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चाणक्यनीति अध्याय ५
चाणक्यनीति अध्याय ५- चाणक्य नीति
या चाणक्य नीतिशास्त्र (४ से ३ शताब्दी ई॰पु॰ मध्य) चाणक्य द्वारा रचित एक नीति
ग्रन्थ है। इसमें सूत्रात्मक शैली में जीवन को सुखमय एवं सफल बनाने के लिए उपयोगी
सुझाव दिये गये हैं।
चाणक्यनीति पञ्चमोऽध्यायः
Chanakya niti chapter 5
चाणक्यनीति पांचवां अध्याय
चाणक्यनीति अध्याय ५
चाणक्य नीति
पञ्चमोऽध्यायः
गुरुरग्निर्द्वि जातीनां वर्णानां
ब्राह्मणो गुरुः ।
पतिरेव गुरुः स्त्रीणां
सर्वस्याभ्यागतो गुरुः ।।१।।
दोहा --
अभ्यागत सबको गुरु, नारि गुरु पति जान ।
द्विजन अग्नि गुरु
चारिहूँ, वरन् विप्र गुरु मान ॥1॥
अर्थ -- ब्राह्मण,
क्षत्रिय तथा वैश्य इन तीनों का गुरु अग्नि है। उपर्युक्त चारो
वर्णों का गुरु ब्राह्मण है, स्त्री का गुरु उसका पति है और
संसार मात्र का गुरु अतिथि है।
यथा चतुर्भिः कनकं पराक्ष्यते
निघर्षणं छेदनतापताडनैः ।
तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्य़ते
त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा ।।२।।
दोहा --
आगिताप घसि काटि पिटि, सुवरन् लख विधि चारि ।
त्यागशील गुण कर्म तिमि, चारिहि पुरुष विचारि ॥2॥
अर्थ -- जैसे रगडने से,
काटने से, तपाने से और पीटने से, इन चार उपायों से सुवर्ण की परीक्षा की जाती है, उसी
प्रकार त्याग, शील, गुण और कर्म,
इन चार बातों से मनुष्य की परीक्षा होती है।
तावद्भयेन भेतव्यं यावद् भयमनागतम्
।
आगतं तु भयं वीक्ष्यं
प्रहर्तव्यमशंकया ।।३।।
दोहा --
जौलौं भय आवै नहीं, तौलौं डरे विचार ।
आये शंका छाडि के, चाहिय कीन्ह प्रहार ॥3॥
अर्थ -- भय से तभी तक डरो,
जब तक कि वह तुम्हारे पास तक न आ जाय। और जब आ ही जाय तो डरो नहीं
बल्कि उसे निर्भिक भाव से मार भगाने की कोशिश करो।
एकोदरसमुद् भूता एकनक्षत्रजातकाः ।
न भवन्ति समाः शीला यथा बदरिकण्टकाः
।।४।।
दोहा --
एकहि गर्भ नक्षत्र में, जायमान यदि होय ।
नाहिं शील सम होत है, बेर काँट सम होय ॥4॥
अर्थ -- एक पेट से और एक ही नक्षत्र
में उत्पन्न होने से किसी का शील एक सा नहीं हो जाता। उदाहरण स्वरूप बेर के काँटों
को देखो।
निःस्पृहो नाधिकारी स्यान्नाकामो
मण्डनप्रियः ।
नाऽविदग्धः प्रियंब्रूयात्
स्पष्टवक्ता न वञ्चकः ।।५।।
दोहा --
नहि निस्पृह अधिकार गहु, भूषण नहिं निहकाम ।
नहिं अचतुर प्रिय बोल
नहिं, बंचक साफ़ कलाम ॥5॥
अर्थ -- निस्पृह मनुष्य कभी अधिकारी
नहीं हो सकता। वासना से शुन्य मनुष्य श्रृंगार का प्रेमी नहीं हो सकता। जड मनुष्य कभी
मीठी वाणी नहीं बोल सकता और साफ-साफ बात करने वाला धोखेबाज नहीं होता।
मूर्खाणां पण्डिता द्वेष्या अधनानां
महाधनाः ।
वरांगना कुलस्त्रीणां सुभगानां च
दुर्भगा ।।६।।
दोहा --
मूरख द्वेषी पण्डितहिं, धनहीनहिं धनवान् ।
परकीया स्वकियाहु का, विधवा सुभगा जान ॥6॥
अर्थ -- मूर्खों के पण्डित शत्रु
होते हैं। दरिद्रों के शत्रु धनी होते हैं। कुलवती स्त्रीयों के शत्रु वेश्यायें
होती हैं और सुन्दर मनुष्यों के शत्रु कुरूप होते है।
आलस्योपगता विद्या परहस्तगतं धनम् ।
अल्पबीजं हतं क्षेत्रं हतं
सैन्यमनायकम् ।।७।।
दोहा --
आलस ते विद्या नशै, धन औरन के हाथ ।
अल्प बीज से खेत अरु, दल दलपति बिनु साथ ॥7॥
अर्थ -- आलस्य से विद्या,
पराये हाथ में गया धन, बीज में कमी करने से
खेती और सेनापति विहीन सेना नष्ट हो जाती है।
अभ्यासाध्दार्यते विद्या कुलं शीलेन
धार्यते ।
गुणेन ज्ञायते त्वार्यः कोपो नेत्रेण
गम्यते ।।८।।
दोहा --
कुल शीलहिं ते धारिये, विद्या करि अभ्यास ।
गुणते जानहिं श्रेष्ठ कहँ, नयनहिं कोप निवास ॥8॥
अर्थ -- अभ्यास से विद्या की और शील
से कुल की रक्षा होती है। गुण से मनुष्य पहिचाना जाता है और आँखें देखने से क्रोध
का पता लग जाता है।
वित्तेन रक्ष्यते धर्मो विद्या
योगेन रक्ष्यते ।
मृदुना रक्ष्यते भूपः सत्स्त्रिया
रक्ष्यते गृहम् ।।९।।
दोहा --
विद्या रक्षित योग ते, मृदुता से भूपाल ।
रक्षित गेह सुतीय ते, धन ते धर्म विशाल ॥9॥
अर्थ -- धन से धर्म की,
योग से विद्या की, कोमलता से राजा की और अच्छी
स्त्री से घर की रक्षा होती है।
अन्यथा वेदपाण्डित्यं
शास्त्रमाचारमन्यथा ।
अन्यथा वदता शांतंलोकाःक्लिश्यन्ति
चाऽन्यथा ।।१०।।
दोहा --
वेद शास्त्र आचार औ, शास्त्रहुँ और प्रकार ।
जो कहते लहते वृथा, लोग कलेश अपार ॥10॥
अर्थ -- वेद को,
पाण्डित्य को, शास्त्र को, सदाचार को और अशान्त मनुष्य को जो लोग बदनाम करना चाहता हैं, वे व्यर्थ कष्ट करते हैं।
दारिद्र्यनाशनं दान शीलं
दुर्गतिनाशनम् ।
अज्ञाननाशिनी प्रज्ञा भावना
भयनाशिनी ।।११।।
सोरठा --
दारिद नाशन दान, शील दुर्गतिहिं नाशियत ।
बुध्दि नाश अज्ञा, भय नाशत है भावना ॥11॥
अर्थ -- दान दरिद्रता को नष्ट करता
है,
शील दुरवस्था को नष्ट कर देता है, बुध्दि
अज्ञान को नष्ट कर देती है और विचार भय को नष्ट कर दिया करता है।
नास्ति कामसमो व्याधिर्नास्ति
मोहसमो रिपुः ।
नास्ति कोपसमो वहि नर्नास्ति
ज्ञानात्परं सुखम् ।।१२।।
सोरठा --
व्याधि न काम समान, रिपु नहिं दूजो मोह सम ।
अग्नि कोप से आन, नहीं ज्ञान से सुख परे ॥12॥
अर्थ -- काम के समान कोई रोग नहीं
है,
मोह (अज्ञान) के समान शत्रु नहीं है, क्रोध के
समान और कोई अग्नि नहीं है और ज्ञान से बढकर और कोई सुख नहीं है।
जन्ममृत्युं हि यात्येको भुनक्त्येकं
शुभाशुभम् ।
नरकेषु पतत्येक एको याति परां गतिम्
।।१३।।
सोरठा --
जन्म मृत्यु लहु एक, भोगै है इक शुभ अशुभ ।
नरक जात है एक, लहत एक
ही मुक्तिपद ॥13॥
अर्थ -- संसार के मनुष्यों में से
एक मनुष्य जन्म मरण के चक्कर में पडता है, एक
अपने शुभाशुभ कर्मों का फल भोगता है एक नरक में जा गिरता है और एक परम पद को
प्राप्त कर लेता है।
तृणं ब्रह्मविदः स्वर्गस्तृणं
शूरस्य जीवितम् ।
जिताक्षस्य तृणं नारी निःस्पृहस्य
तृणं जगत् ।।१४।।
दोहा --
ब्रह्मज्ञानिहिं
स्वर्गतृन, ज़िद इन्द्रिय तृणनार
।
शूरहिं तृण है जीवनी, निस्पृह कहँ संसार ॥14॥
अर्थ -- ब्रह्मज्ञानी के लिये
स्वर्ग तिनके के समान है। बहादुर के लिए जीवन तृण के समान है जितेन्द्रिय को नारी
और निस्पृह के लिए सारा संसार तृण के समान है।
विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या
मित्रं गृहेषु च ।
व्यधितस्यौषधं मित्रं धर्मो मित्रं
मृतस्य च ।।१५।।
दोहा --
विद्या मित्र विदेश में, घर तिय मीत सप्रीत ।
रोगिहि औषध अरु मरे, धर्म
होत है मीत ॥15॥
अर्थ -- परदेश में विद्या मित्र है,
घर में स्त्री मित्र है। रोगी को औषधि मित्र है और मरे हुए मनुष्य
का धर्म मित्र है।
वृथा वृष्टिस्समुद्रेषु वृथा तृप्तेषु
भोजनम् ।
वृथा दानं धनाढ्येषु वृथा
दीपोऽदीवाऽपि च ।।१६।।
दोहा --
व्यर्थहिं वृष्टि समुद्र
में, तृप्तहिं भोजन दान ।
धनिकहिं देनों व्यर्थ है, व्यर्थ दीप दीनमान ॥16॥
अर्थ -- समुद्र में वर्षा व्यर्थ
है। तृप्त को भोजन व्यर्थ है। धनाढ्य को दान देना व्यर्थ और दिन के समय दीपक जलाना
व्यर्थ है।
नास्ति मेघसमं तोयं नास्ति चात्मसमं
बलम् ।
नास्तिचक्षुः समं तेजो नास्ति
धान्यसमं प्रियम् ।।१७।।
दोहा --
दूजो जल नहिं मेघ सम, बल नहिं आत्म समान ।
नहिं प्रकाश है नैन सम, प्रिय अनाज सम आन ॥17॥
अर्थ -- मेघ जल के समान उत्तम और
कोई जल नहीं होता। आत्मबल के समान और कोई बल नहीं है। नेत्र के समान किसी में तेज
नहीं है और अन्न के समान प्रिय कोई वस्तु नहीं है।
अधना धनमिच्छन्ति वाचं चैव चतुष्पदः
।
मानवाः स्वर्गमिच्छन्ति
मोक्षमिच्छन्तिदेवताः ।।१८।।
दोहा --
अधनी धन को चाहते, पशु चाहे वाचाल ।
नर
चाहत है स्वर्ग को, सुरगण
मुक्ति विशाल ॥18॥
अर्थ -- दरिद्र मनुष्य धन चाहते
हैं। चौपाये वाणी चाहते हैं। मनुष्य स्वर्ग चाहतें हैं और देवता लोग मोक्ष चाहते
हैं।
स्त्येन धार्यते पृथ्वी स्त्येन
तपते रविः ।
स्त्येन वाति वायुश्च सर्वं सत्ये
प्रतिष्ठितम् ।।१९।।
दोहा --
सत्यहि ते रवि तपत हैं, सत्यहिं पर भुवभार ।
चले पवनहू सत्य ते, सत्यहिं सब आधार ॥19॥
अर्थ -- सत्य के आधार पर पृथ्वी
रुकी है। सत्य के सहारे सूर्य भगवान् संसार को गर्मी पहुँचाते हैं। सत्य के ही बल
पर वायु बहता है। कहने का मतलब यह कि सब कुछ सत्य में ही है।
चला लक्ष्मीश्चलाः प्राणश्चले
जीवितमन्दिरे ।
चलाऽचले च संसारे धर्म एको हि
निश्चलः ।।२०।।
दोहा --
चल लक्ष्मी औ प्राणहू, और जीविका धाम ।
मह चलाचल जगत् में, अचल धर्म अभिराम ॥20॥
अर्थ -- लक्ष्मी चंचल है,
प्राण भी चंचल ही है, जीवन तथा घर द्वार भी
चंचल है और कहाँ तक कहें यह सारा संसार चंचल है, बस धर्म
केवल अचल और अटल है।
नराणां नापितो धूर्तः पक्षिणां चैव
वायसः ।
चतुष्पदां श्रृगालस्तु स्त्रीणां
धुर्ता च मालिनी ।।२१।।
दोहा --
नर में नाई धूर्त है, मालिन नारि लखाहिं ।
चौपायन में स्यार है, वायस पक्षिन माहिं ॥21॥
अर्थ -- मनुष्यों में नाऊ,
पक्षियों में कौआ, चौपायों में स्यार और
स्त्रियों में मालिन, ये सब धूर्त होते हैं।
जनिता चोपनेता च यस्तु विद्यां
प्रयच्छति ।
अन्नदाता भयत्राता पञ्चैते पितरः
स्मृताः ।।२२।।
दोहा --
पितु आचारज जन्म पद, भय रक्षक जो कोय ।
विद्या दाता पाँच यह, मनुज पिता सम होय ॥22॥
अर्थ -- संसार में पिता पाँच प्रकार
के होते हैं। ऎसे कि जन्म देने वाला, विद्यादाता,
यज्ञोपवीत आदि संस्कार करने वाला, अन्न
देनेवाला और भय से बचानेवाला।
राजपत्नी गुरोः पत्नी मित्र पत्नी
तथैव च ।
पत्नी माता स्वमाता च पञ्चैता मातरः
स्मृता ।।२३।।
दोहा --
रजतिय औ गुरु तिय, मित्रतियाहू जान ।
निजमाता और सासु ये, पाँचों मातु समान ॥23॥
अर्थ -- उसी तरह माता भी पाँच ही
तरह की होती हैं। जैसे राजा की पत्नी, गुरु
की पत्नी, मित्र की पत्नी, अपनी स्त्री
की माता और अपनी ख़ास माता।
इति चाणक्ये पञ्चमोऽध्यायः ॥5॥
आगे जारी............ चाणक्यनीति अध्याय 6
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