समय बाद फल
देते हैं पर सज्जनों का सत्संग तत्काल फलदायक है।
विप्राऽस्मिन्नगरे महान्
कथयकस्तालद्रुमाणां गणः
को दाता रजको ददाति वसनं प्रातर्गृ
हीत्वा निशि ।
को दक्षः परवित्तदारहरणे सर्वोऽपि
दक्षो जनः
कस्माज्जीवसि हे सखे विष
कृमिन्यायेन जीवाम्यहम् ।।९।।
कविता --
कह्यो या नगर में महान् है कौन ?
विप्र ! तारन के वृक्षन के कतार हैं
।
दाता कहो कौन हैं ?
रजक देत साँझ आनि धोय शुभ वस्त्र को
जो देत सकार है ।
दक्ष कहौ कौन है ?
प्रत्यक्ष सबहीं हैं दक्ष रहने को
कुशल परायो धनदार कौन है ?
कैसे तुम जीवत कहो मोसों मीत विष
कृमिन्याय हैं ।
कैसे तुम जीवत बताय कहो मोसों मीत
विष
कृमिन्याय कर लीजै निराधार है ॥9॥
अर्थ -- कोई पथिक किसी नगर में जाकर
किसी सज्जन से पुछता है हे भाई! इस नगर में कौन बडा है ?
उसने उत्तर दिया - बडे तो ताड के पेड हैं। (प्रश्न) दता कौन है ?
(उत्तर) धोबी, जो सबेरे कपडे ले जाता और शाम
को वापस दे जाता है। (प्रश्न) यहाँ चतुर कौन है ? (उत्तर)
पराई दौलत ऎंठने में यहाँ सभी चतुर हैं। (प्रश्न) तो फिर हे सखे! तुम यहाँ जीते
कैसे हो ? (उत्तर) उसी तरह जीता हूँ जैसे कि विष का कीडा विष
में रहता हुआ भी ज़िन्दा रहता है।
न विप्रपादोदकपंकजानि
न वेदशास्त्रध्वनिगर्जितानि ।
स्वाहास्वधाकारविवर्जितानि
श्मशानतुल्यानिगृहाणि तानि ।।१०।।
दोहा --
विप्रचरण के उद्क से,
होत जहाँ नहिं कीच ।
वेदध्वनि स्वाहा नहीं,
वे गृह मर्घट नीच ॥10॥
अर्थ -- जिस घर में ब्राम्हण के पैर
धुलने से कीचड नहीं होता, जिसके यहाँ वेद और
शास्त्रों की ध्वनि का गर्जन नहीं और जिस घर में स्वाहा स्वधा का कभी उच्चारण नहीं
होता, ऐसे घरों को श्मशान के तुल्य समझना चाहिए।
सत्यं माता पिता ज्ञानं धर्मो भ्राता
दया सखा
शांतिः पत्नी क्षमा पुत्रः षडेते
ममबान्धवाः ।।११।।
सोरठा --
सत्य मातु पितु ज्ञान,
सखा दया भ्राता धरम ।
तिया शांति सुत जान छमा यही षट्
बन्धु मम ॥11॥
अर्थ -- कोई ज्ञानी किसी के प्रश्न
का उत्तर देता हुआ कहता है कि सत्य मेरी माता है, ज्ञान पिता है धर्म भाई है, दया मित्र है, शांति स्त्री है और क्षमा पुत्र है, ये ही मेरे छह
बान्धव हैं।
अनित्यानि शरिराणि विभवो नैव
शाश्वतः ।
नित्यं सन्निहितो मृत्युः कर्तव्यो
धर्मसंग्रहः ।।१२।।
सोरठा --
है अनित्य यह देह,
विभव सदा नाहिं नर है ।
निकट मृत्यु नित हेय,
चाहिय कीन संग्रह धरम ॥12॥
अर्थ -- शरीर क्षणभंगोर है,
धन भी सदा रहनेवाला नहीं है। मृत्यु बिलकुल समीप वेद्यमान है। इसलिए
धर्म का संग्रह करो।
निमन्त्रणोत्सवा विप्रा गावो
नवतृणोत्सवाः ।
पत्युत्साहयुता भार्या अहं कृष्ण !
रणोत्सवः ।।१३।।
दोहा --
पति उत्सव युवतीन को,
गौवन को नवघास ।
नेवत द्विजन को हे हरि,
मोहिं उत्सव रणवास ॥13॥
अर्थ -- ब्राह्मण का उत्सव है
निमन्त्रण, गौओं का उत्सव है नई घास।
स्त्री का उत्सव है पति का आगमन, किन्तु हे कृष्ण! मेरा
उत्सव है युद्ध।
मातृवत्परदारेषु परद्रव्याणि
लोष्ठवत् ।
आत्मवत्सर्वभूतानि यः पश्यति स
पंडितः ।।१४।।
दोहा --
पर धन माटी के सरिस,
परतिय माता भेष ।
आपु सरीखे जगत् सब,
जो देखे सो देख ॥14॥
अर्थ -- जो मनुष्य परायी स्त्री को
माता के समान समझता, पराया धन मिट्टी के
ढेले के समान मानता और अपने ही तरह सब प्राणियों के सुख-दुःख समझता है, वही पण्डित है।
धर्मे तत्परता मुखे मधुरता दाने
समुत्साहता
मित्रेऽवंचकता गुरौ विनयता
चित्तेऽतिगम्भीरता ।
आचारे शुचिता गुणे रसिकता
शास्त्रेषु विज्ञातृता
रूपे सुन्दरता शिवे भजनता
त्वय्यस्तिभी राघवः ।।१५।।
कविता --
धर्म माहिं रुचि मुख मीठी बानी दाह
वचन शक्तिमित्र संग नहिं ठगने बान है ।
वृध्दमाहिं नम्रता अरु मन म्रं
गन्भीरता शुध्द है आचरण गुण विचार विमल हैं ।
शास्त्र का विशैष ज्ञान रूप भी
सुहावन है शिवजी के भजन का सब काल ध्यान है ।
कहे पुष्पवन्त ज्ञानी राघव बीच
मानों सब ओर इक ठौर कहिन को न मान है ॥15॥
अर्थ -- वशिष्ठजी श्रीरामचन्द्रजी
से कहते हैं - हे राघव! धर्म में तत्परता, मुख
में मधुरता, दान में उत्साह, मित्रों
में निश्छल व्यवहार, गुरुजनों के समझ नम्रता, चित्त में गम्भीरता, आचार में पवित्रता, शास्त्रों में विज्ञता, रूप में सुन्दरता और शिवजी
में भक्ति, ये गुण केवल आप ही में हैं।
काष्ठं कल्पतरुः
सुमेरुरचलश्चिन्तामणिः प्रस्तरः
सूर्यस्तीव्रकरः शशीक्षयकरः
क्षारोहि वारां निधिः ।
कामो नष्टतनुर्बलिदितिसुतो नित्यं
पशुः कामगाः
नैस्तांस्ते तुलयामि भो रघुपते
कस्योपमादीयते ।।१६।।
कविता --
कल्पवृक्ष काठ अचल सुमेरु चिन्तामणिन
भीर जाती जाजि जानिये ।
सूरज में उष्णाता अरु कलाहीन
चन्द्रमा है सागरहू का जल खारो यह जानिये ।
कामदेव नष्टतनु अरु राजा बली
दैत्यदेव कामधेनु गौ को भी पशु मानिये ।
उपमा श्रीराम की इन से कुछ तुलै ना
और वस्तु जिसे उपमा बखानिये ॥16॥
अर्थ -- कल्पवृक्ष काष्ठ है,
सुमेरु अचल है, चिन्तामणि पत्थर है, सूर्य की किरणें तीखी हैं, चन्द्रमा घटता-बढता है,
समुद्र खारा है, कामदेव शरीर रहित है, बलि दैत्य है और कामधेनु पशु है। इसलिए इनके साथ तो मैं आपकी तुलना नहीं
कर सकता। तब हे रघुपते ? किसके साथ आपकी उपमा दी जाय।
विद्या मित्रं प्रवासे च भार्या
मित्र गृहे च ।
व्याधिस्तस्यौषधं मित्रं धर्मा
मित्रं मृतस्य च ।।१७।।
दोहा --
विद्या मित्र विदेश में,
घरमें नारी मित्र ।
रोगिहिं औषधि मित्र हैं,
मरे धर्म ही मेत्र ॥17॥
अर्थ -- प्रवास में विद्या हित करती
है,
घर में स्त्री मित्र है, रोगग्रस्त पुरुष का
हित औषधि से होता है और धर्म मरे का उपकार करता है।
विनयं राजपुत्रेभ्यः पंडितेभ्यः
सुभाषितम् ।
अनृतं द्यूतकारेभ्यः स्त्रीभ्यः
शिक्षेत कैतवम् ।।१८।।
दोहा --
राजसुत से विनय अरु,
बुध से सुन्दर बात ।
झुठ जुआरिन कपट,
स्त्री से सीखी जात ॥18॥
अर्थ -- मनुष्य को चाहिए कि विनय
(तहजीब) राजकुमारों से, अच्छी अच्छी बातें
पण्डितों से झुठाई जुआरियॊं से और छलकपट स्त्रियों से सीखे।
अनालोक्य व्ययं कर्ता अनाथः
कलहप्रियः ।
आर्तः स्त्रीसर्वक्षेत्रेषु नरः
शीघ्र विनश्यति ।।१९।।
दोहा --
बिन विचार खर्चा करें,
झगरे बिनहिं सहाय ।
आतुर सब तिय में रहै,
सोइ न बेगि नसाय ॥19॥
अर्थ -- बिना समझे-बूझे खर्च करने
वाला अनाथ, झगडालू, और
सब तरह की स्त्रियों के लिए बेचैन रहनेवाला मनुष्य देखते-देखते चौपट हो जाता है।
नाऽऽहारं चिन्तयेत्प्राज्ञो
धर्ममेकं हि चिन्तयेत् ।
आहारो हि मनुष्याणां जन्मना सह
जायते ।।२०।।
दोहा --
नहिं आहार चिन्तहिं सुमति,
चिन्तहि धर्महि एक ।
होहिं साथ ही जनम के,
नरहिं अहार अनेक ॥20॥
अर्थ -- विद्वान् को चाहिए कि वह
भोजनकी चिन्ता न किया करे। चिन्ता करे केवल धर्म की क्योंकि आहार तो मनुष्य के
पैदा होने के साथ ही नियत हो जाया करता है।
धनधान्यप्रयोगेषु विद्यासंग्रहणे
तथा ।
आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः
सुखीभवेत् ।।२१।।
दोहा --
लेन देन धन अन्न के,
विद्या पढ़ने माहिं ।
भोजन सखा विवाह में,
तजै लाज सुख ताहिं ॥21॥
अर्थ -- जो मनुष्य धन तथा धान्य के
व्यवहार में, पढ़ने-लिखते में, भोजन में और लेन-देन में निर्लज्ज होता है, वही सुखी
रहता है।
जलबिन्दुनिपातेन क्रमशः पूर्यते घटः
।
स हेतु सर्वविद्यानां धर्मस्य च
धनस्य च ।।२२।।
दोहा --
एक एक जल बुन्द के परत घटहु भरि जाय
।
सब विद्या धन धर्म को,
कारण यही कहाय ॥22॥
अर्थ -- धीरे-धीरे एक एक बूँद पानी
से घडा भर जाता है। यही बात विद्या, धर्म
और धन के लिए लागू होती है। तात्पर्य यह कि उपयुक्त वस्तुओं के संग्रह में जल्दी न
करे। करता चले धीरे-धीरे कभी पुरा हो ही जायेगा।
वयसः परिणामेऽपि यः खलः खलः एव सः ।
सम्पक्वमपि माधुर्यं
नापयातीन्द्रवारुणम् ।।२३।।
दोहा --
बीत गयेहु उमिर के,
खल खलहीं राह जाय ।
पकेहु मिठाई गुण कहूँ,
नाहिं हुनारू पाय ॥23॥
अर्थ -- अवस्था के ढल जाने पर भी जो
खल बना रहता है वस्तुताः वही खल है। क्योंकि अच्छी तरह पका हुआ इन्द्रापन मीठापन
को नहीं प्राप्त होता।
इति चाणक्ये द्वादशोऽध्यायः ॥12॥
आगे जारी............ चाणक्यनीति अध्याय 13
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